वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 107
From जैनकोष
उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदिगिण्हदि य ।
आदा पुग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्वं ।।107।।
जीव और कर्म के संबंध में सिद्धांत―आत्मा पुद्गल द्रव्यों को उत्पन्न करता है और करता है, बाँधता है परिणमाता है तथा ग्रहण करता है, यह सब व्यवहारनय का वक्तव्य है ꠰ परमार्थ से आत्मा पुद्गल द्रव्यात्मक कर्म को नहीं ग्रहण करता, न परिणमाता, न उत्पन्न करता है न कुछ करता है, न बांधता है क्योंकि आत्मा का और कर्म का व्याप्यव्यापक भाव नहीं है । आत्मा कर्मों से तन्मय नहीं है । वह पुद्गल द्रव्यात्मक पुद्गल द्रव्य द्वारा ही पाया गया है पुद्गल का ही विकार है पुद्गल के स्वरूप से रचा गया है, सो पुद्गलद्रव्यात्मक कर्मों का इस आत्मा से संबंध नहीं है ।
प्राप्य कर्म का कर्तृत्व―जो पाया जाये, जो विकार में आए और जो रचा जाये उसे कर्म कहते हैं । क्या पुद्गल कर्म को आत्मा प्राप्त करता है ? नहीं । पुद्गलकर्म को पुद्गल ही प्राप्त करता है । यहाँ प्राप्त करने से मतलब भिन्न क्षेत्र से आकर भिन्न क्षेत्र में लाने का नहीं है किंतु एक परिणति छोड़कर दूसरी परिणति को ग्रहण करना यही पाने का मतलब है । जैसे आम पहिले हरे रंग का था अब बदलकर लाल रंग में आया तो आम अब लाल रंग में आ गया । यहाँ यह बात नहीं है कि आम दूसरी जगह था और लाल रंग दूसरी जगह था । फिर आम ने उस लाल रंग को पकड़ा हो, यह अर्थ नहीं है किंतु नवीन परिणति बनाने का ही नाम परिणमन करना है । जैसे आम हरे रंग को बदलकर पीले रंग में आ गया तो वह रंग आम में ही तन्मय है । वास्तव में जो प्राप्त करता है और जो प्राप्त किया जाता है वह तन्मय ही होता है । यहाँ परमार्थ प्राप्ति की बात कही जा रही है । व्यवहार में तो प्राप्त करना कहते हैं उसे कि जो बाहर रखी हों और अपने पास कर लें । किंतु परमार्थ से प्राप्त करना उसे कहते हैं कि अभी तो न हुआ और अब हो गया हो । तो ऐसे प्राप्य कर्म पुद्गल के द्वारा पुद्गल ही हैं ।
विकार्य कर्म का कर्तृत्व―विकार्य कर्म उसमें कुछ विकार आ गया हो सो विकार्य है । विकार भी विकारी में तन्मय होता है । पौद्गलिक कार्माणवर्गणाएँ जो अकर्म रूप थी, तब विकार न था अब पुद्गल कर्मों में विकार आ गया तो कर्मरूप विकार आने पर कार्माणद्रव्य वही है विकार की अवस्था नई आई है । विकार जो कर्म होता है उसका कर्ता विकारी पुद्गल कार्माण वर्गणा है ।
निर्वर्त्य कर्म का कर्तृत्व―एक कर्म होता है निर्वर्त्य जैसे लोहे की तलवार बनाई तो रचना हुई है लोहे से । लोहे में ही वह तलवार तन्मय हुई । यों ही उम्मीदवार पुद्गल कार्माणवर्गणावों में जो कर्मत्व की रचना हुई है वह उन कार्माणवर्गणाओं में हुई है । तो कर्मों में यह तीन प्रकार का संबंध पुद्गलकर्मों के साथ है, पुद्गल द्रव्य के साथ है―प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ये आत्मा के साथ नहीं है । कर्म पुद्गल से ही व्याप्यव्यापक भाव रखता है आत्मा में आत्मा है व कर्मों का उदय जुदा है । स्वरूपास्तित्व के देखने पर यह बात स्पष्ट होती है । यह आत्मा पुद्गलद्रव्यात्मक कर्मों को न ग्रहण करता, न परिणमाता है, न उत्पन्न करता है, न और कुछ करता है, न बंधता है ।
