वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 57
From जैनकोष
अज्ञानतस्तु सतृणाभ्यवहारकारी, ज्ञानी स्वयं किल भवन्नपि रज्यते य: ।
पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद᳭ध्या, गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम् ।।57।।
562―विकार का विधान―यह जीव अज्ञान से स्वयं ही विकल्परूप होता हुआ अपना स्वाद लेता है । तो यह ज्ञान कर्मफल और ज्ञानरस इन दोनों को मिलाकर मानों स्वाद लेता है और उसमें भी स्वाद समझता है कर्मरस का । जीव में विकार आया है इन सबका अनुभव हुआ । मैं विह्वल हूँ, दुःखी हूँ, रागी हूँ, मोही हूँ, यह बात सबको ज्ञात है । इसी बारे में यह निर्णय बनायें कि आखिर यह विकार बन कैसे गया? बन यों गया कि यद्यपि मैं आत्मा अपने स्वभाव से ज्ञानमात्र हूँ ज्ञान का ही काम मुझमें चलता, निरंतर मैं जानता रहूँ, यह धारा मेरी कभी नहीं टूटती । अनादिकाल से अब तक निरंतर चाहे किसी भव में मैं गया मगर जानता ही रहा । जानने की धारा कभी टूटी नहीं । क्रोध आया तो जानने में ही क्रोध को मिलाकर क्रोध के स्वादरूप से जानता रहा । क्रोध मिटा, घमंड आया तो घमंड के विकल्परूप से यह ज्ञान को परिणमाता रहा । कोई सा भी भव मिला हो, यह ज्ञान हमेशा ही वर्तता, क्योंकि अग्नि की गर्मी किसी क्षण को मिट जाये तो अग्नि ही मिट जायेगी, ऐसे ही आत्मा का यह ज्ञान, जानन किसी समय न रहे तो फिर जीव गया । जीव का ज्ञान, जानन किसी रूप में रहे, कितना ही रहे एक इंद्रिय से रहे, मन से रहे, निरपेक्ष रहे मगर ज्ञान प्रत्येक जीव में रहता ही है । ज्ञानरहित जीव कभी नहीं होता, क्योंकि ज्ञान जीव स्वभाव ही है, सो ज्ञान तो जानता ही रहता है । ज्ञान का काम कभी बंद नहीं होता, वह ज्ञान जान ही रहा है । इस वक्त भी जान रहा । हम आप इस समय भी जान रहे हैं बराबर, मगर उस जानने के साथ एक दूसरी वस्तु लगी है आत्मा में क्या? मोहकर्म । उस मोहभाव का जो कर्म में पड़ा हुआ है, संबंध पाकर निमित्त पाकर ज्ञान जो परिणम रहा था अपनी चाल से उसमें एक यह मोह का कलंक लिपट गया, कीचड़ लिपट गया, इस उपराग से ज्ञान विपरीत संकल्प विकल्परूप परिणम जाता ।
562―विकार के विधान की विधि के दृष्टांत―जैसे बिजली जलायी सफेद उजेला है वह तो अपना सफेद प्रकाश करने का काम कर ही रहा है हो ही रहा है, पर उसके साथ एक नई चीज लग जाये, एक हरा कागज लगा दिया, हरा रंग पोत दिया, वह प्रकाश हरा हो गया अब वह तो परिणम रही थी बिजली अपने प्रकाशरूप । हरे का संबंध होने से हरे रूप परिणम गया, ऐसे ही और दृष्टांत लो । एक दर्पण है, स्वच्छ दर्पण तो अपने में झिलमिल-झिलमिल रूप बनाता ही रहता है । वह तो उसका ही काम है, स्वच्छता है, कहाँ जाये? दर्पण अपने में झिलमिल-झिलमिल वह बराबर चलता ही रहता है । अब उसके सामने आ गया मानो कोई पदार्थ, उसके आगे रख दिया मानो कोई वस्तु, तो अब उसका निमित्त पाकर जो झिलमिल कर रहा था दर्पण वह प्रतिबिंबरूप, विकाररूप परिणम गया । विकाररूप अब