वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 41
From जैनकोष
अनाद्यनंतमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम् ।
जीव: स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ।।41।।
375―बाह्य में सर्वत्र आनंद लाभ का अभाव―हम आप सभी प्राणी चाहते यह है कि सच्चा आनंदरस भरपूर सदाकाल रहे और प्रयत्न भी इसलिये करते हैं हर एक काम करके, दुकान करके, घर बसाकर, झगड़ा करके, इतना तक कि आत्महत्या भी करके चाहते तो वे यही हैं कि मेरा दुःख मिट जाये और आनंद हो । लेकिन ये सब उपाय आनंद के नहीं है । आनंद का उपाय बहुत सुगम साफ, स्पष्ट, सीधा है । थोड़ा ही उपयोग लगायें, थोड़ा ही दिल से सोचे तो उपाय मिल जायेगा और वह उपाय इतना सुगम है कि उसको फिर यह कभी भूल नहीं सकता । वह उपाय क्या है? अपने आपको जान ले कि मैं क्या हूँ । सब उपाय मिल जायेगा । जो आनंद चाहता है जब उसका ही पता नहीं है कि कौन चाहता है आनंद तो फिर जिसने जैसा बहकाया वैसा बहक गए, यह मैं चाह रहा हूं । भीतर में जो विकल्प कर रहा है उस रूप जानकर सोच रहे हैं कि यह हूँ मैं और मुझे आनंद चाहिए, तो इससे आनंद नहीं मिलता । यही कारण है कि हर एक पुरुष अपने जीवन में बहुत-बहुत सुविधायें बनाने की सोचता है कि इतना धन कमा लें, इतना काम बढ़ा लें फिर आनंद से रहेंगे, पर होता क्या है कि उतना सब कुछ हो जाने पर तृष्णायें और आगे की बढ़ जाती हैं जिससे उन्हीं समस्याओं में फिर उलझ जाते हैं । बैचेनी और बढ़ जाती है । आनंद नहीं मिल पाता । अरे आनंद इन बाह्य पदार्थों में कहाँ धरा है? मोही जीव बड़े परेशान हैं बाहर में आनंद की तलाश करके, पर वहाँ कहाँ धरा है आनंद? और तृष्णा में आनंद रखा है क्या? सबका अपना―अपना अनुभव बता रहा होगा कि तृष्णा करने के फल में सदा बैचेनी ही बैचेनी रही, मान लो किसी ने अपने मनमाफिक सुविधायें बना ली तो उसके सामने कोई न कोई असुविधा की दो बातें सामने खड़ी ही हो जाती हैं, और नहीं तो कोई इष्ट का वियोग हो या अनिष्ट का संयोग हो, कोई न कोई बात दुःख की सामने आ खड़ी होती है । तो आनंद पाने की जगह नहीं वह धाम नहीं जहाँ कि मोही रात दिन घूमा करते हैं ।
376―प्रभुमूर्ति के दर्शन से आनंदधाम का दिग्दर्शन―मंदिर में आते ही मूर्ति के दर्शन करते ही आपको पता पड़ जाता है कि ओह आनंद तो इस मार्ग में है, खूब परख लो, और जिसको बहुत चोटें नहीं लगी वह बहुत चोटों की मार सहकर बाद में सीख लेगा कि आनंद का मार्ग तो यह है । बात उस मूर्ति को देखकर यह शिक्षा मिलती है कि बड़े-बड़े महापुरुषों ने यही पंथ अपनाया है । आनंद तो इसी पद में है और जगह आनंद नहीं है । उस मूर्ति को देखकर यह सब शिक्षा मिलती है, जगत में ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ आत्मा का लाभ हो, सुख हो । इसलिए कहीं आने जाने की जरूरत नहीं है, यह वह मूर्ति बतला रही है । बस पैर में पैर फंसाकर यहीं बैठ गए । जगत में कहां जाना? जगत का कोई काम करना योग्य नहीं है, कि जिस