जीव में कर्मकर्तृत्व के व्यवहार का कारण―यद्यपि आत्मा का और पुद्गल कर्मों का व्याप्यव्यापक भाव नहीं है, तब भी आत्मा पुद्गल द्रव्यात्मक कर्मों को ग्रहण करता है, परिणमाता है, उत्पन्न करता है, बाँधता है आदिक विकल्प करना वह व्यवहार का कथन है । व्यवहार की नींव है निमित्त । किसी निमित्त से नैमित्तिक कार्य के करने का आरोप करना वह सब व्यवहार कहलाता है इसलिए आत्मा पुद्गल कर्मों का अकर्ता ही समझिए । यहाँ व्यवहार रुचि वाले पुरुषों का प्रयोजन यह था कि आत्मा पुद्गल कर्म को उत्पन्न करता है अर्थात् पुद्गल कर्म को प्रकृतिरूप करता है । कर्म में 4 बंध होते हैं― प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग और प्रदेश बंध ꠰ यह चल रहा है निश्चय दृष्टि का कथन । निश्चयदृष्टि से घड़ी को हाथ से उठाया और हिलाया पर पूछा जाये कि घड़ी को किसने हिलाया? तो निश्चय दृष्टि से उत्तर होगा कि घड़ी ने घड़ी को हिलाया और व्यवहार दृष्टि से उत्तर होगा कि घड़ी को हाथ ने हिलाया ।
निश्चय और व्यवहार दृष्टि के भेदक स्रोत―निश्चयदृष्टि कहते उसको हैं जहाँ केवल एक चीज देखी जाये दूसरी चीज साथ में न देखी जाये उसे कहते हैं निश्चय दृष्टि ꠰ जब हम केवल हिलती हुई घड़ी को देख रहे हैं, हाथ को नही देख रहे हैं, ज्ञान से नहीं जान रहे हैं तो ऐसी स्थिति में घड़ी की हालत का कर्ता दूसरे को नहीं कह सकते । अगर दूसरे को देखते हैं तो उसका नाम है व्यवहारदृष्टि ꠰ व्यवहार से घड़ी भी देखी जा रही है और हाथ भी देखा जा रहा है तब यों कहा जायेगा कि हाथ ने घड़ी को हिलाया । जहाँ केवल घड़ी को देखा जा रहा है, हाथ को नहीं देखा जा रहा है उस समय हिलती हुई घड़ी को कैसे बतायेंगे ? उस दृष्टि से घड़ी के हिलाने का कर्ता घड़ी ही हैं । जैसे एक दर्पण सामने रखा है और दर्पण के पीछे दो चार पुरुष खड़े हैं उन दो चार पुरुषों की छाया दर्पण में आ गई ꠰ अब हम जब उन दो चार पुरुषों को जानते ही नहीं अथवा ऐसा कोई दर्शक पुरुष जो इन बातों को समझता ही न हो कि दर्पण में दूसरे पुरुष की छाया पड़ रही है ऐसा पुरुष उस दर्पणमात्र को देखे और दर्पण में हो रही है दौड़ धूप को । और उस पुरुष से पूछा जाये कि यह छाया किसकी है? तो वह उत्तर देगा कि यह छाया दर्पण ही कर रहा है । और जिसे विदित हो कि वाह्य पदार्थों के निमित्त से दर्पण में छाया प्रतिबिंबित होती है और उन दो चार पुरुषों की छाया इस दर्पण में पड़ रही है तो यह उनकी ही छाया है, यह व्यवहार दृष्टि का कथन है और यह दर्पण का ही परिणमन है ऐसा कहना निश्चयदृष्टि का कथन है । भैया ! बताओ यह जीव शरीर में बंधा है कि नहीं? आपका जीव शरीर से बंधा है या नहीं? तो निश्चय दृष्टि से देखेंगे कि शरीर से जीव बंधा नहीं है और व्यवहार दृष्टि से शरीर और जीव दोनों के देखने पर जीव बंधा है । तो निश्चयदृष्टि से ही जीव को देखा गया है । जहाँ केवल आप अपना जीव तक रहे हो उस समय आपको शरीर का पता ही नहीं हैं, शरीर का भान ही नहीं है । केवल आप अपने जीव को देख रहें हैं उस समय आपका जीव क्या किसी से बंधा है । किसी से नहीं बंधा है । वह अपने प्रदेशों से ही बंधा है । और जब शरीर और जीव दोनों एक साथ देखने लगे तो आप यह कहेंगे कि यह जीव शरीर से बंधा है । इसी प्रकार पुद्गल कर्म में जो कर्मत्व आता है उसके संबंध में यदि निश्चय दृष्टि से देखें तो पुद्गल कर्म ही देखा जा रहा है, अब सोचो कि इन कर्मों में कर्मत्व लाने वाले कौन