वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 69
From जैनकोष
य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यम् ।
विकल्पजालच्युत शांतपचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबंति ।।69।।
668―स्वभाव और घटना का परिचय―इस कलश में बताया जायेगा कि समस्त नय पक्ष को छोड़कर जो स्वरूप में गुप्त होता है ऐसा पुरुष ही इस समयसार साक्षात अमृत का पान करता है । इससे पहले एक ज्ञातव्य बात सुनो―यह मैं हूँ क्या, और यहाँ घटना घट क्या रही है । इन दोनों निर्णयों पर वे दो नय बने हैं जिन नयों के पक्षपात से हमें दूर होना है, मैं क्या हूं? इसका सीधा उत्तर यह है कि मैं अपने आप स्वयं निरपेक्ष सहज अपने ही सत्व के कारण अन्य द्रव्य के संपर्क बिना जो कुछ हूँ सो ही मैं हूँ । अच्छा और इस समय घटना क्या घट रही? घटना यह घट रही है कि जो मेरे साथ पूर्वबद्ध कर्म हैं ये सब अनादि परंपरा से बंधे चले आ रहे । इन कर्मों में जिस समय ये कर्म बँधे थे उस समय इनमें प्रकृति बँध, स्थिति बंध, प्रदेश बंध, अनुभाग बंध पड़ गया था याने उस काल में ये कर्म कोई कहने मात्र के नहीं हैं किंतु ये अपनी प्रकृति को रखते, उनकी स्थिति भी है, अनुभाग भी है और प्रदेश तो हैं ही । तो मुख्य बात यहाँ याद रखिये कि इनमें अनुभाग पड़ गया था याने ये कर्म स्वयं उस ढंग के हो गए । जिनमें अनुभाग पड़ा था तो उनकी स्थिति पूर्ण हुई, उदय में आये, यह उनका ही काम हो रहा है । कहीं स्थिति से पहले उदय में आते, उसे कहते उदीरणा । जैसे कोई एक चूने का डला है, अभी-अभी का बना है मान लो उसकी म्याद है कि वह डला 6 माह तक बना रहेगा, याने 6 माह बाद वह डला फूट जायेगा और कदाचित् कोई योग ऐसा आये कि कोई बीच में ही उस पर पानी डाल दे तब तो फिर वह डला दो चार दिन में ही पिघलकर फूट जायेगा तो ऐसे ही कर्म में जो स्थिति बंधी थी वह स्थिति पूर्ण हुई कि कर्म में विकार आया, अनुभाग फूटा तो कर्म में ही बिगाड़ आया । मूल बात यह है । जैसे दर्पण के सामने हाथ करके हिलाया तो हाथ का विकार हाथ में ही आया अन्य वस्तु में नहीं । तो पूर्वबद्ध कर्म का जो अनुभाग फूटा तो कर्म में आया कर्म में उसका फल हुआ । कर्म अचेतन हैं, वे अनुभव नहीं कर पाते, मगर वह बिगाड़ कर्म में है और चूंकि यह जीव उपयोगवान है, ऐसा ही उपादान है, स्वच्छता है तो यहाँ उस प्रकार का स्वच्छता में विकार आया । जैसा सामने जिस तरह का हाथ किया वैसा ही दर्पण में विकार आया । विकार दो जगह हुआ । हाथ का विकार हाथ में, दर्पण का विकार दर्पण में । मगर घटना यह घट रही कि इस हाथ का निमित्त सन्निधान पाकर यह दर्पण स्वयं अपनी परिणति से उस विकाररूप परिणम गया । ऐसी ही घटना यहाँ घट रही है, एक सहज चैतन्यस्वरूप होने पर भी अनादि से ऐसा ही प्रसंग बना चला आ रहा है कि यहाँ पूर्वबद्ध कर्म उदित हुए और उनका प्रतिफलन हुआ । यह स्वच्छता का ही परिणाम है । उस प्रतिफलन में अज्ञानी पुरुष अहंबुद्धि करता है कि मैं यह हूँ । यह अपनी सुध भूल जाता है, और ज्ञानी पुरुष अपनी कुछ सम्हाल करता फिर भी नहीं सम्हाल पाता । उसके साथ रागद्वेष भी चलते रहते, पर वह अपनी प्रतीति ठीक-ठीक बनाये रखता । ऐसी घटना वहाँ चल रही ।
