वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 2
From जैनकोष
जीवो चरित्तदंसझाणाटिउ तंहि ससमयं जाण ।
पुग्गलकम्मपदेसट्टिपं च तं जाण परसमयं ।।2।।
125. ग्रंथ की परंपरा, निर्दोषता—यों सिद्ध प्रभु का वंदन करके अपना संकल्प बता रहे हैं कुंदकुंदाचार्य देव कि मैं श्रुत केवली के द्वारा कहे गए इस समय प्राभृत को कहूँगा । श्रुत केवली की साख इसलिये दिया है कि मैं अपनी कल्पना से कुछ जोड़ जाड़कर न कहूंगा किंतु जो श्रुत केवली ने जिनका ज्ञान केवली के समान है एक प्रत्यक्ष परोक्ष का अंतर है, सामान्य विशेष का अंतर है, सर्वज्ञ में जाना तीन लोक तो इस विशिष्ट श्रुत ज्ञानी ने भी तीन लोक को जान लिया । सर्वज्ञ ने जाना प्रत्यक्ष विशद और श्रुत केवली ने जाना परोक्ष । आगम मैं लिखी हुई बात पर जिसे विश्वास है और बार-बार उसकी चर्चा करता है उसे वह विषय इतना दृढ़ हो जाता है कि वह दृष्टि लगाते ही समझ लेता है कि यह है स्वर्ग, यही रहते हैं इंद्र इतने हैं इसमें पटल । वे सब रचनायें जो आगम में सुनी है, समझी है, बाचीं है और जिसने अनेक बार चर्चा की है वह उसे यों विदित होता है जैसे यहाँ के विद्यार्थी नक्शों में अमेरिका आदिक देशों का ज्ञान करते हैं, चर्चा करते हैं तो वे निशंक बताते हें कि इधर है यह देश । तो श्रुत केवली का ज्ञान भी एक संपूर्ण ज्ञान है, सर्व द्रव्यों का ज्ञान है, सर्वपर्यायों का ज्ञान है, एक-एक करके न हो तो आखिर इतना तो जानते ही हैं कि एक कोई आत्मा है तो उसकी अनादि अनंत पर्यायें चलती रहती है । उन समस्त गुण पर्यायों वाला आत्म द्रव्य है । विधि विधान सहित जाना लो सब जान लिया कि कुछ कम रहा? तो यों श्रुत केवली के द्वारा जो कहा गया है अध्यात्मशास्त्र समय प्राभृत उसको ही मैं कहूँगा, अपनी कल्पना से कुछ अन्य विषय कहूँगा । यह समय प्राभृत अरहंत देव द्वारा प्रणीत आगम का एक प्रवचन है यह प्रभु से ध्वनित होता है, और इसमें ऐसे अनेक शब्द आये हैं जिनका उच्चारण श्रुत केवली स्वयं किया करते हैं । जैसे कोई पंडित व्याख्यान दे तो उसमें अनेक शब्द आते हैं जैसे कि आचार्य ने निबद्ध किये हैं । विषय ही ऐसा है । इसी प्रकार इस समय प्राभृत ग्रंथ की रचना में अनेक शब्द वे ही आये हैं जिन्हें श्रुत केवली अपने मुख से उच्चारण किया करते हैं । यों श्रुत केवली के द्वारा प्रणीत होने से जिनकी चर्चा मैं करूंगा वह चर्चा प्रामाणिक है । अप्रमाण बात में किसी भी विवेकी का मन नहीं लगता । गप्प सप्प में झूठ में कहां किसी विवेकी को प्रीति जगेगी तो यह ग्रंथ यह वक्तव्य प्रमाणभूत है । 126. शुद्ध दृष्टि का प्रभाव—इस ग्रंथ में वर्णन किसका आयगा? समय का । सहज आत्मतत्त्व का; आत्मा में स्वयं आने आप जो कुछ बात सहज होती है उसका वर्णन आयेगा । जिस तत्त्व की दृष्टि से अनादि काल के चले आये हुए मोह संतान का भी क्षय हो जाता है यहाँ भी देखिये घर में, समाज में एक ज्ञान दृष्टि कुछ नई मिले, कुछ नया समझ में आये तो एकदम कितना परिवर्तन हो जाता है भाई-भाई में एक भाई का अभिप्राय कुछ विपरीत समझ में आये तो एकदम कितना परिवर्तन हो जाता है अब भाई ही नहीं रहा । जितना स्नेह दूसरों से कर लिया जा सकता उतने भी स्नेह नहीं पात्रता नहीं रहती । तो जब लोक व्यवहार में कुछ नई दृष्टि आने पर एक विचित्र परिवर्तन हो जाता है तब परमार्थ प्रसंग में आत्मतत्त्व की सही स्वरूप की दृष्टि जग जाय तो एकदम विचित्र परिवर्तन हो जाता है इसमें संदेह नहीं । जगत के पौद्गलिक ढेरों से ममता नहीं रहती इसमें कुछ संदेह नहीं । तो दृष्टि में कितना बड़ा ऊंचा बल है । 127. दृष्टि परिवर्तन का प्रताप—पवनंजय अंजना को देखने गया विवाह के पूर्व बड़ी उत्सुकता से गया, बड़ी प्रीति से गया और न कुछ सी बात सुनकर कि एक सखी कह रही है अंजना से कि पवनंजय बडा प्रतापी है, बलवान है, गुणवान है तो अंजना हां नहीं कह रही, कुछ प्रसन्नता जैसी मुस्कान ही नहीं दिखा रही, लो इतनी सी बात पर पवनंजय की दृष्टि बदल गयी । हो क्या गया दृष्टि में कितनी करामात है? वहीं मारने की ठानी । मित्र ने बचाया । तो यह सोचा कि इसके साथ मैंने विवाह न किया तो इसे दुःख क्या दे सकूंगा? कोई दूसरे की स्त्री को क्या दुःख दे सकता है । तो अंजना को दुःख देने के लिए उसके साथ अपना विवाह किया । ओह ! इतनी भारी बात एक दृष्टि के बल पर ही तो हुई । विवाह के बाद अंजना से बोलना नहीं, देखना नहीं 22 वर्ष तक । कितना दृष्टि बदल जाती है यह देखते जाइये । वह पवनंजय एक बार रावण के सहयोग के लिये युद्ध में जा रहा था, रास्ते में किसी सरोवर के निकट अपना डेरा लगाया । वहाँ पर चकवा चकवी का वियोग देखकर पवनंजय की दृष्टि बदल गई वहाँ से रातों रात वह अंजना से मिलने के लिए घर आया, और अंजना से मिलकर सुबह से पहिले ही चल दिया । अपनी मुद्रिका दे गया कि कोई आपत्ति न आये । लग गये उसे महीनों, वापिस आकर देखता है कि अंजना घर नहीं उसकी सास ने उसे कलंकित समझ कर निकाल दिया था, तो पवनंजय की दृष्टि बदल गई और मन में अपना मरण कर लेने की भी बात ठान ली । अगर अंजना न मिलेगी तो मैं अग्नि में जलकर भस्म हो जाऊंगा ऐसी प्रतिज्ञा कर ली आखिर बहुत-बहुत पता लगाने पर पता लग गया । तो दृष्टि बदलने का कितना बड़ा प्रताप है, प्रभाव । जिस किसी जीव को जो कि अनादिकाल से मोह में लिप्त था, इन परवस्तुओं से अपना बड़प्पन समझता था, एक दृष्टि प्राप्त हो गयी कि यह मैं ज्ञानमात्र हूँ, चैतन्य मात्र हूँ, अब भी इसमें दूसरा कुछ नहीं है, आगे मैं दूसरा क्या ले जा सकूंगा । मैं ज्ञान मात्र हूँ ऐसी समझ आने पर जीवन की आशा नहीं रहती, धन संपदा की इच्छा नहीं रहती, यश कीर्ति की इच्छा नहीं रहती । जैसे किसी घर में किसी बालक का चित्त बदल जाय तो घर के लोग बड़े हैरान से हो जाते हैं कि क्या हो गया इसे । देखो घर के और लड़के तो अच्छी तरह रहते, अपना चित्त देते हैं, स्त्री पुत्रादिक में तृप्त रहा करते हैं, ममता रखते हैं, कमाई करते हैं पर हमारे इस मुन्ना को क्या हो गया? अरे हो क्या गया, उसकी दृष्टि बदल गई । मैं ज्ञानमात्र हूँ ऐसी दृढ़ प्रतीति होने पर वे सब आशायें समाप्त हो जाती हैं । उस ही ज्ञानमात्र चैतन्य मात्र स्वरूप की चर्चा इसमें की जायगी कि जिसकी दृष्टि जगने पर ये समस्त मोह दूर हो जाते हैं । 128. मोह विनाश के लिये ग्रंथ रचना का उद्यम—न देखिये सारा जगत मोह से हैरान है । मिलता कुछ नहीं है, है कुछ नहीं और पर में दृष्टि गड़ रही है, इसे हैरानी कितनी हो सकती है इसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती । अज्ञानी जनों के हैरानी है । जो बात संभव नहीं है उस बात पर कोई हठ करे तो उसकी परेशानी मिटा सकने वाला कौन है? किसी की भी परेशानी को कोई दूसरा नहीं मिटाता किंतु यह परेशानी बड़ी कठिन हो जाती है । बच्चे लोग किसी ऐसी बात पर हठ कर जाये कि जो बात संभव ही नहीं है तो वे हैरान हुये माता पिता क्या करे? रो रोकर घंटों बिता देते हैं । किसी बच्चे ने कहा कि हम को तो हाथी चाहिये । लो हाथी सामने खड़ा कर दिया कहीं से लाकर, तो फिर उस बच्चे ने कहा यों नहीं, इसे खरीद दो । लो उस हाथी को अपने बाड़े में बंधवा दिया और कहा कि लो खरीद दिया । तो फिर वह बच्चा बोला यों नहीं, इसे तो हमारी जेब में भर दो । अब भला बतलावो यह काम कौन कर सकेगा? वह तो रोवेगा ही । यों ही नादान बच्चों की तरह ये संसारी प्राणी बाह्य पदार्थों से ममता कर रहें हैं, लिप्सा कर रहे हैं, उनसे सुख की आशा कर रहै हैं, उनके पीछे बडी हठकर रहे हैं, उस हठ के कारण बहुत-बहुत परेशान भी हो रहे हैं पर जरा बताओ तो सही कि उनकी वह परेशानी कैसे मिटे? उस अनादि मोह को व उससे उत्पन्न विपदाओं को दूर करनेका उपाय यही है जो कि इस ग्रंथ में बताया जायगा । जिस समयसार की दृष्टि करने से यह मोह कलंक मिट जायगा, उस समय तत्त्व का कुंदकुंदाचार्य देव परिभाषण करेंगे अपने मन की गुनगुनाहट से और साथ ही शब्द रचना से । उस गुनगुनाहट से तो वे स्वयं लाभ उठायेंगे और उनकी शब्द रचना को पढ़कर व उसका अर्थ समझकर अन्य लोग भी अपना मोह दूर करेंगे । यो इस ग्रंथ की रचना निज और पर दोनों को लाभ देने वाली है । 129. व्यक्त समय का अभिधान—जो जीव दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थित है उसे तो स्वसमय जानो और जो पुद्गल कर्म के प्रदेश में स्थित है उस जीव को परसमय जानो । भाव इसमें क्या भरा? जो परसमय अवस्था व स्वसमय अवस्था में रहने वाला है इस एक को समय जानो । एक बात यह भी है कि लोग बागों की समझ में व्यक्त बात जल्दी समझ में आ जाती है और अव्यक्त बात देर में समझ में आती है । इसलिये व्यक्त चीज को पहले बताकर बाद में अव्यक्त का कहना होता है । जैसे ये आपको स्कंध दिख रहे हैं और अगर हम आप से पूछें कि आप परमाणु के बारे में क्या जानते हो अथवा उसका कथन करो तो आप यकायक परमाणु के कथन करने में हिचकेंगे, क्योंकि परमाणु के कथन के लिये सुगम पद्धति से स्कंध से शुरू करना पड़ेगा । पहले यह समझाया जावेगा कि देखो यह स्कंध एक पदार्थ नहीं है, क्योंकि इसके टुकड़े हो सकते हैं । तब फिर इसके टुकड़े-2 होने पर जो अंतिम अविभागी खंड हो गया वह परमाणु है । यहाँ भी पर्याय रूप में परमाणु जान पड़ा । फिर परमाणु द्रव्य जनाने का उपाय कहा जावेगा । 130. सामान्य आत्मा के जानने का मार्ग—आत्मा ज्ञानियो के लिये व्यक्त है व अज्ञानियों को अव्यक्त है सो जो अव्यक्त नहीं जान सकते उनके लिए कृपालु महर्षि जीव की अवस्था पहिले बता रहे हैं जीव दो तरह के होते हैं । सही पर्याय में चलने वाला जीव और उल्टी पर्याय में चलने वाला जीव । सही पर्याय में चलने वाला जीव याने स्वसमय और उल्टी पर्याय में चलने वाला जीव याने परसमय । जो परसमय में और स्वसमय में भी क्रम से रहने वाला एक चेतन है, उसे कहते हैं आत्मा । जैसे उंगली टेढ़ी गोल, सीधी आदि दस रूप में परिणमती है तो आप इसकी उस असली अंगुली को बताओ जो कि इन दसों दशाओं में रहती हुई एक है । आप उसे नहीं बता सकते, ज्ञान से तो जान जावेंगे कि वह मैटर एक ही है जो सीधी अंगुली में था और टेढ़ी गोल आदि अंगुलियों रूप भी परिणमा सो जान तो जावोगे लेकिन उसे आंख से नहीं देख सकते । और वह ऐसा भी नहीं है कि न हो, किंतु इन 10 पर्यायों में रहने वाला एक है अवश्य, और वह ज्ञान पूर्वक देखने से ही दिखेगा । वस्तु की पर्याय एक समय में एक होती है सो क्रम से यह वस्तु सब पर्यायों में है । 131. दृष्टांतपूर्वक अध्रुवस्थायिता का वर्णन—एक बुढ़िया थी । वह रंहटा चलाती थी । एक बार उसका तकुवा टेढ़ा हो गया सो वह उस ठीक कराने के लिये लुहार के पास गई और बोली कि मुझे इस तकुवे की टेढ़ निकलवानी है । लुहार ने कहा टेढ़ निकलवाने के दो टके लगेंगे । बुढ़िया बोली ठीक है; मैं दूंगी । लुहार ने टेढ़ निकाल दी और बोला कि अपना तकुवा लो और मुझे दो टके दो । तब बुढ़िया बोली, तुमने जो इसकी टेढ़ निकाली है वह मुझे दे दो और अपने दो टके ले लो, क्योंकि मैंने तो टेढ़ निकलवाने के दो टके मंजूर किये थे, सो तुमने जो टेढ़ निकाली है सो मुझे दे दो । जैसे आप अपनी टार्च में मसाला डलवाते हो तो दुकानदार से पुराना मसाला ले लेते हो, यदि लुहार उसे टेढ़ देने के लिए तकुवा को फिर टेढ़ा करे तो टेढ़ा करने के टके नहीं ठहरे थे, टेढ़ निकालने के ठहरे थे । बात क्या है? तकुवा यहाँ मानने में स्थायी मैटर (Matter) है और उसकी पहले टेढ़ी अवस्था थी उसका तो तिरोभाव हो गया और सीधी पर्याय का आविर्भाव हो गया । तकुआ दोनों अवस्था में एक है । आत्मा में परसमय अवस्था विलीन हो जाती और स्वसमय अवस्था उद्भूत हो जाती है । दोनों पर्यायों में आत्मा वही एक है । समय स्थायी है, स्वसमय व परसमय अवस्थायें आत्मा वही एक है । समय स्थायी है, स्वसमय व परसमय अवस्थायें आत्मा त्रिकाल व्यापक एक है । यही समय है प्रत्येक पदार्थ प्रति समय किसी एक न एक अवस्था में रहता ही है । प्रत्येक आत्मा एक-एक आत्मा है । अब एक आत्मा को ले लो, वह परसमय में भी स्थित था अब स्वसमय में हैं दोनों में है दोनों में द्रव्य एक है । ऐसे अनंतानंत जीव है जिन्होंने परसमयपना अब भी नहीं छोड़ा है और न छोड़ेंगे । तो परसमयपना भी प्रति समय होता रहता है सो उन अनंत परसमय अवस्थाओं में जीव एक है । इस गाथा में कहते हैं । और जो पुद्गल कर्म के उदय से होने वाले राग द्वेष मोह आदि परिणाम में स्थित हो उसे परसमय कहते हैं । इस गाथा का उदिष्ट भाव है कि जो स्वसमय और परसमय में स्थित हो उसे समय कहते हैं । 132. प्रत्येक कार्य की श्रद्धा ज्ञान चरित्र से उद्धति—आत्मा (समय) का स्वभाव दर्शन ज्ञानचारित्र है । आप कोई भी कार्य ले लीजिये प्रत्येक काम में श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र की आवश्यकता आती है । बिना श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र के न पाप होता है और न पुण्य होता है । आप पाप करेंगे तो जब आपको उसमें श्रद्धान हो जावेगा कि यही हित है तभी आप उसे करगे और ज्ञान भी हो कि यह काम कैसे किया जाता है आदि और चारित्र तो इसका शीघ्र हो जाता है । कार्य रूप में प्रवृति करना सो चारित्र है । यहाँ यह वस्तु है कि वह मिथ्या श्रद्धा मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्र है । बिना श्रद्धा ज्ञान, चारित्र के रोटी भी तैयार नहीं होती है । रोटी बनाने वाले को पूर्ण श्रद्धा है और ज्ञान भी है कि रोटी इस तरह बनती है । यदि उसे ज्ञान न होता तो वह रोटी कैसे बनाता और कैसे सेकता और उसका उसने चारित्र किया याने बनाने का कार्य कर दिया तो रोटी बन गई । जहाँ श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र होंगे वहीं पर संसार और मोक्ष होंगे । यहाँ पर दर्शन ज्ञान चारित्र सामान्य से दिये हैं किंतु उनमें स्थिति का तात्पर्य सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से है । जिस एक गुण की अनंत पर्यायें चलती हैं वही दर्शन चारित्र यहाँ लिया गया है । अब आचार्य अमृतचंदजी सूरि कहते हैं कि यहाँ समय का लक्षण शुरू किया जा रहा है कोई श्रोता वहाँ पर प्रश्न करता है आप जीव की विशेषतायें तो कहने लगे किंतु पहले आप यह तो बताओ कि जीव है या नहीं? तो पहले सिद्ध करते हैं कि जीव है । 134. जीव की वास्तविक पदार्थता—जीव है । कैसे? सत्ता से । जिसमें सत्ता है वहीं है । है, मानी कोई चीज है । जीव की सत्ता है । कैसे? जिसमें उत्पाद व्यय, ध्रौव्य पाये जावें वह चीज है जो बने बिगड़े और बनी रहे वह चीज है और वह सत् है । अगर इनमें से एक भी चीज न रहे तो वह सत् नहीं, वह चीज नहीं है । क्योंकि ये तीनों चीज अविनाभावरूप हैं । जिनमें ये तीनों पाये जावें वही चीज है, वही सत् है । ये तीनों चीजें आप अपनी आत्मा में भी देख लो । आप पहले कुछ और थे अब मनुष्य हैं । तो जो पर्याय पहिले भव की थी उसका तो व्यय हो गया और इस मनुष्य पर्याय का उत्पाद हो गया । दोनों पर्यायों में आत्मा वही एक है । इसी तरह गुणपरिणमन में भी लगाना । तथा जैसे आप अब मनुष्य है, किंतु जो आप दो वर्ष पहले थे क्या वही आप अब भी हैं? क्या? और अब भी आप मनुष्य ही है, तो देखो आप बने भी बिगडे भी और बने भी रहे तो आप में तीनों बातें, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य है । ये सभी दृष्टांत अभी जल्दी समझने के लिये पर्याय के ही दे दिये गये हैं । आत्मा तो वह एक है और वह कभी तिर्यंच होता कभी नारक कभी देव कभी मनुष्य, कभी सिद्ध । है ये सब पर्याय । हां सिद्ध पर्याय की विशेषता यह है कि सिद्ध पर्याय के बाद फिर नरक तिर्यंच मनुष्य व देव इनमें से कोई भी पर्याय नहीं होते तो इन सबमें गया हुआ सत् एक है वही तो इन रूप परिणमा । 135. जो बने, बिगड़े, बना रहे वह वस्तु है—आपकी सरल घरू बोली में ये शब्द ठीक हैं कि जो बनता है, बिगड़ता है, फिर भी बना रहता है वह ‘‘है।’’ देखो भैया ! यह सत्ता त्रिलक्षण है । जिसमें ये तीन बातें हों वह सत् है । ये परस्पर अविनाभावी हैं । जो बनता है वह बिगड़ता व बना रहता अवश्य है । जो बिगड़ता वह बनता व बना रहता अवश्य है । जो बना रहता है वह बनता व बिगड़ता अवश्य है । बने बिना बिगड़ना, बना रहना नहीं । बिगड़ना, बना रहना नहीं । बिगड़े बिना बनना, बना रहना नहीं । बने रहे बिना बनना, बिगड़ना नहीं । यद्यपि जो बनने का स्वरूप है वह बिगड़ने, बने रहने का नहीं, जो बिगड़ने का स्वरूप है वह बनने बिगड़ने का नहीं, जो बने रहने का स्वरूप है वह बिगड़ने, बने रहने का स्वरूप है वह बनने बिगड़ने का नहीं । फिर भी जो बनना है वही बिगड़ना व बना रहना है, जो बिगड़ना है वही बनना, बना रहना है, जो बना रहना है वही बिगड़ना व बनना है । अब आप देख लो आप बनते हैं, बिगड़ते और बने रहते हैं । आप में ये तीनों चीजें है । अब कोई पूछता है कि यह बातें सत्ता में कहां से आ गई? कहते हैं कि वस्तु का सत्तासिद्ध ही यह स्वभाव है, और यह अनादि से चली आई है । हमारा काम तो बताना है सो हम तो वस्तु का स्वभाव बता देते हैं जैसे महर्षियों की आज्ञा है । वस्तु को स्वरूप धर्म है । इसे आप देख लो, कोई वस्तु ले आओ उसमें खोज लो कि इस वस्तु में इतना धर्म है, और इतना अधर्म है । सो भैया हम तो गवाह है । किंतु आप हमें आजकल के गवाह मत समझना क्योंकि आजकल के गवाह तो जरा सी देर में और जरा से लोभ मैं तैयार हो जाते हैं । [हंसी] आत्मा में जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र है सो तो धर्म है और राग, द्वेष मोह, आदिक जो है वे अधर्म है । जो दर्शन ज्ञान, चारित्र में रहता है सो वह तो स्वसमय है और जो राग द्वेष मोह आदिक में रहता है वह परसमय है । इस समयसार महान् ग्रंथ में उसी का कथन है जो आत्मा पेड़, हाथी, चींटी हम आप और सिद्ध प्रभु में सामान्य से है । 136. वस्तुत्वज्ञानामृत का सेवन की आवश्यकता—वीतराग प्रभु आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी इतने महान् ग्रंथ रच गये हैं किंतु लोगो को उस महान् ग्रंथ का सुनने या अध्ययन करने की फुरसत न हो तो यह कितने खेद की बात है । भैया ! इस आत्मा का कल्याण ज्ञान बिना नहीं हो सकता है । छहढाला में श्री कविवर दौलतराम जी ने स्पष्ट कहा है कि, ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन । इह परमामृत जन्म जरा मृतु रोग निवारन । इस जगत में जीवों को सुख देनेवाला ज्ञान के बराबर दूसरा कोई पदार्थ नहीं है । यह ज्ञान ही उत्तम अमृत के समान है । इस ज्ञानामृत के पीने से ही, जन्म जरा (बुढ़ापा) और मरण जो तीन भयानक रोग है, दूर भाग जाते हैं । इसलिये हमारा और आपका सर्वप्रथम कर्तव्य है कि ज्ञान प्राप्ति करे जिससे अपनी आत्मा का कल्याण हो । यहाँ श्रीमत्परमपूज्य आचार्य अमृतचंदजी सूरि आत्मा के विशेषण बता रहे हैं किंतु इसके पूर्व श्रोता ने उन्हें बीच में मानों टोक दिया कि हे स्वामिन् ! पहिले तो आप हमें पुन: यह बताइये कि जीव है भी या नहीं? आत्मा के विशेषण तो बाद में होते रहेंगे । तब पूज्य श्री अमृतचंदजी सूरि कहते हैं कि वह जीव है, वह सत्तारूप से अनुस्यूत है, क्योंकि उसमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तीनों का अभेद है वह जीव सत् है । सत् वही होता है जिसमें तीन बातें पाई जाये । जो बने, बिगड़े और बना रहे, वहाँ वस्तु, पदार्थ याने चीज होती है । और जिसमें इन तीन में से एक का भी अभाव हो वह चीज नहीं हो सकती है । प्रत्येक वस्तु में बनना बिगड़ना और बना रहना ये अविनाभावरूप से रहते हैं । एक आम को ले लो । आम जब पेड़ों में आता ही है, वह बिलकुल छोटीसी अवस्था में होता है और वह काला रहता है । जब कुछ बढ़ता है तब उसमें नीलापन आता है और फिर हरापन इसके बाद पीलापन और फिर वह लाल होता है । तो जब वह काले से नीले रूप में आता है, तब उसका कालापन हटना यह तो बिगड़ना और नीलेपन में आना यह बनना है, और वह रूप सामान्य बना भी रहा है । इस तरह प्रत्येक वस्तु में तीनों चीजें अविनाभावरूप से है । जो लक्षण बनने का है वह बिगड़ने का नहीं, फिर भी बनता बिगड़ता एक साथ है । आत्मा में भी ये तीनों चीजें पाई जाती है । 137. आत्मा का असाधारण गुण:—इस तरह पहिले आत्मा को सत् सिद्ध भले प्रकार कर दिया, अब उसमें जो असाधारण गुण है उसे कहेंगे । देखो भैया महापुरुषों की वाणी बहुत रहस्य लिये होती है । यहाँ यद्यपि सत्ता से अनुस्यूत कही वाणी बहुत रहस्य लिये होती है । यहाँ यद्यपि सत्ता से अनुस्यूत कहा किंतु इसके साधारण गुण सभी समझ लेना । जैसे साधारण गुण 6 बताये हैं—अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्व, प्रमेयत्व । सो ये सब हों तब सत् निर्वांध है मान लो, अस्तित्वधर्म ही माना तो वह अस्तित्व तब तक नहीं हो सकता कि जब यह व्यवस्था न हो कि वह अपने में तन्मय है, पर से भिन्न है सो स्व का उपादान व पर का हान करना ही वस्तुत्व है । वस्तुत्व माना तो वह तब तक वस्तु नहीं जब तक अर्थक्रिया उसमें न हो; सो अर्थक्रिया होना द्रव्यत्व का काम कर रहा । अब वह परिणमे तो सही लेकिन अटपट किसी रूप परिणमे तो वह नष्ट ही होगा सो अपने द्रव्य रूप परिणमना और गुणों का भी अपने-2 गुणरूप परिणमना आवश्यक है यह अगुरुलघुत्व का काम हुआ । यह सब निराश्रय हो नहीं सकता सो प्रदेशवत्व ने साश्रय किया । इतना होने पर में प्रमेयपना नहीं हो तो क्या व्यवस्था हो सो प्रमेयत्व आपतित है । इस तरह 6 साधारण गुणोकरि सहित यह आत्मा नामक पदार्थ है । परंतु भैया ‘है’ इतने से तो कुछ प्रयोजन नहीं सधा सो अब असाधारण गुण कहते है—चैतन्य स्वरूप होने से नित्य उदित है निर्मल, दर्शन ज्ञान रूप ज्योति जिसकी ऐसा यह आत्मा है । भैया दर्शन ज्ञान का विकास तो प्रकट दिख रहा है । विकास में कम व अधिक यहाँ है । यदि चैतन्य न हो तो सुख दुःखादि का कैसे वेदन हो? हमारे बचपन की एक घटना हमें याद हो आई है जो यहाँ आज के संबंध से कुछ संबंधित है । हम स्कूल जाते थे पढ़ने को । हमें पढ़ने में रुचि थी । किंतु यह अधिकांश रूप में देखा जाता है कि बचपन में पढ़ने को जी नहीं चाहता । एक दिन हम स्कूल में एक लड़के को बड़ी बुरी तरह पिटते देख आये सो हम डर गये । दूसरे दिन हम कलेवा करके पढ़ने नहीं गये । जब माताजी ने हम से कहा तो हमने जाने से इन्कार कर दिया । तब माँ ने हमें पीट दिया, तो हम रोते जाय और सोचते जाय कि यह सामने जो लकड़ी का खंभा है, यदि हम यह लकड़ी का खंभा होते तो हमें पिटना नहीं पड़ता, दु:खी भी नहीं होना पड़ता । सो उसका मतलब यह आज मिला कि उपयोग होता है तभी तो ये वेदन है । हां तो पहले सत्ता मात्र सिद्ध किया था । तो जब ‘है’ यह सिद्ध हो चुका कि यहाँ कोई वस्तु अवश्य है तो अब उसके विशेषण आदि देने पड़ते हैं । सो अब आत्मा के विशेषण कहें जा रहे हैं कि वह आत्माचैतन्य स्वरूप है । ज्ञान दर्शन उस आत्मा के गुण हैं । ज्ञान दर्शन उसके प्रगट हैं । 138. ज्ञान दर्शन गुण की शक्तियां और व्यक्तियां—ज्ञान, दर्शन दो तरह के हैं । पहला तो सामान्य ज्ञान और दूसरे विशेष ज्ञान । इसी तरह सामान्य दर्शन व विशेष दर्शन । सो सामान्यज्ञान तो प्रत्येक जीव के होता है, गाय के, बैल के, मनुष्य के, देवता के आदि सभी के सामान्य ज्ञान होता है । कूद का वह सामान्य ज्ञान त्रिकाल में एक वही रहता है किंतु विशेष ज्ञान में तारतम्य है, परिणति है । सामान्य ज्ञान तो हमेशा प्रकट है वह कभी अप्रकट रूप से नहीं है, चाहे कोई देखे या न देखे । उसका विशेष ज्ञान सूर्य और उसके आवरण की तरह से नहीं । जैसे सूर्य निकला है और उसके आवरण, बादल उसके ऊपर आ करके उसे ढक लेवे तो उसका प्रकाश जाता रहता है और आवरण के भीतर पूरा प्रकाश रहता है । इस तरह ज्ञान नहीं । आत्मा पर आवरण आ जाने पर भी तो सामान्य ज्ञान है वह उसी तरह से प्रकाशित रहेगा, और उसका विशेष किसी न किसी रूप से बाहर निकलता ही रहता है । सामान्य रूप से दर्शन, ज्ञान इस आत्मा में हमेशा प्रकाशमान हैं । क्योंकि आत्मा चैतन्य स्वरूप है । जिसमें दर्शन ज्ञान है वही चैतन्य आत्मा है । इस आत्मा में अनंत गुण है किंतु वे गुण बिखरे नहीं हैं । 