हैं? तो उत्तर होगा कि कर्मों में कर्मत्व लाने वाले ये कर्म ही हैं । और जब व्यवहार दृष्टि से देखेंगे तो यह विदित हो जाता है कि यदि जीव रागद्वेष नहीं करता तो पुद्गल कर्म नहीं बनता ꠰ यहां जीव को देखा जा रहा है और पुद्गल कर्मों की हरकत हो रही है उसे भी देख रहे हैं तब यह कहा जायेगा कि आत्मा पुद्गल कर्मों को करता है । तो व्यवहार दृष्टि से आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता है और निश्चय दृष्टि से पुद्गल कर्मों का कर्ता वही पुद्गल है ।
गाथा में चतुविधि बंध का संकेत―भैया ! चार बंध जो आगम में बताए हैं उनका यहाँ संकेत है कि आत्मा पुद्गल कर्मों को उत्पन्न करता है । इसका अर्थ लेना है कि पुद्गल कर्म में प्रकृति को करता है याने प्रकृतिबंध करता है । आत्मा पुद्गलकर्म को बाँधता है स्थितिबंध करता है, याने पुद्गल में कर्म की डिग्रियाँ बनाता है । स्थिति बंध बनाता है कि कितने दिन तक ये कर्म आत्मा में मिलेंगे? आत्मा पुद्गल को ग्रहण करता है इसका अर्थ लेना कि यह आत्मा अपने सर्व प्रदेशों के द्वारा इस पुद्गल कर्म समूह को इस तरह जकड़ता है जैसे तपा हुआ लोहा जल को अपने सर्व प्रदेशों में खींचता है । इतनी बात का जानना व्यवहारनय से होता है । निश्चयनय से तो आत्मा केवल अपने परिणमन को करता है अन्य को नहीं करता है ।
उदाहरणपूर्वक व्यावहारिक दर्शन―जैसे 20 हाथ दूर खड़ा लड़का दूसरे लड़के को देखकर जीभ मटकाता है और अंगूठा हिलाकर चिढ़ाता है तो चिढ़ने वाला लड़का उसको देखकर दु:खी होता है ꠰ यहाँ केवल उस चिढ़ने वाले लड़के को देखो और पूछो कि तुम को दुःखी कौन कर रहा है? केवल एक ही लड़के को देखकर पूछा जाये कि तुम को दुःखी कौन कर रहा है? तो उत्तर आयेगा कि इसको यह अपने आप स्वयं दुःखी कर रहा है । और जहाँ दोनों पर निगाह हुई कि इसने यो जीभ मटकाया, अंगूठा हिलाया तो उसको देखकर यह कहा जायेगा कि यह दूसरा लड़का इसको चिढ़ाकर दुःखी कर रहा है । तो व्यवहार दृष्टि में दो का संबंध बताया जाता है ।
निश्चय की दृष्टियां―निश्चय दृष्टि में एक को देखा जाता है । यदि उस एक को स्वभावरूप से देखते हैं तो उसका नाम होता है परम शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि, उस एक को अशुद्ध परिणमन से परिणमते हुए देखते हैं तो उसका नाम होता है अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि । उस एक को यदि शुद्ध परिणमन से परिणमते देखते हैं तो उसका नाम है शुद्धनिश्चयनय दृष्टि । यह आत्मा अपने आप में रागपरिणति बना रहा है ऐसा देखने का नाम है अशुद्ध निश्चय दृष्टि । यह सिद्ध प्रभु अपने आपको अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्यरूप परिणमाता है । ऐसा देखने का नाम है शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि । यह जीव न संसारी है, न मुक्त है, न शरीर से बंधा है, न शरीर से मुक्त है । यह तो केवल चैतन्यस्वभाव मात्र है । अपने आपके स्वरूप में जो कुछ स्वत: पाया जाता है उसको देखे तो इसको कहते हैं परमशुद्ध निश्चयनय दृष्टि ।