काम को कर लिया जाये तो आत्मा को लाभ मिले । कोई काम बाहर में कर सकने में समर्थ भी नहीं है, यहाँ, हाँ पुण्य योग से बन जाये वह बात और है । आत्मा तो अपने में अपने भाव बनाता है, इसके अतिरिक्त बाहर में कुछ नहीं करता । यह जानकर प्रभु देखो हाथ में हाथ रखकर बैठे हैं । क्या करना है बाहर में? कुछ करने योग्य ही नहीं । लोग तो अपने-अपने मन में बात बहुत विचारते हैं और शेखचिल्ली की भाँति मन में खुश भी होते हैं । बाहर की चीज दिखी, खुश हुए, मौज माना, अरे बाहर में कोई चीज देखने योग्य नहीं हैं । कोई चीज यहाँ ऐसी नहीं जिसे देखकर आत्मा का मोक्षमार्ग बनें सच्चे आनंद का उपाय बनें । बाहर की कोई वस्तु ऐसी नहीं इसलिए वे प्रभु नासाग्र दृष्टि से बैठे है, और ध्यान ऐसा लगाया हैं कि मानों उन्हें कहीं कुछ बाहर में देखने की आवश्यकता ही न रही । यही उपाय बने हम आपका तो वहाँ हम आपको आनंद मिलेगा । तो कम से कम इतनी बात समझकर, अपना व्यवहार ऐसा रहे कि किसी के प्रति विरोध न हो, किसी के प्रति घृणा न जगे, किसी के प्रति द्वेष न जगे सब जीव है, सब कई-कई भवों में अपने भाई बंधु हुए होंगे । न जाने कितने ही भव अब तक पाये है । यहाँ कौन मेरा साथी, कौन मेरा मित्र? बस जान देख लिया, अगर ऐसी वृत्ति रहेगी तो यहाँ आपका भला है और ऐसी वृत्ति न रहेगी तो आपका भला नहीं हैं यहाँ बाहर में सारभूत चीज कुछ नहीं है । सारभूत चीज अपने आपके अंदर देखो ।
377―स्वयं सहज आत्मपरीक्षण―देखो एक उपाय करके अपना आनंदधाम । इतना निर्णय बना लेने के बाद यत्न करो । क्या? कि जगत में एक परमाणु मात्र को ग्रहण करने में इस आत्मा को शांति नहीं ऐसा निर्णय परिपक्व बना लेवें । फिर असार है सब इसलिए अब में किसी भी बाह्य वस्तु का चिंतन न करूंगा, विकल्प न करूँगा ऐसा एक बार तो सब बात का निश्चय करें । यह धर्म के प्रसंग की बात कह रहे हैं । छोड़ दीजिए सब ख्याल, कहाँ फसना? आप कहेंगे कि मेरी स्त्री आज्ञाकारिणी है, पुत्र आज्ञाकारी है, मेरी स्त्री तो बहुत ही सुंदर है उसका स्नेह तो मेरे से छूट ही नहीं सकता....अरे भाई काहे की सुंदरता? उन देवांगनाओं से तो सुंदर नहीं है जिनके शरीर में न पसीना, न खून, बड़ा तेजस्वी शरीर वैक्रियकशरीर, और मान लो सुंदर भी है तो वह सुंदरता भी काहे की सुंदरता? वह कोई सारभूत चीज तो नहीं । जो विवेकी देव होते हैं वे उन सुंदर देवांगनाओं से भी विरक्त रहते हैं तो सब तो बाहरी चीजें है । यह गृहस्थी तो आपके लिए एक फसाव है, हाँ एक जीवन का निर्वाह अच्छी तरह से चलता रहें और प्रभु की भक्ति करके, आत्मा की उपासना करके, आत्मा का उद्धार करने का पौरुष कर लें, इसके लिए एक सुविधा कमेटी का निर्माण किया है गृहस्थ ने । कोई जीव यहाँ किसी का लगता नहीं, सब जीव कोई किसी भव से आये कोई किसी भव से, जैसे चारो ओर से चलते हुए मुसाफिर किसी एक चोराहे पर आकर एक दूसरे से मिलते हैं, बस एक दो मिनट को मिले, राम-राम किया और सब अपने-अपने निर्दिष्ट स्थान को चले जाते हैं, ठीक