वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 74
From जैनकोष
एकस्य कर्ता न तथा परस्यचिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।74।।
712―मोहविनाश का उपाय स्व-पर भेदविज्ञान―आत्मकल्याण के लिए इतना तो अतीव आवश्यक है जैसा कि सब अपनी-अपनी योग्यतानुसार अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं । क्या? कि मोह न करना । मोह न करने का कोई उपाय बना सका है क्या? बनाना तो अवश्य चाहिए । कोई यों दृष्टि करके कि यह सारा जगत ईश्वर के द्वारा रचा गया है, यहाँ मेरा कुछ नहीं है, यह ईश्वर का बगीचा है, मेरा यहाँ क्या है? ऐसा भाव भरकर चाहते हैं मोह को हटाना । पर ऐसी बात कितनी ही सोची जाये, मोह हटाने का रास्ता न मिल पायेगा । क्यों न मिल पायेगा ? जिसको आत्मा में यह निर्णय नहीं कि मैं यह हूं उसे यह भी निर्णय नहीं कि यह पर है । तो फिर मैं और पर का जहां बोध नहीं है वहाँ मोह मिटाने का क्या ? वह तो लौकिक ढंग की बात हो गई । जैसे लोग यह सोचते हैं कि यह महल तो इसका है, यह बगीचा इसका है, मुझे कैसे मिल सकता है? फिर मैं इसके लिए क्यों मोह करूँ? पर इसी ढंग का वहाँ सोच लो । मोह ऐसे भाव से नहीं मिटता, मोह मिटता है “निज को निज पर को पर जान,” यह सही बुद्धि बने तो मोह मिटता है । क्या है मैं ? पहले एक मोटी ही बात देख लो । मैं चेतन हूँ और बाकी जितने जीव हैं ये भी सब चेतन हैं, पर मेरे स्वरूपास्तित्व से भिन्न स्वरूपास्तित्व वाले हैं और फिर इसके अतिरिक्त जितने और पर पदार्थ हैं वे तो स्पष्ट भिन्न ऐसे ही हैं कि जिनकी जातिपाति भी नहीं है और यही सबूत है कि ये पदार्थ आज तक अपना अस्तित्व रख रहे हैं, यह ही सब पक्का सबूत है कि प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से सत् है अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत् है । कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ को नहीं करता, इसका यह ही सबूत है जो आज इतने पदार्थ अपने-अपने अस्तित्व में रह रहे हैं । कैसे ? कल्पना करो कि यदि ऐसा हो जाता कि कोई पदार्थ किसी को कर देता कोई किसी को परिणति से परिणमा जाता तो पहले बतलावो कि उन दोनों में से फिर अस्तित्व किसमें रहता? यह उस रूप में परिणम गया तो बताओ यह रहा कि नहीं? कभी यह कहेंगे तो फिर वह भी न रहेगा, वह भी दूसरेरूप परिणम जायेगा । यों अगर गड़बड़ी होती जाये, कल्पना में ला रहे हैं तो फिर जगत् न टिकता, शून्य होता, कुछ न होता । जगत का जो अस्तित्व है वह यह बतला रहा है कि प्रत्येक पदार्थ भिन्न-भिन्न अपने-अपने स्वरूप में है । जब कभी चर्चा होती कि यह उसका निमित्त है तो निमित्त शब्द ही यह बात बतलाता कि निमित्त है, पर कर्ता नहीं । और विशेष-विशेष माथापच्ची करने की जरूरत ही नहीं । जीव में रागद्वेष हुए तो उसका निमित्त है पुद्गल कर्मोदय इसका अर्थ क्या हुआ कि पुद्गल कर्म अपनी परिणति से रागादिक नहीं करता अन्यथा वह उपादान ही कहलाने लगता । तो जहाँ निमित्त नैमित्तिक योग आया उससे तो बड़ा ज्ञान मिलता है, क्या क्या ज्ञान मिलता है? एक तो यह कि यह मेरे पद में नहीं, दूसरा ज्ञान यह कि ये वस्तुएँ औपाधिक हैं, नैमित्तिक हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं, ये रमने के योग्य नहीं, इनसे हटने में ही कल्याण है ।