परिणमा, प्रतिबिंबरूप जब बन गया, स्वच्छता के विकाररूप जब दर्पण बन गया तो कभी झिलमिल मिटता नहीं, वह झिलमिल रूप मिट नहीं गया । यदि उस काल में झिलमिल मिटे तो प्रतिबिंब ठहर नहीं सकता । जिस वस्तु में झिलमिल नहीं उसमें प्रतिबिंब नहीं आता । जैसे कोई साधारण भींट हैं तो उसमें तो किसी का फोटो नहीं आता, क्योंकि उसमें वह झिलमिलाहट नहीं, स्वच्छता नहीं । तो जब दर्पण में विकार बन रहा उस समय वहाँ पर पदार्थ का सान्निध्य है और उसका निमित्त पाकर दर्पण झिलमिलरूप बन गया । ऐसी ही योग्यता है दर्पण में कि सामने कोई चीज रखी तो दर्पण अपने को झिलमिलरूप में प्रतिबिंब रूप बसा लेगा । उस प्रतिबिंबित रूप बनने के समय में भी झिलमिल अंदर है । अगर झिलमिल स्वरूप न रहे तो प्रतिबिंब नहीं ठहरता, ऐसे ही आत्मा में पहले बाँधे हुए कर्मों का उदय आया, उसका निमित्त पाकर, वह ज्ञान ज्ञानरूप तो परिणम रहा अंत: स्वरूप जैसा है वैसी वृत्ति तो कर रहा, पर साथ ही उपाधि सान्निध्य से ऐसा विकल्प रूप परिणम गया । सो इस जीव की ऐसी कभी स्थिति न रही अब तक कि पहले कभी शुद्ध हो, केवल शुद्ध झिलमिल चल रही हो और अब उसमें रागद्वेष मोह आया, अनादि से ही ये पर तत्त्व कर्म साथ लगे हैं, अनादि से ही इस जीव का ज्ञान विकल्प करके विकल्परूप बन रहा है, विकल्प उत्पन्न होने का यह कारण है, यह विधि है, यों हो रहा है, अब विकार अगर पसंद नहीं है तो उस विधि को मिटा दो अर्थात् ज्ञानबल को ऐसा बढ़ाओ कि कर्म उदय में आये, कर्मरस आये, लेकिन यह मैं जानूं कि मेरा तो यह ज्ञानमात्र स्वाद है, केवल जानना यह तो मेरी चीज है, पर मानना उल्टा कि यह मेरा हैं, फलाना है, अच्छा है, सो वह चीज मेरी नहीं, और जो विकल्प जगे ये विकल्प भी मेरे स्वरूप नहीं, ऐसा जो भेद करे वह मोह से हटकर अपने ज्ञान में आयेगा ।
563―अज्ञान से ज्ञान विपरिणमन में कर्मरस का आस्वादन―जो न कर सके कर्मरस व ज्ञानरस में भेद, उसकी दशा क्या है कि कर्मरस को और ज्ञान को मिला कर स्वाद ले रहा है और उसमें भी ज्ञान का स्वाद नहीं मान रहा, किंतु परवस्तु का स्वाद मान रहा । जैसे कुत्ता हड्डी चबाता है तो जोर से हड्डी चबाने से उसके मसूड़ों से खून निकल आता है तो उस खून का स्वाद आया, पर मानता क्या है मूर्खता से वह कुत्ता कि मुझे इस हड्डी से स्वाद आया, सो उस हड्डी को वह नहीं छोड़ता, एकांत में ले जाता, अन्य कुत्तों से बचाता, यही बात कर्मरस की है, यह ही विषयभूत वस्तु की बात है, इस जीव को सदा स्वाद आता है ज्ञान का, अन्य वस्तु का स्वाद नहीं आता, मगर ज्ञान में जो बाह्य वस्तु ज्ञात हुई है स्त्री, पुत्र, मित्रादिक इस ज्ञान में ज्ञेय बन गए हैं; मोह का संबंध होने से और इस इंद्रिय द्वारा ज्ञान होने से यह जीव उस इंद्रिय सुख के कारण यह मानता है कि हमको इन पदार्थों का स्वाद आया । देखो दो बातें हैं―इंद्रियजंय ज्ञान, इंद्रियजंय सुख । इंद्रियजंय सुख क्या कहलाता है; इंद्रियजंय ज्ञान में लोभ होता है सो इंद्रियजंय ज्ञान में