669―स्वभाव और घटना के रूप का दर्शन―यहाँ पर दो बातें आयीं । स्वभाव देखो तो वह है अविकार । जैसे अभी आरती में स्वभाव की स्तुति की गई । वह स्वभाव निर्विकार नहीं किंतु अविकार है । परमात्मा हैं अविकार और स्वभाव है अविकार याने स्वरूप में विकार नहीं, स्वरूप में कष्ट नहीं, विषमता नहीं । उस स्वभाव की दृष्टि से देखा जाये तो यह क्या है? कहाँ कर्मबंध? यह तो अपने आपमें अकेला ही विराजमान है, और व्यवहार नय से देखा जाये तो इसमें कर्मबंध है । ये दो बातें जैसे सामने आयीं, और दोनों ही सत्य हैं यह उपचार वाला व्यवहार नहीं । यहाँ से देखें तो कर्म से बद्ध है और यहाँ से देखें तो कर्म से अबद्ध है, ऐसी दो दृष्टियों से निरख करने की बात चल रही है । अब ऐसी स्थिति में भी जो कुछ इस आत्मा में परिणाम बना, अज्ञानरूप परिणाम बना तो हुआ क्या? अतत्त्व की उपलब्धि के रूप से ज्ञान का ही उस रूप परिणमन बनता । देखो आत्मा ज्ञानस्वरूप है हर स्थिति में । विकार हुआ तो भी वहाँ ज्ञान के माध्यम से बात आयी, सम्यग्दर्शन हुआ तो भी वहाँ क्या हुआ? इस ही ज्ञान का जीवादिक श्रद्धान स्वभाव से परिणाम । सम्यग्ज्ञान हुआ तो वहाँ भी क्या हुआ? इस ही ज्ञान का तत्त्वोपलब्धिरूप से परिणाम । सम्यग्चारित्र रूप हुआ तो क्या हुआ? इस ही ज्ञान का रागादिक परिहार स्वभावरूप से परिणमन । जैसे इस रत्नत्रय में यह बात चल रही तो रत्नत्रय के विपरीत याने मिथ्यात्व, अज्ञान, अचारित्र इनमें भी यह चल रहा ज्ञान का उस रूप से परिणमन । सुख क्या? ज्ञान का उस रूप से परिणमन । जैसे यह मेरे लिए बड़ा अच्छा है, मुझसे अच्छा कौन है इस प्रकार के जो ज्ञान के विकल्प हैं उसका नाम है सुख परिणाम । दुख रूप परिणाम क्या? ज्ञान का उस रूप जो विकल्प है जो अस्वभाव है उसमें रहे वही हुआ दुःखरूप परिणाम । तो शांति क्या? ज्ञान का अन्य रूप से कुछ भी परिणमन नहीं, ज्ञान का ज्ञानरूप से परिणमन । ज्ञान में ज्ञानरूप ही समाया हो, ज्ञानदर्शन जाननरूप परिणमन हो वही है शांति का परिणाम । तो देखने में दो बातें हुई―व्यवहारनय से देखा तो कर्म से बद्ध है, निश्चयनय से देखा तो कर्म से अबद्ध है, स्वभाव से देखा तो कर्म से अबद्ध है । निश्चयनय केवल एक वस्तु को विषय करता व्यवहार घटना को निरखता । यहाँ दो तरह से निरखना है । कर्म से बँधा है यह भी तथ्य और कर्म से नहीं बंधा यह भी तथ्य, स्वभावदृष्टि से देखें तो कर्म से अबद्ध और व्यवहार से दखे तो कर्म से बद्ध । यहाँ निमित्त नैमित्तिक योग निरखा जा रहा और वस्तु स्वातंत्र्य भी दिख रहा । कर्म ही अपने अनुभाग में यहाँ परिणम रहा । उसकी वहीं परिसमाप्ति है मगर उसका निमित्त पाकर जीव अपने ज्ञान विकल्परूप में उस प्रकार परिणम रहा । तो कोई भी पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ की परिणति के साथ नहीं परिणम रहा । अर्थात् दो परिणामों को कोई एक करता हो ऐसी बात नहीं, उसका परिणाम वहाँ, इसका परिणाम यहां, पर विकार परिणाम, विषम परिणाम, जितने भी होते हैं वे निमित्त सन्निधान के अभाव में कभी हो ही नहीं सकते । बस यह निमित्त नैमित्तिक योग है मगर परिणाम सबका खुद का खुद में चल रहा, यह निरखने की भी मूल बात है । तब विदित होता कि सर्वत्र यहाँ यह हो रहा है ।