713―अहंकार ममकार की परेशानी―यहाँ यह बतला रहे हैं कि एक के मत में जीव कर्ता है, एक के मत में जीव कर्ता नहीं है, वहाँ जीव के विभाव कर्तृत्व की बात लेना । यह जीव किसी पर पदार्थ को करता है ऐसा किसी का मत है तो वह नय पक्ष में न आयेगा । वह उपचार है ऐसा नहीं है । प्रत्येक जीव अपने परिणाम का कर्ता है ऐसा एक नय में दिख रहा । दूसरे नय में दिख रहा कि जीव कर्ता नहीं । वह तो स्वभावमात्र है । ये तीन विकल्प हैं । इन विकल्पों से च्युत होकर कल्याणार्थी जीव उस स्वभाव का अनुभव किया करते हैं । संसारी जीवों को दुःखी करने वाले चार प्रकार के ये भाव है―(1) अहंबुद्धि, (2) ममबुद्धि, (3) कर्तृत्वबुद्धि (4) भोक्तृत्वबुद्धि । अहंकार―जो अहं नहीं है उसे अहंकार देना इसे कहते हैं अहंकार । शरीर मैं नहीं वहाँ समझ रहे―मैं हूँ यह अहंकार है । अहंकार शब्द का अर्थ गर्व नहीं, मान नहीं, मान और गर्व का भी आधार है तो यह ही पर में अहं बुद्धि, लेकिन अहंकार का अर्थ है कि जो मैं नहीं हूँ उसमें अनुभव करना कि यह मैं हूँ । ममकार क्या? जो मेरा नहीं है उससे यह बुद्धि बनाना कि मेरा है । हमने अपने विद्यार्थी जीवन में करीब 10-12 वर्ष की उम्र में एक कथा पड़ी थी, वह याद है एक माधुरी पत्रिका निकलती थी उसमें वह लिखी हुई थी । एक राम नाम का लड़का था, वह पावभर रसगुल्ले लेकर चला तो एक जगह देखा कि एक धोबी कपड़े धो रहा था, उसके पास उसका लड़का बैठा था तो उस लड़के को वे रसगुल्ले खिला दिया? अब और भी रसगुल्ले खाने के लिए वह लड़का मचल गया, रोने लगा । धोबी ने पूछा―भाई तुमने क्या खिला दिया इसे जो रोने लगा, जिन्हें खाने के लिए मचल गया? गुलाब जामुन ये कहाँ मिलेंगे? अरे यह जो पास का बगीचा है उससे कितने ही तोड़ लावो । अच्छा भाई तुम्हारा नाम क्या? कल परसों । अच्छा भाई कल परसों, थोड़ी देर को हमारा यह सामान (बर्तन कपड़े वगैरह) देखना, हम बगीचे से उसे गुलाब जामुन खिला लायें । ठीक है, धोबी चला गया । धोबी के जाने पर रामू ने सारा सामान उठाया और लेकर चंपत हो गया । जब धोबी वापिस आया और देखा कि सारा सामान नदारत तो वह रोने लगा, चिल्लाने लगा, अरे कोई दौड़ो कल परसों हमारा सारा सामान ले गया । लोग जुड़े, सबने कहा―अरे भाई कल परसों ले गया तो आज रोने से क्या है? वह रामू जब आगे बढ़ा तो देखा कि एक घुड़सवार अपने घोड़े पर बैठा हुआ चला आ रहा था । उसको प्यास लगी थी । उसने रामू से कहा, भाई मुझे प्यास लगी है अपना लोटा डोर दे दो, उस कुएं से पानी भरकर पी लें । हाँ-हाँ ले लो, । तुम्हारा नाम क्या है? मेरा नाम है कर्ज देने में । अच्छा भाई यह घोड़ा पकड़ो, हम कुएं से पानी भरकर पी लें । हाँ-हाँ पी लो । रामू ने क्या किया कि घोड़े पर बैठकर ऐंड़ लगाया और घोड़ा लेकर चंपत हो गया । यह