एकत्वदर्शन की असुलभता―इस जगत ने अब तक केवल व्यवहार दृष्टि का आलंबन लिया । निश्चय का इसे पता नहीं है, सो व्यवहार दृष्टि से रहकर यह सर्व संबंध मान रहा है । प्रत्येक पदार्थ असंबद्ध है, जुदा है और अपने स्वरूप से परिणमने का स्वभाव रखता है । इस बात को जब तक नहीं पहिचानता तब तक यह जीव अज्ञानी है, संसार में रुलता फिरता है । कभी धर्म का काम करे तो वहाँ भी संबंध ही माना । स्वयं भी मैं कुछ हूँ ऐसा समझ में न आने दिया ऐसी स्थिति को परमार्थ से तो धर्म नही कहते हैं । पर ऐसा ही ऐसा करने वाले जब पचासों लोग हैं तो वे आपस में धर्मात्मा कहने मात्र से तो कर्मबंध में फर्क नहीं आता । जब आत्मत्व कर्मबंध के योग्य न रहे तब ही कर्मबंध में फर्क आता है । धर्म करने के लिए वस्तु का स्वयं सहज स्वरूप जानना अत्यावश्यक है । वस्तु के एकत्वस्वरूप के ज्ञान बिना मोह नहीं हटता है ।
अंतरंग आशय के अनुसार धर्म अधर्म की स्थिति―कितने ही लोग मोह को पुष्ट करने के लिए धर्म करते हैं ꠰ मेरे घर के लोग खुश रहें मेरा जीवन बड़ा अच्छा बीते, हमारी जिंदगी अच्छी तरह कट जाये ऐसी आशा रखकर पूजा करे तो वह वास्तविक पूजा नहीं है । जो पूजा, जो भक्ति, जो चिंतन, जो स्वरूप दर्शन मोह के विनाश के लिए आचार्यों ने बताया है उसमें से कितनी ही बातें मोह को पुष्ट करने के लक्ष से भी की जा सकती हैं ꠰ मोह को पुष्ट करे करे वह अधर्म है और जो मोह को दूर करे वह धर्म है । धर्म ज्ञातादृष्टा रूप परिणति का नाम है और अधर्म मोह रागद्वेष परिणति का नाम है । सो जगत के जीवों में हम कुछ अपने को कहलवा लें इसकी तो रंच भी आवश्यकता नहीं है । जो जहाँ है वहाँ बना रहे, जो जैसा है बना रहे, कोई मुझे जानता नहीं है, उनसे मेरा कोई सुधार बिगाड़ नहीं है । किंतु अपने को अज्ञान बुद्धि में रखें तो हिंसा है और अपने को ज्ञानपरिणति में रखा तो उसमें अहिंसा है ।
निजी बात―यहां वस्तुस्वरूप का दिग्दर्शन कराया जा रहा है । यह चर्चा कठिन नहीं है । ऐसा नहीं है कि समझ में न आए । यह खुद की ही बात है । खुद की बात खुद की समझ में तब तक नहीं आती जब तक कि खुद की ओर आना न चाहे । हम बाहरी पदार्थों की ओर तब तक झुकते हैं जब तक निज की बात समझ में नहीं आती । बाह्य पदार्थों का झुकाव न हो और निज के हित की बुद्धि से कुछ परखें तो अपनी ही बात अपनी समझ में न आवे ऐसा नहीं हो सकता है । यह आत्मा स्वभावत: ज्ञान भाव और आनंद भावरूप है ।
रसना इंद्रिय का ऊधम―इन 5 इंद्रियों में सबसे अधिक विकट दो इंद्रियां है―एक जीभ और एक आंख बहुत ऊधम मचाती हैं । जीभ का ऊधम बड़ा ही विकट है, कितना ही पेट भरा हो फिर भी अगर इमली के पानी की खटाई मिले तो पेट में जगह निकल ही आती है । अरे इमली के चाट की क्या कीमत है? चाट में और बनता क्या है? पकौड़ी मकौड़ी ही तो बनती है । अगर चाट वाला दिख जाये तो चाट खाने का मन कर ही जाता है । खड़े हैं बाजार में, खड़े ही खड़े झट दुअन्नी निकाली और चाट खा रहे हैं । यह रसना भी बड़ा ऊधम मचाती है । अच्छा भोजन न बने तो घर में लड़ाई हो जाये । इस रसना से सब मोही लोग परेशान हैं । कहते हैं कि बड़ा विकट जमाना है । अरे जमाना क्या विकट है । इस रसना ने तो खर्च अधिक बड़ा दिया है । खर्च 500 रु0 माह का है ओर आमदनी 400 रु0 माह है तो परेशानी तो है ही । अरे 500 की जगह पर 300 रु0 ही माहवार कर लो । बनावट, सजावट पोजीशन की बातें कम कर दो तो सुखी तो अब भी हो । दुःख तो यहाँ विषय वासनावों के बढने का है । तो एक तो रसना दुःख देने वाली चीज है । इस रसना ने तो दूतर्फी आक्रमण कर लिया―एक तो स्वाद लेने का आक्रमण और दूसरा किसी को बुरा बोल देने का आक्रमण । इस जीभ को हिला दो, कडुवे वचन बोल दो तो झगड़ा बढ़ गया । और इसी जीभ से बढ़िया वचन दूसरों से बोल दिया लो सुखी हो गए । तो इस जीभ ने जगत के लोगों पर आफत डाल रखी है ।
