वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 42
From जैनकोष
वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नामूर्तत्वमुपास्य पश्यतिजगज्जीवस्य तत्त्वं तत: । इत्यालोच्यविवेचकै: समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा व्यक्तं व्यंजित जीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालंब्यतां ।।42।।
383―आत्मस्वरूप की दृष्टि तजकर बाह्यार्थ के आलंबन में हित की असंभवता―जगत में कोई भी बाह्य पदार्थ इस जीव को आश्रय लेने योग्य नहीं है बाह्य पदार्थों में उपयोग का रमाना, फसाना इस जीव के भले के लिए नहीं है । युक्ति से सोच लो, अनुभव से सोच लो अब तक जीव ने क्या किया इन पंचेंद्रिय के विषयभूत साधनों में ही अपना उपयोग रमा रमाकर अपने आपको कायर बना लेता है । जरा-जरासी बातों में हर्ष होना, खेद होना, ये कायरता के लक्षण है या वीरता के? सो यह कायरता देखो कैसी बीत रही जीव में । रंच बात हुई तो हर्ष माना, रंच बात हुई तो खेद माना । इसने वास्तव में किया क्या? इसने किया परपदार्थों का विषयकरण द्वारा आलंबन । अब क्या करना चाहिए? भाई इन पर पदार्थों का आलंबन छोड़ो और एक निज पदार्थ का आश्रय लो । अच्छी बात । लो आश्रय । अरे आश्रय कैसे मिलेगा? पहले जीव तत्त्व को पहिचाने कि जीव क्या? उसका लक्षण जान लें । हाँ तो लक्षण हम जानें क्या? जाने क्या भाई जो देह वाला है, नारकी है, तिर्यन्च है, मनुष्य है, देव है, जो पर्याप्त है, अपर्याप्त है, एकेंद्रिय दो इंद्रिय आदिक ये सब जीव है, अच्छा-अच्छा अब हम जान गए । आचार्यदेव समझाते हैं कि अभी तुम कुछ नहीं जाने । समझो परखो जीव का लक्षण क्या है?
384―अव्याप्ति अतिव्याप्ति असंभव दोष से रहित लक्षण की निर्दोषता―पहले तो यह ही जाने कि सही पहिचान कर सके वह लक्षण कैसा होना चाहिए? यह बात चल रही हैं जीव को पहिचानने के प्रकरण में उपयोग लगाकर सुनो तो कठिन मालूम न होगा और कुछ कठिन हो तो उस कठिन से बचकर रहना ऐसी बात बनाकर क्या कभी समझी जा सकती है बात? इस जीव के लिए जगत में कुछ भी कठिन न जानना चाहिए । सर्वज्ञ बनता है तो यह ही जीव तो बनता है, इसकी तो कला है । जब अपने आपकी बात है तो समझना कैसे कठिन होगी? यहाँ बतला रहे हैं जीव का यथार्थ लक्षण, जिससे कि जीव की पहिचान बने । तो देखो पहिचान उस चीज से बनेगी जो सही हो । झूठी पहिचान से जीव की पहिचान नहीं हो सकती । तो वहीं तो कहा जा रहा है कि सही बात है यह तुमने कैसे जाना? यह लक्षण निर्दोष है यह तुमने कैसे जाना तो सुनो । सही पहिचान की तरकीब यह है कि उसमें यह देख लो कि जिसकी पहचान कही जा रही पहिचान उस सबमें मौजूद है या नहीं? अगर सबमें मौजूद नहीं है, कुछ में मौजूद है कुछ में नहीं तो वह सही पहिचान नहीं कहलाती । जैसे कोई कहे कि भाई हम पशुओं को नहीं जानते कि कैसे होते हैं पशु? जरा पहिचान तो बताओ जिससे हम समझ जायें ऐसे होते हैं पशु । तो उसने कहा भाई पशुओं की पहिचान सींग है । जहाँ सींग मिले जो जान लो पशु । तो अब वह देखने चला जहाँ सींग हों―सो पशु तो उसने देखा―चूहा बिल्ली, कुत्ता, गधा, घोड़ा आदि, मगर जब इनके सींग न दिखे तो कहा―ये पशु नहीं । तो बताओ पशु की पहिचान सींग कहना गलत रहा कि सही? गलत है, क्योंकि यह लक्षण सभी पशुओं में घटित नहीं होता । यह कहलाता है अव्याप्ति दोष । अ मायने नहीं, व्याप्ति मायने रहना, मायने जिसकी पहिचान करायी जा रही उसमें थोड़े में पाया जावें उसे कहते हैं अव्याप्ति । कोई ऐसा आदमी आया जो कहता है कि हमको गाय की पहिचान बताओ, गाय कैसी होती है? तो उसने कहा देखो―गाय की पहिचान है सींग । जहाँ सींग सो गाय । अब वह पहिचानने चला । बकरी को देखा तो कहा यह गाय है । भैंस देखा तो उसे भी कहा कि यह गाय है । अब उसी ढंग से वह देखने चला तो देखो बहक गया कि नहीं? क्यों बहका कि उसकी पहिचान सही नहीं, क्योंकि सींग गाय के अलावा और बहुत से जीवों के भी पाये जाते हैं । इसे कहते हैं अतिव्याप्तिदोष । लक्षण के दोष की बात कह रहे याने लक्ष्य से भी अधिक में रहना, अलक्ष्य में रहना, तो यह पहिचान ठीक नहीं हुई । अच्छा, कोई कहे कि भाई हमें आदमी की ही पहिचान बता दो । हम झट जान जायें कि आदमी है, तो वह बोला कि आदमी की पहिचान है सींग । वह देखता है तो सींग किसी मनुष्य के नहीं दिखते तो बताओ यह लक्षण बताना सही रहा कि गलत? सही तो न रहा क्योंकि वह लक्षण एक भी आदमी में नहीं मिल रहा, जिसकी पहिचान बता रहे उसमें एक में भी नहीं । इसको कहते हैं असंभव दोष । मायने पहिचान वही सही हैं जिसमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोष न हों ।
385―वर्णादिक रागादिक जीव का लक्षण न हो सकने का कारण―अब ऐसी ही पहिचान बताओ जीव की जिसमें न अतिव्याप्ति दोष आये न अव्याप्ति, मायने जीव की वह पहिचान सबमें मिले । कोई जीव खाली न रहे । अच्छा और देखो इतनी ही बात नहीं ऐसी पहिचान बताओ जीव की जो जीव के अलावा अजीवादिक में हो ही नहीं । तो हम मानेंगे सही बात और देखो―कहीं ऐसी बात न धमक देना कि वह पहिचान जीव में एक में न मिले तो तीन दोषों को बताकर जीव की पहिचान बताओ कि जीव कहते किसे हैं? अच्छा एक भाई साहब आये तो बोले कि हम बताते हैं जीव की पहिचान । हाँ बतलाओ । जीव की पहिचान है रागादिक भाव । जो प्रेम करे द्वेष करे, विचार करे वह कहलाता जीव । जो खाये-पीये, बैठे उठे उसे कहते हैं जीव, माने जिसमें रागद्वेष पाये जायें उसका नाम है जीव । बतलाओ सही कह दिया ना उसने ? सही नहीं कहा, गलत है, क्योंकि रागद्वेष मोह वे सब जीवों में नहीं मिल रहे है । भाई किसमें नहीं मिल रहे? सिद्ध में नहीं मिल रहे । वह कहता है कि तुम्हारी यह झूठ बात है । हमें तो टटोलकर बता दे कि ये हैं सिद्ध इनमें राग नहीं, तो हम मानेंगे । अरे सिद्ध में टटोलकर नहीं परीक्षा करना है । यहाँ ही समझ लो कि जब जगत के इन जीवों में किसी में राग ज्यादा किसी में कम । किसी में और कम? जिसमें ज्ञान बढ़ रहा उसमें राग