बेचारा घुड़सवार रोने लगा, चिल्लाने लगा―अरे भाई दौड़ो, कर्ज देने में मेरा घोड़ा ले गया । लोग जुड़े, सभी ने यही कहा कि भाई कर्ज देने में अगर घोड़ा ले गया तो क्या बुरा किया? खैर वह रामू बालक आगे बढ़ गया । शाम को एक नगर में देखा कि एक धुनिया के द्वार पर उस धुनिया की स्त्री बैठी थी । धुनिया कहीं बाहर गया हुआ था । सो रामू ने पूछा माँ क्या मैं रात भर तुम्हारे घर ठहर जाऊँ? हाँ-हाँ बेटा ठहर जाओ । तुम्हारा नाम क्या है? मेरा नाम है―तू ही तो था । अब ठहर गया वह रामू धुनिया के घर । शाम को पास में एक बनिया की दुकान से खाने-पीने का सारा सामान उधार लिया, कह दिया कि हम कल सुबह सब भुगतान करेंगे । तो बनिया ने पूछा बाबूजी तुम्हारा नाम क्या है? मेरा नाम है―मैं था । अच्छा भाई ठीक है, सुबह भुगतान कर देना । यह रामू बालक रातभर उस धुनिया के घर रहा । जो कुछ बर्तनों का धोवन धावन था वह सब रुई में फेंका, जब सबेरा हुआ तो घोड़े पर बैठकर अपना सारा सामान लेकर चंपत हो गया । जब धुनिया 8-9 बजे दिन में कहीं बाहर से आया और रुई को गंदी हालत में देखा तो पूछ बैठा अपनी स्त्री से कि आज यहाँ रात को कौन ठहरा था? तो स्त्री बोली―तू ही तो था । अरे ठीक क्यों नहीं बताती? हाँ ठीक कहती हूँ, तू ही तो था । धुनिया ने स्त्री को पीटना शुरू किया । यह बात देखी पास के बनिये ने, तो उसे उस स्त्री पर दया आयी और वहाँ जाकर कहा―अरे यहाँ जो रात को ठहरा था वह मैं था । तो डंडे बनिया पर बरसने लगे । तो जो यहाँ जगत में मैं था, मैंने यह काम किया, अमुक तमुक कहता, उस पर डंडे बरसने लने ।
714―स्व-पर के स्पष्ट बोध बिना स्वानुभूति की असंभवता―जब तक अपना स्पष्ट बोध न हो जाये, कि मैं यह हूँ और ये सब पर हैं तब तक उसका काट नहीं मिला । स्पष्ट बोध कहते किसे हैं? तो उसे भी समझो कि जैसे मिठाई का स्वाद मिठाई खाने वाले को मिलता । मिठाई के सबंध में बोलने वाले को नहीं । वैसे ही इस आत्मा का यथार्थ बोध उसे होता जो उसका प्रयोगात्मक विधि से अनुभव करे । केवल उसकी बात बोलने भर से यथार्थ बोध नहीं होता । जैसे कोई वैद्य अपने शिष्यों को किसी जड़ी बूटी वाली पहाड़ी पर ले गया, वहाँ कोई डेढ़ हाथ के बेंत से बताता जाता कि देखो यह अमुक चीज की औषधि है, यह अमुक चीज की । अब कोई बेवकूफ शिष्य अगर उस बेंत को ही औषधि समझ ले तो वह औषधि की परख तो न कर पायेगा । ठीक ऐसे ही आत्मस्वभाव का अनुभव कैसे बने, उसका स्वाद कैसे आये? जब तक आत्मानुभव नहीं तब तक उसे आत्मा का सच्चा बोध नहीं । एक कथा आती है कि फागुन के महीने में अष्टान्हिका के दिन थे, तो राजा ने अपनो नगरी के सब लोगों को हुक्म दिया कि सभी लोग होली फाग का उत्सव मनाने जंगल में जायेंगे । पुरुष-पुरुष अलग रहेंगे, स्त्रियां-स्त्रियाँ अलग रहेंगी । अब कोई सेठ, शायद अरहदास नाम था, वह अष्टान्हिका पर्व मना रहा था, उसने राजा से प्रार्थना किया कि महाराज हमें अष्टान्हिका पर्व मनाने की छुट्टी मिले, हम पूजा पाठ स्वाध्याय आदि में यहीं रहेंगे । सो राजा ने उस सेठ की प्रार्थना