वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 68
From जैनकोष
अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकां ।
द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम् ।।68।।
650―शांत हो सकने की विधि की जिज्ञासा―हम पर क्या बीत रही है और हम कैसे रहें तो शांत हो सकें, इन दो बातों की जानकारी बहुत आवश्यक है, केवल कोई मनुष्य बाहरी बातों में ही हिसाब किताब लगाये―मेरे पास इतना वैभव, इतने मकान, इतना कुटुंब, इतनी इज्जत, सब कुछ मुझे प्राप्त है, ऐसा हिसाब लगाये और अपने को सुखी समझे तो इससे पूरा नहीं पड़ने का । यह कितने दिनों की चाँदनी है, कितने दिन का जीवन है, कोई सोचे कि मरण के बाद हम ही न रहेंगे तो फिर उसकी चिंता क्या करना, सो भली प्रकार सोचो विश्व के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों से भी निर्णय करा लो कि जो चीज मूल में है वह कभी नष्ट हो सकती है क्या? अणु हो, कुछ भी चीज हो, मूल में जो द्रव्य है, जिसकी अवस्थायें बन रही हैं वह मूल की चीज क्या कभी नष्ट हो सकती है ? विश्व के किसी भी वैज्ञानिक से पूछो । इन अवस्थाओं का परिवर्तन तो चलेगा और अवस्था में चलना उस पदार्थ का स्वभाव है, चलती रहे अवस्थायें पर मूल वस्तु नष्ट हो जायेगी क्या? जो भी सत् है वह कभी नष्ट नहीं होता, और दार्शनिकों की पूछो तो जैन सिद्धांत तो स्पष्ट कहता है कि उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् अर्थात् जो भी चीज है वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त है मायने सदा रहेगी और उसकी नयी अवस्थायें बनेंगी और पुरानी अवस्थायें विलीन होगी । इस प्रकार यह सत् अनादि अनंत है और इस संबंध में अन्य दार्शनिकों ने भी कहा है―नासतो विद्यते भावो, ना भावो विद्यतेसत: । भगवद् गीता में स्वयं आया है कि जो असत् है, जिसकी सत्ता नहीं है उसका सद्भाव कभी बन नहीं सकता, जिसकी सत्ता है, जिसका सद्भाव है उसका अभाव कभी हो नहीं सकता । तो युक्ति से, अनुभव से सब तरह निर्णय कर लो―क्या आपको यह इष्ट है कि मेरा आगे कोई नाम निशान ही न रहे, मेरा सत्त्व मिट जाये, ऐसी किसी को अभिलाषा है क्या? युक्ति से, आगम से, वैज्ञानिकों से सभी से निर्णय कर लो कि जो है वह कमी मिट नहीं सकता, अवस्थायें मिटेगी, मूल द्रव्य न मिटेगा । यहाँ निर्णय कर लो कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह तो अचेतन है, जड़ है, उसमें ज्ञान नहीं, मैं चेतन हूँ, अमूर्त हूँ, परमात्म पदार्थ हूँ, मेरा कभी विनाश नहीं होने का । अवस्थायें बदलती रहती हैं । आज मनुष्यभव में आये, आगे अन्य किसी भव में होंगे । यों आत्मा को शाश्वत व परिणमन करने वाला मानने पर कल्याण भावना जगेगी तो कुछ आत्मा की करुणा करें, जिसको सदा रहना है उस आत्मा की ही बात सोचो―उस पर बीत क्या रही है ।
651―आत्मतत्त्व और उसकी विवशता का विश्लेषण―भैया ! मोटे रूप से सब ऐसा सोच लो कि इस पर दुःख लगता है, सुख लगता है, चिंतायें होती हैं, शल्य होती है, कभी यह मौज मानता है, सुख भोगे, दुःख भोगे, इसका रूपक समझो कि यह क्या कहलाता है । बस, बीत रही इस समय खुद पर; तो कहेंगे कुछ अवश्य, मगर इसकी मुद्रा क्या है, सुख दुःख साता असाता का रूपक क्या है, बात क्या है, इसका विश्लेषण नहीं हो पाता । उसका विश्लेषण करना पड़ेगा तब रास्ता दिखेगा कि हमारे लिए शांति का मार्ग क्या है? तो पहले सुख दुःख साता असाता, इन सबका निर्णय बनाओ कि यह चीज है क्या, मैं क्या हूं? मैं तो एक ज्ञायकस्वरूप पदार्थ हूँ । जीव: उपयोगो लक्षणं । जिस स्वभाव का परिणमन उपयोग चलता है, यह उपयोग जीव का लक्षण है, मैं उपयोग रूप हूँ, मायने जानने का, चेतने का काम करता हूं, जानने में तो एक ही उपयोग आता । चेतने में दो उपयोग आ जाते―ज्ञान और दर्शन । मैं चेतता रहता हूँ, उससे भी समझ कर ज्ञानदर्शन को प्रयुक्त कर लिया । मैं जानता रहता हूँ―जानना-जानना यही ज्ञान है । जानना किसी भी जीव का एक क्षण को भी बंद होता है क्या? नहीं बंद होता । एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक, सब संसारी और कर्ममुक्त भगवान जो भी जीव हैं, सभी जीवों के जानना निरंतर चलता रहता है, क्योंकि पदार्थ उत्पादव्यय-धौव्य युक्त है । आत्मा स्वयं ज्ञान है, तो उस ज्ञान का जानन सदा चलता ही रहता है । अच्छा पेड़ों में भी जानना चल रहा क्या? चल रहा । निगोद में भी चल रहा, क्योंकि जानना न चले तो सुख दुःख की बात निभ नहीं सकती । जिसमें जानना नहीं, जिसमें ज्ञान नहीं, जो जड़ है उसमें सुख दुःख नहीं, जानना चल रहा, अब यही जानना जब अपने सही सकल में नहीं रहता, जानने की जो सही मुद्रा है शुद्ध प्रतिभास जब जानने का रूप विकल्प रूप में आ गया है तो बस एक विकल्प के माध्यम से सारा निर्णय बनायें । देखो अध्यात्म निर्णय में भेद दृष्टि की प्रधानता रखनी होगी । भेद दृष्टि से ही कथन है और भेद दृष्टि से कथन हुए बिना कुछ वर्णन ही नहीं हो सकता । कुछ विस्तार ही नहीं बन सकता ।