670―आत्महित के उपाय में लगने की अभिलाषा―अब एक जिज्ञासा होती है कि स्वभाव से यह मैं आत्मा अबद्ध अस्पृष्ट नियत असंयुक्त हूँ और घटना से देखें तो बद्ध है, स्पृष्ट है, अनियत है और संयुक्त चल रहा, ये सब बातें चल रही हैं, मगर काम की बात पर तो आइये―मैं कैसे उस शांत समयसार परमात्मतत्त्व का अनुभव कर सकूं? भाई देखो व्यवहार अनेक प्रकार के होते हैं और उन व्यवहारों से उत्तरोत्तर अध्यात्म ज्ञान बढ़ावें । व्यवहार नय से हमारा ज्ञान बनता और चलकर आखिरी व्यवहार होता है गुणभेद करने वाला । व्यवहार में कितनी ही बातें जानी जाती हैं । व्यवहारनय तथ्य को ही जानता, असत्य को नहीं । वह उपचार की चीज है जो पर कर्तृत्व ला दे, जो पर स्वामित्व ला दे, जो पर निर्मितता ला दे, ये तीन प्रकार के जो निरखन हैं ये उपचार हैं, इसने दूसरे को यों किया, यह इसका मालिक है, यह इसके द्वारा रचा गया था, इस तरह की जो निरखन है वह उपचार है । यहाँ उपचार की बात नहीं कही जा रही किंतु प्रमाण के अंशभूत जो दो नय हैं उनका कथन चल रहा है । द्रव्यार्थिकनय, पर्यायार्थिकनय, निश्चयनय, व्यवहारनय । देखो दो प्रकार से, मगर ज्ञानी पुरुष किस तरह से निर्णय कर करके लाता कि आत्मा अखंड एक स्वभाव है इसका, देखिये विषय तो है यह शुद्धनय का मगर निर्णय दिया व्यवहारनय ने । व्यवहार ही प्रतिपादक होता है निश्चयनय नहीं । यहाँ तक हम आये एक परमशुद्ध निश्चयनय तक, कैसे आये? जानना तो सब है मगर एक जरा ध्यान बनायें, अपने आपको हटा हटाकर, पर तत्त्वों से परभावों से हटा हटाकर आगे जरा बढ़ें । स्वभाव बल से परभावों से हट हटकर अपने आप में मग्न होने की बात यह पौरुष में आनी चाहिए ।
671―भौतिक संगव्यामोह परिहार की प्रथम आवश्यकता―अहो सीधा एकदम सामने जो एक भौतिकों की भिड़ंत होती है यह करतब चल रही है मनुष्यों के इस धन वैभव आदिक के कारण प्राय: सभी मनुष्य एक बहुत बड़ी परेशानी अनुभव कर रहे हैं । धन वैभव कम हो तो क्या, अधिक हो, तो क्या परेशानी क्या है? उस धन वैभव से भी ध्यान हटाना होगा । वे सब बाह्य तत्त्व हैं, जड़ हैं भिन्न हैं, उनको इस अमूर्त आत्मा से क्या मतलब? चीज है, पड़ी है, इससे पहले भी तो हम किसी भव में थे इस भव के लिए वहाँ की बात कुछ हैं क्या ? यहाँ मरने के बाद भी तो हम रहेंगे । हमारे लिए यहाँ की बात क्या कुछ रहेगी? अब और तो जाने दो घर से यहाँ मंदिरजी तक आये तो आपका घर या आपकी तिजोरी आपके साथ चिपककर आयी क्या? नहीं आयी, तो फिर कौनसी ऐसी बात है जो यह धन वैभव आपका कहलाये? केवल एक मूढ़तावश, मोहवश उस प्रकार का ख्याल बनाया । तो ऐसे व्यर्थ के झंझट क्यों लादे जा रहे हैं? ये सब धन वैभव जीर्ण तृण के