वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 103
From जैनकोष
जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे ।
सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ।।103।।
किसी भी वस्तु का पर में संक्रमण का अभाव―जो जिस द्रव्यस्वभाव को अथवा जिस गुण को वर्तता है वह अन्य द्रव्यों में अथवा अन्य गुणों में संक्रमण को प्राप्त नहीं होता अर्थात् अपना द्रव्य अपना स्वरूप छोड़कर पर पदार्थों में नहीं मिल जाता । जब कोई अर्थ अन्य द्रव्य में मिल नहीं सकता तो उस अन्य द्रव्य को यह कैसे परिणमा सकता है । दूध और पानी एक गिलास में मिला दिया तब भी दूध पानीरूप नहीं बदल जाता, पानी दूधरूप नहीं बदल जाता । और ये चाहे बदल जायें क्योंकि पुद्गल पुद्गल है, पर जीव पुद्गल रूप चिरकाल में भी नहीं हो सकता । पुद्गल-पुद्गल की पर्याय में अन्योन्याभाव कहा गया है और जीव और पुद्गल में अत्यंताभाव कहा गया है । पुद्गल एक द्रव्य में और पुद्गल दूसरे द्रव्य में भी अत्यंताभाव कहा गया है । अर्थात् मोटे रूप से कोई पुद्गल जिस पर्याय में इस समय है वह दूसरा कोई विरोधी पर्याय जंच रहे है उस पर्यायस्वरूप कदाचित् हो सकता है । भोजन के परमाणु मलरूप हो सकते हैं और मल कभी-कभी भोजनरूप बन सकता है । तो पुद्गल में पुद्गल की पलटना हो सकती है परंतु जीव और पुद्गल की पलटना तो त्रिकाल भी नहीं संभव हैं ।
पदार्थ की अपने स्वरूप में अचलितता―जो कुछ भी वस्तु विशेष है वह किसी में चिदात्मक है या अचिदात्मक है द्रव्य में उस गुण में अपने ही रस से, अपने ही स्वभाव से अनादिकाल से चला आया है, वहां चूंकि वस्तुस्थिति की सीमा अचलित है, उसको कोई भेद नहीं सकता सो उसको अपने द्रव्य ने गुणों में वर्तता है परंतु, अन्य गुणरूप नहीं परिणम सकता है । जैसे स्वर्ण कीचड़ में पड़ा होकर भी कीचड़ रूप नहीं बन गया । 500 वर्ष बाद भी निकालें तो ज्यों का त्यों स्वर्ण निकलता है । उसी तरह यह जीव पुद्गल में कर्म नोकर्म में अनादि काल से पड़ा आया है फिर भी यह न कर्मरूप हुआ और न नोकर्मरूप हुआ ।
पुद्गल पुद्गलों की जाति की एकता―सोना कीचड़ बन सकता है, पर यह एक मोटा दृष्टांत दिया है । क्या सोना कभी कीचड़ नहीं बन सकता है? हां अपनी जिंदगी में नहीं बन सकता, पर दो चार हजार वर्ष में न जाने कितने परिणमन बनें । इसी कारण इस पौद्गलिक तत्त्व को जैन सिद्धांत ने एक जाति में माना है । अन्य लोग पृथ्वी, जल, अग्नि वायु इन चारों रूप में मानते हैं कि ये चारों अलग-अलग जातियां हैं, पर जब जैन सिद्धांत कहता है कि ये चार जातियां नहीं हैं, ये सब एक हैं । पुद्गल पुद्गल में जातियां भिन्न 2 कैसे होती हैं । जो कभी एक दूसरे के स्वरूप के समान नहीं हो सकता उसकी जाति पृथक् 2 हैं ꠰ एक दूसरे का स्वरूप समान हो वह सब एक जाति ही कहलाती है । जितनी ये पिंडरूप चीज हैं ये सब पृथ्वी कहलाती है । उस भूतचतुष्टय के सिद्धांत से पत्थर हो, मिट्टी हो, अनाज हो, फल हो, फूल हो, पौधा हो ये सर्व ही पृथ्वी हैं । भोजन भी पृथ्वी है भूत चतुष्टय में ꠰ तो यह पृथ्वी कभी हवा बन सकती है या नहीं? बन सकती है । वर्गणायें बदल जायेंगी । और देखिये―जौ, चना, मटर ये पृथ्वी हैं कि नहीं? और इन्हें जब खा लो तो हवा बनकर पेट में गुड़गुड़ाते हैं । पृथ्वी हवा बन गई लो देख लो, पृथ्वी पानी बन सकती है या नहीं? चंद्रकांतमणि का उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है इस विषय में । पृथ्वी पानी बन सकती है । पृथ्वी अग्नि बन सकती है या नहीं? बन सकती है । ये चारों परस्पर में अदल बदल करते हैं । ऐसी ये चार जातियां नहीं हैं । जाति एक है―उसका नाम है पुद्गल ।
