वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 87
From जैनकोष
एकस्य दृश्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।87।।
778―दृश्यत्व और दृश्यत्वनिषेध विकल्प से अतीत का तत्त्ववेदन―एक नय की दृष्टि में यह जीव दृश्य है तो दूसरे नय की दृष्टि में जीव दृश्य है ऐसा नहीं है, ऐसे चेतन में दो प्रकार के विकल्प उठते हैं । यहाँ दृश्य शब्द से यह अर्थ न लेना कि आँखों से देखने योग्य है, उपचार भाषा में इस जीव को ऐसा भी दृश्य कह सकते याने आंखों से देखने योग्य है । तब ही तो ये पशुपक्षी कीट आदिक जीवों को देखकर आंखों से देखने वाला इन प्राणियों को निरख कर उनकी हिंसा से बचता है, तो दृश्य ऐसा भी हुआ, लेकिन यहाँ उपचार भाषा बोलने का प्रकरण नहीं है । तो दृश्य से अर्थ लेना कि जो दर्शन गुण के द्वारा निरखा जा रहा है वह दृश्य है, तो जैसे चेतन द्वारा चेत्य हो रहा था जीव, ऐसे ही दर्शन द्वारा दृश्य हो रहा है जीव, याने सामान्य प्रतिभास में यह जीव विषयभूत हो रहा है, ऐसा दृश्यपना बहुत आंतरिक बात है, तो भी दर्शन गुण के द्वारा देखने योग्य है, इस प्रकार से भेद शैली कर देने के कारण यह व्यवहारनय बन गया, और यों व्यवहारनय से आत्मा दृश्य है, यह कहा जा रहा है, किंतु निश्चयनय शुद्धनय अखंड अभेद चैतन्यतत्त्व को निरखता है । उसमें ऐसे विविध विकल्प नहीं होते । जो गुण पर्याय का भेद रखता हुआ इस आत्मा को दृश्य समझ सके तो निश्चयनय की दृष्टि में यह आत्मा दृश्य है ऐसा नहीं है, अथवा दर्शन गुण के द्वारा देखने में आने योग्य है, ऐसा कहने से एक खंड ही तो किया गया । आत्मा केवल दर्शन गुण मात्र ही तो नहीं है । तो यों खंडरूप जानने के कारण यह व्यवहारनय कहलाया और निश्चयनय अथवा शुद्धनय में चूंकि अखंड परिपूर्ण आत्मा की समझ बनाते हैं तो किसी भी एक गुण खंड भेद द्वारा परिपूर्ण तत्त्व को नहीं पाया जा सकता, इस कारण यह शुद्धनय एक नेति को ही विषय कर रहा । 'न इति' जैसा कुछ भी बताया गया है वैसा नहीं । यह ज्ञान शुद्धनय में चल रहा है । तो इस प्रकार चेतन में दो नयों की दृष्टि में दो पक्षपात हैं सो इस विकल्प के रहते हुए निर्विकल्प स्वानुभूति कैसे हो सकती है? कैसा उत्तम विकल्प है कि जो स्वानुभव के निकट वाला है, जो स्वानुभव में आता है वह ऐसा ही सामान्य प्रतिभासमय होकर आता है । लेकिन उस प्रकार का यह विकल्प है ना? तो जहाँ निस्तरंग इस चैतन्य समुद्र में बिंदु मात्र भी अलग हुए, व्यक्त हुए तो वहाँ फिर एकरसपना नहीं रह पाता, तो ऐसे विकल्प के समय स्वानुभव नहीं है अतएव तत्त्ववेदी पुरुष जिसने सर्वनयों से गुणों की बात पर्याय की बात भेदाभेद सब कुछ निरख लिया और वस्तु के परिचय के बारे में स्पष्ट हो गया वह तत्त्ववेदी पुरुष अब पक्षपात से रहित हो जाता है तो ऐसा निष्पक्ष तत्त्ववेदी जिसने स्वानुभव कर लिया है, उसकी दृष्टि में तो यह चेतन नित्य चेतन ही है ।
779―द्विनयात्मक बुद्धि से सर्व जानकर द्विनयात्मकता से अतीत आत्मोत्थ आनंद का अवसर पाने का अनुरोध―आत्मतत्त्व का जिस समय प्रतिपादन हो रहा हो उस काल में तो बुद्धि द्विनयात्मक होती है, क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है, तो द्रव्य की ओर से भी जानना और पर्याय की ओर से भी समझना । तो आत्मतत्त्व के परिभाषण के काल में तो बुद्धि दोनों नयात्मक है । किंतु जब तत्त्व जान लिया जाता है और वह स्वस्थ बनता है, अपने आत्मा में निर्विकल्प स्थित होता है तो उसकी फिर यह द्विनयात्मक बुद्धि दूर हो जाती है, इसी प्रकार हमें हेय तत्त्व और उपादेय तत्त्व इन दोनों का निश्चय करना भी आवश्यक है । तो यह सब कुछ भी दोनों नयों से होता है । तो नयों से हेयतत्त्व और उपादेय तत्त्व