वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 1
From जैनकोष
मोक्षाग्रद्वारभूतं व्रतचरणफलं ज्ञेयभावप्रदीपं, भक्तॎ नित्यं प्रवन्दे श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ।।1।। जिनेन्द्रवक्त्रप्रतिनिर्गतं वचो यतीन्द्रभूतिप्रमुखैर्गणाधिपै: । श्रुतं धृतं तैश्च पुनः प्रकाशितं द्विषट्प्रकारं प्रणमाम्यहं श्रुतम् ।।2।। कोटीशतं द्वादश चैव कोट्यो लक्षाण्यशीतिस्त्र्यधिकानि चैव । पंचाशदष्टौ च सहस्रसंख्यमेतच्छ्रुतं पंचपदं नमामि ।।3।। अरहंतभासियत्थं गणधरदेवेहिं गंथियं सव्वं । पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवहिं सिरसा ।।4।।
इच्छामि भंते ! सुदभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं अङ्गोवङ्गपइण्णये पाहुडयपरियम्मसुत्तपढमाणुयोगपुव्वगयचूलियाओ चेव सुत्थत्थुइधम्मकहाइयं णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कमक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झ । (9 बार नमस्कार मंत्र) ॐकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ।। अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलमलकलङ्का । मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितम् ।। अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम: ।। श्री परमगुरवे नम: परम्पराचार्यगुरुभ्यो नम: । सकलकलुषविध्वंसकं श्रेयसां परिवर्द्धकं धर्मसम्बन्धकं भव्यजीवमनप्रतिबोधकारकमिदं शास्त्रं श्री समयसारनामधेयं, अस्य मूल ग्रंथकर्तार: श्री सर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवास्तेषां वचोऽनुसारमासाद्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्येण विरचितम् । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोंऽस्तु मङ्गलम् ।। सर्वमङ्गलमाङ्गल्यंसर्वकल्याणकारकं । प्रधानं सर्वधर्माणां जैन जयतु शासनम् ।।
कलश 1 नम: समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावांतरच्छिदे ।।
1. मंगल, उत्तम व शरणभूत समयसार की आदेयता:—जो लोक में मंगल है, सर्वपदार्थों में उत्तम है, शरणभूत है, उस पर दृष्टि की जाना प्राणियों की प्राकृतिक वृत्ति है । संसार के प्राणियों ने विषय कषायों को कल्याणकारी समझा है और उसे ही सब पदार्थों में उत्तम माना है, उसे ही शरणभूत समझा है, इस कारण प्राणियों की दृष्टि विषय साधनों पर मर्जी से व विवशता से जाया करती है । आचार्य देव करुणा करके भव्य जीवों को सम्बोधते हैं कि दृश्यमान इन साधनों में मंगल, उत्तम व शरणभूत की जो मान्यता कर रखी है वह सही नहीं है । अपने आप में देखो जो कल्याण स्वरूप विराज रहा है, सर्व पदार्थों में और समस्त परिस्थितियों में उत्तम सारतत्त्व विराज रहा है, और जो स्वयं ही यह सारभूत तत्त्व शरणभूत है उस ही आत्मतत्त्व को यहाँ नमस्कार किया गया है । इस उत्तम शरणभूत ज्ञायक स्वभाव की दृष्टि ही हमारे कल्याण को बनाती है और इसके प्रसाद से जो भी बात आनी चाहिये कल्याण के लिए वे सब बातें आ जाया करती हैं, उ स समयसार को नमस्कार किया गया है । समयसार कहने पर तुरन्त इतना भाव लेना कि सब पदार्थों में सार है आत्मा और आत्मा में भी सार है आत्मा का शाश्वत भाव उसे यहाँ दृष्टि में लिया गया है । इसके प्रति भव्य आत्मा नमन कर रहा है । अपने ही अंतरंग में झुक कर अपने ही चित्स्वरूप को ध्या रहा है इस श्लोक का अर्थ समझने के लिए प्रतिलोम प्रक्रिया से अन्वय करें—सर्वभावान्तरच्छिदे भावाय चित्स्वभावाय स्वानुभूत्या चकासते समयसाराय नम: । समस्त परभावों से विविक्त अथवा समस्त परभावों का छेदन करने वाले अर्थात् परभावों से निराले समयसार को नमस्कार हो । 2. समयसार के विशेषणों के प्रतिलोमक्रम का मर्म—कोई यहाँ यह आशंका कर सकता था कि समस्त भावान्तरों से निराला कोई अभाव भी हुआ करता है । देखो ना अभाव समस्त भावान्तरों से विलक्षण है उसको सम्बोधने के लिए आगे बढ़ते हैं कि नहीं वह भाव स्वरूप है, उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक है । भावों से विलक्षण ऐसा करने से अभाव न लेना किन्तु सर्व भावान्तरों से निराला भावस्वरूप यह समयसार है । इतना कहने के बाद भी यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि वह समयसार क्या है । सर्व परभावों से निराला है और भावरूप है, ऐसे तो सभी पदार्थ होते हैं । पर से नास्ति और स्वचतुष्टय से अस्ति हुए बिना तो वस्तु की सत्ता भी नहीं होती । सर्व भावान्तरों से निराला और भावस्वरूप इतना कहने मात्र से समयसार का भी बोध नहीं हुआ जिसका आलम्बन लेने पर जिसकी दृष्टि रखने पर खोटे परिणाम दूर भगते हैं, तब इसी स्पष्टता के लिए कहा गया है चित्स्वभावाय । यह समयसार सर्व भावान्तरों से निराला है अथवा सर्व भावान्तरों को दूर करने वाला है अथवा जानने वाला है । अभी सामान्य प्रक्रिया में यही अर्थ किया है, सर्व परभावों से निराला, भावस्वरूप है और चैतन्यस्वभावरूप है । इसका स्वभाव है चैतन्य जिससे कि स्वभावी आत्मा का अनादि अनन्त निर्माण है । कोई पदार्थ तो किसी न किसी स्वभावरूप ही तो है । इस समयसार का स्वभाव क्या है तो कहा गया है कि चित्स्वभावाय, वह चैतन्यस्वभावरूप है । इतना कह देने पर भी अभी यह जिज्ञासु भव्य पुरुष बड़ी एक टकटकी निगाह से लख रहा है कि क्या है वह आत्मा । गुरु की ओर शब्दों की ओर अथवा आसपास बैठे हुए ज्ञानियों की ओर देख रहा है । क्या है वह समयसार इतना कहने पर भी उसका स्पष्टीकरण तो हुआ नहीं । तो ऐसे जिज्ञासु पुरुष को सम्बोधते हैं कि वह समयसार स्वानुभूत्या चकासते । वह समयसार स्व की अनुभूति से प्रकाशमान है । बाह्य पदार्थों के विकल्प हटाकर पर की अनुभूति न करके अपने आत्मा में सहज पर के विश्राम से रहकर जो अनुभूति जगती है, वह है स्व की अनुभूति, और उस स्व की अनुभूति के द्वारा यह समयसार प्रकाशमान है ऐसे समयसार को नमस्कार किया गया है । 3. परमार्थ आत्मा प्रभु की उपासना—इस ग्रन्थ का नाम है समयप्राभृत । समय नाम आत्मा का है, प्राभृत नाम है भेंट का, सो यह ग्रन्थ आत्मा के दर्शन करने वालों के लिये भेंट है, उपाय है । आज दुनिया में जितने भी धर्म प्रचलित हैं सभी यह जानना चाहते हैं कि हमारी सृष्टि का मूल क्या है? कैसे सृष्टि का प्रारम्भ हुआ और उस सृष्टि का रचयिता कौन है । यह बात जैनधर्म के आध्यात्मिक ग्रन्थ इस समयसार में आचार्यों ने अच्छी तरह खुलासा करके दिखाया है कि सृष्टि का मूल तत्त्व क्या है उस मूल शक्ति की पहुंच में कैसी सृष्टि होती व उसके अपरिचय में कैसी सृष्टि होती । कुछ भाइयों ने भी यही जानने समझने का प्रयत्न किया है कि हमारी सृष्टि का मूल क्या है । उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म एक है और वह प्रत्येक पदार्थ में रहता । सृष्टि का करने वाला भी वही है । तथा कोई कहते हैं कि ब्रह्मा है वह एक है सर्वव्यापक है, वही जगत की सृष्टि का उपादान कारण है, और वही निमित्तकारण है । फिर यह उचित ही है कि जो हमारी सृष्टि का मूल कारण है उसको प्रसन्न कर ताकि हमारी भव सृष्टि न होकर शिवसृष्टि हो । उपनिषद का प्रयोजन सृष्टि का मूल जान कर उसकी भक्ति करना है, तो अध्यात्मशास्त्र का भी प्रयोजन अपनी सृष्टि का मूल जानकर उसकी उपासना करना है । केवल यह निर्णय करना है यथार्थ में अपनी सृष्टि का मूल कौन है । यह बात यही है कि सृष्टि के मूल को जानो और उसकी उपासना करो, किन्तु उपासना किस लिये है यह, इसका क्या ध्येय होता है यह सब केवल प्राथमिक अवस्था के उपयोग हैं । वस्तुत: इसकी उपासना में उपयुक्त महात्माओं का कोई भिन्न ध्येय ही नहीं रहता । वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान होने पर उसकी उपासना होती ही है । 4. अपना मूल आधार—आप हम सब आत्मा हैं । कल्याण की यदि भावना हो गई और जगत का, मित्र का, देह का, वचन का, मन का यदि पक्ष नहीं रहा है तो कोई संदेह नहीं कि बड़े-2 व्यवसाय करने के क्षयोपशम को कर लेने वाले आप लोग अपनी सृष्टि के मूल कारण को न पहिचान सकें । इसके वर्णन करने वाले इस शास्त्र को कुन्दकुन्दोपनिषद कहो या अध्यात्मशास्त्र कहो एक ही दोनों का अर्थ है । उपनिषद में तीन शब्द हैं उप-नि-षद; अपने आपके समीप में जो भली भांति बैठावे वह उपनिषद है । अध्यात्म शब्द भी यही कहता है । प्रभु कुन्दकुन्द की इस वाणी में सृष्टि के आधार की चर्चा है; श्रीमत्परम पूज्य क़ुन्दकुन्द देव ने आत्मस्वरूप बताने के लिये 415 गाथाओं का निर्माण किया है । उन गाथाओं पर श्रीमत्परमपूज्य अमृतचन्द्र जी सूरी ने व्याख्यान किया है । उस व्याख्यान का यह प्रथम श्लोक मंगलाचरण के रूप में हैं । समयसार के लिये नमस्कार हो । समयसार का अर्थ है वह आत्म तत्त्व जो अनादि से अनंतकाल तक रहता है, स्वत: सिद्ध है । विज्ञान वितर्क से देखो हमारी सृष्टि का मूल यह आत्मा है । प्रत्येक आत्मा परिणामशील है । प्रति समय द्रव्य अपनी अवस्था करता है ऐसा स्वभाव ही है । यह आत्मा किसी भी एक अवस्था रूप ही बनकर नहीं रहता है सब अवस्थाओं को एक-एक क्षण के लिये धारण करता चला जाता है । जिस एक की ये अवस्थायें बनती चली जाती हैं, एक को जानो और उसकी आराधनारूप भक्ति करो । अपनी सृष्टि का मूल यह स्वयं आत्मा है और यह आत्मा स्वयं धर्म है, इसकी सत्ता भी स्वतन्त्र है । आत्मा की सब अवस्थायें इस ही धर्म के परिणमन हैं उन परिस्थितियों में कोई विकृत कोई अविकृत है । उनका सृष्टिकर्त्ता यह आत्मा है । आत्मा स्वतन्त्र है । आत्मद्रव्य मूल है अत: आत्मा की रचनाओं का वही सृष्टिकर्त्ता है । 5. विभाव सृष्टि का विधान—अब यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि जब आत्मा स्वयं ही सृष्टिकर्त्ता है तब इसकी रचनाओं के नाना प्रकार भिन्न-2 रूप कैसे बने? इसका उत्तर है कि जिसमें जैसी शक्ति है उसी रूप वह परिणम जाते हैं । इसमें निमित्त परद्रव्य है । आत्मा के रागादि विभाव जिनमें विविधता है उनकी सृष्टि भी आत्मा से हुई और वह हुई मलिन आत्मा से । यद्यपि आत्मस्वभाव शुद्ध सत्ता का कारणपरमात्मतत्त्व है तथापि अब तक चले आये परिणमनों को देखकर निर्णय करें तो आत्मा की मलिनता की परम्परा अनादि से है । यह मलिन आत्मा प्रतिसमय परिणमता जा रहा है । अपनी शक्ति से अपने गुणों में, किन्तु मलिन आत्मारूप उपादान की ऐसी प्रकृति है कि अपनी योग्यतानुसार निमित्त को पाकर मलिन पर्यायरूप परिणमता जाता है । यह असर, प्रभाव व वैशिष्ट्य आत्मा का है । विभाव परिणमन में बाह्य अविनाभाव सम्बन्ध अथवा बहिर्व्याप्यव्यापक संबंध निमित्त का है । यह निमित्त उदित अथवा उदीर्ण द्रव्य कर्म है अर्थात् कर्म के उदय व उदीरणा के अभाव में रागादि होते नहीं हैं और कर्म के उदय उदीरणा के सद्भाव में ही रागादिक होते हैं । यह सम्बन्ध होते हुए भी कर्म की परिणति स्वीकारे बिना ही आत्मा की परिणति से रागादिक होते हैं । स्त्री पुत्रादिक बाह्य पदार्थ रागादि के निमित्त नहीं हैं उनमें, किन्तु आश्रयभूत पदार्थ हैं । उस अवसर जिस पर आत्मा की दृष्टि जावे वह रागादि का विषय बन जाता है । इस समयसार में श्री कुन्दकुन्दाचार्य जो कुछ कहेंगे उसका सारांशरूप में टीकाकार ने एकदम स्पष्ट करके मंगलाचरण में ही कह दिया है । 6. विश्वविधि के विषय में कुछ दार्शनिकों का खोज प्रयास—कुछ दार्शनिकों ने मुक्ति का उपाय ढूंढ़ने के लिए सूक्ष्मदृष्टि से खोजें भी की हैं । और बुद्धि जहाँ तक चली है खोज की है किन्तु वह खोज इस इन्द्रियजन्य बुद्धि से नहीं हो पाती । और है इसके आगे कोई परमात्मतत्त्व तो उसकी कल्पनायें अनेक शब्दों में की है । जो कुछ भी कल्पनायें की, वे सब लौकिकता से विलक्षण हैं । इतनी बात उन सब ऋषिसंतों की परमार्थ कल्पना में एक समान पायी जाती है । लोग सर्वप्रथम इस बात का हल करना चाहते हैं कि आखिर यह दुनिया आयी कहां से । कैसे प्रकट हुई है, किसने इसे उत्पन्न किया है, कब तक रहने वाली है इस बात को उस ही दृश्यमान पदार्थ के अन्दर तो खोज करने की बुद्धि चलायी नहीं, क्योंकि कर्तृत्त्व वासना का संस्कार जीवों के बना चला आया है सो इस दृश्यमान विलक्षण किसी अन्य में कर्त्तृत्व की बात सोचने की बात लोगों की बुद्धि में आयी और यह कहा कि इन सबको रचने वाला कोई एक ईश्वर है । अथवा कुछ और विशेष आध्यात्मिकता बढ़ी तो ब्रह्म । वस्तुस्वरूप का भान किये बिना इसका यथार्थ उत्तर नहीं आ पाता कि आखिर इसका उपादान क्या है और निमित्त क्या है । कल्पना में जब यह आ गया कि इस विश्व का रचने वाला कोई एक ब्रह्म है, परमात्मा है तो यदि कोई ऐसा समझते हैं कि यह जगत तो है ही, इसका निमित्त कारण एक ब्रह्म है । तो इसमें इन समस्त पदार्थों की अनादि निधनता सिद्ध हो जाती है । तब फिर उस ईश्वर की महिमा क्या रही । यदि यह बतलाते हैं कि इन सब पदार्थों का ब्रह्म उपादान कारण है तो ऐसे अनेक तत्त्वों का उत्तर नहीं आ पाता कि ये पदार्थ इस ढंग से इस क्रम से क्यों बन रहे हैं । सभी पदार्थ सभी विकास सब एक साथ क्यों नहीं हो जाते? तो सोचना पड़ता है कि कोई अन्य निमित्त है । अन्य कुछ पदार्थ निमित्त मान लेने पर माने गये उपादानभूत ब्रह्म की महिमा नहीं रहती । सर्वशक्तिमत्ता सिद्ध करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसही ब्रह्म को उपादान कहा जाय और उस ही को निमित्त कहा जाय । भले ही चाहे वह स्वरूप निर्णय की स्थिति में न आ सके पर भक्ति इसी में मानी गयी है । 7. स्वरूप में विभक्त विश्वविधि का निर्णय—जैन शासन विश्वविधि के विषय को स्पष्ट करता है कि प्रत्येक ज्ञेय, परिवर्तनशील पदार्थ अपने उपादान से प्रकट हुये हैं और ऐसे विभिन्न परिणमनों में निमित्त कारण उपादानभूत तत्त्व से अतिरिक्त कोई अन्य द्रव्य है । उपादान भी अनादि अनन्त है और निमित्त का समागम भी सदा काल रह सकता है इस कारण जब तक पदार्थ विभाव परिणमन की योग्यता रखते हैं तब तक उनका यह संसार सुघटित बन जाता है । इसी विभाव पद्धति में जीव की दृष्टि पर की ओर रहती है, अज्ञानरूप रहती है । इससे इन जीवों का बन्धन है, क्लेश है और जन्ममरण भी इनकी परम्परा रहती है जिससे हम प्रकट हो रहे हैं, जिस स्वभाव से हमारी ये परिणतियां बन रही हैं, इस ज्ञानोपयोग में श्रोतभूत ज्ञायक स्वभाव इस अन्तस्तत्त्व में स्थित हो जाय तो अनाकुल हो सकते हैं और अपने उस स्वरूप को पा सकते हैं जिसकी उपलब्धि होने पर फिर संसार का कष्ट नहीं रहता । उस समयसार के प्रति यहाँ नमन किया जा रहा है अपनी अन्तर्वृत्ति से झुककर उस अंतस्तत्त्व स्वभाव को निरखा जा रहा है । यह समयसार स्वानुभूति से ही प्रकट होता है । जो ज्ञायकस्वरूप है, जिसे छेदा पकड़ लाया नहीं जा सकता है, जिसे सुना निरखा सूंघा नहीं जा सकता है, जिसमें खट्टामीठा आदिक कोई रस नहीं पाये जाते हैं । ऐसे ज्ञानमात्र तत्त्व को हम आन्तरिक सुगम विधि से देखें? हम अपने ज्ञान को उस ज्ञान स्वरूप के जानने में ही लगा देते हैं और पर पदार्थों के उपयोग से हटते हैं तो इस स्थिति में जानने वाला भी ज्ञान है और जानने में आया हुआ भी ज्ञानस्वरूप है । वहाँ ज्ञाता ज्ञान की एकता बनती है और उस काल में इसके स्व की अनुभूति प्रकट होती है । समझते हैं तो पश्चात् समझते हैं यह कि अहा, यह है आत्मतत्त्व । आत्मतत्त्व । आत्मतत्त्व के अनुभव के काल में वह मात्र सहज परम विशुद्ध आनन्द का अनुभव कर रहा है, उससे चिगने पर यह निर्णय बनता है कि वह है शुद्ध अंतस्तत्त्व । उस ही का नाम समयसार है । आत्मा में जो आत्मा के सत्त्व से अपने आप विराजमान है अन्त: प्रकाशमान है जो कि एक ज्ञानानुभव से ही विदित होता है उस समयसार को यहाँ वन्दन किया गया है । 8. अहित विषय कषाय है—प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और वह दु:ख से छूटना चाहता है किन्तु यह इतना विचार ही नहीं करता कि दु:ख वास्तव में क्या है? यदि प्राणी यह विचार कर लेवे—आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय; तो वह दु:ख से छुटकारा प्राप्त कर लेगा । विषय कषाय में परिणति न जावे यह बात तभी हो सकती है जब आत्मा का यथार्थ बोध हो और विषयकषाय रूप पर्याय का यथार्थ बोध हो । सभी प्रकार के अध्यात्मवादियों ने यह निर्विवाद माना है कि विषय और कषाय ये ही बुरे विकल्प हैं और इनसे ही दु:ख होता है । इस दु:ख से छूटने के लिये सभी विवेकी अचाक्षुष तत्त्व की ओर गये । हमारे सुख दु:ख में हमारा और परद्रव्य निमित्त का सम्बन्ध व दृष्टि रूप झगड़ा है, अथवा झगड़ा किसी का नहीं, सभी कोई एक ईश्वर ही अपनी मंसा के मुताबिक सब प्रबन्ध करता है । इन दोनों बातों का यथार्थ मंथन करके निष्कर्ष निकाल लेना अपने सत्पथ पर चलने के लिये सबसे बड़ा काम लेना है । मूल अटक का निरवेरां न करके रूढ़िगत धर्म प्रतीतियों में लगे रहना, क्षमा करें, बिना लक्ष्य वाले का समुद्र में इतस्तत: नाव भटकाने के समान व्यवसाय है । भैया ! यथार्थ ज्ञान के उपार्जन का पुरुषार्थ महान् पुरुषार्थ है । सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेने के पश्चात् सम्यक् चारित्र धारण कर मोक्ष पा लेना सुगम है । जन साधारण प्राय: यह कहते देखे गये हैं कि ज्ञान पा लेना सरल बात है, उस पर चलना कठिन बात है । कुछ बुद्धिमान बतलाते हैं कि दु:ख मेटने का उपाय जान लेना तो सरल है किन्तु उस पर चलना यानी दु:ख से छुटकारा पाना बहुत ही कठिन है । किन्तु जैन सिद्धान्त में तो कहा है कि दुःखों से छुटकारा पाना अत्यन्त सरल है; किन्तु दु:ख के व उसके नाश के उपाय को जान लेना अति कठिन है । मिथ्यात्व और कषाय इन दोनों में कौन कठिन है? इन दोनों में मिथ्यात्व ही कठिन है, क्योंकि मिथ्यात्व सम्यग्दर्शन का प्रतिबन्धी निमित्त है । जब मिथ्यात्व का उदय रहता है तब तक सम्यग्दर्शन का उदय नहीं होता है । इसलिये मिथ्यात्व का उच्छेद करना अति कठिन है उतना कठिन कषायों का उच्छेद नहीं । 9. विकाश का हेतु निज ज्योति का दर्शन—सम्यग्दर्शन बिना प्राणी का अनंत काल परिभ्रमण में बीता । सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् यदि वह नष्ट न हो तो अधिक से अधिक उसे दहाई सागर प्रमाण ही संसार में रहना पड़ता है व कम से कम अंतर्मुहूर्त में ही चारित्र द्वारा मुक्ति पा लेता है । सम्यग्ज्ञान का उपार्जन सबसे कठिन है । जिन लोगों की धारणा है कि ज्ञान पा लेना सरल है, चलना कठिन है, उन्होंने ज्ञान को ही नहीं समझा, और किसी कला को ज्ञान कहकर ऐसी टिप्पणी की है । यथार्थत: देखो तो सम्यग्दर्शन भी ज्ञानस्वरूप आत्मा की श्रद्धा है । ज्ञान भी ज्ञानस्वरूप आत्मा की ज्ञप्ति है और चारित्र अभीक्ष्ण ज्ञानवृत्ति से बने रहना है । इधर लोग भी कहते हैं ‘नर्ते ज्ञानान्मुक्ति: ।’ आप भी कहते हैं ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।’ इस सूत्र में विशेषण बहुवचनान्त है और विशेष्य एक वचनान्त है जिसका रहस्य यह है कि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता मोक्षमार्ग है । वह ऐक्य अति निर्लेप होकर ज्ञाता दृष्टा बने रहने की स्थिति का संकेत करता है । वह स्ववृत्ति है । भैया, कोई कहते हैं कि वह मनुष्य अधिक क्रोध करता है इसलिये महाराज आप ऐसा नियम दिला दें कि जिससे यह क्रोध न करे । सो भैया मानो उसने उसे ऐसा ही समझा है जैसे कि बाह्य चीज को न ग्रहण करना, न खाना, त्याग कर देना आसान है, सो ऐसा क्रोध का नियम भी होता होगा । वह यह बात दूसरे के प्रति ही समझता है अपने प्रति तो कोई कहे—मान लो, तो यही जवाब देता हमारे बस की नहीं । उसके यह उत्तर बाह्य अर्थों में भी रहते हैं । क्रोध नियम कराने से नहीं छूटता है बल्कि आत्मा में जब ज्ञान की प्राप्ति होगी और वह यह जान जावेगा कि यह जो कुछ मैं देख रहा हूँ सभी क्षणिक नश्वर है । क्रोध करना आत्मा का स्वरूप नहीं; क्रोध अन्य पदार्थों को निमित्त पाकर होता है क्षण भर के लिए आकर फिर विनष्ट हो जाता है; मैं तो ध्रुव ज्ञान स्वभावरूप हूँ ये सब होते हैं उनका मैं ज्ञाता हूँ ।मेरी वृत्ति जानने की है । यह बोध हो तो फिर क्रोध छूट जायगा । वस्तुत: मैं स्वचतुष्टय से ही सत् हूँ । पर-चतुष्टय से नहीं, अन्य द्रव्य कोई मेरा नहीं है । पुत्र, स्त्री, माता, पिता सभी स्वार्थ के हैं, जब तक उनका मेरे द्वारा स्वार्थ चल रहा है तभी तक कल्पना में मेरे हैं । किनसे क्रोध करना, किसी से मेरा सम्बन्ध नहीं । आत्मा अपने को पहचानेगा तब उसके क्रोध, मान, मोहादिक स्वत: नष्ट हो जायेंगे । 10. कलुषताओं का अज्ञान के बल पर जीवन—जहां भगवान कारणसमयसार अर्थात विशुद्ध आत्मतत्त्व विराजमान होगा वहाँ कलुषतावों का अड्डा नहीं जम सकता । कलुषताएं वहीं आराम पाती हैं जहाँ अज्ञान का निमंत्रण मिलता । कलुषतावों को निमंत्रण की कमी नहीं है । अनंतानंत जीव अनादि से अज्ञानपूरित हैं । यह वस्तुस्वरूप की मेहरबानी है कि वे अब भी चेतनरूप ही हैं अन्य रूप नहीं हुये । और अब भी आत्मा की संभाल करें तो उतने ही चोखे निखरते हैं जितने चोखे चिरकाल पहिले कुछ आत्मा हो गये । पूज्य श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है कि ‘अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मन। तदेव ज्ञानसंस्कार: स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ।।’ जो उपयोग अविद्या वृत्ति के अभ्यास से दूषित हो गया था वही उपयोग ज्ञानवृत्ति के संस्कारों के द्वारा स्वयं ही निज विशुद्ध सहज भाव में ठहर जाता है । उपयोग यद्यपि चैतन्य की परिणति है और उपयोग जो पहले था वह बाद में नहीं रहता तथापि उपयोगपने मात्र की अविशेषता से ‘‘वही उपयोग’’ ऐसा व्यवहार में आता है, इसका तात्पर्य आत्मा से है । जब तक आत्मा की शुद्धि नहीं होगी तब तक ज्ञान भी पैदा नहीं होगा । एक उदाहरण है—एक राजा के पास दो चित्रकार आये और दोनों अपनी प्रशंसा करने लगे । राजा ने दोनों को काम दिया एक ही भवन में बीच में पर्दा डालकर छहमाह के बाद दोनों की चित्रकारी देखने का वायदा किया । पहला चित्रकार जो कि रंग ब्रुश आदि से चित्र बनाता था, दीवाल पर बढ़िया से बढ़िया चित्र बनाने लगा और दूसरे ने एक दीवाल की सफाई शुरू की । उसने 6 महीने बराबर अपनी दीवाल की सफाई करना जारी रखी । राजा ने जब पर्दा हटाकर देखा तो जितने चित्र रंगादिक से बनाये गये वे उन चित्रों के सामने खुरदरे प्रतीत हुये, किन्तु वे चित्र जिसने छह महीने सिर्फ दीवाल की सफाई की उसकी दीवाल में उत्तम प्रतीत हुये । राजा ने द्वितीय चित्रकार को ही अधिक पुरस्कार दिया । इसी तरह जब तक आप आत्मशुद्धि नहीं करोगे तब तक आत्मा में ज्ञानवृद्धि होना कठिन है अथवा ज्ञानवृद्धि नहीं हो सकेगी । चित्तशुद्धि करने में, उपयोगभूमि को निर्मल बनाने में यदि जीवन का बहु भाग भी लग जावे तो समझ लो कि हमने पोने सोलह आने काम कर लिया है । दर्जी से कमीज सिलवाने जाते तो वह दर्जी आप से आधा घन्टे तक नाप माप आदि करके कपड़े को आपके सामने कतर कर रख लेता है । क्या आप कभी यह सोचते कि इसने हमारा आधा घंटा समय व्यर्थ कर दिया और अभी सीना शुरू भी नहीं किया? नहीं सोचते; क्योंकि आप जानते हैं कतर ब्योंत ही बिगड़ गया तो कपड़ा बिगड़ जावेगा । यही बात अपने लक्ष्य ठीक बनाने और उपयोग शुद्धि करने के बाबत समझे । 11. ज्ञानलाभ की कठिनता और सुगमता:—एक दृष्टि से विदित होता है ज्ञानप्राप्ति करना कठिन है उतना कठिन चरित्र नही, ज्ञान का ज्ञानावस्था में रहना उसी का नाम चरित्र हैं । और फिर ज्ञानोपार्जन करके ज्ञान से देखो ज्ञान कठिन भी नहीं है क्योंकि जाननमात्र की बात ही तो है, खुद जानना व खुद को जानना । यह सहज ज्ञानमय आत्मा पर्याय को गौण करके स्वभावदृष्टि से देखने में आता है । जैसे यह सीधी उंगली टेढ़ी, तिरछी कई अवस्थाओं में है लेकिन कहा जावे कि सिर्फ उंगली मात्र बतावो तो वह आप लोग नहीं बता सकते क्योंकि वह तो सिर्फ ज्ञान से जानने में आवेगी । बाकी यह जो हम टेढ़ी आदि देख रहे हैं यह पर्यायें हैं यदि वास्तव में यह टेढ़ी अंगुली अंगुली है तो सीधी होने पर अंगुलीपना नष्ट हो जाना चाहिए । यहाँ अंगुली को द्रव्य नहीं समझना किन्तु दृष्टान्त में बताया है । इसी तरह बालक, जवान, बूढ़ा ये सभी मनुष्य हैं लेकिन आप से हम सिर्फ मनुष्य मात्र लाने को कहें तो आप बालक मनुष्य को लावेंगे अथवा जवान मनुष्य को आदि । कहने का मतलब है कि ये तो सभी मनुष्य की पर्याय हैं मनुष्य मात्र को तो हम ज्ञानपूर्वक ही देख सकेंगे । 12. मोहनिद्रा मिटने पर विकल्पक्लेशों का अभाव:—इसी तरह सहजज्ञान अथवा आत्मगुणों का ज्ञान होता है । स्वभाव ज्ञान के प्रतिभासमात्र से इस सहज स्वरूप के जाने बिना अनंत काल व्यतीत हो गया भटकते-भटकते । ये सब दुःख मोह के विकल्प के हैं । विकल्पों के रहते हुये कोई भी प्राणी हमारी क्लेशमुक्ति, रक्षा व दया करने में समर्थ नहीं है । ये विकल्प मिटे तो हमारी आत्मा की शांति सहज ही प्राप्त होगी । एक कथानक है। गर्मी के दिन थे। एक सेठ को दिन में स्वप्न आया कि मुझे बहुत गर्मी लग रही है इसलिये समुद्र में जाकर नौका द्वारा भ्रमण करना चाहिये । वहाँ ठण्डी हवा लगने से गर्मी शांत हो जावेगी तुरन्त ही वह कुटुम्ब सहित नाव में जा बैठा । थोड़ा दूर पहुंचा होगा कि बड़े जोर का तूफान आया और जहाज डूबने लगा । तब सेठजी ने मल्लाह से कहा कि हे मांझी ! तुम मुझे बचाओ, मैं तुम्हें 500) रुपये इनाम दूंगा । मल्लाह ने कोई उत्तर नहीं दिया । तब सेठजी से दुबारा कहा कि मांझी तुम मेरे प्राण बचा लो, मैं तुम्हें 5000 रुपया इनाम दूंगा । तब मांझी बोला सेठजी यह जहाज किसी भी तरह नहीं बचाया जा सकता है इसलिये आप मुझे आज्ञा दें कि मैं अपने प्राण बचा सकूं, क्योंकि किनारा पास है, मैं तिरकर बच सकता हूँ । आप विचार करो उस समय उस सेठ के प्राण कितने कष्टों में है; किन्तु जहाँ सेठ पड़ा है वहाँ का वातावरण तो देखो दासियां पानी लिये खड़ी हैं, पंखे डोल रहे हैं? कुछ मित्र लोग प्रतीक्षा में बैठे हैं कि सेठजी की आँख खुले तो हम सद्वचनों से सेठजी को प्रसन्न करें । परन्तु ये सब नर उस दु:खी सेठ को बचाने में समर्थ नहीं, सेठ स्वप्न में ही मरा जा रहा है । भैया बताओ सेठजी के दुःख मिटने का कोई उपाय है? हां उपाय है कि वह जग जावे । सब लोग उस दुःख को नहीं मेट सकते, किंतु वह दुःख जग जाने से मिट जावेगा । इसी तरह यहाँ भी लोभ मोह की नींद में ये स्वप्न देख रहे ठाट बाट के । इससे जो विकल्पों का दुःख है उसे महान साम्राज्य भी नहीं मिटा सकता वह तो ज्ञान से मिटेगा । मेरा तो निज ही निज है, अन्य सब अत्यन्त पृथक है—ऐसी प्रतीतिपूर्वक ज्ञानोपयोग चले तो कृतकृत्यता की श्रद्धा के बल से विकलता खतम हो । इसलिये यदि सुख चाहना है तो ज्ञान का अनुभव करो, बिना ज्ञान के सुख नहीं मिल सकता । श्रीमत्परमपूज्य कुन्दकुन्ददेव को नमस्कार करके उनके द्वारा रचित ग्रन्थ समयसार का क्या अर्थ है यही आज पहिले बताना है—जैसा कि नाम से स्पष्ट है समय यानी सम्पूर्ण द्रव्य और उनमें सारभूत आत्मा है तथा आत्मा में भी सारभूत है ध्रुवस्वभावमय तत्त्व। 13. समयसार की कारणपरमात्मा रूपता:—समयसार में शुद्ध अध्यात्मविषय की चर्चा की गई है । आत्मा का शुद्ध स्वरूप और उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है? निश्चयनय की दृष्टि से इस प्रश्न का हल करना भी इस ग्रन्थ का उद्देश्य है । निश्चयनय के अनुसार आत्मा का शुद्धस्वरूप-बन्धरहित, ग्रन्थरहित, ध्रुवनियत, चैतन्य है और सहज दर्शनज्ञानचारित्ररूप अभेद शुद्ध आत्मा का ध्यान उसकी प्राप्ति का उपाय है । उपनिषद में सृष्टि का मूल कारण निर्मित करके जैसी कि उसमें कल्पना की गई है उस कारणब्रह्म की उपासना दु:ख मुक्ति का उपाय कहा है । यहाँ भी सृष्टि के मूल कारणरूप निज ब्रह्म की जैसा कि यह सनातन है उस स्वभाव में उपासना करने को दु:ख मुक्ति उपाय कहा है । वेद में मीमांसा और वेदान्त ये दो मार्ग कहे हैं वह जैन सिद्धांत के षटकर्मवृत्तिरूप गृहस्थों के चरणानुयोग व अध्यात्मयोगियों की निर्विकल्प समाधि के प्रतिरूप हैं । अन्तर मीमांसा और गृहस्थ धर्म में यह हो गया कि मीमांसा पशुबलि को विधेय कह डालती है, जबकि गृहस्थ धर्म प्रासुक विधि से देवपूजादि के आरम्भ को अप्रतिषेध्य बताता है । इस तरह इन दोनों में इतना अन्तर हो गया है । इसी प्रकार वेदान्त सृष्टिकर्त्ता के विषय में सबको सृष्टि का मूल कारण बताता है और अध्यात्मसिद्धान्त प्रत्येक द्रव्य की सृष्टि मूल कारण उस ही द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप अभिन्न विभूति वाले द्रव्य को सिद्ध करता है । हां तो यहाँ अपनी सृष्टि के स्रोतरूप समयसार का अर्थ कहा जा रहा है । समयसार सामान्य दृष्टि से परखे गये अथवा अवगम्य आत्मतत्त्व को कहते हैं । अध्रुवदृष्टि दृष्टि, अध्रुव में दृष्टि, अध्रुव के प्रयोजन के लिये दृष्टि, अध्रुवता को प्राप्त होगी और उससे अध्रुव ही हाथ आकर निकल जायेगा, किन्तु ध्रुवदृष्टि, ध्रुव की दृष्टि, ध्रुव में दृष्टि, ध्रुव के प्रयोजन के लिए दृष्टि ध्रुवता को प्राप्त होगी और उससे ध्रुव की उपलब्धि होगी । यहाँ ध्रुव शब्द से दो मतलब लेना है । कहीं अविचल और कहीं सदृश पर्याय, जहाँ जो उपयुक्त बैठे । इस विषय को आगे की गाथाओं में कहेंगे । प्रकरणवश यहाँ इतना जान लेना कि पर से भिन्न, मैं निज अभिन्न चैतन्य ध्रुव समयसार है और सदृश पर्यायरूप प्रवाहित ध्रुव अरहन्त सिद्धपर्याय, केवलज्ञान केवलदर्शन, अनन्तसुख आदि कार्य समयसार हैं तथा विषय कषाय आदि विभाव अर्थपर्याय है और नर नरकादि विभाव व्यन्जन पर्याय हैं । इस ग्रन्थ में अन्य सबको गौण करके ध्रुव समयसार का वर्णन किया है । वीतराग मुनिराज स्वरूपाचरण चारित्र के समय जब आत्मध्यान में मग्न हो जाते हैं तब ध्यान (चितवन) ध्याता (ध्यान करने वाला) और ध्येय (ध्यान करने योग्य) पदार्थ में कुछ भी अन्तर नहीं रहता वचन का विकल्प भी नहीं होता, वहाँ पर आत्मा ही कर्म (कर्त्ता के द्वारा अभीष्ट कार्य होने वाला) और आत्मा का भाव ही किया जाता है अर्थात् कर्त्ता कर्म और क्रिया ये तीनों बिल्कुल अभिन्न तथा परस्पर अविरोधी हो जाते हैं, शुद्धोपयोग की अटल हालत प्रकट हो जाती है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र भी एक साथ एक रूप होकर प्रकाशमान हो जाते हैं जिसको उपादान करके निर्मल आत्मा हो जाती है । 14. सब द्रव्यों में आत्मतत्त्व की सारभूतता व मौलिकता—आचार्य श्री ने इस अध्यात्म महाग्रन्थ में उस शुद्ध आत्मस्वरूप का निश्चयनय की दृष्टि से प्रतिपादन किया है । यह पहले कह चुके हैं कि सब द्रव्यों में श्रेष्ठ है तो वह शुद्ध आत्मा ही है । द्रव्यों की संख्या अनन्तानन्त है । जीव द्रव्य अक्षय अनन्त है । उससे अनन्तगुणी संख्या पुद्गल द्रव्य की है और एक धर्म द्रव्य है एक अधर्म द्रव्य है, एक आकाश द्रव्य है और असंख्यातकाल द्रव्य हैं । किन्तु इसमें सबसे श्रेष्ठ जीव द्रव्य है । यदि सभी द्रव्य रहते आवे सिर्फ जीवद्रव्य न होता तो संसार में यह कुछ भी न होता अर्थात् जीव द्रव्य के अभाव में एक स्कन्ध भी दृष्टिगत नहीं होता, क्योंकि दुनियाँ का कोई भी परमाणु वह शक्ति नहीं रखता कि बिना जीव द्रव्य को निमित्त किये वृद्धि को प्राप्त हो सके जीव द्रव्य के अभाव में यह पेड़ पौधे किस प्रकार बड़े होते ? देखो ! यह कागज है, क्या जीव बिना संयोग यह बना है? यद्यपि इस समय यह निर्जीव है लेकिन यह बताओ राह बना कैसे? बासों और कपड़ों के पेषण से । कपड़े कपास से हुये और बांस व कपास वनस्पतिकायिक थे; एकेन्द्रिय जीव का पूर्व सम्बन्ध पाकर ही यह कार्यरूप स्थिति हुई । प्रश्न—धातु की चीज तो बिना जीव के हुई हैं? उत्तर—यह चद्दर अथवा आपके दूकान में रखे हुये सोना चांदी खान से निकले हैं; खान में से उन्हें निकाल करके प्रायोगिक संयोग-वियोग करके कुछ भी बना लों । आप एक भी कण या टुकड़ा हमें नहीं बता सकते जो जीव का संयोग न पाकर अपना कुछ भी आकार बना पाया हो । खैर; यहाँ इन बातों से प्रयोजन तो नहीं है बात यह चल रही है कि जीव द्रव्य सब द्रव्य में सार है । आप हमें बता दो कि अमुक पदार्थ अमुक स्कन्ध बिना जीव-प्रवेश पाये बढ़ा है, अथवा किसी ने वृद्धि प्राप्त की है । यह बात परोक्ष ढंग से है । वस्तुत: तो जीव का काम जीव में ही हुआ । उसके निमित्त को पाकर स्कंधों में स्कंध का संचय हुआ । अब अन्तरंग से देखो तो जीव ज्ञाता है, सबका व्यवस्थापक है, निर्देशक है । अत: जीव सब द्रव्यों में सारभूत है । अन्य द्रव्यों का पता देने वाला भी जीवद्रव्य है । और जीव द्रव्यों का पता देने वाला भी जीवद्रव्य है । तथा स्वयं का भी पता देने वाला जीव-द्रव्य है । अत: सब द्रव्यों में जीवद्रव्य सार हैं । 15. सामान्य और विशेष दृष्टि का परिणाम:—जीव-द्रव्य अनंतानंत है । अत: उसका कभी अन्त भी नहीं हो सकता है । अब हमें उस जीव द्रव्य में उस आत्मतत्त्व में कौनसा श्रेष्ठ आत्मतत्त्व हैं उसका निर्णय करना है । इस निर्णय के लिये हमें सामान्य और विशेष का अवलम्बन लेना होगा, आज सभी जगह सामान्य और विशेष का जिक्र आता है । कोई कहता है भाई मैं तो सामान्य सी दुकान करता हूँ, मैंने फलों का काम बड़ी विशेषता से किया । उसने शादी सामान्यरूप से की है आदि । सभी पदार्थों में सामान्य और विशेष लगता फिर रहा है । हमें लौकिक सामान्य का वर्णन नहीं करना है—यह तो इसलिये कहा है कि सामान्य विशेष घर-घर में राज्य जमाये हुये हैं । वहाँ वास्तविक वर्णन करते हैं । इसमें से सामान्य दृष्टि से समयसार जाना जायगा, और विशेष दृष्टि से सब गुण पर्याप्त तथा गड़बड़झाला जाने जावेंगे, और सामान्य दृष्टि के फलस्वरूप जो आराध्य पद होते हैं वे भी जाने जावेंगे । सामान्य दो प्रकार का है (1) बहुतसी चीजों में किसी एक को सामान्य कहना, यह तिर्यक्सामान्य है । जैसे—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि अनेक मनुष्य कहीं बैठे हों किन्तु सभी के सामान्य उसे मनुष्य कहा, यह है तिर्यक्सामान्य, क्योंकि वहाँ पर सभी मनुष्य हैं । (2) ऊर्ध्वतासामान्य—उसे कहते हैं कि एक वस्तु में ही सामान्य कहना वह है ऊर्ध्वतासामान्य । जैसे एक ही पुरुष के बालक जवान बूढ़े की अवस्थाओं में बालक जवान-बूढ़ा, इन तीन में सभी को मनुष्य कहा । इन तीनों में जो एक रहा उस एक को ही मनुष्य कहा । इस तरह विशेष भी दो तरह का है । तिर्यक् विशेष और ऊर्ध्वता-विशेष । इन चारों के निर्णय द्वारा हमें अपनी आत्मा का सार है इसे ढूंढ़ना है । श्रेष्ठ आत्मतत्त्व क्या है उसे ढूंढना है । 