वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 127
From जैनकोष
अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि ।
णाणमओ णाणिस्स दु ण कुणदि तह्मा दु कम्माणि ।।127।।
अज्ञानमय भाव का परिणाम―अज्ञानी जीव के अज्ञानमय ही भाव होता है इस कारण वह भाव कर्मों का कर्ता है, और ज्ञानी जीव के ज्ञानमय भाव होता है इस कारण वह ज्ञानी कर्मों का कर्ता नहीं है । शुद्ध जानन देखन जैसे स्थिति में न हो उस स्थिति को अज्ञानमयभाव कहते हैं । अज्ञानी जीव के निज और पर का अस्तित्व प्रतीत नही हुआ इसी कारण विविक्त निज आत्मतत्त्व की उसकी दृष्टि नहीं हुई । वह विविक्त आत्मतत्त्व मोह से ग्रस्त है इस कारण अज्ञानमय ही भाव होता है । इस अज्ञानमय भाव से ही किसी के स्व और पर का भिन्न स्वरूप ही नजर में है नहीं । जब भिन्न अस्तित्व नजर में नहीं है तो यह प्राकृतिक बात है कि स्व और पर में एकत्व का, संबंध का, निर्भर होने का एक दूसरे के आश्रित अस्तित्व समझने का अभ्यस्त हो जाता है और जब स्व और पर में एकत्व का अभ्यास हो गया तो ज्ञानमात्र स्थिति से भ्रष्ट हो जाता है ।
स्वरूपभ्रष्टता का परिणाम―जब कोई ज्ञानमात्र दर्शन से भ्रष्ट हो जाता है तो पर जो रागद्वेष भाव है इनके साथ एकता कर लेता है, और ऐसी दृढ़ एकता हो जाती है कि उसही भाव से अहंकार चलने लगता है । जैसे लौकिक पुरुषों को अपने नाम में एकता है तो कोई धीरे भी नाम ले या आधी नींद में हो, वहाँ पर कोई नाम ले तो झट कान खड़े हो जाते हैं उस नाम में क्या है? चार-पाँच शब्द ही तो हैं, जो स्वर व्यंजन के शब्द हैं, उन शब्दों को किसी क्रम से रख दिया, यही तो नाम में है तो अपने नाम का अहंकार करने लगते हैं कि मुझे ही तो कहा । इसी से तो जो चतुर लोग होते हैं वे दूसरों को वश में करने का अथवा दूसरों से दान आदिक कराने का या स्वार्थ पूर्ति करने का यह उपाय समझते हैं कि अच्छी प्रशंसा कर देना चाहिए, इनका नाम जाहिर कर दें फिर तो वे वश में हो ही जायेंगे । दूसरों को वश में करने का और अपना कोई कार्य कराने का चातुर्य इसमें समझा जाता है कि नाम की प्रसिद्धि कर दें जाहिरात कर दें ।
अनर्थों का मूल नाम का लगाव―भैया ! जिसे नाम में ऐसा श्रद्धान बना हुआ है कि अमुक चंद, अमुक मल मैं ही तो हूँ । जिस नाम में एकता ऐसी हो गई है कि वह अब जीवन में नहीं मिटती है । अखबारों में यदि कोई निंदामय वाक्य आ गया और उनमें केवल एक बात नाम के अक्षर पड़ गए तो सारा क्षोभ मच जाता है जिसका नाम पड़ गया है उसके । क्या इस आत्मा का यह अमुक नाम है? बहुत अंत: मर्म में जाकर देखो तो यह तो एक चैतन्यस्वरूप पदार्थ है, जैसे सब अपना स्वरूपास्तित्व रखते हैं वैसे ही यह अपना स्वरूपास्तित्व रखता