ऐसे ही इस परिवार में जिन जिनका समागम हुआ वे कोई किसी गति से आये कोई किसी गति से, सब थोड़े से समय के लिए एक जगह इकट्ठे हुए, यह 10-20-50-100 वर्ष का जीवन इन अनंत काल के सामने कुछ नहीं है, यह समुद्र में बूंद बराबर भी गिनती रखता क्या? नहीं रखता । तो फिर इस थोड़े से समय के लिए क्यों इनमें मोह ममता करना, मोह ममता करने का फल तो दुर्गतियों में जन्ममरण करना है । अब अपने जीवन की कुछ दिशा मोड़ें, ज्ञानवर्द्धन करके स्वाध्याय द्वारा, पढ़ने से, सुनने से, सत्संग से एक बना लीजिए अपना वास्तविक प्रोग्राम । घर में हैं, समय पर सब कुछ करना पड़ता है करें, मगर धर्म के हेतु, धर्म के ढंग का एक ज्ञान-प्रभावक प्रोग्राम बनायें । आनंद बाहर कहीं कुछ न मिलेगा । आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है । अपने आत्मा को देखो इस समय अशुद्ध है आत्मा, रागद्वेष विकल्पादि करने वाला बन रहा, मगर स्वरूप तो देखो क्या आत्मा का स्वरूप ऐसा है कि वह विकार करें । किसी भी पदार्थ का स्वरूप अपने आपके ही मात्र निमित्त से विकार करने का काम नहीं करता । जो जिसका स्वभाव है वह उसी के अनुसार चलेगा । तो जब मैं हूँ तो मेरा काम मेरे स्वभाव के अनुसार रहने का है, मगर ये विकार आये हैं, विकल्प उठते हैं, कषाय उठते हैं, यह सब कर्म उपाधि की झलक है । तुम तो पवित्र हो । ऐसा अपने आपमें निरखें कि मैं वास्तव में क्या हूँ ।
378―आत्मस्वभाव की परख के उद्यम में अनाद्यनंतता का परिचय―वास्तव में आत्मा क्या है, इसकी पहिचान यो बनेगी कि शरीर न हो मेरे में, कर्म न हो मेरे में, ये राग-द्वेष विचार विकल्प आदि के उपद्रव ये चित्त में न आयें तो उस समय यह जीव किस स्थिति में रह सकता है? उससे स्वभाव की परख बनती है कि यह तो ज्ञातादृष्टा रहेगा, चैतन्यमात्र रहेगा । अपने आपको जान लो―अच्छा बतलाओ यह आत्मा कब से है? किस दिन से बना है? अगर मानो कि अमुक दिन से बना तो कोई चीज बनती है तो किसी चीज से ही तो बनती है । जैसे यहाँ घड़ा बना तो किसी चीज से ही तो बना, चाहे मिट्टी से बना चाहे लोहा तांबा वगैरह से बना, किसी दिन से किसी चीज से बना । यह आत्मा भी किसी चीज से किसी दिन बनाया गया है क्या? अरे आत्मा स्वयं सत् है, अनादि अनंत है, यह सारा लोक भी अनादि से है, अणु-अणु अनादि से हैं । किसी का कोई निर्माण नहीं करता । केवल पदार्थ में परिणति दशा, अवस्थायें बनती हैं, बिगड़ती हैं, नई होती है पुरानी होती है मगर चीज वही की वही सदा रहती है । तो आत्मा को किसी ने बनाया नहीं । मैं अनादिकाल से हूँ । यह ज्ञान प्रकाश, ज्ञानज्योति यह अनादिकाल से है । यद्यपि विषय कषाय की हवा से डगमग हो ज्ञानप्रकाश और इसी की धूल से इसका प्रकाश मंदा सा हो रहा है । मगर वह ज्ञानज्योति अनादि से स्वरूप में है, यह कब तक रहेगा । अपने-अपने आत्मा की बात सोचो-मैं आत्मा ज्ञानज्योति रूप हूँ, और यह ज्ञानज्योति, यह आत्मा कब मिट जायेगी? कभी नहीं । जो भी चीज है वह कभी मिटती नहीं । जैसे मानो