वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 109-112
From जैनकोष
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो ।
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।।109।।
तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदाक दु तेरसवियप्पो ।
मिच्छादिट्ठो आदी जाव सजोगिस्स चरमंत ।।110।।
एदे अचेदणा खलु पुग्गलकम्मुदयसंभवा जह्मा ।
ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा ।।111।।
गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जह्मा ।
तह्मा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि ।।112।।
आस्रवभूत कारण―बंध के करने वाले सामान्य रूप से चार प्रकार के प्रत्यय हैं । वे आस्रव हैं । वे चार कौन-कौन हैं? मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । इन चारों के कुछ भेद पसारे जायें तो 13 भेद होते हें । जिन्हें 13 गुणस्थान कहते हैं । इन 14 गुणस्थानों में अंतिम जो अयोगकेवली नामक गुणस्थान है वह आस्रवरहित है । और 13 वें गुणस्थान तक आस्रव रहते चलते हैं । उन गुणस्थानों में कहीं मिथ्यात्व कारण है कहीं मिथ्यात्व कारण नहीं है तो अविरति कारण न रहे तो कषाय कारण है और जहाँ न मिथ्यात्व रहे न कषाय रहे, न अविरति रहे वहाँ योग कारण है । जहाँ अविरति होती है वहां मिथ्यात्व हो या नहीं हो, पर आगे की धीमें याने कषाय और योग अवश्य होता है । जिन गुणस्थानों में कषाय है वहाँ मिथ्यात्व और अविरति हो अथवा न हो पर योग जरूर होता है । और जिन जीवों के योग है उनमें से किसी के केवल योग ही हो और किसी के सब भी हों । सर्व संभव हैं ।
अविरति वाले चार गुणस्थानों में आस्रव का विभाग―मिथ्यात्व गुणस्थान में जीव की परिणति मोहमय रहती है । मिथ्यादृष्टि जीव परद्रव्यों से भिन्न अपने आपका भाव भी नहीं कर सकता है । देह को आत्मा मानता है । अपने कषाय परिणाम को आत्मा मानता है । सासादन गुणस्थान में न मिथ्यात्व रहता है न सम्यक्त्व रह पाता है । बीच की स्थिति होती है जिसे सम्यक्त्व शून्य कहा गया है । उस अवस्था में परिणाम तो अयथार्थ ही रहता है पर उस समय की स्थिति ऐसी है कि सम्यक्त्व भी न रहा और मिथ्यात्व भी न आ पाया यह गिरती हुई स्थिति में होता है । मिथ्यात्व में मिथ्यात्व सहित सर्व प्रत्यय के कारण आस्रव होता है और सासादन में अविरति कषाय और योग इन तीनों के कारण आस्रव होता है । तीसरे गुणस्थान का नाम है मिश्र गुणस्थान । मिश्र गुणस्थान को न केवल सम्यक्त्व कह सकते हैं और न केवल मिथ्यात्व कह सकते हैं ऐसो मिश्रपरिणति में मिथ्यात्वकृत बंध तो है नहीं किंतु अविरति, कषाय और योग कृत बंध है । चतुर्थगुणस्थान में चूंकि सम्यक्त्व हो गया है और इन तीनों प्रकार के सम्यक्त्वों में से कोई भी सम्यक्त्व हो सकता है । इस चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व होने के कारण मिथ्यात्वकृत आस्रव बंध नहीं है किंतु अविरतिपरिणाम है वह । अविरति, कषाय और योग इनके निमित्त से बंध होता है ।
संयतासंयत व प्रमत्तसंयतों के आस्रव का विभाग―पंचम गुणस्थान में मिथ्यात्वकृत बंध तो नहीं है किंतु अविरति के 12 भेदों में से अभी 11 प्रकार की अविरति पाई जाती है । केवल त्रसकाय अविरति नहीं रही । तो मिथ्यात्व और त्रसकाय की अविरति इनसे होने वाले बंध पंचम गुणस्थान में नहीं है किंतु अटपट बंध चलता रहता है । छठे गुणस्थान में मिथ्यात्व भी न रहा, अविरति भी न रहा किंतु उनके सकल संन्यास हो चुका है और कषायों में से अनंतानुबंधी कषाय, अप्रत्याख्यानावरण कषाय व प्रत्याख्यानावरण कषाय ये बारहों कषायें नहीं हैं ।