139. सब एक में अभेद रूपता—देखो सब गुणों का स्वरूप न्यारा-न्यारा होकर भी एक गुण का प्रभाव समस्त गुणों में रहता है । आत्मा में ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र सूक्ष्मत्व अगुरुलघुत्व आदि अनंतगुण हैं । जैसे सूक्ष्मत्व है, उसके प्रभाव या पर्याय अनंत गुणो में हैं । जैसे ज्ञान सूक्ष्म, दर्शनसूक्ष्म आदि । इसी तरह सूक्ष्म है वह अनंत गुणों के ज्ञान रूप हैं, उसके अनंत अविभाग प्रतिच्छेद है और एक अविभाग प्रतिच्छेद में अनंत रस हैं और एक रस में अनंत प्रभाव हैं ऐसा अचिंत्य आत्मा एक अखंड वस्तु है । उसके कभी भी खंड याने टुकड़े नहीं हो सकते । आत्मा अपने स्वरूप से अलग नहीं हो सकती है । आत्मा में जितने भी गुण हैं वे लक्षण से एक दूसरे के रूप नहीं हो सकते हैं, वे न्यारे-न्यारे लक्षण वाले हैं । किंतु एक गुण में सभी गुण मौजूद हैं । साधारण गुणों की अनंत शक्तियां हैं वे सभी ज्ञान में मौजूद हैं । आत्मा में तिर्यक पर्याय भी अनंत हैं और ऊर्ध्वता पर्याय भी अनंत हैं, इस तरह ज्ञान अनंत गुणमय है और सब गुणों में सार है । आत्मा में ऐसे सभी गुण है किंतु उनके ऊपर ध्यान नहीं देकर दर्शन और ज्ञान जो आत्मा के असाधारण गुण है उनका ही कह रहे हैं । लोगबाग ज्ञान को शब्द में देखते हैं, आंखों से देखते हैं किंतु वह न शब्द से और न आंखों से ही प्रकट होता है, दिखाई देता है, किंतु वह ज्ञान आत्म शक्ति से ही प्रकट होता है । 140. रागादि से भी चैतन्य का अनुमान है—देखो भैया, तुम्हें आत्मा में जो रागादि मालूम होता है वह भी ज्ञानमयता को सिद्ध करता है । कमरे में एक कोने में दिया रखा है आप कमरे के बाहर हैं और आपको कमरे का दरवाजा दिख रहा है, दिया नहीं दिखता है, किंतु जब आप दरवाजे से देखते हैं तो आपको सामने के सारे प्रकाशित पदार्थ दिखते हैं । तब आपको यह आभास होता है कि यहाँ दीपक है इसलिये कि यहाँ प्रकाशित पदार्थों का ज्ञान हो रहा है । पदार्थों का स्वरूप दीपक तो नहीं है किंतु वे दीपक को निमित्त पा करके प्रकाशमान हो रहे हैं । इसी तरह राग द्वेष आदिक आत्मा के गुण नहीं, किंतु फिर भी वे आत्मा में आ गये, सो वे आत्मा को बता देते हैं । जैसे बच्चों को पढ़ाया जाता है कि जो राग द्वेष करे, खावे, पीवे आदि सो जीव है । कहीं यह जीव नहीं है फिर भी ये बात जीव के होने पर ही है । हमारा दर्शन ज्ञान तो हमेशा उदीयमान रहता है । परंतु उस पर दृष्टि दे तो वह सम्यग्दृष्टि है जिसको इस अत्यंत पास के सहज तत्त्व पर भी दृष्टि नहीं पहुंचती, वह पर समय है । देखो भैया ! चेतना, ज्ञान सभी को है । अभी कोई आत्मा को भी मानने वाला न हो, तो वह भी जब देखे कि कोई कुत्ता को या बैल को पीट रहा है तो वह भी कहता है कि भैया इसे मत मारो । क्योंजी, यदि वह पीठ को पीटे तो कोई दया करके नहीं कहता है कि इसे न पीटो । है न भैया उसे चैतन्य और जड़ का ध्यान । ये रागादिक होते हैं, ये साबित करते हैं कि यहाँ चैतन्य है । यह आत्मा स्वयं ज्ञानरस निर्भर है और यह ऐसा अपना अनुभव न कर पाये तो इससे बड़ी दरिद्रता और कुछ नहीं है । यह आत्मा चैतन्य स्वरूप है आत्मा के अंतर में दर्शन ज्ञान सदा प्रकाशमान है । इस विशेषण से श्रीअमृतचंद्रजी सूरि ने यह सिद्ध किया कि आत्मा सत्रूप है और चैतन्यमय है । 141. आत्मा की अनंत धर्मात्मकता होने से रूपता व द्रव्यरूपता—अब आगे कहते हैं कि वह आत्मा ‘‘अनंतधर्माधिरूढकधर्मित्वादुद्योतमानद्रव्यत्व:’’ है । अनंत धर्मों के द्वारा अधिरूढ़ एक धर्मों यह आत्मा है तभी इसमें द्रव्यत्व प्रकट है देखो, अभी आत्मा में यह बताया था कि उसमें दर्शन ज्ञान लेकिन इतना बता देने से आत्मा का परिज्ञान नहीं हो पाया । एक देश ज्ञान से पूरा ज्ञान नहीं हो पाता है । जैसे एक हाथी पानी में डूबा है—सिर्फ उसकी सूंड बाहर निकली है, सूंडमात्र के देखने से पूरे हाथी का ज्ञान नहीं हो सकता जिसे कि पूरे हाथी का ज्ञान नहीं है । और जिसे हाथी का ज्ञान है तो संबंध से उसने हाथी पहिचान ही लिया । वस्तु सभी पूर्ण है । पुद्गल अपना स्वभाव नहीं छोड़ता, यह हमारे ऊपर उसकी कृपा है निज द्रव्य की भी हमारे ऊपर कृपा है कि वह भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता । इस पूरे आत्मा को जाने बिना ज्ञानदर्शन भी समझ में न आवेगा । एक पुरुष में अनंत धर्म विद्यमान है । जैसे वह किसी का मामा है, और वही पिता भी है, उसमें पुत्रपना भी हैं । माता पिता, ये अनंत धर्म उसमें है जरूर, लेकिन असल में वह एक है उस पूरे पुरुष को जाने बिना हम पिता आदि कोई एक धर्म का भी हम भला व पूरा परिचय नहीं कर सकते । आचार्य महाराज की हमारे ऊपर महान कृपा है कि जो उन्होंने अनुभव किया वह शब्द द्वार से सबकी आत्मा का मर्म सर्व कह रहे हैं । भैया ! अभी तक तुमने अनंतभव धारण किये और उन्हें व्यर्थ खो दिया, वे एक भी आपके कार्य में नहीं आ रहे हैं और अगर आपने अब भी अपने को नहीं देखा तो यह भव भी यों ही बीत जावेगा । 142. अपने को देखो—अपने असली स्वभाव को जान करके अपनी आत्मा का कल्याण करो । अपनी दया अवश्य कर लो, नहीं तो जैसे सभी भव अतीत हो गये यह भी अतीत होने वाला है । एक वृद्ध महाशय शाकभाजी खरीदने में निपुण हैं, सो जिस दिन उनके गांव का बाजार लगता है सो पड़ौसी लोग उन्हें पैसे देते जाते हैं कि हमारे लिये भाजी ले देना और वह वृद्ध महाशय सभी का शाक भाजी खरीद देते हैं, फिर अंत में उन्हें सड़ी गली शाक भाजी मिलती है और वे उसी को रख लेते हैं, तो इसमें उनकी चतुराई नहीं हैं । हां वे चतुर थे तो पहले अपनी शाक भाजी अच्छी ले करके अपने थैले में रख लेते तब बाद में दूसरों की खरीदते इसमें उनकी चतुराई थी । इसी तरह आत्मा ने दुनियां को देखा, दुनियां को पहचाना किंतु वह किसके लिये ? यदि उस आत्मा में धर्मत्व-बुद्धि पैदा नहीं हुई तो सब व्यर्थ है । जान लिया कि स्वयंभूरमण में बड़ी अवगाहना के जीव है क्या फायदा खुद का हुआ अगर उसमें यह भाव उठता कि आत्मज्ञान के बिना, यह आत्मा ऐसे क्षेत्र में (देहों में) घूमा और नाना प्रकार के कष्ट सहे, अब तो इसका कल्याण करना चाहिये तब तो ठीक था, कुछ लाभ था । बाह्य वस्तुओं से क्या प्रयोजन, हमें तो अपना कल्याण करना है, यदि हम अपने को नहीं पहचान पाये तो इन बाह्यवस्तुओं का ज्ञान करना बेकार है । इसलिये विचार करो और अपनी आत्मा को देखो । 143. श्रेयस्करी तत्त्वदृष्टि का अनुरोध:—ऐसी कौन सी चीज है जिस पर दृष्टि रखने से आत्मा का पूर्ण भला हो जाता है? यदि कहा जाय कि देखो मेरे पास एक ऐसी चीज है कि उसे तुम देख लोगे तो सदा के लिए सुखी हो जावोगे, तो उत्सुकता जगेगी ना कि क्या चीज है ऐसी इस ग्रंथ में उस ही बात का वर्णन है कि जिसकी दृष्टि हो जाय, जिसका दर्शन हो जाय, ज्ञान हो जाय तो सदा के लिए पूर्ण भला हो जाय । वह चीज तो जानना चाहिये । आचार्य सत कहते हैं कि वह चीज जिसके दर्शन करने से पातक टल जाते हैं अनाकुलता होती है समृद्धि जगती है वह कहीं बाहर में नहीं पड़ी है । वह तुम में ही है, तुम्हारी वह अक्षय निधि तुम में ही है, थोड़ा देखने का ढंग बना लो । मोही पुरुष दुःख भी भोगते जाते हैं राग का और दुःख मिटाने का इलाज भी वे राग समझते जाते हैं और कदाचित बहुत दु:खी होने पर कसम भी खाले कि अब यह राग नहीं करना लेकिन राग किये बिना चैन नहीं पड़ती । यह स्थिति है मोहियों की । कभी-कभी लोग कह उठते हैं कि घर में क्या सार है विपत्ति ही विपत्ति हैं । अरे कोई अपनी विपत्ति समझता रहता है घर में रह कर किंतु चित्त में यह नहीं आता कि जब ऐसी बात है घर के संपर्क से परिजनों सै मित्रजनों के संपर्क से जब कुछ मुझे तथ्य नहीं मिल रहा, परेशानी ही हो रही है तो क्यों न कमर कस ली जाय इस बात पर कि यहाँ की उपेक्षा करना और सत्य तत्त्व जानकर ही रहना कि वह कौन सा तत्त्व है जिसके दर्शन करने से पूर्ण भला हो जायगा । उसकी बात सुनो । 144. आत्मास्वरूप का निर्णय—पहिले अपने आपका निर्णय करिये कि यह मैं हूँ क्या? सब लोग अपनी-अपनी बात सोचिये । आप हैं या नही, मैं हूँ या नहीं । नहीं हैं क्या आप? ऐसी बात तो नहीं हैं आप हैं मैं हूँ कुछ हैं मुझ में कोई है समझने वाला । तो मैं हूँ, और चैतन्य स्वरूप हूँ इन दो बातों का अर्थ समझकर आप खोज करिये सोचिये, मैं हूँ यदि न होऊं तो बड़ी अच्छी बात है, फिर दुःख सुख ही क्या होंगे, कौन दुःख सुख मानेगा, पर ऐसा तो नहीं । मैं तो हूँ और चेतन्यस्वरूप हूँ मैं हूँ भी बना रहता और चैतन्य स्वरूप न होता, जैसे ये परमाणु हैं चैतन्यस्वरूप नहीं हैं, जैसे ये दिखने वाले पदार्थ चौकी भींत आदिक ये हैं कि नहीं? हैं पर चैतन्य स्वरूप नहीं हैं, तो इनको सुख दुःख कुछ नहीं होता । भींत गिर जाय तो उसे कहां दुःख होता, चौकी गिर जाय तो क्या वह कष्ट मानती है? मैं सत् भी होता पर चैतन्यस्वरूप न होता तो भी कोई कष्ट न था । मगर जो जैसा है सो तो है ही, मैं हूँ और चैतन्यस्वरूप हूँ, जो यह शरीर है इस शरीर से मैं बिल्कुल जुदे स्वरूप वाला हूँ शरीर में रुप, रस, गंध स्पर्श हैं किंतु मुझमें नहीं है, शरीर जानता समझता नहीं है किंतु मैं जानता समझता हूँ, मैं हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ । मुझ में और क्या-क्या पाया जाता है? अनंत धर्म पाया जाता है मुझमें आनंद है, शक्ति हैं, श्रद्धा विश्वास की प्रकृति है कहीं न कहीं रम जाने की प्रकृति है, ये सब धर्म मुझमें हैं, खूब सोच लीजिये कहीं न कहीं लग जाने की बात आप में है कि नहीं? विषयों में, धन में अथवा ज्ञान में लग जाने की प्रकृति है । कुछ न कुछ ज्ञान करते रहे यह भी प्रकृति है ना, और कहीं न कहीं विश्वास बना रहे, इससे मेरा हित है, इससे मेरा बड़प्पन है, इससे मेरी उन्नति है ऐसा विश्वास रखने की भी आदत है ना, तो मैं चैतन्य स्वरूप हूँ और साथ ही आनंद चारित्र, श्रद्धा, ज्ञान, अनंत धर्मयुक्त हूँ । लेकिन हूँ सबसे निराला, आकाश से निराला । आकाश का स्वरूप और है काम और है मेरा स्वरूप चैतन्य है । प्रतिभास करना मेरा काम है, धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य, काल द्रव्य, सब पुद्गल और अन्य जीव इन सबसे निराला हूँ । 145. ध्रुव स्वभावभूत अंतस्तत्त्व के आश्रय बिना विडंबना—देखो यहाँ कैसी विपत्ति छायी हुई है कि किसी को अपना मानकर बस मेरे सुख के लिए अपना परिश्रम करना और सुख से न रह पाना और धर्म के लिए समय न रख सकना यह कोई मौज की बात नहीं है, विपत्ति है, जैसे सब लोग मौज मानते हैं । अच्छे हमारे लड़के हैं, खूब इज्जत है, खूब धन संपदा है, यह मौज की बात नहीं है, ये सब तो विपत्ति वाली बातें हैं, आपत्ति वाली बातें हैं । यदि यह विपत्ति न होती तो सब कुछ छोड़ देने वाले किसी योगी को आप क्यों पूजते है? मुनि को, प्रभु को योगीश्वर की मुद्रा को आप क्यों पूजते हैं? इसीलिये तो कि सत्य यहाँ है सार यहाँ हैं, परिग्रह में सार नहीं है । वह तो विडंबना है । बड़े-बड़े तीर्थकर चक्री आदिक महापुरूषों ने और किया क्या? यहाँ का सब कुछ छोड़ा पार हो गए । छोड़ना तो सब ही पड़ेगा पर एक जबरदस्ती का छूटना और एक ज्ञान जगाकर अपने जीवन में ही छोड़ना । थोड़े समय के बाद में ही सारा उलट पलट हो जाता है । न छोड़े कोई मोह अपने सारे जीवनभर लिपटा रहे संपदा में परिजनों में तो क्या उसे ये सब छोड़ने न पड़ेंगे । छोड़ने पड़ेंगे । और यदि अंतिम समय में वृद्धावस्था में कुछ विवेक जगाकर उस संघर्ष को, उस विडंबना को स्वयं छोड़ देवे तो उस छोड़ने से फायदा पा लेगा तो अपनी बात सोचिये यह मैं आत्मा समस्त पर द्रव्यों से निराला हूँ यद्यपि मैं रह रहा हूँ बहुतों के बीच, वहीं शरीर है, वहीं कर्म हैं, वही रागादिक भाव उठ रहे हैं वही आकाश है वहीं अन्य जीव है, पुद्गलों का ठाठ है । यद्यपि जहाँ मैं हूँ वहाँ बहुत-बहुत बातें हैं फिर भी मैं उनसे निराला हूँ । मैं किसी रूप नहीं होता । उस तत्त्व की बात कही जा रही है जिसका आश्रय करने से सर्व आकुलतायें दूर होती हैं अपने में निरखिये । यदि अपने को मान लिया कि मैं अमुकचंद हूँ, अमुकप्रसाद हूँ, इतने परिवार वाला हूँ तो यह अपना निरखना नहीं है । यह तो अज्ञान की बात है । मैं एक ज्ञान वाला पदार्थ हूँ जिसके साथ किसी का रंच भी संबंध नहीं है । पाप के उदय हैं, कर्मों के उदय हैं कि जीव इकट्ठे घर में हुये जन्म ले लेकर तो उनमें उपयोग फंसा है, उनमें दृष्टि जगी है इसे कर्मोंदय मानो, पापोदय मानो, मोह का उदय समझिये । जो इस तरह की विडंबना बनी । 146. कल्पना में पर की जकड़—राजा जनक की बड़ी प्रसिद्धि थी कि यह घर में रहकर भी वैरागी है और अनेक संतों को उपदेश देकर कृतार्थ किया करते हैं । तो एक पुरुष गया जो कि अपने घर परिवार से बड़ा हैरान था, बड़ा फंसा हुआ था । निकलने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था । राजा जनक से बोला, महाराज मुझे कुटुंब ने बहुत जकड़ रखा है, काम धंधे ने मुझे बड़ा फंसा रखा है, कृपया ऐसा उपाय बताओ । कि मैं इनसे छूट जाऊं । राजा जनक ने उत्तर तो कुछ न दिया, सामने एक नीम का पतला सा पेड़ खड़ा हुआ था उस नीम के पेड़ को अपने दोनों हाथों की जेट में भरकर मुट्ठी बांधकर चिल्लाकर कहने लगे कि अरे-अरे मैं तो बड़े चक्कर में आ गया, मुझे तो इस पेड़ ने जकड़ लिया, यह पेड़ मुझे छोड़ेगा, तब मैं तुम्हें जवाब दूंगा । वह पुरुष बोला—महाराज ! आप तो सुने जाते थे कि बड़े ज्ञानी पुरुष हैं पर आप तो निरा मूर्ख जंच रहे हैं । आपने स्वयं पेड़ को जकड़ रखा है । और कहते हैं कि मुझे तो पेड़ ने जकड़ लिया तो राजा जनक बोले—बस यही तो तेरे लिए उत्तर है तूने स्वयं घर गृहस्थी को जकड़ रखा हैं और कहता है कि मुझे घर गृहस्थी ने जकड़ रखा है । 147. आत्मदया की चेतावनी—भैया यहाँ क्या सार रखा है? न कोई रहेगा न साथ जायगा, न कुछ काम आयगा । यह मैं जीव भी अकेला ही रुलता हुआ, भटकता हुआ यहाँ पैदा हो गया, कुछ समय रहकर फिर आगे चला जाऊंगा । अरे कुछ अपने आप पर दया तो करलो । यह अपने आप पर दया कर लेने का समय मिला हुआ है । कीड़ा मकोड़ा होते, पशु पक्षी होते, तो वहाँ अपना कुछ भी सुधार न कर सकते । मनुष्य हुए हैं, वाणी मिली है, कलायें जगी हैं, साधन अच्छे मिले हैं तो धर्म की ओर दृष्टि देकर अपने आत्मस्वरूप के ज्ञान में पढ़कर अपने जीवन को सफल करले । यहाँ की धन संपदा का जो कुछ होना ही होगा, जिनके लिए आप छोड़े जा रहे हैं, यदि पाप का उदय है तो आपकी लाखों की छोड़ी हुई संपदा एक वर्ष भी नहीं रख सकता, ऐसे आपने अनेक दृष्टांत देखे भी होंगे, जानते भी होंगे, और यदि पुण्य का उदय होगा तो आप चाहे कुछ भी उनके लिए नहीं छोड़े जा रहे हैं, पर थोड़े ही समय बाद वे कुछ से कुछ उपार्जन कर लेंगे । तो दूसरों के लिए हम इतनी चिंता करें और अपने बारे में कुछ भी विचार न कर यह कोई भली बात नहीं है । ये भोग इन्हें आप भोगते नहीं हैं किंतु आप स्वयं इन भोगों से भुग जाते हैं । सारे जीवन भर प्रेम से घर में रहे, पर अंत में होता क्या है? वृद्धावस्था हुई अंग सिथिल हुये, उठना बैठना भी बंद हुआ तो आप बतलाओ साहब, अपने जीवन भर बहुत से भोग भोगे, अब तो बहुत बड़ा सुख का भंडार भर लिया होगा ना, कितना सुख भोग डाला ? उस सूख का स्टाक आपके पास है क्या? तो वह कहता है-अरे स्टाक की बात तो दूर जाने दो मैं स्वयं उन भोगों से भुग गया, बलहीन हो गया, दिमाग काम नहीं करता । वे ही स्त्री पुत्र अब सीधे बोल भी नहीं रहे । हमारी तो बड़ी दुर्दशा है । तो बतलावो आप भोगों को भोगते हैं या आप स्वयं इन भोगों से भुग जाते हैं? आप स्वयं ही इन भोगों से भुग जाते । 148. अपनी चिंतना—अब इन बाहरी समागमों में से प्रीति न करके अपने इस देह मंदिर में विराजमान ज्ञान प्रकाशमय जो निरन्जन आत्मदेव हैं उसकी उपासना में चलिये । बाहर सब धोखा है सब खतरा है, अपने अंदर आइये । क्षणभर को भी तो समस्त विकल्प तोड़कर ऐसा अपने को जानकर कि मैं तो मैं ही हूँ मेरा तो मैं ही हूँ, अन्य कुछ मेरा नहीं मैं में ही हूँ । मेरे साथ कोई नहीं । तो यह मैं अकेला जो यत्र तत्र जन्म लेता फिरता हूँ उसको देखूं तो । वह है ज्ञान मात्र, भावमात्र आकाश की तरह अमूर्त, लेकिन हमारी वासनाओं से हमारे भावों से यह देह में जकड़ा हुआ हैं । अब भी स्वरूप से यह मैं ज्ञानानंद स्वरूप हूँ । उस तत्त्व को निरखिये । उसकी दृष्टि होगी तो नियम से पूर्ण रूप से भला होगा । जिस भगवान को हम पूजते हैं उन्होंने इस आत्मस्वरूप का दर्शन किया जिसके बल से उन्हें सारा संसार असार जंचा और इस समस्त जगत को यों छोड़ा जैसे लोग काकबीट को कुछ नहीं मानते । उससे बचकर चलते हैं, उसे हेय समझते हैं । कौवा के बीट को कौन छूता है । तो जैसे उस कौवा के बीट से हम आपका कुछ होने का नहीं, कोई काम आने का नहीं, इसी प्रकार ये सब वैभव धन संपदा परिजन आदि कुछ अपने काम आने के नहीं । आप कहेंगे कि ये तो बहुत बड़ी बातें की जा रही हैं । एक दो दिन भी रोटी न मिले तब देखो क्या किसी काम नहीं आते । अच्छा रोटी भी खूब खाया, खूब सुख भोगा आखिर होगा क्या? ऐसा देह मिलेगा, भूख लगेगी भोजन कभी मिला कभी न मिला, दुःखी होंगे, उसमें फेर तो न पड़ेगा । ऐसे तत्त्व के दर्शन तो कर लीजिये कि जिसके प्रसाद से भूख रहेगी ही नहीं, शरीर मिलेगा ही नहीं, केवल आत्मा ही आत्मा रह जायगा । यह बहुत बड़ा काम है । तुरंत नहीं बनता । इस काम में लगते हुये भी भूख प्यास की विडंबना चलेगी पर हतोत्साह न हों । उस तत्त्वदर्शन में लगें, कभी तो ये सब दोष दूर हो जायेंगे । देखिये चलिये अपने आपमें मैं हूँ और ज्ञानस्वरूप हूँ, सबसे निराला हूँ, जिसमें विकल्प नहीं, राग नहीं, प्रेम नहीं, द्वेष नहीं, केवल शुद्ध जानना है । शुद्ध जानने का अर्थ है कि जानने में तो सब कुछ आ गया, पर राग नहीं । 149. व्यवहार में भी पड़कर ज्ञानी का ज्ञातृत्व—भरत चक्रवर्ती की प्रसिद्धि थी कि ये घर में रहते हुये भी वैरागी हैं एक पुरुष को शंका हुई कि ऐसा कैसे हो सकता है । भरत घर रह रहे इतनी रानियों के बीच में हंसी से प्रसन्नता से रहा करते हैं, 32 हजार राजावों से सत्कार पाया करते हैं, उनसे वार्तालाप करते हैं, इतनी बड़ी संपदा के बीच रहते हैं फिर भी लोग कहते हैं वैरागी । सो उस पुरुष ने हिम्मत करके भरत से पूछ ही तो डाला । मंत्री भी पास बैठा था वह भी बड़ा चतुर था । पूछा—महाराज ! आप इतनी बड़ी संपदा के बीच रहकर भी वैरागी, यह तो हमारी समझ में नहीं आता । तो मंत्री ने कहा—अच्छा इनके हाथ में लबालब तैल से भरा कटोरा दो । दो सिपाहियों को साथ लगाया, समझा दिया था पहिले से ही, देखो सिपाहियों ! इनके कटोरे से अगर तैल की एक बूंद भी गिरे तो इनका शिर उड़ा देना और इनको इसी हालत में मेरी सब संपदा दिखा देना । भरत चक्रवर्ती की सारी संपदा दिखा दी गई आसपास के रनवास, घुड़शाला आदि सब जगह देखकर वापिस आये तो मंत्री पूछता है बतलावो अमुक रनवास में कितने महल थे, किस प्रकार से सभी रनवास सजे हुए थे, कैसी-कैसी रानियां थीं तो वह पुरुष बोला मैं देख तो सब कुछ आया हूँ पर किसी जगह की कोई खास जानकारी कुछ नहीं कर पाया हूँ क्योंकि मेरी दृष्टि इस पर थी कि कहीं तैल का बूँद न कटोरे से नीचे गिर जाय तो मेरा शिर कट जाय । मंत्री बोला बस ऐसी ही दृष्टि भरत महाराज की है, सब संपदा के बीच रहते हैं पर उनकी यह दृष्टि रहती है कि इसमें क्या लुभाना, इसमें क्या आसक्त होना । इसमें यदि लग गये तो संसार में रुलना पड़ेगा, बुरे-बुरे भव धारण करने पड़ेंगे । इनको यहाँ मोह नहीं है । भाई मोह करिये तो छोड़ना पड़ेगा और ज्ञान रखा मोह न किया जाय तो भी छोड़ना पड़ेगा । अब अपने हित की बात सोचिये । एक आफत यह लगी है कि जहाँ बैठते हैं, जहाँ लोग मिलते हैं, जो लोग आते हैं वे सब माया की बात करते हैं । धर्म की बात, भेद-विज्ञान की बात करने वाला कोई दूकान में आता है क्या? रिश्तेदार या और और लोग भी जब आते हैं वे सब संपदा की बड़ाई अथवा धनिकों की कीर्ति गाना ऐसी-ऐसी बातें करते हैं कि इसका भी ध्यान इसी पर चला जाता है कि मुझे भी इस इज्जत में, बाहरी आराम में बढ़ना चाहिये । अरे इतने विकल्प करो तो न करो तो, उदय अनुकूल हैं तो समृद्धि तो आती ही है । विकल्प करके अपना भविष्य और बिगाड़ लिया जाता है । 150. अपनी व्यवस्था तो कर लो:—एक बाबू साहब थे । व्यवस्था का कार्य करने में बहुत ही निपुण थे । एक दिन उनका भाव उठा कि अपना कमरा सजाना चाहिये, प्रत्येक वस्तु को ठिकाने पर रखकर उसका स्थान निश्चित कर देना चाहिये । सो उन्होंने घड़ी, छड़ी, दवात अपने-2 स्थान पर रख दी और उनके नीचे लिख दिया घड़ी, छड़ी के स्थान पर छड़ी रख दी और उसके नीचे लिखना छड़ी कमीज के स्थान पर लिख दिया कमीज इस तरह करते रात्रि के नौ बज चुके । अब बाबू साहब को नींद आने लगी और वे अपने पलंगपर लेट रहे, सोते समय उन्होंने पलंगपर भी लिख दिया ‘मैं’ । जब सुबह बाबू साहब सोकर उठे तो देखा कि सब चीज अपने ठिकाने पर हैं या नहीं? सो उनका निरीक्षण किया; सभी चीजें यथा स्थानपर पाई । किंतु जब पलंग के ऊपर निगाह गई तो उस पर लिखा था ‘मैं’, सो वे उस ‘मैं’ को तलाश करने लगे, छड़ी उठाकर झाड़ पोंछ कर देखा लेकिन उन्हें वह ‘मैं’ न मिला, तब उन्होंने अपने नौकर को बुलाया और उससे कहा कि देखो भाई मैंने रात को सभी चीजें ठीक करके रखी थीं सो और तो सब अपने स्थान पर मिल गई हैं, परंतु इस पलंग पर ‘मैं’ था सो वह नहीं मिल रहा है । देखा हो तो बताओ । नौकर को बाबू साहब की बातों पर हंसी आई । बाबू ने सोचा इसने देखा होगा तभी तो हंसता है; उसको वह डांटने लगा । नौकर बोला यह ‘मैं’ आपको बता दूंगा, आप निश्चित होकर भोजन कीजिये और आराम कीजिये । बाबू साहब बोले भाई भोजन तो करता हूँ लेकिन वह ‘मैं’ मुझे बता देना । बाबू साहब भोजन कर आराम कर रहे थे, तभी नौकर ने कहा कि बाबू साहब अब आप यह देखो कि वह ‘मैं’ पलंग पर है या नहीं । बाबू साहब को ‘मैं’ मिल गया । सो देखो भैया ऐसी जिसकी अचेत अवस्था है कि खुद तो है और खुद की तलाश नहीं कर पाता अथवा खुद तो ज्ञान आनंद का पुंज है किंतु ज्ञान आनंद को ढूंढ़ता दूसरी जगह है तो वह बात कुछ काम की नहीं । जो दु:ख होगे वे हम ही को तो इसलिये ऐसी व्यवस्था तो करो जिससे अपने को पहिचान पाओ । अपने आपको देखो कि मैं ऐसा हूँ, विचार करो और अपने आपकी आत्मा को अपने में देखो । 151. हमारा प्रियतम चैतन्य है—आत्मतत्त्व ही हमारे लिये प्रियतम ज्ञेय है, हमें उसी को जानना चाहिये । दुनियां की चीजों को हम जान पाये अथवा न जान पायें उनसे हमें क्या? हमारे लिये तो आत्मतत्त्व ही शाश्वत है ऐसा ज्ञान करो । वैसे तो दुनिया में जितने भी पदार्थ हैं (होते हैं), वे सभी शाश्वत है कोई भी नष्ट नहीं होते, किंतु ध्रुव तत्त्व की श्रद्धा न हो और वर्तमान पर्याय ही सर्वस्व जंचे तो उसकी परमार्थ दृष्टि कहां हुई भैया ! जब तक ऐसा विचार नहीं करोगे कि हमारे अंदर आत्मतत्त्व ही शाश्वत है तब तक कल्याण नहीं होगा । हां एक बात अवश्य है कि श्रद्धा आत्मतत्त्व की ही कर लो, तो सभी ज्ञान श्रद्धा के पोषक और आनंद के कारण बनेंगे । सौ भैया अनंत भव तो बीत गये अब इस एक भव को आत्मोद्धार के लिये ही समझ लो । देख लो भैया । खुद का विलास । अन्यथा फिर असैनी हो गये तो सब गुड गोबर हो जावेगा । 