वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 86
From जैनकोष
एकस्य चेत्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।86।।
777―चेत्य व चेत्यनिषेध के पक्ष से अतीत तत्त्ववेदन―व्यवहारनय की दृष्टि में यह आत्मा चेत्य है, और चेत्य है ऐसा नहीं इस तरह का उपयोग निश्चयनय की दृष्टि में बनता है । यों चेतन में दो दृष्टियों से दो पक्षपात हैं, किंतु जो तत्त्ववेदी है, पक्षपात से रहित है उसकी दृष्टि में तो चेतन नित्य चेतन ही है । आत्मा चैतन्यस्वरूप है, उसकी सहज क्रिया है चेतते रहना । तो इस चेतने में यह स्वयं भी आता है । यह चेतन जानने और देखने के भेद को नहीं करता है । यद्यपि जानना देखना यह छूट नहीं सकता, वे चेतन के ही विशेष है, लेकिन अब यहाँ देखने जानने का उपयोग नहीं कर रहे, एक मात्र स्वरूप की ओर से जान रहे, यह चेतनहार है और उस चेतने में यह स्वयं आत्मा तो आता ही है । तो यों व्यवहार के पक्ष में यह आत्मा चेत्य है । तो चेत्य है ऐसा निरखना शुद्धनय को बरदास्त नहीं है । उसका विषय है नेति । आत्मा चेत्य है ऐसा नहीं है, इस प्रकार का विकल्प शुद्धनय में निश्चयनय में है, तो ऐसे ये दो विकल्प चेतन में हो रहे हैं चेतन के बारे में हो रहे हैं, पर विकल्प भी कैसा सुंदर है, आत्मा की एक मात्र चेतना तक जो उपयोग लिया जा रहा है यह तो बहुत ही उत्तम विकल्प है लेकिन एक स्वरस के अनुभव से हटकर जानन चल रहा है तो वह विकल्प रूप ही तो है । तो चेत्य के विकल्प से और चेत्य नहीं है, इस प्रकार के विकल्प से परे होने वाले जीव निष्पक्ष हैं, उनकी दृष्टि से तो यह चेतन नित्य चेतन रूप ही है ।