652―आत्मा के विरद स्वभाव का दर्शन―अध्यात्म पद्धति में भेद से अभेद की ओर मुड़ना रहता है, जैसे कोई स्प्रिंग लगे हुए किवाड़ ऐसे होते हैं कि उनका बंद रहने का ही स्वभाव रहता है । उन्हें कोई खोले तो जब तक उसे पकड़े हैं तब तक वे किवाड़ तने रहेंगे, और जरा सा छोड़ा नहीं कि बस फटाक से बंद हो जाते हैं, अब अलंकार रूप में कह रहे कि जैसे कोई उन किवाड़ों से पूछे कि ऐ किवाड़ों तुम एक बार खोल दिए जाने पर बराबर खुले रहोगे न? तो मानो वे किवाड़ यही उत्तर देंगे कि नहीं-नहीं, हम तो पुन: बंद हो जायेंगे क्योंकि हमारा तो बंद रहने का ही स्वभाव है, तो ऐसा ही स्वभाव भेद दृष्टि रखने वाले का समझिये, भेद से अभेद की ओर मुड़ने का उसका स्वभाव बन जाता है । ज्ञानी पुरुष अभेद की ओर उन्मुख रहा करता है, तो
अब यह तकिये कि जीव जानता रहता है, अकेला जीव हो, उसके साथ कुछ न हो, केवल हो तो उसका जानन विकल सही जानन चलता रहेगा, शुद्ध प्रतिभास चलता रहेगा, मगर ऐसा है ही नहीं यहाँ । अनादि से ही कर्म मलीमस है यह, तो हो क्या रहा है कि इस जीव के साथ कर्म बँधे हैं, कर्म केवल नाम की चीज नहीं । पौद्गलिक द्रव्य है, मैटर है, वस्तु है, सूक्ष्म है, तो उन कर्मों में जो अनुभाग पड़ा, बिगड़ने की कला पड़ी उनमें जो अनुभाग है, विकार है, बस जिस समय कर्म में वह अनुभाग फूटता है, कर्म उदित होते हैं उस समय चूंकि यह जीव स्वच्छस्वरूप वाला है ना, जानन है, प्रतिभास है, ज्ञान है, जैसे हम आप इन ज्ञेय पदार्थों को तो कुछ जानकर जानते हैं याने बाहरी पदार्थ तो ज्ञात होकर ज्ञेय हैं याने समझ बनी है कि यह चीज है, मगर उस कर्मानुभाग की जो झलक है वह अज्ञात होकर इस जीव के उपयोग में प्रतिबिंबित होती है और उस समय यह जीव अनादि से ही ऐसा मलिन है कि अपने उस चैतन्यस्वरूप की तो सुध नहीं रखता और जो बात इस उपयोग में स्वच्छता में झलकी आयी है वह अज्ञात, मगर उस मय ही अपने को मानता है तो उसकी सकल क्या बनी? मैं राग करता, द्वेष करता, जो करता वैसा बोलता नहीं है, इस अज्ञानी मोही जीव को उसकी सुध कहाँ? मगर उस रूप अपने विकल्परूप आचरण करता है । देखो विपत्ति विडंबना मूल में यहाँ यह बनी है ।
653―मोहियों का दुःखी ही रहने का आग्रह―कोई भी मोही जीव को मौलिक पद्धति से जो दुःख बना उस दुःख से अपने को दुःखी नहीं मानता और बाहर की पद्धतियों को देख-देखकर दु:खी होता मेरा यह घर गिर गया, अब यह बनवाना है, मेरा लड़का मेरे से विमुख हो गया, अमुक मेरा कहना नहीं मानता आदिक अनेक प्रकार की कल्पनायें बना-बनाकर लोग विपत्ति मानते हैं पर वह कोई विपत्ति है क्या? अरे मकान गिर गया, अमुक यों हो गया तो इसमें तेरे आत्मा का कौन सा बिगाड़ हो गया? अच्छा अब तुझे विपत्तियों से हटना है क्या? अगर विपत्तियों से हटना है तो सही निर्णय हो तो उसका इलाज बन जायेगा । मगर विपत्तियों से हटने की भावना है नहीं किसी की । ये संसारी जीव विपत्तियों को उमंग ला लाकर चाहते हैं । हम (प्रवक्ता) इन बाहरी विपत्तियों की बात नहीं कह रहे जो वास्तविक विपत्ति है उस विपत्ति को ये मोही उमँग ला लाकर चाहते हैं प्रीति करते हैं, खुश रहते हैं, जैसे मद्यपायी पुरुष मद्यपान करके भीतर कुछ न कुछ तो सोचते ही रहते हैं । कुछ तो उसका विकल्प ही चलता है, जैसे वह मद्यपायी है, इस भीतरी विडंबना में वह खुश रहता है, ऐसे ही ये संसार के मोहरूपी मदिरा को पीने वाले पुरुष इस भीतरी विपत्ति में उमंग ला-ला करके कुछ मौज मानते हैं । अगर इन विपत्तियों से हटने की भावना है तो इन विपत्तियों से तो अभी-अभी हट सकते हैं । मगर हटने की भावना है कहाँ? जैसे एक कथानक है कि एक वृद्ध पुरुष अपने मकान के दरवाजे पर बैठा हुआ था, उसके पास उसके नाती, पोते, पोतियाँ सभी बच्चे खेल रहे थे । कोई बालक उस वृद्ध के हाथ झकझोर रहा था, कोई कंधे पर बैठ रहा था, कोई मूँछ पटा रहा था, कोई सिर पकड़कर झकझोर रहा था । वह वृद्ध बड़ा हैरान होकर रो रहा था, इतने में वहाँ से निकले एक संन्यासी जी । पूछा―अरे बाबा जी क्यों रो रहे हो? तुमको क्या कष्ट है? तो वह वृद्ध रोता हुआ बोला―महाराज, मैं बड़ा दु:खी हूँ । ये नाती पोते मुझ बहुत हैरान करते हैं, मैं इस समय बड़ी विपत्ति में हूँ । तो संन्यासी बोला―अच्छा अब तुम मत रोओ, हम तुम्हारा दुःख अभी मेटे देते हैं । उस वृद्ध ने समझा कि संन्यासी जी कोई ऐसा जादू पढ़ देंगे कि ये नाती पोती सब मेरे चरणों के दास बनकर मेरी हुजूरी करते फिरेंगे, सो वृद्ध बोला―हाँ महाराज आपकी बड़ी कृपा होगी, हमें इस विपत्तियों से बचाइये । तो संन्यासी बोला अच्छा तुम एक काम करो―इन नानी पोतों को सबको छोड़कर हमारे साथ चलो, वहाँ तुम्हें कोई कष्ट न रहेगा । तो वह वृद्ध झुंझला कर बोला―अरे, हम कैसे जा सकते तुम्हारे साथ, देखो चाहे ये बच्चा मारे या कुछ करे आखिर हम इन नाती पोतों के बाबा ही तो कहलायेंगे । ये तो नाती पोते ही कहलायेंगे । हमारा यह नाता इनका कोई मेट तो न सकेगा । तुम तीसरे बीच में कौन दलाल आ गए बहकाने के लिए? अब भला बताओ यह कोई विपत्तियों से छूटने का उपाय है क्या?