समान हैं, उनमें उपयोग देने से इस भगवान सहज परमात्मतत्त्व का यहाँ अपघात हो रहा है, उसकी जहाँ सारी बरबादी चल रही है न कुछ जैसी एक थोथी बात में । एक भजन में आया है बात थी कितनीसी जड़ में, हो गया कितना बतंगड़ । भला कोई ऐसा प्रश्न करे कि इस जीव पर जो इतनी बड़ी आफत लगी है, मरा, कीट हुआ, पशुपक्षी हुआ, पेड़ पौधा, नाना योनियों में जा रहा, इतना बड़ा जो एक दंड मिल रहा है इतना कठिन जो कष्ट भोगना पड़ रहा है तो यह किस कारण इतना बड़ा कष्ट हुआ? तो लोग इसके उत्तर में कहते हैं ना, मिथ्यात्व के कारण मोह के कारण इतना बड़ा कष्ट हुआ । मगर उस मोह के मायने क्या? अरे इसने पर्याय को माना कि यह मैं हूँ, देह को माना कि यह मैं हूँ, अरे भला उसने किसी को मारा पीटा नहीं, किसी को सताया नहीं किसी को कष्ट नहीं पहुंचाया । बस जरासा सोचा इस देह को देखकर कि यह मैं हूँ, बस इतनीसी बात का इतना बड़ा दंड? अरे इतनीसी बात यह सब ऐबों की जड़ है, पर में अहंबुद्धि होना परभावों में अहंबुद्धि होना सबसे बड़ी गल्ती है । अज्ञान में सारे अज्ञानमय भाव क्यों होते? मूल में उसने इतना अज्ञान बसाया कि जितनी कर्मलीला है उसे माना कि यह मैं हूँ, उससे जो भी रचना होगी वह सब अज्ञानमय भाव की रचना होगी । वह और कुछ लायेगा कहां से? पहले तो इन जड़ धन वैभवों से निपट में कि ये मेरे नहीं, ये मेरी बरबादी के हेतुभूत हैं । इनको आश्रयभूत करके जो पातक बनता है वह बड़ा कठिन बनता है, इन धन वैभवों को हमें अपने ज्ञान में स्थान न देना चाहिए ।
672―शाश्वतशांति के लाभ के अर्थ पौद्गलिक माया के परिहार का सर्वप्रथम कर्त्तव्य―यदि शाश्वत शांति के उपाय का बड़ा काम करना है तो उसके लिए भौतिक सुखत्याग का बड़ा साहस बनाना पड़ेगा । कोई कहे अच्छा चलो यह तो ठीक है मगर जो ये लड़के बच्चे, मातापिता वगैरह बड़े सुहावने लगते हैं इनके लिए तो कुछ करना होगा । अरे वे माता पिता पुत्रादिक हैं क्या? ये जो घर में जीव दिख रहे ये सब हैं क्या? देह, जीव, विधि पिंडरूप । याने शरीर, चेतन और कर्म, इन तीन का जो पिंडोला है उससे लोग मोह करते । माया वह चीज है जो अपने सहजस्वरूप में न हो । वह भी तो भिन्न है, ये सब स्त्री पुत्रादिक कुटुंबीजन दिख रहे हैं ये सब अपने-अपने कर्म लिए हुए हैं । सभी जीव अपने-अपने कर्मोदय से सुखी दु:खी होते हैं, सभी अपने अपने कर्मों के उदय से जीवन मरण को प्राप्त होते हैं । उनमें यह जीव मिथ्या अध्यवसान करता है कि ये मेरे हैं मैं इनको सुखी करता दु:खी करता । अरे उनसे भी हट । मगर यह देह के बंधन का तो एक विकट रोग लगा है । अभी इसके शरीर में जरासा काँटा चुभ जाये या कोई मक्खी मच्छर आदि बैठ जाये तो फिर देख लो इसकी क्या हालत होती है । यह कोई गप्प करने की चीज नहीं । इस बात का अनुभव तो सभी को है । एक कथानक आया है कि कोई बाबूजी बंबई जा रहे थे तो उनके पास कुछ सेठानियाँ आयी । किसी सेठानी ने कहा बाबूजी आप हमारे बच्चे को खेलने का हवाई जहाज ले आना, किसी ने कहा हमारे बच्चे को रेल का इंजन ले आना, किसी ने कुछ कहा किसी ने कुछ । बाद में एक बुढ़िया दो पैसे लेकर आयी और बाबूजी को वे पैसे देते हुए बोली बाबूजी हमारे ये दो पैसे लेना और हमारे मुन्ने को खेलने के लिए बंबई से मिट्टी का खिलौना ले आना । तो बाबूजी बोले―बुढ़िया माँ, बेटा तो तेरा ही खिलौना खेलेगा, बाकी सेठानियाँ तो सिर्फ गप्प करके चली गई । तो ऐसी केवल गप्प करने से बात नहीं बनती । उसके लिए तो कर्तव्य करना होगा । इन देहधारियों से व इन धन वैभवादिक से सभी से ममत्व हटाना होगा । देखो यह दिखने वाला देह है क्या चीज? जिस तन को सजाते हैं इतराते रूप लखकर, वह तन है क्या चीज? मांस मज्जा खून पीप, मल मूत्रादिक का घर । यह तन मिटने से पहले दुःखों का बीज बो जाता । तो इस देह से भी मोह हटावो ।
673―कर्मत्व और कर्मविपाक की हेयता के परिचय में उनके निर्माण विधान का दिग्दर्शन―अब जरा कुछ और भीतर चलो तो इन पौद᳭गलिक कर्मों का तो कुछ दर्शन नहीं, मगर कर्मलीला का यह अनुभव करता है । इस कर्मलीला के बारे में सुना तो है आगम से और इसे युक्ति से भी जानें । आखिर जब कोई चीज अकेली हो तो वह एकरूप रहेगी । उसमें नाना परिणतियां क्यों होंगी? युक्ति से जानें किसी पदार्थ में विषम परिणति होती, अगर भिन्न-भिन्न परिणमन होते हों तो निश्चित समझो कि यहाँ कोई पर संपर्क है, पर संपर्क बिना विभिन्न परिणतियां न चलेंगी । वह पर क्या है? उसे किसी भी नाम से बोलो, उसे कर्म नाम से कहा गया । वह कर्म रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है, वह ऐसी जाति का है कि जीव के रागद्वेष भाव का निमित्त पाकर वह कर्मरूप परिणम जाता है । कर्मरूप परिणमने की भी एक कहानी बेजोड़ कहानी है, जो नवीन कर्मास्रव होता है याने जो कार्माण वर्गणायें कर्मरूप नहीं परिणमी हैं वे कर्मरूप परिणम जायें ऐसा जो आस्रव होता है उसका निमित्त कारण कौन है? उसका निमित्त कारण बताया गया है उदयागत द्रव्य प्रत्यय । जो उदय में आये हुए कर्म हैं वे नवीन कर्म के आस्रव के कारण हैं, सुगमता से तो यह समझ में आया कि जीव के रागद्वेष मोह हैं, ये नवीन कर्म के आस्रव के कारण तो उदयागत कर्म हैं और उदयागत कर्म में नवीन कर्मों के आस्रव का निमित्तपना आया, इसमें निमित्त हैं जीव के रागद्वेष मोहभाव । तो अब देखो कैसा जाल पड़ा है यहाँ । है वस्तु स्वातंत्र्य, एक का परिणमन दूसरा नहीं कर रहा, मगर जाल तो देखो जो कर्म उदय में आये वे कर्म नवीन आस्रव का कारण बने और ये जीव के रागद्वेष मोह भाव का निमित्त बने, और उस निमित्त को पाकर इनमें निमित्तता ऐसी आयी कि नवीन कर्म का आस्रव हुआ । कितना जाल चल रहा है? चल रहा है वह स्वयं? जैसे दृष्टांत में समझो कि जिस कमरे में अंधेरा रहता है उसमें कोई बालक मध्य दोपहर में दर्पण को इस तरह से करे कि सूर्य भी दर्पण के सामने पड़े और वह अंधेरा कमरा भी उसके सामने आ जाये तो देखो उस कमरे में बाहर से प्रकाश आ जाता है । है प्रकाश दर्पण का निमित्त पाकर वहाँ, मगर दर्पण को ऐसा किया कि सूर्य का सन्निधान रहे और कमरे में दर्पण का सन्निधान रहे तो