है । नाम में एकता हो जाने पर अहंकार की प्रवृत्ति होने लगती है कि यह मैं हूँ, और अपने ज्ञानमात्र के स्वरूप को भूल जाता है, जैसी वासना नाम की बनी रहती है, ऐसी ही वासना में ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा देखने के लिए नहीं उत्पन्न होती है । तो जब रागद्वेषों में एकता मान लिया, अहंकार प्रवृत हो गया तो अपने बारे में ऐसा समझता है कि यही मैं हूँ, रागद्वेष कर रहा हूँ यही तो मैं हूँ । फिर यह न राग करते हुए हिचकिचाता है न द्वेष करते हुए हिचकिचाता है । क्योंकि मौज विषय साधन, लोकप्रतिष्ठा, दिल बहलाते, लोगों से कुछ अच्छा नाम कहलवा लें, यही मात्र जब जीवन का लक्ष्य है तब राग और द्वेषों में ही तो अपनी बुद्धिमानी समझेगा ।
ज्ञानभाव व अज्ञानभाव के विलास―जिसका लक्ष्य यह है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ और ज्ञानरूप रहना मेरा कर्तव्य है, इसी में ही उन्नति है, यही मेरा खास स्वरूप है, काम है । इसके अतिरिक्त अन्य उपाधि हैं, संसार में रुलाने के साधन हैं ऐसी बात जब ज्ञान में आए तब तो राग करते हुए हिचकेगा, द्वेष करता हुआ कुछ अष्टपट मानेगा, न करने को चाहेगा, निवृत्ति की ओर उन्मुख होगा । पर जो ज्ञानमात्र स्वरूप की दृष्टि से च्युत है, स्व और पर के साथ एकता जिसके ज्ञान में बैठी है वह पुरुष रागी द्वेषी होकर राग करता है, द्वेष करता है और इतना ही नहीं, राग द्वेष करता हुआ उन रागद्वेषों को आत्मरूप करता हुआ अर्थात् यही मात्र मैं हूँ, ऐसा मानता हुआ कर्मों को करता है । जैसे लौकिक पुरुषों को यह भाव बना रहता है कि तुम कौन हो भाई? मैं अमुक मनुवा का बाप हूँ, अमुक का मैं भ्राता हूँ, इन तरह का ऐसा संस्कार बना रहता है, इसको मना ही नहीं किया जा सकता । मैं यह कुछ नहीं हूँ, मैं तो अन्य सब जीवों की भाँति चैतन्यस्वरूप रखने वाला एक पदार्थ हूँ । इसे कोई नहीं जानता है, जैसे सब जीव हैं ऐसा मैं भी एक हूँ । इस प्रकार का लक्षण किसी समय नहीं पहिचान सकते हैं । ऐसी ही वासना बनी रहती है कि मैं अमुक हूँ ।
ममत्व में अहंत्वभाव की महांधता―अज्ञानी जीव के निरंतर यह भावना बनी रहती है, रागद्वेषादि विकार जितने हैं ये मात्र मैं हूँ । यह तो ज्ञानी की भाषा में बात कही जा रही है कि अज्ञानी जीव रागद्वेषों को ही आत्मा मानता है, हर अज्ञानी को स्वयं यह पता नहीं कि ये रागद्वेष हैं और इन्हें मैं आत्मा मानता हूँ, बोध हो तो अज्ञानी ही कहाँ है, फिर तो ज्ञानी हो गया । जैसे कोई कहे कि मकान मेरा है, ऐसा कहने वाले को कम से कम यह तो ज्ञात है कि मकान ही मैं नहीं हूँ, मैं अलग हूँ, मकान अलग है, मकान मेरा है, ममता के भाव से अहंत्व का भाव बहुत दृढ़ अंधकार में होता है । यह