एक घड़ा मिट गया, कपाल बन गया, या बहुत बारीक बन बनकर मिट्टी रूप बन गया फिर भी उसका सत्त्व नहीं मिटा, वह मिट्टी समय पाकर कपास का पेड़ बन गई, फिर कपास रूप बनी, फिर कपड़े रूप बनी, कुछ भी परिणति बने पर उसका सत्त्व तो नहीं मिटा । जो भी चीज है वह कभी मिटती नहीं । जो आत्मा है वह कभी मिटता नहीं, अनंत काल तक रहेगा । लोग मरण का भय करते हैं । भला बतलाओ―जो पुराना घर है उसमें रहना पसंद नहीं आ रहा है । नया मकान बनाया, अब पुराने मकान को छोड़कर नये मकान में जाते समय तो लोग उद्घाटन करते, खुशियां मनाते, बताओ नये मकान में कोई रोता हुआ भी जाता है क्या? नहीं । हँसता हुआ जाता है । तो जब यह शरीर पुराना हो गया, वृद्ध है, कभी मरे, इसे छोड़कर एक नये शरीर में ही तो जाता है, वहाँ रोने की क्या बात? जो जायेगा उस पर ही जब दृष्टि नहीं है, दृष्टि लगा रखा है बाहरी रूपरंग आकार वाले शरीर में, तब तो फिर रोने के सिवाय और कोई चारा नहीं, रोना ही पड़ेगा, और जिसे अपने आपकी सुध है वह क्यों रोवेगा? पुराना मकान छोड़ा नये मकान में जा रहा, इसमें रोने की बात क्या? देखो मरण समय में सोच सोचकर दुःखी मत होओ कि मेरा यह कितना अच्छा भला परिवार था, हम से छूटा जा रहा है,....अरे तुम तो जिस नये शरीर में पहुंचोगे वहाँ नया परिवार फिर हाजिर हो जायेगा । और फिर उन परिजनों की चिंता क्या करना, उनका जैसा भाग्य होगा वैसा उन्हें होगा । बस हम तो अपने ज्ञानस्वरूप में ही रम रहे हैं, बस यह ही सारभूत काम है, इसको छोड़कर अन्य कोई सारभूत काम नहीं है ।
379―आत्मा के अचल स्वभाव की परख―यह आत्मा की बात चल रही कि मैं अनादि हूँ, अनंत हूँ, अचल हूँ, मेरा स्वरूप कहीं चलित नहीं होता । देखो कभी कीड़ा मकोड़ा की पर्यायों में भी थे, पृथ्वी, जल, अग्नि आदिक थे, निगोद जैसी दशाओं में भी थे । बड़ा अंधेरा छाया था । वहाँ खुद का भी इस आत्मा को कुछ पता न था, बड़ी निम्न दशा थी, पर अब कुछ सुयोग हुआ सो एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय आदिक की पर्यायों से उठ-उठकर आज इस मनुष्य की पर्याय में आ गया । कुछ समय बाद यह पर्याय भी मिट जायेगी, पर मैं आत्मा कभी मिटने वाला नहीं । मैं अपने स्वरूप से कभी चलित नहीं होता हूँ, और फिर इस आत्मा को कई लोग ऐसा सोचते हैं कि हमें कोई समझा जाये मुझे ज्ञान नहीं है मेरे आत्मा का, अरे किसी के समझाने से न समझेंगे अपने आत्मा को, आप दूसरे से थोड़ी बात चलायेंगे, बड़ा दिमाग भी लगायेंगे, पर समझ बनेगी तो अपने आपमें ही बनेगी । जब कुछ आत्मा में तेज जगता है, आत्मा का अनुभव होता है तो अपने आपका ज्ञान होता है, दूसरे में नहीं, तो ऐसे इस चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व को जो अंतरंग में निरंतर जगमग हो रहा है चकचकायमान है निरंतर प्रकाशित है उसको देखें ।
380―तृष्णा से दूर होकर आत्मज्ञान में बढ़ने के पौरुष का संदेश―अंतस्तत्त्व में यह मैं हूँ, यह बात बन सके तो जीवन सफल है और यह बात यदि न बन सके तो फिर किस काम का जीवन? कुछ भी बात बना दी जाये तो भी अपने आपका तो मार्ग निकला नहीं है । लोग तो कह बैठते है कि साहब हमें तो अपने काम से ही फुरसत नहीं मिलती, तो ठीक है, खूब रात दिन धन कमाते रहो, जोड़-जोड़कर रखते रहो, कम से कम गरीबों के, दूसरे के, धर्म के कार्यों में तो काम आयेगा ही । मगर 24 घंटे काम कर कौन सकता है? कमाई का काम सरकार ने खुद सिर्फ 8 घंटे का बाँध दिया है, जब ऐसी बात है तो 7-8 घंटे रोज काम सम्हाल लो, मगर बाकी समय बहुत सा बचता है कि नहीं? बचता तो है मगर उसे गप्प सप्प में, चुगली, निंदा आदिक में बिता देते । ये सब व्यर्थ के काम छोड़ दो । जिसको कल्याण चाहिए उसे इन गप्प के कामों का परित्याग करना होगा । कल्याणार्थी जनों का अगर कभी गप्प करने का भी जी चाहता है तो वे ऐसी गप्प करेंगे कि जिसमें कोई न कोई धर्म की बात होगी । समय का सदुपयोग करो, ज्ञानवर्द्धन करो । तो यहाँ आत्मा को समझना है, मेरा आत्मा स्वयं चैतन्यस्वरूप है, और भीतर में जगमग हो रहा है । मेरे में जब मेरा है तब कोई विचार विकल्प नहीं होता । इस उपयोग को यहाँ फिट करें । यह उपयोग बाहरी पदार्थों में फिट नहीं हो पा रहा, क्योंकि बाहर में उपयोग लगने से वह बाहरी पदार्थ मिट जाता । उपयोग बेचारा यों ही बाहर लौट आता । अव्वल तो यह उपयोग बाहर भी नहीं लगा पाते । इसमें ऐसी चंचलता है कि छूदकर थोड़ा इसे जाना थोड़ा उसे जाना, इस तरह । इस उपयोग को आत्मा में लगाओ । अपने आत्मा का स्वरूप समझिये कि मैं एक आत्म पदार्थ हूँ । शरीर से निराला हूँ, शरीर से जुदा हूँ, उन कर्मों का जो रस यहाँ बिखर रहा है, अंधेरा छा रहा है, झाँकी जग रही है, रागद्वेष बन रहे हैं ये भी मैं नहीं हूँ । मैं तो जो अपने स्वरूप में हूँ सो हूँ । सो क्या हूँ? एक चैतन्य मात्र ।
381―लोकोत्तम अंतस्तत्त्व के प्रकाशन का महत्त्व―यह चैतन्यतत्त्व बड़े उत्तम तेज रूप से मुझमें प्रकाशमान है । तीन लोक का नाथ ईश्वर तो खुद के अंदर दबा पड़ा है उसका कुछ भी ख्याल नहीं कर रहे हैं, यह कितना बड़ा पाप का काम है । यहाँ ही जब कोई किसी को दाबकर रखता है तो वह पाप का काम समझा जाता है, फिर तीन लोक का नाथ जो परमपवित्र है । भगवान आत्मा है, इसे दबा रखा है तो इसमें कितना बड़ा पाप कहा जाये? यह तो एक महान पाप का काम है । इसके फल में इस जीव को कीट, पतिंगा, पशु, पक्षी आदिक को नाना योनियों में जन्ममरण करना पड़ता है । यह है महापाप, मिथ्यात्व । इसमें तो अपने आपकी कुछ सुध भी नहीं हो पाती कि मैं क्या हूँ । तो हे आत्मज्ञानी पुरुष, आत्मा से अतिरिक्त कार्य बुद्धि में कुछ मत लाओ ।