कम है, जिसमें और अधिक ज्ञान बढ़ा उसमें तो और अधिक राग कम हो गया । इस तरह ज्ञान के बढ़ते-बढ़ते कोई जीव ऐसे भी होते कि जिनके राग बिल्कुल नहीं होता । अच्छा और राग न रहे बिल्कुल तो ज्ञान कितना बढ़ जायेगा? पूरा । अच्छा यह भी जान लो, और यह बताओ कि जब राग राग रहा नहीं, ज्ञानबल बढ़ गया तो वह शरीर कब तक रहेगा । नया शरीर तो न मिलेगा । हाँ नया शरीर तो न मिलना चाहिए, क्योंकि नया शरीर मिलता है रागवश । तो नया शरीर न मिलेगा तो बस जान गए कि यह है सिद्ध । जिसको नया शरीर मिले नहीं, राग रहे नहीं, ज्ञान पूरा हो उसे कहते हैं सिद्ध प्रभु । देखो उन सिद्धप्रभु में राग तो नहीं है । जो कुछ कहा हो कि वर्णादिक रागादिक कषायादिक कम हों सो जीव, यह पहिचान सही तो न रही ।
386―अमूर्तपना जीव का लक्षण न होने का कारण―अब दूसरा भाई उठा, वह बोला-बताओ जीव क्या है? तो देखो जीव वह हैं जिसमें रूप नहीं, रस नहीं, गंध नहीं, स्पर्श नहीं । देख लो अपने मन में । आत्मा में रूप है क्या? रस है क्या? गंध है क्या? नहीं है । तो देखो यह बात ठीक है क्या? जिसमें रूपादिक न हों वह जीव है । याने जो अमूर्त हो सो जीव है । अमूर्तिक कहते हैं रूप, रस, गंध, स्पर्श न होने को । अब बोलो कोई हमारी बात में फर्क डाल सके ऐसा एक गर्व के साथ एक भाई ने कहा । तो आचार्य बतलाते हैं कि सुनो-सुनो क्या कह रहे हो तुम कि जिसमें रूप, रस, गंध स्पर्श नहीं सो जीव याने अमूर्तिक हो सो जीव । अब तुम अपनी बात पर डटे रहना, फिसलना नहीं, क्या बोल रहे कि जो अमूर्तिक है सो जीव । अच्छा चलो, तुम्हारे जीव में यह बात तो छूट गई । बोलो धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य ये अमूर्त हैं कि नहीं? हाँ अमूर्त तो हैं? कोई कहें कि नहीं-नहीं अमूर्त नहीं, हमें तो आकाश नीला-नीला दिख रहा है । हमें तो खूब दिख रहा है । यह नीला है । अरे भाई आकाश नीला नहीं होता । अरे बाबा दिख तो रहा है । वह दिख यो रहा कि आंखें जहाँ तक देख पाती । वहाँ तक तो देखती है और आंखों से देखने का जहाँ क्षेत्र नहीं रहा वहाँ कुछ न दिखा, कुछ न दिखा तो उसका रूप अंधेरा है । नीला नहीं, अंधेरा नहीं, काला नहीं, किंतु आंख की कला ऐसी है कि जहाँ तक दिखे सो दिखे और जहाँ कुछ न दिखा वहाँ के बाद नीला-नीला आ गया, एक बात । दूसरी बात कह सकते हैं कि मेरु पर्वत के चोटी के ऊपर एक विमान है, वह इस रंग का है कि जिसकी आभा से यहाँ की चीजें इस तरह दिख जाती हैं । कुछ भी हो आकाश में रूप नहीं हैं । अब तक इस बात में अड़ रहे थे कि अमूर्त है सो जीव । अब देखो धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये भी तो अमूर्त हैं । तो क्या ये भी जीव हो गए ? ये जीव तो नहीं हैं । तो फिर यह लक्षण कहना सही तो न रहा कि जीव का लक्षण अमूर्त हैं । क्यों सही न रहा? क्योंकि वह लक्षण तो जीव के अतिरिक्त अन्य चीजों में भी पाया गया है ।