पुत्र मेरा है ऐसा सोचने में अभी गनीमत है थोड़ी । या तो थोड़ा बहुत भाव है कि यह मैं हूँ पुत्र यह है, और पुत्र मेरा है ꠰ कोई कहे कि शरीर मेरा है तो यहाँ भी कुछ भेद है कि शरीर यह है और मैं कुछ हूँ और शरीर मेरा है । पर जहाँ यह आशय हो जाये कि शरीर को ही लक्ष्य रखकर कहे कि यह मैं हूँ उसमें घना अंधकार बना हुआ है । और इसी तरह रागद्वेष परिणाम में जिसके यह भाव हैं कि यह मैं हूँ रागद्वेष के प्रति ही ऐसा अहंत्व आ जाये कि यह मैं हूँ तो उसका यह दृढ़ अज्ञान अंधकार है और इस मिथ्यात्व अंधकार के विकार में यह जीव संसार परंपरा को बढ़ाने वाले कर्मों से लिप्त होता है ।
अज्ञानीयों की प्रवृत्ति में अज्ञान की व्यक्त झलक―कितने ही पुरुष और विशेषकर महिलाएँ ऐसे अज्ञान अंधकार में होती हैं कि इष्ट के गुजरने पर ऐसा अनुभव करती हैं कि मेरी ही बरबादी हो गई । किसी-किसी को तो यह रहता है कि अब मेरा जीवन कैसे चलेगा, इसमें भी कुछ भेद रहता है पर मैं ही मिट चुका इस प्रकार का जो आशय है वह विशेष अज्ञानअंधकार को लिये हुये हैं । अनेक लौकिक पुरुषों का कर्तव्य देख लीजिये ना आज कल के भेषभूषा में जो महिलाएं ओठों में लाली लगाकर पाउडर लगाकर चोटियाँ बांधकर जब शान से सड़कों पर निकलती हैं तो उनके स्पष्ट अज्ञान ऊपर झलक रहा है या नहीं? कुछ खबर नहीं है अपने ज्ञानमात्र स्वरूप की और कितने अहंकार में लिप्त हैं इस जड़ शरीर या पर वस्तु के प्रति कैसा अज्ञान बसाये हैं कि ऐसी घटना को देखकर ज्ञानियों को तो दया ही उपजती है कि देखो यह कितना अज्ञान अंधकार में है । ज्ञानस्वरूप का जिन्हें पता ही नहीं हैं, वे शांति नहीं पा सकते हैं । कितने ही नवयुवक लोग पढ़ने लिखने वाले भेषभूषा बनाकर पान चबाते हुए अभिमान की मुद्रा से चलते हुए नजर आते हैं तो भयंकर अंधकार एकदम ऊपर नाच गया और यह स्पष्ट मालूम होता है कि इन बेचारों को रंच भी अपना ख्याल नहीं है ।
अज्ञानी की अहंकारमूलक लौकिक सभ्यता―देखो भैया कहाँ-कहाँ अज्ञानियों का उपयोग दौड़ा है कैसे बाहरी ज्ञान को दृढ़ता से पकड़े हुए हैं कि कुछ अपने आपका पता ही नहीं है और कुछ सभ्यतापूर्ण भी विनय आदि से रहे तो वहाँ पर भी कैसा दृढ़ अहंकार चिपका हुआ है । जैसे लखनऊ की बोली । अब तो ऐसा नहीं रहा जैसा पहिले सुनते थे । उर्दू की प्रमुखता जाहिर थी । आइए मेहरबानी करके, लाइये तशरीफ, फरमाइए आदि बोली में अहंकार छिपा हुआ है । अभिमान के कारण ही ऐसी विनयपूर्ण बातें बोली जा रहीं हैं । तो ऐसा यह अज्ञान अंधकार दृढ़ता से जीव में लगा है । यह तो संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों की कथा है । असंज्ञी जीव कीड़े मकोड़े पेड़ पौधे इनके स्व पर का विवेक ही क्या है । इनका तो जीवन आहार संज्ञा के लिए है । मेरा जीवन हरा भरा रहे, मौज से रहे, बस यही एक उनका जीवन है । और कुछ उन्हें पता नहीं है । ऐसा जो ज्ञानमात्र स्वरूप से भ्रष्ट है और पर द्रव्यों में ममत्व का परिणाम लिए हुए हैं वह रागद्वेषमय विकारमय अपने को मानता हुआ कर्मों को करता है ।