स्वीकार कर लिया । अब रात को राजा के मन में आया कि इस नगरी में सब जगह पहुंच कर देखें कि कहां कौन गया कौन नहीं गया । सो जब वह नगरी में घूम रहा था तो अरहदास सेठ के घर के पास कुछ रुक गया । वहाँ कुछ आवाजें मिल रही थीं । वहाँ बात क्या थी कि उस सेठ के घर कथायें हो रही थीं । राजा मकान के पीछे से सुनने लगा । सेठ ने कोई कथा कही तो सभी सेठानियां कहें ठीक है ठीक है । मगर उसकी छोटी सेठानी कहे बिल्कुल झूठ । कुछ ऐसी भी कहानियाँ वहाँ हुई जिनको राजा ने भी सुन रखा था, पर सभी सेठानियां कहें सच और सबसे छोटी सेठानी कहे बिल्कुल झूठ । राजा बड़े आश्चर्य में पड़ गया । खैर जब सबेरा हुआ तो राजा ने छोटी सेठानी को बुलवाया, उसका बड़ा सत्कार किया । और बाद में पूछा कि ऐ सेठानी जी तुम यह बताओ कि तुम्हारे घर जो रात को कहानियाँ हो रही थीं सो सभी सेठानियां तो कहती थीं कि ठीक-ठीक मगर तुम कहती थी―बिल्कुल झूठ सो कैसे? तो उस सेठानी ने राजा को कोई जवाब तो न दिया पर सब प्रकार के वस्त्राभूषण उतार कर दीक्षा लेने के लिए किसी अर्जिका के पास चल दी और चलते समय यह कह गई कि महाराज सच तो यह है बाकी सब बिल्कुल झूठ । तो ऐसे ही समझो कि इस आत्मा का परिचय किसने पाया? केवल शब्द बोलने वाले ने नहीं, कोई 11 अंग 9 पूर्व का पाठी ज्ञानी मुनि हो तो उसमें ज्ञान की कोई कसर तो नहीं, उसे आत्मा की बात बड़े ढंग से, शक्ति पूर्वक बताना न होगा क्या, फिर भी क्या आप उसे कह सकते हैं कि उसने आत्मानुभव किया? नहीं । और, कोई ऐसा जो बोलना भी नहीं जानता, जिसे देखकर हम कह सकते कि यह तो बड़ा मूर्ख है कुछ समझता ही नहीं, पर पता नहीं कि उसके उपयोग में, उसकी आत्मा में सम्यक्त्व ज्योति चमक रही हो । पशु पक्षियों को जो सम्यक्त्व हो गया उसकी पहिचान आप कर सकते हैं क्या? नहीं कर सकते । तो मतलब यह है कि आत्मा का, आत्मा के सहज शुद्ध स्वरूप का परिचय उन्हें है जिनको इसका स्वाद आया ।
715―आत्मानुभव के स्वाद में आत्म परिपूर्ण परिचय―भैया ! आत्मा का स्वाद से परिचय मिलता है बातों से नहीं । हालांकि ये बातें काम की हैं, एक बाह्य साधन है मगर करना तो खुद को हो रहा है, उस आत्मस्वरूप भाव का परिचय करें । पहिले तो यह जानें कि मुझसे आत्म पदार्थ के अतिरिक्त जितने पदार्थ हैं वे सब निराले हैं, उन सबसे मैं भिन्न हूँ, अच्छा किस किससे भिन्न? इन धन वैभवों से, इस कुटुंब कबीला से भिन्न, इस देह से भिन्न और जो कुछ जान रहे हों, जो कुछ कर रहे हों, उन सबसे भी भिन्न । क्या? परभाव, रागादिक भाव, ज्ञानविकल्प ज्ञान तरंग इनसे भी मैं भिन्न? तो कोई बोल उठा―हाँ महाराज अब हम समझ गए । आप उसकी बात कह रहे हैं कि जो एक ज्ञान है, जो जाननहार है, जान रहा है बस, यह जाना, वह जाना, वह है आत्मा । कहते हैं कि नहीं, अभी तुम नहीं समझे । जो जान रहे, इसका ज्ञान, उसका ज्ञान, वह आत्मा नहीं है । क्यों महाराज क्यों नहीं समझे? यों नहीं कि जो यह जानना चल रहा है यह तो खंड ज्ञान है आत्मा कहीं खंड-खंड हुआ करता है? तो कोई बोला―लो अब हम समझे