वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 58
From जैनकोष
अज्ञानान्मृगतृष्णिकाँ जलधिया, धावंति पातुं मृगा: । अज्ञतात्तमसि द्रवंति भुजगाध्यासेन रज्जौ जना: । अज्ञानाच्च विकल्पचक्र करणाद्वातोत्तरंगाब्धिवत् शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रींभवंत्याकुला: ।।58।।
567―मैं के निर्णय के अनुसार आत्मा का परिणमन―जितने भी जगत में पदार्थ हैं उन सब पदार्थों को दो भागों में बाँट लो, एक स्व और बाकी सब पर । एक तो खुद स्वयं बाकी सब पर । स्वयं में क्या आयेगा? एक ज्ञानज्योतिर्मय आत्मतत्त्व, परम पदार्थ और अन्य में क्या आयेगा? इस परम पदार्थ को छोड़कर बाकी सब पर । बाकी सबमें क्या-क्या है? कर्म, देह, वैभव, कुटुंब, इज्जत, लोगों के वचन, खुद के वचन, मन, विचार, रागद्वेष आदि ये सब पर कहलाते हैं, अन्य कहलाते हैं । तो इन पर पदार्थों में और अपने स्वरूप में जब ज्ञान नहीं होता, भेद नहीं होता, यह नहीं विदित होता कि मैं तो यह हूँ, बाकी सब पर हैं, जब यह परिचय नहीं होता तो यह जीव पर को मानता कि मैं हूँ और पर को जो मानेंगे कि मैं हूँ वे परपदार्थों को चाहने के लिये, परिणमाने के लिये दौड़ लगायेंगे, संग्रह करेंगे उसमें विघ्न आये तो लड़ेंगे भी, क्योंकि परपदार्थ को मान लिया निज पदार्थ को परपदार्थ मान लिया कि यह मैं हूँ, जिसको यह मैं मान लेता उसी की रक्षा का भाव करता है । अगर पुत्र को मान लिया मैं, तो उसकी रक्षा का भाव होगा, और का नहीं । देह को मान लिया―मैं, तो देह की रक्षा का भाव होगा और की रक्षा का नहीं । और यदि अपने उस सहज चैतन्यस्वरूप को मान लिया मैं, तो यह ज्ञानी उस ज्ञानस्वरूप की रक्षा करेगा । बस ज्ञानस्वभाव में बाधा न आये, यह ज्ञानस्वभाव तिरस्कृत न हो, यह ज्ञान भाव सही ज्ञानरूप में बना रहे, ऐसा प्रयत्न करें । तो ज्ञानी का प्रयत्न होता ऐसा । अज्ञानी को तो बाहरी पदार्थों की रक्षा का प्रयत्न होता सो बाहरी पदार्थों की रक्षा करते जाते, उसमें इस जीव को लाभ कुछ नहीं मिलता और एक अपने स्वरूप की रक्षा करें तो अनंत चतुष्टय प्राप्त होगा । भगवान का स्वरूप जो विकसित है वह पद प्राप्त होगा ।
568―अज्ञान से जीव की बरबादी की ओर दौड़―अज्ञानी पुरुष तो रेगिस्तान में रहने वाले मृग की भांति बाह्यपदार्थों में दौड़ लगा-लगाकर अपना जीवन बरबाद कर देता । जैसे रेगिस्तान में रहने वाला मृग अपनी प्यास बुझाने के लिए दूर की चमकती हुई रेत को पानी समझकर दौड़ लगाता है, वहाँ जाने पर क्या देखता कि पानी का नाम नहीं, फिर आगे दृष्टि डाला तो दूर की चमकती हुई रेत पानी जैसी दिखी तो फिर दौड़ लगाता, यों दौड़ लगाते-लगाते अपनी प्यास की वेदना को और भी बढ़ा लेता है और इस तरह से दौड़-दौड़कर अपने प्राणपखेरू भी उड़ा देता है, पर अपनी प्यास नहीं बुझा पाता, ठीक इसी प्रकार यह अज्ञानी जीव परपदार्थों से सुख की आशा करके उनके पीछे दौड़ लगाते हैं पर उनसे सुख प्राप्त नहीं होता । यों सुख की आशा से दौड़ लगाते-लगाते इसकी दौड़ तब पूरी होती जबकि वह मरण को प्राप्त हो जाता है । यही हाल इन सारे संसारी अज्ञानी प्राणियों का है । अज्ञान से ये दौड़ लगाते हैं । आगे सब देख-देखकर तृष्णा करते जाते । अभी इतना ही वैभव मिला, उसमें शांति नहीं मिली, अजी इतने से क्या होगा? जब और वैभव मिले तो शांति मिल सकती । बस दौड़ लगाते रहते हैं जिंदगी में । और इस जीव की यह दौड़ कब खतम होती, जब मरण हो जाये । तो मरण होने पर भी यह दौड़ खत्म नहीं होती, क्योंकि जिस भव में पैदा होगा वहाँ भी तो कुछ मिलेगा, वहाँ भी तो तृष्णा जगेगी, इसकी दौड़ कब खत्म होगी ? जब तक अज्ञान है, तब तक विषयों के प्रति दौड़ लगाने की चाल खतम नहीं होती । अज्ञान क्या है ? निज में व पर में भेद न हो सकना, निज स्व है यह परमार्थ चैतन्यस्वरूप और पर हैं विचार, कषाय, देह, कुटुंब, वैभव, मकान आदि ।