654―जीव में मूल विपत्ति―मूल विपत्ति जीव में यह है कि पहले बाँधे हुए कर्मों का अनुभाग खिलता है और उसका प्रतिफलन उपयोग में होता हैं और चूँकि ये जीव अज्ञानी है, मोही है सो जैसे ये बाहरी ज्ञेय पदार्थ भींट मकान वगैरह हमारे उपयोग में प्रतिबिंबित होते हैं और उस समय हम इतना जानते हैं कि यह भींट है, यह अमुक है, इस प्रकार से हम कर्मानुभाग को नहीं जानते, मगर उस अज्ञान को अंधकार की तरह हम बराबर जान रहे हैं याने इसमें लिप्त होकर इस रस को अपना कर स्वीकार करके हम अपने को वैसा ही मानने लगे, यह तो बहुत कठिन जानना चल रहा । अज्ञान का कठिन जानना यह कितनी बड़ी भारी समस्या बन रही है तब यह अज्ञानी पुरुष अपने अज्ञानमय भाव में ही तो समा रहा है जो ये क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक कषायें बन रही हैं जो ये विकल्प चल रहे हैं इन विकल्पों में ही तो रम रहे हैं सो इस अज्ञानमय भाव को व्याप करके यह अज्ञानी जीव और आगे के द्रव्य कर्म के बंधन का यह कारण बन जाता है, नही उपादान से और निमित्त दृष्टि से यह सब निर्णय करने की बात है ।
655―मोक्षमार्गोपयोगी परिचय की अनिवार्य आवश्यकता―देखिये―प्रकरणवश विषय कुछ क्लिष्ट हो जाता है लेकिन क्लिष्ट विषय में भी कुछ-कुछ समझ में तो आता ही है, क्योंकि ज्ञानी है, ज्ञानस्वरूप है, जानता है, और फिर यह देखो कि जैन शासन कैसा वास्तविक तत्त्व को, गंभीर तत्त्व को और किन-किन उपायों से किस तरह का वर्णन करता है । प्रमाण नय निक्षेपों की विधि किसी अन्य दर्शन में आयी है क्या? कथन कौतूहल की बात को त्यागकर तत्त्व के प्ररूपण में प्रधानता किसी दर्शन में दी है क्या? जो बात संभव है, हो सकने वाली है उसका उस ढंग से वर्णन करने की किसी अन्य दार्शनिक ने उमंग रखी है क्या? इस जैन शासन को पाने का जो एक लाभ मिला, जो एक हम पर इस जिनवाणी का उपकार है उससे कोई उऋण हो सकता है क्या? जो लोग इस जिनवाणी से विमुख हैं वे इस संसार में रुलते हैं । जो इस जिनवाणी के भक्त हैं, उपासक हैं, मायने इस जिनवाणी में कहा गया जो तत्त्व है, रहस्य है, उसको जो प्राप्त करता है वह नियम से संसार के संकटों से छूट जाता है । चीज बतायी जा रही है खुद की, जो गड़बड़ी चल रही उसकी । और इस रहस्य का जिसे पता हो जाये, जिसे एक सच्चा ज्ञानप्रकाश जग जाये, वह तो फिर अत्यंत सावधान हो जाता है । जैसे विद्यालय में विद्यार्थी लोग अपनी कक्षा के अंदर अध्यापक की अनुपस्थिति में ऊधम मचाते रहते हैं पर अध्यापक के आते ही उनका सारा ऊधम बंद हो जाता है, सभी विद्यार्थी इस ढंग से शांत होकर बैठ जाते हैं मनो वे कोई इष्ट तत्त्व का चिंतन कर रहे हों । तो ऐसे ही यहाँ आत्मा में जो गड़बड़ियां चल रही हैं कषायें जग रहीं, मोह आया, प्रतिफलन हुआ, दस ये सब जब विदित हो जाती हैं-क्यों हुई, कैसे हुई, यह सब ज्ञान निमित्त नैमित्तिक योग का परिचय बताता है । निमित्त नैमित्तिक का परिचय हटा देने से विभाव की हेयता का सही ज्ञान नहीं बत पाता । “दूर हटो परकृत परिणाम,” कर्मविपाक के प्रभाव भाव, कुंदकुंदाचार्य ने बारबार यह बात बतायी है । कहीं यह बात नहीं कि विभाव को कर्मविपाकप्रभाव उपचार से कहा हो । यथार्थ बात है । कर्मोदय होता है, विपाक झलकता है, विकल्प मचता है, निमित्त नैमित्तिक योग है । किंतु ऐसे बड़े संघर्ष में भी कर्म का परिणमन कर्म में है, जीव का परिणमन जीव में है ।
656―उदाहरणों द्वारा विषम परिणमन की अस्वभावता का परिचय―जैसे कोई दो मल्ल युद्ध में लड़ रहे हैं तो हर एक मल्ल का परिश्रम उनका अपने-अपने में है, हाँ निमित्तनैमित्तिक योग ऐसा है कि इस तरह की घटना बन रही । कर्म का बंध है उसका सब कुछ उसमें चल रहा, और जीव में ज्ञान है, जानन है, विकल्प चल रहा, जीव का परिणमन जीव में चल रहा, मगर विभावों का संपर्क न हो तो कर्मादिक नहीं बँध सकते । कार्माण वर्गणा में कर्मत्व हो ही नहीं सकता, बात ही नहीं उठ सकती । और, कर्मविपाक न हो तो जीव में रागद्वेषादिक विकल्प नहीं होते । और हो रहा सबका खुद का खुद में काम । वस्तुस्वातंत्र्य कभी मिटता नहीं, पर वस्तु का परिणमन उस विकार रूप में ढल जाता है निमित्तनैमित्तिक योग के प्रसंग में । अनेक बातें ऐसी देखने को मिलेंगी जहाँ यह कहना पड़ेगा कि विकार परिणमन के प्रसंग से कि वह उपादान निमित्त का सन्निधान पाकर अपनी परिणति से अपने में प्रभाव उत्पन्न कर लेता है, उपादान का प्रभाव उपादान में । निमित्त का प्रभाव आया उपादान बनकर उसी में, एक का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विभाव प्रभाव सब कुछ दूसरे में नहीं मिल जायेगा मगर निमित्तनैमित्तिक योग तो प्रकट स्पष्ट ही है । जैसे यहाँ इस भींट में कलई पुती है, इस पर सूर्य की तेज किरणें पड़ रही है जिससे सारी भींट प्रकाशित हो रही है, तो यद्यपि यह भींट इस सूर्य की सन्निधान पाकर प्रकाशित हो रही फिर भी सूर्य का कुछ भी अंश निकलकर भींट में नहीं आया और भींट का कुछ भी निकलकर सूर्य में नहीं गया । दोनों अपनी-अपनी जगह पर हैं, पर एक ऐसा निमित्तनैमित्तिक योग है कि उसका सानिध्य पाकर इस प्रकार प्रकाश हो जाता ।
