वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 126
From जैनकोष
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स ।
णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ।।126।।
वस्तु में परमार्थत: स्व का ही कर्तृत्व―आत्मा जिस भाव को करता है उस भावरूप कर्म का कर्ता होता है । ज्ञानी जीव के ज्ञानमय भाव होता है और अज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव होता है, पर करता है जीव केवल अपने भावों को । इसी प्रकार यह आत्मा स्वयं ही परिणमन स्वभाव वाला होकर जिस स्वरूप अपने भावों को करता है उसही भाव का कर्ता कहलाता है और उसका वह भाव कर्म कहा जाता है ।
ज्ञानी के ज्ञानमय भाव की उद्भूति―कर्मरूप से परिणमा आत्मा का वह भाव ज्ञानी जीव के तो ज्ञानमय ही होता है क्योंकि इस ज्ञानी पुरुष के भली प्रकार स्व और पर का विवेक उदित हुआ है, यह ज्ञानमात्र मैं हूँ, औ ज्ञानातिरिक्त सब भाव पर हैं । समस्त चेतन-अचेतन पदार्थ पर हैं । यह मैं ज्ञानमात्र स्व हूँ । ये रागादिक विकार पर हैं । ऐसा ज्ञानमात्र स्व का पर से विवेक कर लेने के कारण उसमें विविक्त आत्मा की ख्याति प्रसिद्ध होती है इसलिए जो कुछ उससे बनता है वह ज्ञानमय भाव ही बनता है । तो ज्ञानी के ज्ञानमय ही भाव होता है । अभी जिस पुरुष के बारे में आपको यह कहा ही है कि यह पुरुष निष्पक्ष है, राग-द्वेष की बातें नहीं करता, किसी का कोई पक्ष नहीं जुटाता, विवेकी है, ज्ञानवाला है तो कोई परस्पर में किसी का झगड़ा होने पर वे दोनों शरीफ यह कह बैठते हैं कि जो यह कहेंगे तो हम मानेंगे । हालांकि पता नही है कि यह कैसा बोलेगा पर यह विश्वास है दोनों में कि चूंकि यह ज्ञानी है, निष्पक्ष है इसलिये जो भी इसका भाव होगा, निर्णय होगा वह सब यथार्थ होगा । इतना तो निर्णय है । इसी प्रकार ज्ञानी जीव के चूंकि स्व और पर का विवेक हो गया इस कारण यह निश्चय है कि वह अन्याय नहीं कर सकता ꠰ ज्ञानी किसलिये अन्याय करेगा, अगर भ्रम होता तो अन्याय करता किसी विषय से हित माना हो, किसी पर को अपना माना हो तो वह अन्याय करता । ज्ञानी के ज्ञानमय ही भाव होता है ।
अज्ञानी के अज्ञानमय भाव की उद्भूति―अज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव ही होगा । एक बिगड़ी हुई संस्कृत में कहावत है कि पंडित: शत्रुः भद्रो न मूर्खो हितकारक: पंडित समझदार यदि शत्रु भी हो तो भी वह भला है पर मूर्ख मित्र जो अपने लिये हितकारी हो वह भला नहीं है । भले ही वह अपने लिये हितकारी है पर पता नहीं कब अणसट्ट बोल दे और उस मित्र से नुकसान हो जाये । तो अज्ञानी जीव के चूंकि स्व पर का विवेक नहीं है इसलिये इस विविक्त आत्मा की ख्याति अत्यंत अस्त हो गई है । वह अपने आत्मस्वरूप को परिचय में नहीं ले सकता है इसलिये उसके अज्ञानमय ही भाव होता है ।
कर्तृत्व का हेतु परिणमनशीलता―इस प्रकार यह सिद्ध किया गया है कि जीव स्वयं निरंतर परिणमते रहने का स्वभाव रखता है । जब तक यह जीव अज्ञानभाव का उपादान रखे रहता है तब तक अनुकूल कर्म प्रकृति का निमित्त पाकर अज्ञानमय भाव को करता है । और जब यह ज्ञानमय शुद्ध उपादान को प्राप्त करता है तब यह जीव ज्ञानमय भाव का कर्ता होता है । पर परिणमन का स्वभाव जीव में है । मोक्ष की समस्या बड़ी समस्या है अर्थात् संकटों से छूटने की बात एक बहुत बड़े ध्यान की बात है । वह इस ही दशा में संभव है कि जब स्वयं को और पर को परिणमने का स्वभाव माना जाये । जिसे छूटना है वह ही न बदले तो फिर मुक्ति किसे हो । और यह स्वयमेव ही बदलता रहता हो अथवा पर के निमित्त से बदलता रहता हो तो मुक्त होकर वह करे क्या । वहाँ पर भी इन्हीं संकटों में बसना पड़ेगा । इस कारण पुरुष और प्रकृति इन दोनों को परिणमन स्वभाव वाला माना जाये तब मोक्ष की व्यवस्था इसकी बन सकती है । यहाँ यह कहा गया है कि ज्ञानी के ज्ञानमय भाव होता है क्योंकि उसके स्व पर का विवेक जगा है । और समस्त पर भावों से विविक्त आत्मा की ख्याति होती है पर अज्ञानी जीव के अज्ञानमय ही भाव है क्योंकि उसके स्व पर का विवेक नहीं जगा, और उसे इसी कारण विविक्त आत्मा की दृष्टि नहीं उत्पन्न हुई । अब यह बतलाते हैं कि ज्ञानमय भाव से क्या होता है और अज्ञानमय भाव से क्या होता है ।