महाराज । आप उसकी बात कर रहे हैं कि जो भरा पूरा ज्ञान है, शुद्ध जान है, पवित्र ज्ञान है तीन लोक तीन काल को जानने वाला ज्ञान है वह कहलाता है आत्मा । तो कहा कि अभी धीर धरो, वह भी आत्मा नहीं, जिसका अनुभव करते, जिस स्वभाव की अनुभूति की बात कह रहे वह । अरे आप क्या कह रहे? हम तो परमात्मा की बात कह रहे । केवलज्ञान अनंत चतुष्टय । अरे वह है तो शुद्ध पर्याय, मगर इतना मात्र अगर आत्मा हो तो जब केवलज्ञान न हुआ था तब आत्मा न था क्या? उसकी बात नहीं कह रहे । हम तो उसकी बात कह रहे जो अनादि अनंत ज्ञान ज्योति है, तो अब कोई बोला―महाराज अब तो हम खूब समझ गए कि वह अनादि अनंत ज्ञान ज्योति है जो एक रूप है, नाना रूप नहीं है वह है आत्मस्वभाव । कहो कि अभी नहीं समझे ।―अरे अभी नहीं समझे ?―हाँ अभी नहीं समझे ।―देखो कोशिश करो और इस चिंतन में लगो कि इस अभेद पद्धति से, जब तुझे इतना भी ख्याल न रहेगा कि मैं एक हूँ, अनेक नहीं हूँ, इतना भी ख्याल मिट जायेगा, सहज आनंद की अनुभूति हुआ करती है वहां, इतना भी ख्याल मिट जायेगा, इतना भी संकल्प विकल्प न रहेगा, वहाँ तू समझ पायेगा कि यह आत्मा है ।
716―तत्त्व की गवेषणा में सिद्धांतों की उपज―हुआ क्या? जगत में यह सिद्धांत अधिक बढ़े क्यों? एक चित्रण करो―कोई जंगल है, वहाँ आचार्य महाराज विराजे हैं, सब साधु वर्ग सुन रहे हैं, आत्म तत्त्व की ऐसी ऊंची चर्चा जैसी कि अभी आत्मस्वभाव की बात कही गई । सब सुन रहे थे, तो जितनी खोपड़ी होती हैं उतनी तरह की बुद्धियाँ हुआ करती हैं न? तो किसी ने सोचा कि बिल्कुल ठीक कह रहे याने आत्मा कुछ नहीं । जब जाना कि यह ज्ञान वाला है, अमुक है वह जब आत्मा नहीं है तो इसके मायने यह है कि जो ज्ञान से परे है, जो शून्य है वह आत्मा है, लो अब शून्यवाद निकल आया । तत्त्वोप्लव एक सिद्धांत है । मानो ऐसे लोग एक चर्चा करने बैठे थे―आचार्य महाराज ने यह कहा था कि जो शून्य है वह है आत्मा सो शून्याद्वैत है, तो उनमें कोई बोला कि अगर बिल्कुल शून्य है तो फिर मामला ही क्या रहा? वह आत्मा ही नहीं । जो एक प्रतिभास मात्र है वह है आत्मा । अब उसकी दृष्टि में प्रतिभासाद्वैत का मत निकल आया । चल रही चर्चा, एक बोला―अजी यह बात नहीं । अगर प्रतिभास मात्र है और वह निराधार है तो फिर प्रतिभास मात्र कैसे रहेगा? नहीं, आत्मा ब्रह्मस्वरूप है और वह प्रतिभासात्मक है, लो ब्रह्माद्वैत निकल आया । लोग तो सोचते होंगे कि मेरी क्या गल्ती है, ठीक ही तो कह रहे? ठीक तो कहा मगर जो पर्यायात्मक है उसे तो अंदर में मना कर रहे कि पर्याय तो होती ही नहीं इसलिए ब्रह्मस्वरूप जो मान रहा उसका एकांतवाद बन गया । दो नय है (1) निश्चयनय और (2) व्यवहारनय । इनमें अगर कोई निश्चय को मना करके व्यवहार की बात कहे तो वह व्यवहारनय भी झूठा और अगर कोई व्यवहार नय को मना करके निश्चयनय की बात कहे तो वह निश्चयनय भी झूठा । एक अज्ञान अंधेरा रखकर कोई बात करे तो उसकी बात तथ्य नहीं निकलती । पर्याय को निकालकर जो केवल स्वभाव को ही माने वह कहलाता ब्रह्माद्वैत । चर्चा