अप्रमत्त आत्मावों के आस्रव का विभाग―सप्तम गुणस्थान में भी ये सब आस्रव नहीं होते हैं । और कषाय में संज्वलन कषाय का मंद उदय रहता है किंतु छठे गुणस्थान में संज्वलनकषाय का तीव्र उदय रहता है । अष्टम गुणस्थान में भी कषाय और योगकृत आस्रव है पर वहाँ कषाय मंदतर है । 9 वें गुणस्थान में कषाय में से हास्यादि कषाय कृत आस्रव नहीं हैं । 7 शेष कषाय और योगकृत आस्रव है । 9 वें गुणस्थान के कुछ ऊपरी भागों में धीरे-धीरे वह कषाय भी दूर हो जाती है और अंत में केवल एक लोभ कषाय ही रह पाती है । दसवें गुणस्थान में केवल एक सूक्ष्म लोभ रहता है और योग होता है । उनका सूक्ष्म लोभ और योगकृत आस्रव होता है । ग्यारहवें गुणस्थान में केवल योगकृत आस्रव है वहाँ बंध नहीं होता है, पर आस्रव अवश्य है । साता वेदनीय नामक कर्म आते हैं और चले जाते हैं, वे बंधते नहीं हैं । इसी प्रकार 12 वें गुणस्थान में और 13 वें गुणस्थान में केवल सातावेदनीयनामक कर्म का आस्रव होता है और उसके आस्रव का कारण है योग ।
अचेतन भावों के अचेतनबंधकर्तृत्व का निष्कर्ष―इस प्रकार सामान्यरूप में आस्रव अथवा प्रत्यय चार प्रकार के हैं मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । इनके फैलाव में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक 13 प्रकार के भावरूप आस्रव कहे गए हैं । ये सब आस्रव क्या ज्ञानस्वरूप हैं? क्या इन मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग में जानने की कला मौजूद है? नहीं । जब इनमें आत्मज्ञान की कला नहीं है इसलिए अचेतन हैं ꠰ पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं इसलिए वे अचेतन हैं । जब कि ये अब अचेतन हैं और ये ही अचेतन कर्मों के आस्रव और बंध को करते हैं तो इससे यही तो सिद्ध हुआ कि जीव इन कर्मों का आस्रव बंध नहीं करता और जब जीव इन पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं है तो उनका यह भोक्ता भी नहीं है । इस प्रकार एक युक्तिपूर्वक यह बताया गया कि ये गुणस्थान अचेतन हैं और ये ही कर्मों को करने वाले हैं अथवा ये प्रत्यय अचेतन हैं और ये ही कर्म बंध के कारण हैं । जब ये अचेतन गुणस्थान कर्मबंध के आस्रव के कारण हैं तो इससे यह सिद्ध हुआ कि जीव अकर्ता है । जीव कर्ता नहीं है । केवल गुणस्थान ही कर्मों को किया करते हैं ।
बंधक बंध की व्याप्यव्यापकता―पुद्गल कर्म का पुद्गल द्रव्य ही एक कर्ता हैं उसके विशेष भाव हैं मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । सो बंध के सामान्यहेतु तो ये चारों हैं । ये चारों ही कर्ता हैं पर इन चारों का और विकल्प किया जाये, भेद प्रसार किया जाये तो मिथ्यात्व से लेकर सयोगकेवली पर्यंत ये 13 भाव हैं, 13 परिणाम हैं । इसी प्रकार पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न हुए ये भाव अचेतन हैं ꠰ ये 13 प्रकार के गुणस्थान ही कर्ता हैं इनमें ही व्याप्य व्यापक भाव है । पुद्गल कर्म के साथ इन गुणस्थानों का व्याप्य व्यापक भाव बताने का यह भाव है कि इन भावास्रवों के होने पर ही पुद्गल कर्म का बंध होता है और भावास्रव के न होने पर पुद्गल कर्म का बंध नहीं होता कारण उन पुद्गल कर्मों के साथ इन विभावों का, इन आस्रवों का, अचेतन परिणामों का ही व्याप्य व्यापक भाव है । किंतु जीव द्रव्य के साथ इन कर्मों का व्याप्य व्यापक संबंध नहीं है । सो ऐसा व्याप्य व्यापकभाव होने के कारण ये 13 प्रकार के गुणस्थान अथवा चार प्रकार के भावास्रव किन्हीं पुद्गलकर्मों को करें, इनसे आत्मा का क्या संबंध?