हां करने पड़ते हैं तो वह बात एक दूसरी है । वे तो एक विवशता से करने पड़ते हैं । कैदी लोग भी तो कैद के अंदर कोई काम करना नहीं चाहते मगर पुलिस के डंडों के बल से उन्हें सब काम करने पड़ते हैं । उस कैद में रहते-रहते कुछ कैदी ऐसे भी पाये जाते हैं जो कि कैद में रहते, परिस्थितिवश सब काम करने पड़ते फिर भी वे उस कैद में ही रहना पसंद करते हैं । कैद से बाहर होना उन्हें पसंद नहीं, क्योंकि कम से कम उन्हें समय पर रोटियाँ तो मिल जाती हैं, या कैदीजनों में परस्पर में ऐसा प्रेम व्यवहार बन जाता कि वे वहाँ से जाना पसंद नहीं करते । तो ऐसी ही प्रकृति के लोग तो यहाँ संसार में बस रहे हैं । मूर्खजन मोहरूपी कारागार में, कुटुंबरूपी बेड़ी से खूब जकड़े हुए हैं, रात दिन बड़े-बड़े पराधीनता के दुःख उठा रहे हैं फिर भी वे उन्हीं के अंदर रहना पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें भी कम से कम समय पर खाने को तो मिल जाता है, मौज के कुछ प्रसंगों में रहने को तो मिल जाता है । अरे यह अज्ञानता भरी बात क्यों की जा रही? यह काल तो निरंतर सिर के ऊपर मंडरा रहा है, न जाने कब दबोच दे फिर भी यहाँ मौज मानते हैं? ये सब कष्ट के कारण है, इनमें क्या रमना? यहाँ तो आत्मज्ञान ही एक श्रेष्ठ कार्य है, दूसरा और कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं । आत्मज्ञान के सिवाय बाकी जो काम करने पड़े सो कर तो लीजिए मगर इनमें मग्न मत होओ ।
382―चैतन्य प्रतपन की भावना―इस मन को लगाओ इस त्रिलोकीनाथ सहजस्वरूप के प्रताप में उस आत्मा का परिचय करें और जब चाहे तभी दृष्टि बंद करके इंद्रिय का व्यापार बंद करके भीतर में ही उस ज्ञानज्योति के दर्शन करें और यह देखें कि ये काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक विकार जो आये हैं ये सब मेरे नहीं हैं, ये मेहमान हैं । यदि ऐसी बात ध्यान में आ गई तो वे अपना उपद्रव न छा पायेंगे । यह ही तो भेदविज्ञान की कला है, अपने को सब से निराला जाने । तो यहाँ यह बताया जा रहा कि इन सबको तुम अपना आत्मा न मानों, इन देह, कषाय, इच्छा, आदिक को कलक समझों । ये मैं नहीं हूँ । मैं तो बस यहाँ सब कुछ देखन जाननहार रहूं । जैसे सड़क में चलते हैं तो कितने लोग मिलते हैं ना―बालक, वृद्ध, जवान सभी लोग मिलते हैं, पर वहाँ किसी को देखकर आप रम तो नहीं जाते । बस देख लेते और उपेक्षा करके आगे बढ़ जाते हो जैसे यहाँ दूसरों को देखकर रमने की बात नहीं बनती ऐसे ही घर के लोग भी जिस ज्ञानी को दिख जायें, समझो वह पुरुष अपने आत्मज्ञान की सही धुन बना पाया । कुछ लगता होगा । ऐसा कि यह कोई बात ही बात हो रही है, होने की बात नहीं है तो ऐसी बात नहीं तब ही तो तीर्थंकर निर्वाण को प्राप्त हुए अनेक केवली हुए वे भी तो हम आपकी तरह जीव थे, मनुष्य थे । और-और भी अनेक लोग हुए, आखिर उनका उद्धार कैसे हो गया? तो जीव का उद्धार निश्चित है अगर रत्नत्रय का मार्ग पा ले तो । अपने को बस आत्मा को जानने की यह धुन लगाना चाहिए कि मैं इसे समझूं, इसकी समझ में अन्य कुछ बात समझ में न आवे तो श्रद्धा अपनी ऐसी बनायें कि हमें तो सुनना है, जानना है तब ही तो ज्ञान बनेगा । वही बात सुन-सुनकर कभी ज्ञान बनता है और पहले से ही कठिन जानकर एक रईसी जैसी छांटे तो उसे आत्मज्ञान नहीं हो सकता । कल्याणार्थी को इस आत्मज्ञान की ओर एक विशेष प्रयत्न करना चाहिए ।