में कोई बोल उठा कि भाई तुम ठीक-ठीक नहीं बतलाते । यह बतलावों कि अगर ब्रह्म-ब्रह्म ही है तो फिर यह सब माया क्यों दिख रही? वह ब्रह्म तो सही है मगर क्या मात्र ब्रह्म ही है, ब्रह्म के साथ-साथ प्रकृति भी है । ब्रह्म तो अछूता पड़ा हुआ है, एक यह मत निकल आया, उसे कहते हैं सांख्यमत । उस चर्चा में कोई बोल उठा कि तुम यह क्या कह रहे कि जो एक है सदा रहने वाला, सदा रहने वाला कोई हो तो बतलावो तो सही । कोई जवान दिखाया तो कहा कि यह तो सदा न रहेगा । यह कुछ ही दिनों में बूढ़ा होगा, मरण को प्राप्त होगा । अरे तत्त्व तो एक क्षणिकवाद है, सब कुछ क्षण-क्षण भर रहने वाला है । कोई बोला कि तुम क्या कहते? क्षणिकवाद ही नहीं । तुम्हें यह जानना चाहिये कि पदार्थ कितने होते हैं, द्रव्य पदार्थ, गुण पदार्थ, पर्याय पदार्थ, सामान्य पदार्थ, विशेष पदार्थ, समवाय पदार्थ और अभाव । ये 7 पदार्थ होते हैं और देखो ये सब न्यारे-न्यारे हैं । द्रव्य अलग चीज है, सामान्य अलग चीज है, इसी प्रकार विशेष, समवाय और अभाव ये सब अलग-अलग चीजें है, तो यह निकल आया वैशेषिक सिद्धांत । इतनी चर्चा होने के बाद जब एक कलहसा मचा तो वहाँ आचार्य देव ने कहा कि तुम लोग जितनी-जितनी बातें सोचते हो वे सब सच तो है मगर जैसे मीमांसकों ने माना कि द्रव्य, गुण, क्रिया, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये 7 पदार्थ है,ं तो वहाँ 7 कहाँ है? कुछ समझ भी पाये? वस्तु तो एक-एक है, सत्-सत् । उस ही सत् दृष्टि से देखा तो द्रव्य है उस ही सत् को पर्याय दृष्टि से देखा तो क्रिया है, सामान्य दृष्टि से देखा तो सामान्य है, विशेष से देखा तो विशेष है और ये तुमने अलग अलग देख लिया, ये अलग-अलग नहीं है । इन सबका अनादि सिद्ध संबंध है । वही समवाय है और एक में दूसरे का अभाव है वही अभाव है । तो यह कोई अलग चीज तो न रहे । न अभाव अलग चीज न समवाय अलग चीज, न सामान्य, न विशेष, न गुण, न पर्याय, न द्रव्य, ये अलग चीजें नहीं हैं । वें एक ही पदार्थ है―उसके देखने के ये सब ढंग हैं । इसी तरह जितने भी विवाद करने वाले थे उन सबको समझा दिया । जब केवल एक स्वभावदृष्टि की बात है ऐसी कि जिसको मिल गया उसके लिये उसकी निगाह करना ऐसा सुगम है जैसे कि जब आप सफर करते समय साथ में टिपनबाक्स रखते हैं, जब ही भूख लगी, झट निकाला और खा लिया, ऐसे ही जिसको अपने स्वभाव की अनुभूति हुई है उसके लिए इसकी निगाह करना ऐसा सुगम है कि जब गर्दन झुकाया मायने उपयोग लगाया तभी देख लिया ।
717―विकल्पदूरगता में सत्य आनंद का लाभ―आत्मा को स्वभाव की ओर से देखो तो कर्ता-भोक्ता किसी भी प्रकार की कोई गड़बड़ियां हैं क्या? स्वभाव से यों और वहाँ से यों । अब उसमें किसी का नयपक्ष हो जाये तो उसमें सिद्धि नहीं होती । नयपक्ष का एकांत और नय में क्या फर्क है? प्रतिपक्ष नय की प्रतीति तो की है, वह भी है लेकिन प्रधानता रखकर कोई पक्ष कहा उसे कहते हैं नय और दूसरे की प्रतीति न हो दूसरे का निषेध हो और कोई पक्ष कहा उसे कहते हैं एकांत । तो जगत के जीवों को जितने