वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 104
From जैनकोष
दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पुग्गलमयम्हि कम्मम्हि ।
तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता ।।104।।
आत्मा का पर में अकर्तृत्व―आत्मा पुद्गल कर्मों में अपने द्रव्य को अथवा द्रव्य के गुणों को नहीं करता है । उनमें उन दोनों का नहीं करता हुआ उसका वह कर्ता कैसे हो सकता है । जैसे घड़ा बनता है वह मिट्टी से बना करता है तो उस मिट्टी के घड़े में मिट्टी के गुण आदि स्वभाव से मौजूद हैं । इसमें कुम्हार अपने गुण नहीं रख देता है, न कुम्हार का शरीर उसमें पहुंच जाता है न कुम्हार की आत्मा, न कुम्हार का गुण, न कुम्हार की पर्याय कुछ भी तो उस मिट्टी में नहीं पहुंचती क्योंकि कोई भी पदार्थ किसी अन्य द्रव्य को नहीं बदल सकता है । जब कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ को नहीं बदल सकता है तो यह कुम्हार भी अन्य वस्तु के परिणमाने में समर्थ हो सो नहीं है । वह अपने गुण, अपना स्वरूप, अपनी पर्याय कुछ भी कलश को नहीं देता है इस कारण कलश का वास्तव में यह कुम्हार कर्ता नहीं होता है । यह एक दृष्टांत है । कोई भी चीज किसी दूसरी वस्तुरूप नहीं बदल जाती है इसी प्रकार पुद्गलमय ज्ञानावरणादिक कर्मों में पुद्गल द्रव्य और पुद्गल के गुण अपने ही स्वभाव में मौजूद हैं उसमें आत्मा अपना द्रव्य अथवा गुण नहीं रख सकता क्योंकि कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य के गुण का संक्रमण करने में असमर्थ है तब यह आत्मा अन्य द्रव्य के गुणरूप नहीं बदल सकता अन्य वस्तु को नहीं परिणमा सकता । अपने द्रव्य और अपने गुणों को दूसरे पदार्थों में नहीं धारण करता तो उसे वास्तव में पर का कर्ता नहीं कहा जा सकता है । इसी कारण यह सिद्ध है कि आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं है ।
पर के अकर्तृत्व का उदाहरण―जैसे स्फटिकमणि निर्मल है किंतु उनमें हरा-पीला किसी प्रकार का डंक लग जाये तो अपने आप में हरा पीला आदि रूपों में परिणमता है । वहाँ पर भी उपाधि ने स्फटिक को परिणमाया नहीं । उपाधि उपाधि की जगह है और यह स्फटिक अपने में ही परिणमा । जैसे दर्पण को आगे रखकर अपन देखते हैं तो दर्पण में मुँह की छाया प्रतिभास होती है । अब उसमें यह बताओ कि मुँह का आकार, मुँह का रूप, रंग, मुंह का प्रदेश कुछ भी गया है क्या दर्पण में मुँह में ? मुँह है और दर्पण में दर्पण है पर ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध है कि समक्षगत वस्तु का निमित्त पाकर वह दर्पण छायारूप परिणम जाता है । पर की उपाधि ने दर्पण को नहीं परिणमाया । कोई वस्तु किसी पर वस्तु को नहीं परिणमाता । इसी प्रकार पौद्गलिक कर्मोदय का निमित्त पाकर जीव में भावकर्म होता और जीव के भावकर्म का निमित्त पाकर पौद्गलिक कर्मत्व होता है तो भी एक दूसरे में अपना स्वरूप, गुण या परिणमन नहीं रखता है ।
अशुद्धद्रव्य के अशुद्ध परिणमन की संभवता―कोई यह माने कि कोई ऐसा मुक्त आत्मा है जो सदा से ही मुक्त है, ईश्वर है वह पर उपाधि से परिणम-परिणम कर जगत को बनाता है तो यह बात नहीं बन सकती है क्योंकि स्फटिक तो मूर्तिक है, उनके साथ तो उपाधि का संबंध घटित होता है पर जो मुक्त है, ईश्वर है वह तो अमूर्तिक है । वह सर्वथा अमूर्तिक के रूप से उपाधि का कैसे संबंध कर सकता है । लेकिन प्रकृति में, संसारी जीवों में जो कि अनादि से कर्मों में बंधा है, शक्तिरूप से तो अमूर्तिक है पर उसकी जो व्यक्ति बन रही है, व्यवहार दृष्टि से देखो तो वह मूर्तिक होती है । उसके साथ मूर्त उपाधि का संबंध घटित हो सकता है । अशुद्ध जीवों में तो पर उपाधि का निमित्त पाकर विकार परिणमन हो सकता है किंतु शुद्ध जीवों में कभी भी विकार परिणमन नहीं हो सकता । यह यद्यपि संसारी जीव द्रव्यकर्म के निर्माण में निमित्त बनता है । निमित्त बनो किंतु यह कर्ता नहीं होता है । कर्ता उसे कहते हैं जो कि उस पर्यायरूप स्वयं परिणम जाये । सो यह आत्मा पुद्गल कर्मरूप नहीं परिणमता । सो यह पुद्गल कर्मों का आत्मा कर्ता नहीं है । फिर जो अन्य प्रकार की बातें कही जाती हैं कि जीव कर्मों का कर्ता है ये सब उपचार की बातें हैं ।