569―कर्मरस और ज्ञानरस में भेदविज्ञान होने पर व्यग्रता का विध्वंस―मुख्यतया तो भेदविज्ञान कर्मरस और ज्ञानरस में करना है, मेरा स्वरूप ज्ञानरस का स्वाद लेता रहता है । मैं जो हूं अकेला ज्ञानस्वरूप, सो मैं अपने ज्ञानस्वरूप से बस परिणमता ही रहूंगा, यह मेरा स्वभाव है, ऐसा ही होना चाहिए था मगर नहीं हो पा रहा, उसका कारण क्या है कि कर्मविपाक की छाया है उससे ज्ञानस्वरूप तिरस्कृत हो गया है । यह मुग्ध बन गया, उसे सुहाने लगा कर्मरस, बस उस ही रूप अपना आचरण करता है । और भी देखो―कुछ रात-सी होने वाली थी, हाल के अंदर दूर से देखा कि यहाँ तो साँप पड़ा है, वहाँ बस रस्सी में साँप का भ्रम होने से यह अज्ञान से दौड़ लगाता है, भागता, चिल्लाता है, घबड़ाता है तो यह घबड़ाहट कब मिटेगी? अगर कोई बुला ले जाये कि भाई चलो तुम्हें कहीं घुमा लायें, कोई बढ़िया चीज दिखा लायें तो वह उसका दुःख वाला उपयोग मिटाने के लिये जाता है, कुछ इधर-उधर घूम फिर कर उसका उपयोग बदलता है तो भले ही कुछ देर घबड़ाहट न रहे, पर थोड़ी ही देर बाद ज्यों की त्यों घबड़ाहट बन जायेगी, घबड़ाहट वहाँ मिटेगी नहीं जहाँ ज्ञान तो हो रहा है ऐसा कि मेरे घर में साँप पड़ा है, चित्त में तो यह बात समायी है कि मेरे घर में साँप है, कब यह घबड़ाहट मिटेगी? अच्छा, घर में फिर आ गया, अब साँप हो असल में तो वह निकले भी, वह रस्सी कहाँ से भागे, वहीं की वहीं पड़ी है तो उसे देखकर वह फिर घबड़ाने लगा । उसकी यह घबड़ाहट कब मिटेगी? वह कुछ साहस बनाता है कि देखें तो सही कि आखिर किस जाति का यह सांप है, थोड़ा चला तो देखा कि वह तो कुछ हिलता डुलता भी नहीं, कुछ इसका साहस और बना, आगे चलकर जब देखा कि यह तो साँप सा नहीं मालूम होता, फिर कुछ आगे बढ़ा तो देखा कि अरे यह सांप नहीं है, यह तो रस्सी सी मालूम होती है, कुछ और बढ़ा, उसे उठा लिया और अच्छी तरह मालूम हो गया कि यह साँप नहीं है, यह तो रस्सी है । अब उसकी घबड़ाहट खतम, क्योंकि उसे ज्ञान जग गया कि यह रस्सी है, साँप नहीं है, अब देखो, अज्ञान में तो घबड़ाहट थी, वहाँ धीरता पाना कठिन था । अब ज्ञान होने पर घबड़ाहट लाना कठिन हो गया । अब यहाँ सहज स्वभाव से धीर बन गया, बड़ा संतोष, कोई घबड़ाहट नहीं, ऐसे ही जब इस कर्मरस में व आत्मस्वरूप में याने ज्ञान स्वभाव में जब तक भेद नहीं जाने ज्ञान नहीं बन पा रहा तब तक इसको घबड़ाहट है और जैसे ही ज्ञान जगा कि ओह मैं तो यह ज्ञानस्वरूप हूं, यह सब लीला तो कर्म की है, कर्म के कारण यह सब जमाव है, विकल्प याने उपयोग का इस रूप परिणम जाना, ये विकार नैमित्तिक हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं, मैं तो सहज ज्ञानमात्र हूँ, जब यह जीव ऐसा निरखता है अपने में, उसको अशांति नहीं रहती । ज्ञानी तो शांतरूप रहता है ।