657―निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय की पद्धति में सूर्य किरणों का परिच्छेद―सूर्य की किरणें इसका अर्थ क्या? सूर्य की कोई भी चीज सूर्य के प्रदेशों से बाहर नहीं जा सकती । यह वस्तु का स्वरूप है । किसी भी पदार्थ का कोई गुण कोई पर्याय उस पदार्थ के प्रदेशों से बाहर नहीं जाता लेकिन सूर्य की किरणें होती हैं ऐसा कुछ दिखता भी है और शास्त्रों में भी लिखा है । तो जब किसी पदार्थ की कोई चीज जब उसके प्रदेश से बाहर नहीं जाती तो बताओ कि ये सूर्य की किरणें सूर्य से बाहर कैसे चलीं गई । उत्तर―ये जो किरणें मालूम होती हैं ये सूर्य के गुण या पर्याय नहीं हैं, किंतु जैसे सूर्य का सान्निध्य पाकर ये भींट आदिक प्रकाशित हो गये, ऐसे ही इस गगन में जो सूक्ष्म स्कंध हैं ये भी प्रकाशित हो गये । अब आंखों द्वारा सूर्य देखा जा रहा है तो इन गोत्र छोटी सी आँखों द्वारा प्रकाशमान सूर्य को देखने पर दिखने की विधि ही ऐसी है कि प्रकाशमान सूक्ष्म स्कंधों की उनकी प्रकाशता के निमित्त के स्थान से लेकर यहाँ तक उनकी पंक्ति दिखती हैं तो किरणें प्रकाशमान पंक्तिबद्ध सूक्ष्म स्कंध हैं । सूर्य की 16 हजार किरणें हैं ऐसा कहने का अर्थ यह है कि चक्रवर्ती जैसे बलिष्ठ महापुरुषों के समर्थ नेत्रों द्वारा 16 हजार पंक्तियों में सूर्य का सान्निध्य निमित्त पाकर प्रकाशित सूक्ष्म स्कंध दृष्ट हो जाते हैं । हाँ तो प्रसंग की बात यह है कि विकार परिणमन निमित्त सन्निधान बिना नहीं हो सकते, फिर भी विकार रूप से परिणत उपादान में निमित्त कुछ करता नहीं है । तो इसमें विकार की औपाधिकता के परिचय से तो विकार की हेयता स्पष्ट हो जाती है और वस्तु स्वातंत्र्य का परिचय मिलने से पराधीनता का भाव नहीं रहता सो स्वभाव में मग्न होने को सुगम विधि हो जाती है ।
658―निज चैतन्यमहाप्रभु का शरण गहने में ही इन दुर्लभ क्षणों की सफलता―संसार में अनादि काल से अनंतभव धारण कर करके आज सुयोग से मनुष्यभव में आये, जहाँ अल्प तो आयु है और अल्प इसके साधन हैं, फिर भी जगत के अन्य जीवों से तुलना करें तो हमने अपने को श्रेष्ठ मान लिया । ये पशुपक्षी बेचारे क्या करें? इनको तो श्रेष्ठ मन मिला नहीं है यद्यपि उनके भी किसी-किसी के सम्यक्त्व हो सकता फिर भी इससे आगे उनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । वे संयम धारण नहीं कर सकते, मगर इस मनुष्यभव में तो सम्यक्त्व भी उत्पन्न कर सकते, संयम भी धारण कर सकते । ऐसी एक श्रेष्ठ गति हम आपको प्राप्त हुई । इस भव में आकर यदि पंचेंद्रिय के विषयों के साधन, समागम भोगों में ही जीवन गुजार दिया तो यह समझो कि फिर यहाँ उन पशु पक्षियों से अधिक कौनसा कार्य किया? स्पर्शनेंद्रिय के विषयों में पशुपक्षी भी प्रवृत्त होते हैं । जैसा मौज यहाँ मनुष्य मानते हैं वैसा ही मौज उन पशु पक्षियों को भी होता है । कौनसी बात में मनुष्य बड़े हैं सो तो बताओ? निद्रा में भी ये पशुपक्षी इन मनुष्यों से अच्छे हैं सो तो आप जानते ही हैं । अब भय की बात देखो-इन पशु पक्षियों में तो तब ही भय होता जब उनको मारने वाला कोई सामने आये, पर इन मनुष्यों को तो देखो खूब आराम के कमरे में हैं, गद्दे तक्के में पड़े हैं, नौकर चाकर भी सामने हाजिर हैं फिर भी यह भयशील रहा करते हैं । न जाने कब क्या हो जाये, न जाने कब कैसा कानून बन जाये कि सब कुछ छिन जाये आदि बातें सोच-सोचकर भयभीत रहा करते हैं । तो किस बात में ये मनुष्य बड़े हैं पशु पक्षियों से सो तो बताओ? तो बात यह है कि आत्महित में प्रगति कर सकते हैं मनुष्य, इस बात में बड़े हैं । तो आत्महित किसमें है? निराकुलता में । जहाँ रंच भी आकुलता न हो, ऐसी स्थिति हो उसमें हित है । तो निराकुलता कैसे मिले । निराकुलता मिलने का उपाय क्या है? तो सीधा एक शब्द द्वारा भी समझ लो, यह जीव उपयोग वाला है ना? उपयोग करता रहता है । उपयोग में किसी को बसाता है, किसी का सहारा लेता है क्या? तो यह उपयोग अगर निराकुल उपयोग का सहारा ले तो निराकुल हो सकेगा । आनंदमय स्वभाव का सहारा ले तो आनंदमय बन जायेगा तो करना क्या है अपने में सहज अंत:प्रकाशमान चैतन्य प्रभु का आश्रय ।