387―सदोष लक्षण से लक्ष्य का पहिचान न हो सकने की स्वीकारता―अब जैसे यहाँ कहा मानो कि अमुकचंद को बुला लाओ । कहा कि अमुकचंद की पहिचान क्या? अजी जो नंगे सिर बैठे हैं वे हैं अमुकचंद । अब वहाँ नंगे सिर वाले कई लोग थे, इसलिए वह भी सही लक्षण न बना । कोई कहे कि फलाने मोहल्ले वाले को बुला लाओ । भाई उनकी पहिचान क्या?....टोपी लगाये हैं । ....अब उनमें से बहुत से लोग टोपी नहीं भी लगाये थे तो वे छूट गए ना । जो लक्षण सबमें मिले अन्य में याने अलक्ष्य में न मिले वह लक्षण सही कहलाता है । इस तरह से प्रकरण में अपनी-अपनी बात बोल बोलकर सब थक गए और आचार्यदेव से बोले कि अब तो आप ही जीव की सही पहिचान बताओ ।
388―जीव के निर्दोष लक्षण का आख्यान―आचार्य महाराज कहते हैं कि सुनो―जीव का लक्षण है चैतन्य याने एक ऐसी शक्ति जिससे चेतता है, जानता है देखता है, समझता है । एक विलक्षण पदार्थ है यह । विलक्षण तो सभी होते हैं, क्योंकि सभी पदार्थ अन्य पदार्थों से जुदे हैं । क्या धर्मद्रव्य विलक्षण नहीं जो धर्म का स्वरूप है वह अन्य में है क्या? अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल ये विलक्षण नहीं है क्या? विलक्षण तो सभी द्रव्य होते मगर यह कितना पूज्य महत्त्वशाली है कि यह सभी को जानता है । ऐसी महिमा वाला जीव है हम आपके देह में, घट-घट में, कैसा महिमाशाली, पवित्र चैतन्य स्वरूप लिए है और इसकी क्या से क्या दशा हो रही है । क्या दशा हो रही है ? दुःखी हो रहा है । कोई कहे कि यह तो अपनी योग्यता से दुःखी होता है, तो जीव की योग्यता है तो बताओ, क्या योग्यता अहेतुक है ? अहेतुक हो तो वह कभी मिट नहीं सकती । मिटता वह है जो नैमित्तिक है । जो सहेतुक है वह मिटेगा, जो अहेतुक है, निरपेक्ष है, स्वभाव की चीज है वह कभी न मिटेगा । आप कहेंगे कि सिद्ध भगवान तो क्षण-क्षण में नये-नये केवलज्ञान आनंद से परिणम रहे हैं । उत्तर―भाई इस प्रसंग में परिणमने का अर्थ है विषमता होना । अर्थात् ऐसा परिणमन यह न था और हो गया और कुछ होना यह सहेतुक होता है अहेतुक नहीं । वहाँ और कुछ तो नहीं हो रहा केवलज्ञान, केवलज्ञान चल रहा है । जिस क्षण की जो पर्याय है वह उसी क्षण में है, मगर अहेतुक परिणाम में विषमता नहीं आया करती है । जो-जो पर्याय अनैमित्तिक हैं उनमें अन्यथापन नहीं आया करता है । तो हम आप लोगों में एक चैतन्यशक्ति है, चित्स्वभाव है, जिसका अर्थ जानना समझना है । यहाँ चिद्वर्तन नहीं हो रहा और बड़ी गड़बड़ बातें हो रही है । कभी क्रोध, कभी मान, कभी कुछ, कभी कुछ यह सब कुछ हो रहा है कर्मोदय निमित्त पाकर । इन दोनों का अनादि संबंध है कर्म और अशुद्धता का तभी आ रहा है ऐसा, लेकिन कोई पूछे कि इस कर्मोदय का असर जीव में ही क्यों होना मानते हो? कर्मोदय का निमित्त पाकर यह जीव ही क्यों भ्रांत हुआ? यह देह क्यों नहीं भ्रांत हुआ? तो भाई देह में योग्यता नहीं जीव में योग्यता है । तो देखो योग्यता माने बिना भी उत्तर नहीं आया और निमित्तसन्निधान माने बिना भी उत्तर नहीं आया । किसका? विकार का । तो क्या हालत हो रही है? आज तो यह हालत जो है यह नैमित्तिक है । ज्ञानप्रकाश बने तो ज्ञानबल द्वारा इस हालत को दूर किया जा सकता है ।