जानकर फिर क्या करना होता है कि हेय तत्त्व को तो छोड़ देवें और उपादेय तत्त्व में स्थित होवें, तो यों उपादेय को उपादेय मानने का विकल्प काम तो आया मगर ऐसे विकल्प से भी परे होकर मात्र उपादान ही रह जाए अर्थात् एक सहज स्थिति रह जाये ऐसा स्वानुभव निष्पक्ष तत्त्ववेदी के होता है और इस अनुभव से आत्मोत्थ आनंद प्रकट होता है, जिसके बल से रहे सहे संसार में, रहे सहे कर्मों के उदय में कष्ट उपद्रव आदिक के काल में भी इसका आनंद जगता है । तपश्चरण में दूसरों को तो खेद लगता है कि यह कैसा तपश्चरण कर रहा है, किंतु जो अंतस्तत्त्व का रुचिया है और उसी अंतस्तत्त्व की साधना में लगा है वह तो अपने आनंदरस में मग्न है । उसे कहाँ शारीरिक कष्ट मालूम होता है? तो ऐसा एक अपने इस सहज आनंद को प्राप्त करने में ही आत्मा का कल्याण है ।
780―विकल्प जालों से संसरण और विकल्प जालों से पृथक होने पर समयसारामृतपान―अब जरा इस ओर दृष्टि तो करो कि अपने आपके अंदर हो क्या रहा है? और उसका चिंतन रख कर क्या किया इस जीव ने? आज तक अनादि से लेकर अब तक यही रहा कि इसके ज्ञान में उपयोग में, चित्त में परद्रव्य विषयभूत रहा और वह इस दृष्टि से कि उस विषयभूत साधन का उपयोग कर ये रागद्वेष सुख दुःख बनाये और इस धाँधलबाजी में अपने आपका स्वरूप ध्यान में न रहा । यह स्थिति इस जीव की बराबर अनादि से चली आ रही है, ऐसी स्थिति का चित्रण करते हुए अब जरा अपने आपको संबोधे कि अरे इस समय इतने समय तक परद्रव्य ही मेरे ध्यान में रहा और ज्ञानमात्र यह मैं ज्ञान में न रह पाया । ये दोनों स्थितियां विरुद्ध फल बताने वाली हैं, परद्रव्य ध्यान में रहे, विषय में रहे तो उससे होती है व्यग्रता और निजस्वरूप ध्यान में रहे तो उससे व्यग्रता मिटती है । व्यग्रता मिटने का कारण यह है कि जब तक ज्ञानमात्र यह अंतस्तत्त्व ध्यान में रहता है तब तक कषायभाव नहीं जागृत होते, कषाय शांत हो जाते, मंद हो जाते । और जितनी भी व्यग्रता है, वह सब कषायभाव के कारण है । जीव सब सुखी शांत हैं । स्वभाव ही उनका आनंद है । तो स्वभाव से यह जीव आनंदमय है मगर फिर जो यह अनुभूति में नहीं आ रहा उसका कारण है उपयोग में कषाय और विषय का जागरण चल रहा । तो जब थोड़ा प्रतिबोध होता है और पर द्रव्य के विषय होने का और अंतस्तत्त्व के ध्यान में रहने का जब यह अंतर समझ लेता है तब इसके अंदर एक यह हूक उठती है कि अहो इतने समय तक पर द्रव्य मेरे ध्यान में क्यों रहा और क्यों नहीं मेरा निज सहज स्वरूप मेरे ध्यान में रहा तो ऐसा जब न रहा, पर द्रव्य ध्यान में रही, निज द्रव्य ध्यान में नहीं आ पाया तो इसमें अपना घात ही तो उसने किया । किसी दूसरे का इसमें क्या बिगाड़? किसी भी बाह्य पदार्थ का मैं कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि संबंध ही नहीं हो सकता, संपर्क ही नहीं हो सकता । प्रत्येक द्रव्य अपनी सत्ता से है, मैं अपने सत्त्व से हूँ, मैं परद्रव्य का क्या कर सकता हूँ? पर द्रव्य के बारे में विचार करूँ, कल्पनायें करूँ, यह तो मैं कर लूँगा, सो ऐसा करने में भी परद्रव्य का कुछ आया नहीं । मेरे इस ज्ञान का ही कुछ परिणमन हुआ है उसे तो मैं कर सकता हूँ कि परद्रव्य के बारे में ध्यान करूँ किंतु पर का मैं कुछ कर सकने वाला नहीं हूँ, पर को विषय किया, पर का राग किया, पर के बारे में ध्यान बनाकर अपने में इष्ट अनिष्ट कल्पनाओं द्वारा व्यग्रता की तो इसमें उसने अपना घात किया । क्योंकि हूँ तो यह ज्ञानमात्र परमात्मतत्त्व याने अपने आप ही स्वभाव से अपने ही स्वरूप से मैं आनंदस्वरूप, पर लग रहा है सारा दुःख । यह सब पक्षपात, विकल्पजाल ही इनका मूल है । विकल्पजालों से च्युत होकर ही तत्त्ववेदी आत्मानंदी होते हैं ।