हर्ष मानना यह ही है मेरा सुख । आँखों से दिख गया रूप, कोई आकार सुंदर तो वहाँ जो समझा सो तथ्य नहीं, वह अज्ञान लीला है । सुंदर तो कुछ नहीं है दुनिया में, इसकी कषाय में जंच जाये सो सुंदर, इसकी कषाय में जो न जचे सो असुंदर, रूपवती स्त्री हो और पति से झगड़ा चलता हो, मन न मिलता हो, कुछ विकल्प हो तो पति को तो वह सुंदर नहीं जंचती, दूसरे लोगों को भले ही अगर राग है तो वह सुंदर जचे, मगर जिससे विरोध हो गया उसे तो सुंदर नहीं जंचती, तो बाहर में कोई वस्तु न सुंदर है न असुंदर है, राग भाव ही जिस चाहे को सुंदर बना देता है, जिस चाहे को कुरूप बना देता है, यह सब अज्ञान की लीला है ।
564―कषाय में इष्टता का व्यामोह―एक सेठ था, उसके घर एक नई-नई नौकरानी आयी । उसी दिन सेठानी ने उस नौकरानी से कहा―जावो अमुक स्कूल में हमारे बच्चे को नाश्ता व मिठाई दे आवो, तो नौकरानी बोली मालकिन हम तो तुम्हारे बच्चे को जानती भी नहीं, किसे दे आऊँ? तो सेठानी गर्व से बोली―अरे मेरे बच्चे को क्या पहिचानना? उस स्कूल भर में जो सबसे प्यारा, सुंदर बच्चा हो वह मेरा है, उसे अपने बच्चे पर गर्व था । खैर वह नौकरानी पहुंची उस स्कूल में । उसी स्कूल में उस नौकरानी का लड़का भी पड़ता था, वहाँ उसने सब बच्चों को देखा मगर सबसे सुंदर प्यारा उसे अपना ही बच्चा लगा, सो उसी को सारी मिठाई खिलाकर चली आयी, शाम को जब सेठानी का बच्चा घर आया तो माँ से शिकायत की कि माँजी, आज तुमने हमारे वास्ते नाश्ता क्यों नहीं भेजा था? तो माँ बोली―भेजा तो था । (नौकरानी को बुलाकर) क्या तूने मेरे बच्चे को नाश्ता नहीं दिया? अरे दिया तो था । तुम्हीं ने कहा था कि स्कूल में जो सबसे सुंदर प्यारा बच्चा हो वही मेरा बच्चा है, उसे दे आना, सो मुझे तो सबसे प्यारा, सबसे सुंदर मेरा ही बच्चा लगा, सो उसी को मिठाई खिला आयी थी । यद्यपि उस नौकरानी का बच्चा काला था, कुरूप था पर उसे वही सबसे प्यारा, सबसे सुंदर लगा । तो इस जगत में कौन सुंदर है? और कौन असुंदर है? कौन भला है, कौन बुरा है? जिसके साथ कषाय मिल गई उसे सुंदर मानते ।
565―सर्वत्र ज्ञान से सुख पाने पर भी मोहवश विषयों से सुख मानने का व्यामोह―जो वस्तु खाते हैं, देखते हैं सूँघते हैं उस वस्तु का इंद्रिय से ज्ञान कर रहे ना? और देह से प्रीति है, मिथ्यात्व के उदय में इस जीव को देह से ही है प्रीति, तो उस बाह्य पदार्थ में जो इंद्रिय से जान गए उसको मानते क्या कि इसका मुझे सुख मिला । सुख मिला अपने ज्ञान का, पर मान रहा है कि इस पदार्थ का सुख मिला, जैसे कुत्ता स्वाद ले रहा अपने खून का और मान रहा है कि इस हड्डी का स्वाद आया और ऐसा अज्ञान, ऐसी बेसुधी कि जैसे हाथी के आगे मिठाई भी रख दो, घास भी रख दो तो हाथी तो दोनों को एक साथ लपेटकर खा जाता है, ऐसे ही यह अज्ञानी जीव कर्मरस और ज्ञानरस दोनों को एक साथ लपेटकर यों ही अनुभवेगा और इसके अतिरिक्त विचित्र एक मूढ़ता और ज्यादह है मोही जीव में कि वह स्वाद मानता है कर्मरस का, बाहरी पदार्थ का, तो यह जीव अज्ञान से भ्रमसहित होकर यह समस्त अनुभव करता है, जैसे हाथी मिठाई और तृण में विवेक न कर मिलाकर खाता है । यह ज्ञान स्वयं ही हो रहा है सब कुछ, मगर वह रागरूप हो रहा है, जैसे हो रहा है उजेला, मगर वह हरा रूप हो रहा है, वैसे ही यह आत्मा कर रहा है सारा ज्ञान, मगर यह रागविकल्प ज्ञानविकल्प रूप कर रहा है, तो जैसे कुत्ता हड्डी का स्वाद मानकर वह हड्डी की खोज में चलता है, उस हड्डी की बड़ी धुन लगाये रहता है मगर देखो नादानी, ले रहा स्वाद खुद के मसूड़ों से निकले हुए खून का, मगर समझता है कि मुझे हड्डी का स्वाद आ रहा । इसी प्रकार अज्ञानी मोही इन बाह्य विषय प्रसंगों में स्वाद तो ले रहा है अपने ज्ञान का, जिस ज्ञान का जैसा विकल्प बनाया, स्वाद तो ले रहा है अपने ज्ञान का, मगर यह मानता है कि मुझे स्त्री से सुख मिला, घर से सुख मिला, वैभव से सुख मिला । इन बाहरी पदार्थों को अपनाने के लिए एकदम आसक्त हो रहा, दौड़ रहा । क्या स्थिति हो रही, जैसे किसी मनुष्य को शिखरनी याने दही, शक्कर मिला कर मथ दिया जाये तो उसका खटमिट्ठा स्वाद बन गया उसे कहते हैं सिखरनी । उसे कोई खिलाता है और कोई मान जाये कि यह तो गाय से निकलता है, -ल पो सीधी गाय से इसे निकाल लें, छ लें तो क्या उसे याने शिखरनी को दुह सकता है वह? नहीं दुह सकता । तो जैसी उसकी यह एक व्यर्थ चेष्टा है ऐसे ही ये बाहरी पदार्थ और यह मैं ज्ञानस्वरूप, इन दोनों के मिश्रण से, मिश्रण तो क्या होता, ज्ञान ने ही स्वयं उस परवस्तुविषयक विकल्प किया, यह ही मिश्रण कहलाता है, तो इस मिश्रण से जो एक स्वाद आया, इस व्यामोही को यह प्रतिभास हो गया कि यह स्वाद इन बाहरी चीजों से आया सो वह उस बाहरी चीजों पर ही आसक्त हो रहा, यह सब अज्ञान की महिमा है ।
566―अज्ञान दूर कर अविकार ज्ञानस्वभाव में रुचि करने की उमंग में कल्याण की संभवता―अहो, स्वरूपपरिचय नहीं, तो देखो अज्ञान कहां कहाँ नहीं छाता, हम धर्म करते हैं, अब दशलक्षण पर्व आ गया, पूजा अधिक कर लिया, ठीक है, वह व्यवहार मार्ग है, उसमें चलता हुआ जीव कभी सुलझेगा तो सही, मगर सुलझना तो इस जीव के भावों से होता है, ज्ञान को ज्ञान जानना, बाहर को बाहर जानना, सच को सच जानना, पर को पर जानना, जब तक यह बुद्धि न आये तब तक दुःख मिटने की कोई गुंजाइश नहीं, कुछ अपना महत्त्व लायें । भला चाहो तो इस सहज ज्ञानस्वरूप के अनुभव के लिए उमंग बनाना चाहिए । घर में हुए तो आप व परिवारजन सब अपनी समझ बनाकर एक उमंग बनावे, परिवार के विचार की विरुद्धता न होने से कोई असुविधा न रहेगी, सबका भला होगा । बच्चे भी इसी सहज ज्ञान ज्योति के अनुभव की उमंग रखते हों, पिता, स्त्री, पुत्र, मित्रादिक सब रखते हों, ऐसे प्रसंग में लो सब सुरक्षित हैं, सबका एक ध्येय बन गया कि हमको एक निज सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव करना उचित है । मैं क्या हूँ इसका अनुभव आये बिना कितनी ही क्रियायें कर ली जायें, कितना ही कुछ प्रसंग बना लिया