16. अपने में सार तत्त्व के अवलोकन का कर्तव्य—हमें प्रत्येक आत्मा में सार नहीं देखना है किन्तु स्वयं की आत्मा में सार देखना है और उसी से अनुमान कर लेना है कि जो सार मेरी आत्मा में है वही प्रत्येक आत्मा में है । जब तक हमें स्वात्मा का ज्ञान नहीं होगा तब तक हम अन्य की आत्मा का परिज्ञान नहीं कर सकते । इसलिये हमें पहले अपनी आत्मा का सार देख लेना चाहिये और वह सामान्य-विशेष के द्वारा निर्णय करके ऊर्ध्वता सामान्य से देखें । जब हम ऊर्ध्वता विशेष की दृष्टि से देखेंगे तो यह हमारी गड़बड़ियों को बतायेगा किन्तु सामान्य दृष्टि से जब हम आत्मा को देखते हैं तो हमें एक सामान्य भाव दिखता है वह है ज्ञायक भाव । णबि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओं दुजो भावो । एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सोउ सो चेव । इस गाथा के अनुसार आप जल्दी समझेंगे जो ज्ञायक भाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और न प्रमत्त ही है इस प्रकार उसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायक भाव से जान लिया वह वही है अन्य कोई नहीं । आज हम जितने भी व्यवहार देखते हैं वे सभी व्यवहार पर्याय का पर्याय के साथ हैं । द्रव्य का व्यवहार द्रव्य से नहीं चलता है । अपना निजी सृष्टिकर्त्ता आत्मा है इसलिये अपने सृष्टिकर्त्ता की उपासना करके उसे प्रसन्न करना चाहिये जिसके आगे भव सृष्टि न हो किन्तु शिवसृष्टि हो । यहाँ प्रसन्न का अर्थ है निर्मल । यह अर्थ व्याकरण के अनुसार है । अत: हमें अपनी आत्मा का निर्मल बनाना चाहिये जिसमें हमें आगे शिवसृष्टि ही मिले । 17. मोही जीवों की भ्रान्ति:—जगत में जीवों पर द्रव्य कर्मों की उपाधियाँ लगी हैं । भीतर में वासनायें जगा रही हैं जिनसे प्रेरित होकर यह जीव अपने आपको ऐसे सुगम सहज सिद्ध ज्ञानस्वरूप पर अपने आपको टिका नहीं पाता और बाह्य जगत के सम्बंध कल्पनायें बनाकर निरन्तर दु:खी रहा करता है । दूःख तो है श्रमसाध्य और आनन्द है सहज साध्य पर इस जीव को यह सहज साध्य आनन्द कठिन क्या असम्भव दिख रहा है और यह श्रमसाध्य दुःख, विकल्प, ये इसे बड़े सरल दिख रहे हैं क्योंकि इन ही में गुजर रहे हैं । कुछ पुण्य का उदय पाया कुछ साधन शक्तियाँ विशेष पायी तो उनका प्रयोग अपने विषयसाधन कषाय पूर्ति में कर रहे हैं । आचार्य संतों को इन संसारी जीवों की इस व्यर्थ की मूढ़ता पर खेद होता है । ये बेचारे संसारी प्राणी तो दुःखी होकर भी अपनी मूढ़ता नहीं मानते हैं तो फिर वे अपनी मूढ़ता पर खेद ही क्या करें? अज्ञानियों की गलती पर, उनकी मूढ़ता पर कोई ज्ञानी ही खेद कर सकते हैं, अज्ञानीजन अपनी मूढ़ता पर खेद भी कैसे करें ? 18. ज्ञानमात्र अन्तस्तत्व के उपयोग के लिये दृढ़ता का संकल्पन—इतना भी होश नहीं है । अपने को ज्ञानमात्र अनुभव में लाय । बार-बार ऐसी प्रतीति बनायें । मैं ज्ञान हूँ, ज्ञान के सिवाय अन्य कुछ नहीं हूँ । मेरी सत्ता ज्ञानमात्र है । ज्ञान के अतिरिक्त मेरा कुछ तत्त्व नहीं है । ऐसे ज्ञानमात्र निज अन्तस्तत्त्व की भावना बनायें तो ज्ञान की अनुभूति होती हें । ज्ञान की अनुभूति होने का ही नाम स्वानुभूति है । हम बात पर क्यों नहीं दृढ़ होते? जब जगत में आत्मसुख के लिए अनेक विडम्बनायें रच डाली, अनेक परिश्रम कर डाले, बचपन के श्रम और प्रकार के, जवानी के श्रम और प्रकार के, धन सम्पदा जोड़कर रख जाने में बहुत-बहुत प्रयत्न कर डाले, विकल्प कर डाले, अपने आपको थका डाला । जहाँ लाखों नहीं करोड़ों नहीं अनगिनते उपाय कर डाले आत्म सुख के लिए, तब एक उपाय दृढ़तापूर्वक यह कर लेना कि पर का कोई लगाव नहीं और खुद ही में मैं अपने स्वभावरूप हूँ इस प्रकार की प्रतीति कर लेने में क्यों बाधा आ रही? कुछ समय को अपने आत्मा की बात रुचती है और थोड़ा ही समय गुजरने के बाद फिर संसारी मूढ़ों जैसी कल्पनायें बनने लगती हैं । यह कुछ शुभ लक्षण नहीं है । बहुत से जीव तो इस समयसार की, बात, ज्ञायकस्वरूप की बात जानते नहीं, बोल भी क्या सके । जिनकी आवाज अक्षररूप भी नहीं ऐसे पशुपक्षी पंचेन्द्रिय जीव है वे करेंगे क्या? मनुष्य भी अनेकों बिरलों को छोड़कर सोर ही समझिये कि विषयभोगों के, इन्द्रिय तृप्ति के इन बाह्य सुखों की आलोचना में दृष्टि में इनकी उपलब्धि में सारे मन वचन काय का प्रयत्न कर डालते हैं । सब कुछ कर डाला, अब तो एक ही बातपर अपनी कमर कस ले कि मुझे तो अपने में विराजमान समयसार के दर्शन करना है । हम अपने आपको ज्ञानमात्र ही अनुभव करते जाय तो हम सत्य के आग्रह से अवश्य ही उस शुद्ध परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होगी । 19. सामान्य अर्थात् व्यापक आत्मतत्त्व:—समयसार का अर्थ बताया जा चुका है । जो सब द्रव्यों में सारभूत आत्मद्रव्य में अनादि से अनंत तक रहता है वह चित्स्वभाव समयसार है । आज तक जितने भी महान् पुरुष तीर्थकर, चक्रवर्ती, आदि हुये हैं । उन्होंने भी उसी का ध्यान करके परमपद शिव को पाया । समयसार के रचयिता श्री कुंदकुंददेव ने और उसके टीका कार श्री अमृतचन्द जी सूरि महाराज ने समयसार को नमस्कार किया है । समयसार में आत्मा को ही नमस्कार किया है । श्री पूज्यवर टीकाकार ने आत्मख्याति के अंत में भी एक श्लोक लिखा है मुक्तामुक्तैकरूपो यः कर्मभि: संविकादिना । अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्ति नमाम्यहम् । वह आत्मा जो अविनश्वर ज्ञानमूर्ति, परमात्मा ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों से, रागादिक भाव कर्मों से और शरीररूप नो कर्मों से मुक्त हैं सामान्यस्वरूप उस आत्मा को नमस्कार किया है । आत्मत्त्व की अनुमापकता शुद्धपर्यायी श्री सिद्ध महाराज में है । तीन प्रकार के कर्मों को नष्ट कर देने के कारण वे मुक्तरूप हैं, अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंत सुखादि गुणों से युक्त होने के करण जो अमुक्त रूप हैं, ज्ञान ही जिसकी मूर्ति है, आत्मा भी समस्त परद्रव्य मुक्त है और निज अभिन्न गुणों से अमुक्त है ऐसी उस अविनश्वर आत्मा को नमस्कार है । पर्यायशुद्ध आत्मा के प्राय: सभी विशेषण दर्शनज्ञान-सामान्यात्मक आत्मा के लागू हो जाते हैं । मीमांसक परमात्मा को कर्मरहित नहीं मानते इसलिये उनके अभिप्राय का शुद्ध करने के लिये कर्ममुक्त विशेषण दिया है । नैयायिक व वैशेषिक मुक्त जीव में ज्ञानादि विशेष गुणो का भी अभाव मानते हैं । इसलिये तथ्य के निर्णय के लिये ज्ञानादिक से अमुक्त यह पद दिया है । कोई-कोई मतावलम्बी मुक्ति से फिर आना मानते हैं इसलिये अक्षय विशेषण दिया है । सांख्य परमात्मा को ज्ञानरहित मानता है इसलिये ज्ञान-मूर्ति शब्द दिया है । आत्मा में एक चेतना नाम का गुण है जिस गुण की ज्ञान व दर्शन ये दो पर्यायें होती हैं, और इस चेतनागुण अथवा इसकी ज्ञान-दर्शन पर्यायों की अपेक्षा से ही आत्माचेतन कहलाता है । इस चेतन गुण के अतिरिक्त आत्मा में और भी अनन्तगुण पाये जाते हैं जो पुद्गल आदि द्रव्यों में भी कह सकते हैं । आत्मा नित्य परिणमनशील पदार्थ है और उसमें अनंतगुण हैं किन्तु ज्ञानगुण को छोड़ अन्य हमारे अनुभव में नहीं आता है । उसी ज्ञान के द्वारा हम निज और पर की आत्मा का बोध कर पाते हैं । अत: ज्ञान को भी आत्मा कहा है ज्ञान से आत्मा अमुक्त है और परद्रव्यों से आत्मा अनादि से ही मुक्त है । यह आत्मा राग द्वेषादि कारणों से कर्म का बंध करके पराधीन व दु:खी अपने आप होता है और ज्ञान-ध्यान तपादि करके बंध अवस्था को नष्ट करके मुक्ति को प्राप्त कर स्वाधीन हो जाता है । किसी भी पदार्थ की प्राप्ति प्रयत्न करने पर होती है इच्छा मात्र से नहीं होती । यहाँ तक कि मोक्ष की इच्छा भी बिना प्रयत्न के सफल नहीं होती हैं । मोक्ष की इच्छा करने से मोक्ष नहीं मिलता किन्तु मोक्ष प्राप्ति में उतना विघ्न पैदा हो गया जितनी इच्छा की । निश्चयत: स्वरूपानुरूपवृत्ति से स्वरूपोपलब्धि है । इसलिए इच्छा को छोड़कर ज्ञानानुभूति के प्रयत्न में लगना चाहिये यही श्रेयस्कर मार्ग है । इसी से कल्याण होगा । 20. श्रुतभक्ति व देवभक्ति का विधान:—जैन परम्परा का यह नियम है कि शास्त्र के पहिले मंगलाचरण किया जाता है प्रारम्भ में जो स्तवन किया है । यह श्रुतभक्ति है इस श्रुत भक्ति में श्रुत अंग प्रकीर्णक व अंग बाह्यरूप समस्त शास्त्र की भक्ति की गई है । भक्ति के बाद अंचलिका पढ़ी जाती है । तदनंतर 9 बार णमोकारमंत्र पढ़ते हुये कायोत्सर्ग किया जाता है इस कायोत्सर्ग को वक्ता और श्रोता दोनों करते हैं इसके पश्चात् अन्य कोई वार्ता नहीं होती । यदि शास्त्र श्रवण के बीच में कोई ऐसा प्रश्न आवे जो वक्ता को अपना प्रकृत विषय बढ़ाने या स्पष्ट करने में भी सहायक हो तो श्रोता वक्ता से प्रश्न करे किन्तु कोई परस्पर बात न करे । भक्ति के अतिरिक्त इस व्यवस्था की भी इस प्रक्रिया से पूर्ति हो जाती है । और दूसरा कारण यह भी है कि हम जो कार्य कर रहे हैं वह निर्विघ्न समाप्त हो इसलिये शास्त्र के शुरू में मंगलाचरण किया जाता है । क्योंकि इससे सावधानी आ जाती है । प्रतिदिन की श्रुतभक्ति के बाद अब यहाँ पर नम: समयसाराय, स्वानुभूत्याचकासते । चित्स्वभावाय, सर्वभावांतरच्छिदे इस श्लोक के द्वारा नमस्कार किया गया है । समयसार का यहाँ अर्थ वह आत्मतत्त्व लिया गया है जो अनादि से अनन्तकाल तक है । यहाँ पर समयसार से अरहन्त, सिद्ध, सर्वज्ञ, वीतराग हितोपदेशी आदि नहीं लेने हैं किन्तु उस आत्मा से संबन्ध है जो सहजदर्शन, सहजज्ञान, सहजशक्ति, सहजसुख का धारक है और सबसे भिन्न है, मोक्ष का दाता है अरहंत सिद्धों का ध्यान करने से मोक्षप्राप्ति नहीं होती किन्तु मोक्ष-मार्ग की प्रेरणा मिलती है । प्रस्पष्ट निर्मल पर्याय के धारी केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतशक्ति, अनंत-सुख के भोक्ता,अरहन्त, सिद्ध भी निज आत्मप्रभु को ही उपादान करके उत्कृष्ट हुए हैं । उनकी पर्याय सहज है, सो वह पर्याय सहजस्वरूप के अनुरूप प्रकट है, उस परिणाम स्वरूप के ध्यान द्वार से गुजरकर सहज स्वरूप के ध्यान पर आना सुगम है । अत: अर्हद्भक्ति सिद्धभक्ति ज्ञानी पुरुष की प्रवृत्ति है । अरहन्त सिद्ध की आत्मा निर्मल है, तथा वे हमारे उपास्य, आराध्य देव हैं । उनकी आराधना, उपासना हम इसलिये करते हैं कि उनकी वीतराग निष्परिग्रह, शांत मुद्रा को देखकर हमारे अन्दर भी उन सरीखे बनने के भाव जागृत हों । आजकल देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति नित्य मंदिर में जाते हैं भगवान का दर्शन करते हैं, पूजन करते हैं; स्तुतियों तथा अनेक स्तोत्रों का पाठ भी करते हैं शिखरजी, गिरनारजी अनेक सिद्धक्षेत्र की वन्दना भी करते और भी अनेक कार्य करते हैं; किन्तु प्राय: यह ज्ञान नहीं रहता कि यह सब कुछ क्यों किया जाता है और इसकी क्या आवश्यकता है । अधिकांश व्यक्ति यह सारी क्रियायें परम्परागत होने से करते हैं और कुछ व्यक्ति इसलिये करते हैं कि हमें सुख मिले, धन की प्राप्ति हो, सन्तान आदि का सुख मिले । किन्तु ऐसा करना उनका अबोध है । क्योंकि भावशून्य क्रिया से फल की कुछ भी प्राप्ति नहीं होती है । कल्याणमंदिर स्तोत्र में कहा है कि—
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नून न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव दुःखपात्रम्, यस्मात् क्रिया: प्रतिफलंति न भावशून्या: ।।
हे भगवन् ! जन्म जन्मांतरो में मैंने आपका चरित्र सुना है । पूजन किया दर्शन भी किये हैं । यह सब कुछ करते हुये भी मैंने भक्तिपूर्वक आपको नहीं देखा (आपकी आत्मा में आपको धारण नहीं किया) जिसका फल है कि मैं संसार के दु:ख में ही पड़ा हूँ । वह भावपूर्वक भगवान को बिठाना और है क्या? ऐसी भावभीनी भक्ति होना जिसके पश्चात् अद्वैत सनातन, सहज-सिद्ध, निर्विकल्प निज आत्मा का अनुभव न हो जावे । भक्ति की पूर्ति यही होती है दूसरी बात यह है कि हम नित्य प्रति पूजन, स्वाध्याय कर लेकिन जब तक हम अपनी शुद्ध आत्मा के दर्शन नहीं करेंगे तब तक हमें वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । 21. अभिलाषाओं की अनन्तसुख वाधकता हैं:—सुख और दु:ख आत्मा से भिन्न कोई दूसरी चीज नहीं है, जव तक विकल्प हमारे अन्दर से नहीं हटेंगे तब तक सुख नहीं होगा । क्योंकि विकल्पों का नाश होना ही सुख है और विकल्पों का होना ही दुःख है । दु:ख का लक्षण आकुलता और आकुलता का मूल इच्छा है । संसारी जीव के इच्छा अनेक प्रकार की हैं । एक तो विषय ग्रहण की है—अच्छी-अच्छी वस्तुएं देखना, अच्छे-2 गाने सुनना आदि दूसरे कषाय भावों के अनुसार कार्य करने की इच्छा है । कोई कार्य करना चाहता है, कोई सुन्दर वस्तु देखना चाहता है । यहाँ पर कोई कष्ट नहीं है, ऐसा लोग सोचते हैं किन्तु विषयवृत्ति के काम में भी आकुलता है और पहले भी थी, पीछे भी होगी । जब तक वह गाना नहीं सुन लेता तब तक अति व्याकुल रहेगा । इसलिये भैया ! इन इच्छाओं को छोड़कर आत्मा की ओर देखो । ये इच्छाएं कभी भी पूरी नहीं हो सकती हैं, एक के बाद दूसरी उपस्थित हो जाती हैं । और अगर कोई कहे कि मैं इच्छाओं की पूर्ति कर लूंगा तो सभी इच्छायें एक साथ पूरी भी नहीं हो सकती हैं, एक के समाप्त होने पर दूसरी पेंदा हो जावेगी । इस तरह जीव कभी भी निराकुल नहीं रह पाता है, हमारी आपकी बात तो क्या इन इच्छाओं से देवतागण भी दु:खी है । इच्छाएं आकुलता सहित हैं और आकुलता ही दुःख है । छहढाला में कहा है:—
आतम को हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिव मांहि तातें, शिवमग लाग्यो चहिये ।
आकुलता के बिना ही सुख है और वह आकुलता मोक्ष में नहीं है इसलिये मोक्ष के मार्ग में लगना चाहिये । मोक्ष के इच्छुक व्यक्तियों को वही ध्यान करना चाहिये जिसके द्वारा यह चंचल मन स्थिर होकर परमात्मतत्त्व के विशेष स्वरूप में लीन हो जावे । जब तक हमें अपने आपकी परमविशुद्ध आत्मा का ज्ञान नहीं होगा तब तक हम सुख और दुःख के चक्कर से नहीं बच सकते । पर्याय व भेदों को गौण करके चित्सामान्य की मुख्यता से विश्राम लो, सर्वविशुद्ध तत्त्व का परिचय हो लेगा । 22. अन्तस्तत्त्व की शरण्यता:—हमारे अन्दर ही अनंत सुख विद्यमान है किन्तु हम सुख की खोज में उसी तरह भटक रहै हैं जैसे हिरन अपनी नाभि में ही कस्तूरी रखे हुये हैं किन्तु फिर भी खुशबू के लिये यत्र तत्र भटकता फिरता है । इस लिये हमें चाहिये कि अपनी परमविशुद्ध आत्मा का ही ध्यान करें । आत्मा नित्य-परिणमनशील है और उसमें अनंत गुण हैं जिनमें ज्ञानगुण ही एक ऐसा पाया जाता है कि जो हमारे अनुभव में आता है और जिसके द्वारा हम अपने भाव को पहिचान सकते हैं, इस कारण ज्ञान को ही आत्मा कह दिया है । यह आत्मा अनादि कर्ममल से मलिन हो रहा है और अपने स्वभाव को भूलकर विभाव परिणमनरूप परिणम रहा है, किन्तु यही कर्म मल को नष्ट करके परमात्मा बन जाता है । आत्मतत्त्व एक ऐसा तत्त्व है जिसको पहिचान करके, जिसका ध्यान करके प्राणी सुखी हो सकता है; किन्तु जब तक यह मिथ्यात्वरूपी अज्ञान रहेगा कि यह मेरा है; स्त्री बेटे, मकान, धन, रुपया, पैसा आदि सब कुछ मेरे हैं तब तक वह जीव आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता । और तो क्या कल्याण की वार्ता भी हृदय में रख नहीं सकता । दुनियां में यथार्थ दृष्टि से देखो तो यह जितने भी पदार्थ हैं धन, दौलत आदि कुछ भी तुम्हारे नही; व्यर्थ ही तुम इनके पुजारी बने हो । प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी का पुजारी होता देखा गया है । जिसके मन में जो वस्तु प्रिय है वह उसी का पुजारी है । किसी को अपने लड़के प्रिय हैं तो यह लड़कों का पुजारी कहावेगा, कोई धन का कोई रूप का आराधक है तो वह उसका पुजारी होगा आदि । कहने का मतलब कि प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी का पुजारी है अवश्य । भैया जरा सोचो तो कि तुम्हारे लिये व परिवार को कितने आटे की आवश्यकता है तुम्हारा खर्चा दो रुपया दिन होगा न; और आय इससे भी कई गुणी है, तो फिर इससे अधिक उपार्जन की लालसा क्यों? इसीलिये न; कि मेरे पुत्र हैं, स्त्री है, मेरी प्रतिष्ठा है आदि । सो इन सबसे मेरी अधिक श्रेष्ठता जाहिर हो । यही होगा या और कुछ हो तो आप जानें । वास्तव में यह कोई भी तुम्हारे नहीं हैं । यह शरीर जो तुम्हें दीख रहा है वह भी तुम्हारा नहीं है । तुम्हारा तो सिर्फ आत्मा है जो कि ज्ञानमय और शुद्ध चेतनस्वरूप है । वही निज का सृष्टिकर्त्ता है, वही परमात्मा है, वही अपना निज का प्रभु है यह जीव कितना नादान बन रहा है कि अपने प्रभु को अपने में छिपाये रखे है और प्रभु की खोज में यत्र तत्र भटक रही है । कसी है यह मूर्खता पानी में रहते हुये भी मगर प्यासा रहे तो यह उसकी मूर्खता नहीं तो फिर क्या है? इसलिये अपने अन्दर के देखो और प्रसन्न करो तथा जन्म मरण के दु:खों से छुटकारा प्राप्त करो। 23. आत्मतत्त्व का अभिरूपण—समयसार चैतन्यस्वरूप । वह है केवल स्वानुभूति से प्रकाशमान, जैसा है वैसा ही कहने में नहीं आ पाती, अतएव अवक्तव्य है । उसके सम्बंध में कुछ बात बोलकर भी हम वचनों द्वारा उसे स्पष्ट नहीं जान सकते हैं । अतएव अव्यक्तव्य है अत: केवल अनुभव से ही प्रकाशमान है । जब हम बाहर में भी किसी पदार्थ के सही स्वरूप को जानने चले, बताने चले तो हम शब्दों द्वारा प्ररूपण नहीं कर सकते । कोई मिश्री की स्वाद का ही प्रतिपादन करने लगे तो सही प्रतिपादन नहीं कर सकता । अर्थात् मिश्री चखकर जो अनुभव किया जाता है, मिश्री का स्वाद समझा जाता है वह वचनों द्वारा नहीं कहा जा सकता है । तो ऐसे ही यह समयसार वचनों द्वारा अव्यक्तव्य है ‘केवल एक स्वानुभव के द्वारा ही प्रकाशमान है’ स्व की वहाँ कैसी अनुभूति होती है । स्व जैसा है सहज वैसा ही उपयोग बने उससे स्वानुभव प्रगट होता है वह स्व कैसा है उसके लिए द्रव्यक्षेत्र, काल, भाव इन चार स्वरूपों में बताया जाता है यह समयसार, यह आत्मतत्त्व द्रव्यत: कैसा है अर्थात् जिस द्रव्य में यह बसता है समयसार वह द्रव्य किस रूप का है ऐसा बताने का नाम है स्वद्रव्य से अस्तित्व समझना कि गुण पर्यायों का पिण्डरूप यह आत्मतत्त्व है । वह आत्मतत्त्व कहां रहता है । आधार की बात जाने बिना किसी भी वस्तु के तत्त्व का स्पष्टीकरण नहीं बनता है वह आत्मतत्त्व कहां विराजमान है, आत्मप्रदेशों में, अपने आपके क्षेत्रों में, अर्थात् जितने स्वरूप को लिए हुए यह आत्मा व्यापक है उतने स्वरूप में यह अपना सारतत्त्व अभिन्न रूप से रख रहा है । सर्व प्रदेश इसके चैतन्यस्वरूप हैं । वस्तुत: प्रदेश कुछ अलग चीज नहीं है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये कुछ अलग चीज नहीं एक इस ज्ञान मात्र आत्म तत्त्व को समझने के लिए ये चार प्रकार किये जाते हैं आत्मा अपने द्रव्य से सत्ता वान है और अपने क्षेत्र से सत्तावान है । मैं अनन्त गुण पर्यायों का पिण्ड हूँ और अपने ही प्रदेशों में निरन्तर रहा करता हूँ । यह द्रव्य रूप है अतएव परिणमन बिना रह नहीं सकता जो भी पदार्थ सत्रूप है वह परिणमन करता ही है । तो मुझ आत्मतत्त्व के जो भी परिणमन होते हैं उन सब परिणमनों में हम यह विभाग कर सकते हैं कि यह परिणमन तो निरुपाधि है और यह परिणमन सोपाधि है यह स्वभाव के अनुरूप है और यह स्वभाव के विरूद्ध है वे सब परिणतियां कहीं बाहर नहीं हैं, खुद के स्वरूप में प्रकट हुई हैं । 24. स्व को अभेदभाव में लेने का लक्ष्य—हम अपने आत्मा के भावों को समझे । भावों की दृष्टि दो प्रकार की जाती है एक भेदभाव से दूसरा अभेदभाव से । जब अभेद भाव से, उस वस्तु के सहजभाव से वस्तु को जानने चलते हैं तो वहाँ ऐसे निज स्व की अनुभूति होती है जिसमें ज्ञान का अनुभवन चलता है । यह पुरुषार्थ जिन्होंने किया है वे संसार से तिर गये और जो नहीं कर सके वे संसार में रुलते हैं । भला मेरा शरण जब मुझमें ही मौजूद है, जिससे उत्तम अन्य कुछ नहीं है वह मुझमें मौजूद है । जिसमें विकल्प तरंग नहीं हुआ हैं वह स्वरूप मुझमें ही मौजूद है और फिर अपने आपमें खुद का हम यत्न न करे तो इस अज्ञानता का इतना बड़ा दोष है कि जिसकी पूर्ति हम अन्य किसी उपाय से नहीं कर सकते । सांसारिक कार्यों मैं ऐसे भी कार्य हैं कि यह नहीं तो यह हैं । जैसे कोई वैद्य औषधि में शहद बताता है और रोगी कहे कि शहद का तो हमारे त्याग है तो वह वैद्य उसकी बदल बता देता है कि मिश्री की चासनी में खाओ । यों ही जो अज्ञानता बसा रखी है उसके कारण जो भव भ्रमण चल रहा है उसकी बदल क्या हो सकती है । उसकी पूर्ति नहीं हो सकती है । अज्ञानता है तो संसार में भ्रमण चलेगा अज्ञानता नष्ट कर दे और ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में ले तो हमारा मार्ग स्पष्ट प्रशस्त हो जायगा । हम उस समयसार के लिए ही नमस्कार कर रहे हैं, जो ज्ञानानुभव से प्रकाशमान है, चैतन्यस्वभावरूप है उत्पादव्यय ध्रौव्यमय है, समस्त पर भावों से निराला है उस समयसार को हमारा नमस्कार है । 25. दुर्लभ नरजन्म में अनुपम लाभ का अवसर—भैया ! यह मनुष्य गति सबसे श्रेष्ठ गति है । जिस तरह चिन्तामणि रत्न का मिलना मुश्किल है, दुर्लभ है, उसी प्रकार यह मनुष्यभव मिलना भी कठिन है फिर मनुष्यभव, जैनकुल, उत्कृष्ट मन इन सबके रहते हुये भी यदि अपना कल्याण नहीं किया तो समझो कि चिन्तामणि रत्न को पाकर के बिना समझे, (नहीं पहिचानी है कीमत जिसने) उसे फेंक दिया है । सबसे उत्कृष्ट मन मनुष्य का ही मिला है, क्योंकि मनुष्यों में ही श्रुतकेवली होने की शक्ति है । यह सभी बात बड़े पुण्य के उदय से मिलती हैं, फिर भी आत्मा का कल्याण नहीं किया तो इससे दु:ख की बात और क्या हो सकती है? कीड़े मकोड़ों का भव अनेक बार धारण किया । यदि इस भव में भी सुधार नहीं किया तो आगे भी इन्हीं भवों को धारण करना पड़ेगा, फिर क्या इन भवों से आप अपना कल्याण कर सकेंगे? इसलिये भैया, इस नर तन को पा करके व्यर्थ में मत खोओ । अपनी आत्मा को पहिचानों । आत्मा का स्वरूप ज्ञान और दर्शन हैं, इसी (स्वरूप) से आत्मा बड़ा है, धन वैभव से आत्मा बड़ा नहीं होता है । जीव, प्राणी वही श्रेष्ठ है जिसने अपने ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा को पहिचाना है । आत्मा का स्वरूप आंख से नहीं दिखता, कान से सुनाई नहीं पड़ता, किन्तु वह स्वानुभव से, आत्मज्ञान से ही देखा जा सकता है । जब आत्म स्वरूप का बोध हो जायगा तो सभी विकल्प हट जायेंगे, तभी सुख भी स्वत: आ जावेगा । जब यह स्वानुभव हो जायगा कि यह आत्मा ही मेरा है, इससे भिन्न मेरा कुछ भी नहीं है । मेरी वस्तु तो मेरे पास है, वह तीन काल में भी मुझ से छीनी नहीं जा सकती, वह मुझसे अलग नहीं जा सकती और जो वस्तु मेरी नहीं है वह त्रिकाल में भी मेरी नहीं हो सकती है । इसलिये विवेक-पूर्वक उस आत्मतत्त्व का ध्यान करो जो हमारी निज की वस्तु है । बिना आत्मा के पहिचाने सुख नहीं मिल सकता । इसलिये सुख के इच्छुकों उस एक अनादि निर्विकल्प ज्ञानमय आत्मा का ध्यान करना चाहिये, तभी कल्याण होगा । 26. मोह में न माया मिलती न राम—राम के मायने आत्मा । मोह करने से न तो आत्म दृष्टि होती और न ऐसी भी बात बनती कि हमने कुछ जोड़ लिया या आराम का कोई साधन बना लिया, क्योंकि मोह एक अज्ञान परिणाम का नाम है । जो बात जैसी है वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा न मानकर उल्टा मानने का भाव बनाना । उस भाव में बाहरी बात क्या आयेगी? उस बाहरी भाव मोह परिणति है । सोनाचाँदी कहाँ रखें हैं । कितना भी मोह किया जाय, कदाचित धन सम्पदा मिल जाय तो मोह करने से मिला है यह बात नहीं है । वहतो प्राप्ति हुई है किसी भी प्रकार हुई । मोह भाव करके वृद्धि नहीं हुई । यों समझिये—जैसे अपने जीवन में मोह करते-करते अनेक जीवन गुजारे पर उनमें प्राप्त क्या किया? कोई अधिक से अधिक यह कह उठेगा कि हमने इज्जत पायी, कुछ धनिक कहलाये, एक तो लाभ यह हुआ, और दूसरा लाभ यह है कि हम अपने लड़कों को यह धन सम्पदा देकर जायेंगे । तो इन दोनों बातों पर कुछ विचार कर लीजिये । किसका नाम है इज्जत? इन मायामय दृश्यमान् जीवों की इज्जत प्राप्त करने का संकल्प करके नफा क्या पाया? रुलना ही बना रहा । ये जीव भी खुद कर्मों के परे है, मलिन हैं, दुःखी हैं, जन्म मरण करते फिर रहे हैं । इन्होंने अगर कषायवश कुछ कह दिया तो उतनी सी बात के कह देने से तुम्हें मिल क्या गया? अब दूसरी बात पर विचार करो । धन सम्पदा जोड़कर अगर पुत्रों को दे गये तो वे पुत्र भी तो आपके नहीं हैं । मरने के बाद तो वे पुत्र भी क्या? न जाने कहां के कहां गये । अच्छा पिछले भव के पुत्रों की ही बात बतावो । उनसे आज आपको कुछ मिल रहा है क्या? मोह में मिलता कुछ नहीं है । और कदाचित् कुछ इष्ट मिल भी जाये तो यह समझो कि वह मोह करने से नहीं प्राप्त हुआ बल्कि पुण्योदय से प्राप्त हुआ है । मोह करने से लाभ की बात कुछ नहीं पाया उल्टा पाप बंध ही किया । आत्माराम से मिलन की बात तो दूर रही, यों समझिये कि सारा जीवन व्यर्थ गया । न यहाँ के रहे न वहाँ के रहे । 27. अपने शेष जीवन में ज्ञानानुभव धर्म करने का अनुरोध—कुछ भैया अब तो कुछ ऐसा चिन्तन करना चाहिये कि जैसे लोक में अनेक मनुष्य गर्भ में या बचपन में ही मर जाते हैं ऐसे ही हम भी मर गये होते तो आज हमारे लिये यहाँ का कुछ भी क्या था? और अगर अभी तक हम नहीं मरे, अभी भी जीवित है तो ऐसी दृष्टि बनाना चाहिये कि हमें तो अपनी ज्ञान दृष्टि को उज्ज्वल बनाना है । अकेले आपमें ही वश कर कर्म कलंकों को काटकर हमें सदा के लिए शान्त निराकुल रहने व जन्म मरण से छुटकारा प्राप्त करने का प्रोग्राम रचना है । अपनी आत्म साधना से, अपने तपश्चरण से, संयम दृष्टि से लौकान्तिक देव बनकर क्या हम आजकल भी मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे? आज भी हम इन्द्रादिक पद प्राप्त कर क्या मोक्ष न जा सकेंगे? जब ऐसा अवसर मिला है तब फिर क्षमाभाव बढ़ा कर, उदारता की दृष्टि करके, ब्रह्मचर्य की परम साधना करके हमें अपना जीवन सफल बनाने का प्रोग्राम बनाना चाहिये । यहाँ सब कुछ स्वप्नवत असार है कुछ भी तत्त्व की बात नहीं है । किसी भी बाह्य दृष्टि में रमना यह ठीक बात नहीं है । रमना है अपने आत्माराम में, अपने को ज्ञान मात्र आनन्दमय जानकर अपने आप में रमें । यह मैं ज्ञानानन्दमात्र हूँ ऐसा अनुभव बनाकर एक ऐसी धारा से चलकर उसमें हम उपयुक्त हो जायें तो हम वह प्रकाश पायेंगे, वह आनन्द पायेंगे कि जिसकी बराबरी करने वाला दुनिया में कोई भी पदार्थ नहीं है । यहाँ के किन्हीं भी बाह्य पदार्थों में वह आनन्द नहीं बसा है । जिनका जीवन संसार, शरीर, भोग से विरक्त होकर एक अन्त: साधना में व्यतीत होता है वे पुरुष चाहे व्रती हों अथवा अव्रती हो, पर धन्य हैं । प्रत्येक विवेकी पुरुषों का यह कर्तव्य होना चाहिये कि कम से कम अपने जीवन के अन्तिम क्षण तो आत्म साधना में व्यतीत कर आत्म साधना की दृष्टि जगे, स्वाध्याय करे, तत्त्वचिन्तन करे, मोह न बढ़ने पाये ऐसे उपाय बनाये, और, जिनकी बुद्धि छोटी अवस्था में ही शुद्ध बन गयी है वे छोटी अवस्था से ही आत्म कल्याण करते हैं, उनका जीवन तो और विशेष धन्य है । अपने को एक धर्म की धारा में लगाना चाहिये, यही अपना एक प्रोग्राम हो, और बाकी तो सारी जिन्दगी भी अगर मोह-मोह में ही रहकर व्यतीत कर लिया तो उससे लाभ क्या पाया ? मोह न माया मिलती न राम । 28. आत्मदृष्टि का अधिकारित्व—आत्मदृष्टि तो निर्मोह पुरुषों को प्राप्त होती है । जिन्होंने सर्व पर से वैराग्य करके अपने आप में परम विश्राम प्राप्त किया है वे आत्मसाधन के प्रताप से ऐसे, अद्भुत आनन्द की प्राप्ति करते हैं कि फिर जिसे कभी भी छोड़ने को जी नहीं चाहता और उसी के प्रसाद से उनके समस्त कर्म क्लेश भी कट जाते हैं । तो अपने रहे सहे जीवन में भी आत्म साधना का अपना सही प्रोग्राम बना लेना चाहिये । प्रथम तो इस जीवन का कुछ भरोसा ही नहीं है कि कब गुजर जाय । रोज-रोज सुनने में आता ही है कोई जवान गुजर गया, कोई बच्चा अथवा कोई गर्भ में ही । जिन्दा रहने वाले कुटुम्बीजन ऐसा अनुभव करने लगते हैं कि लो इसके मर जाने से अब से हमारा जीवन बेकार हो गया । उन्हें कितना ही समझाया जाय कि अरे उसके पीछे दुःखी न हो वैसे या लाभ निज आत्म तत्त्व की दृष्टि करो, पर उनकी समझ में कुछ नहीं आता । इतना प्रबल मोह कर लेते हैं कि मरे हुए व्यक्ति के प्रति वे बड़े दुःखी होते हैं । अरे तुम तो एक स्वतंत्र आत्मा हो । किसी के मर जाने से तुम्हारा बिगड़ क्या गया? तुम तो आकाश की तरह अमूर्त एक ज्ञान मात्र आत्मा हो । तुम्हारा तो यहाँ अन्य कुछ भी नहीं है । तुम क्यों किसी पर पदार्थ के प्रति मोह करके दुःखी हो रहे हो ? इस मोह को, इस अज्ञान को तो भगाना चाहिये । इस मोह दृष्टि को मिटाये बिना कोई चैन नहीं पा सकता । अगर यह मोह भाव कोई अभी मिटा ले तो अभी शान्त हो जाय अगले भवों में मिटायेगा तो अगले भवों में शान्त होगा । इस मोहभाव के मिटाये बिना शान्ति न प्राप्त होगी । अगर इस पाये हुए दुर्लभ मानव जीवन को यों ही फाल्तू विकल्पों में, मोह राग द्वेष में व्यतीत कर दिया तो फिर हम सुधरेंगे कब? अगर यहाँ अपना सुधार न किया तो यह तो उस ही कहावत की तरह है कि जैसे आगे की तो छोड़ दिया और भविष्य की आशा कर रहे हैं । 29. स्वानुभूति के अर्थ ज्ञान ध्यान तपश्चचरण का यत्न—हमें अपने सुधार के लिए अभी से बड़ा प्रयत्न करना चाहिये । एक तो स्वाध्याय करके ज्ञानवृद्धि करें । दूसरा उपाय है ध्यान । तीनों समय जो सामायिक करते हैं तो उस सामायिक करते समय कुछ ऐसा ढीला ढाला भाव न रखना चाहिये कि हम तो केवल समय गुजार रहे हैं । अरे सामायिक करते समय ऐसा संकल्प कर कि मेरा यह जीवन तो मात्र ज्ञानानुभव के लिए है, मुझे अकेले बैठकर ध्यान करने का अवसर मिला है । अब इस सामायिक में मैं जानूंगा कि मैं कैसा ज्ञान मात्र हूँ । ज्ञान को लेकर निर्विकल्प रहने का मैं यत्न करूंगा इसी के लिए यह सामायिक है । अपना लक्ष्य सही होना चाहिये । उसमें हम कितनी सफलता पाते हैं यह बात अलग है पर लक्ष्य जो किया गया है उसका फल व्यर्थ न जायगा । इस लक्ष्य के करने मात्र से भी यथायोग्य सम्वर निर्जरा चलती है सम्यक्त्व में और है क्या? उसका लक्ष्य विशुद्ध बना है, वह चल नहीं पा रहा है उस लक्ष्य के अनुसार पर उसका आन्तरिक आशय तो देखिये । उसके चरित्र का संचरण नहीं हो रहा है लेकिन लक्ष्य मात्र भी हो जाने से उसको कुछ अलौकिक सिद्धि हो रही है, व्यर्थ नहीं जा रहा है पुरुषार्थ तो हम आप लोगों का यह लक्ष्य होना चाहिये कि मैं सामायिक में बैठा हूँ तो ज्ञानानुभूति के लिए बैठा हूँ । हमें ज्ञान में अपने आत्मस्वरूप को देख लेना है । केई भी व्यर्थ की कल्पनायें न उठाकर केवल मुझे ज्ञान मात्र अपने को अनुभव करना है । इसके लिये मैं इस सामायिक के रूप में बैठा हूँ । ध्यान साधना केवल सामायिक में ही हो सो बात नहीं, न जाने कब यह साधना की विद्युत चमक जाय कि आत्मसाधना करले । तो ध्यान साधना से हमें अपना आत्मलाभ करना चाहिये । जब उस ज्ञानानुभव में न रह पाये, उस ध्यान साधना में न रह पाय तो हम योग्य प्रवृति से न हट यथा शक्ति संयम तपश्चरण की साधना करें । तो तपश्चरण भी एक उपाय है । हम हर सम्भव उपायों से अपने आत्मतत्त्व को ज्ञान दृष्टि से सींचते रहें । 30. ज्ञानोपासना से ही नरजन्म की सफलता—जितना जितना हम अपने ज्ञानस्वरूप के निकट रहने का अभ्यास बना लें, ज्ञानानुभूति के अपने प्रसंग बना लें उतना-उतना तो समझिये कि हम कुछ पुरुषार्थ कर रहे हैं और इस अपने को न सम्हाल सके, विकल्प जालों में ही फंस कर सारा समय बिता दिया, धनार्जन करने, लड़ाई झगड़ा, मोह ममता चुगली आदि करने अथवा देह को ही आत्मा जानकर उसके पालन पोषण का उद्यमी बना रहना आदि समस्त बातों में ही यदि सारा समय गंवा दिया तो समझिये कि हमने अपना दुर्लभ मानव जीवन व्यर्थ ही खोया । तो ऐसा समझकर कि मानो हम इस जीवन में पहिले थे ही नहीं, और यदि हम आज जीवित हैं तो गुप्त रहकर अपने में अपने को रमाकर मैं अपने को उज्ज्वल बनाता जाऊं, ज्ञानानुभव से अपने आपको संकटों से बचाने का उपाय बनावें यह बात चित्त में आना चाहिये जुलाहा भी तो कपड़ा बुनता है तो वह भी अन्त में दो चार अंगुल छोड़ ही देता है । हमें भी अपने जीवन के शेष बचे समय में भी अपने को सावधान बना लेना चाहिये । हम यदि इस जीवन में चार माह, चार दिन, चार मिनट अथवा चार आवली ही सही यदि निर्विकल्प दशा में न रख सके तो फिर यह दुर्लभ मानव जीवन पाने से लाभ क्या पाया? इस मनुष्य भव में आज जो कुछ भी धन वैभव पाया है इससे भो अधिक राजा महाराजा होने तक के अनेक भव प्राप्त कर लिये होंगे, पर उन भवों का अब रहा कुछ नहीं । 31. आत्मसाधना का पावन कर्तव्य—सबसे बड़ा भारी तपश्चरण तो यह ह कि जो अपनी ऐसी तैयारी बना ले कि मेरा कोई यश गाये तो उससे मेरे कुछ भी नहीं मिलता है मैं तो एक ज्ञानमात्र आत्मा हूँ जिसमें किसी भी पर पदार्थ का प्रवेश नहीं है हां विषय कषायों में, अन्य फिजूल की बातों में उपयोग न किया जाय, इसके लिए कुछ सेवा परोपकार भी किये जा रहे हैं तो एक हमने अपना इलाज समझा है, इस स्थिति में कि यों ही जगह उपयोग में न लगे, पर इनसे भी मेरा हित नहीं है, मेरा हित तो ज्ञानानुभव में है, यह बात हो और अन्य कुछ भी न हो तो उसका लाभ ही लाभ है, यदि उस ज्ञानानुभव की पकड़ हो जाती है और ज्ञानानुभव बनता है तो समझिये कि मैं कृतार्थ ही होने वाला हूँ । यदि हमें ऐसी धारा प्राप्त होती है, हम अपनी ऐसी तैयारी कर लेते हैं तब हम आत्मसाधना के पात्र कहलाते हैं । तो मूल बात यह चल रही है कि मोह में लाभ कुछ नहीं है, व्यर्थ में जीवन ही बरबाद किया जा रहा है । मोह में सार की बात कुछ नहीं है यह एक आश्चर्य की बात है कि जो सारभूत बात है उसमें किसी का मन नहीं लगता और जो बिल्कुल असार बातें हैं उनमें सबका बड़ा मन लगता है ।उनमें तो सभी लोग एक चित्त होकर एक तान होकर लग रहे हैं । आत्मसाधना का कार्य है । पूर्ण सारभूत, उसमें तो किसी के चित्त में उत्साह नहीं जगता, और जो आत्मसाधना के अतिरिक्त व्यर्थ के कार्य हैं उन्हें बड़े उत्साह से करते हैं पर जो आत्मसाधना के उद्यमी लोग हैं वही हैं सम्यग्दृष्टिजन । अज्ञानता नष्ट कर दें और ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में लें तो हमारा मार्ग स्पष्ट प्रशस्त हो जायेगा । हम उस समयसार को लिए ही नमस्कार कर रहे हैं जो ज्ञानानुभव से प्रकाशमान है, चैतन्यस्वभावरूप है, उत्पादव्यय धौव्यमय है, समस्त परभावों से निराला है उस समयसार को हमारा नमस्कार है । 32. अखण्ड आत्मस्वभाव है—समयसार को नमस्कार हो । किन्तु यहाँ समयसार से अरहंत सिद्धों का नमस्कार नहीं है किन्तु जो आत्मा का स्वरूप अरहंत सिद्ध अवस्था में है वैसा ही स्वरूप अन्य सब अवस्थाओं में है जो सहज स्वभाव है, अनादि से अनन्त काल तक एकरूप है, उस सहजस्वरूप अथवा उस सहज स्वभाव दृष्टि से प्रतिभात आत्मा को नमस्कार है । अरहंत और सिद्ध पर्याय में शुद्ध हैं, हम पर्याय से अशुद्ध हैं, किन्तु द्रव्य के स्वभाव से हम तथा सिद्ध भगवान दोनों ही शुद्ध है । यहाँ अरहंत और सिद्धों को छोड़कर उस चेतन निर्विकल्प परम शुद्ध आत्मा को नमस्कार किया है जिस स्वभाव के अवलम्बन से अरहंत सिद्ध पर्याय होती है, जो शाश्वत रहता है, ध्रुव है । किसी भी पदार्थ को अथवा वस्तु को भली भांति जानने के लिये चार बातों का सहारा लेना पड़ता है, बिना इनके जाने यथार्थ वस्तुस्थिति का परिचय होना कठिन हो जाता है । वे चार ये हैं —द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । द्रव्य किसे कहते है—वस्तुस्वरूप, सत्तारूप जो वस्तु है वह द्रव्य है याने द्रव्य पिण्डरूप है । क्षेत्र वस्तु के क्षेत्र कहते हैं । जितने विस्तार में वह रहे उतना उसका क्षेत्र है । वस्तु के परिवर्तन को काल कहते हैं; नया, पुराना आदि परिणमन । ज्ञान, दर्शन चेतना आदिक जितने भी गुण हैं वे भाव कहलाते हैं । दृष्टांत के लिये जैसे यह पुस्तक लो और इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव घटाओ । देखो भैया? यह द्रव्य नही; वस्तु नहीं किन्तु वस्तुओं का स्कंधरूप पर्याय है, फिर भी कुछ समय के लिये इसे द्रव्य स्थानीय समझकर उक्त चतुष्टय घटाओ । यह जो पुस्तक है जैसे कि हाथ पर रखे है पिण्डरूप, यह द्रव्य है । इसका जो विस्तार है, लम्बा चौड़ा आकार है यह क्षेत्र है । इसकी जो वर्तमान परिणति है नई अथवा पुरानी आदि यह सब काल है और भावरूप रस, गंध, स्पर्शादि हैं । अब अपनी आत्मा को ही इन चार बातों से देखो । आत्मा जैसा कि ज्ञान करने पर मालूम हुआ कि यह पिण्डरूप है वह द्रव्य है । और जितने निज के स्थान में आत्मा रहता है वह है उसका क्षेत्र । आत्मा अपने ही में रहता है, इसका विस्तार अभी इस पूरे शरीर में है । आत्मा का निवास प्रदेश विस्तार जितना है उतना उसका क्षेत्र है । काल से आत्मा को देखिये । काल का ही परिचय तो प्राय: दुनिया भर को है, इसी कारण मिथ्यात्व-पालन हुआ है । मिथ्या दर्शनादिक से जीव के स्वपर विवेक नहीं रहता है । स्वयं आत्मा और अनंत पुद्गल परमाणुमय शरीर के संयोगरूप जो मनुष्यादि पर्याय उत्पन्न होती है उसी को यह अपना रूप मानता है । श्रद्धा की मिथ्यात्वरूप पर्याय, चारित्र की राग-द्वेषरूप पर्याय, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप पर्याय इनमें ही तो यह संसारी आत्मबुद्धि करता आया है । यह सब काल है । इतना ही नहीं किन्तु सभी पर्याय काल कहलाती हैं । अरहंत, सिद्ध पर्याय भी आत्मा का काल है । अब भाव को देखो—इसकी दृष्टि परमोपकारिणी है । भाव शक्ति अथवा गुणों को कहते हैं । क्रोध, मानादि नाना ज्ञानपरिणमन आदि इन सबका आश्रयभूत अथवा यों कहो जिन-2 शक्तियों के परिणमन काल कहलाते हैं, उन शक्तियों को भाव कहते हैं । जैसे आत्मा के भाव सहज-दर्शन, सहज-ज्ञान सहज-सुख व सहज शक्ति आदि है । आत्मा के ज्ञान दर्शनादिक जो स्वभाव है उनको मिथ्यादृष्टि सहज स्वरूप से किंचित जानता, देखता नहीं किन्तु मोहवश इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण करने की इच्छा करता रहता है । उसकी वे इच्छायें कभी भी शांत नहीं हो सकती फिर भी उनमें सुख मानता रहता है । जैसे कुत्ता हड्डी को चबाते समय अपने मुंह से निकलते हुये खून को हड्डी का स्वाद मानता है उसी तरह यह जीव विषयों में परिणमन से फंसा होने के कारण उन्हीं में आनंद मानता है । किन्तु, वे आनंद नहीं वह स्वयं ही इच्छा करता है स्वयं ही आनंद मान लेता है । मिथ्याज्ञान के कारण दु:खों को भी सुख मानता हुआ संसार में भटकता रहता है । ज्ञान दर्शन, सुख, बल, ये जितने भी गुण है वे आत्मा के भाव हैं । यह सुख, दु:ख सुख गुण के परिणमन हैं । इच्छा चारित्र गुण का परिणमन है । जिनके ये परिणमन हैं वे तो भाव हैं । और परिणमन काल हैं । आत्मा में अनंत गुण है वे परस्पर व्यापक है, उनका आश्रय आत्मा है । आत्मा में विभुत्व शक्ति विराजमान है । उस शक्ति का काम क्या है? आत्मा के अन्दर जो विभुत्व गुण है उसके निमित्त से एक गुण सब गुणों में है । अथवा यह कह लो एक गुण विशेष्य बना लो तो सब गुण विशेषण हो जाते हैं । सर्व गुणों के अभेद तत्त्व चित्स्वभाव भाव का अवलम्बन सकल संकटों को दूर कर देता है । 33. आत्मा की सृष्टिकला—उपनिषदों में पूछा गया कि जगत् को सृष्टिकर्ता कौन है? उन्होंने कहा कि जगत् का सृष्टिकर्ता ब्रह्मा है, और वह एक है । फिर पूछा कि वह कौनसा कारण है उपादान अथवा निमित्त? तो उत्तर दिया है कि वह न केवल उपादान कारण है और न केवल निमित्तकारण है किन्तु उपादान निमित्त कारण है । किन्तु अब वस्तु सिद्धान्त से देखिये । सैद्धान्तिक नियमों का कथन है कि यह संसार अनादि से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चला जायेगा । इसका न कोई सृष्टिकर्ता है और न कोई मिटाने वाला ही । ईश्वर याने अरहंत सिद्ध हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ते हैं और न कुछ हमारा सुधार कर सकते हैं । भगवान तो परम ज्योतिस्वरूप चराचर जगत् के साक्षी हैं । हमारा सृष्टिकर्ता स्वयं आत्मा है और वह उपादान कारण है । परन्तु देखो भैया ! इस ही उपादानभूत आत्मा में आपको निमित्तत्व का भी आभास मिल जावेगा । इस आत्मा में इन गुणों का विकास है तो एक के विकास में अन्य गुण निमित्त रूप पड़ जाते । जैसे सुख गुण का परिणमन है उसे ज्ञान द्वारा अनुभव न किया जावे तो हमें आप सुख का स्वरूप बताइये, यदि ज्ञान विकास का निमित्त सुख गुण के विकास को न मिले तब फिर सुख कोई रूप, रस, गन्ध जैसा शायद कुछ होता होगा; क्या कल्पना की जावे? तो सुख विकास का ज्ञानविकास निमित्त है, इसी तरह अन्य में भी लगाना । कहने का प्रयोजन है कि आत्मा की परिणति में आत्मा की परिणति निमित्त भी होती है तब आपकी सृष्टि में आत्मा उपादान निमित्तकारण कहलाया । उक्त अभिप्राय इन नयों से उठा है । मात्र इतना अन्तर रह गया है कि चैतन्यभाव को दृष्टि में एक अनेक की कल्पना नहीं होती; सो उन्होंने अनेक का ही प्रतिबंध करके एक कारण ठहरा दिया है । इसी तरह सृष्टि के बारे में अनेक बातें प्रचलित हैं । उनमें कोई नय अवश्य मिल जाता है; शेष नयों के निषेध में वह विरुद्ध पड़ जाता है । 34. समयसार के विशेषणों की सार्थकता—इस समयसार के विशेषण प्रभु अमृतचन्द जी सूरि ने इस मंगलाचरण में चार दिये हें । पहिला विशेषण है, स्वानुभूत्या चकासते, यह स्वानुभव से प्रकट है । कुछ भाई ऐसा मानते हैं कि आत्मा को आत्मा प्रत्यक्ष नहीं जान सकता है वह तो वेदाभ्यास से ही जाना जाता है, कोई कहता है कि आत्मा का ज्ञान तो वेद जन्य है, कोई दूसरा उसे नहीं दूसरा उसे नहीं जान सकता है कि वह क्या वस्तु है । इसीलिये आचार्य श्री ने शुरू में मंगलाचरण करते समय कहा है ‘स्वानुभूत्या चकासते’ ज्ञान अपने अनुभव के द्वारा जाना जाता है, ज्ञान आत्मा का गुण है । ज्ञानमय आत्मा है, ज्ञान अपने अनुभव के द्वारा जाना जाता है, ज्ञान आत्मा का गुण है । ज्ञानमय आत्मा है, ज्ञान जानता है । सो ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता एक होने पर आत्मा का स्वानुभव सम्यक् प्रकट होता है । वहाँ वह परमब्रह्म स्वानुभूति से प्रकाशमान हो ही रहा है । दूसरा विशेषण दिया है चित्स्वभावाय । इससे सिद्ध है कि वह अन्य के सम्बन्ध से चेतन नहीं किन्तु स्वयं ही है, एक अभिप्राय कहता है कि आत्मा स्वयं चेतन नहीं किन्तु इसमें चैतन्य का, ज्ञान का समवाय सम्बन्ध होता रहता है । इस दुरभिनिवेश से मुक्त कराने के लिये चित्स्वभावाय यह विशेषण दिया गया है । यह एकान्त विशेष दृष्टि का अभिप्राय है; इस अभिप्राय में आत्मा तो द्रव्य पदार्थ है और ज्ञान गुण पदार्थ हैं याने दो भिन्न पदार्थ हैं । इन दोनों में समवाय संबंध होने से आत्मा चेतन है । इस मत में समवाय सम्बन्ध छूटने पर ज्ञान पदार्थ अलग हो जाता है और आत्मा जड़ हो जाती है ऐसी अवस्था हुई इस अभिप्राय में निर्वाण है । इसका विचार दर्शनशास्त्र में विशेषता से किया है । आत्मा स्वयं चैतन्यस्वभाव है । तीसरा विशेषण है ‘‘भावाय’’ वह सद्भाव रूप सिद्ध है । कोई कहते हैं कि यह आत्मा वगैरह कोई चीज नहीं है किन्तु चार महाभूत तत्त्वों के मिलने पर पृथ्वी, जल, तेज, वायु इनके मिलने पर एक प्रकार की बिजली पैदा होती है उसी का नाम जीव है, आत्मा है, किन्तु वृद्धावस्था में वे तत्त्व खराब हो जाने से वह बिजली भी खराब हो जाती है, और अन्त में बिजली भी समाप्त हो जाती है । अत: इस आशय के खण्डन के लिये आचार्यश्री ने भावाय यह शब्द कहा है अर्थात् वह आत्मा सद्भाव से मौजूद है । भैया ! जो चीज जिसकी है वह कहीं भी नहीं जा सकती है, तुम इसका विश्वास करो । जो तुम्हारा है वह तुम से कहीं भी अलग नहीं हो सकता, और जो तुम्हारा नहीं है । वह तुम्हारा कभी हो भी नहीं सकता । जो चीज सत् है उसका कभी नाश नहीं होता, नाश होकर कहां जायगा? जो असत् है उसकी कभी उत्पत्ति नहीं होती है । सत् पदार्थ अपनी अवस्थायें बदलते रहते हैं । इसी में उत्पादव्यय ध्रुवता है, सत्त्व, रज, तम: है । पृथ्वी आदि जड़ है उनके मिलने पर भी जो अवस्था बनेगी वह जड़ ही बनेगी चेतनारूप नहीं हो सकती । फलत: चेतन पदार्थ सिद्ध वस्तु है वह भावस्वरूप है । चौथा विशेषण दिया है, सर्व भावान्तरच्छिदे । सर्वदा परभावों को दूर करने के स्वभाववाला है । सर्व भावान्तरों को छेदता है, दूर करता है । 35. वस्तु में स्व को अस्तित्व व पर को नास्तित्व की अप्रतिषेध्यता:—भैया ! जो सत् होता है उसमें ये दो धम अवश्य होते हैं कि अपना सर्वस्व तो सब है उसमें, और पर का कुछ लवलेश भी उसमें नहीं है । इसी बात को जताने के लिये ‘‘भावाय’’ से पहिले ‘‘चित्स्वभावाय’’ लिखा है और भावाय के पश्चात् सर्वभावान्तरन्छिदे लिखा है । सर्वभावान्तरन्छिदे का यह अर्थ है कि वह सबको जानने वाला है । यह आत्मा अपने ही द्रव्य क्षेत्र काल भाव में रहकर अपना कार्य याने परिणमन करता है । जानता भी है तो वह अपने में जाननक्रिया से जानता है । वह जानन सर्व पदार्थों के अनुरूप निज ज्ञेय करके ग्रहणरूप है, दुनिया के सभी पदार्थ हैं, वे जितने क्षेत्र में फैले हैं उनकी चीजें उतने ही क्षेत्र में हो सकती हैं उनसे बाहर नहीं हो सकती । दुनिया कहती है कि सूर्य सारे जग को प्रकाशमान करता है, किन्तु यह तुम जो प्रकाश देख रहे हो यह प्रकाश क्या सूर्य का है? नहीं है । क्योंकि सूर्य का प्रकाश तो उतने में ही रहेगा, जितने में सूर्य । किन्तु यह दीवाल कांच आदि पर जो हम प्रकाश देख रहे हैं यह प्रकाश तो उन्हीं का है, सूर्य तो निमित्त मात्र है; सूर्य को निमित्त पाकर वे स्वयं प्रकाशमान हो उठती है । यदि कहो कि हमें तो सीधा सूरज का ही प्रकाश समझ में आ रहा है तो उसके हेतु में यह प्रश्न उठावे कि दीवाल में चमक थोड़ा और कांच में अधिक क्यों? उत्तर है कि भैया जिसकी जैसी-जैसी शक्ति है वह उसी रूप से निमित्त को पाकर परिणमन कर जाता है । सर्व द्रव्य ऐसे ही अत्यन्त स्वतन्त्र समझो, आप भी स्वतंत्र हैं । भैया ! कोई कहते हैं कि हम इन पर बहुत प्रेम करते हैं सो यह झूठ बात है क्योंकि राग द्वेष जिसकी पर्याय है वहीं होती है उससे बाहर कहीं नहीं । आपको तो सर्वविकल्प छोड़कर अपनी स्वाश्रितता देखना चाहिये । इसलिये आप सब इस मिथ्या वार्त्ता को छोड़कर जो अपनी आत्मा मुख्य धन, वैभव है उसी ओर ध्यान दो । उसी को प्राप्त करने में जुट जावो तभी सफलता मिलेगी, और उसके प्राप्त हो जाने पर ही आत्मा का कल्याण होगा । 36. आत्मतत्त्व की सद्भाव असद्भाव से सिद्धि—समयसार का मुख्य अर्थ सनातन शुद्ध आत्मतत्त्व है । आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सत् है और परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा असत् है, इसी तरह प्रत्येक पदार्थ निज की सत्ता से सत् है और पर की सत्ता से असत् हैं । यह न मानो तो वह सर्व पररूप हो जायेगा, स्व की सत्ता से सत् है, यह न मानो तो वह रहा ही क्या? एक अभिप्राय ऐसा भी है कि द्रव्य स्वयं सत् नहीं है, सत्ता के सम्बन्ध से सत् है, परन्तु यह बात तो स्पष्ट अविवेकपूर्ण है सत्ता का जिसमें सम्बन्ध मानते वह है या नहीं? यदि है तब सत् ही कहलाया और नहीं है तो सत्ता का सम्बन्ध किसमें जोड़ते? आत्मा स्वयं सत् है, इसका समस्त परद्रव्यों में अत्यन्त अभाव है और समस्त परद्रव्यों का इसमें अत्यन्त अभाव है । सभी द्रव्यों की यह बात है कि एक द्रव्य का समस्त इतर परद्रव्यों में अत्यन्त अभाव है । पर मोटे रूप से देखो तो पुद्गल स्कन्धों में एक दूसरे अभी तो नहीं किन्तु आगे हो सकता है । सूक्ष्मरूप से तो उस ही द्रव्य की एक पर्याय छूटकर दूसरी पर्याय हुई जैसा कि उत्पादन व्यय का साधारण नियम है जैसे एक चौकी पुस्तक के रूप नहीं । चौकी चौकी है, पुस्तक नहीं है । तो वह पर की अपेक्षा से असत् है किन्तु वह चौकी पुस्तक होने की शक्ति रखती है और बहुत कुछ समय के बाद उसी चौकी के परमाणु पुस्तक रूप में परिवर्तित हो सकते हैं । चौकी टूटी, उसके बाद सड़ने गलने के बाद खेत में पहुँचने पर मिट्टी बनकर फिर कपास बनता, उससे कागज आदि बनाये गये और फिर कहीं चौकी के परमाणु पुस्तक में आ गये । किन्तु आत्मा इस प्रकार नहीं है । आत्मा का अन्य में अत्यन्ताभाव है । एक आत्मा दूसरी नहीं हो सकती, दो आत्मायें कभी मिल भी नहीं सकती अणुओं में भी अत्यन्ताभाव है उक्त कथन स्कंध का है । इन सभी बातों का बोध, ज्ञान हमें श्री जिनेन्द्र देव की वाणी से हुआ है । वस्तुत: अनुभव से हुआ है । इस हमारे ज्ञान प्रकाश में श्रुतदेवता जिनवाणी निमित्त है । अब इस ही जिनवाणी का आदि में मंगलाचरण करते हैं ।
कलश 2 अनंतधर्मणस्तत्त्वं, पश्यंती प्रत्यगात्मन: । अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम् ।।
37. हितकारिणी सद्वाणी को नमस्कार व जयवाद:—यह निज वाणी नित्य ही प्रकाशमान हो, जो अनंत धर्मात्मक आत्मा के तत्त्व को समस्त परद्रव्यों से पृथक दिखा देती है । यहाँ देखने वाला स्वयं आत्मा है, परोपकारिणी जिनवाणी परम निमित्त है, अथवा भावश्रुत देवता आत्मतत्त्व को दिखा देता है । जिनवाणी की विशेषता है कि जो आत्मा का यथार्थ दर्शन करादे कि यह आत्मा सभी से भिन्न, परम स्वतन्त्र, शुद्ध और एकाकी है । यदि जैनवाणी में अन्य सब कुछ रहता और जैनवाणी इस विशुद्ध तत्त्व के मम से रहित होती तो वह जैनवाणी ही नहीं थी । जैनवाणी हमें बताती है कि आत्मा सभी प्रभाव से भिन्न है, उसका साथी कोई नहीं है, वह तो सिर्फ ज्ञानरूप है । जब से यह भान हुआ तभी से सारे दुख मिट गये यह कृपा जैनवाणी की है । उसी के द्वारा अज्ञान मिटा और हुई ज्ञान की प्राप्ति । अत: ऐसी जैनवाणी को नमस्कार है । 38. न्यायवृत्ति और तत्त्वज्ञान से आत्मलाभ:—दुनियां में सैकड़ों आये चले गये, अपनी-अपनी करामत दिखा के चले गये । इस दुनियां में सैकड़ों आते हैं और अपनी-अपनी करामातें दिखा के चले जाते हैं किसी से पूछो कि हे भाई ! तुम्हारे पिता क्या कर गये तो वह उत्तर में कहता है कि मेरे पिताजी ने व्यापार किया, धन कमाया, मकान बनवाये, और चले गये लेकिन यह कोई नहीं कहता कि हमारे पिता भाई हमें आत्मोन्नति का मार्ग बता गये, शिव का मार्ग बता गये, अथवा वे स्वयं समाधि के साथ गये हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी असली स्थिति का रूप देखना चाहिये कि मैं क्या हूँ और क्या कर रहा हूँ । आत्मा का बड़प्पन धन से नहीं है । आत्मा की लोग प्रशंसा करते हैं इससे आत्मा का बड़प्पन नहीं है । बड़प्पन है तो सदाचार से, वैभव भी आत्मा का सदाचार ही है । बाह्य की चीज कुछ भी हो और सदाचार न हो तो वह गरीब ही है । बाह्य स्कंध धन आदि का संग्रह न हो और सदाचार हो तो वह वास्तविक धनी ही है । सदाचार से आत्मा इस ही लोक में शांति व आनन्द पाता है । जिसमें मूल सदाचार अर्थात् प्रारम्भिक सदाचार भी नहीं वह जिनवाणी की श्रद्धा करने के योग्य नहीं है । वह आत्मकल्याण को अभी नहीं जान सकता । प्रारम्भिक सदाचार है लौकिक न्यायशीलता । हमेशा न्यायवृत्ति से, सदाचार से आत्मा को बढ़ाना चाहिये । आत्मा धन वैभव से बड़ा नहीं होता है, आत्मा का धन तो सदाचार है जैनधर्म न्यायवृत्ति बताता है । जब आप और हम न्यायवृत्ति से नहीं चलेंगे तो दुनियां वाले किसका अनुकरण करेंगे? आज दुनियां में हरएक जगह प्राय: न्याय वृत्ति का अभाव हो गया है । इसलिये चाहिये कि सदाचार और न्यायवृत्ति को अपनावे । निज धर्म को छोड़ के अन्य कोई धर्म मोक्ष का उपाय बनाने वाला नहीं है, तथा न्याय और सदाचार भी निज धर्म या जिनधर्म ने दिया है । इसलिये हमें चाहिये कि सदाचार और न्यायवृत्ति को अपनावे, और अन्य लोगों को इसका अनुकरण कराव लोग आपको न्यायशील देखकर स्वयं अनुकरण करेंगे । आत्मा का असली स्वरूप बताने वाला है तो सिर्फ अनोकन्तमयी मूर्ति; श्रुतदेवता है । यदि उसके मानने वाले आप न्यायवृत्ति से नीचे गिर गये तो यह अपने पर तो अन्याय करना है ही, साथ ही दुनियां पर भी अन्याय करना है । दुनिया किसका अनुकरण करे? आत्मतत्त्व को जानो । इसका परिज्ञान होने पर सदाचार से विरूद्ध चलने का भाव नहीं होगा । 39. भूतार्थ नय से आत्मतत्त्व को जानने पर अभेद प्रकाश:—आत्मा के भेद तीन है, अन्तरात्मा बहिरात्मा और चौथे गुणस्थान से पहले बहिरात्मा कहलाता है और चौथे से 12 वें गुणस्थान तक अन्तरात्मा और 13 व 14 वां गुणस्थान है परमात्मा । द्रव्यदृष्टि से आत्मा एक है और वह ध्रुव शुद्ध है । किन्तु भेददृष्टि से देखा जाय तो आत्मा के भेद अनंत हैं । वही अरहंत है, वही सिद्ध है, वही निगोद, वही हम हैं । जब चैतन्यस्वभाव पर दृष्टि देते हैं तो अद्वैत ही है । बिना आत्मतत्त्व को जाने हमें सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती जितने भी महापुरुष हुये हैं अन्त में उन सभी ने आत्मा का ही ध्यान किया है, चक्रवर्ती, और तीर्थकर आदि जितने भी महापुरुष हुये हैं उन सभी ने अन्त में अपनी परमविशुद्ध आत्मा का ध्यान किया और उस परमविशुद्ध आत्मा का ध्यान किया और उस परमपद शिव को प्राप्त किया इसलिये जब तक आत्मा का ध्यान नहीं किया जायेगा तब तक सभी श्रम निष्फल होगा । आत्मा अनंतधर्मात्मक है । इसमें ज्ञान, दर्शन, शक्ति सुख, श्रद्धा चारित्र आदि अनंत शक्तियां हैं वे धर्म हैं आत्मा में अनंतानंत समस्त परद्रव्यों का नास्तित्व है वह भी धर्म है । आत्मा नित्य है, अनित्य है एक है अनेक है सत् है असत् है आदि परस्पर विरूद्ध धर्मो का भी आश्रय है अत: आत्मा अनंतधर्मी भी हैं । ऐसे इस अनंत धर्मात्मक आत्मा के तत्त्व को, स्वरूप को सबसे भिन्न दिखाती हुई जिन वाणी नित्य ही प्रकाशमान होवे । अभेददृष्टि की मुख्यता से यह अनंतधर्मी एक अद्वैत आत्मा दिखाई देता है । अनंतधर्मी अर्थात् नहीं है अंत कहिये विनाश जिसका ऐसे धर्म याने स्वभाव वाला आत्मा है आत्मा चैतन्यभावमात्र है उस ही के अभिन्न तत्त्व को प्रकट करने वाली अनेकान्तमयी मूर्ति सरस्वती है । जिस तरह आत्मा में द्वैतता नहीं, वह अभिन्न अखंड एक चैतन्यस्वभाव मय है उसी तरह इसको प्रकट करने वाला श्रुत भी एक ज्ञेय प्रतिबिम्बमात्र है । वह श्रुतदेवता अनेकान्तमूर्ति है अर्थात् जहाँ एक भी विकल्प नहीं हैं ऐसे अद्वैत स्वभाव की मूर्ति वाला है वह अनेकान्तमयी अर्थात् निर्विकल्प ज्ञेय प्रतिबिम्बमात्र मूर्ति नित्य ही प्रकाशमान होवे । 40. सरस्वती देवी का स्वरूप:—भेद नित्य प्रकाशमान नहीं किन्तु अभेद हो सतत प्रकाशमान होता है । उस अभेद तत्त्व को बताने वाली अनेक भेदों का समन्वय करने वाली अनेकांतमूर्ति का ऐसा चित्रण करते हैं कि सरस्वती देवी सरोवर में कमल के ऊपर विराजमान है । उसके चार हाथ है किन्तु मुख एक है । एक हाथ में माला एक हाथ में सितार, एक हाथ में पुस्तक व एक हाथ में शंख है पास में राजहंस बैठा है । इस चित्रण का सीधा अर्थ ऐसा नहीं है कि सचमुच ही कोई ऐसी देवी विराजती है और वह हमें विद्या देती है । यह अनेकांतमूर्ति का अलंकारिक चित्रण है । सरस्वती का अर्थ है ‘‘सर: प्रसरण यस्या: सा सरस्वती’’ जिसका फैलाव है वह सरस्वती है । सबसे अधिक फैलाव प्रज्ञा का है, वही अब देख उसके चार हाथ है—प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग, परंतु मुख उसका एक ही है, सबका स्वाद अभेद निजरस का ही है सबका प्रयोजन निज कारण परमात्मा की अद्वैत आराधना ही है, आराधना के प्राथमिक उपाय चार है 1. माला अर्थात् जाप ध्यान द्वारा तत्त्व की आराधना करना । 3. सितार संगीत भक्ति का प्रतीक है—स्तोत्र भजन के परम अनुराग पूर्वक आत्मतत्त्व की आराधना । 4. शंख अनहद ॐ स्वरूप अन्तर्ध्वनि का प्रतीक है । ॐ गंभीर और लम्बे मिश्र जल्प पूर्वक बाह्य विकल्पों को भूलकर आत्मतत्त्व की आराधना करना । यह सरस्वती कमल पर विराजमान हैं अर्थात् निर्मल हृदय में विराजमान होती है इसका उपासक राजहंस अर्थात् श्रेष्ठ भव्य आत्मा है । सिद्धान्त में जो द्रव्य गुण पर्याय विषय कहीं होना उसी का अलंकारिक चित्रण जब मर्म का उल्लंघन कर देता है तब लोग सिद्धान्त से दूर होकर अपपथ में भ्रमण करने लगते हैं, भ्रम जाल में अपना समय खो देते हैं । वस्तुत्व से विचारो तब कोई बाधा होगी । अनंतधर्मी आत्मा के तत्त्व को दिखाने ताली अनेकान्तमूर्ति नित्य प्रकाशमान हो, क्योंकि यही हमें वह ज्योति प्रकट करती है जिससे हम वस्तु के याथातथ्य के वेदी हो जाते हैं । अभेद की प्रमुखता से जिसका अंत कहिये विनाश नहीं है ऐसे अभेद एक असाधारण स्वभाव वाला है, उसका निर्विकल्परूप से तत्त्व का दर्शक करने वाली अनेकान्तमूर्ति है अर्थात् जिसमें एक भी अन्त कहिये धर्म, विकल्प नहीं है ऐसी अनुभूति है वह नित्य प्रकाशमान हो । 41. द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव को दृष्टि द्वारा वस्तु का परिचय:—कल बताया गया था कि किसी भी वस्तु के जानने के लिये चार चीजों (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) की आवश्यकता पड़ती है, बिना इनके वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाता इसी तरह आत्मा के जानने के लिये भी ये चारों चीजें उपयोगी हैं । द्रव्य से जाना जाता है पिण्डरूप । क्षेत्र से वह कितने स्थान में रहता है, उसका विस्तार जाना जाता है । काल द्वारा उसकी अवस्थायें जानी जाती हैं । और भाव से उसकी शक्तियों का ज्ञान होता है । अब इन्हीं चारों से आप अपनी आत्मा को देखिये । द्रव्य से तो आत्मा है जो हम आप है । क्षेत्र जितने में आत्मा रहती हैं और नाना प्रकार की पर्यायें है काल तथा अनंत चतुष्टयरूप जो आत्मा की शक्तियां हैं वे भाव से हैं । जब तक इन चार से हम आत्मा को नहीं देखेंगे तब तक यह आभास नहीं होगा कि वास्तव में आत्मा को क्या स्वरूप है । ग्रन्थ के आदि में आचार्य श्री अमृतचंद्र जी सूरि ने मंगलाचरण में चार विशेषण रखे हैं । उनमें से पहला है, ‘‘स्वानुभूत्या चकासते’’ शब्द से क्षेत्र प्रदेशों की प्रमुखता हुई । दूसरा विशेषण है चित्स्वभावाय । इसका अर्थ है कि आत्मा चित्स्वभावरूप है, स्वयं ही चेतन है, वह अन्य के सम्बन्ध से चेतन हो ऐसी बात नहीं है । यह विशेषण चतुष्टय में से भाव की अपेक्षा से है । आत्मा में भावशक्ति अनंत है, अनंतविध है, उन सब शक्तियों का प्रतिनिधिरूप सबमें अभिन्न एक चैतन्य हैं; उस चैतन्यस्वभावमया का यहाँ संस्तवन किया है । तीसरा विशेषण है भावाय । यानी आत्मा सहजभावरूप से है, यह गप्पें नहीं है ऐसा नहीं है कि आत्मा न हो और आचार्यों ने उसका वर्णन कर दिया हो, इसलिये कहा है भावाय । आत्मा सद्भावरूप से है और वह त्रिकाल तक रहता है । कोई मनुष्य कहता है कि मुझे आत्मा का ज्ञान नहीं है, अरे वही तो आत्मा है जिससे यह ज्ञान हुआ कि मुझे ज्ञान नहीं है । आत्मा कोई भिन्न और नहीं है । भावाय यह विशेषण द्रव्य की अपेक्षा से है द्रव्य का लक्षण सत है और सत् का पर्यायांतर भाव है । सत का लक्षण उत्पाद व्यय, धौव्य है तो भाव शब्द का भी अर्थ देखिये । भू धातु का अर्थ सत्ता है और सत्ता शब्द अस् धातु से बना है, सो अस् धातु का अर्थ होना है । होना उत्पाद, व्यय का संकेत करता है और सत्ता धौव्य का संकेत करता है । इस तरह भाव विशेषण द्रव्य की उत्पादव्यय ध्रुवता को पुष्ट करता है । चौथा विशेषण है सर्वभावांतरच्छिदे । सर्व, पर भाव को नाश करता है । अथवा सर्व भावान्तरों से स्वयं पृथक् है । यहाँ भावान्तर शब्द से अर्थ समस्त परद्रव्य भी हैं ।और समस्त विभाव है क्योंकि वे चैतन्यस्वभाव से भावान्तर है । उन भावान्तरों को दूर करने का इसका स्वभाव ही है और प्रतिसमय दूर करता भी रहता है और पर्यायशुद्धि होने पर तो सदा विभाव से दूर रहता ही है । इस विशेषण में काल की दृष्टि आपतित हो जाती है । 42. धर्मभाव के कारण ही इस भव की श्रेष्ठता है—इस भव में हमें सबसे श्रेष्ठ मन मिला है, इतना श्रेष्ठ मन किसी भी गति में नहीं है । देव, तिर्यंच नारकी को भी ऐसा मन नहीं इसलिये अपना अपूर्व कल्याण इसी भव में कर सकते हैं । यही भव सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि इस भव में ही उत्तम रीत्या धर्मपालन हो सकता है । जिसने धर्म का पालन नहीं किया तो उसमें और पशु में कोई भी फर्क नहीं । किसी नीति कार ने कहा है:—
आहारनिद्रा भयमैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणां । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीन: पशुभि: समान: ।।
आहार, निद्रा, भय व मैथुन इनसे तो पशु और मनुष्य समान हैं; किन्तु मनुष्य में एक धर्म ही अधिक है । और, वह धर्म से रहित है तो उसमें और पशुओं में तो कोई अन्तर नहीं है । वैसे देखो तो मनुष्य उक्त चार बातों से पशु से भी हीन है । परन्तु भैया जिन कवि महाराज ने यह न्याय बनाया है वे मनुष्यों की बिरादरी के थे, अत: मनुष्यों की लाज रख दी । पशु से गया बीता धर्महीन मनुष्यों को नहीं बताया पशु के समान बता दिया । आहार, निद्रा, भय, व मैथुन में धर्महीन मनुष्य पशु से भी कैसे हीन है, इस बात को देखो । पशु जब पेट भर चुकता है तो उसके बाद उसके सामने आप कितनी ही उत्तम घास लाकर रखो लेकिन वह नहीं खावेगा किन्तु मनुष्य रोटी खाने के बाद बैठा है और अकस्मात कोई चाट वाला आ जाता है तो वह दो चार पैसे का कुछ खा ही लेता है । निद्रा में देखो, पशुओं की निद्रा मनुष्यों से उत्तम है, वे अपने समय पर सो जायेंगे और समय पर उठ बैठेंगे, न तो उनके पास घड़ी है, और न कोई टाइम टेबल ही है किन्तु फिर भी वे अपना काम समय पर कर लेते हैं । मनुष्यों के पास अलार्म, वाच, घड़ी होते हुये भी वे अपने निश्चित् टाइम पर नहीं जग पाते और न कोई काम अपने समय पर कर पाते हैं । भय में देखो—मनुष्य 24 घंटे किसी न किसी भय से भयभीत बना रहता है । कभी कोई भय है, तो कभी कोई । किन्तु पशु को तो उसी समय भय है जब उसके ऊपर कोई डंडा चलाता आ जावे । बाकी तो वह हमेशा निर्भय होकर विचरण करता है । अब मैथुन में देखो । सो यह बात सभी को ज्ञात है कि वे विषय भी अपनी ऋतु में करते हैं, अन्य समय में नहीं । किन्तु मनुष्य इसमें बेकार, असंयमी है । प्रयोजन यह है कि धर्म करो, अन्यथा हम क्या कहें आपने श्लोक में सुन ही लिया है । 43. धर्म करने के लिये कर्तव्य—‘सर्वभावांतरच्छिदे’ इस विशेषण से सीख लो आत्मस्वभाव पर दृष्टि हो और उसके दृढ़ आलंबन से पर्याय से भी सर्वभावान्तरच्छिद बन जाओ धर्म सब पदार्थों में है, धर्म वस्तु के स्वभाव को कहते हैं । समस्त वस्तुओं में स्वभाव है । आप में भी स्वभाव है । चेतन और पुद्गल के अतिरिक्त अन्य धर्म अधर्म आकाश और काल इन चार द्रव्यों में तो धर्म के विरुद्ध परिणति नहीं होती । पुद्गल के स्वभाव के विरुद्ध परिणति होती है परन्तु ज्ञान न होने में उन परिणति से उसका कुछ बिगाड़ा नहीं है । चेतन में धर्म के विरुद्ध परिणति होती है सो उसी को अर्थात् चेतन को महात्माओं का उपदेश होता है कि धर्म करो । धर्म की परीक्षा द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव से करो और परीक्षा के बाद निराकुल, निर्विकल्प परिणति चाहते हो तो द्रव्य, क्षेत्र, काल को गौण करके भाव की प्रधानता से देखो । स्वानुभूत्या चकासते । जो अपने अनुभव से प्रकाशमान है । ज्ञान के द्वारा आत्मा को देखो । उस अनुभव की योग्यता लाने के लिये सबसे पहले भैया अपने चित्त में दो बातें तो बसा लो—1. ममताभाव न रखना, 2. किसी भी प्राणी के प्रति द्वेषभाव न रखना । अपने को ममता रहित तथा सरल बनाओ । रागद्वेषों को छोड़ो, क्योंकि दुनियां में अनन्त प्राणी है आप सभी को नहीं जानते हैं । जिस पर क्रोध करते हो उसे अपरिचित की श्रेणी में रख दो । ममत्वबुद्धि मत करो । ममत्व बुद्धि कोई ऐसी चीज नहीं जो सिर्फ साधु (मुनि) के लिये ही त्याज्य हो । किन्तु उसका त्याग तो गृहस्थधर्म से ही शुरू हो जाता है । ममत्वभाव का त्याग सम्यक्त्व होते ही हो जाता है । पर जब तक ममत्वबुद्धि रहेगी आपका कल्याण नहीं हो सकता । 44. धर्म कमाना कठिन हैं या धन कमाना? सरल और कठिन की परिभाषा क्या है? जो बहुत पराधीन हो उसे कठिन कहते हैं । और जो बहुत स्वाधीन हो उसे सरल कहते हैं । अब भैया, आप लोग ही बताओ कि धर्म कमाना कठिन है या धन कमाना? हमारी दृष्टि में तो धन कमाना कठिन है क्योंकि उसमें पहले अनेक लोगों से मिलना जुलना पड़ेगा ग्राहक बांधने पड़ेंगे उन्हें खुश करने आदि बहुत सी झंझटें करनी पड़ेगी फिर भी वे आवें न आवें । यह सब उपचार से कह रहे हैं पर का कुछ-कुछ करता नहीं, मात्र मान्यता है । लाभ हानि भाग्याधीन है । इतना कठिन धर्म नहीं है क्योंकि वह केवल स्व की दृष्टि से स्व के द्वारा विकसित होता है किन्तु मोह के वश लोगों को धर्म कठिन प्रतीत होता है । देखो भैया ! हमें सत्पथ वृत्ति के लिये बड़ी सुविधायें हैं सबसे पहले तो वस्तुस्वभाव ही हमारी बड़ी मदद कर रहा है । प्रत्येक द्रव्य चाहे कितने ही मिले, ले रहे परन्तु कोई द्रव्य अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता ऐसा सबका स्वभाव है । और जब कोई स्वभाव नहीं छोड़ता तो वह अन्य में अलाबला भी क्या दे सकता है । अनादि से आत्मा और कर्म का एक क्षेत्रावगाह रहा फिर भी वस्तुस्वभाव की हम पर कृपा बनी ही है । दूसरी बात देखो—पर को निमित्त पाकर कुछ भावांतर याने विभाव उत्पन्न हो भी जावे जो कि आत्मा की शक्ति के ही परिणमन हैं, फिर भी चूंकि वे भावांतर हैं सो स्थाई नहीं होते हैं प्रतिक्षण नष्ट होते रहते हैं । उपयोग ग्राह्यता की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक ही रह पाते हैं । ये भावांतर स्वयं जा रहे हैं । राग-द्वेष स्थाई तो है नहीं किन्तु प्राणी उन्हें स्थाई बना लेता है याने एक के बाद दूसरे को पैदा करता रहता है । स्थाई तो सिर्फ ज्ञान है । परवस्तु के होने में सुख नहीं और वस्तु के न होने में दुःख नहीं किन्तु मन के अन्दर उत्पन्न हुये जो विकल्प हैं उन्हीं विकल्पों से दुःख होता है । 45. आत्मा का विकल्प से व्यवहार—एक आदमी अपना 1 वर्ष का बालक छोड़ अर्थोपार्जन के लिये बाहर चला गया । कारण कुछ ऐसे आये कि वह 12 वर्ष तक वापिस नहीं लौट सका । 