नेत्र इंद्रिय का ऊधम―दूसरी विकट इंद्रिय है आंख आफत मचाने वाली । कमाते तो 1 रूपया हैं रिक्शा तांगा चलाकर और सिनेमा देखने जाने को तैयार बैठे हैं । ओर नहीं तो यहाँ बैठे हैं और सड़क पे कोई चीज हुई तो बिना प्रयोजन ही उस चीज को देखे बिना नहीं रहा जाता है । यह क्या है? सारे दिन जहाँ हवाई जहाज चलते हैं जैसे आगरा में, कलकत्ता में, तो जानते हैं कि उड़ते हैं फिर भी लोगों की निगाह उन पर पहुंच ही जाती है । हालांकि चीज वही है जो रोज-रोज देखने में आती है । वे शरीर के सुंदररूप आखिर इस रूप में धरा क्या है? मांस, हड्डी, पीप इनसे ही तो यह आकार बना हुआ है । आकार की बनावट कमजोर हो गई शरीर का रंग पीला हो गया । वहाँ कुछ सार नहीं मगर उसको ही सुंदर मानकर देखने लगते हैं । तो जीभ और आंख इन दोनों ने इस मनुष्य पर बड़े संकट डाले हैं ।
विकट इंद्रियों के संकट से बचने की सुविधा―यद्यपि रसना और नेत्र इन दोनों ने ऊधम मचाया है फिर भी कितनी भली बात है कि पांचों इंद्रियों में से तीन इंद्रियों पर ढक्कन दोनों ओंठ और आँख का ढक्कन दोनों पलक । दोनों ओठ और दोनों पलक बंद करलो बस संकट खतम । कितनी अच्छी सुविधा मिल गई है कि संकट न आने पायें । पर इन दोनों इंद्रियों ने ऊधम मचा रखा है । जरा ओठ और पलक बंद करके कुछ अंतर में निरखो तो सही । ये तीन इंद्रियां कान, नाक और यह शरीर ध्यान की गति में बाधा नहीं डाल रहे हैं, बाधक तो विशेष ये आखें हैं । आंखों को बंद करके और मन भी बहुत विचित्र बाधक है । यह मन कोसों मील दूर क्षण-क्षण में दौड़ता रहता है सो इस मन को भी समझाकर कि कहां बाहर में दौड़ते हो सार कुछ रखा नहीं है, फिर भटक कर यहीं विश्राम पावोगे, इसलिए भटको ही मत ꠰ यों अपनी इंद्रियों को संयत करके अपने आपको निरखो तो एक ज्ञान और आह्लाद मिलेगा । इसके सिवाय आत्मा में और कुछ न पा सकोगे । यह आत्मा स्वभाव से ज्ञानानंद मात्र है । यह ज्ञानानंद मात्र आत्मा दिखने में आ जाये इसके लिए निश्चय दृष्टि करो ।
निश्चयदृष्टि का अनुग्रह―निश्चयदृष्टि से वस्तुगत सब कुछ यथार्थ समझ में आता है । कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य को नहीं परिणमाता है, न ग्रहण करता है, न कर्मों को बाँधता है । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में प्रवेश ही नहीं है । फिर भी यह कहना कि आत्मा कर्मों को बाँधता है, आत्मा दुकान करता है, आत्मा भोजन बनाता है, आत्मा अमुक व्यवहार करता है यह सब उपचार कथन है । संबंध मानकर कथन है । अन्य निमित्त को पाकर उपादान में होने वाली स्वयं की परिणति को निरखकर दोनों का संबंध जुटाता है इसको कहते हैं उपचार वर्णन । तो यहाँ तक यह सिद्ध किया गया है कि यह आत्मा चाहे ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी हो कोई भी आत्मा किसी भी पर द्रव्यों में परिणमन को त्रिकाल भी नहीं कर सकता । इस प्रकार इस कर्तृ कर्म अधिकार में अपने आपमें आत्म वस्तु को अकर्ता देखा जा रहा है, ऐसा अकर्तृत्व स्वरूप ज्ञात होने पर यह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकता है । जीव पुद्गलकर्म का कर्ता है ऐसा कहना केवल उपचार से है । सो किस प्रकार उपचार है? उसके उत्तर में अब यह गाथा आ रही है ।