152. इस ग्रंथ में आपके ही गुण गाये जा रहे है:—इस ग्रंथ में आपकी ही बात कही जा रही, इस लिये बात को सावधानी से सुनो । क्योंकि जब कोई अपनी प्रशंसा करता है तो उसे सावधानी और शांति से सुना जाता है, सो इस ग्रंथ में भी आपकी प्रशंसा होती है और यही प्रशंसा हितकर है लोक में जो आपकी प्रशंसा होती है, वह अहित की होती है एवं कुछ स्वार्थवश की जाती है, किंतु यहाँ पर जो यह प्रशंसा की जा रही है वह आपके लिये हितकारी है । यह बडे सौभाग्य की बात है कि आपकी प्रशंसा श्रीमत्पूज्य आचार्य कुंदकुंद प्रभु और पूज्य आचार्य अमृतचंद जी सूरी कर रहे हैं । लोग बाग इसके लिये तरसते हैं कि हमारी प्रशंसा कोई बड़ा पुरुष करे । यहाँ पर जो आत्मा का वर्णन है वह आप लोगों की ही प्रशंसा है । पहले बताया था (सिद्ध किया था) कि आत्मा उत्पाद, व्यय धौव्य से युक्त है सत है । इसके बाद कहा कि वह चैतन्य रूप हैं । आज उस आत्मा का वैभव बताते हैं । 153. आत्मा का अनंत वैभव:—आत्मा में अनादि अनंत शक्तियां हैं, अनंत गुण हैं । अनंत गुणों की अनंत पर्यायें हैं । यहाँ पर एक जिज्ञासु भाई की एक चर्चा है कि आत्मा की जितनी भी शक्तियां है वे सब एक साथ पाई जाती हैं अथवा अलग-अलग? कहते हैं कि आत्मा की जितनी भी शक्तियां है वे सब एक साथ पाई जाती है, अवस्थायें तो क्रम से होती हैं, किंतु शक्तियां एक साथ होती है । सभी शक्तियों की वर्तमान परिणतियां भी एक साथ हैं समस्त शक्तियों का वर्तमान विकास युगपत है, भूत व भविष्यद् विकास एक साथ नहीं है । कोई पुरुष पांच भाषाओं का ज्ञाता है, जब वह हिंदी बांच रहा है, कह रहा है तो उसे उस समय अन्य चारों भाषाओं का भी ज्ञान है उनका उसे विस्मरण नहीं है, इस तरह आत्मा में दर्शन ज्ञान आदि सभी गुण एक साथ मौजूद रहते हैं, दृष्टि चाहे एक पर रहे । आत्मा के वर्णन में जैसे कहते हैं कि दर्शन ज्ञान चारित्र है, ये आत्मा की शक्तियां हैं और उनका एक साथ अनंतकाल तक सत्त्व है । आत्मा की सर्वशक्तियों में तन्मय है । शक्तियों का स्वरूप पृथक्-पृथक् है, सत्त्व पृथक्-पृथक् नहीं । 154. आत्मा में शक्ति और परिणमन दोनों की झांकी—शक्ति तो सामर्थ्य याने स्वभाव को कहते हैं; वह तो अनादि अनंत स्वतःसिद्ध एक रूप है । उसकी प्रत्येक समय में वृत्ति रहती है, वही प्रतिसमय की भिन्न-2 अवस्था है । सामर्थ्य को भेद दृष्टि से देखने पर अनंत सामर्थ्य हैं, इन्हीं को गुण कहते हैं । सो गुण तो अब युगपत् ही हैं अर्थात् उनकी अक्रम प्रवृत्ति है और अवस्थाओं की अर्थात् पर्यायों की प्रवृत्ति क्रम से हैं, क्योंकि पर्याय प्रति समय की वर्तना का नाम है । भैया ! अपने स्वभाव की अनुभूति होना सबसे बड़ा विभूति है और यही स्वानुभूति परम देवता है । कोई लोग दुर्गा, काली चंद्र घंटा, भद्रकाली आदि को मानते हैं सो वह सब क्या है? किस देवता का संकेत है । सबसे पहिले लोग इन शब्दों से क्या जानते होंगे और आज इनका क्या रूप माना जाने लगा है? गहराई से विचार तो इनके शब्द ही रहस्य बता देते । दुर्गा कहते किसे हैं? दुःखेन गम्यते प्राप्यते या सा दुर्गा । जो बहुत ही कठिनाई से प्राप्त हो उसे कहते हैं दुर्गा । सो यह आत्मा की अनुभूति कठिनाई से प्राप्त है । दुर्गा की लोग अब दो रूप से आराधना करते हैं, एक तो शक्तिरूप से, दैत्य असुर आदि को संहार करने वाली मूर्ति के रूप से । यह आत्मा भी अनंत शक्ति वाली है । इसकी स्वानुभूति जब इसे हो जाती है तब यह भी राग द्वेष आदि बड़े-बड़े राक्षसों का नाश कर देती है । सो इस दुर्गा की उपासना करो, जब तक आत्मा की स्वानुभूति नहीं होगी तब तक सुख नहीं मिल सकता । 155. अपने को जानकर फिर कुछ भी जानों:—जब तक आप अपना बड़प्पन नहीं जान पावोगे तब तक आप अपनी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकते । आप दुनियां में चले जावो सभी को देखो किंतु जब तक यह ज्ञान नहीं हुआ कि यह मैं ही अपना पूरा जुम्मेवार हूँ और कोई नहीं; तब तक सत्य शरण गत नहीं हो सकता । मेरी निर्मलता ही मेरी रक्षिका है । इस प्रतीति के बिना बाहर में किन्ही को मानों वह सब परिश्रम मात्र है । एक आदमी बहुत व्यसनी था, एक दिन उसकी पत्नी ने कहा कि तुम मेरी एक बात मानो; तुम और तो कोई भी बात नहीं सुनते और न मानते हो । वह व्यक्ति बोला कौनसी बात है । स्त्री ने कहा कि ये जो अपने घर में भगवान हैं सो तुम इनकी रोज पूजा करके 24 घंटे के लिये पाप छोड दिया करो । एक मूर्ति भी दे दी । सो वह आदमी ऐसा करने लगा । इस तरह उसकी प्रवृत्ति पापकर्मों से, व्यसनों से हट गई । एक दिन वह मूर्ति को चावल चढ़ा रहा था कि इतने में ही एक चूहा आकर उन चावलों को खाने लगा, सो उसने ऐसा सोचकर कि यह ही बड़ा है ये कुछ नहीं सो प्रतिदिन चूहे की पूजा करने लगा । एक दिन चूहे पर बिल्ली झपटी सो उसने बिल्ली को बड़ा मानकर बिल्ली की पूजा शुरु की । कुछ दिन बाद बिल्ली के ऊपर कुत्ता झपटा सो ऐसा कह कर किं यही सबसे बडा हैं उसकी पूजा करने लगा । कुत्ता उससे खूब हिल मिल गया । सो एक दिन कुत्ता रसोई घर में चला गया सो वहाँ उसकी स्त्री ने उसे बेलन से मारा । तब कुत्ता चिल्लाता आवाज करता हुआ वहाँ से भागा । तब वह आदमी बोला कि इन सबसे बडी तो मेरी औरत है सो सबेरा होते ही वह औरत से बोला कि तू ही सबसे बड़ी है । वह प्रतिदिन औरत की पूजा करने लगा । इस तरह पूजा होने से औरत को कुछ घमंड आ गया । एक दिन दाल में नमक कुछ ज्यादा था सो आदमी ने उस अपनी औरत से कहा कि इसको खारी क्यों कर दी? तब स्त्री बोली कि एक दिन ज्यादा हो गया तो क्या करूं थोड़ा गर्म पानी डाल लो । आदमी को जोर की गुस्सा आ गई और उसने अपनी औरत को मार दिया, औरत रोने लगी । तब उसके मन में ध्यान आया कि अरे सबसे बड़ा तो मैं ही हूँ यह तो कथा ही है । कहने का तात्पर्य यह है कि आप दुनियां में चले जाय किंतु अंत में यही ध्यान आवेगा कि मैं ही बड़ा हूँ ज्यों-ज्यों आपका ज्ञान बढ़ेगा त्यों-त्यों यह ज्ञान पुष्ट होगा कि अपने लिये सबसे बड़ा तो मैं हूँ । आत्मा का ध्यान करोगे तब अपना ध्यान आवेगा । इसलिये हमेशा ऐसा ध्यान करो कि मैं ही स्वयं का जुम्मेवार हूँ, मेरी आत्मा निर्मल है, ध्रुव है, दुनिया में कोई मेरा नहीं है, ये तो सभी बाह्य पदार्थ क्षणिक हैं मेरा हित करने वाली यदि दुनियां में कोई है तो सिर्फ मेरी निर्मल आत्मा ही है । हमें एक बात स्मरण हो आई है । सुनो । 156. देहदृष्टि के त्याग में आत्म परिचय का अवकाश—हम रुड़की गये थे वहाँ शास्त्र मंदिर में नहीं होता था किंतु बाहर चौक में होता था, वहाँ की जैन समाज मय बाल बच्चों के जितनी संख्या में आती थीं उससे दुगने अजैन लोग आ जाते थे । हम वहॉ 10 दिन रहे, किंतु एक जैन व्यक्ति भी हमारे पास ऐसा नहीं आया जिसने हम से प्राइवेट समय ले करके कुछ समझने की चेष्टा की हो, किंतु अजैनों में से कई पुरुष महाशय आये । उन्होंने अपनी चर्चाएं बताई और आगे उत्थान के लिये सम्मति मांगी । वे लोग भी परिवार संपन्न थे, आजीविका करते थे फिर भी 3 घंटा 4 घंटा समय योगसाधन में लगाते थे । मन सब मनुष्यों में है जो इसका सदुपयोग करले वही मनस्वी है । एक दिन एक अजैन स्त्री मंदिर में आई और बोली कि हम तो बहुत दुखी है; क्योंकि हमने यह स्त्री पर्याय प्राप्त की है; सो हम न तो धर्म कर पाते हैं और न अपनी आत्मा का कल्याण ही कर पाते हैं यह मन में रहता है कि हम स्त्री हैं । तब हमने उसे समझाया व पूछा कि यह तो बताओ कि यह शरीर ही तुम हो क्या? उसने अपने अनुभव पर जोर देकर कहा कि नहीं, मैं जीव तो शरीर से न्यारा हूँ । तब बताया कि देखो जब तुम देह नहीं हो तो ज्ञान मात्र हो, सो उसका तो स्त्रीपुरुष व्यवहार है नहीं; फिर शरीर की विशेषताओं को अपनी क्यों मानते? समझाया कि आत्मा में अपनी प्रगति करो मानों कि मैं न तो स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ, मैं इस संसार का नहीं हूँ और न मेरा इससे संबंध हैं । जब तुम अपने में यह दृढ़ विश्वास कर लोगे कि मैं तो आत्मा चैतन्यस्वरूप हूँ तब आपको अपनी आत्मा का असली स्वरूप ज्ञात होगा और जब तक आप इनमें व देह में आत्म बुद्धि को नहीं छोड़ोगे तब तक आत्मा का कल्याण नहीं होगा । 157. अनेकांत बाद में वस्तु का पूर्ण परिचय:—यहाँ आत्मस्वरूप का वर्णन चल रहा है कि आत्मा गुणपर्याय वाला है । गुण तो है तिर्यक विशेष और पर्याय हैं ऊर्द्धता विशेष । गुण तो नित्य है और पर्यायें अनित्य हैं । आत्मा नित्यानित्यात्मक है । समस्त पदार्थ अनेकांतात्मक हैं उसके निरूपण का प्रकार स्याद्वाद है । देखो भैया, अनेकांत व स्याद्वाद के बिना तो कुछ भी व्यवहार नहीं बनता । सभी लोग स्याद्वाद से अपना व्यवहार चलाते हैं । कोई स्याद्वाद का खंडन भी करता रहे तो भी गुजारा नहीं, जीवन स्याद्वाद के बिना है नहीं । आत्मकल्याण करने के लिये अनेकांतमय निज स्वभाव का आश्रय लेना पड़ेगा, बिना अनेकांत दृष्टि के निज का यथार्थ निर्णय नहीं है और निज परिचय बिना आत्मा का कल्याण होना असंभव है । आत्मा में अनंत शक्तियां एक साथ पाई जाती हैं, वे सब तिर्यक् विशेष में चली जाती हैं, तथा परिणमन ऊर्ध्वता विशेष में चले जाते हैं । आत्मा एक रूप है और आत्मा नाना रूप है । आत्मा नित्य है, आत्मा अनित्य भी है । भैया ! बताओ ये तुम्हारे प्राण तुम से भिन्न हैं अथवा अभिन्न? यदि तुम कहो कि प्राण तो हमारे भिन्न हैं, तो कोई तुम्हें मारे पीटे कुछ करे, तुम मत बोलो, क्योंकि ये प्राण तो तुम से भिन्न हैं । प्राणों के आघात से तुम्हारा क्या बिगड़ सकता है, तुम तो प्राणों से भिन्न हो । और, अगर तुम कहो कि प्राण हम से अभिन्न हैं तो भी तुम्हें मारे पीटे सो भी तुम कुछ मत कहो, क्योंकि प्राण तुम्हारे अभिन्न हैं सो तुम अजरअमर हो, पीटने से उनका या तुम्हारा कुछ बिगड़ने का नहीं है । देखो भिन्न कहो तो मौत है, अभिन्न कहो तो मौत तो फिर है कैसा? कथंचित् प्राण अभिन्न है और कथंचित् भिन्न है । व्यवहार से अभिन्न है, निश्चय से भिन्न है और भी सभी बातें हैं वे स्याद्वाद, अनेकांत के बिना चल नहीं सकती। पुत्र पितादि के व्यवहार में स्याद्वाद का आश्रय न लो तो लट्ठ बाजी हो जावेगी। किसी को सभी का पिता कहते फिरो तो सब भाव समझ में आ जावेगा । इस कारण कि बिना अनेकांत का सहारा लिये कुछ भी नहीं किया जा सकता। आप मानो या न मानो जो अनेकांत का खंडन करता वह स्वयं अनेकांत रूप है, और जो खंडन नहीं करता सो उसमे पदार्थ जैसा है उसी रूप मान ही लिया है । कहने का अर्थ है कि आत्मा का कल्याण करना चाहते हों तो अनेकांत रूप से आत्मा को देखो, अपने स्वभाव को पहचानो यहाँ आत्मा को गुणपर्याय वाला कहा जा रहा है, यह स्वतःसिद्ध तत्त्व बताया जा रहा है । जो वस्तु में है वह वस्तु का धर्म है, उसे प्रतीति में लाने वाला धर्मात्मा होता है । वस्तु जैसी नहीं है वैसी बात वस्तु की कहना वह अधर्म है । उसी पर अपना निर्णय, हित समझना सो धर्म से दूर होना है । बंधुओ ! एक बार दृढ़ विचार बनाकर आत्मस्वभाव में रत हो जाओ सर्वसिद्धि इसी में है ! ! ! श्रीमत्परमपूज्य आचार्य कुंदकुंद स्वामीजी ने आत्मा का वर्णन करते हुये आत्मस्वभाव गर्भित जीव के स्वसमय एवं परसमय का वर्णन किया जिसकी टीका करते हुए पूज्य श्री सूरिजी समय नामक पदार्थ का सात विशेषणों से वर्णन कर रहे हैं । इनमें से चार विशेषणों का वर्णन तो हो चुका । याने पहिले तो बताया कि वह स्वरूप है, पुन: कहा कि ज्ञानदर्शनमय, फिर कहा कि वह साधारण गुण वाला है, फिर बताया कि वह अनंतधर्मा है, पश्चात् बताया कि वह गुणपर्याय वाला है । आज पांचवां विशेषण है कि— 158. आत्मा की एकानेक रूपता—आत्मा के संबंध में कुछ लोगों की इस बारे में निम्न प्रकार एकांत धारणायें है—(1) कोई कहते हैं कि आत्मा सर्वव्यापक एक रूप है (2) कोई कहते हैं कि आत्मासर्वव्यापक या अव्यापक अनेक रूप है (3) कोई कहते हैं कि आत्मा अनेक अणु-अणुमात्र एक-एक रूप है । (4) तो कोई कहते हैं आत्मा अनेक हैं और अनेकरूप हैं । किंतु ऋजु गति व समुद्घात दशा के अतिरिक्त सभी कालों में आत्मा देहप्रमाण है ओर वह स्वभासित्व की अपेक्षा एक रूप है और परभासित्व की अपेक्षा नानारूप, विश्वरूप है । भैया ! आप से कोई दर्पण के बारे में पूछे कि वह एक रूप है या नाना रूप है? अगर आप कहें कि दर्पण तो एक रूप है सो बनता नहीं, और अगर आप कहें कि वह तो नाना रूप है सो भी नहीं बनता तो फिर क्या है? दर्पण कथंचित् एक रूप है व कथंचित् अनेक रूप है । वह अपने स्वरूप से एक रूप है, किंतु पर द्रव्यों के प्रतिबिंब की अपेक्षा से वह नाना रूप भी है । दर्पण अपनी स्वच्छतामात्र है सो तो दर्पण एकरूप है और दर्पण में अनेक बालक और पुरुषों का प्रतिबिंब पड़ता है सो वह परद्रव्यापेक्षा से कथंचित् नाना है । इसी तरह हमारी आत्मा भी हमारे रूप से हमारे अंदर एक है, आपके अंदर आपके रूप से एक है किंतु परद्रव्यों के प्रतिभास होने से निज ज्ञेयाकार की अपेक्षा से आत्मा अनेक भी है । कोई कहता है यह आत्मा सब जगह में एक ही है सो कैसे? देखो भैया ! काल्पनिक तत्त्व तिल का ताड़ कल्पना में बना देते हैं पर मूल निर्देश तो कुछ होता ही है । परंतु खरगोश के सींग होने की बात नहीं छुप सकती । जो आत्मा को केवल एक ही मानते हैं उनकी भी कोई दृष्टि होगी या 2-1 दृष्टियों का मेल होगा । इस बात को सोच लीजिये । अच्छा तो चलें इसी बात का विचार करें । देखो, प्रत्येक वस्तु के जानने में चार चीजों का सहारा लेना पड़ता है । भैया ! द्रव्य क्षेत्र काल भाव का विशद परिज्ञान जरूर करना चाहिये इसके ज्ञान से वस्तु स्वरूप का विशाद बोध होता है । 159. द्रव्य-क्षेत्र, काल व भाव—द्रव्य कहते हैं—यहाँ कोई पिंडरूप पदार्थ सो वही द्रव्य है याने पिंडरूप जो है वही द्रव्य है तथा क्षेत्र—जितने निज स्थान में वह द्रव्य रहे जो कि आकार प्रकार रूप से अवगत होता है उतना स्थान उसका क्षेत्र है । वस्तु के परिणमन को काल कहते हैं, ज्ञान, दर्शन शक्ति आनंद आदिक जितने भी गुण हैं वे सब भाव कहलाते हैं । इन चारों के द्वारा पदार्थ जाना जाता है । इन चारों को किसी पदार्थ में घटाओ जैसे हम यह पुस्तक हाथ पर रखे हैं तो इसका यह सब जो पिंडरूप है वह द्रव्य है और जितने निज स्थान में यह पुस्तक रखी है याने इसका इतना आकार प्रकार इसका क्षेत्र है । और इसकी जो वर्तमान परिणति है सो काल है और रूप रस आदि इसके भाव हैं । 160. आत्मा द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव—अब इन्हीं चार बातों से अपनी आत्मा को देखो । आत्मा जैसा अपने को ज्ञात हुआ, पिंडरूप है सो वह द्रव्य है, और जितने प्रदेशों में आत्मा रहता है सो उतना स्थान आत्मा का क्षेत्र है । राग द्वेष, क्रोध, मान, माया आदिक यह सब आत्मा का काल है और आत्मा के भाव सहज दर्शन, सहजज्ञान, सहजसुख आदि आत्मा के भाव हैं । जब हम इन चारों से आत्मा को देखते हैं तो आत्मा स्वचतुष्टय से अस्ति है और परचतुष्टय से नास्ति है । द्रव्य, क्षेत्र, काल की दृष्टि से आत्मा को देखने पर विकल्प हटते, किंतु जब भावदृष्टि से आत्मा को देखते हैं तब सभी विकल्प हट सकते हैं । छहढाला में कविवर पं दौलतरामजी ने कहा है ‘जहं ध्यान ध्याता, ध्येय को न विकल्प वच भेद न जहां’ यानी जहाँ पर ध्यान अवस्था में न ध्यान का, न ध्याता का और न ध्येय का कोई भेद रहता है यह उत्तम ध्यान है । यह स्थिति कैसे आ जाती है? सो कहते हैं कि जब ज्ञान ज्ञान को जानने लगता है तब यह अभेद दृष्टि हो जाती है। उस समय पहिले तो ध्यान अवस्था में आत्मा विचार करता है कि मैं दर्शन ज्ञान रूप हूँ मुझमें दूसरा कोई भाव नहीं है, मैं ही साध्य हूँ और मैं ही साधक हूँ । पश्चात यह भी विकल्प न रहे वहाँ ज्ञान ज्ञाता व ज्ञान ज्ञेय हो जाता है । तो जब आप अपने चैतन्यस्वरूप को जानोगे तब वहाँ पर मात्र प्रतिभासस्वरूप है याने सब एक हैं । जैसे हम और आप कह देते हैं कि सिद्ध भगवान तो एक हैं । जिसे इस स्वरूप का परिचय हो जाता वह कृतार्थ है । कोई ज्ञानी आपत्ति या दुःख में फंस जाय तो वहाँ ऊपर से दुःख प्रकट होता है किंतु भीतर वह वेदना नहीं है । उदाहरण के लिये कोई लड़की अपनी ससुराल जाती है; वह जैसे प्रथम बार के जाने में रोती है उसी तरह 10 बार भी जाती है तो भी उसी तरह रोती है किंतु उस हय का रोना ऊपरी दिखावटी रहता है । उसके मन में तो हर्ष रहता है कि हम अपने घर जाते हैं । आप किसी मुनीम को लीजिये यदि सेठ साहब को 100000 एक लाख का घाटा होता है तो मुनीम साहब को कोई दुःख नहीं होता । हां यदि सेठ साहब का कारबार ही नष्ट हो जाता है तो मुनीम को अपने वेतन जो कि उसे प्राप्य था, उसके छूट जाने का दुःख अवश्य होता है । किंतु उस घाटे का दुःख नहीं मानता, क्योंकि मुनीम प्रकरण का स्वामी नहीं बना तो इसी तरह सम्यग्दृष्टि संसार में रहते हुये भी उससे मोह नहीं रखता है । 161. सम्यग्दृष्टि जीव के कार्य का अस्वामित्त्व—जब तक यह जीव अपने स्वरूप को नहीं समझता है, तब तक जितने भी यह बाह्य पदार्थ हैं उन्हीं को अपना माने रहता है, इसी को परसमय कहते हैं । इसी पर-समय की अपेक्षा भी नानारूप है । इस पर समयता को, राग, द्वेषादि को छोड़ो तभी सुख होगा, पर-समयता को छोड़ने के लिये योग्यता पाने को व्यवहार में मिथ्यात्व अन्याय अभक्ष्य ये तीनों छोड़ने होंगे । परसमय में रत यह जीव सोचता है कि यह घर मेरा है, बच्चे, स्त्री, धनादिक सब मेरे हैं । दूसरे यदि कहीं नेतागिरी या कोई और प्रतिस्पर्द्धा को कार्य मिल गये तो वहाँ शरीर की बात प्रधान तो नहीं रखता किंतु विकल्प का मोह करता है । मानता है कि मैं काम करने वाला हूँ, मैं दुनियां का बड़ा काम करता हूँ; मैं नेता हूँ । और कहीं थोड़ासा ज्ञान पैदा हो जाता है तो मैं ज्ञानी हूँ, मैं शिक्षक हूँ, और इसने मेरी बात नहीं मानी है इत्यादि शोक भी करता है । त्यागी व्रती होने पर मैं त्यागी, व्रती हूँ इस तरह के भाव पैदा होते रहते हैं ये सब ज्ञायक भाव के परिचय के अभाव में होते हैं । और जब उसे ज्ञायक स्वभाव का पता चल जाता है, तो वह सभी को छोड़ देता है और तब उसे असली बात समझ में आती है । ये सभी भाव उससे दूर हो जाते हैं, फिर उसके भाव में विकल्प नहीं रहते कि मैं अमुक हूँ, में त्यागी हूँ, मुनि हूँ आदि । उसकी प्रतीति चैतन्य भाव में होती है । अब सच्चा विश्राम लीजिये, हमें करना क्या है? हमें अपने स्वरूप को जान करके अपनी आत्मारूपी मकान में विश्राम पाने का प्रयत्न करना है । बिना उसके कल्याण नहीं हो सकता है इसलिये अपने स्वरूप को पहिचानो विश्राम स्वत: मिलेगा । स्वरूप से बाहर उपयोग भटक गया सो उसे बाह्य से हटाकर निज समता मंदिर में ले आवो उसको । कोई मनुष्य विलायत गया और जब वह वहाँ से लौटता है और कोई उससे पूछता है कि भाई तुम कहां जाओगे? तो वह कहता हैकि मैं तो भारतवर्ष जा रहा हूँ और जब उसका जहाज भारत की सीमा पर आ जाता है और फिर कोई उससे पूछे कि आप कहां जा रहे हो? तो वह कहता है कि मैं मध्यप्रदेश जा रहा हूँ और मध्यप्रदेश जैसे जबलपुर आदि सीमा पर आ जाता है और फिर पूछा जाय तो वह मध्यप्रदेश के किसी शहर का नाम बतावेगा जैसे सागर । और जब वह सागर स्टेशन पर उतर जाता है तो तांगे वाले से किसी बाजार का नाम लेता है और फिर मुहल्ला और फिर मुहल्ले में अमुक घर । जब वह निर्दिष्ट घर में पहुंचता है तो पाँच दस मिनट कुछ आराम करता है । इसी प्रकार देखो वह जीव अपने स्वरूप विश्राम भवन से निकलकर विज्ञान, विकल्प, संकल्प, मोह, पुण्य, पाप, शरीर, परिवार, मकान, धन, वैभव में भटक गया है । श्री सुगुरु की देशना धारण करे और परिचय करे अपने स्वभाव का तो यह वैभव से हटे, मकान से हटे और सजातीय परिग्रह परिवार से हटे । देखा तो भैया ! प्रकट पर दीख रहे हैं ये जड़ पदार्थ और मिश्र परिवार, फिर भी इनसे उपेक्षा भाव नहीं होता । इन प्रकट पर से हटकर ज्ञानी शरीर के प्रति सोचता है कि यह शरीर जड़ है, मैं चेतन हूँ । भिन्न-भिन्न सत्ता है दोनों की । अत: ज्ञानी शरीर में अहंबुद्धि नहीं करता । शरीर से हटा और पुण्य पाप में अटक गया कि पुण्य से हित है तो भैया ! यह मिथ्या श्रद्धान है सो पाप तो हो ही गया । 161 ब. विभाव की अटक सब अटकों की मूल—बाह्य अर्थ की अटक से भी विज्ञान के द्वारा निकलता तो मोह में उपयोग रमा लेता, संकल्प में कटिबद्ध हो जाता, राग द्वेष भावों में अटक जाता । इनसे भी हटता तो विज्ञान में अटक जाता है । स्वरूप परिचय होने पर इन सब अटकों से छूट परमानंद निधान निजज्ञायक स्वरूप में विश्राम करता है । यही सहज आनंद का अमोघ उपाय है । अभी प्राणी राग द्वेष रूपी विलायत में हैं इसलिये किसी सद्गुरु का उपदेश मिलेगा तभी इस विलायत से छुटकारा पाकर अपने आत्मारूपी घर में बैठने का उत्साह कर सकेगा, व तभी विश्राम प्राप्त कर सकेगा, तभी कल्याण होगा, अन्यथा कुछ भला होने का नहीं है । और आप भी विचार लो धन जुड़ गया तो आपकी आत्मा को क्या शांति मिल जावेगी? भैया ! शांतिमय तो आपका स्वभाव ही है, स्वभाव का अज्ञान मिटावो, अशांति तो रह नहीं सकती । जो चीज जैसी है उसे जैसी जान जाओ, बस इतना ही सुख के स्वलगाव के लिये रोजगार करना है । अन्य विकल्प रूप टोटे का रोजगार क्या करते हो? मैं ज्ञायक स्वरूप एक हूँ, ध्रुव हूँ इसी स्वरूप की दृष्टि केवल ज्ञान का कारण बनेगा । 162. प्रत्येक आत्मा का अन्य सबसे पार्थक्य—आत्मा का वर्णन करते हुये पूज्य सूरिजी कह रहे हैं कि आत्म अन्य सबसे न्यारा हैं । अभी तक आत्मा के पांच विशेषण हो चुके हैं । सबसे पहले बताया कि आत्मा है, और वह सद्रूप है । फिर कहा कि वह ज्ञान दर्शन भाव, असाधारण गुण वाला है । फिर बताया कि वह अनंतधर्मा है, उसमें अनंत धर्म हैं । फिर बताया कि वह गुण पर्याय वाला है । इसके बाद बताया कि वह आत्मा एक रूप है और नाना रूप है । आज छठवें विशेषण को बताते हुए कह रहे हैं कि वह आत्मा सबसे न्यारा है । कोई कहे किं न्यारे की पहिचान क्या है? द्रव्यों को न्यारा-न्यारा समझने के लिये जाति अपेक्षा से तो लक्षण पहिचान है, और व्यक्तिगत अपेक्षा से न्यारा-न्यारा समझने के लिये-2 मोटे उपाय हैं—1. अखंड का होना; 2. किसी के परिणमन से किसी अन्य का परिणमन न होना । जीव का लक्षण अलग है । पुद्गल का लक्षण अलग है धर्म, अधर्म आकाश, काल—ये अपने-2 लक्षण से सभी न्यारे हैं । जीव का लक्षण चेतना है पुद्गल का लक्षण है जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श ये चारों गुण पाये जावें । धर्मद्रव्य—जो जीव और पुद्गल को चलाने में सहकारी और अधर्म द्रव्य-जो जीव और पुद्गल को ठहरने में सहकारी हो । आकाश—जो जीव और पुद्गल द्रव्यों को अवकाश का कारण हो । और काल का लक्षण है कि जो जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में सहकारी हो सो काल द्रव्य है । ये छहों द्रव्य अपने-2 स्वरूप से तो हैं अन्य सबसे न्यारे-2 है । इसी तरह आत्मा अपने स्वरूप के कारण सबसे न्यारा है । इन लक्षणों में कुछ लक्षण स्वरूप दृष्टि से हैं, और कुछ लक्षण निमित्त दृष्टि से हैं । जीव और पुद्गल का लक्षण तो स्वरूप दृष्टि से है, और धर्म, अधर्म, आकाश व काल इन चार द्रव्यों का लक्षण निमित्त दृष्टि से हैं लक्षण भेद की पहिचान के लिये होता है । अत: निमित्त दृष्टि की प्रधानता से इन 4 अमूर्त द्रव्यों का लक्षण किया है तथापि यह न समझना कि इनका स्वयं कोई स्वरूप नहीं है । धर्म द्रव्य अमूर्त असंख्यात प्रदेशी एक द्रव्य है और इसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी । इनके प्रदेश विस्तृत हैं, और आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक ही उनके प्रदेश हैं । इस तरह जितने आकाश में यह धर्म द्रव्य है उतना ही अधर्म द्रव्य है । उतने आकाश का नाम लोकाकाश है । आकाश अनंतप्रदेशी अमूर्त एक द्रव्य है । काल द्रव्य एक-एक प्रदेशी असंख्यात हैं ये भी अमूर्त हैं । इन पांचों जड़ द्रव्यों से चैतन्यस्वरूप आत्मा भिन्न है । आत्मा सब अनंतानंत हैं, पुद्गल सब अनंतानंत हैं, धर्म पुद्गल एक है । अधर्म द्रव्य एक है । काल-द्रव्य असंख्यात हैं । प्रत्येक आत्मा व प्रत्येक अणु अखंड है । पति पत्नी एक नहीं हैं । क्योंकि उनके खंड हो जाते हैं अर्थात् वे पहिले से ही खंड रूप याने भिन्न सत्ता के हैं । एक आत्मा के दो भाग नहीं होते हैं; सो आप अपने अखंड आत्मा को ही निज समझो इसी की दृष्टि से हित पर्याय होगी । वस्तु स्वरूप के परिचय से अपने स्वरूप का परिचय भले प्रकार हो जाता है संसार में जितने भी द्रव्य हैं वे सभी परिणमते हैं और अपने रूप ही परिणमते हैं । द्रव्य कहते किसे हैं? जिसके टुकड़े-विभाग न होवे वही द्रव्य है । क्या यह पुस्तक द्रव्य है ? नहीं । क्योंकि इसके टुकड़े हो जावेंगे । पुद्गल में देखो, जितने भी ये स्कंध हैं इन सभी के टुकड़े हो जाते हैं, किंतु परमाणु के टुकड़े नहीं होते हैं । सो वह द्रव्य है । द्रव्य अपने में अपने रूप ही परिणमता है, क्योंकि स्वयं रूप परिणमने से ही स्वयं की अवस्था होती है । पररूप परिणमन से खुद की अवस्था नहीं होती है । 