उस कमरे में वैसा ही पूरा प्रकाश वहाँ आ जाता है । अब यहाँ यह बताओ कि कमरे में जो प्रकाश आया है उसका निमित्त क्या है? उसका निमित्त है दर्पण । पर उस दर्पण में, कमरे में प्रकाश का निमित्तपना आया उसका निमित्त क्या है? सूर्य, तो मूल तो सूर्य हुआ । इसीलिए बताया है आस्रवाधिकार की प्रथम गाथावों में कि वास्तव में रागद्वेष पर्याय ही आस्रव हैं क्योंकि वे द्रव्य प्रत्यय में नवीन कार्माण वर्गणाओं का कर्मपने का निमित्तत्व आने पर उसमें निमित्त बनते हैं । तो ये सब अपने-अपने उपादान में चल रहे हैं ।
674―परभाव से हटकर स्वभाव में रमने की विधि की खोज―यहाँ यह बात देखना है कि किस तरह से हम परखें, परभावों से हट हटकर स्वभाव में आयें । किस तरह से हम उस अखंड तत्त्व में अपने को मग्न कर सकें? यह देह क्या है? इससे भी निराला, कर्म से भी निराला ओर कर्म का जो परिणमन है, स्वच्छता का जो विकार है यह नैमित्तिक है, औपाधिक है, परभाव है, इससे भी मेरा क्या मतलब? ये मेरे स्वभाव में नहीं हैं । अगर ठीक-ठीक ज्ञान हो जाये तो ये रागादिक भाव लावारिस होकर खुद मिट जाये, क्योंकि इन्हें जीव ने अपनाया नहीं, पुद्गल कर्म इन्हें अपनाते नहीं, उसकी वह परिणति ही नहीं, तब ये रागादिक भाव लावारिस होकर चले जायेंगे । ये सभ्य का स्वभाव में होते नहीं, तो यह लावारिसपने का ज्ञान ज्ञान ही कर पाता, जिसको न जान कर अज्ञानीजन अपनी संसार परंपरा बढ़ाते हैं । जाना, समझा इनसे भी निराला, तो चलो इन विकारों से भी अपने को निराला पाया । तो हूँ क्या? अरे यह मैं आत्मा अनंत शक्तिमय हूँ, ज्ञान दर्शन आदिक जिसमें अनंत शक्तियाँ हैं, अरे ठहरो―अभी और गंभीरता से विचार करना है । देखो स्वानुभूति के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये चारों परिचय तत्काल मदद देने वाले नहीं हैं, याने वस्तु की पहचान 5 तरह से होती द्रव्य, क्षेत्र, काल, भेदरूप भाव और अभेदरूप भाव । द्रव्य दृष्टि से मैं क्या हूं? अनंत गुण पर्यायों का पिंड और क्षेत्र दृष्टि से मैं क्या हूं? इतना लंबा चौड़ा विस्तार वाला, काल दृष्टि से क्या हूँ मैं? जो हमारी परिस्थिति बन रही, जो परिणति बन रही, और भेदरूप भाव दृष्टि से क्या हूँ मैं? अनंत ज्ञानमय, दर्शनमय, चारित्रमय, अनंत शक्त्यात्मक, पर ऐसे विकल्पों में स्वानुभूति नहीं जगी, स्वानुभूति के लिए भूमिका तो बनाता है यह सब परिचय, मगर स्वानुभूति के उन विकल्पों के क्षण में नहीं । तो अनंतर पूर्वरूप क्या है? अभेद स्वभाव रूप से विचार । वह भी एक विकल्प है इसीलिए जब वह विकल्प भी टूटे और एक अखंड स्वभाव का अनुभवन हो तो वहाँ एक स्वानुभूति का रस उत्पन्न होता है, दोनों प्रकार के अनुभवनों में बड़ा अंतर है । अभी आप मान लो हलुवा खा रहे तो जब तक आप उसके प्रति यह विकल्प कर रहे कि इसमें तो इतना घी पड़ा है, इसमें मीठा कम है, ज्यादह है, कम सिका है, अधिक सिका है तो आप उसके खाने का पूरा आनंद नहीं लूट पाते, और जिस काल में आप उसका विकल्प छोड़ दें, एक चित्त होकर उसे खायें तो उस समय