12 वर्ष के पश्चात् उसे अपनी स्त्री और पुत्र की याद आयी है और वह वहाँ से प्रस्थान कर देता है । इधर इसकी पत्नी पुत्र से कहती है कि बेटा तुम अब बड़े हो गये हो इसलिये फलाने देश में जाकर अपने पिता को ढूंढ़ कर लिवा लाओ । सो वह लड़का भी अपने पिता की खोज में वहाँ से चलता है । संयोग से पिता और पुत्र दोनों एक ही धर्मशाला में रात्रि व्यतीत करते हैं । रात के समय पुत्र के पेट में बड़े जोर से दर्द उठता है वह रोता है, उसके रोने के हल्ले से परेशान होकर वह सेठ (उसका पिता) वहाँ के चपरासी से कहता है कि इस लड़के को धर्मशाला के बाहर कर दो, हमने तुम्हें 10) रुपये इनाम के इसीलिये दिये थे कि हमें आराम मिले । चपरासी बोला आधी रात है, इस समय मैं कहा कर दूं? कुछ देर के बाद वह मर जाता है । सेठ घर पहुंचकर अपनी स्त्री से पूछता है कि लड़का कहा पर है? तब वह कहती है कि वह आपको लेने गया है । सेठ पुत्र की खोज में निकल कर उसी धर्मशाला में आया और सारा हाल जानकर बेहोश होकर गिर पड़ता है । वहाँ पुत्र के न होने से दुःख नहीं है, किन्तु पुत्र के अभाव में मन के अन्दर जो विकल्प पैदा हुये हैं उनके कारण वह दु:खी हुआ है । तथा देख लो जब पुत्र सामने था दुःखी था तब उसे राग व विषाद नहीं हुआ । पर वस्तु के सद्भाव, अभाव से क्लेश । नहीं आप बीमार हो जाय तो आपका पुत्र आपकी सेवा नहीं करता है किन्तु आपको दुःखी देखकर उसके हृदय में जो विकल्प पैदा होते हैं और उससे जो दुःख होता है वह उसे शांत करने को आपकी सेवा करता है । एक भिखारी भूखा आया, आपको ज्ञात हो गया कि यह भूखा है तव आप उसे भोजन करा देते हैं । वहाँ आपने उसका दुःख मेटा है क्या, कहो नहीं । उसके दु:ख के ज्ञान के पश्चात् आपको दुःख होने लगा था, सो आपने अपना दुःख मेटने के लिये यह चेष्टा की । वहाँ भी आपकी चेष्टा आपमें हुई, देह की चेष्टा देह में हुई । 46. विकल्प ही जीवन का शत्रु है:—सबसे विकट भावान्तर तो यह है कि मैंने इसको पाला, इसे सुखी किया इसे दुखी किया, आदि दुराशा । कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तु के होने या न होने से सुख दु:ख नहीं है, किन्तु दुःख तो विकल्पों का नाम है । जहाँ विकल्प नष्ट हुये वहीं सुख है । शत्रुता, मित्रता की बात अपने आपके परिणामों में देखो अन्यथा, अच्छा बताओ तुम्हारा दुश्मन कौन है? तुम्हें सुख देने वाला कौन है? एक राजा शत्रु से मुकाबला करने जा रहा था । वह जंगल में पहुँचा, वहाँ एक साधु (मुनि) विराजमान थे, राजा प्रणाम करके बैठ गया, कुछ देर धर्मोपदेश सुना, थोड़ी देर में शत्रु की हलचल सुनाई दी, राजा कुछ सचेत हुआ । जब और नजदीक आवाज आई तब तलवार लेकर खड़ा हो गया । तब साधु ने पूछा—राजन् क्या कर रहे हो? राजा बोला, महाराज शत्रु के आगमन की सूचना पाकर मुझे क्रोध आ गया है, ज्यों-ज्यों शत्रु पास आता है मुझे क्रोध बढ़ता है, मैं उसे नष्ट करूंगा तब साधु बोले—राजन् ! ठीक है; यही करो, जो शत्रु पास हो, उसे नष्ट करो । पहले जो शत्रु तुम्हारे भीतर विराजमान है उसका नाश करो । वह कौन है? सुनो किसी पर प्राणी के प्रति तुम्हारे यह जो विभाव हो रहे हैं कि यह शत्रु है ऐसी कल्पना ही तुम्हारा शत्रु है । वह अत्यन्त पास बैठा हुआ है उसे नष्ट करो । राजा के मन में कुछ ठीक लगी । राजा ने तुरन्त दीक्षा ले ली और ध्यान में बैठ गया । थोड़ी देर बाद शत्रु आया और राजा को ध्यानस्थ देख चरणों में नमस्कार करके वापिस हो गया । तो कहने का आशय सिर्फ इतना है कि विकल्पों का नाश हो जाना ही सच्चा सुख है । जब तक विकल्प रहेंगे कभी भी सुख नहीं मिलेगा; इसलिये आत्मा को पहिचानों; उसका स्वरूप क्या है? सो देखें—जब तक आत्मा का शुद्ध ज्ञान नहीं होगा तब तक सुख नहीं मिलेगा । इसलिये अपना एक लक्ष्य बनाओ कि मुझे क्या करना है, और किस तरह मेरी आत्मा का कल्याण होगा । मुझे अपनी आत्मा का कल्याण करना है, तभी सब कुछ होगा । मेरा उद्देश्य तो केवल यह ही है कि मैं निर्विकल्प स्थिति पाऊं ऐसी दृढ़ भावना भी बनाओ, और यथार्थ परिज्ञान करो । 47. समयसार शब्द के अर्थ:—इस समयसार ग्रन्थ में शुद्ध आत्मतत्त्व का निरुपण है । यह शुद्ध आत्मतत्त्व, कारण समयसार, समयसार, सहजपरमात्मा, सहजसिद्ध, पारिणामिक तत्त्व, परमब्रह्म, सामान्यात्मा, चित्र चैतन्य आदि अनेक नामों से वाच्य है । पूज्य श्री अमृतचन्द्र जी सूरि ने इस तत्त्व को समयसार शब्द से कहा है और नमस्कार किया है ‘नम: समयसाराय’ यद्यपि मुख्यतया समयसार शब्द से परम पारिणामिक चैतन्य कहा गया है तथापि महापुरुषों के वचनों में अनेक रहस्य होते हैं इस समयसार शब्द के भी अनेक पूज्य तत्वों से परिपूर्ण अर्थ हैं— समयसार का अर्थ—श्री अर्हंत परमेष्ठी हैं—समयसार शब्द के 3 भाग करिये—सं अय सार—सं याने सम्यक अर्थात् अच्छे प्रकार से अय कहिये निश्चय करने वाले (अय गतौ) जो सातिशय व भद्र मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि श्रावक आदि अन्तरात्मा हैं वे समय कहलाते हैं, उनके पूज्य होने से जो सार हैं अर्थात् सर्वोत्कृष्ट है वे अरहंत परमदेव समयसार हैं । सार शब्द की निरुक्ति इस प्रकार है—सरति गच्छति सर्वोत्कृष्टत्वमिति सार: । जो सर्वोत्कृष्टपने को प्राप्त हो वह सार कहलाता है । मुमुक्षु के सर्वोत्कृष्ट शरण्य प्राप्त अर्हत्परमदेव होने से वे समयसार है । सं सम्यक् वस्तु अयतां निश्चिन्वतां पूज्यत्वेन आप्तत्वेन सार: समयसार: । समयसार का अर्थ श्री सिद्ध भगवान भी है—समयसार शब्द के 3 भाग करिये समयसार सम याने समता भाव को य कहिये प्राप्त होने वाले (या प्रापणे) योगिराज को ध्येय होने से जो सार है वे सिद्ध परमात्मा हैं । यहाँ समयसार शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है—समंयाता प्राप्नुवतां ध्येयत्वेन सार: समयसार:। समयसार शब्द का अर्थ आचार्य परमेष्ठी है। इस अर्थ के लिये समयसार शब्द के 3 भाग करिये—सं अय सार—सं कहिये सम्यक् समिति गुप्ति पूर्वक, अय कहिये स्व में चलने वाले चारित्र पालन करने वाले साधुओं के दीक्षा शिक्षा पोषण आत्मसंस्कार आदि से उपकारक होने से जो सार हैं वे समयसार आचार्य परमेष्ठी हैं । सं सम्यक् समितिगुप्तिगर्भ अयतां साधूनां उपकारित्वेन सार: समयसार: । समयसार का अर्थ उपाध्याय परमेष्ठी भी है । इस अर्थ के लिये भी 3 भाग करिये—सं अय सार सम्यक प्रकार से वस्तुतत्त्व का निश्चय करते हैं भव्यजीव जिसके द्वारा, वह कहलाता है समय अर्थात् सिद्धांत । वह सिद्धांत पाया जाता है जिसके द्वारा उपाध्याय परमेष्ठी है ! सं सम्यक् याथातथ्यरूपेण अयंति निश्चिन्वन्ति भव्या येन भावेन शब्देन वा स समय: । समय स्रियते प्राप्यते येन विशुद्धात्मना स समयसार: । समयसार का अर्थ साधु परमेष्ठी भी है, इस प्रकरण में समयसार शब्द के 3 भाग करिये—समयसार मय कहिये आचरणों में सार है रत्नत्रय । उस रत्नत्रय के साथ जो वर्तते हैं वे समयसार साधुपरमेष्ठी है । समयसार शब्द की व्युत्पत्ति यहाँ इस प्रकार है—मयेषु सार: मयसार:, मयसारेण सह वर्तते इति समयसार: । समयसार शब्द का अर्थ रत्नत्रय भी है—इस अर्थ में समयसार शब्द के इस प्रकार भाग करिये—सं अय सार—सं का अर्थ सम्यक्त्व, अय का अर्थ ज्ञान और सार का अर्थ चारित्र है । सं सम्यक्त्वं, अय: ज्ञानं, सरणं, स्वस्मिन् चलनं चारित्रम् । इत्यादि प्रकार से समयसार के अर्थ परम आगम, चैतन्यस्वरूप, प्रकृति ग्रंथ, सहजसिद्धि आदि अनेक अर्थ व्युत्पत्तिपूर्वक निकलते हैं । इसका विशेष विवरण समयसार भाष्य में इसही मंगलाचरण के भाष्य में किया है, वहाँ से भी देख लेना अच्छा रहेगा । यह समयसार अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व यद्यपि परमशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से कर्त्ता भोक्ता आदि सर्व विकल्प से रहित है, उत्पाद व्यय की कल्पना से रहित है, तथापि बड़ी तत्त्व पर्याय सापेक्ष द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से उसकी सारी सृष्टियों का कर्ता है । जो अपने सृष्टिकर्ता को प्रसन्न कर लेगा अर्थात् निर्मल कर लेगा याने सर्व विकल्प पक्षों से परे परमपारिणामिक भाव रूप से उपयोग में विराजमान कर लेगा वह शिवसृष्टि में सर्जन पाकर परमशिवमय अचल अनुभूति का स्वामी होगा । मंगलाचरण के इस प्रथम श्लोक में आत्मा के शुद्धस्वरूप का वर्णन है, उसे नमस्कार, अंगीकार, स्वीकार किया है । समयसार के विकास सब समयसार-रुप हैं । समयसार के सब विकासों में, समयसार के सब प्रयोज्यों में समयसार शब्द निरुक्त्त्यर्थ से भी प्रवृत्त है । अब पूज्य श्री अमृतचन्द्रजी सूरि समयसार व्याख्यान से पहले अपने ग्रन्थ व्याख्या के उद्देश्य को भावनारूप से प्रकट करते हैं ।
कलश 3 पररिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषिताया: । मम परमविशुद्धि: शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूते: ।।
48. अ सरस्वती से आशीर्वाद ग्रहण—अनेकान्त ही मूर्ति जिसकी ऐसी सरस्वती अथवा बुद्धि नित्य ही प्रकाशमान हो । जो सरस्वती अथवा बुद्धि ज्ञप्ति अनन्त धर्मात्मक इस विभक्त विशुद्ध अपने स्वभाव रूप आत्मा के तत्त्व को दिखाता है । यह आत्मा सर्व से निराला है, अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में अस्तित्व को लिए हुये हैं । ऐसे आत्मा के तत्त्व को किसने बताया? इस सरस्वती ने, इस बुद्धि ने अथवा निमित्त दृष्टि से कह लो जिनवाणी ने । जीव का यदि ज्ञान विशुद्ध है तो उसे सब वैभव मिला । जब बुद्धि विपरीत होती है विषय कषायों की ओर मग्न होती है, अपने आपके स्वरूप को भूलकर इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले विषयों में विचरती है उस समय इस जीव की बरबादी है और इस जीव का संसार होता है। जब बुद्धि स्वच्छ होती है तो उस समय इसे प्रसन्नता रहती है । लोक में सब कुछ ज्ञान का ही माहात्म्य देखा जा रहा है । यद्यपि आज के युग में धन की महिमा बढ़ गई है लेकिन केवल धन से महिमा नहीं बढ़ी । धन के साथ-साथ उस पुरुष में जो उस योग्य बुद्धि है उससे उसकी महिमा बढ़ी है । उसमें धन भी एक विशेष कारण है और मान लो कोई धनिक पुरुष है और हो बुद्धिहीन तो वह धन की भी क्या रक्षा करेगा और लोग उसे बेवकूफ बनायेंगे, स्वयं शान्त न हो सकेगा । लोक में भी ज्ञान की महिमा है और परलोक के कार्य के लिए तो ज्ञान की ही महिमा है । यह ज्ञान विशुद्ध रहे तो उसे सब कुछ मिल गया । ज्ञान दृष्टि निर्मल हो तो उसे सब कुछ वैभव प्राप्त है, एक ज्ञान ही विपरीत हो जाय, पागल हो जाय दिमाग फिर जाय तो फिर उसका जीवन क्या और उसे शान्ति कहां ? तो यह भावना मानना चाहिये कि हे प्रभु ! मेरी बुद्धि स्वच्छ रहे, मेरा ज्ञान प्रकाशवान रहे । मेरा वह ज्ञान प्रकाशमान रहे जिसमें अनन्त धर्मात्मक इस विशुद्ध आत्मतत्त्व का बोध बना रहे इस आत्मा का दर्शन बना रहे । 48. ब ज्ञानमूर्ति के प्रसाद में शांति लाभ—भैया! बड़े-बड़े चक्री सर्व कुछ परित्याग करके वन में रहकर जो योग साधना करते हैं और प्रसन्न रहते हैं उनकी प्रसन्नता का कारण क्या है? यही कि वे आत्मदर्शन किया करते हैं । अपना प्रभु अपने को मिला हुआ हो फिर किसकी परवाह है? अपने आत्मा का प्रभु है विशुद्ध स्वरूप । वह जिसकी दृष्टि में हो उसको फिर क्या क्लेश? वह तो कृतार्थ है । तो सब कुछ विशुद्ध ज्ञान का प्रताप है । जो बड़ा है वह विशुद्ध ज्ञान के कारण बड़ा है । तीन लोक के इन्द्र सिद्ध प्रभु को अरहंत प्रभु को नमस्कार करते हैं, उनकी उपासना में जाते हैं, शरण गहते हैं, तो यह किसका प्रताप है? ज्ञान का। वे सर्वज्ञ हुये हैं, उनका ज्ञान अत्यन्त विकसित है, उस ज्ञान की ऐसी महिमा है कि वे निरन्तर तृप्त रहते हैं और सर्वलोक के द्वारा पूज्य कहलाते हैं । यहाँ योगियों को जो निरपेक्ष हैं, निष्काम हैं उनकी क्यों महिमा है? क्यों उनकी उपासना में लोग रहते हैं? इसीलिये कि उनका ज्ञान विशुद्ध है । हम आप यह ध्यान में रखें कि हमारा ज्ञान यदि अपने आत्मा के ज्ञानस्वरूप को छूता हुआ रहता है हम अपने आत्मतत्त्व के परिचय में रहते हैं तो हम वैभवशाली हैं अन्यथा यह तो पुद्गल का ढेर है, मकान, सोना, चांदी, रकम और सब कुछ पुद्गल का ढेर है ये सब कितने ही हो जायें पर उनसे शान्ति नहीं निकलती । शान्ति का स्रोत तो यह आत्मा है । शान्ति इस आत्मा से होगी बाहरी बातों से शान्ति प्रकट न होगी । तो यहाँ यह मंगल कामना की है आचार्य देव ने कि हमारी वह ज्ञप्ति जिसमें कि विशुद्ध सहज ज्ञानानन्दस्वरूप आत्म तत्त्व का दर्शन होता है वह नित्य ही प्रकाशमान होवे । 49. ग्रन्थ की व्याख्या करने का मूल प्रयोजन—टीकाकार इस ग्रन्थ की व्याख्या करने का अपना प्रयोजन दर्शाते हैं । इस समयसार की व्याख्या के द्वारा, उसकी अनुभूति से मेरे विशुद्धि प्रकट हो, अर्थात् इस ज्ञान साधना में, ज्ञानार्जन में मेरा उपयोग निरन्तर लगा रहे और उपयोग विशुद्ध हो तो क्या यह परिणति अभी अशुद्ध है जिससे विशुद्ध परिणति चाही जा रही है? हां कलुषित है, निरन्तर रागद्वेषादिक भावों की व्याप्ति से यह अनुभूति कलुषित है । अनुभूति सदा प्रत्येक जीव के रहती है, अनुभव बिना जीव न सुख भोग सकता न दुःख और न आनन्द, जो पर-परिणति का कारणभूत है ऐसा जो मोहनीय नाम का कर्म है उसके प्रभाव से, उसके उदय से निरन्तर यह अनुभूति कलुषित हो रही है । जब जीव है और ज्ञानस्वरूप है तो इसमें ज्ञान की वृत्ति तो चलेगी ही और ज्ञान की अनुभूति भी चलेगी, पर वह अनुभूति राग-द्वेष से कलुषित होकर क्लेश के लिये होती है और जब ज्ञानमात्र निज स्वरूप का अनुभव करते हैं तो यह अनुभूति आत्मा के आनन्द के लिये हैं । इस जीव का लक्ष्य होना चाहिये कि मेरा ज्ञान इतना विशुद्ध हो कि मैं अपने ज्ञानस्वरूप की सुधि न भूलूं ज्ञानानुभव के अतिरिक्त अन्य परिणतियों को अन्य बातों को व्यर्थ समझो । इस जगत में जितने भी समुदाय हैं, चेतन-अचेतन का प्रसंग है वे सब प्रलोभन हैं, जो इस चेतन-अचेतन के मोह में वशीभूत होते हैं वे अपने से गये, और जो अपने आत्म तत्त्व के दर्शन में रत रहते हैं, उसका लक्ष्य बनाये रहते हैं प्रसंगवश चाहे कहीं घूमने गये हों, कहीं उपयोग चल गया हो, तब भी वे अपने नियंत्रण में हैं । जैसे पतंग आकाश में कितने ही ऊंचे चली जाय लेकिन डोर हाथ में है तो पतंग वश में है, और जब डोर हाथ से छूट जाय तो पतंग वश में न रहेगी, इसी प्रकार आत्मश्रद्धा एक डोर है । जब तक आत्मश्रद्धा है तब तक उसके सुधरने का अवसर है, वह उन्नति कभी कर जायगा और आत्मश्रद्धा की डोर ही न रहे तो इसका उपयोग स्वच्छन्द भ्रमण करेगा । उस आत्मश्रद्धा के कारण हम स्वरक्षित हैं, अत: आत्मश्रद्धा में, आत्मप्रतीति में हम अपने उपयोग को यथाशक्ति लगायें । अपने को ऐसा अनुभव करेंगे कि मैं ज्ञातामात्र हूँ बस इस अनुभव में सब कुछ आ गया । जो विपदायें जो संकट अनेक श्रमों से भी नहीं हटाये जा सकते हैं वे सब संकट ज्ञानमात्र निज तत्त्व की श्रद्धा करने पर स्वत: ही हट जाते हैं । इस जीव का इस लोक में है कौन रक्षक? इसकी कौन भलाई करने वाला है? इसको कौन मदद दे सकता है? इस जीव का सहाई कोई नहीं है । केवल एक अपने आपको दृष्टि लक्ष्य निकट रहना यह वातावरण आन्तरिक बने तो यही हमारे लिये शरण है, इसी कारण यहाँ ज्ञानी अमृतचन्द्रजी सूरि महाराज कह रहे हैं कि हम इस समयसार की व्याख्या कह रहे हैं, इसके प्रसाद से मेरी अनुभूति में परमशुद्धि प्रकट होवे । 50. परमविशुद्धिपात्र अन्तस्तत्त्व—वह कैसा हूँ मैं जिसकी परमविशुद्धि चाही जा रही है? ‘‘शुद्धचिन्मात्रमूर्ते: ।’’ शुद्ध चैतन्यमात्र है मूर्ति जिसकी ऐसा मैं हूँ, सो यद्यपि ऐसा मैं हूँ तो भी जो ये अन्धेरा लग गया है उसकी निवृत्ति होवे । इस ग्रन्थ समयसार की व्याख्या के पूर्व पूज्याचार्य श्रीअमृतचन्द्र सूरि जी कहते हैं कि इस ग्रन्थ की व्याख्या से मेरी अनुभूति, परम विशुद्धि हो जावे । दुनियां के लोग चाहते हैं कि मैं हमेशा एकसा रहूँ। आप किसी से कहो कि हम तुझे दो दिन के लिये करोड़पति बनाये देते हैं, इसके बाद तुझे एक पैसा नहीं देंगे और वैसे ही निकाल देंगे तो वह कभी भी करोड़पति बनना स्वीकार नहीं करेगा । इसके बदले में वह एक छोटी सी दुकान को ही स्वीकार कर लेगा जो कि उसके पास कुछ स्थाई रहे । उसे वह भला समझता है अथवा आप किसी को छह महीने का राजा बना दें और उससे कहें कि हम इसके बाद तुझे जंगल में भगा देंगे तो वह व्यक्ति कभी इसे स्वीकार नहीं करेगा । वह भी आपसे इसके बदले में कोई छोटीसी याचना कर लेगा और उसी में अपने को सुखी समझेगा, क्योंकि वह वस्तु उसके पास हमेशा रहेगी—ऐसा उसका भाव है । इसी तरह हमारी आत्मा भी चाहती है कि मैं सदा स्वतंत्र (अकेला) रहूँ, सदा ध्रुव, निश्चल रहूँ । इसके लिये आप लोग अध्रुव की ओर दृष्टि मत दो । अपने को मत मानों कि मैं जैन हूँ खण्डेलवाल हूँ, अग्रवाल हूँ, पुरुष हूँ, स्त्री हूँ आदि । ये वास्तव में कुछ भी नहीं हैं किन्तु ये तो सब मोह की पर्यायें हैं । यदि वास्तव में आत्मा का कल्याण चाहना है तो इन बाह्य वस्तुओं को अपना मत मानों, इनमें ममत्व बुद्धि मत करो, इन्हें अपनाने की कोशिश मत करो, बाह्य बातों से अपना बड़प्पन मत समझों, ये जितनी भी वस्तुयें दिखती हैं उनसे तथा धन से, तथा सम्पत्ति से आत्मा बड़ा नहीं होता है, इन बाह्य चीजों से वैभव युक्त नहीं बनता है, किन्तु आत्मा का वैभव है ज्ञानानंदमय स्वयं आत्मा । जो जीव परवस्तुओं से अपने को बड़ा नहीं मानते वे ऐसा ही करते हैं और समस्त बाह्य वस्तुओं से अपनत्व भाव हटा लेते हैं, जिससे उनकी आत्मा का कल्याण हो । संसारी जीव को मोह का अन्धकार इतना लगा है कि वह अपने असली स्वभाव को भूल विभावरूप परिणम रहा है । उसे यह बोध ही नहीं है कि मेरा असली स्वभाव क्या है ? मैं वह हूँ जो ध्रुव हूँ, स्वत:सिद्ध हूँ । वह देह मैं नहीं हूँ। देह मेरी मूर्ति नहीं है, क्योंकि यह अध्रुव है, नैमित्तिक है, जड़ है । मैं तो चैतन्यस्वरूप हूँ, मेरी मूर्ति चैतन्यमात्र है जो की अमृत है, मेरा चैतन्यरूप देह कर्म से अत्यन्त पृथक् है । कर्म के उदय को निमित्त पाकर होने वाले विभावों से भी मेरा स्वरूप पृथक् है । मैं आधेय नहीं, किन्तु आधार मात्र हूँ । 51. खुद की निधि खुद न पा सकने का अंधेर है—अहो ! यह जगत अपने शाश्वत सहज स्वरूप को भुलाकर इन चर्मेन्द्रियों से देखता है कि यह मेरा है, अमुक मेरा है । शुद्ध ज्ञानमय एवं शुद्ध चैतन्यमात्र अपने को नहीं समझता, नहीं देखता । शुद्ध चैतन्यमात्र स्वरूप भगवान सिद्ध का है और शुद्ध चैतन्यमात्रस्वरूप हमारा भी है, किन्तु भगवान की परिणति मोहादिक से रहित हो चुकी है और ये अपने स्वरूप में परिणत हो चुके हैं । हमारी अवस्था अभी मलिन है, उसमें रागद्वेषों का सम्पर्क है । ज्ञानी पुरुष अपने इस अंधेर पर बड़ा आश्चर्य करता है । एक मीठा शांतिरूप गुस्सा करता है, अतीत उपेक्षा करता है । आप से अथवा किसी धनी, प्रतिष्ठित व्यक्ति से एक कोई छोटा आदमी कुछ छोटे वचन (अनादर के) कहता है तो आपको कितना क्रोध होता है क्योंकि आप अपने को बड़ा आदमी मानते हैं । आप सोचते हैं मेरी प्रतिष्ठा है, लोग मेरी इज्जत करते हैं सम्मानपूर्वक मुझे अभिवादन करते हैं, मैं तो ऐसा हूँ और यह मामूली हैसियत वाला व्यक्ति मेरा अनादर करे बड़ा अंधेर है; बस ऐसा विकल्प होते ही आपको बहुत क्रोध पैदा होता है । आपने इस पर तो क्रोध किया किन्तु क्या कभी आपने इस पर भी सोचा या क्रोध किया कि मैं तो भगवान की जाति का हूँ फिर यह क्या हो गया हूँ, इस संसार के माया मोह में यह कैसे हो गया, मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, मेरे स्वभाव में तो ऐब है ही नहीं, यह क्या अंधेर हो गया ! क्या आपने इस पर कभी विचार किया व इस अंधेर पर क्रोध किया? 52. आन्तरिक राग से हानि की अनिवार्यता—भैया ! जब तक आप लोगों की कोई प्रशंसा करता है तब तक आपकी उस पर कृपा रहती है, अपनी उदारता प्रकट करते हो, आपके शांत भाव रहते हैं, आप उसके अनुकूल रहते हैं, किन्तु वही व्यक्ति दूसरे दिन आपकी बुराई करने लगता है तो आप उसके खिलाफ हो जाते हैं, आपको उस पर क्रोध आ जाता है, इसका कारण है राग-द्वेष और अहंबुद्धि । वास्तव में पूछो तो प्रशंसा के समय भी आप उदार या शांत नहीं थे किन्तु तृष्णा का एवं सातानुभव का ही वह रूप था । यदि शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति निज परम-पारिणामिक भाव का लक्ष्य हो जावे तो उदारता व शांति अनुकूल प्रतिकूल समागम में भी रह सकती है । कई भाई कहते हैं कि सामायिक करते समय हमारे विचार एकाग्र नहीं रहते हमारे विचार दसों जगह जाते हैं, किन्तु जब हम दुकान पर रहते हैं तो हमारे भाव दुकान से बाहर नहीं जाते; इसलिये सामायिक करने से तो दुकान ही ठीक है क्योंकि दुकान में हमारे भाव एक जगह रहते हैं तो एक बन्ध होता है, किन्तु सामायिक में हमारे भाव दसों जगह का बन्ध करते हैं क्योंकि वे दसों जगह जाते हैं अत: सामायिक से भली तो दुकान है । किन्तु जो ऐसा कहते हैं यह उनकी भूल है । बंध तो दुकान पर भी दसों हो रहे थे, संसार तो सबका था और ऐसी सामायिक में भी दसों का बंध हो रहा है परन्तु सामायिक में फिर भी लगाम लगी है, दुर्भावों की शिथिलता है अथवा एक सुन्दर अवसर तो मिलता है कि जल्दी ही उससे उपेक्षा करके समता में आ सकते हैं । स्वत: वन्दन से अशुभोपयोग कम हो जाता है । सामायिक ने हमारे ऊपर बड़ी दया की है । उसने हमें यह बताया है कि तुम्हारे जो दस जगह भाव जाते हैं वही सबसे बड़ा दोष है । इसका सुधार करो यह सभी बातें सामायिक बताती है । अत: वह हमारी महान उपकारिका है । यदि अपना कल्याण चाहते हो तो इस अपने को कभी भी बड़ा मत मानो, इस अपने को उच्च मत मानों । 53. पूज्याचार्य की अनुभूतिशुद्धि की कामना—आचार्य अमृतचन्द्रजी सूरी कहते हैं कि मेरी परिणति मलिन है, अभी मेरी आत्मा मलिन है; अभी मैं रागीद्वेषी हूँ । तो आप विचार कीजिये, जो वीतरागमूर्ति हमारे लिये परमपूज्य, हमारे लिये उपास्य, हमारे आराध्य हैं वे आचार्य अपने लिये कहते हैं कि मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ, मैं मलिन हूँ । उनके राग द्वेष होगा तो सिर्फ यही कि जगत का कल्याण हो, दुर्भावों का विनाश हो, पंच गुरु का वंदन करते होंगे, स्तवन व आराधन करते होंगे, आदि शुभ उपयोग ही तो करते होंगे । फिर भी वे अपनी आत्मा को मलिन कह रहे हैं तो फिर हमारे और आपके बारे में तो न जाने कितना कहा जायगा । जरा त्रैराशिक तो लगाओ । भगवान ने कहा कि तुम अपने आत्मा का वास्तविक कल्याण करना चाहते हो तो दुनियां की चीजों से राग द्वेष छोड़ो और हम से भी राग छोड़ो तभी तुम्हारा उद्धार होगा अन्यथा नहीं । जिन पूज्य आत्माओं ने निज को शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति जान लिया है उन्हें उपकार भावना, वंदन, अनुराग आदि भी एक भार दिखता है । अहो ! भार तो यह भी है, यह भी दूर हो । अत्यन्त निर्मल परिणति का विकाश हो, श्री सूरि देव इस मलिनता की निवृत्ति भी चाह रहे हैं । आजकल मनुष्य दूसरे का अभ्युत्थान, दूसरे का ऐश्वर्य नहीं देख सकते, एक दूसरे के प्रति इतनी ईर्ष्या, और ईर्ष्या क्या रखते हैं, हमेशा उनका बुरा सोचते हैं कि अमुक को घाटा हो, यह मेरे समान न बन जावे आदि, किन्तु किसी के अनिष्ट व इष्ट चाहने से इष्ट व अनिष्ट नहीं होते, क्योंकि खुद के परिणमन से खुद को फल होता है । 54. द्रव्यशुद्धि, पर्यायशुद्धि की योग्यता व वर्तमान अविशुद्धि—यद्यपि मैं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ । द्रव्य में बिगाड़ नहीं है, प्रत्येक पदार्थ अपना सहज तत्त्व रखा करते हैं । किसी भी पदार्थ में मिलावट नहीं है । अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत हैं, और यही शुद्धता है । मैं चिन्मात्र हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ मुझमें भी यही विशुद्धि है, पर ऐसी विशुद्धि होने पर भी मोह नामक कर्म के उदय से मेरी रागादिक परिणति बनी हुई है और उससे अनुभूति बुद्धि कलुषित चल रही है । रागादिक को दूर करने का उसके यों मौका है कि उसको रागादिक का कर्म नहीं किया करते । कर्म तो नैमित्तिक हैं, उसके उदय सन्निधान में हम स्वयं अपनी परिणति से रागादिक रूप परिणमते हैं ऐसा यह निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध है और निमित्त-नैमित्तिक सम्बंध से भी कठिनाई पड़ती है कि हम विशुद्ध हो जायें, किन्तु यदि कोई पर कर्ता होता तो वहाँ कठिनाई की बात नहीं किन्तु असम्भव बन जाता । यद्यपि रागादिक से हटना अब भी कठिन लग रहा है, कषायों का उदय होता है, हम अपने आपको खो बैठते हैं, रागादिक भावों में लग जाते हैं । कठिन हो रहा है रागादिक का हटाना, किन्तु यदि कोई पर कर्ता होता, मेरी रागादिक परिणतियों को कोई पर किया करता होता तो वहाँ कठिनाई नहीं किन्तु असम्भव बात होती । हम रागादिक को हटा ही नहीं सकते थे । पर करने वाला है, कर रहा है और न करे तो उसकी मर्जी मगर उसकी मर्जी, हमारा उस पर क्या वश? तो पर कर्मोदय रागादिक का करने वाला नहीं किन्तु वह निमित्त है । परिणमन हैं हम स्वयं रागादिक रूप सा कठिन होने पर भी असम्भव नहीं है, सम्भव है कि ये रागादिक टल सकते हैं । रागादिक से हटने के लिये, अपने आपमें आने के लिए मुख्य रूप से हमारा यह काम है कि हम अपने उपयोग को विशुद्ध रखें, ज्ञान की साधना में उपयोग को रमाये रहें तो हमारी अनुभूति विशुद्ध हो सकती है । 55. अविशुद्धि की संभावना पर विचार—आत्मा में राग-द्वेष उत्पन्न होता है, उसका निमित्तकारण है पुद्गल कर्म का उदय । ये पुद्गलकर्म विरुद्ध स्वभाव वाले हैं और स्वभावविरुद्ध कार्य के निमित्त है । मोहनीय के अनुभव से आत्मा में निरंतर विभाव परिणतियां होती रहती हैं सो विचारों कि व्याख्याकार प्रभु में कौनसी मलिनता रह गई होगी और कौनसा मोहोदय होता रहता होगा । आजकल भैया, क्षायिकसम्यक्त्व तो उत्पन्न होता नहीं और न क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव इस पंचमकाल में उत्पन्न होते हैं तब इतनी बात तो सुनिश्चित है कि उनके क्षायिक सम्यक्त्व नहीं था, उपशम सम्यक्त्व में द्वितीयोपशम होता नहीं क्योंकि आजकल चारित्र मोहोपशम का उद्यम नहीं हो सकता याने श्रेणी नहीं चढ़ते । उसी के लिये द्वितीयोपशम होता है । प्रथमोपशमसम्यक्त्व का काल 2-1 सैकिन्ड का समझ लो और एक बार होकर दुबारा उनके हो नहीं सकता । तो फिर यही रहा कि वेदकसम्यक्त्व रहा आया, उसमें मिथ्यात्व, मिश्र, व अनंतानुबंधी 4 का उदयाभावी क्षय व अनागत इन्हीं छह का सदवस्थारूप उपशम व सम्यक्प्रकृति का उदय रहता है । इस सम्यक् प्रकृति के उदय से जो सूक्ष्म वचनागम्य मलिनता है उसका इन आचार्य प्रभु को खेद है अथवा जो चारित्रमोह का विपाक है उसका खेद है । आजकल मनुष्यों को अपनी परिस्थितियों पर इतना गर्व है कि वे अपने सामने अन्य लोगों को कुछ भी नहीं जानते । आजकल के आदमी त्यागी, व्रती, साधु, आचार्य आदि को भी बेचारे शब्द से कह बैठते हैं । बेचारे साधु बड़े सीधे हैं इत्यादि और आप बन जाते हैं सचारे । 56. निज स्वरूप के भावा बिना कल्याण का अभाव:—प्राचीन आचार्य जितने भी हुये हैं वे कोई गरीब नहीं थे कि निर्धनता के कारण साधु हो गये हों, वे प्राय: सभी धनी थे । कोई राजा का पुत्र तो कोई सेठ का, तो कोई मंत्री का । वे बड़े धनी थे, सो इस कारण अब महान् हैं यह बात नहीं । धनी हो या गरीब हो, निज की महिमा से ही उन्होंने अपनी आत्मा का असली स्वरूप जान करके जो आत्मीय आनन्द व प्रकाश पाया उससे वे महान् हैं । उन्होंने सारे जीवन की साधना से जो निचोड़ पाया वो इन महाग्रन्थों में भर दिया । किन्तु उन्हीं की संतान हम लोग हैं कि उनको देखने, सुनने का अवसर नहीं और न है उस ओर रुचि । उन्होंने जीवन में जो पाया और अनुभव किया सो हमारे लिये छोड़ गये किन्तु हम हैं कि तन, मन, धन खर्च किये बिना भी नहीं देखना चाहते । हमें फुरसत नहीं, हम जानना नहीं चाहते । सो भैया ! हम तो यही कहेंगे यदि ज्ञानोपासना में समय, उपयोग न दिया तो हम, आप लोग अपना जीवन व्यर्थ में खो रहे हैं । हम आपका जीवन सार्थक तभी जानेंगे जब आप चौबीस घन्टों में से कम से कम तीन घन्टे का भी समय इन बातों को जानने में, इनका अध्ययन करने में व्यतीत करोगे । कालचक्र आ रहा है अवस्था जा रही है लब्धि का सदुपयोग कर लीजिये । अलं विस्तरेण । 57. प्रसन्नता व विशुद्धि का मर्म—कल के प्रकरण में आचार्य अमृतचंद जी सूरि यह भावना गा रहे थे कि मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्रमूर्ति हूँ, किन्तु मेरी परिणति मोह कर्म के उदय का निमित्त पा करके मैली है, रागादिक स्वरूप हो रही है, इसलिये समयसार की व्याख्या, टीका से मेरी आत्मा रागादि भावरहित होकर शुद्ध हो यही मेरी कामना है । देखो भैया, द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि का कैसा संगम इस पद्य में किया है । मैं तो द्रव्यदृष्टि द्वारा पश्चात् अनुभव में आने योग्य शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ, परन्तु अवस्था तो वहीं मलिन है यह पर्याय दृष्टि से देखा । तब विश्राम के लिये कहते हैं कि रागादि व्याप्त अनुभूति की परम विशुद्धि होओ । यहाँ पर्यायदृष्टि का अर्थ पर्यायबुद्धि नहीं, किन्तु पर्याय की देखना है । आजकल आप किसी भी व्यक्ति से पूछिये कि आप प्रसन्न हैं तो वह आपको फौरन उत्तर देता है खूब प्रसन्न हैं । सब आपकी कृपा है; अभी-2 लड़के की शादी करनी है, यह सब वह अपने मोह के द्वारा जो विकल्प हैं उनका कारण पाकर ऐसा कह रहा है, वास्तव में वह अपनी आत्मा के स्वरूप को नहीं समझ सका है, और न जाना है आत्मा का कर्म । संस्कृत में प्रसन्न का अर्थ है निर्मल, तो प्रश्न कर्त्ता का अभिप्राय है कि आपकी आत्मा निर्मल है या नहीं? लेकिन उत्तरदाता कहता है कि सभी ठीक है, बच्चे की शादी करनी है याने वह आत्मा को मोहादिक से लिप्त बताता है याने उत्तर प्रश्न के विरुद्ध अप्रसन्नता का देता है । इसका कारण है कि जीव की परवस्तु में परिणति अधिक है और इसीलिये वह यथार्थ जानने में और अपना कल्याण करने में असमर्थ है । यह तो दृष्टि मोहियों की बात है, चारित्र मोहियों का भी मालिन्य चारित्र मोह के अनुरूप होता है । इसीलिये आचार्य देव इच्छा प्रकट कर रहे हैं कि मैं परम शुद्ध हो जाऊं । शुद्ध बनने के लिये अपनी आत्मा को विचारो, उसी का ध्यान करो । सिद्ध की दृष्टि से अथवा सिद्ध के ध्यान से तत्पश्चात् शुद्ध नहीं हो सकते, किन्तु विशुद्ध अवश्य होवोगे । सिद्ध तो हमारे शुद्ध होने से पूर्व होने वाले विशद्ध भाव में निमित्त शरण है, उनकी शुद्ध अवस्था को देख के हमारे भी यह भाव हो कि हम भी ऐसे ही पवित्र बनें । उन्हें देखकर हम शुद्ध बनने के उत्साही हो सकते हैं । शुद्ध की दृष्टि से जीव शुद्ध होता है और अशुद्ध की दृष्टि से जीव अशुद्ध होता है, सो निश्चय से जीव पर को नहीं देखता वो तो अपने को ही शुद्ध या अशुद्ध देखता है । 58. प्राकरणिक एक गहन समस्या—भैया ! यहाँ एक समस्या आ गई, अभी आप अपने भीतर देखो कि आप शुद्ध हैं या नहीं? यदि शुद्ध हो तो मोक्षमार्ग की आवश्यकता नहीं और यदि अशुद्ध हो तो वह अशुद्धता हमारी द्रव्य से हम में है तब कभी शुद्ध होने का अवसर ही नहीं आ सकता । समाधान—द्रव्य शुद्धता अब भी है, सो पर्यायशुद्धि के लिये इस शुद्धि को देखना है । तुम जिसे देखकर शुद्ध बन सकते हो सिद्ध भगवान हमारे लिये शुद्ध बनने में सहारे हैं कि उनके स्वरूप दर्शन से झट द्रव्य दृष्टि पर आ सकते हैं । भगवान हमें कुछ नहीं देते और न हम भगवान का कुछ करते हैं न तो हम भगवान की पूजा करते हैं, न आदर करते हैं । हम भगवान के बारे में जो कुछ भी करते हैं वह सब अपने लिये अपने आपमें करते हैं । हम भगवान का आदर नहीं करते किन्तु अपना आदर करते हैं । न भगवान की कोई निन्दा करता है किन्तु वह अपनी ही निन्दा करता । निश्चयत: न कोई भगवान को जानता है, और न भगवान ही किसी को निश्चय से जानते हैं । न आप भगवान को कुछ देते हैं और न भगवान ही हमको कुछ देते हैं । वह न आपका सुधार करता है और न कुछ बिगाड़ करता है । किन्तु निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध हमारे और भगवान के बीच में है । आप जो कुछ करते हो अपना ही परिणमन करते हो, भगवान की भक्ति से वैराग्य को प्रोत्साहन मिलता है, वैराग्य आनन्दमय है । और वह शुद्ध ज्ञान परिणमन है । ज्ञान और वैराग्य का आश्रय लिये बिना कभी भी शान्ति नहीं प्राप्त की जा सकती है संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं किंतु जिन कारणों से सुख मिलता है उन कारणों पर नहीं चलना चाहता है, और जो चाहता भी है वह बाह्य वस्तुओं के समागम से उनके विकल्पों के कारण उस मार्ग पर नहीं चल पाता । जैसे कोई व्यक्ति मार्ग में जा रहा है वहाँ जुआ हो रहा है और वह व्यक्ति मनबहलाव अथवा इस आशय से कि चार आठ आना पैसे आ जावेंगे तो दो चार दाव लगाता है और वह बराबर हारता जाता है, तब वह वहाँ से उठने की कोशिश करता है किन्तु अन्य लोग उसे उठने नहीं देते, कहते हैं कि बस इतना ही दम है आदि । इसी तरह यह जीव सुख के मार्ग पर जाना चाहता है किन्तु बाह्य वस्तुओं के समागमों से वह हट नहीं पाता । मोही मनुष्य अज्ञानरूपी अंधकार में पड़ा है, उसे अपने स्वरूप, अपने कल्याण का कुछ भी ध्यान नहीं है । 59. अल्पकाल की गलती का भी भयंकर परिणाम:—भैया ! एक सेकण्ड की गलती से यह प्राणी सत्तर कोडाकोडी सागर पर्यन्त संसार में रुलने का बेध करता है तो आप विचार करो कि इससे कितना बंध कर लिया होगा । सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर का समय कितना होता है सो देखो । एक करोड़सागर में एक करोड सागर का गुणा करो, जो लब्ध हो उतना एक कोड़ाकोड़ी सागर कहलाता है । ऐसे सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तक वे कर्म संसार में भ्रमण कराने को निमित्त होंगे । अब सागर देखो कितना होता है । कल्पना करो कि दो हजार कोश विस्तार वाला एक गोल गढ़ा है । उसमें उत्तम भोगभूमिज मेढ़े के वालों की कतरन जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके उसमें ठसाठस भरे जाय । फिर 100 वर्ष में बाल निकालने, जितने वर्षों में वे सब बाल निकल जाय उतने को तो व्यवहार पल्य कहते हैं । उत्तम भोगभूमि में बाल बहुत पतले होते हैं, उनसे आठ गुणे मोटे मध्यम भोगभूमि में और इससे आठ गुणे मोटे जघन्य भोगभूमि में और इससे आठ गुणे मोटे यहाँ के जीवों में है । इससे वहाँ का दृष्टांत रखा । देखो भैया ! यह तो हुआ व्यवहारपल्य का प्रमाण । इससे असंख्यात गुणा होता है उद्धारपल्य और उद्धारपल्य से असंख्यात गुणे समय का होता है अद्धापल्य । एक करोड़ अद्धापल्य में एक करोड़ अद्धापल्य का गुणा करके जो लब्ध हो उसे कहते हैं एक कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य; ऐसे दस कोड़ाकोड़ी अद्धापल्यों का एक सागर होता है । 