162 ब. प्रत्येक पदार्थ में खुद का ही भोग याने परिणमन—जगत के समस्त द्रव्यों की यही व्यवस्था है कि वह अपने द्वारा ही अपना भोग (परिणमन) करता है दूसरे के अनुसार भोग नहीं करता । जगत के अंदर अनंतानंत पदार्थ है, ये पररूप से नहीं परिणमते किंतु अन्य को निमित्त पाकर अपना विभाव का काम चलाता है । जैसे हम इस चौकी पर बैठे तो क्या चौकी ने हमें अपने ऊपर बैठने का निमंत्रण दिया था? नहीं । चौकी में ऐसी कोई कला नहीं है कि उसने हमें बिठाया हो किंतु, हम चौकी को निमित्त पाकर उस पर बैठ गये । अगर हम उस पर नहीं भी बैठते तो भी चौकी रखी रहती, और हम बैठ गये सो भी चौकी रखी है । हमारे बैठने में चौकी निमित्त मात्र है । आपको किसी के वचनों से क्रोध आया तो क्या उसके वचनों में क्रोध कराने की कला है? नहीं । किंतु उसके वचन आपके क्रोध के निमित्त मात्र हैं । निमित्त को प्राप्त कर क्रोध उत्पन्न हो गया । यदि उसके वचनों से ही क्रोध है तो प्रत्येक के लिये उसके वचनों से क्रोध पैदा होना चाहिये । सो भैया ! अपने को तो देखते नहीं, और पर की दृष्टि करके उसके अधीन खुद बन रहे । बस इसी पराधीन कल्पना का ही दुःख है । एक राजा था । वह जानवरों की भाषा पहिचानता था । एक दिन वह उस तरफ घूमने गया जहाँ कि उसके बैल घोड़े बंधे थे । घोड़े बैल से कह रहे थे कि बड़े बेवकूफ हो । बैल बोले—क्यों? घोड़े ने कहा कि इतना बोझा ढोते हो सो यह तुम सब अपनी बेवकूफी के कारण से । तब बैल बोले कि तुम कोई उपाय बताओ जिससे हमें यह बोझा न ढोना पड़े । घोड़े बोले—यह तो जरा सी बात है—जब राजा के नौकर तुम्हें गाड़ी में जोतने के लिये लेने आवें तो तुम पेट फुलाकर बीमारी का बहाना लेकर पड़े रहा करो । दूसरे दिन राजा के नौकर बैलों को लेने आये और बैलों ने बीमारी का बहाना करके अपना पेट फुला दिया । राजा के पास खबर भेजी कि महाराज बैल आज बीमार हैं । राजा ने कहा कि उनके पास जो घोड़े बंधे हैं उन्हें जोतो । नौकरों ने वैसा ही किया । जब तीस चालीस मन बोझा घोड़ों को लादना पड़ा तो उनकी अकल ठिकाने आई । वे सोचने लगे, हमने अकल बताई और यह आफत हमारे सिर आई । सो दूसरे दिन घोड़ों ने बैलों को समझाया कि देखो अब यह निश्चय हुवा है कि यदि बल कल के दिन बहाना करें तो उन्हें इतने कोड़े मारे जावें जिससे उनकी चाहे चमड़ी भी कुल जावे । यह भी बादशाह ने सुन लिया । उसे उनकी चालाकी पर बड़ी हंसी आई । रनवास में भी पहुँचकर उनकी चालाकी का ख्याल आते ही हंसी आ गई । रानी ने हंसी का कारण पूछा, पहिले तो टाला फिर रानी के आग्रह से बता दिया । तब रानी पशु भाषा सीखने को हट करने लगी । बादशाह बोला कि जिसने भाषा सिखाई उसका कहना था कि स्त्री को सिखावोगे तो तुम खुद मर जावोगे । रानी न मानी । उसने सातवें दिन सिखाना मंजूर कर लिया । अब राजा की मृत्यु जान सब पशु चिंतित हो गये, परंतु मुर्गी मुर्गा खेल रहे थे । कुत्ते ने कहा कि तुम बड़ी कृतघ्न हो, राजा तो मरने जा रहा और तुम्हें खेल सूझ रहा । तब मुर्गियां बोलीं कि हम राजा की मृत्यु पर नहीं हंस रहे हैं । वह तो बेवकूफी से मर रहा है । न पराधीन बने न बोली सिखाये और यदि हठ करे तो दो तमाचे लगाये, लो जान बची । राजा ने यह भी सुना और यही उपाय किया, बच गया । 163. अपनी बेवकूफी ही क्लेश—सो भैया ! ये संसारी जीव भी अपनी बेवकूफी से मर रहा है । ये परमाणुमात्र अपना नहीं है, किसी को अपना न मानें लो जान बच गई, सहज आनंद हो गया । पर को निज मानना तो दुःख ही है, क्योंकि पर तो पर के ही परिणमन से परिणमेगा । दुनिया में कोई भी चीज ऐसी नहीं है कि वह परिणमें नहीं । हां यह बात जरूर है कि वह आपको न दीखे, किंतु वह प्रतिसमय परिणमती रहती है और अपनी पर्यायों से नई पुरानी रूप होती रहती है । आप किसी के विचार से नहीं परिणमते, आप तो अपने विचार से अपने रूप परिणमते हो और कोई अन्य भी आपके विचार से नहीं परिणमता वह अपने विचार से परिणमता है । अब तुम उन परिणमनों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि करके दुःखी होते हो । स्वपरिचय से ही दुःख भागेगा । भैया देखो ! दुनियां में चारों ओर से यही आवाज आती है कि हम दुःखी हैं, सुखी कोई नहीं है । यह आत्मा अनंत सुख की खान है किंतु जीव उसे पाने में अब तक असफल है । 164. दुःख मिटाने का उपाय अपने ही निकट—दुःख मिटाने की जरासी तरकीब है । वह है सम्यग्ज्ञान । सम्यग्ज्ञान पैदा कर लो दुःख स्वत: नष्ट हो जावेंगे । धन से, परिवार से, ऊंचे-ऊंचे मकान हवेलियों से दुःख नहीं मिटेगा । देखा जाता है जो व्यक्ति जितना धनवान, ऐश्वर्यवान, इज्जत आबरू वाला बन जाता है, वह उतना ही मोह हो, तो दुःखी रहता है । एक मुहल्ले में एक सेठ और एक बढ़ई रहते थे । बढ़ई प्रतिदिन मजदूरी करता था और उसमें उसे जो कुछ मिलता था 1।।), 2) रुपये उससे अपना खर्च चलाया करता था, अच्छा भोजन करता था, शाक पूड़ी हलुआ । ऐ भैया ! मोहियों का तो यही भोजन है । सेठजी कुछ लोभी थे और बड़ी किफायत करते थे । एक दिन उनकी औरत बोली कि देखो अपने पास जो बढ़ई रहता है वह आप से कितना गरीब आदमी है प्रतिदिन कमाता और खर्च करता है, उसके यहाँ रोजाना हलुआ पूड़ी बनती हैं, और आपके पास इतना धन होते हुये भी इतनी कंजूसी । तब सेठ बोला किं तुम नहीं जानती, अभी वह 99 वें के चक्कर में नहीं पड़ा है । सेठानी बोली कसे? सो सेठ ने एक दिन 99) एक थैली में भरकर रात के समय बढ़ई के आंगन में फेक दी । सुबह जब बढ़ई उठा तो वह उस रुपये की थैली को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ बोला भगवान मुझ पर प्रसन्न हो गया है । तब उसने थैली को खोलकर रुपये गिने तो वे 99 निकले । तब बोला कि भगवान ने रुपये भेजे जरूर हैं लेकिन पूरे नहीं भेजे, और रुपयों को इकट्ठा कर बोला ठीक है 1) रुपया तो मैं मिला दूंगा और उस दिन उसने अपने रुपयों में से ।।) उनमें मिला दिये और दूसरे दिन ।।), जब इस तरह उसके पूरे सौ रुपये हो गये तब विचारने लगा कि इतने रुपये से क्या होता है कम से कम 1000) 2000) तो होना ही चाहिये इस भाव से अपना विशेष खर्च बंद किया और सादा भोजन करने लगा तब सेठानी फिर सेठ से बोली कि अब वह बढ़ई बहुत कम खर्च करता है क्या बात है? तब सेठ बोला कि अव वह 99 वें के चक्कर में पड़ गया है । 165. बाह्य संबंध सुख के निमित्त नहीं—कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य इन सांसारिक कार्यों में धनादिक में जितना भी आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों यह दु:खी होता जाता है । ये सांसारिक चीजें व इनके जितने भी संबंध हैं वे साथ देने वाले नहीं हैं । और तो क्या, यह आपका शरीर भी आपका साथ नहीं देता । शरीर कहते हैं उर्दू में चालक या बदमाश को । आप इस शरीर को कितना ही खिलावें पिलावें किंतु यह शरीर अंत में साथ नहीं देता है । इसलिये इन सब बाह्य वस्तुओं से संबंध हटाकर अपने एक स्वरूप पर दृष्टि दो तो सुख मिलेगा और अगर पर स्वरूप पर दृष्टि रखोगे तो दुःख होगा । दुःख के मूल कारण दो हैं । प्रथम तो खोटी संगति और दूसरा अज्ञान । मोही जीवों की संगति करने से हमेशा मोह भाव पैदा होंगे । में धन हो जाऊं, मेरे पास ऐश्वर्य वैभव बढ़ जाये, इस तरह ये भाव पैदा हुये कि लो यह मोह जीवन भर के लिये हो जाता है और दुःख लगी जाता है उसे । सत्संग से शुभ भावनायें पैदा होती हैं । सत्संगति सत्पुरुषों की संगति को कहते हैं, सत्पुरुष वह है जो धन वैभव को बुरा मानते हो और जिनके भाव आत्मकल्याण की ओर हों आत्मकल्याण की भावना जिसमें जागृत हो गई है, संसार से जिसकी रुचि हट गई है ऐसे पुरुषों का संग ऐसी सत्संगति से आत्मा का कल्याण होगा भगवान का भी यही उपदेश है कि तुम यदि अपना कल्याण चाहते हो तो अपनी आत्मा को देखो । मेरी भक्ति तब तक करो जब तक तुम्हें अपने स्वरूप का ध्यान नहीं हुआ है, विश्राम नहीं हुआ है; किंतु जब तुम्हें अपना ध्यान आ जावे, तुम अपने को समझ जाओ अपने में विश्राम पावो तब तुम मेरी भक्ति छोड़ दो । अपनी असली आत्मा का स्वरूप जान लेना, ज्ञात रहना ही अपनी चैतन्य अवस्था का शुद्धविकास है । इसलिये आत्मकल्याण के लिये राग द्वेषादि को छोड़कर आत्मस्वरूप का चिंतवन करो । 166. अपनी अज्ञानता ही दुःख का मूल—कर्म कषाय नहीं कराता किंतु कर्म तो वहॉ निमित्त माना है । कोई किसी को सुख नहीं देता और न कोई किसी को दु:ख देता है । जब तक मिथ्याज्ञान रहता है, तब तक दुःख रहता है । और जब सम्यक्त्व हो जाता है उस समय सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं । शुभचंद्र और भर्तृहरि ये दो भाई थे । सो एक दिन शुभचंद्र को वैराग्य हुआ सो उन्होंने अपने छोटे भाई भर्तृहरि को बुलाकर कहा कि यह संसार असार है, इसमें कुछ भी अपना नहीं, यह मनुष्य पर्याय बड़ी कठिनता से प्राप्त हुई है, और इसे पाकर भी यदि अपना कल्याण नहीं किया तो जीवन निष्फल जायगा, और आगे के लिये भी रास्ता दुर्गम बन जायगा । इसलिये इस राज्यभार को तुम सम्हालो, मैं तो अपना कल्याण करूंगा । तब भर्तृहरि बोले कि मैं भी अपना कल्याण करूंगा । ऐसा विचारकर शुभचंद्र तो दिगंबर जैन मुनि हो गये और इसके कुछ दिन बाद भर्तृहरि भी सन्यासी हो गये, भर्तृहरि को कुछ दिन बाद ही सिद्ध रस की सिद्धि हो गई । तव उन्होंने अपने शिष्यों को भेजकर अपने भाई के समाचार मंगवाये, शिष्यों ने आकर कहा कि आपके भाई बड़ी भारी मुसीबत में हैं, न तो उनके पास एक नौकर है और न शरीर पर कपड़े हैं, बिचारे बड़ी तकलीफ में हैं । तब भर्तृहरि ने शिष्यों के हाथ कुछ सिद्ध रस भेजा और कहला दिया कि आप कष्ट क्यों सहते हो । इस रस को लोहे पर डालो और सोना बना लो । शुभचंद्र मुनि ने वह सिद्ध रस नीचे गैर दिया । तब शिष्य वापिस आकर भर्तृहरि से बोले कि इनका तो दिमाग भी सही नहीं मालुम होता । तब भर्तृहरि गया और भाई को समझाया व सिद्ध रस भी सारा उनके आगे रख दिया । शुभचंद्र मुनि ने वह सिद्ध रस भी नीचे गैर दिया, भर्तृहरि बहुत दु:खी हुए । तब शुभचंद्र ने पगतले की धूल उठाकर एक महान शिला पर डाली तो वह शिला सुवर्णमय हो गई । भुर्तृहरि को तब आत्म चमत्कार की महत्ता विदित हुई । उस समय शुभचंद्र आचार्य ने भर्तृहरि को ज्ञान व वैराग्य का उपदेश दिया । 167. श्रेयस्करी तत्त्वदृष्टि पाने का यत्न—देखिये अपने आप में निहारो, मैं किस चीज से रचा हुआ हूँ, जो चीज होती है वह किसी रूप तो होती है, किसी तत्त्व से रची हुई तो होती है । उसमें कुछ रहता तो है, आप अपनी ही बात बतावो । किस तत्त्व से रचे गये हो । खोज करो भीतर, आपको बस ज्ञान मिलेगा, मैं ज्ञान से रचा गया हूँ । ज्ञान ही मैं हूँ और उस शुद्ध ज्ञान में जहाँ राग-द्वेष का कोई उपयोग ही नहीं जगता, आनंद ही आनंद भरा पडा है, आनंदमय हूँ, ऐसे ज्ञानानंदस्वरूप सिद्ध भगवान की तरह पावन होकर भी अपने आपकी सुध नहीं ले रहे कि इतनी बडी विपत्ति छा गई । जरा अपने इस आत्मदेव की ओर आकर कुछ विश्राम लें तो विदित होगा कि मुझ पर क्या संकट । क्यों व्यर्थ दुःखी हो रहा हूँ । यह ऐसा हो तो क्या, न हो तो क्या, मेरी बला से । मेरा अन्य में क्या संबंध? धन बढ़ता है तो बढ़े घटता है तो घटे, मुझे क्या परवाह? क्या संबंध । मैं तो ज्ञान स्वरूप हूँ । मेरा ज्ञान बिगड़ गया तो मैं बरबाद होऊंगा । मेरा ज्ञान सही रहेगा तो मैं शांत सुखी रहूँगा । मेरा सब कुछ मेरे ही ज्ञान पर अवलंबित है, अन्य बात पर नहीं । धनी भी हो तो कोई पुत्र और दिमाग उसका खराब है अपने आपकी भी कुछ सुध नहीं है, गिनती गिनना भी नहीं जानता तो बतलावो क्या वह सुखी है? उसका ज्ञान ही बिगड़ गया तो सुख का ठेका? जिसका ज्ञान शुद्ध है शुद्ध ज्ञान के कारण धीरता बढ़ी हुई है, विपत्ति के सहन करने की शक्ति पड़ी हुई है, गरीब भी हो, विपत्ति भी कोई डाले लेकिन ज्ञान काबू में होने से वह सुखी नजर आता है । तो अपने आपके शुद्ध स्वरूप में सत्यस्वरूप में जो कर्म के कारण नहीं, जो किसी पर के संबंध से नहीं किंतु मेरे ही अस्तित्व के कारण है, मेरा स्वभाव है ज्ञान प्रकाशमात्र, सहज ज्ञान, उसरूप अपने को माने तो इससे उस आत्मदेव के दर्शन होंगे, अनुभव न होगा, अद्भुत आनंद उत्पन्न होगा जिससे आप समझेंगे सारभूत सत्य बात, लो वह चीज मेरे में ही मिली । उसके लिए यत्न करना चाहिये । इसमें विवेक है बाहरी यत्नों में कोई सार नहीं है । 168. मूल आत्मपदार्थ की स्वसमय अवस्था—आत्मा को मूल में देखो तो वह एक ज्ञायकस्वभावरूप है किंतु अवस्थाओं को देखो तो वह आत्मा, (वह समय) कोई स्वसमय है और कोई परसमय है । जिसको विवेक ज्योति उत्पन्न हो गई है, भेदविज्ञान प्रकट हो गया है, सहज निज स्वरूप का और परभावों का भेद जिसने जान लिया है और अपने आत्मा में विशेष रुचि होने से परभावों का अपनाना छोड़ दिया है ऐसा भेदविज्ञान हुआ, ऐसी विवेक ज्योति हुई कि जिसके होने से केवल ज्ञान उत्पन्न हो सकेगा वह जीव परद्रव्य से हटकर अपने दर्शन ज्ञान चारित्र स्वभावरूप आत्मतत्त्व में लगता है, उसको समझिये स्वसमय जीव में ये तीन प्रकृतियां स्वभावत: पड़ी हुई हैं । किसी न किसी में विस्तृत रहना और कुछ न कुछ ज्ञान करना और कहीं न कहीं रमे रहना । जैसे मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव विश्वास किये हुये हैं इंद्रिय विषयों में देह में, इज्जत में, कंचन कामिनी कीर्ति में और उस ही संबंध का ज्ञान है, और उस ही में रम रहे हैं, जिसमें कहीं रम सकने की प्रकृति में फर्क आ जाय उसी को तो पागल कहते हैं । अज्ञानी मिथ्यादृष्टि भी, मनुष्य तब तक लोक दृष्टि में पागल नहीं है जब तक वह किसी न किसी में रमते रहने की आदत बनाते हैं, और जो सड़कों पर पागल फिरते हैं वे कहीं रम नहीं पाते, उनका चित्त कहीं लग नहीं पाता, यह पागलपन का लक्षण है । पागल हो गया इतने पर भी कहीं न कहीं रमने की आदत बनी हुई है । तो विश्वास करना, ज्ञान करना और कहीं रम जाना ये जीव के स्वभाव हैं । अज्ञानी जीव पर्याय में विश्वास किये हैं और पर्याय संबंधित ही परिचय बन रहा है, ज्ञान हो रहा है और उस ही भाव में रम रहे हैं । यों तो अज्ञानियों का श्रद्धान ज्ञान और चारित्र है । और ज्ञानी पुरुष आत्मद्रव्य का विश्वास करते हैं । मैं सहज ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, शरीर रूप नहीं, विषय कषायरूप नही, मैं विशुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी हूँ, ऐसा विश्वास बना है और इस ही का ज्ञान किया करते हैं । परिचय भी बना है और इस ही स्वरूप में रमण का यत्न रखते हैं । तो जिन पुरुषों ने भेदविज्ञान पाकर समस्त परद्रव्यों से अपना हटाव कर लिया है और दर्शन ज्ञानस्वभावात्मक चारित्र स्वभावात्मक आत्मतत्त्व में एकता से रह गये हैं वे स्वसमय हैं क्योंकि स्व अर्थात् दर्शनज्ञान चारित्र में वे स्थित हैं । अपने आपको ही एक रूप से जान रहे हैं । अनुभव कर रहे हैं ज्ञानी जीव योगी जीव अरहंत भगवान सिद्ध भगवान ये स्वसमय हैं । 169. मूल आत्मपदार्थ की परसमय अवस्था—परसमय वे हैं जो पुद्गल कर्म के प्रदेश में स्थित हैं । पौद्गलिक कर्म के उदय से जो भव प्राप्त हुआ है, जो पर्याय प्राप्त हुई हैं, जो परिणमन हुआ है उसमें ही तल्लीन हैं वे जीव परसमय हैं, क्योंकि में परद्रव्य के कारण से उत्पन्न हुये हैं, जो आत्मा में रागादिक भाव हैं उनके साथ उन्होंने एकता कर ली है उसमें जुट गए हैं, उपयोग उसी में लग गया है इस कारण ये जीव परसमय है । क्योंकि हुआ ऐसा अनादिकाल से अज्ञान लगा है जिससे मोह पुष्ट हो रहा है सो वे अपने स्वभाव से चिग गये हैं, दर्शन ज्ञान चारित्र रूप जो आत्मतत्त्व है उसमें उपयोग नहीं रहा और बाहर में पर्याय में उन्होंने उपयोग जोड़ दिया ऐसे जीव परसमय हैं । अज्ञान मोह और मिथ्यात्व ये तीन बातें साधारणरूप से एक ही हैं, पर सूक्ष्म दृष्टि से एक नहीं हैं । एक साथ है, अनादिकाल से है तिस पर भी । इसमें कुछ निरखा जाय, कार्यकारण भाव सा देखा जाय तो यों कह सकते हैं कि अज्ञान से हुआ मोह और मोह से हुआ मिथ्यात्व । जब शब्दों में अर्थ की दृष्टि से और उस अर्थ के कारण भाव में भी अंतर हुआ तो यों कहो इस जीव को अनादिकाल से अज्ञान लगा है इसे ज्ञान नहीं है, ज्ञान का ज्ञान नहीं है, वस्तु की स्वतंत्रता का ज्ञान नहीं है, जो ज्ञान इसके प्रकट है वह ज्ञान अज्ञान है, अनादिकाल से इस जीव को अज्ञान लगा है इससे मोह पुष्ट हो रहा है, मोह का अर्थ है बेहोशी, मुग्ध का हो जाना, अनध्यवसाय हो जाना कुछ निर्णय नहीं ठीक बन सकता । तो अज्ञान से यह हुआ मोह पुष्ट और जहाँ मोह हुआ अपने स्वरूप की बेहोशी हुई तब पदार्थों में संबंध मानना होगा । एक तत्त्व का, एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में संबंध मानना सो मिथ्यात्व है । तो यो अज्ञान मोह मिथ्यात्व के वशीभूत होकर यह जीव अपने स्वरूप से चिग गया है और रागादिकभावों में एकमेक रूप से लग रहा है सो उसकी व्यक्त दशा यह है कि जो भव पाया, जो पर्याय पाया बस उस पर्याय में स्थित हो गया । यह ही मैं हूँ इस प्रकार निर्णय रख लिया । ऐसा जीव परसमय कहलाता है। 169 ब. दृष्टव्य तत्त्व—ज्ञानी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि स्वसमय पर समय किन्हीं भी शब्दों में कह लो सब जीव आ जायें तो हैं ये दो भेद किंतु इस भेद पर दृष्टि नहीं गड़ाना है, उस मूल स्वभावपर दृष्टि ले जाना है जिस मूल पदार्थ के ये दो भेद बन गए उस मूल पदार्थ पर दृष्टि ले जाना महान पुरुषार्थ है, और यह खोंटी अवस्था न होकर सही अवस्था बन जाय इसका कारण भी यह है कि मूल पदार्थ पर दृष्टि जाय । मूल स्वरूप पर दृष्टि जायगी तो दर्शन ज्ञान चरित्र सही रूप से काम करेगा । क्योंकि जहाँ यह मूल स्वभाव जाना कि मैं सहज ज्ञानानंद स्वभावमय हूँ तब इसके पर से ममकार नहीं रहता अहंकार नहीं रहता, करने भोगने की बुद्धि नहीं रहती । ये अनर्थ चतुष्टय हैं अहंकार, ममकार कर्तृत्व बुद्धि भोक्तृत्व बुद्धि । ये अनर्थ चतुष्टय उसके समाप्त हो जाते हैं जिसको अपने मूल स्वभाव का परिचय होता है, और फिर ऐसा बढ़ता है अपने स्वभाव में कि उसके अनंत चतुष्टय पैदा हो जाता है । तो तकना है कहां दृष्टि देना है कहां कि ऐसी दो प्रकार की अवस्थायें होती हैं फिर भी दोनों अवस्थाओं में जो अनाद्यनंत एक स्वरूप रहता है उस पर दृष्टि देना है । यह है अध्यात्मयोग योगों में श्रेष्ठ योग यहीं है कि अपने आप में जो सहज स्वभाव है उस पर दृष्टि हो । 170. संकर में भी एकत्व का दर्शन—देखो जहाँ कोई दो चार चीजें इकट्ठी हैं वहाँ यह बात है कि नहीं कि प्रत्येक चीज का अपना स्वरूप अपने-अपने में है । जैसे कई तरह के डोरा रखे हों और उन सबको एक में भाँज दिया जाय तो एक मोटी सी रस्सी बन गयी, लिपट गयी, मगर प्रत्येक सूत का एकत्व उसका उसमें है कि नहीं? है । यह मोटा दृष्टांत है । जरा और कम मोटा दृष्टांत लें—दूध में पानी भी मिला दिया, शक्कर भी डाल दी, अब दूध, पानी, शक्कर तीनों मिल कर एक रस हो गये, पर तीनों का एकत्व उनके अपने-अपने उन उनके स्वरूप में है । अब और सूक्ष्म बात ले लो तो यह ले लो कि जीव के कर्म है, शरीर है, जीव है जीव में ज्ञान दर्शन है, राग-द्वेष है, पर सबका जो-जो स्वरूप है वह स्वरूप उसका उसमें ही है । तो जब कोई चीज है तो उसका निजी सत्त्व कुछ होता है कि नहीं ? जरूर होता है । तो जब मैं हूँ तो मेरा निजी सत्त्व सहज स्वभाव मेरा मुझ में है, वह कैसा है, उसकी परख कर लेने का नाम है अध्यात्म योग, संसार के सर्व संकटों से छूटने का परम पुरुषार्थ । 171. आत्मा की भलाई का साधक तत्त्वज्ञान—आत्मा के स्वरूप का वर्णन करने में अभी तक 6 विशेषण आ चुके हें । (1) सबसे पहले कहा कि आत्मा है और वह सत् रूप है । दुनियाँ में जितने भी पदार्थ हैं या वस्तुयें हैं उनमें तीन बातें होती हैं । वे तीन ये हैं—बने, बिगड़े और बनी रहे जिसमें ये तीनों हों वही वस्तु है । (2) इसके बाद कहा गया कि यह आत्मा ज्ञान दर्शनमय असाधारण गुण वाला है । (3) फिर बताया कि वह गुण पर्याय वाला है । (4) इसके बाद कहा कि वह आत्मा अनंतधर्मा है, उसमें अनंत शक्तियां हैं, तथा (5) इसके पश्चात् कहा कि वह आत्मा एक रूप है तथा नाना रूप है । और, फिर कहा कि (6) वह आत्मा अन्य सब द्रव्यों से भिन्न (न्यारा) लक्षण वाला है, अचेतन पदार्थों के स्वरूप का इसमें अभाव है । 172. स्याद्वाद का विशद बोध एक बड़ी सफलता—इस आत्मतत्त्व को समझने के लिये बड़े-2 ऋषि महर्षियों ने अपना दिमाग लगाया, उनमें कोई यहाँ तक पहुँचे हैं कि आत्मा सर्वव्यापक एक रूप है । तो किसी की पहुंच है कि आत्मा सर्वव्यापक अनेक रूप है । तथा किसी की पहुँच है कि आत्मा अनेक अणुअणुमात्र एक-एक रूप है । तो किसी की पहुंच है कि आत्मा अनेक हैं और अनेक रूप हैं । किंतु जैनाचार्यों का मत है एवं युक्ति आगम और अनुभव से पूर्ण उनकी खोज है कि आत्मा स्वभासित्व की अपेक्षा एक रूप है और पराभासित्व की अपेक्षा नानारूप है विश्वरूप है । इसमें किन्हीं भी अन्य ऋषियों की मान्यताओं का विरोध नहीं, बल्कि स्पष्टीकरण हो जाता है । दुनियाँ में जाति की अपेक्षा 6 द्रव्य हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । ये अपने-अपने लक्षणों से ही सत् हैं शेष सबसे न्यारे-न्यारे हैं । जीव का लक्षण चेतना है । पुद्गल का लक्षण है जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श हों । धर्म—जो पुद्गल और जीव को चलने में सहकारी हो । अधर्म द्रव्य उसे कहते हैं जो जीवादिक द्रव्यों को ठहरने में सहायक हो । आकाशद्रव्य जो जीवादिक द्रव्यों के अवगाह का कारण हो । और काल द्रव्य वह है जो कि जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में सहकारी हों । इस तरह ये छहों द्रव्य अपने-2 स्वरूप से न्यारे-न्यारे हैं । छह द्रव्यों में से पाँच जड़ द्रव्य हैं उन द्रव्यों से चैतन्य स्वभाव आत्मा भिन्न है । जीव द्रव्य को छोड़कर बाकी के सभी द्रव्य अचेतन हैं, उनमें ज्ञान नहीं है । जैसे रिकार्ड बजता है, और उससे कहा जाय कि जो तुमने अभी कहा वही फिर से कहो तो वह नहीं कह सकता है, उससे प्रश्न किया जाय तो वह उत्तर नहीं दे सकता । द्रव्य अनंतानंत हैं, जीव अनंतानंत हैं पुद्गल अनंतानंत है, धर्म द्रव्य एक है अधर्म भी एक है; आकाश द्रव्य एक है और काल द्रव्य असंख्यात हैं । द्रव्य का मोटा लक्षण है कि जिसका दूसरा टुकड़ा न हो सके वही द्रव्य है । ये जो स्कंध हैं ये द्रव्य नहीं हैं, इनमें एक-एक अणुरूप जो है सो द्रव्य है । परमाणु के टुकड़े नहीं होते हैं इसलिये वह द्रव्य है । स्कंधों के तो विभाग हो जाते हैं । इसकी दूसरी पहिचान है कि एक के परिणमन से दूसरा न परिणमें, सो वह द्रव्य अपने में अनेकरूप ही परिणमता है क्योंकि स्वयं रूप परिणमने से ही स्वयं की अवस्था होती है । इस तरह से अब आत्मा का यह सातवां विशेषण चल रहा है कि अनंत द्रव्यों के बीच रहकर भी स्वरूप से च्युत न होने के कारण टंकोत्कीर्णवत अचल स्व समागत चैतन्यस्वभावमय जीव है । 