659―अब तक के काम व आगे के धूल पर विहंगम दृष्टि―इस जीव ने अब तक किया क्या? और अब करना क्या चाहिये, जरा अपने पर दृष्टि देकर निहारिये तो यह जीव अभी तक ज्ञानविकल्प में रमता रहा । रागद्वेष मोहभाव में रमता रहा, और, उसका फल अब तक यह रहा कि यह जीव अभी तक भटकता रहा, दु:खी होता रहा―तो इन विभावों में रमने से शांति नहीं, आनंद नहीं, पवित्रता नहीं । इन विभावों से उपेक्षा करके स्वभाव में रमे, स्वभाव में लगे, स्वभाव के अभिमुख हों, इसके सिवाय और कोई ऐसा मार्ग नहीं कि जिससे यह जीव शांति पा सके । शास्त्रों में जितना भी जो कुछ उपदेश है, कथन है, उस सबका प्रयोजन यह है कि यह जीव विभावों से उपेक्षा करे और स्वभाव में लगे । इसी के लिए समस्त जैनागम में सभी जगह नयों का कथन बताया गया । उस सबका प्रयोजन क्या है? प्रयोजन यही है कि वह यह उपाय जाने कि जिससे यह जीव विभावों से उपेक्षा करके स्वभाव में रमे । बस इस जीव को एक यह ही काम करने को पड़ा है । इसने अभी तक अनेकों काम किए, मगर एक यही काम नहीं किया, इससे यह जीव अभी तक संसार में रुलता रहा है । अब देखो विभावों से उपेक्षा कैसे हो और स्वभाव में लगना कैसे बने, इसके लिए आचार्यों के उपदेश का अध्ययन करें । अपने को ये सब प्रसंग पा लेना चाहिए कि कैसे विभावों से उपेक्षा हो ।
660―विभावों से उपेक्षा कराने वाला सुज्ञान―अच्छा, यह बताओ कि विभावों से उपेक्षा करना कैसे जरूरी पड़ा? ऐसे कि ये विभाव मेरी चीज नहीं है, परभाव हैं, ये हटाये जा सकते हैं । इन विभावों में हेयता का परिचय हो तो विभावों से उपेक्षा बने । यहाँ भी तो जिस किसी पुरुष के प्रति ऐसा ध्यान में जम जाता कि यह मेरे काम का नहीं तब ही तो उससे उपेक्षा बनती है । ऐसे ही इन विभावों के प्रति जब यह निर्णय बन जाये कि ये विभाव मेरे काम के नहीं हैं, मेरे लिए हितरूप नहीं हैं ये हेय हैं तो फिर इन विभावों से उपेक्षा बने । ये विभाव हेय हैं क्योंकि ये मेरे निरपेक्षतया स्वभाव से नहीं है, ये विभाव मैं नहीं हूँ, इसलिए ये हेय हैं । अगर ये विभाव मेरे स्वभाव की चीज होते तो फिर ये किसी तरह हटाये भी नहीं जा सकते थे । तो इन विभावों से उपेक्षा करें । इनसे उपेक्षा करने के लिए आचार्यजनों ने निमित्तनैमित्तिक भावों का परिचय बताया है । जान लें कि मेरे में जो रागद्वेष भाव उत्पन्न होते हैं ये मेरे स्वभाव से नहीं उत्पन्न होते । ये ऐसे निरपेक्ष भाव नहीं हैं कि ये मात्र मेरे स्वभाव से बने हैं । जितने भी विकार अथवा अशुद्धताएं होती हैं वह सब परसंबंध के प्रसंग से होती हैं, इसी कारण वे हटाये जा सकतें है तो विभाव हेय हैं क्योंकि ये परभाव हैं, जैसे कि समयसार में जीवाजीवाधिकार और बंधाधिकार बड़े विस्तार से बताया है ये कर्मोदयविपाकप्रभावाभाव: न ते मम स्वभावा: आदि―याने ये सारे भाव में वर्णादिक, रागादिक, कषायादिक ये सब पुद्गल कर्मोदय से निष्पन्न होते हैं, ये कर्मोदय विपाक से उत्पन्न होते हैं ये मेरे स्वभाव नहीं हैं । मैं तो टंकोत्कीर्णवत् एक ज्ञायकभावमात्र हूँ, अब नैमित्तिक कैसे हैं? यदि निमित्त इनको करता होता तो सदा निमित्त करते ही रहते । निमित्त तो पुद्गल कर्मविपाक है लेकिन पुद्गल कर्मविपाक या पुद्गलकर्म अपनी परिणति से जीव राग विकल्प को करता होता तब भी उनका हटना कठिन था क्योंकि इसका अर्थ तो यह निकला कि हम तो परिणमते नहीं हैं, ये सब कर्म करते हैं, कराते हैं फिर आत्मा परतंत्र बन गया और सो तो आत्मतत्त्व का उच्छेद हो जायेगा । तो निमित्त नैमित्तिक योग मात्र इतना है कि पूर्वबद्ध कर्म जब अपने उदयकाल में आते हैं तो उस समय उन कर्मों में कर्म का विपाक फूटता है और कर्म में बिगाड़ होता है और उस संबंध में कर्मविपाक का सन्निधान पाकर जीव चूंकि उपयोगमय है इसलिए उसमें प्रतिफलन होता । जीव उसमें लग गया, उसे आत्मस्वरूप माना कि यह मैं हूँ, बस इसने किया ज्ञान में विकल्प, वहाँ हुआ कर्मोदय―तो ज्ञानविकल्प इस जीव की परिणति है । कर्म में जो विपाक फूटा वह कर्म की परिणति है । मगर ऐसा निमित्त नैमित्तिक योग मात्र है, जैसे कि प्रकाश में यों हाथ किया, छाया हुई, तो अब यह आकार जैसा कि हाथ है, ऐसा आकार दो जगह है, यहाँ इस चौकी पर आकार है और इस हाथ में मगर हाथ का आकार हाथ में ही है हाथ की परिणति हाथ में है । पर वहाँ हुआ क्या कि इस हाथ का सन्निधान पाकर यह चौकी जो अभी प्रकाशरूप परिणम रही थी प्रकाशरूप अवस्था छोड़कर अंधेरे रूप में हुई । सो हुआ क्या? निमित्त को पाकर उपादान अपने में अपनी परिणति करता है । निमित्त यहाँ कुछ नहीं करता, लेकिन विकार में नैमित्तिक योग अवश्य है । वहाँ ज्ञानी पुरुष यह जानता है कि कर्मविपाक निमित्त सामने हाजिर हैं, उसका सन्निधान पाकर यह जीव अपने में विकल्प बनाता है । तो ये विभाव मेरे स्वभाव नहीं हैं । ये पौद्गलिक हैं, नैमित्तिक हैं, विकारों का पौद्गलिकत्व दो प्रकार से है, एक तो उपादान रूप में कर्म का ही है कि पौद्गलिक हैं । दूसरे, कर्म में आने वाली क्रोधादिक कषायें पौद्गलिक है, उनका उदय हुआ उन्हें निमित्त पाकर जीव में जो कषाय हुई वह पुद्गलकर्म निष्पन्न है ।