60. भवभवबद्धकर्मनिर्जरण की भी सुगमता—देखो भैया, एक सेकण्ड की मलिनता में सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर तक की स्थिति के कर्म बंध जाते । किन्तु इससे कोई यह न समझ बैठे कि तब तो हम संसार से कभी नहीं निकल सकते, ऐसा सोचना ठीक नहीं । एक सेकेंड भी शुद्ध आत्मानुभव से अनेक भवों के संग्रहीत पाप नष्ट हो जाते हैं । इसलिये बाह्य समागम की संयोग बुद्धि छोड़कर आत्मध्यान करो । ये जितने भी बाह्य समागम हैं वे कोई भी साथ जाने वाले नहीं हैं, दुनियां में कोई भी शरण नहीं है, इस दुनियां में मेरा कोई भी नहीं है, ये विभाव स्वयं अशरण हैं, ये न मेरे शरण हैं न हितरूप हैं । इस तरह की भावना अपने मन में आवे । दुनियां में यदि कोई मेरा साथी है तो प्रसिद्ध सहजसिद्ध धर्म है । किसी तरह यह परिज्ञान करके निज स्वरूपमय धर्म का ज्ञान, श्रद्धान करके उसकी स्थिरता से धर्म की प्राप्ति करो । धर्म में अटल श्रद्धा, भक्ति रखो, ज्ञान प्राप्ति करो । इन बातों से फिर सहज ही सम्यग्दर्शन होगा और तुम्हारी आत्मा को शांति मिलेगी । कहीं धन कमाने से ही नहीं मिलेगा, पुण्य के उदय होने पर धन की उत्पत्ति होती है । आप कितना ही परिश्रम करो किन्तु धन उतना ही पैदा हो सकेगा जितना कि मिलना चाहिये; और धर्म करने पर अटूट धन की प्राप्ति होगी । यदि आप यह कहे कि मैं कमाता हूँ और सारे परिवार का पालन करता हूँ तो कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आपका धन जिसके कामों में आता है आप उनकी मुनीमी अथवा चौकीदारी करते हैं । विकल्प के व इसके अलावा आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं; आप सच्ची श्रद्धा धर्म में करो, पुण्य के प्रभाव से आपको लौकिक भी धन मिलेगा ही अन्त में अनुपम सहज आनन्द भी होगा । 61. लक्ष्यशुद्धि होने पर सहज सुविधायें—अहा समयसार जैसा अलौकिक ग्रन्थ अध्यात्म का जिसमें मर्म भरा पड़ है ऐसे अलौकिक मर्म की व्याख्या करने से बढ़कर और कौनसा काम होगा जो हमारे इस पर में जाते हुये उपयोग को पर से हटाकर अपने में लगा दे । पूज्य श्री अमृतचन्द्र जी सूरि समयसार की व्याख्या के द्वारा अपने आपमें यह चाह रहे हैं कि मेरी अनुभूति परम विशुद्धि को प्राप्त होवे । आत्मकल्याण की यदि अन्दर से वांछा हुई है तो ऐसे आत्मकल्याण के इच्छुक 10, 20, 50 नहीं, हजार भी साथ हैं, तो चूंकि लक्ष्य उनका एक है अत: कोई न विसम्वाद होता न उसमें हठ का प्रसंग होता, और यही कारण था कि एक आचार्य के संग में ऐसे हजारों साधु रहा करते थे, उन सबका लक्ष्य एक था और अपने आप ही अपने उस लक्ष्य के कारण अपने में प्रभावित सबकी एकसी कला, एक ही वांछा रहती थी । ऐसा वातावरण एक दूसरे को प्रेरणा करने वाला होता है, हृदय से हम अपना यह लक्ष्य सही बना ले कि मुझे और कुछ न चाहिये, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । इस प्रकार का अनुभव मिले, ज्ञानरूप ज्ञान की परिणति बने, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं इष्ट है और न कुछ प्राप्तव्य है, ऐसा अन्तर में लक्ष्य बना ले । चाहे हम उस लक्ष्य की पूर्ति में कभी भी सफल हों, पर ऐसा लक्ष्य होने पर हम अपने आपको इस ओर जब चाहे लगा सकते हैं । 62. असार में बुद्धि जोड़ने का अविवेक—भैया अन्य बातों में सार क्या रखा है ? जैसे भोजन आदि के प्रसंग बहुत रसीला स्वादिष्ट भोजन हो, तो इसमें क्या सार रखा है? अथवा आराम के प्रसंग, उनमें क्या सार रखा है, । सारभूत तो आत्मा का सही परिणाम है । मैं आत्मा हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, मैं ज्ञानमात्र हूँ, अकिंचन हूँ किसी पर में मेरा लगाव नहीं है, अपने ही सत्त्व से हूँ तब किसी पर द्रव्य से मेरा लाभ नहीं किसी पर द्रव्य से मेरी हानि नहीं । मैं अपने को अपनी परिणति बनाकर लाभ हानि में रखा करता हूँ तब किसी अन्य से मेरा कुछ सम्बंध नहीं तब अन्य से मैं बड़प्पन मानूं अपना हित मानूं यह विवेक कैसे कहा जा सकता है मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, केवल ज्ञानरूप हूँ, ऐसा अपने आपमें परिणाम हों यही अमृतपान है, लोग कहते हैं कि अमृत पीने से अमर हो जाते हैं, वह अमृत और क्या है? ज्ञानदृष्टि ही वास्तविक अमृत है क्योंकि इस द्रष्टा के कुछ भय नहीं रहता, न मरण का भय है न इस लोक का भय है, मरण हो गया अर्थात् इस भूख से चले गये, इन परिजनों को छोड़कर चल दिया तो चल दिया, ज्ञानी को विषाद नहीं होता । अज्ञानी को विषाद होता है कि इतने दिनों का परिचय, ऐसे हमारे दिली मित्र, ऐसा मेरा बड़े श्रम से जोड़ा हुआ द्रव्य देखो सब एक साथ छूटा जा रहा हे जहाँ ज्ञानी यह निरख रहा है कि मेरा तो वैभव स्वरूप सब कुछ ज्ञान ही है । यह चेतन अचेतन पदार्थों का समुदाय जो है यह मेरा न कुछ हैं न था और न होगा तो छोड़ने का क्या प्रसंग, क्या विषाद? मैं जो हूँ सो पूरा का पूरा जा रहा हूँ, जो कुछ मैं न था वह सब जहाँ का तहां रह जाता है मेरे साथ नहीं जाता है । तो वस्तु के शुद्ध स्वरूप के परिचय में इस जीव को क्लेश नहीं है । 63. निर्मलता में ही धीरता व प्रसन्नता का अभ्युदय—हम आपका मन नहीं लगता उसका कारण क्या है? हम अपने आपके आत्मा की सुधि करने वाले उपायों में नहीं लगते । स्वाध्याय किया जाता हो । अपने उपयोग विशुद्धि के लिये कुछ लिखा भी जा रहा हो, कुछ विशुद्ध भावना से परस्पर चर्चा भी की जा रही हो, यदि ऐसी ज्ञानसाधना में जुटा जाय तो फिर अपना उपयोग प्रसन्न रहता है । प्रसन्न मायने निर्मल, मौज मानने का इसमें अर्थ नहीं है प्रसन्न शब्द में मौज मानने का अर्थ भरा ही नहीं हैं निर्मल होने का नाम प्रसन्न है । निर्मल में एक बिल क्षण मुस्कान आती है तो बाहरी लोग उस मुस्कान को निरखकर मौज कहते हैं पर प्रसन्नता का फलित अर्थ है आनन्दमग्न होना, निर्मल होना तो मैं आत्मा जो अब रागादिक की व्याप्ति से कलुषित हूँ सो अब इस विशुद्ध भावना से मैं प्रसन्न होऊं’’ अर्थात् निर्मल होऊं । ऐसा टीकाकार पूज्य श्री अमृत चन्द्र जी सूरि भावना करते हैं । जिस बात को एक ज्ञानी चाहे उसी बात को दो चार ज्ञानी चाहे समागम भी है तो उसको अपनी बात प्रकट करने में संकोच नहीं है, उत्साह है, ऐसा जब आचार्य ऋषि संतों का स्थान-स्थान पर समागम रहता था तो वह सब वातावरण एक विशुद्ध होता था । खुद में प्रसन्नता है तो वास्तविक प्रसन्नता है और खुद में निर्मलता नहीं तो कुछ इष्ट पदार्थों के रहने से जो प्रसन्नता बनायी जाती है उसमें क्या बल रहता है? आत्मसंतोष नहीं होता है । अपना आत्मा विशुद्धि की ओर बढ़े उससे जो तृप्ति होती है वह है वास्तविक कमाई । और तृप्ति । 64. इष्ट समागम भी परिणाम-विशुद्धि का उपचरित फल है:—एक किंवदन्ती है उसमें तथ्य तर्कणा न कर आप उसे सुने और अन्त में रहस्य देखें । एक बार ब्रह्मा तकदीर बांट रहा था । एक लड़के की तकदीर में लिख रहा था एक काला घोड़ा और पांच रुपये । इतने में वहाँ से एक साधुजी निकले, उन्होंने ब्रह्या से पूछा क्या कर रहे हो? तव ब्रह्मा बोले तकदीर बना रहा हूँ, इस लड़के को करोड़पति के घर भेज रहा है लेकिन इसकी तकदीर में एक काला घोड़ा और 5 रुपये लिख रहा हूँ जो कि हमेशा इसके पास रहेंगे । तब साधु बोला इसके साथ ऐसा अन्याय मत कर, इसकी, तकदीर ऐसी मत बनाओ लेकिन ब्रह्मा ने एक न सुनी । तब साधु बोला आप भी तकदीर बनाओ मैं भी इसका आनन्द आपको बताऊंगा । इतना कह के चला गया । 12 वर्ष तक साधु बाहर घूमता रहा । इधर बालक 12 वर्ष का हुआ तो उसकी सारी जायदाद नष्ट होने लगा और कुछ ही दिनों में सब बिक जाने के पश्चात् उसके पास वह काला घोड़ा और 5 रुपये शेष रहे । इतने में साधु जी लड़के के पास आये और बोले मैं तुम्हें जैसे कहूँ तुम वैसा करो । लड़के ने साधु से कहा आप जो आज्ञा दे वही करूंगा । साधु ने कहा कि घोड़े को बाजार में बेच आओ और इससे जो दाम आवें उनमें ये 5 रुपये मिलाकर अच्छा भोजन लाओ और वह बांट दो । लड़के ने ऐसा ही किया । तव ब्रह्मा ने उस लड़के को दूसरा घोड़ा और 5 रुपये दूसरे दिन भेज दिये किन्तु साधु ने दूसरे दिन फिर ऐसा ही कराया । इस तरह जब 20-25 दिन व्यतीत हुवे और ब्रह्मा परेशान हो गया तो वह साधु के पास आकर बोला तुम क्या करवाते हो? तो साधु बोला मैंने आप से पहले ही कहा था कि आप उसकी तकदीर में ऐसा मत लिखो । ब्रह्मा बोला जैसा तुम कहोगे वैसा ही कर दूंगा, तो साधु ने कहा कि इसे वही करोड़पति बना दीजिये ! ब्रह्मा ने वैसा ही किया । कहने का उद्देश्य है कि आपका जितना पुण्य प्रताप होगा आपको उसके अनुसार ही धन सम्पत्ति ऐश्वर्य आदि मिलेंगे । तब क्या करना ? दुनियां कही भी जावे लेकिन तुम अपना एक उद्देश्य बना लो कि हमें तो अपनी निर्विकल्प स्थिति बनाना है, आत्मा की शुद्धि करना है, उसी में हमारा कल्याण है, क्योंकि विकल्पों से अतिरिक्त दु:ख और कुछ नहीं है । भैया ! सुबुद्धि के बाधक प्रबल-प्रबल कारण प्राय: लोगो के लगे हैं, एक तो संगति अच्छी नहीं है, संगति है तो मोही, मायावी, अभिमानी लोगों की । और, दूसरे ज्ञानाभ्यास की ओर उतना उपयोग नहीं । यदि जीवों को ये दोनों बातें डटकर,-2 सत्साधन मिल जाये तो जल्दी यह आत्मा अपने ब्रह्म नाम को सार्थक कर लेगा । ब्रह्म नाम बढने का है, जो अपने गुणों से बढे उसे ब्रह्म कहते हैं । स्वगुणैबृर्हतीति ब्रह्म । उन्नति के सत्साधन ये हैं—1 सत्संगति और दूसरा ज्ञानाभ्यास, परन्तु जगत तो प्राय: मोही है और अज्ञानियों से भरा है । अच्छा भरा रहने दो । जो मुमुक्षु हैं वे तो ज्ञानियों की गोष्ठी में रहें और ज्ञानाभ्यास का यत्न करे । 65. आत्महित में प्रमाद—आजकल लोग धर्म करना नहीं चाहते हैं । सभी सांसारिक कार्यों में ही आनंदित हैं, उन्हें यहाँ से फुरसत ही नहीं है कि वे स्वर्ग और मोक्ष की और जाने का प्रयत्न करे याने वे स्वर्ग जाना नहीं चाहते । एक कथा है उसके तथ्य, अतथ्य पर न जावें, मतलब पर जावें । एक बार नारद घूमने निकले तो सबसे पहले वे नरक में पहुँचे किन्तु वहाँ खड़े होने तक को जगह न थी तब वे वहाँ से चलकर स्वर्ग में गये; वहाँ पर विष्णु के सिवाय कोई भी नहीं था सारा स्वर्ग खाली तब नारद बोले कि विष्णु तुम बहुत पक्षपाती हो देखो कही तो तुमने इतने आदमी भेज दिये कि मुझे खड़े होने को जगह नहीं मिली और कही पर तुमने एक भी आदमी नहीं भेजा । तब विष्णु बोले भाई हम तो आदमियों को स्वर्ग में लाना चाहते हैं किन्तु कोई आना नहीं चाहता, हम क्या करे । नारद बोले आप हमें आज्ञा प्रदान करो हम आपके स्वर्ग को भर देवेंगे । विष्णु ने कहा ठीक है । तब नारद मध्यलोक में आकर एक वृद्ध लकड़ी टेकता जा रहा था उससे बोले भाई तुम स्वर्ग में चलोगे हम तुम्हें मारने के लिये मिले, जाओ हम नहीं जाना चाहते । इस तरह नारद युवक से लेकर बच्चों तक हो आये लेकिन स्वर्ग जाने को कोई तैयार नहीं हुआ तब एक 18 वर्ष का बालक तिलक लगाये मन्दिर में माला फेर रहा था, सोचा यह तो अवश्य चल सकेगा । नारद ने उससे भी कहा तो बोला मैं तैयार हूँ स्वर्ग चलने को, अभी हमारी सगाई हुई है शादी हो जाने दो । फिर आया वहाँ दो वर्ष बाद जब तक उसके बच्चा हो गया । नारद बोले चलो । गृहस्थ ने कहा बच्चा बड़ा होने दो । आखिर वह बूढ़ा हो गया । नारद फिर आया तो कहा—हमने बड़े परिश्रम से इतना धन कमाया और ये पुत्र कपूत निकले सो धन की रक्षा करता हूँ । आप मेरे मरने के बाद परभव में आना । वह मरकर जहाँ उसका धन गढ़ा था सांप हो गया । नारद फिर भी आया तो फन उठा कर संकेत किया, कपूत धन बरबाद कर देंगे सो हम तो अब रक्षा कर रहे हैं फुरसत नहीं । तव नारद स्वर्ग में जाकर बोला कि आपने ठीक कहा है कि स्वर्ग में कोई आना नहीं चाहता । भैया आप लोग अपने परिणामों को निर्मल बनाकर अपना स्वर्ग यहीं बना लो । स्वर्ग तो लोगों ने ऊंचा चढ़ा रखा है, सुख तो ज्ञान व संयम में है । ज्ञान और सत्संगति से आत्मा का कल्याण होगा, इसलिये हमेशा ज्ञान की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहो । 66. मूलत: किसी का किसी अन्य से विरोध का अभाव—किसी जीव का किसी दूसरे जीव से कुछ विरोध नहीं, सबकी अपनी-अपनी योग्यतायें हैं, सभी अपना-अपना हित चाहते हैं । जिसे जिस बात में जैसी परिणति में अपना हित रुचा वह उस प्रकार की अपनी परिणति करता है विरोधी कौन है ? वस्तुत: कोई किसी का विरोधी नहीं है, जहाँ इतना तेज विरोध भी दिख रहा है एक देश दूसरे देश पर हमला करना चाहता है, दूसरे देश को हड़प लेना चाहता है, इतना तेज प्रसंग होने पर भी विरोध के कारण वह देश दूसरे देश को हड़पना नहीं चाहता, किन्तु उस देश की कुछ कामना है, कुछ नीतियाँ हैं पोषण समझता है हमला करने, इलाज में कोई देश अथवा कोई राजा किसी अनपराध को भी दबाये तो उसमें भी एक बड़प्पन चाहने का आशय है, कोई विरोध की बात नहीं है । यहाँ भी यदि कोई गाली देता है, निन्दा करता है तो वह विरोध के कारण नहीं अपने ही किसी राग के कारण करता है । जैसा भी उसने समझ रखा हो, जैसा भी राग बना रखा हो, उस राग के अनुसार अपनी चेष्टा कर रहा है । गाली देने वाला मेरे विरोध के कारण मुझे गाली नहीं देता । जब वस्तु के ऐसे स्वतंत्र महत्त्व का भान होता है तो अनुभव की विशुद्धि जगती है । जीव मात्र से वात्सल्य प्रकट होता है । 67. सर्वत्र सम्यग्दर्शन की महिमा—प्रत्येक जीव ज्ञानानन्द स्वरूप है । एक शरीर में फंसे हैं, देह का बन्धन है, जन्म मरण की परम्परा में झुलस रहे हैं इतने पर भी जीवों का स्वरूप सबका वही है जो मेरा है । जो मैं हूँ सो ही आप हैं, जो मैं हूँ सो ही सब जीव हैं, जो मैं हूँ सो ही भगवान हैं, जहाँ सब जीवों के साथ हमारी समता पायी जाती है वहाँ कुछ विरोध का भाव रखना यह अज्ञानवश होता है और अज्ञानवश होकर भी विरोध के कारण विपरीत परिणति नहीं कर रहा वह, किन्तु अपने ही राग के कारण अपनी ही सुख शान्ति के लिए वह परिणति कर रहा है, ऐसा जानकर प्रत्येक जीव से इतना हेलमेल हो, इतना निकटवर्तित्व हो किसी भी जीवों का वह चैतन्य स्वरूप हमारी दृष्टि में आये । समयसार की व्याख्या में ये ही वृत्तियां तो जगेगी और अपने आपके उस अभेद ज्ञानस्वरूप को निरखकर उसमें मग्नता का यत्न होगा । ये सब बातें इस विशुद्ध उपयोग में बनेंगी ही, तो ऐसी परिपूर्ण समता के साथ समयसार कीं व्याख्या करते हुये अमृतचन्द्र सूरि अपना आशय बता रहे हैं । हम आपका भी यह कर्तव्य है कि अपना उपयोग विशुद्ध रखने के लिए ऐसे साधनों को अपनायें कि जिससे अविशुद्धता की पाप की वृत्ति न जग सके । मैं जगत में एक ही हूँ, अकेला ही हूँ, इस प्रकार का जो अपने आपमें भान हो तो उसकी बुद्धि निर्मल होगी और संकटों से छूटने में उसकी रुचि बढ़ेगी । ऐसे उपयोग साधन हमारे जुटें जिससे हमारी अनुभूति उत्तरोत्तर निर्मल हो, कर्मकलंकों को काटकर एक विशुद्ध ज्ञानधारा में अपने को एक में करके और निर्विकल्प होकर विशुद्ध प्रभुवत् आनन्द का स्वाद लें । अब इसके बाद ग्रन्थ शुरु होगा । 68. समयप्राभृत प्रवचन—अब सूत्र का अवतरण होता है । यहाँ सूत्र से मतलब भगवान् कुंदकुंद विरचित समयप्राभृत की गाथाओं से है । ये गाथायें सूत्ररूप है । क्योंकि, थोड़े ही अक्षरों से असंदिग्ध और बहुत अर्थ निकलता तथा इन गाथाओं में से कई गाथायें श्री श्रुतकेवली गौतम गणधर आदि सभी के मुख से निर्गत उदाहरण की गयी हैं । भगवत्कुंदकुंददेव ने उन गाथाओं को भी पूज्य होने से बीच में रख दी है । ये समस्त गाथायें परमोपास्य है अत: इनका अवतार होता है । महा विनय से श्रीमत्पूज्य अमृतचंद्रजी सूरि कहते हैं—वह सूत्र इस प्रकार है:—
वोच्छामि समयपाहुमिणमो सुदकेवलीभणिदम् ।।1।।
69. ग्रंथकर्त्ता और उनका संकल्प—पूज्य आचार्य कुंदकुंद स्वामी कहते हैं, ध्रुव अचल और अनुपम गति को प्राप्त जो सिद्ध भगवान हैं उनको नमस्कार करके इस समयसार को कहूंगा । कोई प्रश्न करता है, सोचता है कि आचार्य जी ने अभी ग्रंथ तो बनाया नहीं है किंतु वे कहते हैं कि इस समयसार को कहूंगा, तो वह कौनसा समयसार है? उत्तर है कि उसका उन्हें पूर्ण ज्ञान है जो वे कहना चाहते हैं । इस ग्रंथ के कर्त्ता इस काल के अलौकिक महर्षि थे । आचार्य श्री कुंदकुंद जी का बाल्य जीवन धर्म से कितना ओतप्रोत था कि वे 11 वर्ष की आयु में ही मुनि हो गये थे । अब आप विचारों कि बालक का वह रूप उस समय कितना सुहावना लगता होगा । भगवान कुंदकुंद जब छोटी अवस्था में थे तब उनकी माता उन्हें झूले में झुलाती हुई लोरिया गाती थीं, उनसे कहती थी कि—शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि संसारमायापरिवर्जितोऽसि । संसारस्वप्नं त्यजमोहनिद्रां श्री कुंदकुंद जननीदमूचे ।। हे कुंदकुंद ! तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, और तू निरंजन है । जो माता अपने पुत्र को ये आशीर्वाद देवे उसके ज्ञान का क्या ठिकाना है । कुंदकुंद जी की माता सभी जानती थीं तभी वह कहती हैं कि हे बेटा! तू शुद्ध, बुद्ध निरंजन है । उन्हें द्रव्यदृष्टि की परख थी । वे श्री कुंदकुंद शिशु से जिस वाच्य से संबोधन कर रही हैं उसे सहजदृष्टि से देख रही हैं । वे जानती थीं कि यह आत्मा मेरी ही भांति पर्याय से मलिन है । यदि बालक पर्याय से शुद्ध है तो फिर उपदेश ही क्यों? और यदि द्रव्य से अशुद्ध है तो भी उपदेश क्यों ? हे बालक! तू द्रव्य से शुद्ध, पर से भिन्न और अपने स्वभाव में तन्मय है, बुद्ध अर्थात् ज्ञान स्वरूप है । सर्व कर्ममलरूप अंजन से रहित है । यदि स्वभाव निरंजन न हो तो निरंजन पर्याय भी नहीं हो सकेगी। देखो भैया ! माता किस दृष्टि से पुत्र को निहार रही है । अपने पुत्र का जो सच्चा हित चाहता होगा वही अपने पुत्र को इस प्रकार का उपदेश देगा । आज आप हमें बता दीजिये कि कौनसी माता पिता अपने पुत्रों का असली हित चाहते हैं । आज के माता पिता तो उन्हें संसार के माया मोह में फंसाना चाहते हैं । यह कोई नहीं कहते कि तू अपने स्वरूप को अपनी आत्मा के भाव को सम्हाल, तू संसार से अलग है । 70. जीव के साथ का बंधन—आप ही बता दो कि आप अभी मंदिर में आये हो किंतु यहाँ पर क्या दुकान साथ में चिपकी है, या घर साथ में चिपका है? नहीं, किंतु तुम अपने आप इन्हें अपने से चिपकाना चाहते हो । कुंदकुंद जी से कह रही हैं कि हे कुंदकुंद ! तू इस संसार की माया से अलग है, तू इस संसार की मोह माया को छोड़ दे, क्योंकि जब तक इस संसार की मोह निद्रा में फंसे हो और स्वयं देख रहे हो तभी तक यह सब कुछ है । स्वप्न में प्राणी देखता है और कहता है—यह मेरा है, किंतु स्वप्न के नाश होने पर तुम्हारा कुछ भी नहीं है । इसलिये, संसार-स्वप्न त्यज मोहनिद्रा, संसाररूपी स्वप्न की मोहनिद्रा को छोड़ो उसी में कल्याण है । एक कथा है-एक ब्राह्मण था उसे रात्रि में स्वप्न आया कि राजा मुझ पर प्रसन्न हो गया है और उसने मुझे अच्छी-2 सौ गायें इनाम में दी हैं । इतने में ही एक सौदागर आ गया और उसने कहा मुझे 10 गायें चाहिये सो इनकी कीमत बताओ, वह ब्राह्मण बोला 100) एक गाय की कीमत है, सौदागर ने कहा 25) रुपये, इस तरह कमते बढ़ते ब्राह्मण 70) रुपये से कम नहीं हुआ और सौदागर 50) से अधिक देने को तैयार नहीं हुआ, यह सारी क्रियायें स्वप्न में ही हो गई, इतने में ही जोर की तानातानी गरम बहस हुई और उस ब्राह्मण की आंख खुल गई । आंख खुलने पर उसे वहाँ कुछ भी दिखाई नहीं दिया तब वह जल्दी से आंखें बंद करके बोला अच्छा भाई लाओ 50) 50) ही सही । तो क्या इस प्रकार आंख बंद करने से कुछ मिल सकता है? यथार्थ में देखो तो यह कुछ भी नहीं है किंतु सब सांसारिक विकल्प है । यदि सही आत्मकल्याण करना है तो ध्रुव निज आत्मा का ध्यान करो । 71. ग्रंथकर्ता की महिमा—आचार्य कुंदकुंद स्वामी अपनी आत्मा में इतने लीन हो गये कि उन्हें सारा अध्यात्मशास्त्र आने लगा । एक बार जब वे सीमंधर स्वामी का ध्यान कर रहे थे तो वे ध्यान में इतने लीन हो गये कि उन्हें अपनी कुछ भी सुध न रही केवल सीमंधर देवाय नम: के स्वर हुये, उधर सीमंधर स्वामी के समोशरण में बैठे हुये लोगों ने आशीर्वाद सुना । सब लोग आश्चर्य में पड़ गये, देव को जब यह मालुम हुआ कि पंचमकाल के उत्कृष्ट आचार्य कुंदकुंद भगवान श्री सीमंधरजी का ध्यान कर रहे हैं तो यह आचार्य कुंदकुंदजी के पास आकर कहने लगा कि स्वामी! मैं आपको भगवान सीमंधर स्वामी के समोशरण में ले चलूं और देव आचार्य श्री को समोशरण में ले गया । वहाँ के मनुष्यों की ऊंचाई 500 धनुष प्रमाण थी । वहाँ के चक्रवर्ती ने आचार्य कुंदकुंद स्वामी को अपनी हथेली पर रखकर समोशरण में वहाँ पूछा कि हे प्रभो! यह कौनसा प्राणी है? बाद में ज्ञात हुआ कि यह तो बहुत बड़े आचार्य हैं । इसके बाद आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी जी ने 8 दिन उपवासादि करके भगवान के दर्शन व ध्वनि से अपनी आत्मा को शुद्ध किया और बाद में इस ग्रंथराज की रचना की । किंतु खेद है कि ऐसे महान् ऋषि द्वारा प्रणीत यह महान् ग्रंथ जिसका शुद्ध मन से स्मरण करनेपर जीव का कल्याण होता है उस ग्रंथ को सुनने की प्राय: इच्छा नहीं है और न अवकाश है । आप लोग तो रात-दिन लक्ष्मी की आराधना में लगे हो, उसी के गुलाम बने हो, यह ध्यान नहीं है कि मेरा हित हो रहा है या अहित । 72. सिद्धत्व—इस ग्रंथ का यह मंगलाचरण है उसके प्रथम चरणद्वय में नमस्कार किया है । और द्वितीय चरणद्वय में उद्देश्य विधेय बताया है । इसमें आचार्यश्री ने पूर्वार्द्ध में सर्व सिद्धों को नमस्कार किया है । एक तो अनादिसिद्ध, और दूसरे कर्मक्षयसिद्ध । कर्मक्षयसिद्ध लोक के अग्रभाग में स्थित हैं । अनादि सिद्ध सभी आत्मा हैं । परंतु अनादि सिद्धता का भोग नहीं होता । हां अनादि सिद्ध शुद्ध आत्मतत्त्व का लक्ष्य व आश्रयरूप अवलंबन उत्तम सुभोग है । तुम भी अपना आत्मा को देखो जो सहज है, अनादिमुक्त है । तुम भी द्रव्यदृष्टि से अनादिमुक्त हो किंतु अपने को सर्वथा-2 मुक्त मत समझ लेना, नहीं तो बड़ा अनर्थ हो जायगा । अनादिमुक्त के अवलंबन से कैवल्य प्रकट होवेगा । प्रभु मुक्ति कन्या के वरण की अपूर्व बात सुना रहे हैं, जिसमें सब सिद्धों को नमस्कार किया है । यहाँ किसी की बारात जाती है और उसे यह मालुम पड़ जावे कि लड़की वाला बहुत परेशान करेगा तो वह बाराती छांट-2 कर चुनेगा, कुछ तो ऐसे कि यदि हाथापाई का अवसर आवे तो ये काम आवे और बुद्धि के लिये बुड्ढो की आवश्यकता पड़ने पर बुड्ढे; इस तरह वह हर तरह के आदमी छांट कर ले जाता है और अधिक से अधिक ले जाता है । तो आप विचारो कि जो साक्षात् मुक्तिरूपी कन्या से वरण करने व उसकी चर्चा करने जा रहा हो तो उसे कैसे बराती चाहिये । उसके लिये आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी ने कहा है सब सिद्ध । 73. सिद्धप्रभु की द्रव्य और पर्याय दोनों से निर्मलता—द्रव्य की निर्मलता ध्येय है तो पर्याय की निर्मलता व्यक्त ध्यान फल है । जीव के हित की चरम अवस्था सिद्ध पर्याय है, सो सब सिद्धों को नमस्कार किया है अथवा श्री आचार्य कुंदकुंद देव ने ऐसा शब्द कहा है कि जो दोनों जगह में घटित होता है । अर्थात् द्रव्य ध्रुव, अचल, अनुपम स्वरूप को प्राप्त है और सिद्ध पर्याय ध्रुव अचल अनुपम अवस्था को प्राप्त है। जो सिद्धत्व पर्याय में घटित होता है वे द्रव्य में भी घटित होता है । आगे वे कहते हैं कैसे हैं वे सिद्ध, जिन्होंने ध्रुव अचल और अनुपमगति को पाई है; ऐसे सर्वसिद्धों को नमस्कार है । सिद्ध अवस्था ध्रुव है, अनंतानंत काल तक यही रहेगी तथा अचल है, अपने प्रवाह में कभी भी चलितता नहीं होगी। कुछ जनों का ऐसा भ्रम है कि भगवान की आराधना करने पर हम मुक्त हो जाते हैं और भगवान जब कभी अंगड़ाई वगैरा लेता है तो फिर हम सब नीचे गिर पड़ते हैं । किंतु जैन सिद्धांत याने वास्तविकता में ऐसा नहीं है । जीव को अपने भले के लिये ऐसे स्थान पर पहुंचना है जहाँ पर कुछ भी क्षोभ न हो । द्रव्यदृष्टि से स्वयं को देखो अहो यह तो चैतन्यमात्र है, मैं न मनुष्य हूँ न अग्रवाल परिवार आदि हूँ न गृहस्थ हूँ, न त्यागी हूँ । बड़े-2 मुनिराज भी अपने में मुनि हूँ ऐसी श्रद्धा नहीं करते थे । मैं चित्स्वरूप हूँ यही देखते थे । पर्याय में अहंबुद्धि होना मिथ्यात्वमय अंधकार है । अहंकार एक भूत है जो हमें स्वपद से हटा कर एक गड्ढे में डाल देता है । इसलिये गड्ढे से बचने के लिये उपदेश है कि तुम अपने को मुनि होते हुये भी मुनि मत कहो, अपने को चैतन्य स्वरूप जानो । व्यवहार के समय व्यवहार करो । यदि तुम अपनी आत्मा का कल्याण चाहते हो तो, इस निष्पाप आत्मा का स्वरूप देखना है तो आत्म-ध्यान करो और संसार की सत्यता कायम रखनी है तो विकल्पों में फंसे रहो । 74. सहजसिद्ध के दर्शन बिना पर्याय शुद्धता का अभाव—दुनिया में जितने भी सिद्ध हुये हैं उन सबने अपनी आत्मा के दर्शन किये हैं पश्चात् आत्मा में लीन होकर पर्याय सिद्ध हुये हैं । हे प्रभो ! आपकी महिमा कहां तक गाये? आप तो अनुपम सिद्धगति को प्राप्त हुये हो, अन्य आपकी अवस्था को छोड़ कोई गति ऐसी नहीं है जिससे आपकी उपमा दी जा सके, आपको हमारी वंदना है । वंदना करना सफल तभी होगा जब हमारी भावना उत्कृष्ट और दृढ़ हो जावे । भगवान कुंदकुंदजी की एक ही भावना थी कि सिद्ध गति पाने की । चाहे वह कभी मिले, किंतु मनुष्य को अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहना चाहिये । आपके व्याख्याकार आचार्य श्री सूरिजी एक कुशल वकील के सदृश थे । उन्होंने श्रीमत्कुंदकुंददेव के हृदय को युक्ति आदि से खोलकर रख दिया है । उनकी चतुराई आपको आगे स्वयं ज्ञात होगी । इस समयसार में कुछ गाथायें ऐसी हैं जिन्हें श्री श्रुतकेवली और गौतम गणधर अपने भाव से उच्चारण किया करते थे । आचार्य कुंदकुंददेव ने यहाँ पर उस चैतन्य को नमस्कार किया है जो यहाँ पर हम और आप बैठे हैं । आप ध्रुव हैं एकस्वरूप हैं किंतु आपकी भावना से वह ध्रुव और एक स्वरूप सामान्य से दिखेगा । श्री सूरी जी कहते हैं कि उस विशिष्ट आत्मा को नमस्कार करके मैं उस समय प्राभृत को कहूँगा । यहाँ जो अब कहकर समय का प्रयोग किया गया इससे ज्ञात होता है कोई शुभ संदेश । क्योंकि अब शब्द ऐसे स्थान पर आता है जहाँ सारा झगड़ा निपट गया हो और थोड़ासा बाकी हो, तो वहाँ पर प्राय: लोग कहते हैं अब तुम संधि कर लो आदि । इससे ज्ञात होता है कि ‘अब’ शब्द मंगलसूचक है । इससे आचार्य सूरी जी की सफलता का दिग्दर्शन होता है । भगवान सिद्ध की अवस्था अनंतानंत समय तक नहीं मिटेगी किंतु सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो प्रतिसमय उनकी नई-नई पर्यायें होती हैं । परंतु हैं वे सब पूर्ण सदृश । आपकी गति ध्रुव है और ज्ञानमय है, किंतु आप उस पर अत्याचार कर रहे हैं । वैसे तो सिद्धपर्याय एकसी है सो ध्रुव है और आप भी तो एक ही हैं सो ध्रुव है किंतु उस निज ध्रुव स्वरूप का ज्ञान न होने से यह अंधेर हो गया है । 75. अपने ध्रुव स्वरूप की पहिचान ध्रुव की वंदना का उद्देश्य—श्रीमत्परमपूज्य भगवान कुंदकुंद स्वामी कहते हैं कि सर्वसिद्धों को नमस्कार करके मैं इस समयप्राभृत को कहूँगा । कैसे हैं वे सिद्धभगवान? ध्रुव गति को प्राप्त हुये हैं । ध्रुवगति स्वभावभावभूत है । जीव के भाव पांच होते हैं । वे भाव निम्न प्रकार हैं: 1—औपशमिक, 2—क्षायोपशमिक, 3—क्षायिक 4—औदयिक 5—पारिणामिक । जो कर्मों के क्षय से होवे उसे कहते हैं क्षायिक । जो कर्मों के उदय, उपशम, क्षय व क्षयोपशम की अपेक्षा न रखकर हो सो पारिणामिक । यद्यपि सिद्ध अवस्था कर्मों के क्षय से होती है तथापि वह सद्भावरूप निमित्त से नहीं है किंतु कर्मों के वियोग रूप निमित्त से है । अब जब कोई निमित्त नहीं है तब दशा विषम नहीं होती है किंतु स्वभाव के अनुरूप होती है । सिद्ध प्रभु की गति इसी तरह स्वभाव भावरूप है इसी कारण सिद्धगति ध्रुवपने को प्राप्त हुई है । इस सिद्ध अवस्था का कारणभूत भाव उक्त जीवों में से कौन से भाव हैं इस पर भी विचार करो । औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक भाव अध्रुव हैं—या क्षायिकभाव तो फल रूप है, औदयिक भाव अध्रुव अति मलिन है । पारिणामिक में भव्यत्व विशिष्ट होता है । अभव्यत्व मलिन है जीवत्व में प्राणरूप जीवत्व अध्रुव है, शुद्ध जीवत्व अपरिणामी तत्त्व अनादि से अनंत काल तक रहता है । सो ये कोई कारण न बने, किंतु ध्रुव शुद्ध जीवतत्त्व की दृष्टि व अवलंबनरूप औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक की संधि कारण है । 76. सिद्धत्व में शांति—सिद्ध की अवस्था ध्रुव है, स्वभाव रूप है, और अनंत सुखी है । क्योंकि वह बाह्यपदार्थों के व्यावहारिक बंधन से भी निवृत्त होकर स्वतंत्र हो चुकी है । सुख इन बाह्यपदार्थों में नहीं है । यदि कोई कहता है कि इन्हीं बाह्य पदार्थों में सुख है तो हमें बताओ किसमें सुख है? यदि कहो कि रुपये में सुख है तो बताओ कितने रुपये में सुख है? तुम कहते हो कि अरब रुपयों में सुख है तो किसी अरबपति के पास जाकर पूछो या जानो कि क्या उसे इतने में संतोष है? क्या इससे ज्यादा पाने की अभिलाषा नहीं है? क्या यह नहीं चाहता कि मेरे पास इससे भी अधिक हो जावे? क्या आकुलित, एव निदान के चक्कर में नहीं है? कोई कहे चक्रवर्ती होने में सुख है तो चक्रवर्तियों ने भी हमेशा इसमें रहना पसंद नहीं किया है । उन्होंने भी इस पद को छोड़कर सन्यास लिया है । अध्रुव दृष्टि हित नहीं है । सुख तो आत्मा का स्वभाव है, और वह उसी में रहता है । किंतु आज तक लोगों ने आत्मा बाह्य वस्तुओं के संपर्क से रागद्वेषादि के संबंध से मलिन बना रहा है जिससे सांसारिक विकल्पों के कारण यह आत्मा दुख का अनुभव करता है । देखो तो हम ही सुख हैं और हम ही ज्ञान हैं और ऐसे भूल भूले रहे या रहते हैं कि मानो खुद में ये हैं ही नहीं जिन इनको चाह रहे हो । आत्मा अपने स्वरूप से ही सत् है व पर के स्वरूप से असत् है परवस्तु में आपका न सुख है न ज्ञान है प्रत्युत पर की दृष्टि आपके सुख में भी बाधक है और ज्ञान में भी बाधक है । उचित तो यह ही है कि समस्त पर की दृष्टि छोड़कर विश्राम से निज ज्ञायक स्वभाव में स्थिर होओ । फिर भी अभी हमारा मतलब यह नहीं है कि आप अपने पुत्रादिक व अपने परिवार का पालन न करें क्योंकि जबर्दस्ती छोड़ोगे तो भी विकल्प रह सकता है । अरे आप अपने परिवार का चाहे पालन करो किंतु इसके साथ ही साथ यह ज्ञान भी रखो कि आत्मा का स्वरूप क्या है? ज्ञान के बिना आत्मा का उद्धार नहीं होता । परिवार आनंद के साधन में बाधक है । वह आनंद के सुख के योग में साधन नहीं हो सकता है । किंतु आजकल लोगबागों ने परिवार को ही सुख का साधन समझ लिया है । वह मिथ्या विकल्प तब तक रहेगा जब तक आत्मा में सत्ज्ञान का विकास नहीं होता है । 77. बाधक को साधक मान लेने का मिथ्या अभिप्राय:—देखो तो भैया बाधक को ही साधक मान लिया अब और कौनसी औषधि दी जावे । अब तो बस उसकी भेदविज्ञान ही औषधि है । भेदविज्ञान के बिना और अभिन्न अनुपम विभूति के परिचय बिना ही यह कर्म केवल कर्म के गुण गाया करता है । जैसे एक बालक के माता पिता छोटे में ही मर जाते हैं, वह धनी का लड़का है इसलिये सरकार उसकी 40, 50 लाख की जायदाद को अपने यहाँ कोर्ट (जमा) कर लेती है क्योंकि अभी वह नाबालिक है । और, सरकार उसे दो सौ रुपया मासिक खर्च के लिये देती है । तो वह लड़का अपने मन में सोचता है कि मुझे 200) रुपये महावार देती है और वह सरकार को अनेक धन्यवाद देता है, किंतु कोई पुरुष उस लड़के को बताता है कि तेरी बहुतसी जायदाद सरकार के पास जमा है जिसके बदले में वह तुझे सिर्फ 200) रुपया मासिक देती है, तो इतना ज्ञान होते ही उस बालक की श्रद्धा सरकार के प्रति से उठ जाती है और वह उस पर दावा करने पर तैयार हो जाता है । आत्मा का स्वभाविक आनंद अपार है इसकी कोई सीमा नहीं है किंतु कर्मरूपी सरकार ने इसकी नाबालिगी के कारण उस अपार वैभव को कोर्ट कर लिया है और उसके एवज में कुछ ये ही धन संतान के सुख मिल रहे हैं जिनसे आप ऊबते भी जा रहे हो । किंतु जब इस आत्मा को किसी सद्गुरु आचार्य के उपदेश से यह अवगत हो जाता है कि मेरी तो अपार संपत्ति है परंतु कर्मरूपी सरकार अधिकार जमाये हुये हैं । (यह निमित्त दृष्टि से समझना) बस इतना ज्ञान होते ही यह आत्मा उस अशांत अज्ञान रूपी पुण्य सरकार के ऊपर दावा करता है कि अब तो मैं बालिग यानी (सम्यग्दृष्टि) हूँ और अब मैं ही अपनी संपत्ति का अधिकारी हूँ यह तो हमारी वस्तु है । कर्मों के उदय से प्राप्त जो वस्तु है जब उसे न देखोगे न चाहोगे तभी आत्मा सुखी होगी । कर्म पर दावा ऐसा ही होता है कि न पुण्य चाहो और न परमाणुमात्र कुछ भी पर पदार्थ, आपकी संपत्ति आपके हाथ होगी । सिद्ध का आनंद सहजआनंद है । आनंद जितने भी है वे सभी आत्मा से प्रकट होते हैं । आनंद आकुलता का अभाव है, और कोई अन्य वस्तु नहीं ह । जहाँ आकुलता खतम हुई वहाँ सुख है । आकुलता इच्छा से पैदा होती है और इच्छाओं का चक्कर ऐसा है कि एक इच्छा खतम हुई और दूसरी तैयार हुई । आपको इच्छा हुई कि हमें शिखरजी जाना है बस आपको यह आकुलता हो गई और जब आप शिखर जी पहुंच जाते हैं तो यहाँ आपको सुख आनंद का अनुभव होता है तो शिखरजी जानें का आपको सुख नहीं है किंतु वह आकुलता जो पहले थी उसका नाश होने पर आपको सुख का अनुभव हुआ है । पूर्व की आकुलता ही सुख में बाधक थी । अब तो जो नई आकुलता की है वह मात्र ही उतनी बाधक है । 