वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 106
From जैनकोष
जोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो ।
तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण ।।106।।
जीव में कर्मकर्तृत्व के उपचार का उदाहरण―जैसे योद्धावों के द्वारा युद्ध किया जाने पर लोग ऐसा कहते हैं कि राजा ने युद्ध किया । सो यह व्यवहार का कथन है । राजा तो महलों में अब भी अपनी सोसाइटी में बैठा हुआ है मर रही है सेना, युद्ध कर रहे हैं सैनिक पर यह कहा जाता है कि राजा युद्ध कर रहा है । इसी प्रकार आत्मा में तो हो रहे हैं ज्ञानावरणादिक रूप से परिणत पुद्गलकर्म स्कंध पर व्यवहार से कहा यों जाता है कि जीव ने ज्ञानावरणादिक कर्मों को किया । युद्ध में युद्धरूप परिणम कौन रहा । वे योद्धा लोग । युद्ध रुप परिणमन से स्वयं परिणमने वाले योद्धावों ने तो युद्ध किया और राजा जो स्वयं युद्ध रूप से नहीं परिणम रहा है उसे लोग क्या कहते हैं कि राजा युद्ध कर रहा है । तो यह बात उपचार से है परमार्थ से नहीं है । उसका अर्थ यों लगे कि इस राजा की सेना युद्ध कर रही है, राजा के हुकुम से कर रही है, उस हुकुम के जय पराजय का फल राजा को मिलेगा । सेना हार गई तो राजा हार गया ऐसा लोग कहेंगे । और उसका विषाद राजा को होगा । इसलिए कहा जाता है कि राजा ने युद्ध किया ।
जीव में कर्म कर्तृत्व के उपचार का विवरण―इसी प्रकार ज्ञानावरणादिक कर्म आत्मा से स्वयं परिणमने वाले पुद्गल द्रव्यों के द्वारा ज्ञानावरणादिक कर्म किए गए हैं अथवा पुद्गलकर्मों में ही ज्ञानावरणादिक कर्मरूप से परिणमन होता है और यह आत्मा स्वयं तो ज्ञानावरणादिक कर्मरूप से नहीं परिणम रहा है पर लोग क्या कहते हैं कि आत्मा ने ज्ञानावरणादिक कर्म किया । सो यह कहना केवल उपचार कथन है, वस्तुत: यह आत्मा कर्मों को नहीं करता है । कर्ता कर्म और क्रिया तीनों एक द्रव्य में होते हैं । भिन्न 2 द्रव्यों में कर्ता कर्म क्रियाएँ नहीं होती है इसीलिए तो लोग हैरान हैं कि पर वस्तु के परिणमन का कोई अधिकारी तो है नहीं और मानते हैं ये अज्ञानी जीव अधिकारी, जैसा परिणमन चाहते हैं वैसा परिणमन होता है नहीं और मानता है यह अज्ञानी कि मैं इनका स्वामी हूँ, अधिकारी हूँ, जो मैं चाहूं सो इनका होगा । मान रहे हैं ये ऐसा और होता है बिल्कुल विपरीत तो ये दुःखी होते रहते हैं । और सही मान लें, जो जैसा परिणमता है वह अपने उपादान से परिणमता है, कोई किसी का क्या कर सकता है तो विषाद समाप्त हो जाये ।
इच्छानुसार परिणमन न हो सकने का एक पौराणिक उदाहरण―सीताजी का रामचंद्र जी पर व्यवहार दृष्टि से कितना अधिकार था और राम का सीता पर कितना अधिकार था पर जब रामचंद्र जी ने सीता जी को जंगल में छोड़ दिया तो सीता यदि यह सोचे कि मैं जो चाहूं सो कर सकती हूँ पर यह क्यों नहीं हो रहा है, सो वह दुःखी होती होगी । पर अपना ज्ञान यथार्थ रखती हैं कि वह राम एक पर चेतन है उनका परिणमन उनमें है, वे पर के अधिकारी नहीं हैं, तो इतना सोचकर वह सीता शांत हो जाती है । जब अग्नि परीक्षा हो गई और सीता विरक्त होकर नगर छोड़कर जाने लगी तो रामचंद्र