173. स्वसमय व परसमय में समय—समय का लक्षण बताने के लिये परम कृपालु भगवान श्री कुंदकुंद स्वामी कह रहे हैं कि भले। जीव का नाम स्वसमय है, और बुरे जीव का नाम परसमय है । यानी रागद्वेषों से रहित दर्शनज्ञानचारित्ररूप स्वभाव में जो स्थित है सो तो स्वसमय है और जो राग-द्वेष में रत है—यह मेरा है कुटुंब मेरा है इस प्रकार पर के एकत्व की मान्यता वाला है, इसे कहते हैं परसमय । और, इन सब अवस्थाओं में रहने वाला जो एक सत् है वह है समय । भैया ! इस जीव ने दुनियां में अनेक बार बहुत वैभव पाये, किंतु आप यह बतावो कि अभी आपके पास उनमें से क्या है? याने आपके पास पहले के वैभव में से कुछ भी नहीं है । इसी तरह अभी सोचो कि जो हमारे पास वर्तमान में है क्या वह हमारे पास रहेगा? नहीं । हां परवस्तुओं में से कुछ रहेगा भी आपके पास तो पुण्य और पाप ही रहेंगे जो आपने अभी तक बांधे हैं; इनके अलावा कुछ भी आपके पास रहने का नहीं फिर भी तुम अपने स्वरूप से नहीं चिगते । दुनियाँ में एक स्थान भी ऐसा नहीं है जहाँ कि एक द्रव्य का भी अभाव हो किंतु प्रत्येक जगह प्रत्येक स्थान पर 6 ही द्रव्य हैं । हमारे शरीर में भी छहों द्रव्य हैं, और वे द्रव्य अनंतानंत हैं, फिर हमारे शरीर में अनंत निगोदिया जीव है और उनसे अनंतगुणें आहार वर्गणा के पुद्गल परमाणु हैं फिर उनसे अनंत गुणे तैजस और उनसे अनंत गुणे कार्मण शरीर के परमाणु हैं । कोई कहे कि तुम इतने द्रव्यों के बीच में रहकर अपने स्वरूप में ही हो, सो यह तो द्रव्यों की बहुत बड़ी कृपा है कि वे सब अपने रूप ही परिणमते हैं पर स्वरूप नहीं । और यह भी कृपा देखो कि समय सब अवस्थाओं रूप भी किसी अवस्था रूप ही नहीं हो जाता । देखो भैया ! परम कृपालु भगवान पूज्य आचार्य कुंदकुंद महाराज बार-बार निजस्वरूप की बात बता रहे हैं, किंतु फिर भी हम आप लोग उस पर ध्यान नहीं देते हैं, इतना मनावना तो हित की बात के लिये बालक भी नहीं करता है । भैया, अपना अभिन्न वैभव देखो; इन राग द्वेष मोहादिक को छोड़कर, जो यथार्थ सुख का मार्ग है उसे अपनाओ । ये बाह्य पदार्थ तो जितने भी ये दीख रहे हैं कोई भी तुम्हारे नहीं हैं; इन्हें तो तुम पिछले कई भवों में प्राप्त कर चुके हो । इसलिये इन्हें छोड़कर अब निज स्वरूप को अपनाओ । 174. जीव की अनादि मोहत्तता—इस जीव ने सब कुछ जाना, बहुत-बहुत जाना, यत्र तत्र घूमा, लेकिन इस अपने सहज स्वरूप को नहीं समझा, उसका प्रमाण यह है कि अब तक रुलता आया है । जैसे कोई शराबी किसी शराब की दुकान पर जाये और कहे कि मुझे शराब देना भाई । हां-हां बहुत बढ़िया शराब देंगे । अजी पहिले नंबर की अच्छी शराब देना । हां हाँ बहुत अच्छी शराब देंगे । और यदि तुम्हें विश्वास न हो तो देख लो ये तुम्हारे बाबा चाचा वगैरह उस अच्छी शराब को पीकर पड़े हैं जिनके मुख पर कुत्ते भी मूत रहे हैं । इनको देखकर विश्वास करो कि हमारी दूकान पर बहुत अच्छी शराब मिलती है । तो हमारे यहाँ अच्छी शराब मिलती है इसका प्रमाण है ये बेहोश पड़े हुये लोग, यों ही अभी तक इस जीव ने अपने सहज स्वरूप को नहीं समझा, परभावों को ही आत्मा समझा, पर में ही लगे रहे, इसका प्रमाण क्या है? इसका मोटा प्रमाण यही हैं कि अब तक जन्म मरण धारण करते रहे, और कम मोटा प्रमाण यह है कि निरंतर बेचैनी रही, विह्वलता रही । 175 थोड़ी सी भी असावधानी का दुष्फल—भैया ! समय की गलती में 70 कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण समार में भ्रमण कराने वाले कर्मों का बंध यह जीव कर लेता है, किंतु आप यह न सोचने लगें कि फिर तो हम न जाने कितनी गलतियां कर चुके हैं तो हम संसार से कभी भी नहीं निकल सकते सो बात नहीं है । तत्त्वज्ञान और वैराग्य में वह सामर्थ्य है कि तद्रूप उत्कृष्ट ध्यान हो तो अंतर्मुहूर्त में ही जन्मजन्मार्जित कर्म नष्ट हो सकते हैं । निरुपाधि होना व स्वभाव परिणत होना स्वयं के अधीन ही है । दु:खी तो व्यथा के भ्रम से ही थे । हैं तो सर्व पदार्थ स्वतंत्र किंतु भ्रम यह कर रखा था कि मैं उनका स्वामी हूँ । यह भ्रम तत्त्वज्ञान से ही मिटता है । जैसे कोई रस्सी में सांप का भ्रम करे तो भयभीत होता ।जब जाना कि यह तो रस्सी है इस यथार्थ ज्ञान के साथ श्रम भी समाप्त हो जाता है । 176. दु:ख से छूटने के लिये आवश्यक कर्त्तव्य—दुःख से छूटने के लिये सबसे सुगम एक ही उपाय है—ज्ञान । बिना ज्ञान के ही जीव दुःख पाता है, जैसे ऊपर से उदाहरण में रस्सी का ज्ञान नहीं था सो वहाँ दुःख था और जब ज्ञान हो गया कि वह तो रस्सी है सो उसी समय सारे दुःख दूर हो गये । आत्मा अनंतशक्ति का भंडार है आत्मा का वैभव ज्ञान है । अनंत शक्ति रूप होकर भी यह आत्मा अखंड रूप है, इसके खंड नहीं होते । एक आत्मा के दो भाग नहीं होते । जैसे किसी को एक मूर्ति बनवाना है, सो उसने एक कारीगर को बुलवाकर एक मूर्ति बताकर कहा कि हमें इस पत्थर में ऐसी मूर्ति बनवाना है सो वह कारीगर उस मूर्ति को उसी पत्थर में देख लेता है वह मूर्ति याने जिन अवयवों में मूर्ति प्रकट होगी उन अवयवों का समुदाय उस पत्थर में शुरू से हीं स्थित है । कारीगर तो उस मूर्ति के जो आवरण हैं उन्हें हटाकर उसकी सफाई कर देता है इसी तरह से हमें सिद्ध बनना है, सो सिद्ध बनने की शक्ति हममें शुरू से है जिस स्वभाव के व्यक्त होकर सिद्ध कहलाना है, वह अभी भी है; किंतु हमारी आत्मा के ऊपर अभी विभावरूप कर्मों का आवरण पड़ा हुआ हैं सो हमें उसे हटाना पड़ेगा सिद्ध प्रभु और हमारी आत्मा एकसी है किंतु अंतर इतना हैं कि उनकी आत्मा से भाव कर्मों का आवरण हट चुका है सो उनकी आत्मा निर्मल हो गई है और हमारी आत्मा मलिन है! इसलिये आत्मा के आवरणों को हटाना पड़ेगा । जब हट जायेंगे और सच्ची निर्मलता प्राप्त हो जावेगी तब इसी स्वभाव की वह सिद्ध पर्याय कहलाने लगेगी । यह आत्मा अचल रूप है इसमें सिद्धत्व भाव शुरू से ही स्वभाव में विद्यमान है । जिस तरह कि पत्थर में मूर्ति । वह आत्मा जिसे आगे सिद्ध बनना है वह यहाँ पर परिपूर्ण रूप से मौजूद है, वही ज्ञान वही शक्तियां यहाँ मौजूद हैं किंतु हमें उनका ज्ञान करना है । हमें अपना स्वरूप जानना होगा कि मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, और सबसे भिन्न हूँ । 177. एकत्व के अनुभव की आवश्यकता—भैया आप विचार करो कि हम वास्तव में क्या हैं हमारा असली स्वरूप क्या है? और आप क्या होना चाहते हो? क्या ये सांसारिक पदार्थ मेरे हैं? नहीं । मैं तो अपने स्वरूपमय हूँ अन्यरूप मेरा नहीं है मैं तो वह हूँ जो ध्रुव एक स्वरूप होऊं । आजकल देखा जाता है कि कोई पुरुष धनी होता है तो वह हमेशा उसी रूप में रहना चाहता है हमेशा एकसा रहना चाहता है । आप किसी से कहो कि हम तुझे सात दिन के लिये राजा बनाये देते हैं, और इसके बाद तुझे बिना कुछ दिये जंगल में भगा देंगे तो वह पुरुष इस बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा इसके बदले वह थोड़ी सी दुकान पसंद करेगा जो कि उसके पास हमेशा रहे । तो जब आप ध्रुव रहना पसंद करते हैं ध्रुव की ओर ही रहो, क्यों अध्रुव की ओर जाते हो अध्रुव को ध्रुव मानने का कष्ट क्यों करते हो । आप अध्रुव की ओर मत जाओ, किंतु आप में जो चैतन्य और ज्ञान ध्रुव हैं उन्हें ही अपना मान लो, उन्हें ही ध्रुव मान लो तो कल्याण हो जावेगा । 178अ. अपने की प्रसन्न करने का समय—भैया ! आपका यह दर्शनज्ञानसामान्यात्मक आत्मा सनातन है, अनादि-मुक्त है, जिसे कारणसमयसार भी कहते हैं । इसके आलंबन से निर्मल पर्याय प्रकट होकर कार्य समयसार बनता है । प्रत्येक आत्मा खुद का प्रभु है, इसलिये हमें अपने निज के प्रभु की उपासना करनी चाहिये और उसे प्रसन्न करना चाहिये । प्रसन्नता का अर्थ यहाँ निर्मलता से है सो जब आपकी आत्मा, आपका निज प्रभु प्रसन्न होवेगा तो आप भी प्रभु बन जावेंगे । इसके अतिरिक्त धर्म अन्य कुछ नहीं है, विकल्पों से हटकर निर्विकल्प रूप बन जाना इसी में सच्चा धर्म है । हमें चाहिये कि हमारा जितना भी समय बीते वह स्वानुभव में बीते । 178ब. गृहस्थावस्था में भी हित की शक्यता—गृहस्थ धर्म भी इसीलिये हैं कि उसमें लोग यथाशक्ति स्वानुभव कर सकें । गृहस्थावस्था में स्थिरता से तो स्वानुभव नहीं हो सकता, स्थिरता से स्वानुभव तो मुनि मार्ग में ही होता है । किंतु फिर भी कभी-कभी स्वानुभव गृहस्थावस्था में भी प्राप्त कर सकें इसीलिये यह गृहस्थ पद्धति है । जीव का हित सब विकल्पों से दूर होकर निर्विकल्प समाधि में स्थित होने में है । इसके अर्थ बाह्य में प्रथम यह आवश्यक हो जाता है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह के जो बाह्य निमित्त हैं ऐसे गृह, धन, परिवार आदि परिग्रहों का परित्याग करे, किंतु ज्ञान हो जाने पर भी कषायांश इतने न गल सके हों तो उनकी जो पद्धति बनती है वही तो गृहस्थ धर्म है । गृहस्थी में बिना रसोई बनाये कोई निभा तो नहीं सकता, और उसमें स्थावर जीव का बचाव कठिन है सो गृहस्थ के त्रसहिंसा का तो त्याग बनता है किंतु स्थावर हिंसा का त्याग नहीं हो सकता । इसी तरह सबमें अणुव्रत रहता है । गृहस्थों में यह विवाह पद्धति चली है वह इसलिये कि मन वचन एक स्थान पर रहें, ब्रह्मचर्य की सीमा रहे बिना शादी किये यह मन कितने स्थानों में जाता है, वहाँ पर ब्रह्मचर्य की सीमा टूट जाती है । यदि कोई स्वस्त्री में भी आसक्ति रखे तो वह भी विवाह के उद्देश्य से विरुद्ध जाता है । गृहस्थी एक गलती है किंतु स्वछंद प्रवृत्तिरूप बड़ी गलती से बचने के लिये यह भार अंगीकार किया जाता है । इसका जो ध्यान रखे वह सद्गृहस्थ है । परिग्रह का परिमाण भी इसलिये किया जाता है कि बहुपरिग्रही को देखकर लालच न हो और तृष्णा का प्रसार न हो । इन सब व्रतों में यही बात आई कि विकल्पों की वृद्धि न हो । इससे होता क्या है कि स्वानुभव के अवसर प्राप्त हो सकते हैं । मनुष्य इसीलिये हुए न समझना कि इंद्रियज मौज उड़ा लो । यह सुंदर अवसर है सदा को दुःख से छूट लेने की तैयारी करना है । इसलिये आप लोगों को अपना मन स्वानुभव की ओर ले जाना चाहिये । 179. यथार्थ अद्वैतबुद्धि की शरण्यता—सिद्धि अद्वैतबुद्धि को कहते हैं व द्वैतबुद्धि को असिद्धि कहते हैं । अद्वैतबुद्धि दो तरह की होती है । 1. प्रत्येक अद्वैतबुद्धि, 2. स्वअद्वैतबुद्धि—अनंतानंत जीव, अनंतानंत पुद्गल, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य, इन सबका उन खुद के अपने स्वरूप से परिणमन मानना ही प्रत्येक अद्वैतबुद्धि है । और स्वअद्वैतबुद्धि उसे कहते हैं कि अपनी आत्मा में गुण पर्याय की कल्पनाओं से रहित ज्ञायक स्वभाव का अपने में ज्ञान करना सो, स्वअद्वैतबुद्धि है । प्रत्येक अद्वैतबुद्धि हो तो स्वअद्वैतबुद्धि हो सकती है । प्रत्येक अद्वैतबुद्धि तो उद्यम से होती है और स्वअद्वैतबुद्धि सहज होती है । भैया ! स्वभावदर्शन के लिये अपने ये क्षण समझो । अपना एक लक्ष्य बनाओ कि हमें तो सिद्ध बनना है, फिर अपने लक्ष्य से न डिगो । अब पांच विशेषणों के परिचय से अपने लक्ष्य के दर्शन करो । (1) यह आत्मा सद्रूप है क्योंकि यह परिणात्मक है । (2) यह आत्मा ज्ञानदर्शनात्मक है । क्योंकि यह चैतन्य स्वरूप है (3) यह आत्मा एक पदार्थ है क्योंकि यह अनंतधर्मात्मक है । (4) यह आत्मा गुण पर्याय वाला है, क्योंकि इसमें क्रमभावी व सहभावी तत्त्व पाये जाते हैं । (5) यह आत्मा एक अनेक स्वरूप है क्योंकि यह स्व व पर को अवभास करने में समर्थ है । उक्त 5 बातों में से दूसरी बात से जीवातिरिक्त समस्त पदार्थों से विभाग हो जाता है आत्मा का (जीव का) । शेष चार बातें अन्य भी समस्त पदार्थों में पाई जाती हैं । शेष चार बातों में से भी 5 वीं बात विवक्षावश सिद्ध होती है क्योंकि पदार्थ तो परमशुद्ध निश्चय से न एक स्वरूप है और न अनेक स्वरूप है । पदार्थ का परिचय पाने के लिये अभेद व भेद का विवरण किया जाता है । पदार्थ अभेद दृष्टि से एक स्वरूप है और भेद दृष्टि से अनेक स्वरूप है । स्वभाव दृष्टि से तो पदार्थ एक रूप है और गुण पर्यायों की दृष्टि से पदार्थ से अनेक रूप हैं । 180. प्रासंगिक पंच विशेषणों की सार्थता—(1) जो परिणामात्मक नहीं वह सद्रूप नहीं अथवा जो सद्रूप नहीं वह परिणामात्मक नहीं । (2) जो चैतन्यस्वरूप नहीं वह ज्ञान दर्शनात्मक नहीं अथवा जो ज्ञानदर्शनात्मक नहीं वह चैतन्यस्वरूप नहीं । (3) जो अनंतधर्मात्मक नहीं वह पदार्थ नहीं अथवा जो पदार्थ ही नहीं है वह अनंतधर्मात्मक नहीं (4) जो क्रमभावी सहभावी भाव युक्त नहीं वह गुणपर्याय वाला नहीं अथवा जो गुण पर्याय वाला नहीं उसके क्रमभावी सहभावी भाव नहीं । (5) जो स्वपरावभासक या भेदाभेदात्मक नहीं वह एकानेकस्वरूप नहीं अथवा जो एकांतकस्वरूप नहीं वह स्वपरावभासक या भेदाभेदात्मक नहीं । इस प्रकार इनमें परस्पर हेतुहेतुमद्भाव बन जाता है तथापि परिचाय परिचय की दृष्टि से जो पहिले 5 बात कह आये हैं उनमें हेतुरूप से दी हुई बात तो परिचायक है और साध्य परिचेय है जैसे आत्मा सद्रूप हैं क्योंकि परिणामात्मक है । इससे परिणामात्मकता तो परिचायक है और सद्रूपता परिचेय है । इसी तरह सबमें घटा लेना । यह आत्मा अनादि अविद्या से मोहवश होकर अपने असाधारण चित्स्वभाव से च्युत होकर परद्रव्यविषयक राग-द्वेष स्नेह भावों में एकतारूप से प्राप्त होता है सो औपाधिक परभावों में रत होने से परसमय कहलाता है । जब ही यह आत्मा विवेक ज्योति के द्वारा समस्त परद्रव्य व परभाव से च्युत होकर निज चैतन्यस्वरूप ने एकता को प्राप्त होता है तब यह स्वसमय है । स्वसमय आत्मा अपने आपको ही जानता है, प्राप्त होता है, परिणमता है, अनुभवता है । ये दोनों समय की अवस्थायें हैं जो इन दोनों अवस्थाओं में वही एक है, वही समय है । 180ब. आत्मा के कालकृत भेद—अब यहाँ पर आत्मा की परिणतियां बता रहे हैं । आत्मा की परिणतियां दो होती है—1. अच्छी परिणति 2. बुरी परिणति । अच्छी परिणति का नाम स्वसमय है, और बुरी परिणति का नाम परसमय है । यद्यपि जीव की अवस्था पहिले परसमय ही होती है, किंतु यहाँ पर पहले स्वसमय को कहते हैं क्योंकि परसमय से स्वसमय पूज्य है, और शांति की पूर्व अवस्था भी स्वसमय है । परद्रव्यों से छूटकर दर्शन ज्ञान चरित्र से स्व स्वभाव की एकत्वरूप से जाने सो स्वसमय है । और परस्वभाव, राग-द्वेष मोहरूप होकर एकत्व बुद्धि से परवस्तुओं को अपना माने सो परसमय है । मिथ्यात्व के उदय से यह जीव परवस्तुओं में एकत्व बुद्धि लगाये हैं । यह लड़का मेरा है, सोना, चांदी, धन, मकान, ऐश्वर्य, ये सब मेरे हैं । इस तरह की कल्पनायें किया करता है, दुनियाँ में ऐसे लोग अधिक हैं । मिथ्यादृष्टि जीव तो सुभट बन रहा है । घर उससे भाग रहा है, धन भाग रहा है किंतु वह मोहबुद्धि से उनमें एकत्व रहना चाहता है । भैया, अपने एकत्व की खबर नहीं है सो ऊधम मचाते, झगड़ा करते रहते हैं लोग । आप स्त्रियों को देख लीजिये, इन लोगों को कमाना तो नहीं पड़ता । इनके पुण्य प्रताप से इनके नौकर कमाने को लोग है । आप लोग जो कि दिन भर कमाते हो और मानते हो कि मैं कमाकर इनका पालन करता हूँ सो नहीं है । आप उनके नौकर हो क्योंकि उनके पुण्योदय के निमित्त से आपको कमाना पड़ता है । हां, तो उन्हें कमाना नहीं पड़ता है फिर भी दिन रात घरों में लड़ाई झगड़ा होते हैं । किसी के यहाँ लड़ाई होती है गहनों के ऊपर, किसी के यहाँ होता है काम के ऊपर । मतलब कि वहाँ गहनों से एकत्व मान लिया है । किसी के यहाँ काम पर लड़ाई होती है, तो उसने काम में, देह में, एकत्व मान लिया । किसी के यहाँ बात में लड़ाई होती है, उसने मेरा कहना नहीं माना है, सो क्यों? क्योंकि उसने बात में एकत्व मान लिया है । गहने कपड़े आदि में एकत्व मानने का यह सब फल है । कोई-कोई निंदा, प्रशंसा में भी एकत्व मानते हैं । इन्हीं एकत्व भावनाओं के कारण लड़ाई झगड़ा होते हैं, दु:ख होता है । 181. सांची सांची मान तो लो—भैया ! अगर सुख चाहते हो तो इन बाह्य पदार्थों से एकत्व की मान्यता हटाओ । जो अपने हैं नहीं उनमें क्यों तुम अपना भाव, अहंबुद्धि लगाये हो । सुख तो अपनी आत्मा में एकत्व आने पर ही होगा । परपदार्थों में एकत्व बुद्धि रहने पर त्रिकाल में भी सुख नहीं मिल सकता यह बात निश्चय से जानो प्रत्येक पदार्थ अपने में स्वतंत्र है जो जैसा है तैसा देखते जाओ । जैसे पूर्व की मंजिल पर जाने वाला व्यक्ति, पश्चिम की ओर बढ़ रहा है तो वह कभी भी पूर्व की मंजिल को नहीं पा सकता है । इसी तरह मिथ्यादृष्टि जीव जब तक परपदार्थ से अपनी मोहबुद्धि को नहीं हटावेगा, तब तक ये विचार उसके हृदय में पैदा होंगे कि दुनियां में मेरे सिवाय मेरा कोई नहीं हैं, मैं तो चैतन्यमात्र हूँ, ध्रुव हूँ, तभी उसे सच्चा सुख और आनंद मिलेगा । मोह एक वह अजान है जहाँ अपनी गलती का गलतीरूप से ख्याल ही नहीं हो पाता । दु:ख को सुख समझ कर भोगते जाना इसी पट्टे की दम का जहूरा है । फल यह होता है—दुःख भोगने की परंपरा बढ़ती चली जाती है । पर उस पर के ही अधीन है तब पर की द्दष्टि में वह फिर उपयोग कैसे हो सकता है जहाँ कि शांति का वास ही रहता है । 182. स्व की स्वकीयता में ही सुख—अपने को जानो अपने को देखो जब कभी भी आपको समय मिले उस समय अपना ध्यान करो कि मैं क्या हूँ । हां अगर कोई कहे कि हम भी तो गृहस्थ है क्या करें? न घबरावो, गृहस्थ अवस्था में भी स्वावभासन करना चाहिये । आप सांसारिक कार्यों में चौबीस घंटे जुटे रहते हो किंतु हमें बताओ कि आप अपने स्वयं के कार्य को कितना टाइम देते हैं । स्वयं का काम तो इतना है कि मैं चैतन्य हूँ, उसकी साधना करना । भगवान की पूजा करना, स्वाध्याय करना-ये आत्मकल्याण के बाह्य साधन रूप चीजें हैं अवश्य, किंतु इन प्रसंगों में भी कभी स्व की दृष्टि नहीं जाती, तो पूजनादि करना व्यायाम है । वैसे तो दुनियां के जीव किसी न किसी के पुजारी बने हुये हैं । कोई धन का, कोई पुत्र का, कोई स्त्री का आदि । जिस पुरुष को जो वस्तु प्रिय है वह उसी का पुजारी है । धन जिस पुरुष को प्रिय है उसके हृदय में हमेशा धन को प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा बनी रहती है, और वह धनी कैसे बने इसी के विचार में मग्न रहता है, तो। वह है धन का पुजारी । भगवान को हाथ पर भी रखे रहो और भाव है लड़के के ऊपर, तो आप भगवान के पुजारी नहीं हो, उस समय लड़के के पुजारी हो और आप काम कर रहे हो घर का और चित्त में बसा हुआ हो भगवान तो आप बालक को हाथ में लिए भी भगवान के पुजारी हैं क्योंकि उन्हें तो आप ऊपरी मन से करते हो । ज्ञानी गृहस्थ के अंतरंग में इच्छा नहीं है, शुद्ध-स्वरूप ही लाभकर है ऐसी प्रतीति बनी हुई है । जब ऐसे भाव पैदा हो जावेंगे तब वह जाता हुआ भी नहीं जाता है, जानता हुआ भी परद्रव्यों को नहीं जानता, देखता हुआ भी नहीं दिखता; बोलता हुआ भी नहीं बोलता, ऐसी स्थिति हो तभी आत्मा का कल्याण होगा । इसलिये जिस तरह के धनी बनने वाले पुरुष के भाव रहते हैं, खाने में बैठने में प्रत्येक जगह वही धुन सवार रहती है, उसी तरह अपनी आत्मा को देखने के लिये भी उसी तरह आत्मोपयोग की धुन पैदा करो । 183. अपनी दया तो अवश्य कर ले—एक राजा था, वह किसी अन्य देश में युद्ध करने चला गया । उसका राज्यभार उसकी पटरानी ने संभाला । इधर अवसर देख एक दूसरे राजा ने उस पर चढ़ाई कर दी । तब रानी ने अपने मंत्री को बुला करके कहा कि तुम सेनापति बनकर युद्ध के लिये जाओ । मंत्रि जैन था । वह सेना लेकर युद्ध के लिये चल दिया । रास्ते में काम हो गई सो सेनापति ने हाथी के ऊपर बैठे-2 ही अपनी सामायिक देना शुरू कर दी । सामायिक में सेनापति कहते थे कि जिन पेड़ पत्तों को मेरे द्वारा कष्ट पहुंचा हो सो वे मुझे क्षमा करें; कीड़ों मकोड़ों को कोई कष्ट हुआ हो तो मैं उनसे क्षमा मांगता हूँ यह बात किसी ने सुन ली सो रानी के पास जाकर वह बोला—महारानी जी ! आपने कैसे व्यक्ति को सेनापति बनाया, जो कि पेड़ पत्तों से डरना है, उनसे क्षमा मांगता है, वह आदमी युद्ध में कैसे युद्ध करेगा और कैसे जीतेगा? इधर पांच छ: दिन में ही सेनापति राजा को जीत कर वापिस आ गया । तब रानी ने पूछा कि सेनापति ! तुम तो इतने कायर हो कि पेड़ पत्तों से क्षमा माँगते हो फिर युद्ध में कैसे लड़े होंगे? तब सेनापति ने उत्तर दिया कि मैं आपका नौकर हूँ किंतु चौबीस घंटे का नौकर नहीं हूँ । मैं जितने समय आपका नौकर हूँ सो आपका काम करता हूँ बाकी समय सुबह शाम मैं आपका नौकर हूँ सो अपना काम करता हूँ । मेरे द्वारा किसी को कष्ट पहुंचा हो सो मैं उसकी क्षमा मांगता हूँ और अपना स्वरूप निज में देखता हूँ । रानी बड़ी प्रभावित हुई । इसी तरह आप भी गृहस्थी में रहते हुये भी अपने काम के समय अपनी आत्मा का ध्यान स्व-स्वरूप चिंतवन किया करो । स्वस्वरूप के देखने से ही आत्मा निर्मल बनेगा । इसे निर्मल बनाने के लिये एकत्वगत स्वसमयता की आवश्यकता है । दर्शन ज्ञान, चारित्र इन तीनों में एकत्व होने का ही नाम स्वसमय है । 184. दर्शन ज्ञान चारित्र का सर्वत्र उपयोग—एकत्व का क्या रूप होता है सो आप सब जल्दी जान जाओगे क्योंकि एकत्व का उपयोग सब करके जानते हैं कोई कही तो कोई कहीं । जैसे किसी का बालक छत पर खेल रहा है, और वह खेलते-2 छत के अंत तक चला जाता है तब उसे अपने लड़के के गिर जाने का ज्ञान होता है और वह उठकर जल्दी से लड़के को उठाने जाती है । जल्दी में उसे चोट भी लग जावे तो उसे कुछ भी ध्यान नहीं रहता है क्योंकि वहाँ पर एक में उस बालक में ही एकत्व दें । कहीं बालक में एकत्व हो नहीं गया किंतु कल्पना की कल्पना की । इसी तरह दर्शन, ज्ञान, चारित्र में एक साथ एकत्वभाव होना सो स्वसमय है । यहाँ एकत्व हो जाता है । दर्शन ज्ञान चारित्र प्रत्येक आत्मा में रहते हैं रोटी बनाने में, पाप करने में, जप करने में, पुण्य करने में, धर्म करने आदि में श्रद्धा ज्ञान चारित्र ही तो काम कराता है । वह अच्छा है या बुरा यह दूसरी बात है । आप रोटी तभी बना लेते हैं जब आपको उसमें श्रद्धा है, उसका ज्ञान है और चारित्र है । यदि ऐसा नहीं है तो गुंदे हुये आटे को छोड़ बेलन आदि अन्य में से लोई क्यों नहीं तोड़ते? सो इससे ज्ञान होता है कि आपको उस विषय का श्रद्धान्न, ज्ञान, चारित्र है । श्रद्धा ज्ञान चारित्र प्रत्येक स्थान में है । अब आत्मा के स्वभाव का श्रद्धान ज्ञान आचरण होता है तो आत्मस्वभाव की सिद्धि हो जाती है याने वह निर्मल हो जाता है । भैया ! जो अपनी निर्मल आत्मा में विराजमान है उसके नाम का पत्थर भी दुनियां में पुजता हे । पूजने की ओर दृष्टि न हो अनंत सुख की ओर देखो । आपका कर्तव्य भी है कि आप अपनी आत्मा को अपने में देखो । भगवान किसी के दुखों को नहीं मिटाता है । दुःख स्वयं भगवान की पूजा उपासना से मिट जाते हैं । किंतु कब जबकि भगवान की पूजा स्वभाव श्रद्धापूर्वक हो । यथार्थ में होता भी यही है कि भगवान की पूजा आराधना भगवान के प्रेम से कोई नहीं करता बल्कि वे अपने दुःख और संताप मेटने को भगवान की पूजा करते हैं, उनके पास जाते हैं । 