जाये, मगर शांति का मार्ग नहीं मिलता । शांति पाने के लिए लोग बड़े-बड़े कष्ट करते हैं, बड़ा परिश्रम करते हैं, सारा जीवन लगाते हैं तो भी शांति नहीं मिलती और जिस किसी भी बात को एक शांति मान लेते हैं और उससे संतुष्ट रहने की कोशिश करते हैं । अरे सच्ची शांति पाने का मार्ग ही तो बताया जा रहा । और क्या इस शांतिमार्ग की कीमत आपके पाये हुए लाख रुपये के वैभव से भी बड़ी नहीं? अगर बड़ी है आपकी दृष्टि में तो तुलना में आपको महत्त्व जंचना चाहिए धर्म का, इस ज्ञानस्वभाव के अनुभव का । उस वैभव का महत्त्व न जंचना चाहिए । जिंदगी थोड़ी है, प्राणपखेरू उड़ जायेंगे । थोड़े ही समय बाद कहीं उत्पन्न होना ही पड़ेगा, यहाँ का रंच मात्र भी कुछ साथ न जायेगा, यहाँ के इस वैभव के कारण अगले भव में कुछ भी प्रभाव न बनेगा, वहाँ तो जो नया संग प्रसंग मिलेगा उसमें अपनी बुद्धि लगायेगा, अपनी रुचि बतायेगा, तो थोड़ा अपने पर दया करना, पाये हुए वैभव को अपना सर्वस्व मत मानो, इस वैभव को सर्वस्व मानने की बुद्धि एक ऐसी बड़ी चोट उत्पन्न करेगी कि जिसका फल आगे भव में भुगतना पड़ेगा, मिला है जान लिया, मगर सच-सच तो जान लें कि मेरे स्वरूप में बाह्य वस्तु का रंच भी प्रवेश नहीं, मेरा यहाँ कुछ भी नहीं लगता, दुनिया के लोग अज्ञानी हैं, तो क्या तुमको भी अज्ञानी बनना भला है क्या? जगत के लोग दौड़ रहे हैं बाह्य विषयों के साधनों को बढ़ाने में, तो दौड़े, जिसकी जैसी योग्यता है, जिसका जैसा परिणाम है वह परिणाम करता रहता है, खुद पर करुणा आयी हो तो यह करने का काम है कि सबसे विरक्ति पाकर अपने अंतरंग में इस सहज ज्ञानस्वरूप की सम्हाल करें, अनुभव करें कि यह मैं अंतस्तत्त्व हूँ । विकार कैसे हुए? इसकी विधि जो आपने जानी समझी उस विधि के परिचय से काम यह लेना है कि मेरी गल्ती से ही, मेरी परिणति से ही तो विकार हुए, अब मैं अपने ज्ञान को इस विकल्प रूप से, उल्टे रूप से नहीं परिणमाऊंगा, मैं सत्य-सत्य जानता रहूंगा कि मैं तो यह सहज ज्ञानस्वरूप हूँ, हाँ तो जैसे विकार की विधि समझे तो निवृत्ति की विधि तो तुरंत समझ ही गये होंगे । क्या रही वह विधि? यह उपयोग अपने ही रस से, अपनी ही आदत से यह परिणमन करता ही रहता है, ये सारी वस्तुवें निरंतर उत्पाद करती ही रहती हैं, स्वरूप ही ऐसा है कि यह उपयोग निरंतर परिणमन करता ही रहता रहे, किंतु अनादि से ही वस्त्वंतरभूत मोह से युक्त होने के कारण अधिक क्या हो गया कि कर्मरस उपयोग में प्रतिफलित होता है, उसका निमित्त पाकर इस छाया में मग्न होकर इस मोहरुचिक जीव ने अपने ज्ञान के स्वरूप की तो याद छोड़ दी और उस ही बाहरी चक्र में अपने को मान लिया कि मैं तो यह हूँ, तो क्या करना? यह करना कि सच-सच जानते रहें कि मेरा काम तो एक शुद्ध जानन भर है, मगर कर्म साथ लगे, कर्मरस विपाक है, प्रतिफलन है, तो रहो, उसके ज्ञाता बनना चाहिए, उसे अपनाने वाला न बनना चाहिए । जो ज्ञाता बनता है वह अकर्ता है, जो अपनाने वाला बनता है वही संसार का