389―सदा के लिये दुःख मिटा देने वाले उपाय का चिंतन―देखो काम वह करें जिससे हमेशा के लिए दुःख मिट जाये । बोलो यह बात पसंद है कि नहीं? बात तो पसंद है । काम वह करें जिससे सदा के लिए दुःख मिट जाये । कोई कहे कि यह ही तो काम कर रहे है । देखो मैंने फैक्ट्री खोल रखी है तो इसीलिए ना कि जिससे दुःख सदा के लिए मिट जायेंगे । अरे उसमें दुःख ही दुःख है । अच्छा और काम बताओ ऐसा कि जिस काम के कर लेने से हमेशा को दुःख मिट जायें । अजी अपनी समाज में लीडर बन जावे अथवा राष्ट्र का कोई बड़ा नेता बन जावे, तो ठीक है, मान लो हो गए समाज के लीडर, हो गए देश के कोई महान नेता, पर उससे जिंदगी भर का दुःख मिट जायेगा क्या? अरे वहाँ पर कितनी-कितनी ही वेदनायें बीच-बीच में आती रहती हैं । अच्छा और कोई बात बताओ जिससे दुःख मिटता है । भाई दुःख मिटने की बात अनेक नहीं है । जो उनमें छांटकर कहा जाये कि यह काम कर लें तो दुःख मिट जायेगा । दुःख मिटने का उपाय केवल आत्मा का जो सहज स्वरूप है उस रूप अपना विश्वास बन जाये कि मैं जो यह हूँ, यह ज्ञान बन जाये, इसी की धुन बन जाये, यह उपाय है जिससे सदा के लिए संकट छूट सकते हैं, जिनका दिल बाह्य पदार्थों में है उनको विश्वास नहीं हो रहा है । यह तो कुछ भो नहीं कहा जा रहा है । क्यों नहीं विश्वास हो पा रहा है, क्योंकि इस समय वे संसारिक सुख में मस्त है । सुख में आत्मा की सुध नहीं होती है । हाँ दुःख में तो भला एक बार प्राय: सबको भगवान की याद आ ही जाती है । तो सुख से तो दुःख अच्छा हुआ ना । अगर मान लो अच्छा नहीं मान सकते तो कम से कम समान तो मान लो । एक निगाह से तो यों समझ लेना चाहिए कि सुख से दुःख कहीं अच्छा है और एकांतत: न समझना यह बात है प्रसंग की । लेकिन इतना भी समझने को चित्त नहीं चाहता । तो इतना तो जरूर मान लीजिए कि संसार में सुख दुःख दोनों एक समान हैं, इनमें छटनी न करें कि मुझको सुख मिले और दुःख मिटे । यहाँ का सुख भी दुःख है और दुःख भी दुख है । यों तो जब स्वप्न आता और स्वप्न में आप हीरा, जवाहरात, रत्नों का ढेर पा जाते तो वहाँ कितना खुश होते । मगर वहाँ कुछ सत्य है क्या? सत्य नहीं है । जरा सी निंद्रा भंग हुई कि सब खेल खतम । वहाँ यदि स्वप्न देखने वाला अविवेकी है तो वह तो जगाने वाले से झगड़ भी जाता है । और यदि कोई विवेकी हुआ तो वह समझता कि अरे मैं व्यर्थ ही स्वप्न में सुख मान रहा था, वह तो कुछ भी न था । ऐसे ही यहाँ भी जीवों के प्रकार हैं । कोई तो परिग्रह के पीछे खूब लड़ाई करता है, लड़ करके भी लेता है और कोई यों सोचता है कि अरे परिग्रह चला गया तो क्या चला गया, मेरा तो कुछ था ही नही । तो जब इन असार बाह्य पदार्थों में उपयोग न फँसेगा तो यह अच्छे ढंग पर आयगा, शांति के मार्ग पर आयेगा, उसको यह समझ में आयेगा कि जीव का स्वरूप चैतन्य है और इस चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व की श्रद्धा होने पर ही संसार के ये सारे क्लेश दूर हो सकते हैं ।