ज्ञानी के शांति के अभ्युदय का कारण―ज्ञानी जीव जिसको भली प्रकार स्व और पर का विवेक हो गया है और इसी कारण अत्यंत विविक्त आत्मा की दृष्टि उदित हो गई है और निरंतर यह संस्कार बना हुआ है कि मैं तो यही हूँ और जब चाहे इसका उपयोग कर सकता है । जैसे मुहल्ले में किसी और दूसरों से लड़ाई हो जाये तो खुद को बेचैनी नहीं होती । वह समझता है कि मैं तो यह हूँ, मेरा तो यह है । यहाँ तो कुछ उपद्रव नहीं है । पड़ोस में किसी जगह कोई विवाद, क्षोभ की बात हो जाये तो उस समय जैसे लौकिक पुरुष अपने में क्षुब्ध नहीं होते क्योंकि जानते हैं कि यह उपद्रव मेरे घर में तो नही होता । ऐसे ही जिस ज्ञानी ने अपना घर केवल अपना स्वरूप ही समझा जिससे कि सारा काम पड़ना है, जो कि सदा साथ रहता है जिसके सिवाय अन्य कुछ है भी नहीं ऐसा निज स्वरूप जिसने अपना घर समझा है और अपने स्वरूप को ही अपना परिवार समझा है ऐसे जीव को चूंकि अपने आत्मा की सिद्धि प्रसिद्धि हो गई है सो पर पदार्थों की कुछ भी परिणति हो, अंतर में क्षुब्ध नहीं होता है । हो रहा है बाहर, इस मुझमें तो कुछ नहीं हो रहा है ।
पर पदार्थों के प्रति ज्ञान की यथार्थ धारणा―जो बिल्कुल निकट हैं ऐसे पर द्रव्य भी मेरे स्वरूप से अत्यंत दूर हैं, मेरे ही क्षेत्र में अवगाहरूप से ठहरे है ऐसे भी पदार्थ मेरे से अत्यंत दूर हैं । जितना अत्यंताभाव मेरा हजारों कोश दूर रहने वाले पदार्थ से है वैसा ही अत्यंताभाव मेरे ही निकट मेरे ही क्षेत्र में रहने वाले पदार्थों में है । ऐसी स्वरूपदृष्टि ज्ञानीपुरुष को प्राप्त होती है जिसके कारण इसका ज्ञानमय भाव होता है । और कभी ऐसी भी विकट स्थिति होती है ज्ञानी पुरुष के भी कि प्रवृत्ति में अज्ञान जैसा काम लगता है पर भीतर जो यथार्थ ज्ञान हो चुका है जो ज्ञान ज्योति जग चुकी है उसके उजेले को कौन मिटा सकता है? समझता है अंतर में सब कुछ, पर कर्म विपाक जब तीव्र ऐसा ही भोग में आता है तो अज्ञानी जैसी भी प्रवृत्ति बाहर में कदाचित् हो जाये तो भी अंतर के ज्ञान प्रकाश को वह भूलता नहीं ।