भी क्लेश हैं वे हैं अहंकार से, ममकार से, कर्तृत्वबुद्धि से, भोक्तृत्वबुद्धि से । कर्ता का अर्थ लेना परिणमयिता, दूसरा अर्थ नहीं । जो परिणमें सो कर्ता । तो क्या एक दूसरे रूप परिणम जाता है? तो इस प्रकार की बुद्धि―कर्तृत्वबुद्धि और पर को भोगने की बुद्धि । आप तो समझते हैं कि मैंने भोगा पर आपने वहाँ किसे भोगा? क्या उस पदार्थ को? नहीं । अरे आपने तो जो उस पदार्थ विषयक ज्ञानविकल्प किया उसे भोगा । आप लोग अरहर की दाल चावल तो शायद बहुत पसंद करते होंगे । खूब रोज-रोज खाते भी होंगे । आपको ऐसा लगता होगा कि यह दाल चावल तो हमें बड़े अच्छे लगते, इन्हें हम रोज-रोज भोगते, पर वहाँ आप उस दाल चावल को नहीं भोगते । वास्तविकता वहाँ क्या है कि रसना इंद्रिय के माध्यम से उसके स्वाद का ज्ञान कर रहे । कैसा स्वाद होता उस दाल चावल का, इसे आप शब्दों द्वारा सही-सही बता भी नहीं सकते । आप तो उसके स्वाद का ज्ञान कर रहे तो उस स्वाद वाले ज्ञान में आप तीव्र रुचि रख रहे, तो किसे आप भोग रहे? उस ज्ञान को । किसी पर पदार्थ को आप कहाँ भोग सकते? अगर भेद विज्ञान हो तो यह बात ध्यान में आये कि मैं पर पदार्थ को नहीं भोगता । मैं तो सर्वत्र अपने ज्ञान विकल्प को भोगता रहता हूँ । तो ये चार भाव हैं जिनसे कि संसार में रुलते आये हैं । इनसे हमें मुक्त होना है और उसका उपाय है, व्यवहार से शिक्षा लें, निश्चय से शिक्षा लें और सब विकल्पों को तोड़ करके एक परमार्थ शुद्ध वस्तु, जिसके बारे में इतना ही कहा जा सकता कि जो है सो है । उसका अनुभव बनेगा ।
718―स्वानुभव का साधन यथार्थ ज्ञान और यथार्थ विश्राम―अगर यह स्वानुभूति की बात कठिन लगती है और आपको इस आत्मस्वभाव के समझने की अगर इच्छा है कि हमें अनुभव जगे तो देखो यह सब सुगमतया प्रयोगसाध्य है । प्रयोग का ही नाम चारित्र है । कुछ करेंगे करतूत कुछ प्रयोग बनेगा कुछ चलेंगे, इस ढंग से रहेंगे तो वह बात मिलेगी । एक बहुत मोटी सी बात है, इतना कम से कम निर्णय बनाकर कि जगत में जितने ये दृश्यमान पदार्थ हैं इनमें जो हम इतना दिल लगाते आये हैं उनसे अब तक मिला क्या? कुछ नहीं, और जब हम इनमें चित्त लगाते हैं तब हमें कष्ट ही कष्ट मिलता । इसलिए मैं आज खूब समझ गया कि अब मैं किसी पदार्थ को दिल में न बसाऊँगा, मैं किसी को नहीं जानना चाहता । मैंने खूब जान लिया कि इन पदार्थों में उपयोग लगाने से अब तक आनंद नहीं आया कष्ट ही रहा । मुझे अब किसी पदार्थ का चिंतन नहीं करना है । नहीं जानें कर्म का निमित्त नैमित्तिक संबंध, नहीं समझ रहे यह कर्मलीला कर्मरस, नहीं जान रहे हम बहुत बड़ी-बड़ी बातें, किंतु इतनी बात जब समझ में आयी कि ये बाहरी पदार्थ इंद्रिय के विषय, इनका उपयोग, इनमें चित्त फंसाना यह हितकारी नहीं है । इससे अहित होता है । इसलिए किसी को भी मैं मन में न बसाऊँगा । यह मन बड़ा उच्छृंखल है, इसके लिए तैयार होंगे तो कोई न कोई बात मन में आयेगी उसको मन में न बसाना चाहिए । आत्मा को उससे कुछ लाभ नहीं देख खूब सोच सोचकर देख, इसके लिए बड़ा समय लगता है और काम