390―एक अंतस्तत्त्व की उपासना में सर्वमंगलरूपता का अभ्युदय―भैया ! चिद्विलास का एक ही काम जितना करते बने करें, मगर श्रद्धा में च्युत न होवें । मैं सहजचैतन्यस्वरूप मात्र हूँ । अन्य कुछ नहीं हूँ । अन्य कुछ यहाँ क्या देखो―मुझमें एक कर्मरस प्रतिबिंबित हो रहे हैं और उनकी छाया से यह ज्ञान तिरस्कृत हुआ है, मगर यह ज्ञान, ज्ञानी पुरुष चरित्रमोह से दबे-दबे में भी यह सोच रहा कि मैं तो यह हूँ, यह नहीं । तो यह जीव के लक्षण की बात चल रही है कि जीव का क्या लक्षण है जिससे पहिचान करके एक इस जीव राजा की ही हम उपासना करें । तो जीव का लक्षण कहा गया चैतन्य अन्य कुछ नहीं, रागादिक भाव जीव के लक्षण नहीं हैं । तो कहते हैं कि रागादिक भाव संसारी जीव के लक्षण हो जायेंगे । हाँ संसार के तो लक्षण हैं मगर संसार अवस्था में भी जीव का लक्षण नहीं हैं । संसारी लक्षण तो है राग होना, पर संसारी अवस्था में भी जीव का लक्षण राग नहीं, क्योंकि जो जिसका लक्षण है वह कभी मिटता नहीं हैं । जीव का लक्षण अगर यह राग बन जाये संसार अवस्था में तो न यह राग मिट सकता, न संसार मिट सकता । संसार का लक्षण है राग पर संसार अवस्था में रहने वाले इस जीव द्रव्य का लक्षण राग नहीं । हमें तो यही पहिचानना है जीव का लक्षण । हम मुक्त जीवों में जीव का लक्षण पहचान कर क्या करें? मुक्त जीवों का लक्षण उनकी महिमा जानने का प्रयोजन तो यह है कि हम अपने अंतःस्वरूप का प्रताप समझ सकें । निश्चय उपासना मुक्त जीव की, अन्य जीव की कोई कर ही नहीं सकता, करना तो हमें उपासना है ना और हम हैं संसार में । तो संसार अवस्था में जीव के लक्षण के पहिचानने की बात कही जा रही है । देखो-देखो बीच में आये हुए इस अवस्था में न अटक कर जीव का जो सहज लक्षण है, चैतन्य स्वरूप उस तक निःशंक पहुंचो । ऐसे पहुंचो, जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला एक्सरा यंत्र न तो वस्त्रों में अटकता, न रोम में अटकता, न चाम में अटकता, न खून, मांस, मज्जा आदि में अटकता, सीधे हड्डी का फोटो ले लेता है । ऐसे ही यह ज्ञान दृष्टि है, इस तरह निशंक ले जाओ ज्ञान को अंदर में कि जो देह में न अटके, कषाय में न अटके और एक सहज निर्विकल्प चेतन स्वरूप को ज्ञान विषय करले । ज्ञान में जब यह सहज चैतन्य स्वरूप, सहज ज्ञान स्वरूप भाव, यह ज्ञानप्रकाश जब, ज्ञान में आता है तो ज्ञान वहाँ ज्ञान ज्ञेय की एकता हो जाने के कारण जानने वाला ज्ञान क्या जानेगा? ज्ञान और ज्ञेय की एकता होने के कारण जो एक अद्भुत आनंद प्रगट होता है उस आनंद का अनुभव करके यह जीव जो सम्यक्त्व का प्रकाश पाता है, उस प्रकाश के कारण अब यह किसी भी परतत्त्व में बहकता नहीं है । जानो-कि मैं जीव हूँ । मेरा चैतन्य स्वरूप मेरा सर्वस्व है । यही सर्व आनंद का निधान है ।