आत्मा के पुद्गलकर्मकर्तृत्वाभाव की तरह भोक्तृत्व का अभाव―यहाँ शुद्ध ज्ञानस्वरूप चित̖स्वरूप निरखा जा रहा है, वह बेकसूर है मेरे में इनसे कुछ नहीं आता है । योग और उपयोग अथवा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, अथवा मिथ्यात्वगुणस्थान से लेकर सयोगकेवली पर्यंत गुणस्थान ये ही आस्रव और बंध के कर्ता है । यहाँ पर एक प्रश्न हो सकता है कि चलो कर्ता तो नहीं हो सकता मगर इनका भोक्ता तो जीव है । पुद्गलमय मिथ्यात्व आदिक प्रक्रियावों को वेदता हुआ यह जीव मिथ्यादृष्टि होता है और पुद्गलकर्मों को करता है । उत्तर में यहाँ साफ-साफ बतलाते हैं कि यह आत्मा पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्व आदिक प्रकृतियों को अनुभवता भी नहीं है । भोक्ता नहीं है, वेदक नहीं है क्योंकि इस जीव का उन पुद्गल कर्मों के साथ भाव्य भावक भाव नहीं है । वे कर्म भी जो कुछ भी कर पाते हैं खुद में कर पाते हैं अथवा कर्म भी जो होते हैं वे उनके खुद में होते हैं । जीव में नहीं होते हैं । जीव का जो कुछ भी होता है वह जीव के खुद में होता है कर्मों में नहीं । इस प्रकार भाव्य भावक भाव न होने से पुद्गलद्रव्य में मिथ्यात्व आदिक का भी यह अनुभव नहीं कर सकता फिर पुद्गल द्रव्यमय ये कैसे हो सकते हैं? जीव पुद्गल कर्म का न कर्ता है और न भोक्ता है ।
आस्रवभावों की अचेतनता―इस प्रकरण में बात क्या सिद्ध की गई है कि जिस कारण से पौद्गलिक जो सामान्य चार प्रत्यय हैं उनके भेदरूप जो 13 प्रकार के विशेष प्रत्यय हैं, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं वे ही कर्मों को किया करते हैं । पुद्गलकर्म का यह जीव अकर्ता है । ये गुणस्थान अथवा ये चारों प्रत्यय ही उन पुद्गल कर्मों के कर्ता हैं । और फिर ये गुणस्थान अथवा ये प्रत्यय पुद्गल ही हैं अर्थात् अजीव ही हैं । जड़ हैं । यहाँ दृष्टि जीव के शुद्ध स्वरूप पर है । जहाँ चित्स्वभाव नहीं है वहाँ अचेतनता ही है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि पुद्गल द्रव्य का एक पुद्गल द्रव्य ही कर्ता हुआ करता है । इस कथन में बात क्या बताई गई है कि ये जो मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग के भाव उत्पन्न होते हैं ये शुद्धनय से अचेतन ही हैं । जहाँ चैतन्यभाव न पाया जाये, जो चेते नहीं, जाने देखे नहीं उन्हें अचेतन कहा करते हैं । यह शुद्धनय से अचेतन ही है क्योंकि ये पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं और इन भावों में चेतना का कुछ भी माद्दा नहीं है । ये स्वरूप से अचेतन हैं ।