पुद्गल शब्द का व्यापकमहत्त्व―पुद्गल शब्द जैन सिद्धांत में ही मिलता है और कहीं नहीं मिलता । पुद्गल कहते उसे हैं जो पुद् और गल है । अर्थात् जो पूरे और गले । जो जुड़े और बिछुड़े उसका नाम पुद्गल है । यह है पुद्गल का सीधा अर्थ । ऐसे कौन से पदार्थ हैं जो जुड़ते हैं और बिछुड़ते हैं ? जीव जीव जुड़ नहीं सकते । चाहे जीवों में कितना ही परस्पर में प्रेम हो । और वे चाहें कि एक हो जायें तो एक त्रिकाल भी नहीं हो सकते हैं, पिंड नहीं बन सकते हैं । धर्म अधर्म भी न्यारे हैं । ये ही हैं पुद्गल, जो जुड़ते हैं और बिछुड़ते हैं । पेड़ पौधे वगैरह जो दिखते हैं ये जीव नहीं है, ये पृथ्वी है । हम आप जितने बैठे हैं ये सब पुद्गल हैं जीव नहीं हैं । जीव तो ज्ञानानंद स्वरूप है । अमूर्त है । तो जब कोई पदार्थ किसी अन्य द्रव्य को या अन्य गुण को नहीं बदलता है अन्यरूप नहीं परिणमता है तो फिर यह कैसे कहा जाये कि अमुक पदार्थ ने अमुक दूसरे पदार्थ को कुछ कर दिया । इस तरह सर्व पदार्थों के स्वरूप को निहार लो । किसी भी पदार्थ के भाव को अन्य पर द्रव्य नहीं करता । जीव तो अपने-अपने अनुभव से ही देख लो, यह शरीर से भी पृथक है ज्ञानानंद मात्र है । तो यह तो अपने में ज्ञान और आनंद उत्पन्न करके अपना काम समाप्त कर लेता है । इसके आगे इसका काम नहीं है ।
लोकदृष्टांतपूर्वक पर में अकर्तृत्व की सिद्धि―जैसे बारातों में फटाका घाले जाते हैं । तो आदमी केवल आग छुवा देता है इसके बाद उसका कुछ काम नहीं है । वह स्वयं ही सु देकर उड़ जायेगा और फूट जायेगा । इस प्रकार वह जीव अपने आपमें केवल भाव और विकल्प करता है इसके बाद जो बनता है वह खुद बनता है । सारा काम खुद होता है । जीव उनका कर्ता नहीं है । जीव का कार्य केवल योग, ज्ञान और इच्छा करना तक ही है । पर अज्ञानी जीव को इस निमित्त नैमित्तिक भाव का पता नहीं है । वह परस्पर कर्तृकर्मभाव में फंस कर यह मानता है कि मैंने ही तो यह सब किया, और कौन कर गया । अच्छा नहीं किया तो देखो बिना किये तो न हो जायेगा । रोटी मैंने बनायी ऐसी दलील देते हैं । बात तो ठीक है, बिना निमित्त के उपादान में कार्य हो तो जाये अर्थ यह लेना चाहिए पर अर्थ यह लेते हैं कि मैं ही तो करने वाला हूँ । यह आत्मा करने वाला नहीं है किंतु पर के कार्य में निमित्त मात्र है । इस तरह अज्ञानी जीव भी परभाव को नहीं करता । पर का भाव किसी भी पर द्रव्य के भाव कदाचित् भी करने में आ ही नहीं सकते । ऐसा सम्यक् निर्णय जिन ज्ञानी संतों के है वे अपने में निराकुल रहते हैं । किसी भी पर द्रव्य का भाव किसी भी परद्रव्य के द्वारा नहीं किया जाता है इसी कारण यह आत्मा न तो उपादान रूप से पुद्गल कर्म का कर्ता है और न निमित्त रूप से पुद्गल कर्म का कर्ता है । इसी बात को अब अगली गाथा में कहते हैं ।