आप अनुभव करेंगे कि इसके खाने में बड़ा आनंद मिल रहा । तो जब तक किसी तरह का विकल्प है तब तक स्वानुभव रस का अनुभव नहीं होता । तो इस तरह ये सब काम के बने । जितना भी व्यवहार है वह सब काम का बनता चला गया । आखिर उस अखंड एक भूतार्थ ज्ञायक स्वभाव तक इस व्यवहारनय ने पहुंचा दिया । जैसे कोई द्वारपाल किसी को राजा के पास तक पहुंचा देता मगर जहाँ से राजा दिखता है वहाँ तक ही पहुंचाता है और कहता है कि अब तो राजा से मिलना आपका काम है । वहाँ से वापिस आकर वह द्वारपाल अपनी ड्यूटी पर लगता है, तो ऐसे ही यह व्यवहारनय इस उपयोग को इस चेतन राजा तक ले जाता है, कहां तक? जहाँ तक इसका दर्शन न हो जाये । इसके बाद व्यवहार छूटते हुए मानो यह कहता है कि अब आप अकेले खूब मिलें, हमारा काम पूरा हो गया ।
674―नयपक्ष रहित ज्ञान द्वारा रस का उपभोग―हम उस अखंड ज्ञान तत्त्व तक पहुंचे कैसे? इन नय पक्षों को छोड़कर । जहाँ व्यवहारनय हेय है वहाँ निश्चयनय भी हेय है, विकल्प दोनों में है और उपयोगिता दोनों में है फिर भी दोनों ही छूटेंगे, क्योंकि ये दोनों ही विकल्प हैं । ऐसे नय पक्षपात को छोड़कर जो स्वरूप में गुप्त होकर उसका एकरस होकर स्वाद लेता है वह स्वानुभूति का सच्चा अनुभव करता है । कोई कहे कि अब कैसे करें सच्ची स्वानुभूति? तो कहते कि अरे कैसे बतायें? आप मानो रोज-रोज खूब गुलाब जामुन खाते हैं तो उसकी मधुरता को अच्छी तरह बता सकते कि कैसा होता है गुलाब जामुन का स्वाद । आप किसी को शब्दों द्वारा कितना ही समझायें कि गुलाबजामुन बड़ा मीठा होता है, उसमें मिश्री का सीरा लगा होता है, मिश्री के स्वाद से भी बढ़कर उसका स्वाद होता है―यों कितना ही शब्दों द्वारा आप समझायें पर वह असली समझ न बना पायेगा । असली समझ तो उसकी तब बनेगी जब आप उसे गुलाबजामुन खिला दें । ठीक इसी तरह आत्मा के इस सहज परमात्मतत्त्व के अमृतपान की बात है । उस आत्मा के स्वरूप की सही समझ उसके बनती है जो अपने ज्ञान में इस ज्ञानस्वरूप को ले रहा है―ओह यह मैं हूँ, इसकी क्या स्थिति है । ऐसे धीरे-धीरे गुप्त कैसी तरंग से निस्तरंग होने की स्थिति बनती है, ज्ञान प्रकाश है ज्ञान में और वहाँ से जब और अंदर उतरते हैं, इस ज्ञान ज्योति का ज्ञान द्वारा जहाँ अनुभव होता है, क्या कहा जाये उसे? कौन सी बात किस तरह कही जाये? वहाँ जो इस तरह के रस का पान करता है वह ही अनुभव करता है । ऐसे तत्त्व को अनुभवना है तो उसके उपाय में यह काम करें कि इन विभावों से उपेक्षा करें और स्वभाव में लगें, सब ज्ञानों का प्रयोग इस तरह से लें, एक साधारण-साधारण बातों में अटक करके अगर अपने जीवन को खो दिया तो यह कोई भली बात नहीं है, इस तरह सर्व नय पक्षपातों को छोड़कर समस्त विकल्प जालों से च्युत होकर, शांत होकर जो मनुष्य अपने ज्ञान द्वारा इस ज्ञान स्वभाव में उतरता है, ज्ञान में रहता है, ज्ञान में सहज ज्ञानतत्त्व ही जब ज्ञेय होता है, जहाँ ज्ञान ज्ञेय का भेद नहीं रहता है, ऐसी स्थिति का जो ज्ञान पावे वह ज्ञान इस साक्षात् अमृत का पान करता है ।