कर्ता है, तो जैसे स्फटिक मणि के नीला, पीला, लाल ये तीन प्रकार का कागज लगा हो तो जैसे वह 3 प्रकार रूप से परिणम जाता है ऐसे ही मुझमें कर्म का विपाक मिथ्यादर्शन अज्ञान, अविरति ये विपाक साथ लगे हैं, उसका संसर्ग पाकर, निमित्त पाकर यह उपयोग इन तीन रूपों में परिणम जाता है । कौन परिणम जाता मिथ्यात्वरूप ? जिसको इस रहस्य का पता नहीं, अपने स्वरूप का भान नहीं कि इन तीन तरह से विकार यों बनता है । सो भी इस जीव ने क्या किया? कर्म को नहीं किया, पुद्गल को नहीं किया किंतु ये तीन प्रकार के परिणाम विकाररूप बन जाते हैं ।
566―अविकार, अकर्ता, ज्ञायकस्वरूप निज अंतस्तत्त्व के अनुभवन की महिमा―मैं किसी बाह्य पदार्थ में कुछ नहीं कर सकता, मैं तो अपने परिणाम विकार को ही कर पाता हूं । अब उस समय कर्मपुद्गल अपने आप बनते हैं अपने स्वरूप से, उसको भी तो यह निमित्त मिल गया जैसे भी गड़बड़ के लिए कर्म का उदय निमित्त है ऐसे ही कर्मों के बंध के लिए और-और बातों के लिए जीव का परिणाम निमित्त है । हो रहा सबका अपने-अपने में ही काम, कोई किसी दूसरे को नहीं परिणमा रहा । जैसे वक्ता बोल रहा अपने आपके श्रम से ही, वह श्रोतावों में कुछ नहीं कर रहा और श्रोता सुन रहे हैं अपने आपके परिणाम से ही, वे वक्ता में कुछ नहीं कर रहे, पर यह चेष्टा भी परस्पर उस श्रमविधि से निमित्तनैमित्तिक योग मात्र है । क्योंकि प्रत्येक पदार्थ अपने आप में ही अपना परिणमन करता है, कोई किसी दूसरे का परिणाम नहीं करता । यह भी बात है, और जब बुरा होता है तो पर निमित्त पाये बिना नहीं होता, यह भी बात है, अपने को तो चाहिए यह कि उस संसर्ग को छोड़ें और अपने ज्ञान के उस सहज उदासीन वृत्ति को ग्रहण करें । सारी बातें बतला डालें, पर अंत में निष्कर्ष यह निकलेगा कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा अनुभव किए बिना संसार के संकट नहीं छूट सकते, शांति प्राप्त नहीं हो सकती । अपने आप में निरखें कि केवल ज्ञानज्योति रूप मैं आत्मा हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं । देह का तो भान ही न रहे, कषायों में जरा भी न लिपटें । ये तो यों हो रही हैं, पर की छाया है, मेरा स्वरूप नहीं । जो मेरे निज में स्वरूप है बस उस स्वरूपरूप अपने को अनुभवें केवल में । देखो, ज्ञान ही इसका धाम है, घर है, ज्ञान ही इसकी अतुल संपत्ति है, ज्ञान ही उसका मालिक है । ज्ञान को ही यह करता भोगता है । कितनी सुगमता है वस्तुस्वरूप में कि उसे कहीं कठिनाई नहीं । अपना यह स्वरूप उपयोग में बनाने को कहीं कठिनाई ही नहीं । कठिनाई तो विकार करने में होती है । दूसरों पर दृष्टि दूं तो विकार बनेगा । दूसरे की आशा करना पड़ती, दूसरों का सहारा लेना पड़ा ना, तो दुःख तो है पराधीन, मगर शांति आनंद अपने शुद्ध ज्ञान की बात ये पराधीन नहीं, ये खुद हैं, खुद में हैं, खुद के लिए हैं, खुद ही भोग रहे हैं । बस, मोह मिटना चाहिए, अज्ञान दूर हुआ कि इसको अपना ज्ञानामृत प्राप्त हो ही जायेगा ।