661―शुद्धनय से स्व को निरखने का महत्त्व―एक होता है विवक्षितैकदेश शुद्ध निश्चयनय, याने यह अपने स्वभाव में विशुद्ध दिखने के रूप में होता है वह उसे वहाँ शुद्ध दिख रहा है । यहाँ जो राग हुआ सो वह मेरा नहीं है, यह पौद्गलिक है । सो राग परिणति क्या है? ज्ञान विकल्प । वह जीव की परिणति होने पर भी चूंकि सहज निरपेक्ष नहीं है, निमित्त पाकर हुआ है इसलिए यह मेरा स्वभाव नहीं । ये विभाव ये विकार परभाव हैं, मैं इनको यदि अपनाऊँ तो ये खेलते कूदते रहते हैं । तो जब तक जीव के मिथ्यात्व का शमन नहीं है तब तक यह जीव बेहोश है, इन विभावों को अपनाता रहता है । जहाँ सच्चाई का पता लगे वहाँ इस जीव का वश चलता है कि इन विभावों को अपनाता नहीं है । तो ऐसी स्थिति में जहाँ यह धुन लगी है कि विभावों से हटे और स्वभावों में लगें ऐसी जिसके धुन बनी है वह अपने स्वभाव से अपने को प्रस्तुत नहीं करना चाहता मगर पूर्व संस्कार, ऐसा उदय लगा है कि जिससे अपने स्वभाव में लग नहीं पाते, इन विभावों से हट नहीं पाते । कौन नहीं चाहता कि मैं अपने आत्मा में स्वस्थ हो जाऊँ! प्रयास भी करते हैं मगर नहीं हो पाते । ऐसा संस्कार लगा है । तो ऐसे संस्कारों में कहीं यह जीव पापों में न लगे, अपात्र न बन जाये, इसके लिए जब यह जीव राग करता, चेष्टायें करता तो उसके लिए एक संयमरूप चेष्टा होती है । उससे यह स्वरक्षा हुई कि यह जीव अपनी स्वभाव दृष्टि का पात्र तो रहा ।
662―विभावों से उपेक्षा के लिये निमित्तनैमित्तिक योग परिचय और स्वभाव में लगाने के लिए शुद्धनय का परिचय―जहाँ यह जाना कि ये विभाव औपाधिक हैं, नैमित्तिक हैं, ये मेरे स्वभाव नहीं, मेरे निरपेक्ष भाव नहीं, ये हो गए, ये मेरे स्वरूप में नहीं । इनको अपनाने से दुख होता, अपवित्रता होती, इस कारण विभावों से उपेक्षा करने के लिए निमित्त नैमित्तिक योग का सही परिचय काम में लेना चाहिये । न कि दु:ख इस निमित्त ने कर दिया ऐसी मूढ़ता बनायें । अगर निमित्त नैमित्तिक योग का परिचय पर कर्तृत्व और पर स्वामित्व के लिए लगाया गया तो इसमें अनर्थ है । द्रव्य आज तक सब क्यों मौजूद हैं? इसी कारण कि सब अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से हैं । कोई द्रव्य किसी दूसरे के द्रव्य क्षेत्र काल भाव से कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य के स्वरूप से बन जाता तो फिर पता नहीं कि वही फिर दो में से कौन एक रहता, कोई भी एक रहो पर कभी दूसरा भी रहता कि नहीं । फल यह होता कि सारा जगत शून्य हो जाता कुछ न रहता । कोई द्रव्य किसी परद्रव्यरूप परिणमता नहीं । सभी द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप हैं । तो इन विभावों से उपेक्षा करना है और स्वभाव में लगना है । विभावों से उपेक्षा करने के लिये सहयोगी है निमित्त नैमित्तिक योग का परिचय । स्वभाव में लगने के लिए उपयोगी है शुद्धनय का विषय । शुद्धनय से देखें कि मैं क्या हूँ । मैं वह हूँ जो स्वयं हूँ, स्वत: हूँ, सहज हूँ अनादि अनंत हूँ, यहाँ कोई परिणति नहीं दिखती, यहाँ कोई भाव नहीं दिखते विकल्पजाल में शुद्धनय का परिणय नहीं बनता । शुद्धनय का स्वयंभूत अर्थ सहजभूत अर्थ स्वभाव क्या है? उसको पहिचानें, निरखें और यों अंदर चलें । मैं हूँ तो स्वयं हूँ किसी की सत्ता किसी दूसरे की दया पर नहीं होती । मैं खुद हूँ तो मैं क्या हूँ, अपने आप ऐसा अपना अंत:ज्ञान बनायें और उस सहज भाव की परख के उपाय से उस अंतस्तत्त्व के दर्शन करें तो अनुभव में आता और अपने आप ऐसा अनुभव होता कि मैं यह हूँ । कैसे? किसी को बुलाते हैं ना, फलानेचंद, तो झट उस ओर दृष्टि पहुंच जाती है, कारण क्या है कि उसने इन पर्यायों में आत्मबुद्धि की है, यह मैं हूँ, और जब एक द्रव्यस्वरूप में आत्मबुद्धि होगी, अनादि अनंत एक स्वरूप निज अंतस्तत्त्व में दृष्टि होगी मैं यह हूँ, तब तो फिर उसके ऊपर वज्र भी चले तो भी उससे विचलित नहीं होता । उसके ऐसी शक्ति प्रकट होती और ऐसी निर्भयता रहती कि वह अपने स्वरूप में शंका नहीं रखता । इसलिए काम एक ही यह पड़ा है, दो काम नहीं, विभावों से उपेक्षा और स्वभाव में लगना । इस ही धुन में जी लगता है तो उसे जो भी चीजें बाधक मालूम होती हैं उनका वह त्याग करता है । वह ऐसा स्वच्छंद नहीं रहता कि वहाँ विषयों में कीर्ति अंश आदिक में भी रमें और अपना काम भी करे । एक उपयोग में दो काम नहीं बनते । विषय-भोग और मोक्ष में जाना । मोक्ष का मार्ग और संसार के समागमों का मौज, ये दो बातें एक साथ नहीं बनती । तो यह जीव एक अपने स्वभाव की धुन में जब लग जाता है तो त्याग के मार्ग में बढ़ता है । वह अनात्मपदार्थ को परिहार करके भी यहाँ वहाँ उपयोग नहीं लगाता फिरता कि यह भी छोड़ा, वह भी छोड़ा यह विकल्प भी बाधक है ।