78. सुख में बाधक अज्ञान और इच्छा:—अज्ञान और इच्छाओं के रहते हुये आप कभी पूर्ण सुखी नहीं हो सकते हैं, इसलिये सुखार्थी मनुष्य का कर्तव्य है कि वह इन दोनों का नाश करे । सिद्ध भगवान अनंत सुखी हैं, क्योंकि उनके अज्ञान और इच्छायें नष्ट हो गई हैं । उनके केवलज्ञान प्राप्त हो गया है, केवलज्ञान की प्राप्ति से अज्ञान दूर भाग गया है । इच्छा का अभाव होने से समस्त दु:ख नष्ट हो गया । जहाँ इच्छाओं का अभाव होगा वहाँ विशद ज्ञान बढ़ेगा और सुख भी होगा । ज्ञान के अभाव में दुःख होता है जैसे सामने बैठे बालक से पूछा—पांच से गुणित कितने झट से दिया उत्तर 25; और यदि इस बालक को याद न होता तो आप इसके चेहरे पर देखते कितनी मलिनता आ जाती । वह क्यों? अज्ञान के कारण । और देख लिया न इसने बड़े खुश होकर उत्तर दिया; यह काहे की खुशी है? ज्ञान की । कुछ खाने पीने को तो नहीं दिया । मात्र ज्ञान से ही यह खुश हो गया । मुनीम लोग दिन भर अपने रोकड़ लिखते हैं और रात्रि में जब उस रोकड़ को मिलाते हैं अगर उसमें से एक पैसा भी कही गड़बड़ हो जाता है तो वह कितना परेशान होता है वह क्यों? यहाँ पर पैसे का लोभ नहीं है किंतु अज्ञान है कि पैसा कहा गया । और जब उसे अपनी भूल याद आ जाती है कि जोड़ में एक पैसा कम है तब वह दुःखी नहीं रहता है । भैया ! मनुष्य भव बड़ा दुर्लभ है, पाया है तो इसे व्यर्थ न खोना, अपना काम निकाल लेना । भगवान सिद्ध प्रभु में आनंदध्रुव है, सुख स्वाभाविक है । आप भी जरा अपने सिद्ध को देखो । सिद्ध दो प्रकार से है । अनादिमुक्त सिद्ध, और कर्ममुक्त सिद्ध । तुम भी द्रव्यदृष्टि से अनादि सिद्ध हो, किंतु वहाँ पर अनादि सिद्धता का भोग नहीं होता है । जब तक आप कर्ममुक्त सिद्ध नहीं होंगे तब तक आप आनंद को प्राप्त नहीं कर सकते । आपका अनादि सिद्ध जो आपमें बैठा है वह द्रव्यदृष्टि से है । यदि आप वास्तविक आनंद चाहते हैं तो सर्व विकल्पों को छोड अपनी आत्मा का ध्यान करो । अपने ध्रुव प्रभु को देखो आप त्रिकाल में भी परद्रव्य, पर वस्तुरूप नहीं हो सकते और न परवस्तु त्रिकाल में आपके, रूप हो सकती है । इस आत्मा का कल्याण करना है तो अपने चैतन्य स्वभाव को देखो और बाह्य वस्तुओं में कुछ भी नहीं है ऐसा विचार करो । अभी जो पांच भाव कहे थे उनमें विचार करो कि किससे मेरा कल्याण होगा? औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक इनकी दृष्टि से तो आपका कल्याण हो नहीं सकता क्योंकि ये भाव अध्रुव है । अव परिणामिक भाव बाकी है सो उसके भी तीन भेद है भव्यत्व अभव्यत्व और जीवत्व इनमें अंत के भाव की दृष्टि से कल्याण हो सकता है । अंतिमभाव जो जीवत्व है सो उसके भी दो भेद है । शुद्ध जीवत्व भाव और अशुद्ध जीवत्व भाव, सो जीवत्व भाव से मोक्ष होता नहीं और शुद्ध जीवत्व भाव सामान्य एक अपरिणामी होता है वह स्वयं मोक्ष नहीं करता, किंतु उसकी दृष्टि से मोक्ष होता है । इसलिये जो अपने आप ध्रुव है उसकी दृष्टि करो अध्रुव की दृष्टि मत करो । दुनियां में पक्षपात से बढ़कर अन्य कोई पाप नहीं यह मेरा है, मैं इसका हूँ, यह मेरा है, वह मेरा दुश्मन है यह वस्तु ठीक है और यह बेकार है इस तरह का जो पक्षपात है इससे बढ़कर कोई पाप नहीं है इसलिये यह मेरा आदि ऐसे भावों से दूर रहकर मैं शुद्ध चेतनस्वरूप हूँ इस प्रकार के भाव रखो । इस चेतन स्वरूपता का शुद्ध चितवन करके स्वभाव भावरूप होकर यथाशीघ्र मुक्ति को प्राप्त करोगे । जब तक हमें यह ज्ञान नहीं होगा कि हमारी आत्मा का क्या स्वभाव है तब तक हम परम आनंद को प्राप्त नहीं कर सकते । आत्मा का बोध ज्ञान से होगा इसलिये सबसे पहले ज्ञानप्राप्ति का लक्ष्य दृढ़ करो बिना इसके कुछ भी नहीं हो सकता है । अज्ञानता हमारा शत्रु है इस लिये इसे मिटाओ । 79. जिसके दर्शन से भला होता है उस तत्त्व का दिग्दर्शन—समयसार के प्रथम छंद में कहते हैं कुंदकुंदाचार्य देव कि ध्रुव अचल अनुपम गति को प्राप्त सर्व सिद्धों को नमस्कार करके मैं श्रुतकेवली के द्वारा कहे गये इस समयप्राभृत को कहूँगा । इसमें सिद्ध को नमस्कार किया है और ऐसा विशेषण देकर नमस्कार किया है जो सहज शुद्ध परमात्मतत्त्व में भी घटित होता है । ध्रुव अवस्था को प्राप्त सिद्ध भगवान हैं । तो यह आत्मस्वभाव भी ध्रुवपने को प्राप्त हैं । आत्मा का जो स्वरूप है जिसके दर्शन होने से भला हो जाता है वह स्वरूप किसी दिन बना हो किसी दिन समाप्त हो जाय ऐसा तो नहीं है । अब अपने-अपने आत्मा में अपने स्वरूप की बात सोच लीजिये । क्या स्वरूप है मेरा? मेरा वह स्वरूप है जो ध्रुव है । ये क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक सर्व परिणाम सदा नहीं रहते । अभी क्रोध हुआ फिर न रहा तो इससे सिद्ध है कि क्रोध आत्मा का स्वरूप नहीं है । कोई भी विषय, कोई विकल्प विचार आत्मा के स्वरूप नहीं हैं । आत्मा के स्वरूप अथवा सत्त्व को समझने के लिए अनेक दार्शनिकों ने अपनी बुद्धि लगायी है और कुछ दार्शनिक इस हद तक पहुंचे कि ब्रह्मस्वरूप वह है जहाँ वेद का अंत हो जाता है । वेदांत का अर्थ क्या है? जहाँ वेद का, ज्ञान का, विकल्प का अंत है सो वेदांत ऐसा ब्रह्म स्वरूप जिसके अनुभव के काल में विकल्प नहीं उठ रहे हैं । इन विकल्पात्मक बुद्धियों का नाम ज्ञान है, वेद है ऐसा हम आपके ज्ञान में आता है । यह अपने स्वरूप की बात चल रही है । थोड़ा पर पदार्थों की ओर से चित्त हटाकर यह जान करके जगत में किसी भी पदार्थ में सार नहीं है, शरण और हित नहीं है, वहाँ से चित्त हटाकर थोड़ा अंत: विश्राम करके इस प्रकरण को सुनें तो ऐसी आंतरिक तैयारी से आप स्वयं अपने में अपने स्वभाव को जान सकते हैं । 80. पर से हटने और निज में लगने की आवश्यकता का कारण—भैया! परपदार्थों से चित्त को यों हटाना होगा कि आप ही बताओ कि किस पदार्थ में हित रखा है? धन-वैभव जोड़ते जावो इतना तो जोड़ने का विकल्प है, पर काम तुम्हारे आने का कुछ नही, काम आयेगा दूसरों के ! आपको तो दो रोटियों से और दो वस्त्रों से मतलब है, आपको और चाहिये ही क्या? लेकिन एक इस विकल्प में फंसकर कि दुनिया के मूर्ख लोग मुझे यह कह दें कि ये बड़े धनी हैं बस इस विकल्प में आकर एक उस धन की ओर उपयोग दौड़ा दिया है । ‘‘मूर्ख लोग’’ यों कहा है कि जगत में सभी जीव जो धन के कारण बड़प्पन मानते हैं वे मूढ़ ही तो हैं, मोही हैं । मूर्ख शब्द बुरा लगे तो उसके एवज में मूढ़ कहो और मूढ़ भी बुरा लगे तो उसके एवज में मोही कहो । शायद मोही शब्द सुनकर उतना बुरा न मानेंगे लेकिन उन सबका अर्थ एक है । ये जगत के जीव जो स्वयं बड़े दु:खी हैं, कर्मों के प्रेरे हैं पाप के उदय वाले हैं । अपने आपका होश नहीं है, मायारूप हैं, विनश्वर हैं, मिट जाने वाले हैं ऐसे लोगों से अपने बड़े कहलाने के लिए कुछ आशा रखना और वह भी व्यर्थ की आशा जिस आशा से कुछ लाभ नहीं है, बतलाओ—यह खुद की मूढ़ता है कि नहीं ? तो जगत के इन मायारूपों से यह कहलवाने के लिए कि यह बहुत ऊंचे पुरुष हैं, धनी हैं अपने आपके उपयोग को विकल्पों में फंसा दिया और खुद आत्मा के स्वरूप के समझने की, चिंतन करने की बुद्धि न रखे, व्यर्थ में ही अवसर खो दे तो यह कोई विवेक नहीं है । खूब देख लो धन जोड़कर क्या सार लूट लिया जायेगा? परेशानी व्यर्थ की और प्रशंसा के शब्द काल्पनिक हैं, उनसे लाभ कुछ नहीं है । इससे धन संचय की बुद्धि को दूर करके, उस ओर चिंतन हटाकर अपनी ओर आइये, क्योंकि बाह्य में धन वैभव के जोड़ने में हित नहीं है । तब फिर किसमें हित है? इज्जत बनाने में हित है? क्या पता है कि यह सब दुनिया कितनी बड़ी है? लाखों करोड़ों कोसों की नहीं, अनगिनते कोस, 343 घनराजू प्रमाण, इतनी बड़ी दुनिया में यह परिचय वाला क्षेत्र समुद्र में बिंदु बराबर भी नहीं है, यहाँ के मरे कहां गये, क्या होगा? कौनसा सार है यहाँ यश की चाह में? उसकी ओर से भी उपयोग हटायें और अपने आपके स्वरूप में अपने उपयोग को लगायें । मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, बहुत जल्दी अपने आपको ग्रहण करने के लिए यह उपाय बड़ा सुगम हैं साथ ही ज्ञान का स्वरूप ध्यान में रखें । जानन किसे कहते हैं और वह जानन भी नहीं किंतु जानन-सामान्य जानने की शक्ति, उस जानन स्वभाव को दृष्टि में लेकर इतना ही मात्र मैं हूँ ऐसी बार-बार भावना होने से आत्मस्वरूप का ग्रहण हो जाता है । वह स्वरूप है ध्रुव स्वरूप की भावना के प्रसाद से जिन्होंने ध्रुव गति को प्राप्त किया है उनको यहाँ वंदन किया जा रहा है । 81. परमात्मतत्त्व का अचल स्वरूप—दूसरा विशेषण है वे सिद्ध भगवान अचल गति को प्राप्त हैं । संसार उनका कट गया, निर्वाण अवस्था मिली, तो अब यह निर्वाण अवस्था कभी भी मिट नहीं सकती इसलिये यह निर्वाण अचल है । अब स्वरूप की ओर दृष्टि दें । यह ज्ञान स्वरूप आत्मा, यह ज्ञानस्वभाव अचल है । जिस पदार्थ में जो स्वरूप है वह तीन काल में भी चलित नहीं होता जहाँ धर्म द्रव्य है वहाँ अधर्म द्रव्य भी है, दोनों अमूर्त हैं । धर्म द्रव्य कहते हैं जीव और पुद्गल चले तो उनके चलने में सहायक होना । चलते हुये जीव पुद्गल ठहरे तो उनके ठहरने में सहायक होना सो अधर्म द्रव्य है । धर्म, अधर्म नाम के द्रव्य इस लोकाकाश में सर्वत्र भरे हुए हैं । जहाँ ही धर्म वहाँ ही अधर्म, पर इनमें से कोई भी द्रव्य दूसरे के स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकता । यहीं आकाश है, यहीं जीव भरे हैं यहीं पुद्गल पड़े हैं और अपने ही जीव में देखो तो जहाँ जहाँ जीवप्रदेश हैं, जितने में मेरा आत्मा फैला है ठीक उतने में उस ही जगह पुद्गल कर्म भरे पड़े हैं और यह शरीर भी पड़ा है । अब शरीर की ओर से देख लो, जितना बड़ा लंबा चौड़ा मोटा शरीर है जितनी जगह में शरीर फैला है जहाँ शरीर है वहाँ ही कर्म हैं वहाँ ही जीव है, ये तीन एक जगह हैं, लेकिन इनमें से कोई भी एक किसी भी दूसरे का स्वरूप अब तक ग्रहण न कर सका । इस कर्म पुद्गल के निमित्त से यह जीव अज्ञानी हुआ, मोही हुआ, संसार में रुलने वाला हुआ, निगोद आदिक भव पाये ऐसी तुच्छ दशा बन जाती है । ज्ञान की ओर से देखो तो न कुछ जैसा लगता है । इतनी कठिन अवस्था हो जाने पर भी जीव ने कर्म के स्वभाव को ग्रहण नहीं किया और न कर्मों ने जीव के स्वभाव को ग्रहण कर पाया । जैसे सामने दर्पण है और मुख दर्पण में झलक रहा है तो क्या इस मुख ने दर्पण के स्वभाव को ग्रहण कर लिया? पूरा का पूरा मुख मुख की जगह है और पूरा का पूरा दर्पण दर्पण की जगह है, पर निमित्तनैमित्तिक संबंध है ऐसा कि मुख का सन्निधान पाकर दर्पण मुखरुप प्रतिबिंब से परिणम गया, पर दर्पण ने मुख के स्वरूप को ग्रहण नहीं कर पाया, किंतु उसमें योग्यता थी इस प्रकार छाया रूप परिणमने की भी अपनी योग्यता से छायारुप परिणम गयी । विचारते जाइये—हमारे आत्मस्वभाव ने कभी किसी दूसरे को ग्रहण नहीं किया, इसलिए मेरा स्वरूप भी अचल है । इस अचल स्वरूप की उपासना के प्रसाद से ऐसी शुद्ध अचल गति प्राप्त होती है जो एक बार प्रकट होने पर मिलने पर कभी भी छूट नहीं सकती । ये प्रभु सिद्ध अचल गति को प्राप्त हैं । 82. परमात्मतत्त्व का अनुपम स्वरूप और परमात्मा की ध्रुवता का कारण—तीसरा विशेषण है अनुपम गति को प्राप्त हैं । सिद्ध भगवान की अवस्था की कहीं असिद्धों में उपमा हो सकती है? नहीं है उपमा । भगवान का विशुद्ध स्वरूप है । वह स्वरूप किसके समान है? तो क्या यहाँ किसी लटोरे खचोरे का नाम बताया जा सकता है कि प्रभु का स्वरूप इसके समान है? वह तो अनुपम है, तो अब आत्मस्वभाव को भी देखिये—यह मेरे आत्मा का स्वभाव भी अनुपम है इसकी भी उपमा नहीं हो सकती है न उपमा के लिए कोई बाह्य पदार्थ मिल सकता । अनुपम है आत्मस्वरूप और अनुपम है सिद्ध भगवान की गति । ऐसी ध्रुव अचल अनुपम गति को प्राप्त सिद्ध की वंदना की गई है । भगवान की ध्रुवगति क्यों बनी कि वह स्वभावभूत जैसा स्वभाव है उसके अनुरूप प्रकट हुआ है । पुद्गल में तो परमाणु का स्वभाव शुद्ध विकसित होने पर भी अशुद्ध अवस्था हो जाती है । कोई परमाणु अभी अकेला है, कालांतर में स्कंध बन जाता है । ये चौकी, पुस्तक, चटाई, फर्श आदिक सब स्कंध हैं, अनेक परमाणुओं के समुदाय का नाम स्कंध है । तो पुद्गल में एक बार शुद्धि प्रकट होने पर भी अशुद्धि आ सकती है । क्यों आ जाती है कि पुद्गल की अशुद्धि उन पुद्गलों की ओर से ही योग्यता से बनी हुई है किंतु आत्मा एक बार शुद्ध होने पर फिर उसमें कभी अशुद्धि नहीं आ सकती । क्यों नहीं आ सकती कि आत्मा में अशुद्ध होने की योग्यता आत्मा के स्वभाव घर में नहीं है । उसमें निमित्त उपाधि का सन्निधान पाकर ही विभाव बनता है । भगवान सिद्ध प्रभु की गति स्वभावरूप होने के कारण ध्रुव है। 83. परमात्मतत्त्व के अचलस्वरूप के प्रसंग में—जब मानवों के हृदय में कोई दूसरी बात समाई रहती है, धन वैभव विषयभोग इज्जत प्रतिष्ठा इनकी बात समाई रहती है तो उस उपयोग में सिद्ध प्रभु के अचल स्वरूप की बात नहीं आ सकती है और आत्मस्वरूप की बात न आ सकने के कारण यह उपयोग अपनी ही जगह रहकर भी विषय दृष्टि से बहुत दूर भाग गया है । भला अपने से दूर भागने में प्रयोजन क्या बना है? देखो बाहुबलि स्वामी की मूर्ति के निकट खड़े होकर जब चिंतन किया जाता है कि जगत में सार कुछ नहीं है इसलिए घर छोड़कर, परिजन मित्रजन छोड़कर, पायी हुई इज्जत को भी छोड़कर ये कैसा तपश्चरण में जिन दीक्षा लेकर डट गये हैं । बाह्य में कुछ सार उसे ही पकड़े रहते । क्या कर्तव्य उन्होंने किया न यहाँ के सर्व का परित्याग करके केवल अपनी धुनि में समा गये । ऐसी स्थिति जब हम बड़े-बड़े महापुरुषों की निरखते हैं तो हमें संतोष हो जाना चाहिये । हम किन्हीं भी बाह्य पदार्थों के विकल्प में आसक्त न हो जायें । यह सब चलितपना क्यों हो गया है? यों कि अचलस्वरूप की दृष्टि नहीं है । अपने में शाश्वत विराजमान अचल स्वरूप को देखने पर अचलता आती है । अपना कर्तव्य तो अपने को अचल चैतन्य स्वरूप अनुभव करना है । जिसने यह किया उसने सब कुछ पा लिया और जिसने अपने आत्मा की सुधि न ली वह बाहर में कितने ही पुद्गल के ढेर के निकट बैठा हो, उसका अधिकारी हो फिर भी उसने कुछ नहीं पाया । कितनी आपदा है अपने पर, जन्ममरण अपने को ही करना पड़ रहा है, सुख दुःख आदिक सांसारिक जो बात गुजरती हैं वे सब अपने पर ही गुजर रही हैं, हम नहीं चेतते, अपने स्वरूप की सम्हाल नहीं करते तो मरकर पेड़ तक भी हो जायेंगे, आग भी बन जायेंगे, हवा भी हो जायेंगे, फिर ऐसे जीव को हित का कहां अवकाश है? जो जितना बड़ा बन गया धन की ओर से, ज्ञान की ओर से इज्जत की ओर से किन्हीं भी बाह्य पदार्थों के संचय में जो बड़े बने हुवे हैं उन बड़ों की पायी हुई संपदा तब सफल है, पायी हुई कला, पाया हुआ बल, पायी हुई प्रतिष्ठा तब सफल है जब हम अपने आत्मकल्याण की दिशा में भी बढ़े । अन्यथा बाहरी बातों से भला किसी का नहीं हो सकता । ये प्रभु स्वभावभूत होने के कारण ध्रुवगति को प्राप्त हैं और अचल यों हो गए हैं वे कि चलायमान होने का कारण है कर्मोदय पूर्व विभाव रागादिक वासना, ये सब नहीं रहे, जहाँ शरीर की चमड़ी को भी उतार दिया फिर उस शरीर में रोम के छिद्र कहां रह सकते हैं? जहाँ अपने आपको विकार रहित पर संबंध रहित केवल चैतन्यमात्र अनुभव किया, वहाँ रागद्वेषादिक के विकार कहां ठहर सकते हैं? 84. हमारे ध्यान किये जाने योग्य:—दुनिया में हमारे हित के लिये ध्यान करने योग्य हैं तो ये पंचपरमेष्ठी या निज आत्मतत्त्व । पंचपरमेष्ठी तो निमित्त मात्र हैं इनके ध्यान से हमें अपनी सुध आती है और स्वभावरूप बनने का उत्साह जगता है परंतु, हैं ये अपने से अत्यंत भिन्न । इनका ध्यान प्राथमिक अवस्था में ठीक है, वस्तुत: इनके लक्ष्य रहते हुये निर्विकल्प अवस्था नहीं होती सो सर्वोत्कृष्ट ध्यान तो आत्मा का ही है यह प्रभु ने बताया है । देखो आत्मा का अवलंबन, परिणमन सदा रहता है, किंतु देव शास्त्र गुरू की आराधना भी सदा नहीं रहती । शुद्धपर्याय की अपेक्षा शुद्धज्ञान शुद्धआत्मा का है । सिद्ध सिद्ध का ध्यान नहीं करते किंतु वे अपनी निज निर्विकल्प आत्मा का परिणमन करते हैं । देव, शास्त्र, गुरू पर दृष्टि दो । सच्चे देव, शास्त्र, गुरू कौन हैं? सच्चा देव कौन है? जिसने अपनी आत्मा का ध्यान कर कर्मों का नाश कर दिया है और परमपद शिव को प्राप्त किया है जो हितोपदेशी हैं सर्वज्ञ हैं और वीतराग हैं वही सच्चे देव हैं याने तत्त्वरूप परिणम गये हैं । सच्चे शास्त्र—इन शब्दों से जो सुना है उससे जो तत्त्व समझा है वही तत्त्व सच्चा शास्त्र है और जो तत्त्वरूप होने का यत्न कर रहे हैं वे सच्चे गुरू हैं । ये ही हमारे लिये सच्चे गुरू हैं ये ही हमारे लिये कल्याणपथ दर्शक हैं । इसलिये उन्हीं पर दृष्टि दो । यह समयसार ग्रंथ व्याख्यान श्रीमत्परमपूज्य आचार्य अमृतचंद्रजी सूरि बना रहे हैं । वे ग्रंथ के आरंभ में कहते हैं कि सब सिद्धों को नमस्कार है जो ध्रुवपने को अवलंबन करने वाली गति को प्राप्त हैं भगवान की सिद्धपर्याय एक सी है । केवलज्ञान एक-सा है । वह कभी भी कमता बढ़ता नहीं है । फिर भी सिद्ध भगवान की दशा प्रतिक्षण नवीन-नवीन होती रहती है । जैसे यहाँ पर यह बिजली जल रही है तो क्या यह हमेशा एकसा ही काम करती है? नहीं । इसने एक सेकिंड में जिन चीजों को प्रकाशमान किया दूसरे सेकिंड में उसने दूसरा कार्य किया दूसरे सेकिंड की शक्ति से दूसरे काम किये । जो बिजली की शक्ति को नहीं जानते वे भले ही ऐसा कह दे कि जो काम उसने पहले सेकिंड में किया वही काम दूसरे सेकिंड में किया, किंतु वास्तव में वह प्रतिक्षण अलग-अलग कार्य करती है; तभी तो कितनी बिजली खर्च हुई हिसाब लग जाता है । इसी तरह सिद्ध भगवान का जो ज्ञान है उसमें हर समय नई-2 पर्यायें होती रहती हैं जो ज्ञान पहले था वही ज्ञान दूसरे समय नहीं रहता है किंतु उसमें प्रतिक्षण नई-नई पर्यायें बदलती हैं किंतु वे जितनी भी पर्याय बदलती हैं अथवा होती हैं वे सभी सदृश रूप होती हैं । केवलज्ञान पर्यायरूप है इसलिये वह हमेशा नवीन-2 होकर भी सदृश होने से उसे ध्रुव कहा गया है । इसी प्रकार समस्त गुणों के परिणमन की बात है तभी सबको अभिन्न करके सिद्धगति को ध्रुव गति कही है । सिद्ध भगवान भी आत्म द्रव्य हैं । आत्मा सत्स्वरूप है सत् का लक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त है जो ध्रुवता को प्राप्त अवस्था है यह उत्पाद व्यय को भी प्राप्त है । सिद्ध अवस्था प्रतिक्षण वैसी ही परिणमती जाती है अत: ध्रुवत्व की अवलंबन करने वाली गति है । जो ध्रुवपने को प्राप्त हो उसमें ध्रुव-विरुद्ध अन्य का वास भी है, तभी प्राप्त करना भी घटता । इस प्रकार स्वभावभावभूत होने से ध्रुवपने की अवलंबन करने वाली सिद्धगति को प्राप्त हुये सर्वसिद्धों को नमस्कार हो यह विशेषण हुआ । 85. अचल गति के अर्थ अचल स्वरूप का ध्यान करो:—श्री सिद्ध भगवान के नमस्कार हो । कैसे हैं वे सिद्ध जो अचलगति को प्राप्त हैं । उनकी आत्मा से रागद्वेषादि सभी दूर हो चुके हैं इसलिये वे सिद्ध भगवान अचलगति को प्राप्त हैं । आपकी गति कैसी है? चल है क्योंकि उसमें राग, द्वेष, मोहादि लगे हैं, संसार की चारों गतियां चल हैं, और जब तक राग, द्वेष, मोहादि भाव रहेंगे तब तक वे जीव अचल गति को प्राप्त नहीं हो सकते । किंतु यह मनुष्य अपनी चल अवस्था में ही आनंद मानता है और उसी में मग्न हो रहा है । यह लेश भी ध्यान नहीं रखते कि हम जिस पर मचल रहे हैं वह कुछ दिनों का खेल है । दूसरों की मौत दूसरों के अपमान ऐसे लगते हैं कि इन लोगों पर ही हुआ करते हैं, अपने संबंध में ये ऐसे ही देख सकते हैं इसका तक ही नहीं । प्रभु सिद्ध महाराज समस्त आपत्तियों से दूर हैं क्योंकि उनके आपत्ति का मूल ही नहीं है । सिद्ध प्रभु का सुख और ज्ञान उनकी आत्मा से प्रगट हुआ है, उनकी पर्याय में पर का अवलंबन नहीं है । पर की दृष्टि अथवा परिणति नहीं है, उनकी परिणति का स्वभाव के साथ अभेद हो गया है, परभाव का अभाव हुआ है और इसी हेतु संसरण का अभाव हो गया है फिर चलना कैसे संभव हो । भैया, मनुष्य पर्याय अति दुर्लभ है, आपको मिली है तो व्यर्थ न गवा दो । अपने स्वभाव का पता अवश्य उपयोग में पा लो, अन्यथा वही पुरानी दुरवस्था पुनरावृत्ति कर बैठेगी । 86. अपनी भूल से दुरवस्था की पुनरावृत्ति—भैया, एक साधु था, उसके पास एक चूहा खेल खेल रहा था, चूहे पर बिल्ली झपटी । साधु को दया आई सो उन्होंने चूहे को आशीर्वाद दे दिया कि तू भी बिल्ली हो जा । जब वह बिल्ली हो गया तो बिल्ली के ऊपर कुत्ता झपटा, तब साधु ने आशीर्वाद दिया कि तू भी कुत्ता हो जा । कुत्ता के ऊपर चीता झपटा तब साधु ने कहा कि तू भी चीता हो जा । अब चीता पर शेर झपटा सो उसे आशीर्वाद दिया कि सिंहोभव शेर हो जा । शेर को एक दिन बड़ी जोरों से भूख लगी और उसे उस समय कुछ न मिला तो यह सोचकर कि साधु की देह ही पवित्र है उत्तम है क्यों न इसी का भोजन करूं ऐसा विचार कर ज्यों ही वह साधु के ऊपर खाने को झपटा तब साधु ने उससे कहा पुन: मूषको भव । अर्थात् फिर से चूहा हो जा । और वह तुरंत चूहा हो गया । क्योंकि अभी तक जितनी भी पर्यायें मिली थीं वे सब साधु की कृपा से और अब साधु पर ही आक्रमण करने लगा तो साधु के आशीर्वाद से वह चूहा होकर निस्तेज हो गया । इस तरह अपने में घटावो हम आप पहले निगोद थे । वहाँ के दुख तो आपने सुने ही हैं । अनंतकाल निगोद में बीता । निगोद में कौन था? हम आप ही प्रभु । प्रभुता का तिरोभाव था और मलिनता का आविर्भाव था । जब चैतन्य प्रभु का प्रसाद (निर्मलता) मिला तब हम वहाँ से निकल कर प्रत्येक स्थावर, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय हुये । चैतन्य प्रभु की प्रसन्नता बढ़ती गई सो हम उसकी प्रसन्नता से आशीर्वाद से आज पंचेंद्रियों में भी उत्तम मन वाले मनुष्य हुये । अब यदि हम इस चैतन्य निज प्रभु पर हमला करेंगे तो आपको पता है चैतन्य निज प्रभु का क्या आशीर्वाद मिलेगा—पुन: निगोदो भव, फिर निगोद हो जा । लोक में रिवाज है कि जो आशीर्वाद देवे उसके प्रति सद्भावना रखना चाहिये, क्योंकि अगर हम उसके प्रति सद्भावना नहीं रखेंगे तो वह आगे ऐसा आशीर्वाद दे दे कि जिससे हमें दुःख उठाना पड़े । इसलिये हमें अपने उपकारी के प्रति हमेशा कृतज्ञ भाव रखना चाहिये । फिर जिस निज प्रभु के प्रसाद से हमने यह मनुष्य गति (पर्याय) और जैन कुल प्राप्त किया है उस निज प्रभु का आदर क्यों नहीं करते, हमें उसके स्वभाव का पालन करना चाहिये, हमें उसकी श्रद्धा और उपासना करनी चाहिये । जिस निज प्रभु से हमें यह कुल और पर्याय मिली है अगर हम उसका सदुपयोग नहीं करेंगे, अपनी आत्मा के चैतन्यस्वरूप को नहीं पहचानेंगे तो हमें वह फिर से आशीर्वाद देगा कि निगोदो भव । याने फिर से निगोद में जाओ । और हमें फिर से निगोद में जाना होगा । यह मनुष्य पर्याय बहुत ही कठिनता से प्राप्त होती है इसलिये इसे प्राप्त करके हमें अपना कल्याण कर लेना चाहिये ।
87. दुर्लभतर तत्त्व की प्राप्ति होने पर भी प्रमाद से अनर्थ—प्रथम तो देखिये जिनवाणी का सुनना मिलना कठिन है जीवों को । कितने अनंत जीव हैं, उनमें मनुष्यों में इतने अनगिनते मनुष्य हैं वे बात सुनने की योग्यता ही नहीं रखते । जिसने रागद्वेषादिक भावों को जीता है ऐसे जिनेंद्र भगवान ने जो दूसरों को धर्मोपदेश दिया उसका सुनना भी लोक में कठिन है और कभी सुनने को मिल गया तो उस उपदेश को हृदय में ग्रहण कर लेना कठिन है उसका अर्थ समझ पाना कठिन है, और कहीं कुछ अर्थ भी समझ गये तो उसको दिल में टिकाये रहना, बसाये रहना कठिन है । कदाचित मान लो अवधारण हो गया, जिनवाणी भी सुन रहे, उसका अर्थ भी समझ लिया तो संयम ग्रहण करना कठिन है । संयम धारण न करना हो और जगत में अपनी बड़ाई रखना हो तो उसके बहाने बहुत बनाये जा सकते हैं । कर्मों का उदय ही इस तरह चल रहा है । हमारी उतनी योग्यता नहीं है इसलिये आगे नहीं बढ़ सकते । कर्मों का उदय ही इस तरह चल रहा है, चरित्र मोह की तीव्र प्रेरणा है इससे चरित्र ग्रहण नहीं किया जा सकता, लेकिन जिनको अपने स्वभाव की तीव्र रुचि प्रकट हुई है वे हित की बात को न समझेंगे क्या? न धारण करेंगे क्या? तो संयम धारण करना कठिन है । संयम धारण भी कर लिया तो उसका निभाना कठिन है । संयम प्राप्त करना कठिन है, ऐसी कठिन बात को प्राप्त करके हम प्रमाद में गवां दें, विषय साधनों में गवां दें, कुछ रुपया पैसा गिनने में ही लगा दें तो सार क्या पाया? यहाँ तो समय पर कूच करना ही पड़ेगा ।
88. प्रमाद से हानि पर एक दृष्टांत—कोई सेठ था, गरीब हो गया । राजा से उसकी मित्रता थी । तो राजा से कहा महाराज! अब तो हमारे दिन खराब आ गए । तो राजा बोला—कुछ परवाह नहीं, तुम कल के दिन दो घंटे 1 बजे से 3 बजे तक हीरा रत्नों के खजाने में चले जाना और जितने हीरा रत्न ला सको ले आना । वह सेठ 1 बजे खजाने में पहुँच गया । वह खजाना बड़े महल में था किसी एक कमरे में था । उस महल के कमरे खेल खिलौनों से खूब सजे हुये थे । वे खिलौने बड़े सुंदर थे । वह सेठ उन खेल खिलौनों में ही रम गया और उन्हीं को देखने में अपना दो घंटे का समय व्यतीत कर दिया । दो घंटे बीत जाने पर पहरेदार ने वहाँ से निकाल दिया एक भी हीरा रत्न वहाँ से न ला सका । दुःखी होकर सेठ ने फिर राजा के पास जाकर निवेदन किया महाराज हमारा तो दो घंटे का समय व्यर्थ ही चला गया, हम तो खजाने से कुछ भी नहीं ला सके । तो राजा ने कहा अच्छा कल के दिन तुम दो घंटे के लिए सोने के खजाने में चले जाना और जितना चाहे सोना वहाँ से ले आना। सेठ सोने के खजाने में दूसरे दिन पहुंचा । सोने का भंडार भी एक महल के किसी कमरे में था । उस महल के अंदर बड़े सुंदर घोड़े खड़े थे । वह सेठ घोड़े पर बैठने का बड़ा शौकीन था । किसी अच्छे घोड़े पर बैठकर उसकी कला देखने लगा । दो घंटे का समय यों ही व्यतीत हो गया । पहरेदार ने निकाल बाहर किया, कुछ भी सोना वहाँ से वह सेठ न ला सका । फिर सेठ दुःखी होकर राजा के पास पहुंचा और निवेदन किया कि महाराज मेरा तो दो घटे का समय आज भी व्यर्थ में गया, हम कुछ भी सोना वहाँ से नहीं ला सके। राजा ने तीसरे दिन दो घंटे के लिए चांदी के भंडार में जाने व मनमाना चांदी लाने के लिए आदेश लिया। तीसरे दिन सेठ पहुंच गया चांदी के भंडार में । वह चाँदी का भंडार भी एक बड़े महल के किसी कमरे में था । वहाँ पहुंचने पर सेठ को कोई एक गोरखधंधा मिला । सेठ ने ज्यों ही उसे छू लिया कि उसके तार उलझ गए, अब पहरेदार ने उसे सुलझाने के लिए सेठ से कहा । दो घंटे का समय उसी गोरखधंधे के सुलझाने में ही व्यतीत हो गया । पहरेदार ने निकाल बाहर किया । वहाँ से भी वह सेठ कुछ न ला सका । फिर जाकर सेठ ने राजा से निवेदन किया । तो राजा ने चौथे दिन दो घंटे के लिए तांबे के खजाने में जाने व मनमाना तांबा लाने के लिए आदेश दिया। चौथे दिन सेठ तांबा लाने के लिए 10-5 गाड़ियां भी ले गया पर हुआ क्या कि ज्यों ही सेठ वहाँ पहुँचा त्यों ही देखा कि एक बहुत अच्छा सा स्प्रिंगदार पलंग पड़ा हुआ है सेठ का मन उस पर लेटकर देखने का हो गया । ज्यों ही लेटा कि दो मिनट में ही नींद आ गयी । दो घंटे का समय यों ही व्यतीत हो गया। पहरेदार ने निकाल बाहर किया । तो जैसे सेठ ने चारों जगह धोखा ही खाया ऐसे ही ये मनुष्य अपने जीवन के चारोपन में धोखा ही खाते हैं । लाभ की बात कुछ नहीं पाते । बचपन को खेल खिलौनों में रमकर व्यतीत कर देने, किशोर अवस्था कलायें सीखने व उनमें दिल बहलाने में व्यतीत कर देते, युवावस्था को व्यर्थ के गोरखधंधों में फंसकर व्यतीत कर देते ओर वृद्धावस्था आने पर तो पलंग पर पड़ने लायक ही रह गये । और किसी काम के रहे नहीं । यों ये मनुष्य अपने जीवन के चारोपन व्यर्थ ही व्यतीत कर देते हैं, लाभ कुछ नहीं उठा पाते । हमें चेतना चाहिये । चेतना यह चाहिये कि हमें प्रभु की भी सुधि रहे और अपने आपके स्वरूप की भी सुधि रहे । यह धर्म पालन कहो बड़े-बड़े धनिक न कर सकें और कहो साधारण से दास उस तत्त्व को ग्रहण कर जायें ऐसे निरुपाधि ध्रुव अचल अनुपम स्वभाव की उपासना के प्रसाद से प्रसिद्ध स्वभावभूत निरुपाधि ध्रुव अचल अनुपम सिद्ध प्रभु को नमस्कार किया गया है । 89. सिद्ध प्रभु की वंदना का कारण—मंगलाचरण में सिद्ध परमेष्ठी को क्यों वंदन किया है इसका प्रयोजन यह है कि वंदना करते समय ऐसी जगह दृष्टि दी है जो कि होना अभीष्ट है । हमें क्या होना है उसके लिए उदाहरण है तो सिद्ध भगवान हैं । जैसे सिद्ध प्रभु चैतन्यमात्र पूर्ण विकसित पावन हैं पवित्र हैं विशुद्ध हैं केवल अपने ही रूप हैं, जहाँ अब न शरीर का संबंध, न कर्म का संबंध, न विकल्प का संबंध । धर्मादिक द्रव्यों की तरह स्वभावत: परिणति करने वाले सिद्ध भगवान ही एक उत्कृष्ट आत्मा हैं ऐसा ही मैं हूँ मेरे में भी वही शक्ति है वही स्वरूप मेरा है, अब स्वरूप का आवरण है अन्य रूप इसका परिवर्तन है यह बात और है, परंतु स्वरूप हमारा वही है जैसा कि सिद्ध प्रभु का है । यह तो वस्तुस्वरूप है । प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप वही है जो उस पदार्थ में उसके ही सत्त्व के कारण हो सकता है । मेरा स्वरूप वही है जो मेरे सत्त्व के कारण मेरे में सहज हो सकता है । यह बात अन्य प्रकार तो न हो जायेगी । इस बात पर यदि इतनी प्रतीति दृढ़ रहे कि मैं वह हूँ जो मेरे सत्त्व के कारण मुझ में है तो उसकी अनेक बाधायें समाप्त हो जाती हैं । 90. बाधिका आशात्रीध—बाधायें क्या हैं? जीव को जीने की आशा, धन संपदा कीं आशा, लोक में कीर्ति की आशा, ये तीन इच्छायें इस जीवलोक को सता रही हैं । मैं मर न जाऊं, मेरी जिंदगी बहुत बनी रहे । कितने भी दुःखी हों फिर भी जीने की आशा बनी रहती है । एक बुढ़िया थी बड़े कष्ट में, वह चल फिर भी नहीं सकती थी, तो रोज-रोज वह यह कहा करे कि हे भगवान तू मुझे उठा ले, याने मेरा मरण हो जाये । एक बार उस बुढ़िया के निकट एक सर्प आया तो बुढ़िया डरी और चिल्लाने लगी—अरे लड़कों, अरे नाती पोती, देखो सर्प आया, हमें बचावो । तो कोई पोता कहता है अरी दादी तू क्यों चिल्लाती है? तू रोज-रोज भगवान से विनती किया करती थी कि मुझे उठा ले सो भगवान ने ही तेरी विनती सुनकर तुझे उठाने के लिए भेजा है । तो कितना ही कोई कहे कि मुझे जिंदगी न चाहिये तो वह मौज में कह रहा है । यदि मृत्यु का अवसर आये तो वह जीने की आशा करता है । चीज ऐसी ही बनी हुई है इस मनुष्य के साथ। दूसरी है धन संपदा की आशा । बतलावो—बहुत अधिक धन संपदा जोड़ ली जाय । तो उससे इस आत्मा को मिल क्या जाता है, सिवाय एक ऐसा अथवा मौज का भाव बना लेने के । ये लोग मुझे जान जावें कि ये बड़े धनी हैं, और क्या उस धन संपदा से जीव को मिलता है? ज्ञानी पुरुष की इन समस्त पर द्रव्यों के प्रति यह दृष्टि रहती है कि जैसे काकबीट किसी के काम नहीं आता इसी प्रकार यह धन संपदा विभूति का ढेर भी मेरे किसी काम न आयेगा । ऊपर-ऊपर तो दिख रहा है सब कि भाई आज का युग तो ऐसा ही है, जिसके पास पैसा है उसकी पूछ है, उसे मौज है तो भले ही पूंछ रहे, मौज रहे, किंतु यहाँ आत्मा की ओर से बात कही जा रही हैं । ज्ञानमात्र आत्मा जो केवल भाव ही बना सकता है, भाव ही जिसका वैभव है । भाव के सिवाय और कुछ धन नहीं है, ऐसा यह आकाशवत् अमूर्त किंतु चैतन्य स्वभावमय आत्मा इसको बाहरी संपदा बहुत इकट्ठी हो गयी तो क्या मिल जायेगा ? लेकिन धन संपदा की आशा बहुत लगी है, करोड़पति भी धैर्य नहीं रख रहे हैं, वे भी और बढ़ाना ही चाहते हैं । तो दूसरी आशा यह है जो जीवों को सता रही है । तीसरी आशा है कीर्ति की । जैसे धन संपदा से जीव को कुछ लाभ नहीं है । कीर्ति इज्जत क्या? ये संसार के प्राणी ऐसा मान लें कह दें कि ये कोई खास लोग हैं, बस इज्जत में इतनी ही जान है । कह दिया किसी ने कुछ तो उससे इस आत्मा को मिल क्या गया? तो ये तीन प्रकार की आशायें इस जीव को दु:ख दे रही हैं । 91. ज्ञानी के आशाओं का अभाव—कोई पुरुष अपने आपका यथार्थ स्वरूप जान तो ले कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, मैं शाश्वत रहने वाला हूँ इसका यहाँ किसी से भी संबंध नहीं है । ऐसी प्रतीति करने वाला जीने की भी इच्छा नहीं करता । क्या हुआ? यहाँ हैं अभी और यहाँ से हटकर अन्य भव में कहीं गये तो क्या बिगड़ा इसका? दूसरे जाना ही पड़ता है, हम धैर्य धरे न धरे, मरना सभी को पड़ता है । अपने अंत:स्वरूप पर दृष्टि कर न कर पर मरना सबको पड़ता हे । लेकिन जिनकी दृष्टि अपने इस अंतस्तत्त्व पर है चैतन्यमात्र यह मैं हूँ ऐसी जिनकी दृष्टि है उनके लिए क्या है? जब यहाँ किसी से कुछ संबंध ही नहीं तो रहा तो क्या न रहा अन्यत्र चला गया तो क्या । मैं तो वही का वही हूँ, उससे मेरा क्या बिगड़ा। जो जीव अज्ञानी हैं और अज्ञानवश धन संपदा की तृष्णा में लगे हैं मौत तो उनकी है । जब मरण होगा तो कैसा आकुलित होकर होगा सो यह बात उन पर ही गुजरती है । चैतन्यमात्र अपने आपके विश्वास में जीवन की भी आशा नहीं करता, धन संपदा की भी आशा नहीं करता । यह बड़ा क्लेश है जीव पर कि धनी होने के कारण दो चार दस आदमी इसको कुछ बढ़ावा देते हैं, प्रशंसा करते हैं तो इसका होश खतम हो जाता है, अपने आपकी सुधि में नहीं रह पाता है । बाह्य की ओर दृष्टि लग जाती है । धन संपदा की क्या आशा करना? चैतन्यमात्र प्रतीति अपने आपकी रखने वाले को ये तीन आशायें न रखनी चाहिये । जैसा मैं अपने ही सत्त्व के कारण सहजज्ञान स्वभाव हूँ वैसा ही अपने को मानें तो एक भी संकट नहीं है, किंतु जब इस स्वरूप पर दृष्टि नहीं रहती, अज्ञान में बढ़ जाते हैं, दूसरों से संबंध स्नेह बढ़ाते हैं तो उससे अनेक आकुलतायें होती हैं । 