रागादिक के स्वामित्व विश्लेषण―तब इन मिथ्यात्व रागादिक भावों की क्या स्थिति हुई कि इनका करने वाला जीव भी नहीं है और पुद्गल कर्मों में यह परिणमन भी नहीं हुआ इसलिए पुद्गल कर्म भी नही है ꠰ एक दृष्टि से रागादिक का कर्ता न जीव है और न कर्म है । एक दृष्टि से रागादिक का कर्ता जीव और पुद̖गल है, एक दृष्टि से रागादिक का कर्ता जीव है । एक दृष्टि से रागादिक का कर्ता पुद्गल कर्म है । ये चार दृष्टियाँ हुई । इनमें उपादान दृष्टि से रागादिक का कर्ता जीव है । निमित्त दृष्टि से रागादि का कर्त्ता पुद्गल कर्म है और दोनों दृष्टियों को देखकर कहने पर इनके कर्ता दोनों ही हैं । अथवा शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से देखा जाये तो रागादिक का कर्त्ता न जीव है और न पुद्गल कर्म है । जैसे स्त्री और पुरुष दोनों से उत्पन्न हुआ पुत्र व्यवस्था के भेद से पुरुष का भी कहा जाता है और स्त्री का भी कहा जाता है जब जैसी दृष्टि होती है तब उस प्रकार का वर्णन होता है । इसी प्रकार जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए मिथ्यात्व रागादिक भाव अशुद्ध उपादान रूप से, अशुद्ध निश्चय से देखा जाये तो चेतन हैं क्योंकि जीव का संबंध है जीव की परिणतियाँ हैं पर शुद्ध निश्चयनय से अर्थात् शुद्ध उपादान रूप से देखा जाये तो यह अचेतन है और पुद्गल कर्म के उदय में उत्पन्न होने से यह पौद्गलिक है तथा यह परमार्थ से सर्वथा न जीव रूप है और न सर्वथा पुद्गल रूप है । वास्तविक दृष्टि से सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से ये रागादिक हैं ही नहीं, क्योंकि परमशुद्ध निश्चयनय इन रागादिकों को तकता ही नहीं है । वह तो वस्तु के सहज स्वरूप को निरखा करता है, वस्तु के स्वभाव को निरखा करता है । वस्तु के स्वभाव के अतिरिक्त यह अन्य कुछ नहीं निरखता है ।
वस्तुविवेचनायें एकांतदृष्टि की असमर्थता―ये रागादिक तो अज्ञान भाव से ही कर्मोदय का निमित्त पाकर उत्पन्न होते हैं । व्यर्थ की कल्पनाएँ कर लेने से ही ये रागादिक हैं । इससे क्या सिद्ध होता है कि जो कोई भी ऐसा कहते हैं एकांत से कि रागादिक जीव के हैं अथवा रागादिक पुद्गल के हैं । इन दोनों का कहना मिथ्या है । कोई एकांत से कहते हैं कि रागादिक जीव के हैं । जीव का रागादिक स्वभाव तो है नहीं, स्वरूप तो रागादिक का है नहीं फिर रागादिक जीव के कहना यह मिथ्यात्व है । अथवा कोई कहे कि ये रागादिक पुद्गल कर्म के हैं―सो पुद्गल कर्म के ये रागादिक परिणतियाँ होती ही नहीं । वह तो चेतन हैं, सो यह भी मिथ्यात्व है । कोई विकल्प बताने के बाद यदि फिर भी कोई पूछे कि सूक्ष्म शुद्ध निश्चय से ये रागादिक किसके हैं? यह पूछ रहा है सूक्ष्म निश्चयनय से अर्थात् परमार्थ परम शुद्ध निश्चय से तो इस दृष्टि से रागादिकभाव हैं ही नहीं । रागादिक का अस्तित्व ही नहीं है फिर उत्तर कैसे दिया जाये कि वास्तव में परमार्थ से परमशुद्ध निश्चयनय से ये रागादिक किसके हैं? किसके बताया जाये क्योंकि इस नय से सारे जीव शुद्ध हैं ।