663―कषायों के निर्माणविधान के परिचय का प्रभाव―विभावों से उपेक्षा बने इसके । यह भी समझिये कि क्रोधादिक कषायों का निर्माण कैसे होता है? बुद्धिपूर्वक जो कषायों का निर्माण है वहाँ दो बातें है―उपादान कारण और निमित्तकारण । क्रोध प्रकृति का उदय है तो यह जीव क्रोधरूप परिणम गया । मगर जितनी बुद्धिपूर्वक कषाय है उसमें तीन बातें आया करती हैं निमित्त कारण आश्रयभूत कारण और उपादान कारण । निमित्तकारण और उपचरित कारण में अंतर क्या है? उपचरित कारण में तो जब हम उपयोग जुटायें उसका आश्रय लें तो वह उपचरित कारण कहलाता है । उसका उपयोग न जुटायें उनका आश्रय न लें तो वे उपचरित कारण भी नहीं बनते । परंतु निमित्त कारण वह कहलाता है जिसका उपादान के कार्य के साथ अन्वय व्यतिरेक संबंध हो । साथ ही निमित्त का उपादान में अत्यंताभाव होता है । पुद्गल कर्म का जीव के साथ अत्यंताभाव है, प्रत्यक्ष प्रकट परद्रव्य है । तो पुद्गलकर्म का जीव में अत्यंताभाव है लेकिन कर्मदशा का जीव के साथ अन्वय व्यतिरेक संबंध है । जैसे क्रोध प्रकृति के उदय होने पर जीव में क्रोध प्रतिफलन होता है और क्रोध प्रकृति का उदय नहीं है तो क्रोध प्रतिफलन भी नहीं होता है । ये जगत के जितने आश्रयभूत कारण हैं वे आरोपित कारण हैं, इसी कारण वे बहिरंग कारण कहलाते हैं । तो जितने व्यक्त विकार होते हैं उनमें आश्रयभूत कारण में उपयोग होता है । यदि आश्रयभूत कारण में उपयोग न हो तो वे विकार अव्यक्त रह जाते हैं । इसी कारण चरणानुयोग में बाह्य पदार्थों के त्याग का महत्त्व बताया है कि आश्रयभूत कारण न होंगे तो अध्यवसान को अवसर न मिलेगा । यद्यपि ऐसा कुछ नियम नहीं है कि आश्रयभूत कारण का बाह्यक्षेत्र से त्यागकर देवे तो विकार हों ही नहीं, किंतु ऐसा नियम अवश्य है कि व्यक्त विकार होंगे तो बाह्यवस्तु का आश्रय करके ही होंगे । इसी आधार पर चरणानुयोग मार्गदर्शन करता है । विकार के आश्रयभूत कारण न जुटायें तो विकार व्यक्त नहीं होते । अबुद्धिपूर्वक ही विकार रह पायगा कर्मविपाक होने पर । केवल कर्मविपाक को ही जीव विकार में निमित्त कारण कहा गया है । कर्मविपाक को छोड़कर शेष सभी पदार्थ तो नोकर्म कहलाते हैं । आश्रयभूत कहलाते हैं, बहिरंग कारण कहलाते हैं ।
664―बाह्यपदार्थ के अनाश्रय में स्वभाव का विकास―जिस उपयोग में कभी कोई बाह्य पदार्थ विषयभूत हो रहा हो, उपयोग लग रहा है तो ऐसी स्थिति में विकार का ही निर्माण चलेगा, स्वभाव का नहीं, इसलिए सम्यग्दर्शन एक कोई बाह्य साधन को कारण बनाकर नहीं हुआ करता, किसी बाह्य का लक्ष्य बनाकर सम्यग्दर्शन नहीं हुआ करता किंतु निर्विकल्प एक ज्ञायकस्वभाव अंतस्तत्त्व के आश्रय से ही सम्यक्त्व की उद्भूति, अनुभूति होती है और उस सम्यक्त्व की अनुभूति होने पर सम्यक्त्व रहता है चिरकाल तक, निरंतर अनुभव हो या न हो मगर वह सम्यक्त्व एक निरपेक्षभाव प्रतीतिरूप सदैव रहता है । जो 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम से सम्यक्त्व की उत्पत्ति कही है, उसका राज यह है कि पहले मिथ्यात्व कर्म के उदय और उदीरणा से मिथ्यात्व आदिक विकार होते रहते थे, अब उनका उदय नहीं रहा, चाहे उपशम रूप से या क्षय आदिकरूप से रहने के कारण उदय नहीं रहा तो अब वे विकार कहां से आयें । फल यह होता है कि सम्यक्त्वादिक शुद्धभाव प्रकट हो ही जाते हैं । इस राज का पता हो जाने पर फिर किसी कथन में विसंवाद नहीं रहता ।
665―आगम के सर्व उपदेशों में स्वभाव के सुध की कर्तव्यता का दर्शन―हमें आगम के चारों अनुयोगों के कथनों से निष्कर्ष यह निकालना चाहिए कि विभावों से उपेक्षा हो और स्वभाव में लगन हो । जैसे करणानुयोग में तीन लोक का विस्तार बताया कि 343 घनराजू प्रमाण लोक है उससे हम क्या शिक्षा लें कि आत्मा की सुध बिना अज्ञानवश इतने बड़े लोक में प्रत्येक प्रदेशों पर अनंत बार जन्म मरण करता रहे । इस लोकपरिचय से दूसरी प्रेरणा यह मिलती है कि इतने बड़े लोक के समक्ष हमारी यह परिचित भूमि कितनीसी है जिसमें ममता करके अपनी बरबादी की जाये । लोकपरिचय होने से विरक्ति की उमंग जगती है, कभी करणानुयोग में यह वर्णन आता कि जीवों की अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर हजार योजन तक की है उसमें भी हमें यही प्रेरणा मिलती है कि ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व की सुध न होने पर ऐसे-ऐसे दुर्देहों में रहकर यातनायें भोगनी पड़ती हैं । कोई भी वर्णन सुने, सबका यह ही उद्देश्य हुआ करता है कि विभावों से उपेक्षा करना और स्वभाव में लगना । प्रभुदर्शन का, प्रभुपूजा का क्या अर्थ है कि हम भगवान के स्वरूप को जानें और अपने स्वरूप से तुलना करें कि जैसा प्रभु का स्वरूप है वही हमारा स्वरूप है । प्रभु भी पहले हम जैसे ही संसार में रुलने वाले थे किंतु उन्होंने सम्यग्ज्ञान पाया और आत्मस्वभाव के अनुरूप आचरण किया, बाह्य में निर्ग्रंथ हुए, सहनशील हुए परीषह विजयी हुए आदिक जो भी उपाय किया है, जिससे वे प्रभु हुए, यही उपाय हम भी करें तो प्रभुता हमारी भी प्रकट हो सकती है ।