जी ने कितना चाहा कि यह सीता अब घर में रहे भारी निवेदन किया, क्षमा याचना की, विह्वल हो गए, मगर कुछ वश न चला । सीता के मोह रहा नहीं वह आत्मस्थ हो गई । जब सीता का जीव प्रतींद्र बन गया तब अवधिज्ञान से सोचा कि मेरे पूर्वभव के पति श्री रामचंद्र अब मुक्त होने वाले हैं सो ऐसा करें कि अभी मुक्त न होने पायें, कुछ और संसार में रह जाये फिर हम और वे दोनों एक साथ मुक्त होंगे । डस आशय से कितने विघ्न किए उस प्रतींद्र ने, पर श्री रामचंद्रजी पर कुछ वश न चला ꠰
अंतःश्रद्धा व कृत्या―किसी जीव का किसी अन्य जीव पर वश नहीं चलता । आसानी से कुछ बात होती हो, हो जाये; न होती हो तो विह्वल न हो ꠰ किसी परिणमन बिना इस जीव का कुछ अटका है क्या? पर वस्तु यों परिणमा तो क्या; अन्य प्रकार परिणमे तो क्या ꠰ उससे कुछ मेरा अटका नहीं है । ऐसा जो जानता है वह ज्ञानी पुरुष परद्रव्यों के प्रति निबद्ध नहीं होता, आधीन नहीं होता । और यह तो सब व्यवहार की भाषा है । ज्ञानी पुरुष भी व्यवहार की भाषा बोलता है पर उसके संस्कार में यथार्थ बात तब भी बनी रहती है । सिर में दर्द हो जाये तो क्या ज्ञानी यह नहीं कहता है कि अरे ! सिर में दर्द है दवा लावो पर श्रद्धा में यह बात बसी है कि मेरे तो सिर ही नहीं है ꠰ मैं तो ज्ञानानंद मात्र अमूर्तिक पदार्थ हूँ । श्रद्धा में तो इतनी विविक्तता बसी है और व्यवहार में, चर्या में सिर दर्द होने पर कहता ही है कि मेरे सिर में दर्द है । तो कहने से तो ज्ञानी भी उसी भाषा में बोलता है और अज्ञानी भी उसी भाषा में बोलता है पर ज्ञानी के यथार्थ बोध बना रहता है और अज्ञानी जो भाषा बोलता है उसी को यथार्थ समझता है । व्यवहार भाषा के प्रयोग बिना समझने और समझाने को भी काम नहीं चलता है लेकिन यथार्थ ज्ञान में वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्वतंत्र दृष्ट होता ही है । यह जीव ज्ञानानंदमात्र भावात्मक केवल भावों का ही कर सकने वाला है ꠰ यह अपने परिणामों के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता अपने प्रदेशों से बाहर तो इसकी गति है ही नहीं, तो करेगा क्या यह दूसरों में । ऐसा परद्रव्यों के साथ आत्मा को अकर्तृत्व जान लेने पर परद्रव्यों से मोह छूटता है । भैया ! मोह और अज्ञान बढ़ने के कारण 2 ही हैं । एक तो पर का स्वामी मानना । वैसे तो दोनों का एक ही मतलब है । जो पर का कर्ता मानता है उसमें स्वामित्व का आशय गर्भित है और जहाँ पर का स्वामित्व मानना है वहाँ पर का कर्तृत्व गर्भित है । पर स्पष्ट रूप से जानने के लिए समझियेगा कि अज्ञान में दो प्रकार से नाच होता है―एक पर का कर्ता समझने का और दूसरा पर का स्वामी समझने का । यह जीव निज जीवातिरिक्त अन्य समस्त द्रव्यों का न तो कर्ता है और न अधिकारी है ꠰ कर्ता समझना या अधिकारी समझना यह सब केवल उपचार का कथन है । वस्तु में क्या बात सिद्ध होती है इस बात को इस गाथा में कहते हैं । एकद्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ परिणमन नहीं करता । जब यह बात भली प्रकार सिद्ध हो चुकी तो अब इस निष्कर्ष रूप में यह सिद्धांत स्थापित किया जा रहा है ।