92. आत्मा का वस्तुत्व—आत्मा एक चेतन रूप वस्तु है, वह सत् है । इसमें अनंत गुण हैं, ये गुण बिखरे नहीं हैं । सब एक में अभेद हैं और देखो भैया ! सब गुणों का स्वरूप न्यारा-2 होकर भी एक गुण का प्रभाव समस्त गुणों में है । यही सब गुणों की बात है । आत्मा में ज्ञान, दर्शन, शक्ति, श्रद्धा, चारित्र, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि अनंत गुण हैं, अब एक-एक गुण की चर्चा ले लो । जैसे सूक्ष्मत्व है, उसके प्रभाव या पर्याय अनंत गुणों में है, जैसे ज्ञानसूक्ष्म, दर्शन सूक्ष्म आदि । अब एक ज्ञानसूक्ष्म को ले लो वह अनंत गुणों के ज्ञान रूप है उसमें भी एक ले लो, उसके अनंत अविभागप्रतिच्छेद हैं उसमें एक ले लो, उसमें अनंत रस है और एक रस में अनंत प्रभाव है ऐसा अतिशय अनंत विलास होकर भी आत्मा एक अखंड वस्तु है एक स्वभाव रूप है । उसमें अपनी वर्तमान ज्ञानपर्याय का अभेद कर देने पर धर्म होता है । उसके प्रसाद से सिद्ध हुये हैं उनकी गति अचल है । ज्ञान आत्मा में सूक्ष्म पदार्थ है । उसमें प्रत्येक का ज्ञेयाकार है किंतु वह बाह्य पदार्थों को नहीं जानता, वह तो सिर्फ अपने को जानता है । ज्ञान अपने अनंत गुणों को जानता है अथवा अपने स्वरूप को परिणमता है, वह बाह्य पदार्थों को नहीं जानता । आप एक ऐना अपने सामने रख लो । उसमें अनेक मनुष्यों की सूरतें आपको दिखेगी किंतु आप किसे देखते हैं? आप तो ऐना को ही देखते हैं । ऐना को ही देखकर आप मनुष्यों का बखान कर डालते हैं । इसी तरह ज्ञान में अनेक पदार्थों का अनुरूप ज्ञेयाकार ग्रहण होता है । किंतु वह अन्य को नहीं देखता । ज्ञेयाकार ज्ञान में हैं वह अपने को जानता है । परंतु जानना ही स्वयं ऐसी विशेषता रखता है कि उसमें स्व-पर प्रकाशत्व है । इसलिये ज्ञाता ही रहकर हमें बाह्य वस्तुओं से पृथक् रहना चाहिये । ज्ञायकस्वरूप जो आत्मा का है उसे प्राप्त करना चाहिये । किंतु जगत के प्राणी इस तत्त्व को भूलकर स्व को चल बना रहे हैं और उसी में आनंद और सुख का अनुभव कर रहे हैं । भैया ! आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु यदि कोई है तो वह मोह बुद्धि है । जो लोग ऐसा समझते हैं ‘‘अयं निज: परो वेति’’ यह मेरा है और वह उसका है वे अपनी आत्मा के साथ बहुत अन्याय करते हैं । अरे भाई ! हम व्यवहार करने को मना तो नहीं कर रहे हैं किंतु तुम चौबीस घन्टे तो पक्ष की दृष्टि में मत रहो । व्यवहार के समय व्यवहार कर लिया करो । इसके लिये कुछ समय निश्चित कर लो उसमें ये मेरे मामा हैं, मौसिया है सबसे व्यवहार और मिलजुल लिया करो । शेष समय तो बाह्य पदार्थों से मोह छोड़कर अपनी विशुद्ध चेतना पर दृष्टि दो । अपनी आदतें ऐसी बनाओ कि पर्याय को गौण करके द्रव्य को देखें । अन्यात्मा को भी देखो तो चैतन्य के जानने से । चैतन भेद को गौण करके दर्शन करो । 93. प्रभुस्वरूप का ज्ञातृतत्त्व—ऐसा मत विचारों कि मैं एक कमाता हूँ और सबको पालता हूँ । ऐसा सोचना तो भैया ठीक नहीं है क्योंकि क्या मालुम आप किसके भाग्य से कमाते हैं? आपकी कमाई से जो लाभ लेते हैं आप उन सबके मुनीम अथवा चौकीदार हो, इसके अलावा कुछ नहीं हो । जिसके भाग्य में जैसा होता है उसे स्वयं उसकी प्राप्ति हो जाती है । इसलिये जगत के स्वरूप को समझ कर अपनी आत्मा को पहचानो कि मेरा तो स्वरूप चैतन्य है, ध्रुव है, यह संसार की कोई भी वस्तु मेरी नहीं है, मैं इनसे भिन्न हूँ । बाकी तो यह सब पर वस्तुओं की पर्याय हैं । जब आप इन विकल्पों को छोड़कर निज ज्ञायकभाव के सन्मुख होने के उपाय द्वारा अपने आत्मा के ध्यान में लीन हो जावेंगे तब आपको एक अलौकिक सुख मिलेगा जो न धन में है और न संसार के किसी भी अन्य पदार्थों में है । उनमें तो कभी सुख है ही नहीं परंतु मूढ़ता की कल्पना है । चैतन्यरूप ज्ञानमय जो आत्मा है उसी का ध्यान करना परम सुख है । इसलिये जगत का स्वरूप देखकर इससे उपेक्षा करो और अपनी आत्मा को पहिचानो । कुछ लोगों का कहना है कि मुक्त दो तरह के हैं । (1) सदाशिव और (2) मुक्त जीव । सदाशिव तो हमेशा से ही मुक्त है । और हमेशा तक रहेंगे । वे कर्मों से कभी भी छुये नहीं गये हैं । और दूसरे आत्माओं को उस सदाशिव भगवान की साधना करने से मुक्ति प्राप्त हो जाती है और जब भगवान कभी अंगड़ाई लेता है तब वे फिर से धरती पर टपक पड़ते हैं । आपके यहाँ भी दो तरह से दृष्ट मुक्त हैं । एक तो अनादि मुक्त और दूसरे कर्ममुक्त सिद्ध । अनादि सिद्ध सभी आत्मा हैं परंतु अनादि सिद्धता का भोग नहीं होता । हम, आप, जितने यहाँ पर बैठे हैं सभी अनादिसिद्ध हैं, किंतु वे द्रव्य दृष्टि से हैं । और जो पर परिणति से भिन्न हैं, अचल हैं, स्वात्मा में लीन हैं वे पर्याय सिद्ध भगवान कर्ममुक्त हैं क्योंकि वे कर्मों से रहित हैं । सनातन, सदाशिव, निज चेतन प्रभु की उपासना से, अवलंबन से अंतरात्मा कर्ममुक्त होते हैं परंतु इतनी विशेषता है कि यह सदाशिव अंगड़ाई नहीं लेता। आत्मा का उद्धार करना है, उसे सिद्ध बनाना है तो आत्मा में आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो तो आत्मा का उद्धार अवश्यंभावी है । 94. आत्मस्वभाव की टंकोत्कीर्णवत् अचलतव स्वाश्रिता:—आत्मस्वभाव टंकोत्कीर्णवत् अचल और सदा है, दृष्टिगत कर लो । जैसे एक चतुर कारीगर को आप बुला कर एक बड़ा सा पत्थर दिखा के कहते हो कि इसमें से एक अमुक नमूने की प्रतिमा बननी है, कारीगर सभी बातें सोच लेता है और सोचने के पश्चात् उस कारीगर को उसी पत्थर में प्रतिमा दिखने लगती है, वह प्रतिमा को अलग से थोड़े ही बनायेगा, किंतु उसे उसी के आवरक पत्थरों को निकाल देना है । उसे प्रतिमा पूर्णरूप से दिखने लगी है, यदि वह प्रतिमा उसे दिखाई न दे तो वह प्रतिमा नहीं बना सकता प्रतिमा के दिखते ही वह उसके आस-पास के आवरण को छेनी हथौड़े से दूर करेगा । पहले तो उसके हाथ बहुत शीघ्रता से चलेंगे किंतु जब प्रतिमा का आकार व्यक्त नजर आ जायेगा और उसे उसकी सफाई मात्र बाकी रह जायेगी तब वह अपने हाथ सावधानी से चलावेगा । और जब वह प्रतिमा बिलकुल साफ हो चुकेगी तो वह अपने हाथ और भी धीरे-2 सावधानी से चलावेगा । आपमें जिसका विकास होना है वह अभी भी आपमें है उसका विकास करना है । इसी तरह आप भी अपनी आत्मा को सिद्ध बनाओ । किसको? जो अभी पत्थर सा है । पहले तो यह निर्णय कर लो कि हम वास्तव में क्या हैं । जान लिया, अब सम्यग्दृष्टिरूप कारीगर बनो और ज्ञान रूपी छेनी और हथौड़ा लेकर आस-पास का पत्थर (राग, द्वेष, मोह) रूपी मल को दूर करो । देखो इसके लिये 3 बार मोटे रूप से प्रयत्न होते हैं पहले तो सम्यक्त्व उत्पन्न करने में करण द्वारा, फिर व्रतों के धारणा पालन में, फिर श्रेणी में । श्रेणी तो आजकल नहीं, फिर भी ज्ञानी को यह विकल्प नहीं, अपना लक्ष्य बनावो और कदम बढ़ाओ । आत्मा का नाश करने वाला मोह है । इसलिये इस मोह को दूर हटाओ । कोई किसी का साथी नहीं है और न कोई किसी के दुःख की दवा करता है । जैसे कोई भिखारी मांगता हुआ आपके दरवाजे पर आता है और आप से उसका दुःख नहीं देखा जाता है तब आप उसे कपड़ा देते हैं । तो आपने उसका दुःख नहीं मिटाया, वस्तुत: उसे देखकर आपको जो दुःख हुआ था उसे मिटाने के लिये आपने उसे वह कपड़ा दिया । दो मित्र थे एक बोला, मित्र हमने आज तक तुम्हारी अविनय नहीं की किंतु मरने के बाद हम तुम्हारी जरूर अविनय करेंगे, क्योंकि मित्र तो पैदल चलेगा और हम उन पर सवार होंगे । कहने का तात्पर्य कि दुनियां में कोई किसी के लिये कुछ नहीं करता । भगवान कुंदकुंद स्वामी ने इस ग्रंथ की रचना हमारे लिये नहीं बनाई किंतु उन्होंने निज की वेदना मिटाने के लिये ग्रंथ बनाया । हम मूढ़ों का दुःखी देखकर वे दु:खी थे । यानि आत्मा के सुख के लिये बनाया । इसलिये मोह बुद्धि को दूर हटाकर अपने स्वभाव को देखो । आप देखो पशु जब धूल में लिपट जाते हैं तो वे एक जोरों से फुरफुरी लेते हैं इस तरह इन कर्मों से लिपटे होने के कारण इनसे छूटने के लिये आप भी एक फुरफुरी लेवें और घर, मकान, धन, दौलत से मोह बुद्धि को हटाकर कल्याण मार्ग में लगें । यह मकान मेरा है, यह घर मेरा है, इस तरह तो एक भंगी भी जो सफाई का काम करता है कहता है क्योंकि वह किसी के दो तीन मकानों को कमाये हुये हैं तो वह कहता यह बिल्डिंग मेरी है अमुक भी मेरी है आदि । किंतु क्या यह सही है? इन सबकी ममता छोड़ो, अपनी तरफ ध्यान दो, कषाय भावों को दूर करो । क्योंकि कषाय सहित होने से जीव कर्मों का बंध करता है । इसलिये कषाय भावों को दूर करो । कर्मों के ऊपर तो हमारा कुछ बस नहीं चल सकता । क्योंकि कर्म पौद्गलिक हैं, पर-द्रव्य के ऊपर कोई बस नहीं चलता । इसलिये आत्मा से कषाय भाव, राग द्वेष मोहादिक को दूर करके आत्मा में आत्मा के द्वारा आत्मा का ज्ञान करो, फिर देखो कैसे उद्धार नहीं होता । भगवान सिद्ध प्रभु ने स्वभाव के अवलंबन से ही अचल गति पाई है । हम जिन-2 विशेषणों से नमस्कार करते हैं उनका प्रयोजन है । लोक में भी जिस प्रयोजन वाला हो उसी विशेषण से दूसरे को पुकारता है । भगवान सिद्ध पर परिणति से होने वाले संसार से रहित हैं अतएव अचल गति को प्राप्त हुये हैं । हमारा भी यही लक्ष्य रहे कि निज ज्ञायक स्वभाव में वर्तमान ज्ञानपर्याय की एकता कर पर परिणति का प्रध्वंसाभाव करें और सहज आनंदमय होवे । यहाँ पर श्रीमत् पूज्य कुंदकुंद स्वामी सर्व सिद्धों को नमस्कार करते हैं । 95. सिद्ध भगवंत का अच्युत स्वरूप—सिद्ध भगवंत का स्वरूप है केवल चैतन्यमात्र । कैसा निस्तरंग आत्मतत्त्व है । केवल ज्ञान वृत्ति जानना मात्र, जहाँ विकल्प भी नहीं उठते, जहाँ कभी कोई संदेह भी नहीं हो सकता कि कभी इस स्थिति से गिर गये तो ऐसी शुद्धता न रही तो? जहाँ उपाधि का सर्वथा अभाव हो चुका है वहाँ कभी अविशुद्ध होने का संदेह ही नहीं है । कोई सोचे कि यहाँ हम बहुत-बहुत ज्ञान बढ़ाकर संयम साधना करके राग पर विजय प्राप्त करते हैं । कोई क्षण ऐसा आ जाता है कि वह सारा वैराग्य किसी जगह समाप्त हो जाता है । तो शायद ये सिद्ध भगवंत करोड़ों लाखों वर्षों तक विशुद्ध बने रहे और कोई क्षण ऐसा आ जाय कि उनमें विकल्प उठ बैठें ऐसा संदेह नहीं करना चाहिये इस ज्ञानी के साथ कर्म कलंक का बंधन है । अभी वासनायें बनी है तो भले ही कोई गिरावट आ जाय लेकिन सिद्ध प्रभु के गिरावट का क्या काम? इसीलिये तो वे प्रभु आदर्श हैं । जैसे किसी को अपना मुख देखना हो तो झट दर्पण उठाया और देख लिया इसी तरह जिसको आत्मस्वरूप सुगमतया समझना हो तो सिद्ध भगवान का स्वरूप उपयोग में सामने ले और अपना स्वरूप तक लें तो यों अपने स्वरूप की सुधि होने में एक विशेष आश्रय होने के कारण सिद्ध भगवंतों को यहाँ वंदन किया जा रहा है । वास्तविक वंदन तो यह है कि हम अपना उपयोग उस रूप बनाकर इस तरह सिद्ध रूप में एकतान हो जाये उपयोग से कि बस केवल एक सहज चैतन्य स्वरूप का ही अनुभव हो । जब यहाँ वहाँ की कल्पनायें हट जाती हैं, जिस किसी भी प्रकार से आत्मा के विशुद्ध विकास में उपयोग ले जाते हैं तो वह फिर उस शुद्ध पर्याय के ज्ञान से गुजरकर सहज स्वभाव की ओर आ टिकता है । इस उपयोग को बाहर में तो कुछ आश्रय मिला नहीं तो अपने आप ही आयेगा अपने में तो जो इस प्रकार अभेद भाव से अपने आप में उस सिद्ध स्वरूप को बसाते हैं वास्तविक वंदन तो उनका है । 96. आत्मस्वभाव और उसके विकास की अनुपमता—अनुपम विशेषण के द्वारा सिद्धभगवान ने अनुपम गति प्राप्त की यह प्रकट किया है । जिसकी कोई उपमा न हो उसे कहते हैं अनुपम (उपमा से रहित) हम यहाँ पर उपमा व्यवहार में एक की अपेक्षा दूसरे को धनी आदि कह के कह देते हैं कि वह अमुक की अपेक्षा धनी है संपन्न है, किंतु यहाँ ऐसी बात नहीं है कि सिद्ध प्रभु को किसी सिद्ध की अपेक्षा हीन या अधिक बताया जा सकता है और न अन्य कोई संसारियों में ऐसा उत्कृष्ट है जिसके समान उन्हें बताया जा सकता हो तब सिद्धप्रभु की उपमा किसी से भी नहीं दी जा सकती है । हां यदि कह सकते तो यही कह सकते कि सिद्ध भगवान सिद्ध भगवान के समान हैं सो उसमें कोई उपमा अन्य नहीं है अत: सिद्ध भगवान की गति अनुपम ही है । सिद्ध प्रभु की आत्मा में चार विशेषतायें हैं, सर्वज्ञता वीतरागता, अनत सुख, अनंत शक्ति इनके द्वारा उन्होंने अनुपम गति प्राप्त की है । वे शरीर व कर्म से भी रहित है । आप बताओ दुनियां में आत्मज्ञान, और आत्मकल्याण से बढ़कर और कौनसी वस्तु है । हमारी आपकी जो अवस्थायें हैं ये अनुपम नहीं । ऐसे हीनादिक परिस्थिति के करोड़ों मनुष्य हैं, संसार की चारों गति में विषमता और आकुलता है । सर्व परिभ्रमण से रहित शिवस्वरूप अवस्था ही उत्कृष्ट अवस्था है । सिद्ध प्रभु भी सिद्ध होने से पहले अरहंत थे और अरहंत से पहिले साधु व साधु से पहले कोई श्रावक भी तथा अविरत सम्यग्दृष्टि थे । उन्होने समस्त पर द्रव्यों से भिन्न व अपने गुण पर्याय के एकत्व में प्राप्त समयसार की दृष्टि की और यत्न हुआ उनका वर्तमान ज्ञानपर्याय का स्वभाव में अभेद करने का तब उत्तरोत्तर निर्मल पर्याय का विकास ही होकर वे सिद्ध हो गये । उन्होने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है और उस ज्ञान ने कितने द्रव्यों के गुणों को जाना? उस केवलज्ञान ने अनंतानंत जीवों को अनंतानंत पुद्गलों को धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और असंख्यात काल द्रव्यों को और प्रत्येक द्रव्य के अनंत गुणों को जाना और प्रत्येक गुणों की अनंत पर्याय हैं सो उनको भी जाना और एक पर्याय में अनंत अविभाग प्रतिच्छेद हैं सो उन्हें भी जाना और अविभाग प्रतिच्छेद में अनंत रस हैं, एक रस में अनंत प्रभाव है सो सिद्ध प्रभु ने आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) से उन सबको जाना । उस आत्म ज्ञान के द्वारा अनुपम गति शोभायमान हो रही है । भैया ज्ञान प्राप्त करो विज्ञान से अधिक दृष्टि ज्ञान पर दो । जिस ज्ञान पर अहंकार आता है वह विज्ञान ही है । देखो यहाँ पर जरा-2 सी बात पर अहंकार आता है कि ओह ! जो मैं हूँ सो कोई नहीं है । ये सब बात अज्ञान के कारण है । अरे सोचो ! क्या इन क्षणिक वस्तुओं पर अहंकार करते हो । अहंकार करने लायक तो वह वस्तु है—जिसके प्राप्त होने पर अहंकार ही नहीं रहे, वास्तव में वही वस्तु ठीक है । इसलिये गौरव अनुभव करना है तो आत्मज्ञान पर गौरव करो, ज्ञान के होने पर अहंकार ही नहीं रहेगा वही सच्चा ज्ञान हैं । सिद्ध प्रभु को केवलज्ञान हो चुका है, इसलिये वहाँ पर राग द्वेष आदि कोई भी नहीं हैं इसलिये वे अनुपम गति के धारक हैं, उनकी उपमा हम किसी से भी नहीं दे सकते । 97. आत्मा का ज्ञान व आनंद—जो स्वभाव सिद्ध प्रभु में है वह स्वभाव हम में भी है, किंतु यहाँ गलती इतनी हो गई कि जिनसे सुख मिलता है, ज्ञान प्राप्त होता है उन्हें नहीं मानते, किंतु मोह बुद्धि में फंसे होने से धन से सुख होता है सुख पर वस्तु में है, ज्ञान शास्त्र सुनने स बढ़ जाता है लोग बाग इस प्रकार की बातों में पड़े होने से अपनी आत्मा का भुलाव कर रहे हैं । अपनी प्रभुता को व सिद्ध प्रभु की प्रभुता को देखो आप परिचित स्तुति को जब बोलते हैं उस समय के भाव को, स्व वचनों में की गई स्तुति के समय के भावों को जरा देखो तो उनके तार-तम्य पर विचार करो, आपको जमीन आसमान जैसा अंतरदृष्टि गोचर होगा । जब आत्मा का परिचय होगा तब प्रभु का भी परिचय होगा । आजकल कुछ भाइयों ने ऐसी धारणा बना रक्खी है कि ज्ञान शास्त्र से होता है और सुख अनुराग से होता है । तो हम पूछते हैं शास्त्र कहते किसे हैं? क्या हम जो यह कागज की पुस्तक रखे हैं, इसका नाम शास्त्र है? अरे ! वास्तव में इस पर शास्त्र से ज्ञान नहीं होता, भगवान की दिव्य ध्वनि से भी ज्ञान नहीं होता । किंतु ज्ञान तो हमें अपने स्वभाव से होता है । शब्दों से ज्ञान का प्रकाश नहीं होता किंतु ज्ञानका प्रकाश तो अपने आत्म स्वरूप से होता है । ज्ञान न तो औरों स होता है और न किसी परपदार्थ से । अभी आप ही देख लो जब पढ़ने में समझ में नहीं आता तो पत्र को मरोड़ते, कि दिमाग को मरोड़ते । इसी तरह सुख भी, परवस्तु से, या परपदार्थ स नहीं होता है । सुख धन से या संतान परिवार से नहीं होता है । देखा जाता है कि कभी-कभी धन को छोड़कर प्राणरक्षा के हेतु भागना पड़ता है तो आप विचार करो कि धन में कहां से सुख आया । परिवार, पुत्र आदि से भी सुख और आनंद नहीं, क्योंकि प्राय: देखा और सुना जाता है कि परिवार से हम दु:खी हैं, हम संतान से दु:खी हैं क्योंकि वह कपूत निकला या सुपूत निकला तो मोहवश गधा का जीवन खुद का बन गया । इस तरह आनंद और सुख किसी परपदार्थ से नहीं । वस्तुत: आनंद और सुख तो आत्मा का स्वभाव है । वे आत्मा से ही पैदा होते हैं, भक्तिरूप अनुराग से भी सुख नहीं होता । सुख, सुखस्वभाव से प्रकट होता है । सिद्ध भगवान जो बन गये हैं, उन्होंने ऐसा समझाया था कि ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव है । वह तो अपने स्वभाव से होता है पर पदार्थ से ज्ञान और सुख नहीं होते । ऐसा समझ कर अपने से अपने को देखो और निर्मल पर्याय हो, उत्तरोत्तर विकास-प्रवाह से सिद्ध बन गये । आज दुनियां में सभी अनुपम बनना चाहते हैं । किंतु कोई धन में, कोई संसार के सुख ऐश्वर्यों में अनुपम बनना चाहते हैं । अगर अनुपम बनना है तो सिद्ध प्रभु के समान अनुपम बनो । 98. भगवान की गति की अपवर्गता—वर्ग 3 हैं—धर्म, अर्थ, काम । सिद्ध प्रभु इन तीनों से रहित है । गृहस्थों के लिए शास्त्रों में बतलाया है, धर्म, अर्थ, काम ये गृहस्थ धर्म के लिए तीनों चीजें आवश्यक हैं, बिना इनके गृहस्थ की शोभा नहीं । गृहस्थ की शोभा इन तीनों से है एक से नहीं । देखो भैया पुरुषार्थ चार बताये हैं । प्रथम धर्म है सो धर्म पालन करे और द्वितीय अर्थ है सो तथा धन कमावें तथा तीसरा सांसारिक व्यवहार सो है काम । अब चौथा बचा है मोक्ष, सो आज कल मोक्ष तो होता नहीं और जो आज मोक्ष का यत्न हो सकता है वह धर्म में गर्भित है । इसलिए भैया ! आप लोगों को उसके स्थान पर एक सरल सी चीज बताये देते है—वह है सोना (नींद) । तो अब इन चारों को क्रमश: पालन करो । दिन रात में 24 घंटे होते हैं, सो प्रत्येक को 6-6 घंटे दो । छ: घंटे धर्मध्यान करो । सुबह 4 बजे उठो, उठकर सामायिक करो, स्वाध्याय करो, पश्चात् शौच शुद्धि स्नान क्रिया से निवृत्त होकर नहा धोकर भगवान की पूजा करो और बाद में शास्त्र सुनो, तत्त्वचर्चा करो । फिर शुद्ध क्रिया से बने हुये भोजन का अतिथि संविभाग करो, शुद्ध भोजन करो । शुद्ध भोजन करना भी एक धर्म है, इससे दो लाभ होंगे एक तो आप त्यागी व्रती को भोजन प्रति दिन भी करा सकते हैं और दूसरे आत्मा की शुद्धि भी होगी । तो भोजन करके अब 6 घंटे अर्थ उपार्जन करे, किंतु वह न्यायपूर्वक पैदा करे । और इसके बाद 6 घंटे अपने व्यवहार के कार्यों में बितावे । पश्चात् 6 घंटे आराम करे अर्थात् सोवे । देखो एक गृहस्थ की कितनी सुंदर दिन चर्या है समय का विभोग हो गया और प्रहरों का भी विभाग हो गया । भगवान सिद्ध प्रभु को धर्म, अर्थ, काम इनमें से कोई भी काम करने को बाकी नहीं है और जो इन तीनों से रहित है उसे अथवा उस गति को कहते हैं अपवर्ग । तो सिद्ध प्रभु अपवर्ग गति को भी प्राप्त हैं, इसलिये यहाँ सर्व सिद्धों को नमस्कार है । कोई कहता है कि सर्व सिद्ध को नमस्कार क्यों है? कहते हैं कि हम और हमारे हितैषी जिस मार्ग में जा रहे हैं और वहाँ हमारे ऊपर कोई शत्रु आक्रमण करता है तो हम वहाँ किसी को छांटकर नहीं पुकारते किंतु समुदाय रूप में कहते हैं दौड़ो । इसी तरह भगवान कुंदकुंद अपने अशुभोपयोग से बचने के लिये व शुभोपयोग की वेदना से दूर होने के लिये समुदायरूप में कहते हैं कि सब सिद्धों को नमस्कार होओ । हमारे अंदर कषाय रूपी अनेक शत्रु हैं और जब उनका हमला हमारे ऊपर होता है तो हमें वहाँ छांटने की फुरसत नहीं मिलती कि हम किसे पुकारें । इसलिये समुदायरूप से सब सिद्धों को नमस्कार हो ऐसा श्री पूज्य आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने अपने ग्रंथ के आदि में कहा है । भगवान सिद्ध के अनेक नाम है । उन्हें परमात्मा कहते हैं याने जिसकी उत्कृष्ट आत्मा है उसे कहते हैं परमात्मा । तो सिद्ध प्रभु की आत्मा में परम उत्कृष्ट ज्ञान का विकास हुआ है । परमात्मा शब्द की निरुक्ति है—परा मा लक्ष्मीर्यत्र स परम: परश्चासौ आत्माचेति परमात्मा । जहाँ उत्कृष्ट लक्ष्मी है, उसे कहते हैं परम व जो परम आत्मा है उसे परमात्मा कहते हैं लक्ष्मी शब्द लक्ष्म से बना है । लक्ष्म का अर्थ लक्षण याने चिन्ह है । आत्मा का चिन्ह ज्ञान है सो जहाँ उत्कृष्ट ज्ञान प्रकट हो गया उसे कहते हे परम, और जो परम आत्मा हो गया है उसे परमात्मा कहते हैं । उनका ज्ञान लोक, अलोक और तीनों कालों में व्यापक है, वे तीनों कालों की बात जानते हैं । 99. सिद्ध भगवान की ईश्वरता:—जो ऐश्वर्य से सहित हो वह ईश्वर है अथवा जिस अपना ऐश्वर्य भोगने में किसी दूसरे की अपेक्षा न रखनी पड़े उसे कहते हैं ईश्वर । और जिसे अपना ऐश्वर्य भोगने में दूसरे की अपेक्षा रखनी पड़े वह ईश्वर नहीं है । भगवान को प्रभु भी कहते हैं । याने जिसमें प्रकर्ष प्राप्त गुण हों वह प्रभु है । तो भगवान के सभी गुण प्रकर्षता को प्राप्त हैं । उनका ज्ञान कितना व्यापक है कि जो लोक को, अलोक को और तीन कालों को भी जानता है, इतना व्यापक है उनका ज्ञान, इसलिये उन्हें प्रभु भी कहते हैं । एक ही समय में लोक अलोक में व्यापक हो और एक ही समय में तीनों कालों में व्यापक हो ऐसा कुछ अद्भुत तत्त्व है तो वह है केवल ज्ञान । इसी कारण परमात्मा का नाम विभु भी है । अब अन्य प्रकार से लोगों के ईश्वर का रूप देखो । हिंदू धर्म में तीन महान् देवता माने गये हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश । वे घट-घट में रहते हैं याने हर जगह प्रत्येक वस्तु में वे रहते हैं। कोई भी ऐसा स्थान नहीं जो उनसें छुटा हो, अर्थात् वे उसमें न रहते हो । वे ही ईश्वर है । सो भैया ! वह तीन देवता हैं—उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य । इन्हीं का रूपक उत्पाद में स्रष्टा ब्रह्मा, व्यय में नाशक शंकर (महेश) और ध्रौव्य में रक्षा में विष्णु हैं । वैसे ब्रह्मा की कल्पना आदिनाथ में है । भ0 श्री वृषभदेव ने कलियुग के आदि में षट्कर्म की देशना कर प्रजा की पालना की । वे नाभि राजा के पुत्र थे, लोग उन्हें नाभि (टुंडी) से उत्पन्न होना मानते थे । महेश एक दिगंबर मुनि थे । 11 अंग 9 पूर्व के ज्ञाता थे । जब दसवां विद्यानुवाद पूर्व सिद्ध होने को था तो विद्या देवताओं की प्रशंसा से विचलित हो गये फिर जो चरित्र प्रसिद्ध है वह उनका चरित्र हो गया । विष्णु नारायण को कहते हैं । इन ईश्वरों के भैया ऐसे चरित्र बताये हैं कि जब एक पर आपत्ति आवे तब दूसरों से बचाने की वे अभ्यर्थना करते थे । देखो, एक उदाहरण है जिससे उनके ईश्वरत्व का पता चलता है महादेवजी तपस्या कर रहे थे, तब भस्मासुर उनकी सेवा किया करता था, सेवा करते-करते जब बहुत दिन हो गये तब महादेव ने उससे कहा कि हम तेरे ऊपर प्रसन्न हैं तुझे जो वरदान चाहिये सो मांग ले । तब उसने महादेवजी से कहा कि मुझे तो आप यह वरदान दे कि मैं कि मैं जिस पर हाथ रख दूं वहीं जल कर भस्म हो जावे । महादेवजी ने यह वरदान दे दिया । अब भस्मासुर के मन में विचार उठा कि पार्वती को ले चलना चाहिए और पहले महादेव को ही छू लेना चाहिए जिससे वह भस्म हो जाय और वह महादेव को छूने को जब चला सो महादेव वहाँ से उठकर विष्णु भगवान की शरण में जा पहुंचे और बोले भगवान मेरी रक्षा करो और सारा हाल बताया । तब भगवान विष्णु बोले कि तुम इस तरह कई बार कर चुके हो, अच्छा तुम बैठो मैं तुम्हें बचाये लेता हूँ । तब विष्णु पार्वती का रूप धारण करके भस्मासुर के पास गए और बोले कि देखो मेरे पति महादेव अपने कुलों पर एक हाथ रखकर और दूसरा हाथ सिर पर रख कर नाचते थे सो अब आज तुम भी अपना नाच दिखाओ । भस्मासुर ने जैसे ही नाच शुरू किया और अपना एक हाथ अपने कुलों पर रखा और दूसरा हाथ अपने सिर पर रखा तो सिर पर हाथ रखते ही वह स्वयं जल कर भस्म हो गया क्योंकि उसे वरदान प्राप्त था । इस उदाहरण से आप लोग जान गए होंगे कि ईश्वरत्व क्या है । ईश्वर उसे कहते हैं कि जो अपने ऐश्वर्य आदि के योग में दूसरे की अपेक्षा न करे । इसलिए सब बाह्य पदार्थों को छोड़कर उस आत्म स्वभाव का ध्यान करो जिसका ध्यान करके भगवान सिद्ध बने । जिन्होंने अनुपम गति को प्राप्त किया है । ऐसे उन सर्व सिद्धों को नमस्कार हो । और जो पुण्य पाप के सब चक्रों से दूर हो चुके हैं शरीरादि बाय मल से अत्यंत विमुक्त हो गए हैं ऐसे सर्व सिद्धों को नमस्कार हो। 100 वर्ग के झगड़ों से रहित सिद्धों को नमस्कार:—यहॉ भगवान कुंदकुंद स्वामी सिद्धों को नमस्कार कर रहे हैं; कैसे हैं वे सिद्ध अपवर्ग गति को प्राप्त हुए हैं, उनकी आत्मा परम विशुद्ध हो गया है । उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है । जहाँ उत्कृष्ट ज्ञान हो वहाँ कोई भी वर्ग नहीं रहता है । उनकी आत्मा से राग-द्वेष आदिक भाग चुके हैं, उनकी आत्मा परम विशुद्ध हो गई है । वर्ग माने समूह भी है, वह समूह जो राग-द्वेष, मोह, लोभ आदि के रूप में आ जुड़ा उस सबसे रहित गति को प्राप्त हुए हैं अथवा वर्ग कर्मशक्ति का नाम है, रंचमात्र भी वर्ग जहाँ नहीं रहा ऐसी गति है । 14 वें गुणस्थान तक वर्ग, वर्गणा स्पर्धक भी रहते हैं, सो 14 वें गुणस्थान से भी अतीत सिद्धप्रभु, वर्ग से ही रहित हो गये, फिर वर्ग के समूह रूप वर्गणा और वर्गणा के समूह रूप स्पर्द्धक की तो बात ही नहीं है, ऐसी अपवर्ग नामक पंचमगति को प्राप्त हुये, उन सब सिद्धों को नमस्कार हो । आत्मा अखंड है, वह अपने स्वरूप से कभी भी विचलित नहीं होती है, इसी के अनुरूप, भगवान सिद्धप्रभु ने अचल गति भी प्राप्त कर ली है क्योंकि सिद्ध की दशा स्वभाव के अनुरूप है । धर्म आत्मा की वीतराग परिणति का नाम है, धर्म आत्मा का स्वभाव है । जीव में जब तक राग-द्वेष रहता है, तब तक वह अपने असली स्वरूप को नहीं पहिचान पाता स्वरूप की पहिचान बिना स्वरूप की प्राप्ति न होगी । अत: राग-द्वेष को छोड़कर अपने असली स्वरूप को देखने का प्रयत्न करना चाहिये । उसका उपाय भेदविज्ञान करके स्वभावदृष्टि करना है । अहंकार किस पर किया जावे? राग-द्वेष से अहंकार पद होता है, वह प्राणी यह नहीं जानता कि मैं अहंकार किस पर कर रहा हूँ? मैं अहंकार जिस पर कर रहा हूँ क्या व वास्तव में अहंकार, गर्व करने की वस्तुएं हैं? धन क्षणभंगुर है । आज जिसके पास अपार धन है कल वही निर्धन अवस्था में देखा जाता है । तिस पर भी उसकी दृष्टि आकुलता का ही निमित्त होती है । जड़ की तो बात क्या? परंतु ज्ञान जो वास्तविक ज्ञान नहीं है, यह भी अहंकार करने की चीज नहीं है । अहंकार करने की चीज तो वह है कि जिसके प्राप्त होने पर अहंकार ही न रहे । यह जो मैं इन बाह्य परवस्तुओं पर अहंकार करता हूँ यह तो कुछ भी मेरा नहीं है । जिस ज्ञान पर अहंकार हो वह ज्ञान, ज्ञान ही नही, मात्र विज्ञान है । ज्ञान, ज्ञान के अनुभवन रूप है, वहाँ अपूर्व आनंद है वहाँ अहंकार जैसे ऐबों को कोई स्थान नहीं है । इस अत्यंत उदार गंभीर तत्त्व के समझे बिना जो विविध बाह्य ज्ञान होते रहते हैं, अज्ञानियों को उन पर अभिमान हो जाता है । 101. अहंकार का फल—एक लड़का था । उसने बड़े परिश्रम से बी0 ए0 शास्त्री आदि कई परीक्षायें पास की । एक दिन वह कार्य वश कहीं जा रहा था । रास्ते में नदी पार करनी पड़ती थी, सो उसने एक मल्लाह को बुलाकर कहा हमें नदी पार करा दो । तब मल्लाह नाव लेकर आ गया और उस लड़के को बैठा करके दूसरे किनारे की ओर चल पड़ा । थोड़ी दूर जाने पर वह बाबू साहब मल्लाह से बोला, ‘क्यों तुम कुछ पढ़े हो?’ उसने कहा हुजूर मैं तो कुछ भी नहीं पढ़ा । तब लड़के ने फिर पूछा कि तुम्हारे बाप दादा भी पढ़े थे या नहीं? मल्लाह ने उत्तर दिया कि नहीं तब उस लड़के ने मल्लाह को नालायक, बेवकूफ, आदि अनेक उपमाएं दी और बोला तुम्हारा जीवन बेकार है, ऐसे लोगों ने ही भारतवर्ष को बर्बाद कर दिया है । नाव आगे बढ़ रही थी । वह जाकर एक ऐसी भंवर में जा पड़ी कि वहाँ से नाव निकलना मुश्किल था । बाबू घबड़ाया और बोला मल्लाह बचाओ तब मल्लाह ने उस लड़के से पूछा ‘क्योंजी आप तैरना जानते हैं’ लड़का बोला—नहीं । मल्लाह बोला—क्या तुम्हारे बाप दादा भी तैरना जानते थे, तब लड़के ने कहा कि नहीं । तब मल्लाह ने उसे उतनी ही उपाधियां दी और बोला कि तुम्हारा जीवन बेकार है लो अब यह नाव डूबने वाली है; मैं तो तैरकर अपने प्राण बचाता हूँ । कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि ये बाह्य पदार्थ है, इंद्रिय और मन के परिश्रम सै पैदा किया हुआ ज्ञान भी बाह्य तत्त्व है; इन पर अहंकार करना मूर्खता है । इसलिए अपनी आत्मा को देखो उसे पहिचानो । निज स्वभाव में वर्तमान ज्ञान पर्याय की एकता करो । अपना स्वभाव अत्यंत निर्विकार है । स्वभाव विकार को स्वीकार करता नहीं है, वह सनातन सत्य है । आत्मा संसार में अकेला भ्रमण करता है, कोई उसका साथी नहीं है । उसका साथी यदि कोई है, तो निर्मलता है अत: इस निर्मलता को लाने के लिये अपना स्वरूप जानो । भगवान को जानो और उससे निज स्वरूप जानने मानने का प्रयोजन निकाल लो; बस फिर सहज वैराग्य से निर्मलता प्राप्त करो । 102. लक्ष्य के अनुसार गति—बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें यह भी नहीं मालूम कि हमें क्या करना है, हमें क्या बनना है; मानो उन्होंने अपने जीवन का कोई ध्येय ही नहीं बनाया । जिसका कोई लक्ष्य नहीं रहता है, उसका जीवन समुद्र में घूमती हुई नाव की तरह होता है । जैसे कोई समुद्र में नाव घुमा रहा है किंतु उसका कोई लक्ष्य न हो उसे पता नहीं कि मुझे कहां जाना है; तो वह थोड़ी देर नाव को पूर्व की ओर ले जाता है तो कभी पश्चिम की ओर । इस प्रकार वह समुद्र के बीच में ही रहता है । फल यह होता है कि वह किसी किनारे पर नहीं लग पाता । इस प्राणी का भी जब एक लक्ष्य नहीं है, तो कभी किसी ओर राग करता है कभी किसी ओर इसी प्रकार द्वेष संग्रह आदि की बात करता है, फल यह होता है कि जिंदगी में कभी संतोष नहीं होता कि हमने कुछ कर लिया । इसलिये मनुष्य को सबसे पहिले अपना लक्ष्य बना लेना चाहिये । वह उत्तम लक्ष्य यदि संक्षिप्त शब्दों में है तो यह है कि हमें तो सिद्ध बनना है। आप जैसा लक्ष्य बना लेंगे वैसी सफलता भी प्राप्त कर लेंगे ऐसी आपमें शक्ति है । दुनियां में सबसे बडा काम यही है कि एक लक्ष्य बन जावे कि हमें तो सिद्ध बनना है । सिद्ध भी क्या बनना है। यथार्थ स्वरूप की समझ होने पर मात्र ज्ञाता होना है, सो यथार्थ ज्ञाता रहना है । समानता सामान्य के आश्रय से हो सकती है समानता का सामान्य के साथ सामंजस्य है । विशेष विषयक यत्न समानता से दूर रख देता । कुछ बड़े लोगों की दृष्टि भी मात्र ब्रह्म पर इस हेतु है । हमें तो हिंदुस्तान का महान नेता बनना है यह लक्ष्य बनाया और आप एक नेता बन कर ऊंचे-ऊंचे काम करने लगे, आपने बहुत जगह में खूब प्रशंसा प्राप्त की, लेकिन यह बताओ कि इनसे आपकी आत्मा का कोई कल्याण हुआ क्या या होगा? नहीं, क्योंकि यह तो सांसारिक कार्य है । अरे ! अपनी आत्मा को देखो । वह आपका सच्चा कार्य है । 103. समान भाव की सहज सिद्धता—समान जो बनते हैं वे सहज बनते हैं, जैसे सिद्ध देव । यहाँ भी यदि आप सब समान बनना चाहते हैं तो बन सकते हैं द्रव्यदृष्टि से । अपना उपयोग चैतन्यतत्त्व पर दो । सभी चेतन चैतन्यभाव से एक स्वरूप है स्वभाव से परस्पर सभी में कोई अंतर नहीं है । समान दृष्टि में आनंद है, समान परिणमन में आनंद है । जिस उपयोग में जितनी विषमताओं का आदर है वह उपयोग उतना ही परेशान है, यों ही प्राणियों के उद्देश्य नि:सार है । आप स्वयं निर्णय करले कि विषम बने रहने में लाभ है कि पूर्ण सम होने में लाभ है । अपना उद्देश्य अवश्य ठीक बना लो । हमें तो आत्मज्ञान पैदा करके सिद्ध बनना है । जहाँ यह लक्ष्य बन गया कि सारे झगड़े समाप्त हो गये । आज यह देखने में आता है कि भाई-भाई में, पिता-पुत्र में, सास-बहू में, नित्य कोई न कोई झगड़ा चलता रहता है क्योंकि उनका कोई आत्म साधना का लक्ष्य नहीं है । वे तो सांसारिक क्षणिक पदार्थों में मोहबुद्धि, राग-द्वेष किए हुए हैं और इन्हीं के कारण आपस में कलह करते रहते हैं । यदि उनका यह लक्ष्य बन जावे कि हमें तो अपनी आत्मा का उद्धार करना है, अपना असली स्वभाव देखना है, सिद्ध बनना है, तो कोई भी कारण नहीं कि ये कलह और भगड़ा करे । भैया अपने पर दया करो और विचार करो कि हमें तो सिद्ध बनना है । शक्ति से हमारी आपकी दशा भी सिद्ध है किंतु उस पर राग द्वेष तो लगे है । यदि हमारी शक्ति सिद्ध नहीं तो हम कभी भी सिद्ध नहीं बन सकते । जैसे कंकड़ों में गलने की, चुरने की योग्यता ही नहीं है तो आप 10 रोज भी चुरावें लेकिन वे चुर नहीं सकते । हमारी आत्मा में सिद्ध बनने की योग्यता है । इस अचल स्वभाव की ओर देखो और सिद्ध बनो। 104. हमारा तारने वाला—हमें भगवान नहीं तारते, किंतु उनकी वीतराग अवस्था के देखकर हमें अपनी आत्मा का ध्यान होता है । पश्चात् अपने स्वरूप का चिंतवन करने से हम स्वयं तर जाते हैं । अगर भगवान सभी को तारने लगे तो भगवान मुसीबत में फंस जाय; क्योंकि अकेले भगवान और इतना बड़ा संसार, पूरी दुनिया का भार उन पर आ जाय । लेकिन ऐसा है नहीं, आप लोग विचार करो कि जो अधूरा होता है, जिसे किसी तरह की इच्छा होती है, वही ना किसी काम को करता है । जिसके कोई इच्छा नहीं होती, वह किसी भी काम को नहीं करता है । उसका काम तो अनंत सहज आनंद का परिणमन है । भगवान के संपूर्ण ज्ञान (केवल ज्ञान) पैदा हो गया है तो उन्हें क्या करना है । 