666―सरागचारित्र हुए बिना वीतराग चारित्र की असंभवता और सराग चारित्र छूटे बिना वीतराग चारित्र की असंभवता―यहाँ एक बात और समझना है कि सम्यक्त्व हुए बाद जो प्रगति होती है वह इस प्रकार होती है कि इस भव्य जीव के सरागचारित्र होता और फिर वीतरागचारित्र होता । सरागचारित्र हुए बिना वीतरागचारित्र नहीं होता और सरागचारित्र छूटे बिना वीतरागचारित्र नहीं होता । जैसे एक मंजिल पर ऊपर चढ़ना है तो लोग ऐसा ही तो यत्न करते हैं कि सीढ़ियों पर चढ़ते और छोड़ते हुए ऊपर पहुंच जाते हैं । अब यहाँ दिखने में तो दोनों ही बात आ रहीं कि सीढ़ियों पर चढ़ने से ही ऊपर पहुंचे और सीढ़ियों को छोड़ते जाने से ही ऊपर पहुंचे । अब यहाँ कोई ऐसी हठ करे कि सीढ़ियों पर चढ़ने से ही पहुंचते हैं तो वह किसी सीढ़ी पर चढ़ जावे और उसी सीढ़ी से प्रेम कर लेवे, उसे छोड़े नहीं तो क्या वह ऊपर पहुंच जायेगा? नहीं पहुंच सकता । इसी तरह कोई यह हठ कर लेवे कि सीढ़ियों के छोड़ने से ही यह ऊपर पहुंचा तो हम तो सीढ़ियों को छोड़ ही रहेंगे तो क्या यों सीढ़ियों को छोड़कर नीचे ही बने रहने से क्या वह ऊपर पहुंच जायेगा? नहीं पहुंचेगा । इसी प्रकार यहाँ भी दो बातें दिखी कि सराग चारित्र धारण करने से वह आगे वीतराग चारित्र में पहुंचा और यह भी देखा गया कि सरागचारित्र पर्याय छूटने पर ही वीतरागचारित्र हुआ । अब यहाँ कोई हठ कर लेवे कि सराग चारित्र से ही वीतराग चारित्र होता तो हम सराग चारित्र को पकड़ ही रहेंगे, तो क्या वह वीतराग चारित्र पा लेगा? नहीं, इसी प्रकार कोई यह हठकर लेवे कि सराग चारित्र छोड़ने से ही ऊपर उठते हैं तो हम सराग चारित्र छोड़ें ही रहेंगे, सराग चारित्र तो हेय है उसके पास क्यों जाना तो ऐसा व्यक्ति भी क्या वीतराग चारित्र पा लेगा? नहीं, आगम में अशुभोपयोग को अत्यंत हेय कहा है । शुभोपयोग को हेय कहा है, शुद्धोपयोग को उपादेय कहा है इससे ही यह प्रतिबोध पा लेना चाहिए कि अशुभोपयोग ही अत्यंत हेय है, शुभोपयोग शुद्धोपयोग के समक्ष हेय है किंतु व्यसनी, पापी, अज्ञानी दुराचारी जीवों के लिए शुभोपयोग उपादेय है । ज्ञानी होने पर धर्ममार्ग पर बढ़ने के लिए शुभोपयोग होकर भी उसमें उपादेयता को बुद्धि नहीं रहती, किंतु शुद्धोपयोग ही एक लक्ष्य रहता है । शुभोपयोग तो एक ढाल है, इससे सुरक्षित रहकर याने व्यसन, विषय आक्रमण से बचकर शुद्धोपयोगरूप शस्त्र से विकार शत्रुवों को निर्मूल करना है । तो हम पापों से बचने के लिए शुभोपयोग करके भी शुभोपयोग में न रमें, किंतु शुद्ध ज्ञानभाव अंतस्तत्त्व के आश्रय से परमात्मत्व का विकास करें । प्रसंग की बात यह है कि हम सराग चारित्र में बढ़ते हुए भी सरागचारित्र को ही अपना ध्येय न मानें किंतु स्वभाव के आश्रय से वीतरागचारित्र की प्राप्ति करें और भीतर में अपने स्वभाव की आराधना करके अपने आपको सुदृढ़ बनायें ।
667―साधर्मिवात्सल्य व गुरुपद्धतिपालन के वातावरण में आत्मप्रगति के लिए सुविधा का दिग्दर्शन―अब अपनी उपयोगी दूसरी बात सुनिये । देखिये जब साधर्मीजनों में वात्सल्य व एकरूपता रहती है तब ऐसे पवित्र वातावरण में स्वानुभव के लिए उमंग रहती है, और जब कोई एक अंत: बात विरोधी की रहती है तो यहाँ न इस खुद का भला न अन्य किसी का भला देखिये जिस किसी भी समाज की बनती बात है तो गुरु के सहारे बनती है, कोई भी समाज गुरु बिना, जीवित नहीं रहता । आज हम ऐसा खोजें जैसा कि वज्रवृषभनाराच संहनन वाले गुरु होते थे और वैसे असंभव होने से स्वयं गुरुत्व का मान करें, तो वह हमारी धृष्टता है याने खुद संयम नहीं धारण कर सकते तो कालोचित संयम का भी विरोध करें यह श्रद्धालुता से रहित बात है । आज पंचमकाल है, यहाँ से अभी मोक्ष नहीं होता तो मोक्षोचित संयम कहां से हो? फिर भी जितने संयम से पुलाक मुनि आदि हो सकते हैं वह तो संभव है । हमें अपनी प्रवृत्ति तीर्थ का विरोध करने वाली नहीं बनाना चाहिए । व्रती, साधु, गुरूजनों का यथोचित विनय कर अपने मार्ग में प्रगति करनी चाहिए । शास्त्र पुराणों में आया है कि जब किसी श्रद्धालु ने निर्ग्रंथ को देखा तो उसकी विनय सेवा करना ही कर्तव्य समझा । कदाचित् कोई व्रती कुछ पदच्युत भी हो जाये तो घृणा करके उसकी सम्हाल नहीं की जा सकती । सेवा विनय से उसकी सम्हाल याने स्थितिकरण होता है । साधु पुरुष आचरण से महान माने गए हैं । चाहे उनका ज्ञान थोड़ा भी हो । शास्त्र प्रवचन मात्र का ज्ञान मुक्ति का बीज नहीं बन जाता है । कोई गृहस्थ सोचे कि मेरे ज्ञान के सामने यह कोई बड़ा ज्ञान नहीं लेकिन वे यह नहीं समझे कि आत्माचरण सहित ज्ञान ही प्रशंसा के योग्य ज्ञान है । ज्ञान द्वारा हम वस्तु का भले प्रकार निर्णय करें और न पक्षपात को छोड़कर स्वरूप में गुप्त होने का उद्यम करें । जो पुरुष पक्षपात और विकल्प जाल से रहित होकर ज्ञान सेवा करते हैं वे ही समयसारभूत का पान करते हैं । हम सबका कर्तव्य है कि तत्त्व ज्ञान के मार्ग से चलें और तीर्थ प्रवृत्ति का उच्छेद न करें । यदि वह तीर्थ परंपरा रहेगी तो समाज क भावी संतान के प्राणी सन्मार्ग पाकर धर्मामृत का पान कर जीवन सफल कर सकेंगे । अत: भैय्या ! हम आप सबका कर्तव्य है कि तीर्थप्रवृत्ति का उच्छेद न करें ताकि भविष्य में यहाँ की धारा में सत्संग पाकर अनेकों भव्य प्राणी आत्महित का योग पा सकें और स्वयं हम आप विकल्प विग्रह शल्य व धर्मविरोधक भावना से उन्मुक्त रह कर स्वयं में सहज चैतन्य तेज का अनुभव कर इस दुर्लभ नरभव को सफल कर सकें ।