वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 90
From जैनकोष
स्वेच्छासमुच्छलदनल्प विकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षां ।
अंतर्बहि: समरसैकरसस्वभावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ।।90।।
784―विकल्पजालों से परे होने पर ही सिद्धि समृद्धि―यह जीव इतना स्वच्छंद हो गया है, यहाँ मनुष्य इतना स्वच्छंद हो गया है, इसकी इच्छायें इतनी बेढंगी बढ़ गई हैं कि यह मौज मानता है अपनी इच्छानुसार कुछ भी विकल्प बनाने में, सोचने में, पुलावा बाँधने में । इनमें यह संतोष मानता है, कोई कितना ही समझाये कि इन बाहरी पदार्थों के बारे में विकल्प, विचार, तृष्णा, इच्छा न करो, कुछ क्षण सीधे ही बैठे रहो, विकल्पों की रट न बनाओ, मगर एक क्षण भी तो नहीं गुजर पाता ऐसा कि अपनी स्वच्छंद, इच्छानुकूल यह शेखचिल्लीपन जैसे अपने मन में पुलावा बाँधने से कुछ तो बाज आये और फिर कुछ समझदार हो तो वह धर्मचर्चा में आत्मा के प्रसंग में वह अपनी इच्छा से नाना प्रकार के विचार और नयों को बनाता है, लेकिन जो पुरुष ऐसे बड़े-बड़े नय पक्षों का भी उल्लंघन करे और भीतर बाहर समतारस से परिपूर्ण बन जाये वह ही पुरुष अनुभूति मात्र निज एक अंतस्तत्त्व को प्राप्त कर पाता है । यह मन बड़ा परेशान कर रहा । मन नहीं परेशान करता किंतु कषाय परेशान करती । कहीं यह मन स्थिर नहीं हो पाता । तो ठीक है, वह तो सही मार्ग बताता है कि दुनिया में कोई पदार्थ ऐसा नहीं है कि जहाँ यह मन स्थिर हो सके, जहाँ अपनी स्थिरता बन सके, ऐसा है ही नहीं अन्य कुछ । जो अपने हितरूप हो, फिर उस पर मन जमे कैसे? इसी मन को जिन्होंने मारा, वश किया उन्हीं की तो हम भक्ति करते हैं, गुणगान करते हैं, जिन्होंने इन विषय कषायों को दूर किया ऐसे ही पवित्र पुरुष तो आदर्श बनते हैं । वह कोई दूसरे नहीं हैं, खुद ही तो हैं ।
785―निज सहज ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व की उपासना में सकल विपदावों का परिहार―भैया आनंद चाहिए तो ज्ञानप्रकाश अपने में उत्पन्न करें और अपने स्वरूप में अपना अनुभव करलें और मान लें कि मैं यह ही हूँ । कोई घटना चाहे कितना ही बरगलाये, यह कर्म रस चाहे कितना ही करें पर यह बहक में न आये और अपने में दृढ़ अनुभव करे कि मैं तो विशुद्ध ज्ञानमात्र हूँ, एक चैतन्यमात्र । इसमें विकार नहीं हैं, इसमें कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, सब बाहर लोट रहे हैं, बाहर पड़े हैं, मुझमें किसी का प्रवेश नहीं । मैं तो ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व हूँ, अपने इस ज्ञानरूपता के अनुभव को न त्यागे, बस तो ही ज्ञानी पुरुष है । प्रतीति ऐसी ही रहे कि मैं ज्ञानसिवाय कुछ नहीं हूँ, ज्ञान ही ज्ञान हूँ, ज्ञान ही मेरा वैभव है, ज्ञान ही मेरा लोक है, परलोक है, ज्ञान ही रक्षक है, शरण है, सर्वस्व है, मैं ज्ञान को ही करता हूँ, ज्ञान ही मेरे में सब कुछ है । इसके सिवाय मेरा कुछ नहीं । ऐसा एक दृढ़ अनुभव बन जाये उसको फिर कोई कष्ट नहीं, कोई दुःख नहीं । सब बाहरी पदार्थ हैं, वे अपने ढंग से परिणमते हैं, इनसे मेरे को क्या कष्ट आये? कष्ट तो अपने ज्ञानस्वरूप की सुध खोकर बनाया जाता है । अटकी क्या है किसी भी पर पदार्थ को, मैं मानूं कि ये मेरे हैं, ऐसा मानने की कुछ अटक पड़ी है क्या? झूठे आग्रह की कुछ अटकी भी है क्या? झूठें आग्रह छोड़ दिये जायें और अपने सत्यस्वरूप में रमा जाये तो इसका कष्ट आज ही खतम हो जाये । ग्रंथों में भी आया है कि सम्यग्ज्ञान होते हो उसका अनंत संसार समाप्त हो जाता है तो उसका और अर्थ क्या है? अपने आपके सही स्वरूप की अनुभूति होने पर फिर पर पदार्थों में लगाव रहता ही नहीं है । उसका संसार खतम हो ही जायेगा । तो मिथ्या विकल्प, चर्चा के विकल्प सभी विकल्पों से परे होना है और एक अपने में सत्य आराम पाकर रहना है तब इसके अनुभव में आयेगा कि मैं तो यह चेतन चेतन ही हूँ । कष्ट रहित हूँ, पवित्र हूँ, प्रभुस्वरूप हूँ, बस यह अनुभव ही हम आपको शरण है । अन्य की दृष्टि अन्य में लगाव हम आपको रंच भी शरण नहीं है ।