अविरत ज्ञानी की अंत: शुद्धि का एक दृष्टांत―कोई एक गुरु संस्कृत पढ़ाने वाला बच्चों को पढ़ाने बैठा । वे तोतले थे । गुरु महाराज । कोई कुछ कम तोतले होते हैं कुछ ज्यादा तोतले होते हैं । मगर तोतले स नहीं बोल सकते । च भी नहीं बोल सकते । च बोल भी लें पर स कोई तोतला नहीं बोल सकता । तो संस्कृत पढ़ाने बैठे । एक बात बोली जाती है । सिद्धिरस्तु । तो वह सिद्धिरस्तु की जगह पर टिद्धिरस्तु बोलें । संस्कृत पढ़ने वाले लड़कों को यह समझाना था कि हम से चाहे जो बोलने में आ जाये पर तुम सिद्धिरस्तु समझना । किंतु जब बोलें तो टिद्धिरस्तु निकले । तो भीतर में जो आशय था वह प्रकट ही नहीं कर पाता है और भीतर में सब जान रहा है । ऐसे ही ज्ञानी अंत: सावधान है, प्रवृत्ति भले ही अन्य हो । तत्त्वज्ञानी के कर्म विपाक भी आ जाये फिर भी उस ज्ञानी के ज्ञानमय ही भाव होता है ।
ज्ञानी पुरुष के परारंभ की सीमा―ज्ञानी पुरुष प्रत्याक्रमणरूप में किसी पर कुछ विपत्ति भी डाले तो विनाशकारी विपत्ति नहीं डाल सकता । भले ही थोड़ी बहुत बातें अपने न्याय को सिद्ध रखने के लिए करनी पड़े पर किसी का विनाश कर सके ऐसी विपत्ति का यत्न ज्ञानी पुरुष को नहीं हो सकता । जबकि अज्ञानी पुरुष आपका भला चाहता हुआ भी ऐसी बात कर सकता है कि उसकी ही करनी से आपका विनाश संभव हो ꠰ ज्ञानी के ज्ञानमय ही भाव होता है और अज्ञानी के अज्ञानमय ही भाव होता है । यह ज्ञानी पुरुष स्व और पर में भेद का विज्ञान किए हुए है । ये पर सब कुछ मैं नहीं हूँ । मैं वो ज्ञानमात्र हूँ । ऐसे ज्ञान के कारण ज्ञानी ज्ञानमात्र निज में अच्छी तरह से फिट बैठा है । व पर जो रागद्वेष हैं उन्हें पृथक किए हुए है ।
ज्ञान का ज्ञातृत्व―वास्तविक भेद विज्ञान यही है कि अपने ही आत्म प्रदेशों में जो ज्ञान और रागादिक विकारों का पार्ट हो रहा है, उसमें रागद्वेषादिक विकारों से पृथक् रहकर उनसे निवृत्त होता हुआ अपने ज्ञानमात्र में ही उन्मुख रहे ऐसा भेद विज्ञान ही वास्तविक भेद विज्ञान है और जो ऐसा कर सकता है वह स्वरस से स्वभाव से अहंकार से हटा हुआ रहता है । जो अहंकार से परे है वह स्वयं केवल जानता ही है, न राग करता है, न द्वेष करता है । राग भी आए तो राग को भी जानता है, द्वेष भी आए तो द्वेष को भी जानता है । जैसे कोई द्वेष कर रहा हो और यह भी जान रहा हो कि मैं गल्ती पर हूँ यह अनर्थ है, व्यर्थ है, द्वेष करना बुरा है ऐसा ज्ञान जब आ रहा है तो वह द्वेष से निवृत्त हो रहा है, वह द्वेष ही नहीं करता है द्वेष का उदय कर्मोदय से हो रहा है मगर वह ज्ञानी उनसे निवृत्त है । ज्ञानी केवल जानता ही है, वह न केवल राग करता है और न द्वेष करता है । तब ज्ञानमय भाव होने से ये ज्ञानी पर जो रागद्वेष भाव हैं उन रागादिक भावों को अपना स्वरूप न बनाता हुआ, न मानता हुआ कर्मों को नहीं करता है । अर्थात् रागादिक विकारों को नहीं करता है अथवा द्रव्यकर्मों से लिप्त नहीं होता ।