185. प्रत्येक परिणति का संप्रदान या प्रयोजन वही स्वयं—जैसे कोई व्यक्ति गर्मी के दिनों में नंगे पैर और नंगे सिर मार्ग में जा रहा है तो उस गर्मी से उसे संताप पैदा होते हैं और जब वह उन्हें सहन नहीं कर पाता तब वह विचारता है कि कोई घना छायादार वृक्ष मिले । रास्ते में जहाँ उचित वृक्ष मिलता है वृक्ष के मिलते ही वह जल्दी-जल्दी उस पेड़ के नीचे जाकर आराम करता है । तो हम पूछते हैं कि वह व्यक्ति पेड़ के नीचे क्यों गया ? क्या उसे पेड़ से प्रेम था? यदि आप कहो कि हां वह पेड़ के प्रेम से ही पेड़ के पास गया तो जब धूप खतम हो जाती है, शाम के पाँच बज जाते हैं फिर वह व्यक्ति उस पेड़ के नीचे से क्यों चला जाता है? यदि उसे पेड़ से प्रेम था तो उसे पेड़ के पास ही रहना चाहिये किंतु नहीं, वह तो अपने संताप जो कि कड़ी धूप के कारण हुये थे और वे उससे सहन नहीं हो रहे थे, उन्हें मेटने के लिये पेड़ के नीचे गया था । इसी तरह कोई भी व्यक्ति भगवान के पास भगवान के प्रेम से नहीं जाता है बल्कि अपने दु:खों को मेटने के लिये भगवान के पास जाता है । दुनियां में ज्ञानी और अज्ञानी जीव दोनों को दु:ख हैं, अज्ञानी जीव तो अपने मोह से लौकिक दुःख को मेटने जाते हैं। कोई महावीरजी, पद्मपुरी आदि, मेरे बच्चे हों मुझे धन की प्राप्ति हो जावे, इन भावनाओं को लेकर जाते हैं । तो क्या कुछ होता है पर से? 186. प्राप्त समागमों में विभक्त होने का मार्ग बनाओ—अगर इन तीर्थ क्षेत्रों में अपनी आत्म-बुद्धि, आत्म-कल्याण की भावना लेकर जाओ तो कुछ लाभ भी हो । ज्ञानी जीव भी अपने दु:खों को मेटने के लिये भगवान की शरण में जाते हैं, आप पूछो कि ज्ञानी जीव के क्या दुःख है? ज्ञानी जीव सोचता है कि मेरा स्वभाव तो निर्मल चैतन्यस्वरूप है और मैं क्या हो रहा हूँ । उसके जो विकल्प शेष हैं उन्हीं विकल्पों का उदय ही दु:ख है सो उसी दुःख को मिटाने के वास्ते भगवान की शरण में जाते हैं । ज्ञानी जीव के दु:ख तो भगवान की पूजा भक्ति से मिट जाते हैं । देखो उनके दुःख मिटने में भगवान भी निमित्त हो जाते हैं इसलिये विकल्पों से रहित यानी निर्विकल्प जो आत्मा की अवस्था है (स्वसमय) उसका ध्यान करो । धन पर है यह शरीर पर है किंतु मैं चैतन्यमात्र हूँ। क्या ये पुण्य पाप मैं हूँ? नहीं, क्योंकि पुण्य पाप तो जड़ है, किंतु मैं चैतन्यस्वरूप हूँ । तो क्या इन पुण्य पापों के द्वारा उत्पन्न जो सुख दुःख है वह मैं हूँ? नहीं । क्योंकि सुख दुःख तो विभाव मात्र हैं, किंतु मैं तो चैतन्य और स्वभाव रूप हूँ, मैं तो ध्रुव चैतन्य हूँ । इस तरह जब तक ज्ञान नहीं होता है तब तक शुद्ध चित्तरूप का ज्ञान नहीं हो सकता है इसलिये चित्स्वरूप के जानने में भेद विज्ञान प्रधान कारण है । 187. भेद विज्ञान पूर्णज्ञान का मूल—भेदविज्ञान केवल ज्ञान को पैदा करने में भी कारण है, यह बात दूसरी है कि अभी केवल ज्ञान नहीं होता फिर भी दो एक भवों के बाद हो सकेगा । आप उसे पाने की तैयारी तो यही कर सकते हो । अपना तो बस एक लक्ष्य होना चाहिये कि हमें तो सिद्ध बनना है, आपके अंदर सिद्ध बनने के नारे गूंजना चाहिये । जैसे आजादी प्राप्त करने के लिये स्वतंत्रता के नारे लगते थे उसी तरह आपके मन में सिद्ध बनने के नारे (हृदय के भाव) होना चाहिये भेद विज्ञान होना चाहिये । आप जरा से कामों में तो भेदविज्ञान करते हो; किंतु आत्मा के सुख के लिये भेदविज्ञान नहीं करते । आप गेहूँ बीनते हैं उसमें दो दृष्टि रहती है एक तो गेहूँ और दूसरा अगेहूँ याने गेहूँ को लेना गेहूँ के अतिरिक्त जितनी भी चीजें हैं मिट्टी आदि उन्हें छोड़ना । तो इसी तरह आत्मा में भी भेद विज्ञान करना है । आत्मा को लेना है और अनात्मा को अलग करना है गेहूँ में तो दो काम करने पड़ेंगे कि एक तो ज्ञान करना कौन गेहूँ और कौन नहीं है, दूसरे हाथ चलाना किंतु आत्मा के लिए सिर्फ एक काम करना है, निज को निज, पर को पर जान, स्व का जानना ही परपदार्थों से छूट जाना है । स्वसमय की आराधना करो तभी कल्याण होगा । 188. स्वसमय का वैभव—जब यह जीव सब पदार्थों को जानने में समर्थ ऐसे केवल ज्ञान को उत्पन्न करने में निमित्त कारण जो भेद दृष्टि उसके उदय होने से परद्रव्यों से छूटकर दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थित होकर अपने स्वरूप को एकत्व से देखता है उसे स्वसमय कहते हैं । यह जीव आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर आत्मा का लक्ष्य बनाता है क्योंकि जो जैसा लक्ष्य बनाता है उसकी प्रवृत्ति उसी ओर रहती है, जो आत्मा का लक्ष्य बनाता है उसकी प्रवृत्ति स्व-(आत्मा) की ओर होती है और जो पर का लक्ष्य बनाता है उसकी प्रवृत्ति परवस्तु के उपयोग में जाती है; वह परवस्तु को ही अपना मानकर प्रसन्न होता है । किंतु स्व का लक्ष्य बनने पर स्वभावदृष्टि रखकर जीव सोचता है कि मेरा आत्मा ध्रुव है, मैं पवित्र हूँ मेरी आत्मा निर्मल है । अनादिकाल से यह आत्मा निर्मल है, किंतु कर्मों के संयोग से यह आत्मा मलिन हो गया है । वहाँ भी स्वभाव देखो क्या मलिन हो जाता है, गंदा हो जाता है? आप बतावो कि क्या यह पानी गंदा हैं या राख ने उस पानी को गंदा बना दिया है? उस निर्मल पानी को उस राख ने गंदा कर दिया है यह संसर्ग दोष से ही राख की मलिनता का पानी में व्यवहार है । यदि राख को दबा दिया जावे तो वह पानी अपनी स्वभाव अवस्था में आ जावेगा, पानी पूर्ण निर्मल हो जावेगा । इसी तरह आत्मा राग, द्वेष मोहादिक के संसर्ग से मलिन । आत्मस्वभाव उपाधिमय नहीं है । अंत: बाह्य आवरण दूर हुये कि लो आत्मस्वभाव स्वभाव विकासरूप में प्रकट हो गया । 189. ज्ञानदृष्टि होने पर परसमय से स्वसमय बन जाना—यद्यपि आत्मा का स्वभाव मलिन नहीं है तथापि कर्मोदय को निमित्त पाकर आत्मा की शक्तियों का परिणमन परोन्मुख हो रहा है । द्रव्य के स्वभाव को देखो—वह ही ध्रुव स्वरूप है वह मलिन नहीं, तो भी पर्याय का तदात्वकाल में व्यतिरेक का अभाव है सो मलिन अवस्था है । यह आत्मा मोह के एकत्व में रत होने से अपने को पररूप करता है अनादिपरंपरा से कर्मों के संसर्ग से यह आत्मा पहले परसमय बनता चला आया है; उसके पश्चात् ज्ञानदृष्टि से स्वसमय बनता है । परसमय से स्वसमय में आने का मुख्य कारण है सम्यग्दर्शन । यह तीन प्रकार का है क्षायिक, वेदक, औपशमिक । क्षायिक सम्यक्त्व सात प्रकृतियों के क्षय से होता है । वे सात प्रकृतियां हैं अनंतानुबंधी, क्रोध, मान, मान लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व । यदि इन सात में सर्वघाती 6 का उदयाभावी क्षय होवे, इन्हीं अनागत स्पर्द्धकों का सदवस्थारूप उपशम हो एवं सम्यक प्रकृति का उदय हो तो वेदक सम्यक्त्व होता है । अनादिमिथ्यादृष्टि जीव के अनंतानुबंधी 4 व मिथ्यात्व इन 5 के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है । वेदक योग्य मिथ्यादृष्टि के 7 के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है । इन सात की उक्त अवस्था बिना, सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है । यह बात निमित्तदृष्टि से, विज्ञान से ठीक हैं । 190. कर्म में आत्मा की परिणति का अकर्तृत्व—यह नियम अकाट्य है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का लेश भी परिणमन नहीं करता । सो कर्मों के उपशमादि को निमित्त पाकर सम्यग्दर्शन हो किंतु कर्मों की किसी भी परिणति से आत्मा में यह परिणमन नहीं होता । निमित्तमात्र अवश्य है, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि तत्त्व हैं परंतु यह भी तो विचारो कि कर्मों के बंध बिना ही कर्मों का सत्त्व हुआ नहीं, और सत्त्व हुआ सो उसका उपशमादि परिणमन भी तो सादि है सो उपशमादि का भी तो कोई निमित्त होना ही चाहिये । तो कोई तत्त्व ऐसा भी है जिसके बिना इन सात प्रकृतियों का क्षय आदि नहीं हो सकता है । वह तत्त्व क्या है ? अपनी आत्मा का स्वरूप जानना ये कारण है । स्वरूप का ज्ञान तभी हो सकता है जब पहचान हो; पहिचान के लिये लक्षण-ज्ञान चाहिये, लक्षण-ज्ञान भेद-विज्ञान से होगा भेदविज्ञान के लिये उसके अध्ययन मननादि रूप ज्ञानाभ्यास चाहिए । तो आत्मस्वरूप जानने के लिये सबसे पहला कोई कारण है तो वह है ज्ञानाभ्यास । ज्ञानाभ्यास के लिये भी कोई कारण होना चाहिए । उसके लिये कारण है ज्ञानावरण का क्षयोपशम, क्षयोपशम के लिये कोई चिंता आपको होना चाहिये भैया ! उसके लिये आपको कुछ भी नहीं करना है क्योंकि वह तो आपको पहले से ही प्राप्त है, जिसके द्वारा आप दुनियाँ के कार्य, बड़ी-बड़ी कंपनियों की व्यवस्था, नेतागिरी करते हैं, हिसाब खाता बही आदि जिसमें पाई-पाई का हिसाब रखते हैं क्या ज्ञानावरण का आपके क्षयोपशम नहीं हैं? बड़े-बड़े व्यापार व्यवसाय प्रबंध करते हैं ।इनमें अकल कितनी लगाते हैं? इसी क्षयोपशम का उपयोग आत्महित के लिये करना है । आत्मकल्याण की तीव्र रुचि होने पर हित का कार्य अनायास बन जावेगा । 191. भेद विज्ञान केवल ज्ञान का कारण—इसके लिये विवेक ज्योति पहले चाहिए । यह विवेक-ज्योति पूर्ण ज्योति का कारण बनेगी । पूर्ण ज्योति कैसी है? समस्त पदार्थ सार्थ की भासना में समर्थ है । केवल ज्ञान इसका अपर नाम है । केवल ज्ञान में पदार्थ जैसे व्यवस्थित है, प्रतिभासित हो जाते हैं । केवलज्ञान में समस्त शक्तियां समस्त अविभागप्रतिच्छेद प्रतिभासित हो जाते हैं । केवल ज्ञान में समस्त पर्यायें जिस क्रम से त्रिकालवर्ती हैं प्रतिभासित हो जाते हैं । यह ज्ञान अति निर्मल है, इसमें सर्व द्रव्य गुण पर्याय झलकते हैं किंतु केवलज्ञानी के देशक्रम व कालक्रम आदि का लेश विकल्प नहीं है क्योंकि उनके ज्ञान में वे सब पर्यायें एक साथ झलकते हैं जिन में सत्ता का योग था, है व होगा । यहाँ पर अभी स्वसमय की प्रक्रियायें की जा रही हैं । हां तो उसमें कितने जीव आ गये? केवली भगवान्, वीतराग छद्मस्थ, सूक्ष्मसांपराय, अनिवृत्तिकरणस्थ, अपूर्वकरणस्थ, अध:करणस्थ, अप्रमत्तविरत, प्रमत्तविरत देशविरत, अविरतसम्यग्दृष्टि इस तरह सर्व सम्यग्दृष्टि जीव उसमें आ गये । 192. मोक्षमार्ग की वृत्ति की एक विधता—क्या इन जीवों का काम नाना प्रकार का है? मोक्षमार्ग में चलने वाले जितने भी जीव हैं उन सभी की कला एक है मोक्षमार्ग का पुरुषार्थ सहजपुरुषार्थ है और वही उत्कृष्ट है । हमारी बुद्धिपूर्वक जितने भी पुरुषार्थ होते हैं वे सभी नैमित्तिक हैं । जितना भी धर्म हमारे आपके हो रहा है वह अनैमित्तिक हो रहा है—किंतु उस धर्म वो पास पहुंचने के पूर्व जो विकल्प होते हैं उनके कारण अवश्य हो जाते हैं । द्रव्यदृष्टि के विचार, निश्चयनय के अभिप्राय आदि विकल्प रूप हैं । पर्याय को गौण कर उसके स्रोत रूप शक्ति के उन्मुख होना भी विकल्प है । इतने कार्य के लिये ज्ञान को ज्ञानातिरिक्त अर्थ का आश्रय रहता है परंतु इसके पश्चात जो निर्विकल्प समाधि है वह अनैमित्तिक परिणमन है । संसार में जितने भी द्रव्य हैं, हम और आप उनको ज्ञानद्वारा समझ सकते हैं । आंख द्वारा उन्हें नहीं देख सकते हैं । पर्याय तो आंख द्वारा जानी भी जा सकती है समझ में आती है, किंतु कुछ पर्यायें भी ऐसी हैं जो ज्ञान से जानी जाती हैं । वस्तुत: सभी ज्ञानगम्य हैं, इंद्रिय निमित्त स्थूल विषय में हैं । पर्याय तो इंद्रियगम्य है । किंतु द्रव्य या शक्ति इंद्रियगम्य नहीं है । मूर्ति द्रव्य भी इंद्रियगम्य नहीं । उनकी स्थूल (स्कंध) अवस्था इंद्रियगम्य है । फिर आत्मतत्त्व की तो बात ही निराली हैं । वह कैसे इंद्रियगम्य होगा, प्रत्युत इंद्रिय निरोध बिना गम्य नहीं होगा । 193. मोक्षमार्ग निज ज्ञायक स्वभाव का अवलंबन—अनादि अनंत वह ध्रुव आत्मा हम और आप सभी में है, वह आत्मा अचल हैं । उसका एक आलंबन पाकर ही अनेक आत्मा परमात्मा हुये हैं । हां तो यहाँ अभी यह विषय चल रहा है कि मोक्षमार्गियों का मोक्षमार्ग के लिये जो कदम बढ़ता है वह एक शैली का है । उसमें न्यून अधिक विकास का ही अंतर हो सकता है । जितने भी विकास हैं वे स्वभाव के ऊपर प्रवेश करते हैं । भगवान् सिद्ध में जो केवल ज्ञान हैं उसका भी स्वभाव के ऊपर प्रवेश हुआ है । उस उपयोग रूप होकर वे परिणत करते हैं, सो अनादि, अनंत अहेतुक ज्ञान स्वभाव आपको कारण रूप से उपादान करके परिणम रहे हैं इसी तरह अन्य स्वभाव भी अनादि अनंत अहेतुक ज्ञान स्वभाव को कारण रूप से उपादान करके प्रवेश पाते हुये अपने-अपने ज्ञानोपयोग रूप हो होकर परिणमते हैं । वहाँ प्रवेश से प्रयोजन नाटक की रंगमंच जैसा नहीं है कि उसके ऊपर अभिनय कर्ता का प्रवेश हुआ और थोड़ी ही देर में भिन्न स्वरूप वाला भिन्न अभिनयकर्त्ता का प्रवेश हुआ और निकल गया । मंच सूनी हो गई । किंतु यहाँ तो प्रवेश से प्रयोजन इतना है कि केवलज्ञान होता रहता हें और प्रतिसमय नष्ट होता रहता है और उस केवलज्ञान के निवृत्त होने पर उसी तरह का केवलज्ञान फिर पैदा होता है क्योंकि वह अनैमित्तिक परिणति है । अनैमित्तिक परिणति सब एक समान होती हैं । पर्याय प्रतिसमय दूसरी-2 होती हैं, उनका यह क्रम अनंत काल तक रहेगा । 194. ज्ञान वहीं जहाँ विकल्प नहीं—भगवान सिद्ध, कार्यपरमात्मा स्वसमय, परमात्मा, इतने निर्मल हैं कि उनके अंदर द्रव्यों की अनंतानंत पर्यायें झलक गई हैं जिनको उन्होंने कल जाना उन्हीं को आज जाना । उनके अंदर देशक्रम की सभी चीजें झलक गईं तो भी देशक्रम का विकल्प नहीं । सर्व पर्यायें झलक गईं किंतु उनमें भूत भविष्य और वर्तमान के विकल्प नहीं हैं । आकार की पर्यायें भी उनमें झलक गई हैं फिर भी उनमें किसी तरह के विकल्प नहीं है उनका ज्ञान निर्मल है । ये स्वसमय सिद्ध हैं । ऐसी स्वसमयता उत्पादक पूर्व स्वसमयता है; उसका उत्पादक पूर्व स्वसमयता है । इस तरह पूर्व-पूर्व के स्वसमय पाने का कारण सबसे पूर्व का स्वसमय बना है । उसकी उत्पादिका द्रव्यदृष्टि है । उसका कारण स्वरूपपरिचय है, उसका कारण लक्षण ज्ञान है, उसका कारण भेदविज्ञान है । सो जब भेद विज्ञान के बल से यह जीव परद्रव्य से च्युत होता है तब यह कहां विलास करता है । देखो—वह पद है ज्ञायकस्वरूप चैतन्यस्वरूप यह चैतन्य सामान्यविशेषात्मक होने से दर्शनज्ञानस्वरूप है । आत्मा का स्वभाव दर्शनज्ञानरूप एवं उसकी वृति रूप है । ऐसे आत्मा के एकत्व में गत होकर जो वर्तते हैं वे स्वसमय हैं । जो पर-पदार्थ से च्युत होकर स्वपदार्थ में ठहर जाते हैं वही स्वसमय है । अभी यहाँ स्वसमय का ही वर्णन चल रहा है । स्वसमय के कारणभूत समय के जाने बिना जीव विभावरूप परिणतियों में रत हो जाता है और वहाँ पर नाना प्रकार के बाह्य पदार्थों में एकत्व करता रहता है, जिसके कारण तरह-2 के विसम्वाद होते हैं और जब तक क्लेश ही रहता है मैं तो शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ, यह देखने वाले वह सपने में भी पर से एकत्व नहीं करता परपदार्थ मेरे नहीं हैं; ये तो सब मोह की परिणतियां; मोहजन्य विकल्प हैं । मुझे इनसे दूर रहना चाहिये । मेरा तो दुनिया में कोई है तो सिर्फ मेरा ध्रुव चैतन्य आत्मा है । इस प्रकार अपना स्वरूप (अपने में) नहीं देखता तब तक वह दुःख उठाता रहता है और जब वह अपने में एकत्व करके अपने स्वरूप को देखता है तभी उसके सारे विकल्प, विसम्वाद नष्ट हो जाते हैं । 195. विसंवाद से हटने का अनुरोध—इसके लिये हमें अपना शुद्ध स्वरूप देखना है, उस शुद्धस्वरूप से निज आत्मा का परिचय होता है, तब आत्मा में ज्ञान होता है । ज्ञान के द्वारा आत्मा को जानता है, और आत्मा की ओर उन्मुख होता है, तब सम्यग्दर्शन होता है और जीव अपना कल्याण करता है । देखो भैया ! परम कृपालु भगवन् श्री कुंदकुंद स्वामी के हृदय में कितनी दया थी? वे हमारी स्थिति को देखकर किस जाति का दुःख देखते थे । वे हमारी मूढ़ता पर दुःखी होकर कहते हैं कि ये जीव जगत के मोह, राग-द्वेष में फंसे हैं, इनसे विभक्त होने के लिये जरासी तो बात है । अपना आत्मस्वरूप देखो और कल्याण करो । उन्हें इस तरह से यही दुःख था, उनके हृदय में जब अनुराग होता था, इस तरह के विकल्प उठते थे । तब उन्होंने अपनी लेखनी चलाई । इन विकल्पों को हटाने के लिये उनका बुद्धिपूर्वक जो कार्य हुआ है सो यह ग्रंथ है । 196. अपनी परिणति का प्रयोजन—देखो वस्तुत: कोई चेतना अथवा अचेतनसा कोई भी द्रव्य किसी अन्य के लिये नहीं परिणमता । सब अपने स्वरूपलाभ के लिये परिणमते हैं; तब यहाँ कोई ऐसी दृष्टि रखे मैं अमुक को पालता हूँ, सुखी करता हूँ आदि तो वह भाव उनको कितने दूर लिये जा रहा है । भगवान् श्री कुंदकुंददेव आदि आचार्यों के ग्रंथरचना के दो ही प्रयोजन हैं 1—दूसरों को सत्पथ मिले, ऐसी दया संबंधी स्वदुःख मेटना । 2—दूसरों पर लक्ष्य हो क्यों जाता मेरे परविकल्प ही नहीं इसके लिये सुतत्त्व के वर्णन में लग जाना । भैया अपना परिणाम अपने में समझ द्वैत बुद्धि मिटावो । 197. ब्रह्म और ब्रह्मपरिणति—आत्मा कहो या ब्रह्म कहो एक ही बात है, आज भी उसी ब्रह्म का वर्णन चल रहा है । ब्रह्म की दो अवस्थायें हैं, स्वसमय, और परसमय । स्वसमय का वर्णन कल हो रहा था, उसमें केवली भगवान्, वीतराग छद्मस्थ अनवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अप्रमत्त आदि सम्यग्दृष्टि आ जाते हैं । निज समय को जब प्राणी जान लेता है कि मैं ध्रुव हूँ परमार्थ से भिन्न हूँ इन सांसारिक पदार्थों से मेरा कोई संबंध नहीं हैं, मैं तो चैतन्यस्वरूप हूँ, तब उसे स्वसमयता की पात्रता आ जाती है । जैनसिद्धांत में जिसको आत्मा के नाम से कहा है उसको अन्य अभिप्रायों ने तुरीयपाद से संबोधित किया है । अंतर इतना है कि उनका तुरीयपाद सर्वव्यापक है और आपका आत्मा अपने विशिष्ट सत्स्वरूप है । जब यह अपने स्वरूप को जानकर अपने में स्थित, लीन होता है उस समय वह स्वसमय को प्राप्त हो जाता है । स्वसमय का वर्णन हो चुका है आज परसमय को कहते हैं । परसमय—यह उस अवस्था का नाम है जिसमें संसारी जीव मान्यता द्वारा मोह बुद्धि, मोह नींद से परपदार्थ में एकमएक होता है, ये संसारी जीव जागते हुये भी सो रहे हैं । बर्राते हुए भी सो रहे हैं । वेदांत में सोने की तीन अवस्था बतलाई हैं, जिन्हें हिंदी में कहते हैं जगना, बर्राना, (यानी स्वप्नावस्था) और खूब प्रगाढ़ निद्रा में सोना । ये तीन अवस्थायें प्रत्येक संसारी जीव के हैं । सोते में उसे जो कुछ दीखता है जागने पर वह कुछ भी नहीं दीखता है । स्वप्न में देखी हुई वस्तु जिस तरह से भ्रमरूप है उसी तरह जागते हुये जिन्हें हम आंखों से देख रहे हैं वे भी भ्रमरूप हैं यह तो सब मायारूप हैं । माया का लक्षण है कि जो सादि और सांत है । वही मायारूप है, तो ये हमें आपको दुनिया में जितने भी पदार्थ दिखते हैं ये सभी मायारूप एवं भ्रम है । ये तो क्षणिक तथा नश्वर हैं ये तो मेघों के समान चंचल है, जिस तरह आकाश में मेघ पटल छा जाते हैं और थोड़ी देर बाद वे सबके सब नष्ट हो जाते हैं और फिर छा जाते हैं इसी तरह ये दुनियां के पदार्थ है । जागने और सोने की अवस्था को देखो, जो सोने में है वह सोने की चीज जगने में नहीं और जगने की चीज सोने में नहीं; तो ये सभी विकल्प मात्र हुए । जहाँ तत्त्व का ग्रहण नहीं है कोई विकल्प नहीं है । जहाँ मैं हूँ यह ज्ञान भी जिसे नहीं है उस अवस्था को कहते हैं ज्ञान घन । वहाँ सन्मात्र भासना सूक्ष्म रहती है याने खूब सोने की अवस्था, खूब गाढ़ी नींद में सोने में अपने का भी ध्यान नहीं रहता है और न बाह्य वस्तुओं का । यह अवस्था तृतीय है । इन तीनों से परे वह ब्रह्म है । देखो भैया ! दुनिया में जैन तथा अजैन जितने भी बड़े-2 ऋषि, महर्षि हुये हैं उन सभी ने यह प्रयत्न किया है हम सृष्टि के मूल तक पहुंच जावें किंतु वस्तुगत ये दृष्टि को छोड़ करके सृष्टि के मूल तक कोई नहीं पहुंचा है । 198. द्रव्यस्वरूप के जाने बिना अनेक अंदाज—कोई आशय मानते हैं कि ईश्वर एक है और उसने सृष्टि करने के पहिले एक आलोचक बनाया कि जब मैं सृष्टि करूंगा और आलोचक को जो वस्तु ठीक नहीं लगेगी उसे मिटाकर पुन: अन्य प्रकार से बना दूंगा, सो उस ईश्वर ने पहिले बंदर बनाया । तब आलोचक ने कहा कि यह तो बहुत चालाक चंचल है इससे काम नहीं चलेगा । तब ईश्वर ने गधा बनाया तो आलोचक बोला कि यह तो सुस्त है । इसके बाद ईश्वर ने ऊंट बनाया । तब आलोचक ने कहा कि इसका मुंह ऊपर उठा है । तब हाथी बनाया सो भी आलोचक को पसंद नहीं आया, अंत में ईश्वर ने मनुष्य बनाया । कोई भाव मानते हैं कि पहले कुछ भी नहीं था, खुदा और आदम ही था । सो कुन और कान । आदम ने कहा कुन यानी सृष्टि करो, तब खुदाने कहा कान सृष्टि करता हूँ और सृष्टि हो गयी । कोई कहता है कि पहले एक ब्रह्म था उससे तेज बना जिससे सूर्य चंद्र बने और उसके बाद जो यह दुनियां का ठाठ है सो भी उसी से बना । तो कोई कहता है कि यह सृष्टि तो प्रधान के द्वारा की गई है । सांख्य पुरुष और प्रधान ये दो मानते हैं सो ये कहते हैं कि पुरुष तो चैतन्य है और वह अनादि मुक्त है और जो प्रधान है वह अचेतन है सो वही सभी कार्य करता है पुरुष तो उसका भोक्ता है । इस तरह प्रत्येक अभिप्रायानुयायी ने सृष्टि को जानना चाहा है, लोगों ने सोचा कि जो सृष्टिकर्त्ता है उसकी पूजा, उपासना करना चाहिये जिससे कि वह हम पर प्रसन्न हो जावें और अगले भव में हमारी सृष्टि भी अच्छी जगह कर दे । 199. पर्याय सृष्टि और द्रव्य सृष्टा—यहां पर श्रीमद्पूज्य भगवान कुंदकुंद प्रभु इस सृष्टि के बारे में आगे सभी बतावेंगे । जैनों ने भी सृष्टिकर्ता की उपासना और पूजा आदि करनी चाही है । जैन लोग मानते हैं कि सृष्टि एक की नहीं बल्कि सृष्टि नाना की है । और वे नाना क्या हैं? वे नाना ये द्रव्य हैं । अनंत जीव द्रव्य, अनंतानंत पुद्गल, एक धर्म, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश द्रव्य और असंख्यातकाल द्रव्य? इन्हीं नाना द्रव्यों की सृष्टि है और जो आत्मा के दो भेद—स्वसमय और परसमय किये हैं सो वे इसी सृष्टि के भेद हैं । और सृष्टि के मूल हैं ये द्रव्य । और सृष्टिकर्त्ता है स्वयं का उनका आत्मा इसलिये इस समयसार में भगवान् कुंद प्रभु कहते हैं कि अपने निज सृष्टिकर्ता की पूजा करो, उसी की उपासना करो और उसे अपनी उपासना से प्रसन्न करो जिससे आगे के लिये भव सृष्टि न हो किंतु शिव सृष्टि हो । यहाँ ‘प्रसन्न’ का अर्थ व्याकरण के अनुसार निर्मल है, सो जिसने अपनी आत्मा को निर्मल बना लिया है सो उसका कल्याण होगा । 200. गांठ में लाल होकर भी न खोले तो क्या इलाज?—देखो जैसा यह सब समागम अध्रुव है ना, सादि सांत है ना; इससे इस जागृत अवस्था में भी जो कुछ देखते हो वह भ्रमरूप है, वे सभी वस्तुयें नष्ट होने वाली हैं फिर भी यह मनुष्य उन्हीं में रत है । देखो यह जीव खुद ज्ञानमय होकर खुद की ज्ञानमयता को नहीं देख पाता है । इससे अधिक इस जीव की मूर्खता क्या होगी? जैसे समुद्र में रहते हुये भी मगर प्यासा रहे तो ये उसकी ही अज्ञानता एवं मूर्खता है । सो यदि आत्मकल्याण करना है तो परमार्थ को पहिचानो । अपनी ज्ञानमयता का ध्यान करो, ज्ञानमयता तो अभेददृष्टि से मान्य है उसके लिये स्वस्वरूप परिचय भेददृष्टि से गम्य है । जिनके पास सम्यग्ज्ञान व सदाचार की सुनिधि है वे सच्चे अर्थ में पुण्यात्मा, महात्मा, एव सम्मानित साहूकार हैं, जो इनके विपरीत है आज के अर्थ में साहूकार होने पर भी कर्जदार है, दिवालिया है। 201. ज्ञानमयता की अनुभव से पहिचान—जैसे किसी मनुष्य ने मिश्री खाई, और उससे कोई दूसरा व्यक्ति उसका स्वाद पूछता है जिसने कि कभी मिश्री नहीं खाई है, तो वह पहला व्यक्ति जिसने मिश्री खाई है सो वह उसका स्वाद जानता है किंतु वर्णन नहीं कर सकता है । वर्णन भी करे तो उन वचनों से वह मिश्री के स्वाद को नहीं पाता । वह कहता है भाई ! मिश्री बहुत मीठी होती है । आपने कभी गन्ना खाया है, गन्ने के रस के मैल को हटाकर उससे गुड़ बनता है फिर उसका भी मैल निकाल कर शक्कर बनती है और फिर बाद में उस (शक्कर) से भी मैल निकाल कर मिश्री बनती है । तो आप ही सोच लो वह मिश्री कितनी मीठी होती होगी । मैल मीठे के बाधक थे । जब इतने मैल निकले तो वह अधिक मीठी हुई । तो इस तरह आत्मा की बात सुन भी ले किंतु जब तक कोई आत्मप्रयोग न करेगा तब तक उसके रस का आस्वादन नहीं कर पावेगा सुनने से उसका मात्र विज्ञान हो जाता है । प्रवचनसार में आत्मा का वर्णन करते हुये पूज्य आचार्य श्री अमृतचंद्रजी सूरि कहते हैं कि यह दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप मैं—यहां सूरिजी पैतरा बदलते हुये द्रव्य और पर्याय दोनों को ले रहे हैं । पर्याय न हो तो स्वरूप का वर्णन व भगवद्भक्ति कैसे हो और द्रव्य न हो सो भी नहीं बनता। हां तो यह मैं आत्मा—यहां यह तो है अन्य पुरुष और मैं है उत्तम पुरुष। सो दुनिया में सबसे अच्छा उत्तम पुरुष ही है। आप किसी से कहो कि तुझे अन्य पुरुष बनाना चाहता हूँ, वह कभी भी अन्य पुरुष बनना नहीं चाहेगा, अन्य पुरुष माने है इधर-उधर के ऐरे गैरे और उत्तम पुरुष का अर्थ है मैं अपना सगा आप ही। जो निजी व्यक्ति है यह मैं ही हूँ। तो यह मैं, शब्द तीन लिंगों में चलता है, मैं जाती हूँ, मैं जाता हूँ। इस तरह यह मैं शब्द न स्त्रीलिंग हैं न पुरुष लिंग हैं और न नपुंसकलिंग है, यानी में शब्द किसी लिंग रूप नहीं। 