571―कर्मपरिणति से विविक्त ज्ञान परिणति का परिचय पाने वाले के शांति रस का आस्वादन―कैसा अज्ञान और कैसा ज्ञान कहाँ करना? एक दृष्टांत द्वारा समझिये कि जैसे कोई ठंडी चीज रखी है मानो बर्फ रखी है, और वहाँ एक आदमी ने उसे छू लिया तो उस पुरुष को अंदर में यह अनुभव बना कि मैं ही अब ठंडा हो गया तो वह अपने में ठंडेपन का अनुभव करता । अब यहाँ बतलावो कि ठंडा जीव है कि बरफ? ठंडी तो बरफ है, पर जीव ने क्या किया, उस ठंडे पदार्थ को छूकर ठंडे का जो ज्ञान किया, बस उस ज्ञान में जो ठंडापन विषय रूप से आया सो अपने निज स्वरूप को तो भूल गया और जो अनुभव में आया, ज्ञान में आया ठंडापन उसको अनुभवने लगा । ज्ञान की बात छोड़ दी और ठंडारूप अपने को अनुभवने लगा, तो यद्यपि वहाँ इतना संबंध तो है कि इस जीव को ठंडापन अनुभव कराने में विषयभूत वह बर्फ है मगर ठंडा तो बर्फ ही है, जीव ठंडा नहीं । तो उस ठंडे पदार्थ में और इस ज्ञानस्वरूप में जैसे है तो भिन्नता, पर कोई भिन्नता न जाने तो कष्ट पाता है, अच्छा यहाँ भी देखो―यह तो स्व और पर में अत्यंत भिन्न परपदार्थों में स्व-पर की बात कही, अब अंदर में जो अनुभव जगा सो उस ज्ञान में, उस अनुभव में, उस ज्ञेयाकार परिणमन में और इस आत्मा में इनमें कोई भेद है कि नहीं? हाँ, भेद तो है, यह ज्ञान तो सदा रहने वाला तत्त्व है और यह ज्ञेयाकार, यह ठंडे का ज्ञान, यह एक क्षणिक आकार है, यहाँ भेद करे कोई कि मैं तो शाश्वत अनादि अनंत ज्ञानस्वरूप हूँ, यह ठंडारूप मैं नहीं हूँ, तो ऐसा भेद करने वाला पुरुष ज्ञानी होता है, वह ज्ञानी अपने ज्ञानरस का स्वाद लेता है और उस ठंडे को अपने से अलग समझता है, ऐसे ही कर्मरस का स्वाद लेने वाला अज्ञानी है, ज्ञानी को बोध है कि यह सब कर्म की लीला है और यह मैं ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा जब तक भेद नहीं होता तब तक जीव अज्ञानी है, कर्मरस को अपनाता है और उस कर्मरस को अपनाने से इसकी नाना प्रकार की स्थितियाँ बनती हैं ।
572―विकार के विधिविधान के ज्ञाता को ज्ञाता रहने में ही उमंग―जीव में विकार होता है, खलबली होती है, रागद्वेष मोह होता है, वह है क्या और हो कैसे जाता है, इस बात का जिसको निर्णय हो चुका है वह विभावों से हटने के लिए बड़ी उमंग पैदा करता है और हट जाता है तो पहले तो यह ही निरखो कि ये रागद्वेष मोह क्षोभ हैं क्या चीज? ये हैं ज्ञान के उस तरह के विकल्प । इतना तो ध्यान में आ ही रहा है कि मैं ज्ञान हूँ और जानता रहता हूँ और इस समय इस ढंग से जान रहा हूँ, यह बुरा यह अच्छा, यह मेरे को लाभदायक, यह मेरे को अनिष्ट है आदिक और उसी कारण से हर्ष भी मानता । हर्ष और विषाद ये तो हैं आनंद गुण के विकार और जो क्षोभ होता है वह है चारित्र गुण का विकार और जो विपरीत बुद्धि होती है वह है श्रद्धा गुण का विकार लेकिन ये सभी के सभी ज्ञानस्वरूप हैं । ज्ञान से ये सब अविनाभावी हैं, तो ज्ञान ने जो ऐसा विचार किया, कुछ बुद्धि बनाया, जानन किया, यह बुरा, यह भयकारी, यह सुखकारी आदिक रूप, सो यों जीव हो कैसे गया ? तो इसका कारण यह है कि अनादि काल से इस जीव के साथ मोहनीय कर्म लगा है । अन्य पदार्थ, सो उसका जो मिश्रण है, उससे इस ज्ञान में विकल्प चला, इस तरह से ये रागद्वेष पनपे हैं, तो इससे यह जान लें स्पष्ट कि रागद्वेष अज्ञान के बल पर बनते हैं, मैं आत्मा तो ज्ञानरूप हूँ । जानने का काम करता हूँ, उस जानन के साथ जो मोहनीय प्रकृति का कर्मरस मिल गया, यह झलक