होता है थोड़े समय में । जैसे लोक में विवाह को एक बड़ा काम मानते हैं ना? पर वह विवाह कितनी देर में होता? मुश्किल से एक मिनट लगता होगा । अरे जब तक 6 भाँवर पड़े तब तक विवाह को पक्का न समझो । अगर लड़का लड़की के प्रति कोई विवाद की बात आ जाये तो विवाह उस समय भी बंद हो सकता । मगर जब 7वीं भाँवर पड़ती है तब विवाह हुआ समझिये । तो इस 7वीं भाँवर के पड़ने में मुश्किल से एक मिनट का समय लगा । अब इस एक मिनट के काम के लिये कितने दिन पहले से इंतजाम किये जाते? शायद वर्षों का समय लग जाता होगा । अब कोई सोचे कि इस एक मिनट वाले काम को करने के लिए बहुत दिनों से क्यों हैरान होना, उसके लिए क्यों कुछ क्रियायें करना । बस उस एक मिनट वाले काम को ही कर दें । यदि ऐसी बात कोई करने लगे तो फिर उस विवाह का कुछ महत्त्व ही न रहेगा । कुछ मन में बात ही न आ पायेगी कि हमारा इनके साथ संबंध हुआ है, जब चाहे छोड़ने की बात हमेशा सोच सकता है, अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझेगा जैसा कि बहुत से विदेशों में होता है । यह तो एक लौकिक बात कही पर यह बात बताते हैं कि स्वानुभव जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए सब जीवन लग जाये और एक दो भव लग जायें तो भी क्या है? लगें और इसके लिए सब तरह का ज्ञान करें । सब तरह के ज्ञान में एक बात पुष्ट होती है । जिनको शुद्ध ज्ञान है उनको जरूर बात स्पष्ट होती । जिनको करणानुयोग का ज्ञान है उनको विशेष स्पष्ट होता है और स्वभाव की ओर उन्मुखता होती है तो ऐसे व्यवहार और निश्चय इन दोनों विकल्पों को त्यागकर स्वरूप में गुप्त होकर जो इस चैतन्यस्वभाव को अपने ज्ञानोपयोग में ऐसा सहज निस्तरंग होकर उतारते हैं वे ही साक्षात् अमृत का पान करते हैं ।
719―विशुद्ध तृप्ति―विशुद्ध तृप्ति का एक बहुत छोटासा बाह्य चह्न बताते । जब एक विशुद्ध तृप्ति का कोई संबंध होता है तो जैसे कहते हैं कि देवों के कंठ में से अमृत झरता तो वह अमृत क्या चीज है? जैसे हम आपके कंठ में से लार बहती ऐसा ही द्रव जैसा बहता होगा । यहाँ भी तो सब हम आप किसी अच्छे ध्यान में आराम से बैठे हों तो कंठ में से ऐसा घूंट उतरता है कि उस समय हम अपने को बड़ा तृप्त अनुभव करते हैं । और वह ऐसा मीठा घूंट है कुछ नहीं । वह वहीं बना, वहाँ ही उतरा । आपको परम तृप्ति की एक बात बतला रहे, जब स्वभावानुभूति की बात बनती है तब इसे एक परम विश्राम मिलता है और किसी भी प्रकार का विकल्प न रहे इसके चित्त में, ऐसा वह क्षण होता है, वहीं अनुभूति होती है । वह जगे इसके लिए अपना यत्न होना चाहिए और यह यत्न तब बन सकता है जब आत्मा प्रसन्न हो, निराकुल हो, निशल्य हो, कषाय का वातावरण न हो, एक को दूसरे से कुछ प्रेरणा मिले, वात्सल्यभाव बने, ये सब बातें जो बताया है सम्यग्दर्शन के 8 अंगरूप, उनसे स्वानुभूति बनेगी, मगर उसका हम वातावरण ही नहीं रखना चाहते तो ऐसी बात नहीं बनती । उसके लिए व्यवहार में सम्यग्दर्शन के 8 अंगरूप अपनी एक वृत्ति हो और फिर अपना ध्यान बने इसी स्वभाव का ।