202. खुद के लिये खुद उत्तम और प्रथम—देखो भैया ! जैन व्याकरण में तो रूप चलते हैं पहले उत्तम पुरुष से जैसे—अस्मि, स्व:, स्म: । असि, स्थ: स्थ । अस्ति स्त: संति । और अन्य व्याकरण में रूप चलते हैं अस्ति, स्त: संति आदि, अन्य पुरुष से प्रारंभ करके । जैन महर्षियों की प्रतिभा भी अनुपम होती थी क्योंकि उनका आशय और तप विशुद्ध था । व्याकरण जैसे क्लिष्ट ग्रंथ में भी जगह-जगह तत्त्व का रहस्य भरा हुआ है । इसी तरह अंग्रेजी में फर्स्ट परसन, सेकिंड परसन और थर्ड परसन हैं । फर्स्ट माने अव्वल । आपके लिये अव्वल आप हो, मेरे लिये अव्वल मैं हूँ । और तुम सैकिंड परसन हो; अर्थात् समझाने वाले जिसे समझाते हैं वह यदि समझने का पात्र है तो वह सेकिंड परसन है । कल्याणरत और प्रतिबोध्य दोनों के अतिरिक्त अन्य सभी थर्ड परसन हैं । इंगलिश भाषा में भी आई (I) किसी लिंग रूप नहीं है । हिंदी आदि सभी भाषाओं में मैं का लिंग नहीं हैं । तो यह आत्मा न स्त्रीलिंग है न पुरुष लिंग है और न नपुंसक लिंग है । इसी लिये अपने में कभी भी यह मत सोचो कि मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ आदि । जिसने ऐसा विचार किया सो उसी की हानि होगी, वही कल्याण मार्ग से च्युत हो जायगा, वह अपना कल्याण नहीं कर सकता है । अत: इन सब विकल्पों को छोड़कर विचारों कि मैं तो शुद्ध स्वरूप चैतन्यरूप हूँ मैं तो ध्रुव हूँ, मेरा आत्मा अचल है । सभी शास्त्रों का तात्पर्य वीतरागता है, उसकी सृष्टि अविकार निज स्वभाव के आश्रय से होती है, अविकार तत्त्व के आश्रय से अविकारी पर्याय प्रकट होती है । अपनी वर्तमान ज्ञानपर्याय का सहज ज्ञानस्वभाव के साथ एकत्व करो । जब द्रव्य पर्याय एकाकार हों वह स्वानुभव है, मोक्षमार्ग है । 203. शांति का उपाय निर्विकल्पता—भैया ! अभी तक हमारे जितने भी महापुरुष हुये हैं जिन्होंने अपनी आत्मा को समझकर निर्वाण प्राप्त किया है । वे हमारे लिये अरहंत अवस्था में निर्विकल्प वाणी द्वारा निर्विकल्प तत्त्व की लब्धि के लिये उपदेश दे गये हैं कि जिस तरह से हमने अपनी आत्मा का कल्याण किया है-हम सिद्ध बन रहे हैं, सो तुम इसी तरह अपने स्वसमय को पहचानो और अपनी आत्मा का उद्धार करो । राग द्वेष को छोड़ो, शुभ राग से शुभ बंध होता है और अशुभ राग से पाप का बंध होता है और तीसरी चीज है द्वेष; सो इसके आप दो भेद कर नहीं सकते हैं क्योंकि शुभ द्वेष और अशुभ द्वेष ऐसा बन नहीं सकता है । जिसे कदाचित् तानतून कर आप शुभ द्वेष कहेंगे वह शुभ राग में हो शामिल हो जायगा । सो द्वेष जो है उसमें पाप का ही बंध होता है । जब तक ये राग द्वेष रहेंगे तब तक अनुत्तम स्वसमय की प्राप्ति नहीं हो सकती । जीव में अनादि काल से परसमयता चली आ रही है । यह कोई ऐसी चीज नहीं है कि आजकल में नई व्यवस्था बन गई हो । जो पर में एकत्व से लीन हो सो तो है परसमय और जो स्व में एकत्व से लीन हो सो है स्वसमय । 204. हटने वालों में मोही का झुकाव—मनुष्य जिसमें परसमयता करता है, जिन्हें अपना मानता है वे उससे कोई भी संबंध रखना नहीं चाहते । मनुष्य घर में जाना चाहता है किंतु घर उससे दूर भाग रहा है । वह शरीर में जाना चाहता है किंतु शरीर उससे दूर भाग रहा है । आपका अर्थ यहाँ उस आप से है जो निज चतुष्टय से अभिन्न है । सो परख लो आपके आत्मा से परपदार्थ भाग रहे हैं आप जाना चाहते हो घर में किंतु आप जा नहीं सकते हो, वह आप से कोई संबंध नहीं रखना चाहता है । रागादि को उपयोग भूमि में न ले जाओ तो बंध नहीं होता है और रागादिकों को उपयोग भूमि में ले जाओ तो बंध होता है, यहाँ भी देख लो निज में भी पर है, वह भी भाग रहा है। उसमें एकत्व माना तो बंधते पर मोही जीव इन परपदार्थों से नहीं भाग सकता है, और न भागने की कोशिश ही करता है। यह ज्ञानी जीव अपने में रहने वाले परभाव से भागने की कोशिश कर रहा है। मोही जीव इन प्रकट विराने पदार्थों से भी तू नहीं भाग पाता है। भैया ! आत्मा का कल्याण करना है तो अपने समय को जानो और निज समय में रत हो जाओ, तभी कल्याण होगा, परम आनंद होगा । 205. दुःखों की बुनियाद मोह—यह जीव अनादि काल से इस संसार से भ्रमण कर रहा है और नाना प्रकार के जन्म मरण के दुःखों को भोग रहा है । इस अनंत संसार में भ्रमण करने का एक ही कारण है, वह है मिथ्यात्व । मिथ्यात्व होने का कारण है मोह, मोह के द्वारा इसे यह प्रतीति होती है कि ये दुनिया के पदार्थ सब मेरे हैं यह मैं हूँ । यह मेरे कुटुंब परिवार के लोग हैं । इसी प्रतीति के कारण इस जीव को इस संसार में भटकना पड़ता है । संसार से छूटने का मुख्य कारण है कि मैं चैतन्य मात्र हूँ, मेरा स्वभाव चैतन्य है, ये रागादिक पर्यायें तो मेरी हैं नहीं, मैं तो एक हूँ ऐसी प्रतीति । इन विचारों से विभावरूप परिणामों को दूर कर दे तो संसार से छूट गया और जिसके मन में विभावरूप विचार तथा विकल्प और परपदार्थों में एकता रही सो वही इस संसार में भटकता रहेगा । संसार में भटकने व न भटकने के ये दो ही उपाय हैं । रागादि विभावो में अहं अनुभव करो तो भटकना हो चैतन्य में अहं अनुभव हो तो भटकना बंद हो । भैया ! यह आत्मा तो कल्पवृक्ष है, इससे आप जो चाहेंगे आपको वही मिलेगा, आप चाहे दृष्टि के प्रसाद से अपने को शुद्ध बना लें चाहे इसी अपने को दृष्टि के प्रसाद से अशुद्ध बना लें । जिसे शरीर प्रियतम हो सो वह शरीर प्राप्त करता रहेगा और । जिसे सहज ज्ञान आनंद अच्छा लगे सो वह प्राप्त कर लेगा । भगवान ने तो हर तरह के उपाय बता दिये हैं, अब निर्णय आपके हाथ में है कि आपको क्या बनना है, तथा आपको क्या अच्छा लगता है । आपके सामने दो चीजें रखी जावें एक रत्न और दूसरा खली का टुकड़ा और कहो जो चाहो मुंह मांगा मिलेगा तो आप किसे प्राप्त करना चाहोगे? रत्न को । खली का टुकड़ा लेना कोई पसंद नहीं करेगा । इस तरह से शांति और आकुलता दोनों आपके सामने हैं और केवल भावों से ही जैसा भाव करो मिल जावेगा; तो आपको क्या करना चाहिये । आप विभावरूप संसार से उपेक्षा करो कि यह संसार तो असार है इसमें कोई भी मेरा रूप नहीं है तो आप संसारसागर से याने अशांति से छूट सकते हैं । और, आपने पुद्गल पर्यायों में एकता की तो आप संसार में ही पड़े रहो । 206. सम्यग्ज्ञानी ही महापुरुष—बहुत से मनुष्य अपने को धन संपत्ति के वैभव से बड़ा मानते हैं । कोई सड़क से जा रहा है और सामने से कोई धनी व्यक्ति आ जावे और वह उसको राम-राम, जै जिनेंद्र न बोल पावे अथवा उन्हें हाथ न जोड़ पावे तो उनका पारा गर्म हो जाता है, उन्हें एक दम क्रोध आ जाता है, क्योंकि वे अपने को बड़ा मानते हैं, वे कहते हैं विचारते हैं कि मैं तो इतना बड़ा आदमी और वह छोटा व्यक्ति मुझे नमस्कार भी नहीं करता । किंतु भैया ! छोटे बड़े का भेद धन से नहीं; लौकिक कार्यों से नहीं, किंतु जिसने अपनी आत्मा का स्वरूप पहिचान लिया है, वही बड़ा है । क्योंकि बड़ा उसे कहते हैं जिसे कुछ करना नहीं पड़े, जो कृतकृत्य हो गया है ऐसे तो भगवान सिद्ध हैं, फिर भी जिसने अपनी आत्मा को पहिचान लिया है उसे भी कुछ नहीं करना है क्योंकि उसने अपनी आत्मा का स्वरूप समझ लिया है अब जो ज्ञाता रहता है । जिसने अपने स्वरूप को नहीं पहिचाना है वही छोटा है, और जिसने अपने स्वरूप को पहिचान लिया है वह बड़ा है । छोटे बड़े धनादिक से नहीं होते, लोग तो जो छोटे आदमी हैं वे अपने स्वरूप को जान करके कल्याण कर जाते हैं और जो बड़े हैं वे बैठे ही रह जाते हैं, ऐसा भी हो सकता है । आप अपनी आत्मा को देखो ! अपने को कभी भी बड़ा मत समझो बाह्यवैभवों से । 207. तुम प्रभु हो जैसा चाहोगे वैसा मिलेगा—अपना निर्णय करो कि आपको क्या अच्छा रहता है । वही इस आत्मारूपी कल्पवृक्ष से माँग लो । इससे जो चाहोगे वही मिलेगा । एक पुरुष था, वह मार्ग में जा रहा था, चलते-चलते वह थक गया सो अपनी थकान मिटाने के लिये वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया । उसे पता नहीं कि यह कल्पवृक्ष है, गर्मी के कारण उसे पसीना आ रहा था । सो उसने कहा कि कहीं थोड़ी सी हवा चल जावे तो ठीक हो । उसका कहना था कि ठंडी-2 हवा चल उठी । अब उसने कहा क्या ही अच्छा हो कि थोड़ा सा ठंडा पानी पीने को मिल जावे । कहने की देर थी कि पानी आ गया । अब उसने कहा कि पानी पीना तो जब ठीक है जब कुछ पहिले खाने को मिले । खाना भी थाली में आ गया, अब वह आदमी बोला कि कुछ ऐसा तो नहीं है कि यहाँ भूत हो क्योंकि कोई दिखता नहीं है और चीज हाजिर हो जाती है । उसने भूत का नाम लिया और भूत भी सामने आ गया । उसे देख करके वह व्यक्ति बोला कि यह तो मुझे सता डालेगा । तब उस भूत ने उसे सता लिया । तो जैसे-2 विचार वह करता गया उस कल्पवृक्ष से पूरे होते गये । यह कथा कल्याण पत्र में छपी थी । इसी तरह यह हमारा आत्मारूपी कल्पवृक्ष है, इससे जो चाहोगे वही मिलेगा, निर्णय करना आपका काम है । 208. प्रशंसा के शब्दों से गाली व गाली के शब्दों से प्रशंसा—लोक में जो आपकी प्रशंसा करता है समझो वह हमारी निंदा करता है क्योंकि प्रशंसा के लायक हम हैं नहीं, सो वह धन वैभव रूप आदि की बात कहता है यानी गाली देता है कि तुम्हें परपदार्थ में मोह है । वास्तव में यह बात ठीक है कि जो प्रशंसा करता है वे सब हमारी निंदायें हैं । किसी ने कंजूसमल से कहा कि आइये कुवेर साहब ! तो उसे बुरा लगता है । क्यों? क्योंकि वह कंजूस है दान तो देता नहीं है फिर भी वह उसे कुवेर कहता है । कुछ इस प्रकार भी गाली बन जाती है । और जो लोक में आपकी यथार्थ प्रशंसा करता है या जो प्रशंसा के शब्द हैं उन्हें आप गालियां समझते हैं, किंतु यथार्थत: वे गालियां नहीं हैं उनके योग्य जो नहीं हैं सो वे उन्हें गालियां समझते हैं । आप ही बताओ कि गाली है कौनसी? जिसे आप गाली कहते हैं वे गाली नहीं है आप उनके अर्थ देखिये । आप से किसी ने कहा कि तू नंगा है, सो नग्न...... यानी परिग्रहरहित दिगंबर साधु । किसी ने कहा लुच्चा, सो जो अपने केशों का लुंच करे । याने साधु । लफंगा—लफ-अंग, लफ गये हैं अंग जिनके ऐसे नम्र व्यक्ति, पुंगासो पुंग कहते हैं श्रेष्ठ को यानी जो तीनों लोकों में श्रेष्ठ हो; ऐसे सिद्ध भगवान अरहंत भगवान । पट्ठा—पट्ट—प्रधान पुरुष । उचक्का—उचक्क ऊंचा पुरुष । पाजी-पा-पाप को जीतने वाला । निठल्ला निष्ठाल:—निष्ठा श्रद्धा को लाने वाला । घमंगा धर्मांग—धर्म ही जिसका शरीर है । जानवर—जान कहिये ज्ञान उसमें जो श्रेष्ठ हो । बुझक्कड़—बुद्धयाकर जो बुद्धि की खान हो अर्थात् बड़ा बुद्धिमान हो । कुलच्छी कुलं अच्छं-यस्य, जिसका अच्छा कुल हो आदि । आप जिन्हें गालियां समझते हैं वे प्रशंसापूर्ण शब्द हैं । किंतु ये गालियां कब से कहाने लगीं जब से प्राणी इन शब्दों के अर्थों के योग्य नहीं रहे और उनको ऊंची प्रशंसा के शब्द कहें तब से वे गालियां मानने लगे । प्रश्न—महाराज निपोरा का क्या अर्थ है?—निपोरा-पोर कहते हैं गांठ को, भाग को, खंड को यानी जिसमें गांठ नहीं है, कषाय नहीं है यानी कषाय से रहित व खंड रहित अखंड । तो इस प्रकार से आप जिन्हें गालियां समझते हैं वे यथार्थत: आपकी प्रशंसा सूचक शब्द हैं । किंतु जो व्यक्ति उस योग्य नहीं हैं वे उन्हें गालियां समझते हैं । जिसकी जैसी दृष्टि है अपने को वैसा मानता है । 209. जड़ की प्रशंसा में मोही की मुग्धता—प्रशंसा की बातें देखो—कोई कहे ये सेठ जी हैं इनके तीन लड़के हैं—एक बैरिस्टर है, एक उद्योगपति है, एक मिनिस्टर है । तो इसको सुनकर सेठजी फूल जाते हैं । यह नहीं सोचते कि उसने तो गालियां दी हैं कि लड़के तो होशियार हैं और ये सेठ जी कोरे मूर्ख हैं । मकान, धन आदि की प्रशंसा सुनकर भी फूल जाते हैं । वह भी निंदा है । इन सब लौकिक प्रशंसाओं में यह भी निंदा गर्भित है कि आत्मन् तेरा तो ध्रुव शुद्ध चैतन्यस्वरूप है तू जड़ में मोह करके जड़ बन रहा । आप आत्मा से जो भी चाहें सो ले लें । जैसे आपके सामने रत्न और खली का टुकड़ा ये दोनों चीजें रखी हैं यहाँ कोई कहे कि जो आपकी इच्छा हो सो ले लो तो आप जो चाहो सो वही आपको मिल जावेगा । इसी तरह आप मोक्ष और संसार जो चाहो सो मिल जावेगा । आत्मा ही उस रूप परिणमने वाला है । संसार से छूटना चाहते हो तो पहले राग, द्वेष में मोह को छोड़ो । अपने निज स्वरूप के सिवाय मेरा कुछ नहीं है, बाकी तो सभी नष्ट और नश्वर हैं, मेरा तो यही चैतन्यरूप आत्मा है । पर से हटकर निज स्वरूप का एकत्व अपने में रखो तो इस संसार से छूट जाओगे और राग, द्वेष मोह में एकत्व रखोगे तो संसार में ही पड़े रहोगे। 210-श्रद्धा से ही कर्म का अपूर्व परिवर्तन—संसार से छूटने के लिये सबसे पहले अपने में श्रद्धा करो । श्रद्धा बहुत बड़ी चीज है, यदि हमारे में श्रद्धा है, श्रद्धा से श्रद्धापूर्ण कार्य करते जावें और कुछ गलती भी हो जावे तो भी हमें पाप नहीं लगता । किंतु यहाँ पर याथात्म्य श्रद्धा है इसलिये तब जो भी राग रहता है उससे पुण्य का ही बंध होता है । जैसे किसी के भाव पूजन करने के हुये और वह भक्ति भाव से भगवान का पूजन करने गया किंतु वहाँ पर वह भूल वश दीप की जगह नैवेद्य और नैवेद्य के स्थान पर दीप चढ़ा देता है किंतु उसके हृदय से सच्ची श्रद्धा और भगवान के प्रति लगन है तो आप ही बतावें क्या उसे वहाँ पर पाप लगेगा या पुण्य बंध होगा? श्रद्धा के रहते हुये कोई गलती हो जाती है, कोई क्रिया कलाप में हेर फेर हो जाता है तो भी उसे पुण्य उसी तरह का बंधता है । 211-लाभ का मूल श्रद्धा—भैया ! आप लोग ज्यादह हंसों नहीं तो एक कथा सुनावें । एक भोला पटेल (मुखिया) रास्ते में जा रहा था । सामने से बगल में पोथी पत्रा तथा हाथ में डंडा लिये हुये एक पंडाजी आ रहे थे । पंडाजी को देखकर पटेल ने नमस्कार किया और बोला कि पंडाजी ! कहां को जा रहे हो । तब पंडा जी बोले कि भाई रामचरित्तर पढ़ने जा रहा हूँ । मुखिया ने पूछा—रामचरित्तर क्या है? तब पंडा जी बोले कि भाई इसमें राम का वर्णन है कि कैसे वे बालक रहे, फिर कैसे युवक हुये, कैसे वन में गये, कैसे रावण सीता को हर ले गया और किस तरह से रावण मरा आदि, सभी वर्णन इसमें है । इसके सुनने से बहुत ही पुण्य का बंध होता है । तब मुखिया बोला कि महाराज एक दिन हमारे यहाँ भी रामचरित्तर बांच देना । पंडा बोला ठीक है इतवार के दिन बांच देंगे । मुखिया ने पूछा क्या-2 करना होगा? पंडा ने कहा कि दो तीन हाथ जमीन लीप देना और सबको बुलावा दे देना । सो मुखिया ने ऐसा ही किया । जब पंडा जी आये तो वे सभी सामग्री रखाकर पूजा के लिये बैठे और मुखिया से बोले कि देखो हम जो कहें, सो तुम कहना और जैसा हम करें सो वैसा ही तुम करना । मुखिया ने कहा ठीक है । वह बड़ी श्रद्धा और भक्ति से बैठा और पंडा जी जैसा बोले और करें सो वह भी कहता व करता गया । क्योंकि उसे श्रद्धा थी और वह सोचता था कि कहीं मैं भूल न जाऊं, नहीं तो सारा रामचरित्तर बेकार हो जायगा । सो जैसा पंडा जी करते गये वह भी ठीक उसी तरह करता गया । इधर अब एक मंत्र जल चढ़ाने का कुछ बड़ा आया । सो पंडाजी ने सोचा कि अभी तो जल चढ़ाना नहीं है कुछ देर बाद ही चढ़ाना पड़ेगा तो इससे कह दूं कि जल ले और मैं मंत्र बोलने के बाद ले लूंगा । सो पंडा जी मुखिया से बोले कि जल ले । सो मुखिया भी बोला कि जल ले । तब पंडा जी बोले—अरे जल नहीं लिया जल्दी से ले । तब वह भी बोला अरे जल नहीं लिया जल्दी से ले । बस इतने पर पंडा जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने दो तमाचे उसको लगा दिये । मुखिया यह सोचकर कि कहीं कोई कसर न रह जाय नहीं तो मेरा सारा रामचरित्तर बेकार हो जाय सो उसने भी ठीक उसी तरह के, न ज्यादा जोर से और न धीरे से, किंतु जैसे उसे लगाये थे उसी तरह के उसने भी दो तमाचे पंडा जी को बड़ी श्रद्धापूर्वक भक्ति भाव से लगा दिये । तब पंडा जी अपनी चौकी पर से उठ गये और उठकर उस मुखिया को दो तीन मुक्के लगा दिये । सो मुखिया भी ठीक उसी तरह के पंडाजी के लगाता जाता था क्योंकि वह सोचता था कि इसी तरह रामचरित्तर होता होगा । इसी तरह होते-2 वे 20-25 गज की दूरी तक बढ़ते चले गये । जब वे इतने आगे बढ़ गये तो पटेलिनी बड़े जोरों से रोने लगी । तब गांव की सभी स्त्रियों ने उससे कहा कि तुम्हारे घर तो रामचरित्तर हो रहा है तुम क्यों रोती हो? तब उसने कहा कि जनम करम में तो हमारे घर में रामचरित्तर हो रहा है और यह भी बिना लिपे में । मुझे क्या मालुम था कि इतने मैदान में रामचरित्तर होगा, नहीं तो मैं उतना ही लीप डालती । सो यहाँ पर उसे भी श्रद्धा है और मुखिया को भी पूरी श्रद्धा है और सुनने वालों को भी श्रद्धा थी । वे सब भक्ति भाव से देख रहे थे । श्री राम भगवान की श्रद्धा से वे पुण्य बांध रहे थे । जब पंडा जी कुछ थक गये तो वे लौटकर अपनी चौकी पर आ बैठे । मुखिया भी अपनी चौकी पर बैठ गया और पंडा जी की तारीफ करने लगा कि आपको तथा आपकी शक्ति को धन्य है कि आप रोजाना इसी तरह रामचरित्तर सुनाते हो और थकते नहीं किंतु पंडा जी मन ही मन कुढ़ रहे थे । मुखिया बोला एक दिन और हमारे यहाँ रामचरित्तर पढ़ देना, तब पंडाजी बोले कि ठीक हो जाऊंगा तब सुनाऊंगा । तो कहने का मतलब है कि उन दोनों को मुखिया और उसकी स्त्री को, उसमें पूर्ण श्रद्धा थी, भक्ति थी और देखने वालों को भी श्रद्धा थी, श्रद्धा के कारण उन सबने पुण्य बंध किया । कहने का तात्पर्य है कि बशर्ते श्रद्धा और भक्ति के रहने पर क्रिया कलाप में थोड़ीसी गलती भी हो जाय तो पुण्य का बंध होगा । भैया आप लोगो से इतनी बड़ी गलती नहीं होगी । आत्मश्रद्धा दृढ़ करो यह कल्याण बीज है सो यहाँ पर श्री परमपूज्य आचार्य सूरी जी संकेत करते हैं कि यदि तुम संसार से छूटना चाहते हो तो अपनी आत्मा के स्वरूप का विचार करो । मैं ध्रुव हूँ सहज शुद्धस्वरूप हूँ, चैतन्यमात्र हूँ, अहेतुक हूँ, बस इतनी सी दवा है । इस दवा को जिसने पिया सो उसका रोग दूर हो गया (यानी वह संसार से छूट जायगा) । परसमय से अलग होने पर ही आत्मा का कल्याण होगा । 212-धर्ममार्ग में प्राथमिक आवश्यक सदाचार—सबसे पहिले स्वतत्त्व के श्रवण मनन के लिये सदाचार की पात्रता होना तो बहुत जरूरी है । जैन धर्म में पहले अष्टमूल गुण बताये हैं । यदि पूर्णरूपेण मनुष्य अच्छी तरह से उन्हीं अष्टमूल गुणों का पालन करे तो उसका कल्याण संभावित है । वे अष्टमूलगुण हैं—मद्य मांस, मधु इनका त्याग व पंच उदंबर का त्याग । सो जैनियों में प्राय: करके इनको कोई नहीं खाता है और कोई दुबके छिपे खाता भी हो तो उसको वही जाने । जीव दया का पालन करना—सो भैया ! देखो जब तक जो पुरुष मुलायम बढ़िया से बढ़िया चमड़े का उपयोग करते हैं तब तक जीव दया के पालक कभी हो ही नहीं सकते हैं । 213-चमड़े का उपयोग अहिंसा का बाधक—भैया ! आपको मालुम है कि यह चमड़ा कैसे बनाया जाता है । घटनास्थल के दर्शी ने सारा हाल हमें बताया है । गर्भवती गाय को एक कठघरे में ले जाया जाता है वहाँ पर धीमी-2 मार के द्वारा उसका गर्भ गिरा दिया जाता है, और फिर उस बछड़े के ऊपर गर्म पानी छोड़ा जाता है जिससे उसका चमड़ा फूल जाय और फिर उसको पतले-पतले बेंतों द्वारा धीमी-धीमी मार दी जाती है जिससे वह चमड़ा और भी अधिक फूल जाय और इस तरह कुछ ही देर में वह बछड़ा मर जाता है । बाद में उसको चीर करके उसका चमड़ा उतार लिया जाता है । वह लैदर क्रूम के नाम से प्रसिद्ध है जिसे कि शौकीन लोग उपयोग में लाते हैं । भैया हिंसा तो सभी चमड़ों में है । इसलिये आप लोगों को चाहिये कि जो वस्तुयें चमड़े के अतिरिक्त भी मिल सकती हैं वे चीजें चमड़े की उपयोग में न ली जावें जैसे संदूक, मनीबेग आदि चमड़े के सिवाय अन्य चीजों के भी बनते हैं सो उन्हें ही उपयोग में लेना चाहिये । चमड़े को उपयोग में न लें। 214-अभक्ष्य त्याग का भी अनुक्रम—इसी तरह गोभी का फूल जो खाते हो उन्हें उसे छोड़ देना चाहिये क्योंकि गोभी के फूल में अनेक त्रसजीव रहते हैं और त्रसजीवों का कलेवर ही मांस माना गया है । सो जो गोभी को खाता है वह मांस भक्षण से नहीं बचता । आलू 2-3 बोरी भी हों, किंतु गोभी का फूल एक, उसके खाने में उसके बराबर क्या ज्यादह पाप है । इसका यह मतलब नहीं कि हम आलू खाने को प्रेरित करते हों। आलू आदि में अनंत स्थावर जीवों की हिंसा है। आलू त्यागी नहीं खाते फिर भी त्यागी के चौके में पहुंच जाय तो वह चौका बिगड़ता नहीं है किंतु गोभी का फूल यदि चौके में पहुंच जायतो वह चौका त्यागी के लायक नहीं रह जाता है । इसलिये गोभी का त्याग जरूर रखना चाहिये । पानी छानकर पीना चाहिये, रात्रि भोजन का भी त्याग करना चाहिये क्योंकि रात्रि में चूल्हा जलाने से अनेक त्रसजीवों का घात होता है तथा आपकी लोलुपता भी बढ़ती है । इसलिये रात्रि भोजन भी नहीं करना चाहिये । इन सभी बातों को त्याग करके ऐसा उपाय करो जिससे कि हमेशा ही धर्म का समागम मिलता रहे, क्योंकि धर्म से ही कल्याण होगा। 215-धर्म मार्ग में चलने को पहिला सदाचार—मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्य इन तीनों का ही त्याग हो जावे तो सदाचार बन जावेगा । बुद्धिपूर्वक मिथ्यात्व तो अभी छोड़ सकते—कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु को नहीं मानना, लौकिक इच्छा से देव गुरु को नहीं पूजना । जो अपने को बुरा लगे वह दूसरे पर प्रयोग नहीं करना अन्याय का त्याग है । जब से छल, विश्वासघात की वृत्ति हुई तभी से इज्जत भी गई । पहिले समय में खजांची दीवान आदि पद पर राजा लोग प्राय: जैन को ही रखते थे । व्यवसाय में, व्यवहार में सच्चाई ही रहे तो आपका उद्धार न रुकेगा; लोगों में प्रतीति बढ़ने से आपका व्यवसाय भी अच्छा चलेगा । अस्तु, बाह्य सदाचार पालन करते हुए आत्मज्ञान की भावना के अर्थ यत्नशील रहो, इस ही का प्रोग्राम बनाओ जब वर्तमान ज्ञानपर्याय स्वभाव में एकत्व कर लेती है तब विपदा का विकल्प का प्रवेश नहीं होता । इसके अर्थ अपना यही नारा रखो कि मैं रागादि विभाव से विभक्त ध्रुव चैतन्यमात्र हूँ । 216-परसमयता यानी बेहोशी—आत्मा का अवस्थाओं का वर्णन यहाँ चल रहा है, जिसमें से स्वसमय का वर्णन हो चुका था; अब 2-3 दिन से परसमय का वर्णन चल रहा है । यह जीव मोह के वशीभूत होकर अनित्य पदार्थों को नित्य, अहित पदार्थों को इष्ट, दुःख को सुख तथा अपने से भिन्न स्त्री पुत्र मित्रादिक बाह्य पदार्थों को अपना मान रहा है । मन के विकल्प, वचन और देह में आत्मा आत्मबुद्धि कर रहा है, यह उन्हीं में एकत्व बुद्धि किये हुये हैं । इसी का नाम परसमयता है । इस परसमयता में जीव स्वात्मज्ञान से विमुख होकर पर-पदार्थों में प्रवृत्ति करने का भाव रखता रहता है । किसी ने प्रश्न किया कि यह परसमयता आई कहां से? उसके लिये कहते हैं कि अनादिकाल से चली आने वाली जो अविद्या उससे उत्पन्न जो मोह है उस मोह की वृत्ति के अधीन होने से, विभावों का एकत्व बुद्धि के कारण उत्पन्न यह परसमयता है । यह परसमयता जीव के साथ अनादि काल से चली आ रही है । जिस प्रकार बीज और वृक्ष संतति रूप से अनादिकाल से है उसी तरह से यह परसमयता है । कोई ही बिरला जीव ऐसा है जो आंशिक स्वसमयता के बाद परसमय हुआ है । इसी परसमयता (मोह) के कारण जीव स्त्री, पुत्र आदिक में परतंत्र रूप विकल्पों की परतंत्रता से व्याप्त है । इसी का नाम मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व के कारण यह जीव अपने हिताहित के विवेक से शून्य है, स्त्री, पुत्र, धन आदिक बाह्य पदार्थों में यह मेरा है, ये मेरे भोग्य है, मैं इनका स्वामी हूँ । इस तरह की अहंबुद्धि बनाये हुये हैं । यदि यह जीव स्वात्मज्ञान की ओर प्रवृत्ति कर ले, उसे पहचान ले तो इसका भला हो जावे । स्वात्मज्ञान कहते हैं एक ज्ञान दर्शन लक्षण वाला, ज्ञाता, दृष्टा, अविनाशी आत्मा ही मैं हूँ, वह सहज भाव मेरा है और शेष संपूर्ण वैभाविक भाव मेरे से परे(भिन्न) हैं, ऐसे प्रत्यय को स्वात्मज्ञान कहते हैं । 