105. भगवद्भक्ति की महिमा—भैया आप लोग यदि अपना कल्याण चाहते हो तो भगवान से प्रेम करो । भगवान प्यारे तभी हो सकेंगे, जब आपको उनका हमेशा ध्यान रहेगा । जैसे आपको जो वस्तु अधिक प्रिय है तो आपको हमेशा उसी की धुन सवार रहती है । वैसे ही भगवान स्वरूप की धुन सवार हो जावे । भैया अब तो भगवान को अपना इतना प्रिय बना लो कि घर में, दुकान में कहीं भी रहते हुये सदा भगवान ही हृदय में बसा रहे । किंतु आपके मन में भगवान तभी विराजमान होगा, जबकि हृदय से राग-द्वेष मोह आदिक सभी को दूर कर दोगे, पर्याय बुद्धि का घोर अंधकार हटा दोगे । जिसके हृदय में भगवान बसा है, वह कभी भी संताप को प्राप्त नहीं होता । कोई उसके अभिप्राय के प्रतिकूल भी बोले तो भी उसे दुख और संताप नहीं होता । भगवद्भक्ति शुभपरिणाम है, उसका नैमित्तिक संबंध भी पुण्य संबंध से है । तत्काल महती आकुलताओं से दूर हैं वह पवित्र भाव है । किंतु भैया भगवत्स्वरूप-चिंतवन के अनंतर शुद्ध स्वभाव के स्पर्श में आता रहे, तो उसके चरम उन्नयन का कारण भगवत् स्नेह हो जावे । भगवद्भक्ति से लौकिक बाधायें भी यों ही दूर हो जातीं है । एक पुजारी था उसने करीब 10 वर्ष से अपने घर में भगवान की मूर्ति की स्थापना की, भगवान का नित्य सबेरे बड़े भावपूर्वक पूजन किया करता था कुछ दिन बाद वह खूब धनी हो गया, तब कुछ चोरों ने परस्पर कहा कि कल इसका सब धन छीन लें, और इसकी जान भी ले लें । ऐसा विचार कर दूसरे दिन वे उसके यहाँ आ गये और बोले कि हम तुम्हारा धन भी लेंगे और जान भी लेंगे । यह सुनकर पुजारी बोला कि मुझे चिंता नहीं, तुम दोनों चीज ले लो । किंतु मेरी एक प्रार्थना है, अगर तुम उसे मान जाओ तो कहूं? चोर बोले कहो, तब पुजारी बोला, मेरे पास एक मूर्ति है, मैं उसकी 10 वर्ष से प्रति दिन पूजा किया करता हूँ सो मुझे उस मूर्ति को नदी में डुबा आने दो । चोरों ने कहा ठीक है, दो चोर उसके साथ गये और अन्य चोरों ने कहा कि जैसा यह करे सो हमें बताना । इसके बाद पुजारी मूर्ति को लेकर बोला हे भगवन् मेरा धन चला जाय, मेरी जान चली जाय मुझे इसका दुःख नहीं, किंतु दु:ख इस बात का है कि भगवान की 10 वर्ष सेवा की उसे अपने हाथों से कैसे सिराऊं । तब ऊपर से आवाज होती है कि तू मुझे फेंक दे चिंता मत कर । जिस भगवान की तूने 10 साल सेवा की है उससे तुझे बहुत लाभ मिल चुका है; जो ये 4 चोर है सो पूर्व भव में तूने उन्हें मारा था, सो तुझे भी इनके हाथों चार बार मरना था, किंतु पूजन के प्रभाव से तू चारों से एक बार ही मारा जायगा । तीन मौत टल गई । इतना सुन कर वे दोनों चोर बोले कि तू अभी इस मूर्ति को नदी में मत फैंक और हमारे साथ चल, वहाँ लौट कर दोनों चोरों ने अपने दोनों साथियों से सारी बातें कहीं, और बोले कि देखो भगवान ने तो इसकी तीन मौतें काट दीं तो क्या हम चारों मिलकर इसकी एक मौत नहीं काट सकते? ऐसा विचार उन चोरों ने उसे छोड़ दिया और बोले तू आराम से रह । कहने का मतलब है कि ईश्वर के सच्चे स्वरूप (अपने निज प्रभु) का जब ज्ञान हो जाता है, तब उसका कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता है, क्योंकि आत्मा अजर अमर है । धव चैतन्य भाव ही इसका सहज भाव है उस ही स्वरूप आत्मा है यह त्रिकाल आत्मा का सर्वस्व है, दिखने वाला तो असमान जातीय द्रव्य पर्याय है । अगर कोई शत्रु इस पर आक्रमण करेगा तो वह आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, शरीर को चाहे वह नष्ट कर दे, याने शरीर के नाश में कारण बन जावे । अपनी आत्मा को पहिचानो तभी यह अविनाशी कल्याण होगा जरा सोचो समझो भैया । 106. सिद्ध गति (गतिरहित दशा) को विशेषता—यहां पूज्य श्री कुंदकुंद स्वामी कहते हैं कि मैं सर्वसिद्धों को नमस्कार करके, समय प्राभृत को कहूँगा, सिद्ध प्रभु सहजसिद्ध भी कहा जाता है, और कर्मक्षय सिद्ध भी कहा जाता है। गतिरहित कर्मक्षय सिद्धप्रभु है, और गतिरहित, सहजसिद्ध प्रभु भी । ये दो प्रकार के जुदे-जुदे नहीं हैं, हम आपमें सहजसिद्ध प्रभु भी तत्त्व है, किंतु सिद्ध प्रभु में सहजसिद्ध तत्त्व एवं कर्मक्षय सिद्धपना भी है । 107. सिद्ध प्रभु की आदर्श ध्रुव दशा—कैसे हैं वे सिद्ध जिनकी गति ध्रुव है । ध्रुव कहते हैं जो हमेशा रहे; न घटे और न बढ़े, ऐसी अवस्था सिद्ध प्रभु की है । चारों गतियों में कोई भी गति ध्रुव नहीं हैं । मनुष्य हमेशा मनुष्य नहीं रहता, तिर्यंच हमेशा तिर्यंच नहीं रहता, कोई रहे भी तो वहाँ भी भव परिवर्तन है, और नारकी देव मरने के बाद अपनी गति में नहीं रहते; एक गति से दूसरी और दूसरी गति से तीसरी इस तरह संसारी जीवों का परिभ्रमण होता रहता है । सिर्फ सिद्धगति ही ऐसी एक गति है जो ध्रुव है । उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है, उनकी आत्मा परम विशुद्ध हो चुकी है उन्हें संसार में कोई काम व भ्रमण नहीं करना है । इसलिये वे ध्रुव हैं । 108. सिद्ध प्रभु की आदर्श अचल दशा—आत्मा सामान्य विशेषात्मक है । सामान्य तत्त्व ध्रुव है । विशेष जो परिणमन है वह अध्रुव है । यद्यपि सामान्य तत्त्व जुदा नहीं हैं, फिर भी ज्ञानदृष्टि से उनका स्वरूप और विशेष पृथक् देखा गया है, दोनों का एक रूपक सत् है फिर भी लक्षण तो जुदे-जुदे भाव से जाने गये हैं । अब सामान्य तत्त्व से देखें तो वह दृष्टि परिणमन भी स्वीकार नहीं करती । इस दृष्टि मैं वह तत्त्व, अर्थ सर्व गति से रहित है, वह विशुद्ध अचल है । इसका लक्ष्य, उपयोग, अवलंबन गतिरहित अवस्था की सृष्टि का कारण है । गतिरहित ये सिद्ध प्रभु भी ध्रुव है । ध्रुव गति को प्राप्त सिद्धप्रभु को हमारा नमस्कार होओ । देखो विशुद्ध ज्ञान का नाम भगवत है । भगवत देव नामरहित है । श्री आदिनाथ जी, श्री महावीर जी, श्री रामचंद्र जी, श्री हनुमान जी आदि व्यक्तियों ने सिद्धप्रभु की प्रभुता पाई है किंतु वे जो भगवान हैं सो नामरहित है । वास्तव में भगवान नामरहित है । भगवान तो विशुद्ध चैतन्य हैं । हम व्यवहार दृष्टि से नाम लेते हैं क्योंकि जिन व्यक्तियों ने शुद्ध दशा प्राप्त की है उनका ख्याल करते हैं हम । यथार्थ में भगवान का कोई नाम नहीं । यदि उनमें इस उपचार के कारण भेद हो जावे तो भगवान में असमानता हो जावेगी । कहो भैया वे अपने पूर्व चरित्र के कारण लड़ने झगड़ने लग जावें (हंसी) भगवान के शुद्ध स्वभाव को निरखो और अपने स्वभाव में उपयुक्त होवो । कितने ही लोगों की धारणा है कि किसी भगवान पर संकट आया तो वह किसी अन्य भगवान के पास गया । किसी भगवान ने किसी भगवान को डांटा और किसी भगवान ने किसी भगवान को संभाला । यह सब भौतिक दृष्टि की मान्यता से भगवान और धर्म का नाम लेकर भी होता रहता है । 109. भगवान की विशुद्ध चैतन्य स्वरूपता—भगवान को चैतन्य तत्त्व की ओर से देखना है, जो निर्मल चैतन्य है वही भगवान है । भगवान शब्द का अर्थ भी यही कहता है भगवान के जितने नाम हैं वे सब शब्द निर्मल चैतन्य का संकेत करते हैं । इसलिये जिनमें उत्कृष्ट ज्ञान है, जो चैतन्यस्वरूप है वे ही भगवान हैं । परमेश्वर भगवान की भक्ति का हम से क्यों संबंध है? इसलिये कि हमारी व भगवान की जाति एक है । हमारे और आपके अंदर भी भगवान होने की शक्ति है । हमारी आत्मा भी ज्ञानस्वरूप है । हाँ केवल यह अंतर है कि हमारा स्वभाव अभी आवरणों से तिरस्कृत है । फिर भी ज्ञान पर पूरा आवरण नहीं हो सकता । जब सहजस्वभाव का ज्ञान होगा तभी आत्मा आत्मा में उपयुक्त है । मैं सर्व अन्य द्रव्यों से भिन्न हूँ जैसा हूं तैसा अपना स्वरूप जानने में आ गया कि सम्यग्ज्ञान हो गया । फिर इसी के पूर्णविकास को भगवान समझिये । भगवान हो जाने पर उसमें परस्पर पर्याय दृष्टि का भी असमान वाला अंतर नहीं रहता है । सिद्ध प्रभु समस्त सर्वज्ञ सर्वदर्शी व अनंत आनंदमय हैं । उसमें अंतर नहीं प्रतीत होता । इसीलिये तो यह प्रसिद्धि हो गई कि ईश्वर एक है और उसमें आत्मा समा जाते हैं ईश्वर में लीन याने मुक्त हो जाते हैं । तात्पर्य तो एक स्वरूप से है वैसे बनने पर अंतर नहीं रहता इसे समान कह लो । लोक में भी घनिष्ठ प्रेमियों को एक से भाव वालों को कह देते हैं कि ये तो सब एक है क्योंकि वहाँ अंतर नहीं दिखता । इसी प्रकार सर्वसिद्धों को एक ईश्वर स्वरूप समझ लो । लौकिक जन तो विषम अर्थों में भी एकता थोप लेते हैं फिर भगवान की विशुद्ध पर्याय तो बिलकुल समान है । लोकालोक के सब ज्ञाता है, अनंत आनंद के सब भोक्ता है । 110. भगवान की सिद्ध अवस्था की अचलता—भगवान की सिद्ध अवस्था अचल है क्योंकि मलिनता का उपादान नहीं रहा । अब किसे निमित्त पाकर कर्मबंध हो और किसे निमित्त पाकर वे स्वभाव से च्युत हों । भैया, जैसे प्रभु शक्ति और व्यंजना दोनों में अचल है वैसे व्यंजना में तो नहीं किंतु शक्ति से आप हम सभी अचल हैं । हमारी आपकी सबकी यह अचलता अनादि से है और अनंतकाल तक रहेगी । इसका प्रबल प्रमाण यही है कि आज दुनियां में सब पदार्थ हैं । अचलता न होती तो ये पदार्थ भी कैसे रह पाते? अपने बोध के लिये स्वभाव और शक्ति को देख । 111. सिद्ध की उपमा के लिये और कुछ नहीं—सिद्ध भगवान अनुपम हैं इस विशेषण से पहिले जो दो विशेषण दिये हैं कि सिद्ध प्रभु ध्रुव और अचल हैं, ये अनुपम विशेषण के कारणपने को प्राप्त हैं । प्रभु की अलौकिकता, ध्रुवता और अचलता अनुपमता के कारण हैं, समर्थक हैं । वे भगवान राग-द्वेषरहित है, वह न हमें बनाता है और न सुख दु:ख देता है, हम तो भगवान का ध्यान इसलिये करते हैं कि उनको देखकर हमारे भाव भी उन्हीं सरीखे बनने के पैदा हों; अथवा यह तो प्रासंगिक जितना है । वीतराग आत्मा की शुद्ध अवस्था निरखने से शीघ्र स्वभाव पर दृष्टि टिक जाती है । स्वभाव किसी विशेष की विशेषता न ग्रहण करके दृष्टिगोचर होता है, अत: शीघ्र अपने आपके स्वभाव में उपासक आ जाता है । 112. सिद्ध प्रभु की स्वच्छता—सिद्ध प्रभु ऐसे स्वच्छ हैं कि उनकी पर्याय स्वभाव में एकता को प्राप्त हो गई । तभी स्वभाव की उपासना के लिये भगवद्भक्ति एक प्रधान साधन हो गया है । स्वभावदृष्टि के बल से सम्यक्त्व पैदा करके अपनी आत्मा का कल्याण कर लेना भक्ति का प्रयोजन है । सम्यक्त्व की प्राप्ति बहुत बड़ा कार्य है । वह तब होगा जबकि पहिले आप अपने हृदय में धारणा करोगे । यदि मुक्ति का वरण चाहते हो तो इसे एक बारात का रूपक दे दो जैसे एक बारात के लिये, वर विवाह के लिये अनेक बरातियों की संगति होती है और वे कार्य को सफल बना देते हैं । सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिये, मुक्ति का वरण करने के लिये अलौकिक आध्यात्मिक एक बारात बनाओ । उसके बराती सर्व सिद्ध हों । इन सब सिद्धों के ध्यान के प्रसाद से आप अपने उस महान् कार्य में सफल होंगे जिसे अबतक नहीं किया । जिन्होंने किया इस मोक्षमार्ग को पार करके मोक्ष का लाभ उन्हें अपने हृदय में बिठाओ । 113. सिद्ध प्रभु का शुद्ध आसन—भैया, जिसके हृदय में सिद्ध प्रभु विराजता है, अर्थात् जिस अंतरात्मा की दृष्टि सिद्धस्वरूप पर रहती है, उसके विषयकषाय की आपत्तियों का तो अवकाश ही नहीं है, और अवकाश है निर्मलता की वृद्धि की, स्वभाव की उपासना को । धन्य है उस निर्मल अंतरात्मा, परमात्मा जिसके ज्ञान का विषय है । यहाँ श्रीमत्कुंदकुंदाचार्य महाराज कहते है—कि सिद्ध रूप से साध्य जो आत्मा है उसके लिये श्री सिद्ध भगवान प्रतिध्वनिरूप हैं । हमें क्या बनना है इसके उत्तर में जिस पर दृष्टि जावे वह सिद्ध भगवान ही हैं । पूर्ण निष्पन्न दशा जो कि पूर्ण सर्वथा निर्मल हो वह सिद्ध प्रभु की अवस्था है । 114. परमात्मा का वस्तुगत स्वरूप—द्रव्य गुण पर्याय की जहाँ एकता हो गई वह परमात्मा है—लक्षण से तो वहाँ भी द्रव्य गुण पर्याय का अपना लक्षण जुदा है, पहिचानने का साधन है । परंतु सामंजस्य ऐसा अलौकिक है कि एकता कहकर ही विराम लिया जा सकता है । अरहंत प्रभु की अवस्था पूर्ण निर्मल है, जो अघातिया कर्मों का उदय उनके हैं वह स्वरूप विकास का लेश घातक नहीं है किंतु बाह्य संपर्क अवश्य है, सो इतनी भी अशुद्धता सिद्ध प्रभु में नहीं है । अरहंतदेव अघातिया कर्मों का क्षय होते ही सिद्ध दशा में प्राप्त होते हैं, अत: सिद्धदशा पूर्ण शुद्ध अवस्था है । जिस अवस्था में किसी भी प्रकार की अपूर्णता न रहे वह ही सर्वोत्कृष्ट अवस्था उपलब्धव्य है । 115. हमारा पवित्र सही प्रोग्राम—हमें क्या बनना है इसके उत्तर में जो लक्ष्य होता वे सिद्ध प्रभु है । प्रभु अथवा सिद्ध प्रभु प्रतिध्वनि है । जैसा हम सिद्ध प्रभु को देखते परखते व कहते हैं उसी स्वभाव की प्रतिध्वनि हमें आती है कि सभी सिद्ध हैं । स्वभाव को देखने पर यह तत्त्व समझ में आता है, समझ कर प्रभु कुंदकुंद कहते हैं कि अचलगति, ध्रुवगति और अनुपम गति को प्राप्त ऐसे सिद्धभगवान को नमस्कार करके समय प्राभृत को कहूंगा । यहाँ नमस्कार क्या किया, सिद्ध प्रभु को भावांजलि द्वारा अपने में बिठाया और द्रव्य जल्प को निमित्त पाकर दूसरे भव्य आत्माओं के चित्त में बिठाया; सिद्धासन का निर्माण तो भाव द्वारा ही होता है, सो यही बात खुद के लिये भी है और सबके लिये भी है, किंतु श्रोताओं को वचन, श्रुति एक बाह्य कारण है । श्रीमत्कुंदकुंददेव की चेष्टा स्वपरउपकारिणी है । इस तरह महान् उत्सव के लिये बनाये व सजाये मंडप की दृढ़व्यवस्था करके आचार्य अपने उद्दिष्ट धर्म के प्रकाश को करते हैं, याने समयसार को कहते हैं । अब श्री आचार्य जिस समयसार को कहेंगे उस समयसार की विशेषता देखिये । कैसा है वह समय सार जो अनादिनिधन श्रुत से प्रकाशित होने से प्रमाण रूप है तथा प्रमाणित है । 116. सही ज्ञान की सदृशता—ये द्वादशांग किसी के द्वारा रचित नहीं होते, किंतु ये तो अनादि काल की परंपरा से चले आये हैं जो बनाये हुये होते हैं, उनमें समानता नहीं रहती आगे द्वैतरूप हो जाता हैं—अर्थात् उनमें विरुद्ध अथवा प्रकारांतर से वर्णन हो जाता है किंतु इनमें वैसा नहीं है, यह अनादि श्रुत से प्रकाशित होने से प्रमाण रूप है । महावीर स्वामी के पहले पार्श्वनाथ थे, और पार्श्वनाथ से पूर्व नेमिनाथ । इसी क्रम से आदिनाथ प्रभु तक यह क्रम रहा, हां आदिनाथ स्वामी के पूर्व 18 कोड़ाकोड़ी सागर समय तक विच्छेद हो गया था, फिर भी द्वादशांग शास्त्रों में कोई भी अंतर नहीं आया है, क्योंकि इसका कारण यह हैं कि केवलज्ञानी की ध्वनि को निमित्त पाकर गणधर देव जो अवधि और मन:पर्यायज्ञान के धारी भी होते हैं, तथा संपूर्ण श्रुतज्ञान के भी उनके ज्ञान स्वभाव से उठकर यह श्रुतस्कंध हुआ है, यह श्रुतज्ञान श्रुतज्ञान नामक द्वितीय प्रमाण का पूर्व विकसित रूप है । हमारे श्रुतज्ञान ही वृद्धिगत होकर यह रूप रख लेते हैं । यद्यपि आजकल ऐसी योग्यता व परिस्थिति नहीं है तथापि शक्ति इस योग्य है तथा यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि इतना विकसित ज्ञान हो, तभी जीव मोक्षमार्ग में प्रवेश करे, तो भी इतना तो आवश्यक है कि इसके अविरुद्ध निज तत्त्व से संपर्क व परिचय तो हो ही जावे । यह समस्त श्रुत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग द्रव्यानुयोग इन चार प्रकारों में विभक्त है । 117. वेद श्रुति स्मृति पुराण—कुछ विवेक प्रिय लोगों ने 4 प्रकार से वेद श्रुति, स्मृति, पुराण माने हैं, सो वे इस प्रकार से घटित हैं—वेद कहते हैं, उत्कृष्ट ज्ञान (केवलज्ञान) को और श्रुति कहते हैं, केवल ज्ञानी के द्वारा जो नैसर्गिक शब्द हुआ यानि दिव्यध्वनि तथा दिव्यध्वनि का जो स्मरण है उसे कहते हैं स्मृति । वह है द्वादशांग के अवधान रूप में । और पुराण, जिन्हें पुराने आदमियों ने बनाये हैं, सो इन्हें कहते पुराण । प्रथमानुयोग, करणानुयोग आदि के जितने भी ग्रंथ हैं, पुराण हैं, वे सभी इस विविक्षा में पुराण हैं । स्मृति, स्मृतिरूप ही है, वह लिपि के द्वारा अक्षरों में निबद्ध नहीं हो पाती । इसलिये स्मृति शब्द से सही अर्थ द्वादशांग व अंग प्रकीर्णक रूप, सर्व भाव श्रुतज्ञान है । श्रुति कहिये दिव्यध्वनि श्रुति में द्वादशांग जैसे अक्षर भी निबद्ध नहीं है वह तो मात्र सुनने में आती है निरक्षरी ध्वनि है । अत: श्रुति शब्द से सही अर्थ दिव्य ध्वनि ही निकलती है । इस संबंध में यद्यपि दो मान्यतायें हैं—1. निरक्षरी, 2. साक्षरी; तथापि इनका एक्सप्रेशन (विवरण) होने पर करीब-करीब एकार्थक सिद्ध होते हैं । प्रभु वीतराग हैं, उनकी श्रुति बुद्धिपूर्वक नहीं होती, अत: सर्वांगीण श्रुति है, वह निरक्षरी है, ओ3म् ध्वनिरूप है, श्रोताओं के कर्णगोचर होने पर उन श्रोताओं की योग्यता व संस्कृति के अनुरूप जल्प का कारण होती है, और तब साक्षरी कहलाती है । इस श्रुति की प्रामाणिकता का प्रमाण है वेद । वेद मात्र ज्ञान है वह न श्रुति है न स्मृति है, इसलिये वेद शब्द का अर्थ केवल ज्ञान है । इस तरह परस्पर व्यतिरेकरूप से द्योतित ये वेद श्रुति स्मृति पुराण, केवलज्ञान दिव्यध्वनि, सर्व श्रुतज्ञान और शास्त्र के ही वाचक ठीक बैठते हैं । और इनका संकेत आगम में भी आया है । इस समयसार ग्रंथ की प्रामाणिकता का विषय चल रहा है । यह समयसार समस्त द्रव्यगुण पर्यायों को साक्षात् करने वाले जो केवली भगवान हैं उनके समीप से प्रणीत है । पाणिनीय व्याकरण शास्त्रज्ञ मानते हैं कि 14 सूत्र अ इ उ ण् ऋलक् आदि महादेव की डमरू से निकले हैं सो चौदह सूत्र ही नहीं किंतु समस्त श्रुत सूत्र जो कि 12 अंग हैं और 14 प्रकीर्णकरूप हैं, केवलज्ञानी अरहंत महान् देव की दिव्य ध्वनि से निकले हैं, क्योंकि दिव्य ध्वनि के निमित्त से, यह सब रचना है । इसी परंपरा से समागत यह शास्त्र समयसार केवली भगवान की दिव्य ध्वनि से निकला (प्रणीत) है इसलिये यह प्रमाणित है । दूसरे, समयसार में कई गाथायें तो ऐसी हैं जिसे श्रुत केवली भगवान, गणधर स्वामी स्वयं उच्चारित किया करते थे, द्वादशांग के पाटी जो द्वादशांग को पढ़ा करते थे । गाथा में भी यही संस्कृत में कहा है कि जिन गाथाओं को गणधर स्वामी पढ़ा करते थे, वे भी कहीं-कहीं गाथायें इस महाग्रंथ में हैं । यह बात सुदकेवली भणिदं से सूचित होता है । 118. विराग ऋषियों की अपूर्व निष्पक्षता—इतना सब प्रमाणिकता को लिये होने पर भी श्रोताओं के आत्मा का वास्तविक आदर करते हुए यहाँ कुंद-कुंद प्रभु कहते हैं कि तुम मत मानो कि यह आप्तोक्त होने से ही प्रमाण रूप है । सब बातों को छोड़ो किंतु इस ग्रंथ को एक बार एकाग्रचित्त होकर आदि से अंत तक सुन लो । इसका परिचय करो, मनन करो । भैया, सोच लो, तब तुम्हारा हृदय स्वयं यह कह उठेगा कि यह ग्रंथ प्रमाणरूप है । इस समयसार में उस समय का वर्णन है जिसकी दृष्टि से निर्मल पर्याय का विकास होता है । ऐसे समय को नमस्कार होवे । जैसे स्वभाव जल और निर्मल जल का परिचय पूछा जावे तो जो विशेषण निर्मल जल के लिये कहे जा सकते हैं वे ही विशेषण स्वभाव जल के लिये कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार कर्मक्षय सिद्ध प्रभु के जो विशेषण कहे गये हैं वे ही विशेषण भगवान आत्मस्वभाव के कहे गये हैं । सहजसिद्ध कारण समयसार को नमस्कार हो । अपने हृदय के ही विकल्पों को हटाकर उस समयसार के तत्वों को ग्रहण करो, उनका अनुभव करो तो आत्मा का बहुत कुछ लाभ होगा । सिद्ध प्रभु के नमस्कार के साथ इस गाथा में भगवान आत्मस्वभाव की भी वंदना हो जाती है । गति का अर्थ भाव, भवन, अवस्था अथवा जो भी समझ में आवे वह तत्त्व है । भगवान् आत्मस्वभाव ध्रुव भाव को प्राप्त हैं क्योंकि यह तो प्रकट स्वभावभूत है ही । भगवान आत्मस्वभाव अचलता को प्राप्त है क्योंकि अनादिकाल से ही स्वभाव भावांतरों से विविक्त रहता है । भगवान आत्मस्वभाव अनुपम है क्योंकि समस्त उपमानों से विलक्षण इसकी महिमा है । स्वभाव व स्वभावपरिणमन में स्वरूप से एकत्व है, केवल शक्ति व्यक्ति का ही भेद है । अत: स्वभावपरिणमन चाहिये तो स्वभाव की उपासना करना चाहिये । स्वभाव परिणमन साध्य है उसके लिये उपास्य स्वभाव है । अथवा यही एक साध्य है और यही एक साधक है । अथवा उसमें साध्य साधक भेद भी नहीं है । ऐसे परमपारिणामिक भावमय भगवान अनादि सिद्ध आत्मस्वभाव को भावस्तव से स्वात्मा में रखकर और द्रव्यस्तव से परात्मा में रखकर स्वपरमोह के परिहार के लिये इस ही कारण परमात्मतत्त्वरूप समयसार अर्थात् भगवान आत्मस्वभाव के परिभाषण का उपक्रम किया जाता है । 119. ग्रंथकर्ता की प्रमाणरूपता—श्रीमत्पूज्य आचार्य कुंदकुंद स्वामी कहते हैं कि मैं सब सिद्ध को नमस्कार करके इस समयसार ग्रंथ को कहूँगा । कैसा है यह ग्रंथ कि जिसमें स्वयं की आत्मा का वर्णन है । वह आत्मा कैसी है जो राग-द्वेष रहित है, चैतन्यस्वरूप है, जो न कर्ता है न भोक्ता है । आत्मा ध्रुव है, आत्मा स्वत: सिद्ध है ऐसी स्वयं की आत्मा का वर्णन इस समयसार में है । आत्मा रागरहित, सहजसिद्ध है । उस स्वभाव की सर्वथा पूर्ण व्यक्ति सिद्ध अवस्था में हुई है, तो सिद्ध पर्याय का विलास सहज रस की एकता में परिणत है । अत: सिद्ध प्रभु का स्मरण करके सहजसिद्ध आत्मा के वर्णन करनेवाले इस ग्रंथराज को प्रारंभ किया जा रहा है । इस समयसार ग्रंथ में उस ध्रुव आत्मा का वर्णन है जो कि हम आप सभी हैं । प्रश्न—सिद्धों को ही नमस्कार क्यों है? उत्तर—जो जैसा बनना चाहता है अथवा जो वस्तु जिसे प्रिय होती है वह उसी का आदर तथा उसी का आचरण करता है । किसी को धन प्रिय है और वह धनी होना चाहता है तो वह धनी व्यक्ति का आदर तथा वैसा आचरण करता है, इसी तरह जो परम शुद्ध आत्मा प्राप्त करना चाहता है वह सिद्धों का आदर तथा उन्हीं जैसा आचरण और उन्हीं को नमस्कार करेगा । मुमुक्षु सत्पुरूषों को व्यवहार में प्रियतम है सिद्ध प्रभु और निश्चय से प्रियतम है ध्रुव चैतन्य निज स्वभाव । प्रियतम शब्द का अपभ्रंश प्रीतम व पीतम हो गया है । लोक में पीतम पति को कहते हैं, किंतु पीतम शब्द का असली अर्थ है कि पीतम सिद्धप्रभु है । अन्य लोगों में भी अपने-अपने देव के प्रति प्रीतम शब्द का व्यवहार करते हैं । श्रीमत्कुंदकुंद देव सत्य मुमुक्षु महर्षि थे । उनका प्रियतम सिद्धदेव हैं, सो उन्होने सिद्धभगवान को नमस्कार करके समय प्राभृत कहने का उद्देश्य किया है । यहाँ नमस्कार भी बंदित्तु शब्द से किया है जिसका भाव है गुणों का स्तवन व भावना करते हुए नमस्कार करना । 120. ग्रंथ की प्रामाणिकता—यह समय प्राभृत ग्रंथ अलौकिक भेंट है व पूर्ण प्रमाणभूत है । कोई कहता है कि आप भले ही इस ग्रंथ को कहे लेकिन हम कैसे मानें कि यह आपका ग्रंथ प्रमाणभूत है? इसके लिये इनमें तीन विशेषण दिये हैं जिनसे आपको ज्ञात हो जायगा कि यह ग्रंथ प्रमाणभूत है या नहीं? प्रथम तो यह केवली भगवान की दिव्य ध्वनि से प्रणीत है और इसमें कई गाथाएं तो ऐसी हैं श्री गौतम गणधर स्वामी स्वयं अपने मुंह से उच्चारण किया करते होंगे, द्वादशांग के पाठी जो आचार्य थे उन्होंने ऐसा ही कहा होगा तथा आप एक बार इस ग्रंथ को आद्योपांत एकाग्रचित्त से सुन ले तब आपको स्वत: भान हो जायगा कि यह ग्रंथ प्रमाण है या नहीं? युक्तियों को भी देख ले—अबाधित युक्तियां है । यह ग्रंथ समय प्रकाशक है, समय नाम यहाँ आत्मा का है । इस ग्रंथ में उस सामान्य आत्मा पर प्रकाश डाला है जो समस्त पर से भिन्न और अपने गुण पर्याय की एकता में अनुगत है । देखो भैया ! जो आत्मा में नहीं हैं वह अन्य द्रव्य से आता नहीं है और जो आत्मा में है वह आत्मा से जाता नहीं है ऐसी अवस्था सामान्य रूप से है । इसमें प्राभृत शब्द भी लगा हैं जिससे यह अर्थ निकलता है कि आत्मा का प्रकाश करने वाली भेंट है । क्योंकि भेंट प्राभृत का नाम है, सो जैसे राजा महाराजा आदि किसी से मिलने के लिये भेंट ले जाया करते हैं उसी तरह आत्मारूपी प्रभु से मिलने के लिये यह ग्रंथ भेट स्वरूप है । यह ग्रंथ सारभूत है । यह केवल भगवान अरहंत प्रभु के वचनों का अवयव है उनकी वाणी से (दिव्यध्वनि से) यह ग्रंथ भी निकला है अत: मैं कुंदकुंद इस हित रूप एवं प्रमाणभूत समयसार को कहूँगा । 121. पूज्य श्री अमृतचंद्र जी सूरि की प्रतिभा—कोई कहे कि आप अपना आध्यात्मिक, अमूल्य समय छोड्कर (अपनी समाधि को छोड़कर) यह कर्म (कार्य) क्यों कर रहे हो? इस ग्रंथ को बनाने का तुम्हारा क्या ध्येय है? आदि । तब आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी के टीकाकार जो एक कुशल वकील के स्वरूप थे याने जो विचार भगवान कुंदकुंद स्वामी के होते थे उन्हें खोलकर रख देने वाले पूज्य आचार्य श्री अमृतचंद जी सूरि कहते हैं कि इस ग्रंथ को बनाने का उद्देश्य सिर्फ यही है कि अनादिकाल से चला आया जो हमारा और आपका मोह है वह आत्मा से दूर हो जाय । इस ग्रंथ को बनाने का यही उद्देश्य है और कोई अन्य उद्देश्य नहीं है । पूज्य सूरि जी जो अनादिकाल से स्व का तथा पर का मोह लगा है यह हमारी आत्मा से दूर हो, यह इस ग्रंथ का उद्देश्य कहते हैं । अनादि काल से जो मोह राग द्वेषादि हैं ये कहां से आये जिनके द्वारा हम अशुद्ध हैं? आप विचार करो कि हम ऐसे कैसे बन गये । किसी चीज की उत्पत्ति बिना कारण या साधन के नहीं होती है । आप चेतन हैं तो पूर्व चेतनावस्था से बने हो, क्योंकि तुम्हारी यह चेतना दशा है और वह पूर्व चेतनावस्था से बनी होगी और वह चेतनावस्था पूर्व चेतनावस्था से बनी होगी इस तरह वह चेतन अनादि है । 122. कर्म व आत्मा को संबंध की अनादि परंपरा—अब आप कल्पना करो कि वह चेतन पहले शुद्ध था या अशुद्ध? शुद्ध था तो अशुद्ध होने का कारण क्या है? अशुद्ध होता है कषायभावों से और कषाय स्वयं या बिना निमित्त के सद्भाव के नहीं होती । कोई बड़ का पेड़ पैदा हुआ किसके द्वारा? बीज के द्वारा और वह बीज कहां से आया? पूर्व वृक्ष से, वह भी पूर्व वृक्ष से पैदा हुआ । इस तरह ये सभी जीवादि द्रव्य अनादि से आये हैं । किसी भी द्रव्य की नवीन उत्पत्ति नहीं हुई है, जीव भी अनादि से है और कर्म भी अनादि से है । जीव में अशुद्धता किसी निमित्त को पाये बिना नहीं होती है क्योंकि अशुद्धता स्वाभाविक भाव नहीं है । इसी प्रकार कर्म वर्गणा में कर्मत्व निमित्त को पाये बिना नहीं होता क्योंकि कर्मत्व विषम विविध और अध्रुव है । बस जीव की अशुद्धता का निमित्त तो कर्म का उदय उदीरणा और कर्मत्वरूप आस्रव बंध जिनके बिना उदय नहीं हो सकता, उनका निमित्त है जीव की अशुद्धता । तो इस प्रकार अशुद्धता के पूर्व कर्म और कर्म के पूर्व अशुद्धता अवश्यंभावी है । तब परंपरा से यह अशुद्धता और मोह अनादि का; परंपरा दृष्टि से समझना चाहिए । यद्यपि कोई भी निमित्त अपनी परिणति से उपादान को नहीं परिणमाता । किंतु निमित्त पाकर उपादान स्वयं विभाव रूप से परिणमता है, सो इस परिणमन में यह उपादान की शक्ति और उपादान की विशेषता है । इस अनादि परंपरा से मेरी भी अशुद्धता है और यह जीव भी अनादिकाल से मोह, राग, द्वेष से लिपटा है । सो मैं व वे उनसे दूर हो जावे, इसलिये इस ग्रंथ की रचना की जा रही है । यहाँ वचन का कर्त्ता आत्मा नहीं है, वचन तो भाषावर्गणा का परिणमन है । आत्मा में इच्छा पैदा होती है कि मैं ऐसा बन जाऊं, ऐसा हो जाऊं, ऐसा करूं, और जब उसमें इच्छा पैदा होती है तो उसका निमित्त पाकर योग पैदा हो जाते हैं, उसका निमित्त पाकर वायु का संचार होता है, उस वायु को निमित्त पाकर यह मुंह रूपी हारमोनियम चलने लगता है? यहाँ मुंह एक हारमोनियम ही है । हवा को निमित्त पा करके जैसे स्वर दबाते हैं वैसे ही शब्द स्वर निकलते हैं, इसी तरह यह मुंह है, इसकी हवा का दबाव जब ताल पर पड़ता है तो च-छ-ज आदि शब्द निकलते हैं । वायु का कंठ पर जोर हो तो क ख, ग, घ आदि अक्षर निकलने लगेंगे । इसी तरह जैसी,, जैसी वायु जिन-जिन स्थानों से संबंध को पाती है उसी तरह के शब्द निकलते हैं । किंतु आप यह मत समझ बैठना कि ये शब्द जीभ अथवा ओंठ ने निकाले । हवा को निमित्त पाकर ओंठ आदि चले, उसका निमित्त पाकर यहाँ जो भाषा वर्गणा के स्कंध भरे हैं उनसे शब्द प्रकट हो जाते हैं । इस विषय का वर्णन फिर करेंगे, इसी तरह यह ग्रंथ यहाँ पर निमित्त नैमित्तिक भाव से बना जा रहा है, जिससे मैं अपने मोह, राग को दूर करूंगा और जो भाई इसे अपने हृदय में धारण करेंगे तो उनका मोह भी दूर होगा । 123. सम्यग्दर्शन की शांति व सुख के लिये आवश्यकता—मोह रागादिक को नष्ट करने के लिये सम्यग्दर्शन की परम आवश्यकता होती है, जब तक सम्यग्दर्शन आत्मा में प्रकट नहीं होता तब तक वह मिथ्यात्व के प्रभाव से बाह्य पदार्थों में मोहबुद्धि रखता है—यह मेरा है, पुत्रादि मेरे हैं, मैं उनका पिता हूँ ऐसी मिथ्या बुद्धि इस जीव के बनी रहती है, और इसका भी मूल कारण निज पर्याय में आत्म-बुद्धि बनी रहती है, जिसके प्रभाव से यह अनादिकाल से इसी संसार में भटकता फिरता है और अनेक तरह के जन्म मरण के दु:खों को भोगा करता है । इसलिये अहंकार को नष्ट करके जो पर से भिन्न आत्मा है उसे देखो । मत सोचो कि यह कुटुंब मेरा है, मैं इसका पालन करता हूँ । आपके कुटुंबी जन्मों का पूर्व पुण्य है जिसके उदय से तुम उनके नौकर और वे तुम्हारे स्वामी बने हैं लोग तो यह समझते हैं कि यह नौकर है और मैं स्वामी हूँ, किंतु हो रहा है उल्टा । इसलिये मोह, राग, द्वेष को छोड़ अपनी ध्रुवरूप जो आत्मा है उसी का ध्यान करो । तभी कल्याण होगा । यही प्रयोजन इस समयसार के रचने का है, अन्य प्रयोजन नहीं । मोह विनाश के प्रयोजन के अर्थ भाव वचन से और द्रव्य वचन से इस ग्रंथ का परिभाषण प्रारंभ किया जा रहा है । देखो भैया इस भाव वचन से तो स्वमोह के प्रहाण का प्रयोजन सिद्ध होता है । निश्चयत: मोह का विनाश बचपन से नहीं होता है किंतु स्वभावदृष्टि से होता है, तो उस स्वभाव दृष्टि से पूर्व का विकल्पात्मक परिणाम जिस भाववचन व द्रव्यवचन को निमित्त पाकर हुआ उसमें निमित्त का उपचार है । तो मोह प्रहाण के लिये इस ग्रंथ का परिभाषण किया जा रहा है । यहाँ कर्तृ वाच्य का प्रयोग नहीं है जिससे निरहंकारता प्रकट होती है । देखो तो भैया महर्षियों के संस्कार, कभी गर्व का भाव नहीं रहता । अब आगे समय प्राप्त ग्रंथ का प्रारंभ होता 124. ग्रंथविषय के प्रतिपादन प्रारंभ की सूचना—श्रीमत्परम पूज्य आचार्य कुंदकुंदस्वामी समयसार ग्रंथ का विषय इस दूसरी गाथा में कह रहे हैं, किंतु उनके पूर्व जो कि इस ग्रंथ के टीकाकार हैं जो एक महान् कुशल वकील के समान थे पूज्य आचार्य अमृतचंदजी सूरी कहते हैं कि इस ग्रंथ में सबसे पहले तो समय का ही वर्णन किया जा रहा है । समय याने आत्मा कैसी है वह आत्मा जो पेड़ में, पौधों में, चींटी, हाथी, देव-नारकी हम आप सभी में है उस सामान्य आत्मा का वर्णन इस ग्रंथ में सबसे पहले किया जा रहा है, क्योंकि महान् पुरुषों के वचन थोड़े होते हैं और अर्थ अधिक होता है । उनके प्रतिपाद्य विषय में जो सार रहता है, जो निचोड़ होता है वही पहले कह दिया जाता है । सरल व्यक्ति वे हैं जो मुद्दों की सारी बातों को पहले ज्यों की त्यों सामने रख देते हैं । और फिर इसके बाद उसका स्पष्टीकरण होता रहता है । किंतु आज की पद्धति इससे भिन्न है, आजकल के लेखकगण कहानी, नाटक-उपन्यास अथवा और ग्रंथों की पहले बड़ी-2 भूमिकायें बनाते हैं उसके बाद प्रस्तावना आदि बहुतसा विषय भर देते हैं तब कहीं अंत में जा करके उसका थोड़ा सा रहस्य होता है, उसे प्रकट करेंगे । प्रस्ताव भी करेंगे तो पहिले सब कह डालेंगे फिर वह दो लाइन का प्रस्ताव रखा जावेगा । प्रत्येक जगह ही ऐसा होने लगा है, यह वक्रता का जमाना है, इसलिये मुख्य बात, असली जो भेद हैं उसे कोई भी शुरू में नहीं कहना चाहता है किंतु आचार्य कुंदकुंद प्रभु प्रारंभ से ही आत्मा का वर्णन शुरु कर रहे हैं । यहाँ यह कहा गया कि उसमे पहले भले प्रकार से समय ही कहा जा रहा है । यहाँ एक-एक शब्द का रहस्य देखिये ‘‘उसमें’’ इस शब्द के कहने से तो यह जाहिर होता कि वह ग्रंथ सब प्रकट हो चुका है तब ‘‘उसमें’’ यह शब्द लागू हुआ । सो भैया महर्षिद्वय के उपयोग में सब प्रकट हो ही चुका था । फिर श्रीसूरिजी के द्वारा यह टीका टीकित हुई । ‘पहले’ शब्द से यह ध्वनित है कि ग्रंथ का प्रारंभ यहाँ से है और एक दम ही ग्रंथ का जब आधार कहा जा रहा है । ‘भले प्रकार से’ शब्द से यह स्पष्ट है कि वर्णन तो आत्मा का होगा पर विशदरूप से अन्य सभी अंग वर्णित हो जावेंगे । ‘‘समय एवं अभिधीयते’’ वाक्य से सरलता व परम करूणा प्रकट हुई है । सारभूत बात को पहिले रख देना सरल पुरूषों का ही काम है । सारभूत तत्त्व समय है, जिसके बारे में समस्त अध्यात्मशास्त्र है । अभिधीयते शब्द तो बहुत ही निर्मलता का सूचक है । इसका अर्थ है, कहा जा रहा है; आजकल तो लोग जरासा भी काम करें तो अपना गर्व दिखाते हैं ‘‘मैंने किया’’ ‘‘मैं कर रहा हूँ’’ आदि कर्तृ वाचक शब्दों द्वारा कहते हैं, परंतु यह कर्मवाच्य का प्रयोग है, इसमें कार्य तो मुख्य रहा है और कर्त्ता गौण हो चुका, अपने कर्तृत्व का गर्व इसमें नहीं झलकता । वाच्य तीन प्रकार के होते हैं कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य, और भाववाच्य । जिसमें मोही जीव तो कर्तृ वाच्य का उपयोग अधिक करता है, जैसे मैंने मकान बनवाया, मैं देहली जाऊंगा आदि । उसकी सभी बातों में अहं बुद्धि का वास रहता है । निर्मोही जीव प्राय: कर्मवाच्य का तथा भाव वाच्य का प्रयोग करता है, जैसे यह कार्य हो रहा है, यह मंदिर दिख रहा है । वहाँ कषाय की मंदता सूचित होती है किंतु भाववाच्य में तो कषायादि की अधिक मंदतासी जंचती है । इसलिये यहाँ पर श्रीमत्पूज्य आचार्य कुंदकुंद स्वामी के मुखारविंद से आत्मा का वर्णन किया जा रहा है, यह शब्द सुनने में भी अच्छा है और गर्व से रहित है । अब समय का स्वरूप बताने वाली पहली गाथा का प्रारंभ होता है ।