हुई, मिश्रण हुआ, ऐसे ही एक प्रभाव बना कि ये रागद्वेष उठने लगे, ऐसे तथ्य की बात समझ लेने से यह रास्ता मिल रहा है कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ तो मैं ज्ञानरूप हो रहूं । मैं उस ज्ञानरस को ही अपनाऊँ, वे तो परभाव हैं, मैं तो अपने भावों रूप ही रहूंगा, इस तरह का जो एक चित्त में संकल्प बना, एक अभिप्राय और उस तरह से उमंग बनी मैं तो ज्ञानरूप ही रहूंगा । मैं किसी पर पदार्थ में आसक्त न होऊँगा, पर की हितरूप से आस्था रखता हुआ ध्यान न रखूंगा, किसी भी कर्मरस को न अपनाऊंगा, मैं ज्ञानरूप ही रहूंगा यह एक बात जानना है ।
573―किसी के द्वारा पर में कर्तृत्व न हो सकना, विकार में निमित्तनैमित्तिक योग का होना इन दो तथ्यों के निर्णय में सम्यक्त्व का दर्शन―अच्छा जरा दूसरी ओर से भी देखो जो लोग यह मान रहे कि कर्म ही जीव को राग कराता है, तो जब कर्म को राग कसने वाला मान लिया और आत्मा में मैं कुछ न रहा, मेरी उसमें कोई स्वतंत्रता न रही परिणमन में, तो अब मोक्षमार्ग कैसे मिलेगा? कर्म ने तो राग कराया अब कर्म ही चाहें कि राग न रखाये तो इसको रास्ता मिलेगा । प्रत्येक पदार्थ अपने कुल का संतान बढ़ाया करते, कर्म भी कर्म की संतान बढ़ा रहे, तो जहाँ कर्ता कर्म बुद्धि आ जाये कि कर्म ने जीव में राग किया तो वहाँ गुंजाइश नहीं कि भलाई का रास्ता जीव खोज ले । हाँ परपदार्थ किसी भी परपदार्थ का कर्ता होता ही नहीं है, क्योंकि कोई भी पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ की क्रिया का परिणाम नहीं करता, सो जब यों देखा कि कर्म तो निमित्तमात्र हैं, उसका विपाक आया, कर्मोदय हुआ और उसका प्रतिफलन हुआ, क्योंकि यह आत्मा स्वच्छ है तो स्वच्छता में यह विकार आ गया, अब वह उस रूप से परिणमते उपयोग के ही तीन प्रकार के परिणाम होते हैं । जब यह जाना अज्ञान मिटा तो बात बन जायेगी, लेकिन जब तक अज्ञान रहता है तब तक यह विकल्पों की चक्की चलाता ही रहता है, क्योंकि कहां आराम से बैठे? अज्ञानी मनुष्य कहाँ आराम से बैठे सो बताओ? जब अज्ञान बसा हुआ है तो जहाँ बैठेगा वहीं अपने में विकल्प करेगा । तो जितने ये विकल्प तरंग उठ रहे, अज्ञान भी जीव में है, मगर उनमें निमित्तकारण क्या है? वह कर्मविपाक । जैसे समुद्र में लहरें उठती हैं तो बताओ उसमें निमित्तकारण क्या है? वायु । जब तेज वायु उठी तो समुद्र में लहर उठी । लेकिन वायु ने लहर परिणमन नहीं किया । वायु तो अपने रूप ही परिणमी, पर एक निमित्तनैमित्तिक योग है कि वायु का सन्निधान पाकर समुद्र लहरोंरूप परिणम जाता है, समुद्र में द्रव पदार्थ होने से, ऐसे ही जब जीव को अज्ञान रहा, कर्मरस व ज्ञानरस में अंतर न आ सका तब जीव को जीवपदार्थ और अंतस्तत्त्व इनमें भेद नहीं मालूम पड़ता । तो जैसे वायु की प्रेरणा से समुद्र परिणम जाता है इसी प्रकार से कर्मविपाक के उदय से याने कर्मविपाक का निमित्त पाकर यह जीव विकल्परूप परिणम जाता है, तो जितने भी रागद्वेषमोह विकल्प तरंग हैं वे सब अज्ञान से होते हैं । मैं इन रूप नहीं हूँ, मैं तो ज्ञानरूप हूँ । जिसे उसका पता नहीं है वह शुद्ध ज्ञानमय होकर भी कर्ता बनता है और इस ही कारण यह जीव स्वयं आकुलित होता है । जब तक बुद्धि व्यवस्थित नहीं होती तब तक इस जीव को आकुलता रहती है और जब बुद्धि व्यवस्थित हो जाती है तो उसको किसी भी स्थिति में आकुलता नहीं होती ।