217-मिथ्या बुद्धि में निरंतर अहित—स्वात्म-ज्ञान के अभाव में मिथ्या-दृष्टि जीव विषयों का आसक्तिपूर्वक सेवन करने से अनंत संसार के कारण मिथ्यात्वादि कर्मों का प्रतिसमय बंध करता रहता है । कोई-2 सम्यग्दृष्टि जीव भी चारित्र मोह के तीव्रोदय से विषयों का सेवन करते हैं किंतु विषयों का सेवन करने पर भी उनमें किसी अपेक्षा से अबंद्धकता कही है यानी वे कर्मों का बंध नहीं करते हैं क्योंकि वे भोगों को सेवते हुये भी उनमें आसक्त नहीं, लिप्त नहीं है, जैसे बच्चे का पालन करने वाली धाय बच्चे में आसक्त नहीं होती । जैसे कमलिनी पत्र व कमल पानी में पैदा होता है किंतु उसमें लिप्त नहीं होती है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि भोगों का सेवन करता है परंतु भोग की अंतरंग से इच्छा न होने से भोग संबंधी कर्मों का बंध करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि वह विषयों का सेवन करना नहीं चाहता है किंतु चारित्रमोह के तीव्र उदय के वेग से उसे जबरन उनका भोग करना पड़ता है । इसलिये अनिच्छा के कारण विषयों का सेवन करने से वे भोग नहीं करने वालों के सदृश कहे जाते हैं । उन्हें अनंतानुबंधी बंध नहीं होता है । जिस अविद्या से बंध होता है उस अविद्या का नाश करना ही श्रेयस्कर हैं, क्योंकि इन परवस्तुओं से, इन जड़ पदार्थों से, आनंद की प्राप्ति नहीं होती है, आनंद की प्राप्ति तो ज्ञान से होती है । आनंद से ही कर्म कटते है; कर्मों की निर्जरा होती है, दु:खों से कर्मों की निर्जरा नहीं होती और न कर्म कटते हैं । इसलिये स्वानुभव द्वारा आत्मीय आनंद को प्राप्त करना चाहिए । 218-आनंद को उपाय की अति सरलता—जो सब पदार्थों से भिन्न है, एक-स्वरूप है, ऐसे उस अविचल स्वभाव का ज्ञान हो जाना ही आनंद है । जब जीव को इनका भास (ज्ञान) हो जाता है तभी आनंद प्राप्त हो जाता है और कर्मों की निर्जरा भी हो जाती हे । साधु तथा योगी पुरुष जो तपस्या करते हैं वे आनंद के लिये ही करते हैं उससे उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है और वह आनंद अपूर्व है । जिस समय मुनिराज अपनी आत्मा के ध्यान में लीन होते हैं उस समय उन्हें जो आनंद प्राप्त होता है वह आनंद इंद्र, नागेंद्रों को भी प्राप्त नहीं है । किंतु कोई-2 लोग उस तपस्या को क्लेश कहते हैं सो यह उनकी अज्ञानता है । मोही जीव ही संवर भावों में क्लेश मान सकते हैं, क्योंकि वे बाह्य पदार्थों में मोह बुद्धि करते हैं । वे जिन धन, वैभव आदि में मोहबुद्धि करते हैं सो वे सब आकुलता के ही कारण हैं, वे निराकुलता के कारण तो कभी बन ही नहीं सकते हैं । कोई जीव सोचता है कि हमारे पास खूब धन हो जाता जिससे हम एक दो नौकर रख लते, और हमें आजीविका की कोई चिंता न रहती; तब हम धर्म निश्चिंतता से करते । किंतु ऐसा सोचना उनका सोचना मात्र ही है । मोही जीव में यह योग्यता ही नहीं है कि वह धर्म में, धार्मिक कार्यों में अपना उपयोग लगा सके। 219-परिग्रह का व्यामोह घोर अंधकार—मोही सोचता है कि ये जगत के जितने भी पदार्थ हैं वे सब मेरे हित हैं, ऐसा विचारना उसका कोरा भ्रम है, क्योंकि उसका जो कुछ है सो उसके पास है और जो उसका नहीं है सो त्रिकाल में भी उसका हो नहीं सकता है । अनादिकालीन जो अविद्या इस जीव के साथ लगी उसके कारण इसे अपने स्वरूप का परिचय नहीं हो पाता है और जब तक स्वरूप का परिचय नहीं हुआ तब तक उसके अज्ञान रहता है । सो जहाँ अज्ञान है वहाँ ज्ञान नहीं, जहाँ ज्ञान है वहाँ अज्ञान नहीं । जहाँ प्रकाश होता है वहाँ अंधकार नहीं होता और जहाँ अंधकार होता है वहाँ प्रकाश नहीं होता है । 220-स्थूल दृष्टि से भी बाह्य संसर्ग की दु:खरूपता—देखो सबमें सबसे बड़ा मोह है तो पुत्र का है ।देखो भैया ! यह पुत्र शुरु से लेकर अंत तक कितना दुःखदायी है । निमित्त दृष्टि से ही बात देखना वस्तुत: तो कोई किसी का न सुधारक है और न कोई किसी का विराधक है । देखो जब पुत्र गर्भ में आता है, तो आपकी पत्नी का रूप बिगाड़ देता है, उसका चेहरा पीला पड़ जाता है, कमजोरी आ जाती है, तथा आपको जो सुख मिलता था वह सुख भी छिन जाता है, और जब प्रसव समय पास में आता है तो आपको यह चिंता लग जाती है कि प्रसव अच्छा हो जावे, किसी तरह का बिगाड़ पैदा न हो जाये नहीं तो स्त्री और पुत्र दोनों मर जावें—ऐसी स्थिति का संदेह रहता है । उस वृद्ध गर्भ की अवस्था में आपका पूजन पाठ सभी छूट जाते हैं क्योंकि यहाँ चिंता और ही लगी है और जब वह पैदा हो गया तो उसकी सेवा सुश्रूषा में ही समय बीतने लगता है । जब वह कुछ बड़ा होता है, खाने पीने लगता है तो अगर आप कोई चीज बाजार से लाये तो कहते हो कि हम नहीं खायेंगे लड़के को ही खिला देंगे । यानी अच्छी2 चीज उसे खिलाना और बची खुची वस्तु खुद खाना । जब वह और बड़ा होता है तो बड़े यत्न से बड़ी कठिनाइयों से पढ़ाते लिखाते हो और उसके बाद उसकी शादी कर देते हो । शादी होने के बाद वह स्त्री के प्रेम में अपने माता पिता को भूल जाता है और जब कभी अगर सास बहू में लड़ाई झगड़ा हुआ तो लड़का माता की ही गलती बताता है, माता को ही बुरा कहता है । इस तरह पुत्र से कितने दु:खी हैं और आगे के भी दुःख देख लो । यदि लड़का कुपूत निकल गया तो भी दुःख है, किंतु कुपूत से तो आप किसी तरह से अपना पीछा भी छुड़ा सकते हो लेकिन उससे अधिक सुपूत से दुःख है । उसके मोह में आप जीवन भर लद-लद कर उसे खूब धनी, आरामी बनाने का यत्न करते हो । आपका लड़का बैरिस्टर या अन्य कोई नेता अथवा पदाधिकारी हो गया तो उसकी तो सब प्रशंसा करते हैं और आपको कोई नहीं पूछता है । इसका तात्पर्य कि आपको लोग मूर्ख समझते हैं । इस तरह पुत्र से शुरु से अंत तक कितने दुःख हैं और यह मोही जीव सबसे अधिक उसी के ऊपर मोह करता है । वस्तुत: सबकी जड़ निज परभाव में एकता है ।इस परसमयता को छोड़कर (मोह आदि को त्याग कर) उस स्वरूप को जानने का प्रयत्न करो जो सम्यग्दर्शन का कारण है । सम्यग्दर्शन के द्वारा आत्मा का कल्याण निश्चित है । क्षायिक सम्यक्त्व तो मोक्ष का निरंतराय कारण होता है । 221-अहेतुक निजस्वभाव दृष्टि का प्रसाद—क्षायिक सम्यग्दर्शन होने के समय केवली श्रुतकेवली के पाद मूल निमित्त नहीं है, वह तो अनैमित्तिक परिणति है किंतु क्षायिक सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव से पहिले जो शुभ विकल्प अवश्यंभावी है उसके निमित्त केवली श्रुत केवली है । ये ही सबसे बड़े हैं । क्योंकि बड़ा उसी को कहते हैं जिसे कोई काम करना बाकी नहीं रहा है, मानो जो कृतकृत्य हो गया है । लोक में जो अपने को बड़ा कहते हैं ये तो उनकी महती भूल है । धनादिक से छोटे बड़े का भेद नहीं होता है । वास्तव में बड़ा तो वह है जिसने अपने स्वरूप को जान लिया है, अपने स्वरूप का परिचय प्राप्त कर लिया है । जिसे स्वरूप का परिचय नहीं मिला है, जिसे यह भान नहीं हुआ है कि वास्तव में मेरा क्या स्वरूप है, वह छोटा है चाहे वह कितना ही धनी वैभव-युक्त क्यों न हो । इसलिये अपने को चाहिये कि अपने आत्मस्वरूप को पहिचाने, अपनी आत्मा को पहिले पवित्र करे । उसके बाद तुम्हें जगत दिखेगा तो इस तरह कि तुम्हें संक्लेश न होगा, क्योंकि जिसकी आत्मा जैसी होती है अति विरुद्धता के अभाव में वह दूसरों को भी वैसा ही जानता है । जिसके हृदय में ईमानदारी होगी उसकी भावनायें पवित्र होंगी तो दूसरों के अंदर कभी भी बेईमानी के भाव नहीं सोचेगा । वह तो सभी को ईमानदार और पवित्र समझेगा और जो घमंडी होता है वह हर एक व्यक्ति को घमंडी ही समझता है, जो सुखी होता है वह हर एक को सुखी समझता है । गुण परिचयी को सर्वत्र गुण दिखेगा फिर बुरा लगने का कारण नहीं मिलेगा । एक नाई था, उसके यहाँ 4-5 भैंसे थीं, तथा 1-2 गायें भी । वह खूब आराम से रहता था । एक दिन वही नाई राजा के बाल बनाने आया । राजा ने उस नाई से पूछा कि कहो राज्य में तो कोई गड़बड़ नहीं है, सब प्रजा सुखी है या नहीं? तब नाई बोला कि हे महाराज आपके राज्य में सारी प्रजा सुखी है किसी तरह का दुःख नहीं है । राजा ने बातों-बातों में उसके घर का सारा भेद जान लिया और जब नाई घर चला गया तब मंत्री से राजा ने कहा कि देखो उस नाई पर कोई दोष (कसूर) लगा करके उसकी भैंसें और गायें छीन लो । सो मंत्री ने वैसा ही किया । इसके कुछ दिनों बाद वही नाई राजा के बाल बनाने को आया । सो राजा ने फिर पूछा कि कहो राज्य में प्रजा तो सुखी है, कोई कष्ट तो नहीं? तब वह नाई बोला—महाराज ! काहे के सुखी हैं, दूध घी के तो दर्शन ही नहीं होते हैं । 222-गुणचिंतन से अपने गुण सुरक्षित करो—कहने का मतलब यह है कि जो जैसा होता है व दूसरे को भी वैसा ही देखता है । लोगों को दुःख दूसरे की बुराइयां देखने से अधिक बढ़ता है । सो भैया ! गुण चिंतन से अपनी आत्मा को पवित्र करो । देखो ! पूज्य दयालु भगवान कुंदकुंद प्रभु तुम्हें बार-बार समझा रहे हैं, बार-बार संबोधन कर रहे हैं कि तुम गलतियां मत करो; किंतु कोई ऐसे सुभट हैं कि कहने पर भी गलतियां कर रहे हैं । निज आत्मा का अन्य समस्त चेतन और सर्व अचेतन पदार्थों में अत्यंताभाव है, किसी परमाणुमात्र के साथ भी परमाणुमात्र भी संबंध नहीं, फिर भी कोई मोह भाव करे तो यह ऊधम नहीं है तो और क्या है? अनादि से ऊधम ही मचाते तो जीव चले आ रहे हैं । अब कुछ सयानापन भी तो करो । आप कहते हो कि भैया ! मैं तेरे ऊपर सबसे ज्यादा प्रेम करता हूँ सो यह तो आप सरासर झूठ बोलते हो । क्योंकि आप ही बताओ कि आपकी प्रेम पर्याय आपके क्षेत्र में होती है या आपके क्षेत्र से बाहर? यदि क्षेत्र के बाहर नहीं होती तो वह हम तक कैसे आवेगी? इसलिये ऐसे झूठ को त्याग करके सत्य समझो कि मेरा प्रेम मेरे ऊपर है, मेरा राग मेरे ऊपर है, इस तरह सब कुछ अपने में देखो, पर में कुछ मत देखो क्योंकि स्वाश्रित दृष्टि करने में स्वभावदृष्टि का अवसर मिलेगा । स्वभावदृष्टि ही सुख का कारण है और यदि तुम समस्त बाह्य पदार्थों को देखना चाहते हो, तो प्रत्येक अद्वैतबुद्धि से देखो । प्रत्येक अद्वैतबुद्धि से देखने पर सब समझ में आ जायेगा, प्रत्येक अद्वैतबुद्धि से देखने पर वही सम्यग्दर्शन का कारण बन जाते हैं । भूतार्थनय से तत्वों को जानो तो सम्यक्त्व के कारण हैं यह भूतार्थनय पहिले इस ही प्रत्येक-अद्वैतबुद्धि का संकेत करता है । आस्रव को जानो परंतु आस्रव द्रव्य है या पर्याय? पर्याय है । यह पर्याय कहां से प्रकट हुई, कार्मण वर्गणारूप परमाणुओं से प्रकट हुई । आत्मा का विभावरूप आस्रव आत्मा से प्रकट हुआ । जो पर्याय जहाँ से प्रकट हुआ उसको उसमें देखो । यह बुद्धि स्वतंत्रता की नजर करावेगी फिर विकल्प तुरंत ठहरेंगे नहीं । 223-आत्म-स्वभाव की भवरहितता—हमेशा ऐसा प्रयत्न करो या करते रहना चाहिये जिससे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो स्थिरता हो । सम्यक्त्व से हमारा कल्याण होगा यही भावना, सत्य प्रतीति, निशिदिन रखना चाहिये । ये मनुष्य भव के सुंदर क्षण हैं इनका सदुपयोग करलो जिससे फिर कोई भव ही धारण न करना पड़े । आत्मस्वभाव को देखो वहाँ कोई भव नहीं है, आत्मस्वभाव को देखो वहाँ कोई विकल्प नहीं हैं । निज घर में तो अनुपम वैभव है । उसे भूलकर पर में मित्रता करना भूल है । अपने में उठने वाले विकल्पभावों से भी उपेक्षा करो, निज ध्रुव स्वभाव को ही देखो अन्यथा दु:ख की परंपरा आपको बरबाद करती रहेगी । जीव सुख चाहते हैं, दु:ख से डरते हैं । सो आचार्य महाराज ने देखो सुख-स्वरूप स्वसमय और दु:खस्वरूप हर समय के वर्णन द्वारा आपको समय का उपदेश दिया है । 224-समय के ज्ञान बिना परसमय को स्पष्ट सद्बोध का अभाव—परसमय का वर्णन करते हुये पूज्य आचार्य महाराज कहते हैं कि परसमय उस अवस्था का नाम है जिसमें संसारी जीव परपदार्थ में मोह बुद्धि से एकमेक होकर रह रहा है । वह समय का स्वरूप नहीं है । इसलिये इनसे छूटने के लिये हमें स्व-परपदार्थों के स्वरूप का अवलोकन करना होगा । साथ-2 हमें अपनी आत्मा को अहेतुक रूप अथवा अहेतुक दृष्टि से देखना होगा क्योंकि हम जिस दृष्टि से आत्मा को देखेंगे उसी तरह से हमारी आत्मा हो जावेगी । आत्मा एक कल्पवृक्ष है उससे आप जो मांगेंगे जैसा बनना चाहोगे वैसा ही बन सकते हो । जैसी दृष्टि वैसी ही सृष्टि है । यह कथन असत्य नहीं है । आत्मा ही निज का सृष्टिकर्त्ता है । सो उसे आप जिस दृष्टि से देखेंगे उसके अनुरूप सृष्टि होगी; आप उसे अहेतुक की दृष्टि से देखेंगे तो आत्मा अहेतुक पर्यायरूप या स्वसमयरूप । 481-द्रव्य की छह गुणों से संयुक्तता—द्रव्य अनंतानंत है । उन सबमें छह गुण पाये जाते हैं । जो द्रव्य हैं, उनके लिये छह गुण आवश्यक हैं । जिसमें छह गुण नहीं, वह द्रव्य नहीं । 1. अस्तित्व, 2. वस्तुत्व, 3. द्रव्यत्व, 4. अगुरुलघुत्व व 5. प्रदेशवत्व 6. प्रमेयत्व ये द्रव्य के छह आवश्यक गुण हैं । अस्तित्व:—सभी द्रव्यों में अस्तित्व गुण पाया जाता है । जो अस्ति होना है । उसमें वस्तुत्व भी होता है । इसके कारण वह वही है और कोई चीज नहीं है । वस्तुत्व गुण के प्रताप से वस्तु अपने चतुष्टय से है, पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से नहीं है । तीसरा गुण द्रव्यत्व यह बताता है कि चीज परिणमी थी, आगे भी परिणमेगी, और निरंतर परिणम रही है । परिणमनशून्य वस्तु कभी रह ही नहीं सकती । चौथा गुण अगुरुलघुत्व:—जब एक पर्याय से दूसरी पर्याय रूप बदलती है—वहॉ यह बदल सीमारहित नहीं हो जावे, आत्मा से पुद्गल नहीं बने यह अगुरुलघुत्व गुण ही तो है । इससे एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं होता यह भी व्यवस्था है । पाँचवाँ गुण प्रदेशवत्व—यह गुण बताता है कि सब द्रव्यों में प्रदेश है । छठा गुण प्रमेयत्व यह गुण बताता है कि तुम हो तो जानने में आ सकते हो या तुम जानने में आ सकते हो तो तुम हो चीज तो भगवान के केवल ज्ञान में अवश्य आयेगी । ऊपर कही गई ये छह चीजें सभी द्रव्यों में पाई जाती है । पदार्थ में इन छह गुणों के बिना काम नहीं चलता । इनके बिना द्रव्य टिक ही नहीं सकता, इनसे बिना द्रव्य है ही नहीं । 482-द्रव्य में असाधारणता—यहाँ शंका हो सकती है कि इन छह गुणों की अपेक्षा से सब द्रव्य समान कहलाने लगेंगे ? समाधान—इन गुणों की अपेक्षा से सब द्रव्य समान है यह सही है फिर भी केवल साधारण ही गुण तो द्रव्य में नहीं हैं असाधारण गुण भी होते हैं । पहले द्रव्य के दो भेद करो—1. चेतन 2. अचेतन । जो समझे याने जो जान सकता है, वह चेतन है । चेतन की दृष्टि से सब द्रव्य समान हैं । चेतन द्रव्य के दो भेद हैं—1. भव्य और 2. अभव्य । भव्य के तो धर्मपरिणाम हो सकते हैं, धर्म के यदि परिणाम हो जायें तो कल्याण हो जाये । अभव्य के धर्मपरिणाम कभी नहीं हो सकते तो उसे अच्छी बात बताई जाये, वह बुरी लगती है । अभव्य को कभी मुक्ति प्राप्त हो ही नहीं सकती । अभव्य कहने से मनुष्य को गाली-सी प्रतीत होती है । कोई किसी के भाग्य को बना-बिगाड़ नहीं सकता है । जिसका भाग्य अच्छा है, उसको यत्न करने पर फल प्राप्त होने से नहीं रोका जा सकता है । दो पुरुष थे । उनमें विवाद था—एक कहता भाग्य अच्छा हो तो फल प्राप्ति अपने आप ही हो जावे । एक कहता बिना पुरुषार्थ के भाग्य कुछ कर ही नहीं सकता । इस प्रकार उनमें झगड़ा हो गया । उनको जेलखाने में कैद कर दिया गया । दोनों को लगी भूख । जो पुरुषार्थ पक्ष का था उसने कुछ भोजन खोजना प्रारंभ किया । उसे दो लड्डू मिले, वह बड़ा प्रसन्न हुआ और भाग्य वाले को चिढ़ाने लगा । बाद में उसने एक लड्डू स्वयं खाया दूसरा दूसरे को दे दिया । भाग्य वाला बोला, देखो तुमने परिश्रम करके पाया तो क्या पाया, हमने तो बिना परिश्रम किये ही पा लिया । अत: है न भाग्य बड़ा? इस प्रकार यदि किसी का भाग्य अच्छा है, उसे फल प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता । यदि किसी का भाग्य खराब है, उसे कोई अच्छा नहीं बना सकता । 483-हम जिंदा क्यों?—जिंदा हम इसलिये हैं कि हम ऐसी करतूत करले कि फिर हमें दूसरा जन्म न लेना पड़े। मोह छोड़ने से हमें जन्म नहीं लेना पड़ेगा । मोह को दूर करने के लिये खूब ज्ञान प्राप्त करो । जितना तुम जानते हो, उससे अधिक सदा सीखते रहो इस प्रकार सीखने से ही ज्ञानवृद्धि होगी । ज्ञान विद्यार्थियों की तरह पढ़ने से सुगमता से प्राप्त हो जाता है । विद्यार्थियों की तरह पढ़ने के भाव मात्र से कितने ही गुण अपने आप आ जाते हैं । उसके सभी अवगुण समाप्त हो जाते हैं । प्रतिदिन ज्ञान की धीरे-धीरे वृद्धि करते जाओ । क्योंकि—
‘‘शनैर्वित्तं शनैर्विद्या, शनै: पर्वतमस्तके । शनै: पंथा: शनै: कंथा, पंचैतानि शनै: शनै: ।’’
इस प्रकार ये पांचों चीजें धीरे करनी चाहिये । विद्या भी धीरे-धीरे ही आती हैं । एक साथ संपूर्ण विद्या नहीं आ जाती है । प्रत्येक द्रव्य में वस्तुत्व गुण है । सब द्रव्य परस्पर समस्त पदार्थों से न्यारे हैं । वस्तु के निज वस्तुत्व का परिज्ञान परमविद्या है । इस विद्या के आने पर विद्या की प्रयोजकता हल हो जाती है । 484-पर्यायबुद्धि में कृत सुकृत भी हितकर नहीं—जैसे करोड़पति को करोड़ों की संपत्ति नहीं सुहाती है । यदि उसे ज्ञान का अनुभव हो गया हो, तब कोटीश को करोड़ों की संपत्ति न सुहाये वही न सुहाता श्रेष्ठ है । बिना ज्ञान के संपत्ति न सुहाना व्यर्थ है । सम्यक्त्व की परीक्षा करने के लिये ये संपत्तियां प्राप्त हों, ऐसा हम नहीं चाहते । हम निरंतर भगवान का ध्यान करते रहे हों, हमने कर्मों को हटाने का प्रयत्न किया हो क्रोधादि कषाय करके अपने परिणाम न खराब किये हों फिर भी आत्मा में सुख नहीं मिला क्योंकि मैं वह पर्यायों में अटकता रहा । पर्यायबुद्धि से ध्यान किया भी निष्फल है । मैं मुनि हूँ मुझे कर्मों से दूर रहना चाहिये जहाँ यह भाव लाया, मुनिपना गया । भेद (पर्याय) में अटकना ही तो अटकना है । पर्याय ऐसी अटक है कि हम लोग अपने स्वरूप में लीन नहीं हो पाते । हमारी शुद्ध परिणामिक भावों तक दृष्टि इसलिये नहीं पहुँच पाती कि पर्याय की अटक है । पर्यायदृष्टि होने के कारण ही नेताओं में स्वाभिमान आ जाता है । इन्हीं पर्यायों के कारण इतनी ऊंची साधना बन जाती है इन सबमें पर्यायदृष्टि ही कारण है । यदि साधु में पर्यायदृष्टि न रही और यथार्थ समता आ गई तो समझो उसका कल्याण हो गया अब वह भावलिंगी है । सिद्ध भगवान के कोई चारित्र नहीं माना है चारित्र में स्थान अनेक हैं । सिद्धों में अनेक प्रकार के परिणामों की कल्पना करना, हमारी जबर्दस्ती है । सिद्ध भगवान को एक स्वभाव व एक निगाह से देखना चाहिये । सिद्ध में सर्व लब्धियां दीर्यांतर्गत है । अंतराय कर्म की 5 प्रकृतियाँ है—दानांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यांतराय और लाभांतराय । वीर्यगुण में ही भगवान के सब गुण शामिल हो जाते हैं । अरहंतों में 5 लब्धियों की कल्पना करना ही कल्पना है । उनके 5 लब्धियां थीं, सो जब क्षायिकभाव हो गया तब भी लब्धियों का उपचार रहा । वस्तुत: किसी भी पदार्थ में अनेक गुण नहीं हैं । अंतरायकर्म का काम अपने गुणों को घातना है । दानांतराय के कारण दान देने का भाव ही नहीं बन सकता आदि सब बातें भेद की अपेक्षा से कही गई है । अतीत गुणस्थान से पहले संयममार्गणा के नाना भेद हो जाते हैं । संयम, असंयम और संयमासंयम । समझ में भी सर्वत्र संयम की समानता नहीं जाती । देखो तो इस चैतन्य प्रभु की लीला—परिणति । यह आत्मा एक अद्भुत शक्ति का धारी है । यह शरीर कैसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर चला जाता है । कहते हैं कि सर्वत्र ईश्वर का अंश है । आत्मा का जो क्षेत्र है, उस क्षेत्र में ऐसी अद्भुत बातें हो जाती है कि मालुम पड़ता है कि किसी दिव्य शक्ति का यह काम हो रहा है । 485-संसार जाल व मुक्ति निज ईश्वर की लीलायें—दो ही प्रकार से कारण होता है—निमित्तकारण, और उपादान कारण । क्या ईश्वर की ही ये दो परिणतियाँ बन गई हैं । जैसे हाथ चला । इसमें आत्मा की इच्छा निमित्त है, हाथ चला यह पुद्गल उपादान है । ईश्वर की यदि यह चेष्टा हैं, तो यह निमित्त कारण रूप से है या उपादान कारण रूप? यदि ईश्वर निमित्त कारण है तो इससे यह सिद्ध हुआ कि संसार की सारी सामग्रियां पहले ही से थी और ईश्वर तो निमित्तमात्र है । यदि ईश्वर संसार का उपादान कर्त्ता है तो वह अनादि से ही सबका कर्त्ता है । क्योंकि उपादान सदृश कार्य भवति । इसके अनुसार सृष्टि ईश्वर की तरह से होनी चाहिये । जैसे घड़ा बना मिट्टी का रूप घड़े में भी है, अर्थात् घड़े में सामान्य मिट्टी वर्तमान है । उसी प्रकार जो गुण ईश्वर में हैं, वे गुण पदार्थों में भी होने चाहिये जैसे घड़े से ठीकरे बन गये, लेकिन सबमें सामान्य मिट्टी वर्तमान है । यदि यह सृष्टि उपादानतया ईश्वरकृत है तो सारा संसार ईश्वर के आकार के समान होना चाहिये । यदि जीव सुखी या दु:खी होता है तो ईश्वर भी प्रसन्न या दु:खी होता दिखाई देना चाहिये । भैया ! बात तो यह है कि ये सब निज के ईश्वर की लीलायें हैं:—संयम, असंयम और संयमासंयम। तीन तरह के भोग होते हैं:—अतीत भोग, अनागत भोग और वर्तमान भोग । द्रव्य में प्रत्येक समय एक पर्याय होती है । जो गुजर गया वह अब है ही नहीं । किये गये कार्य का शोक नहीं करना चाहिये । अनागत भोगों की सम्यग्दृष्टि इच्छा ही नहीं करता है कषाय तो कभी दूर नहीं होती है । जब तक कषाय रहती ही नहीं है । कषाय के उदय होने पर चारित्र गुण में विकार आते हैं । चौथे गुणस्थान का सम्यग्दृष्टि स्वानुभवी भी असंयमी है । वहाँ कषायें होती हैं किंतु उन्हें उपयोग पकड़ता नहीं है । इस उपयोग मालिक का उन कषाय कुत्तों पर इशारा नहीं हो रहा है । स्वानुभव के काल में भी कषाय रहती है । जब ज्ञानी मनुष्य प्रकट रूप में भी कषाय करता है तो उसके सम्यक्त्व तो रहता ही है । सम्यक्त्व दो प्रकार का नहीं हैं स्वानुभूति ही दो प्रकार की है । जितनी देर सम्यक्त्व रहता है, वह निरंतर रहता है । जो काम करता है वह उपयोग से करता है । स्वानुभूति हमेशा नहीं रहती है । स्वानुभूति और सम्यक्त्व दोनों एक साथ होते हैं । स्वानुभूति पाये बिना सम्यक्त्व नहीं होता है, चाहे सम्यक्त्व होने के बाद में स्वानुभूति न रहे । जितने ज्ञान होते हैं, उतने ही आवरण होते हैं जो पूर्ण विकास है वह सिद्धों में प्रकट हैं । निमित्त नैमित्तिकभाव से भगवान की लीला होती है । जैसे लोग कहते हैं कि यह सब भगवान की लीला है । इसी प्रकार आत्मा की लीला की भी कोई पर्याय नहीं जान सकता है । यह सब आत्म-प्रभु की ही लीला है । ब्रह्म में लीन होने में आनंद आता है । परंतु यह वास्तविक आनंद सम्यग्ज्ञान के पाये बिना नहीं हो सकता है । द्रव्य-गुण-पर्याय का क्या स्वरूप है, यही जानना उस अलौकिक आनंद की नींव है ।भूतार्थ से तत्त्व को जानकर उसका शुद्ध आश्रय करके सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है—