ज्ञानी के मूलज्ञान का प्रताप―भैया ज्ञानी पुरुष का ऐसा ज्ञान है कि जो मौलिक वस्तुस्वरूप को छूता हुआ ज्ञान निकट काल में अनंत ज्ञानादिक अनंत चतुष्टयरूप कार्य समयसार का उत्पादक होगा । बहुत बड़ी रसोई का काम निपटा देने वाला आग का मूल एक चिनगारी है ꠰ वह चिनगारी सारी रसोई बनाने का मूल बन गई है ꠰ अनंत ज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख, अनंत शक्ति रूप, अनंत चतुष्टय को उत्पन्न करने वाला यही मौलिक ज्ञान है, यही स्वसम्वेदन ज्ञान है । उस कार्य समयसार को उत्पन्न करने वाला होने से इस भेद विज्ञान से परिणत जीव ज्ञानी कहलाता है । जो निर्विकल्प समतापरिणाम का उत्सुक है, समस्त यत्नों से जो ज्ञानस्वभाव के ग्रहण करने में लगा हुआ है, ऐसे ज्ञानी जीव के ज्ञानमय ही भाव होता है किस प्रकार कि लो पहिले जो शुद्ध आत्मा की ख्याति प्रसिद्धि हुई है यही है शुद्धआत्मतत्त्व, फिर प्रतीति होती है ओह ! मेरा मैं ही हूँ।
आत्मा की ख्याति और प्रतीति―ख्याति और प्रतीति में यह अंतर है कि ख्याति में सामान्य कहलाता है पर क्षेत्र में भी उपयोग लेकर उसकी ख्याति कर सकते हैं । संसार के सभी जीवों में हम शुद्ध चैतन्य को समझें इसको ख्याति कहते हैं । हम परमात्मा के चैतन्यस्वरूप को निरखें इसे भी ख्याति कहते है । किंतु प्रतीति का संबंध स्वयं से है । शुद्धआत्मा की प्रतीति ख्याति के बाद होती है लो यह तो मैं हूँ । जैसे मैं, सब जीवों का स्वरूप जानता हूँ वही तो मैं हूँ । ऐसी प्रतीति ख्याति की विशेष उन्नति है । फिर प्रतीति के बाद सम्वित्ति होती है, सम्वेदन होता है ज्ञान होता है, और सम्वित्ति के बाद उपलब्धि होती है । पा ही लिया बस जैसे पा लेने के बाद फिर निश्चिंत हो जाते हैं ना ꠰ कोई सौदा ठहराते हुए एक चौथाई पेशगी मिल गयी तो समझ लो कि काम हो चुका । जिस आत्मा को यहाँ सम्वेदन करते हैं उसको उपलब्धि हो गई है । यह उससे ऊँचे स्टेज की बात है, फिर सर्वोत्कृष्ट अनुभव ही है, जहाँ कोई विकल्प ही नहीं है । निर्विकल्प समता रस का जहाँ सेवन है ऐसा अनुभव होता है । इस प्रकार की स्टेजों से गुजरा हुआ ज्ञानमय भाव होता है ꠰ ज्ञानी पुरुष ऐसा अपने आपका स्वरूप दर्शन होने के कारण कर्मों को नहीं करता है उसके कर्म बंध को प्राप्त नहीं होते हैं । इस तरह ज्ञानी जीव अज्ञान भाव से दूर है, कर्मों से अलिप्त है ज्ञानदृष्टि में ही उन्मुख है, ज्ञानी के तो ज्ञानमय ही भाव होता है और अज्ञानी के अज्ञानमय भाव होता है, इतने कथन के बाद अब यह बतलायेंगे कि क्यों ज्ञानमय भाव ज्ञानी के होता है और अज्ञानी के क्यों अज्ञानमय भाव होता है ꠰ ज्ञानी जीव के ज्ञानमय ही भाव क्यों होता है अज्ञानमय भाव क्यों नहीं होता? और अज्ञान जीव के समस्त भाव अज्ञानमय ही क्यों होते हैं ज्ञानमय क्यों नहीं होते हैं? इसका उत्तर इन दो गाथाओं में दिया जा रहा है:―