एकांत की अनाश्रेयता―भैया केवल जीव को स्वभाव रूप में देखा जाये तो स्वभाव तो सब जीवों का सिद्धों, अरहंतों, साधु जनों, गृहस्थों, कीड़ों मकौड़ों पेड़ पौधों, सबकी आत्मा का स्वभाव शुद्ध है । तब एकांत से ऐसा सुनकर कोई जीव के स्वरूप का अति उत्कृष्ट प्रतिपादन करने के लिए ऐसा कहे कि हां तो मैं ठीक कह रहा था न कि ये सब एकांत से अकर्ता हैं । उनके प्रति कहा जा रहा है कि अब यह एकांत से अकर्ता हो जायेगा । तो उस समय जैसा शुद्ध निश्चयनय से अकर्ता है वैसा ही व्यवहार से भी अकर्ता है । जाये तो चूंकि जीव पदार्थ वहाँ अकर्ता हो गया तो अब संसार का अभाव होना चाहिए । और जब संसार का अभाव हो गया तो यहाँ भोगने वाला भी कोई नहीं रहा ।
कर्तृत्व व भोक्तृत्व की एकाधिकरणता―कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि रागादिक का कर्ता तो है प्रकृति कर्म, पर भोगता है पुरुष अर्थात् जीव । सो कहते हैं―जो करता है सोई भोगता है । आप जिस दृष्टि से जीव को कर्ता समझ सकते हो उस दृष्टि से जीव को भोक्ता समझ लीजिए । पर जब कोई भोक्ता सिद्ध नहीं होता तो कर्ता सिद्ध नही होता । यदि कर्ता सिद्ध न हो तो भोक्ता सिद्ध नहीं होता । परमार्थ से कर्ता ओर भोक्ता एक ही द्रव्य में हुआ करता है, तो चूंकि ऐसा दूषण है नहीं । अत: वेदक आत्मा को मानने वाले लोग अर्थात् जो आत्मा को भोगने वाला मानते हैं वहाँ पर करने वाला भी नियम से सिद्ध होता है ।
प्रकृत बात कहने के आशय की शुद्धता―गुणस्थान नामक यह प्रत्यय कर्म को करता है ऐसा पहिले कहा है इस कारण शुद्ध निश्चय नय से जीव उन कर्मों का कर्ता नहीं होता । गुणस्थान नाम से प्रसिद्ध यह प्रत्यय ही कर्मों को करता है । तब वास्तव में बंध का करने वाला विकारभाव होता है । बंध का करने वाला जीव नहीं होता है । जीव के स्वरूप को सुरक्षित देखने के लिए प्रत्ययों को कर्मों को कर्ता कहा गया है और उन्हीं का ही भोक्ता कहा गया है, अनुभवने वाला कहा गया है । पर जीव को बिल्कुल शुद्ध केवल चैतन्य स्वभावमात्र शक्ति स्वरूप रखा गया है । इस शक्ति का जिन्हें परिचय है, अनुभव हुआ है उन्हें कहते हैं ज्ञानी जीव । ज्ञानी पुरुष केवल ज्ञानमय भावों का ही कर्ता होता है और अज्ञानी पुरुष केवल अज्ञानमय भावों का ही कर्ता होता है । परभावों को तो कोई भी जीव नहीं करता है । जो कर सकता हूँ ऐसा भी मानते हैं उनमें भी यह सामर्थ्य नहीं है कि वे किसी भी परद्रव्य के करने वाले हो जाये । इस तरह यहाँ यह सिद्ध किया कि कर्मों को बांधने वाला प्रत्यय है, विकार है जीव नहीं है । तो जीव अकर्ता है और प्रत्यय अर्थात् आस्रव कर्ता है । यहाँ यह तर्क उठना स्वाभाविक है―तो क्या यह जीव, प्रत्यय मिथ्यात्व रागादिक भावों से न्यारा है? यह तो एक मालूम होता है ꠰ उसके समाधान में कहते हैं कि एक नहीं है । जीव और प्रत्यय जुदे-जुदे स्वरूप वाले हैं । इसी बात को अब आगे तीन गाथाओं में स्पष्ट करेंगे कि जीव अपने सहज स्वरूपरूप है और मिथ्यात्व आदिक प्रत्यय जुदा हैं, इनमें एकता नहीं होती है ।