वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 138
From जैनकोष
एकस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं ।
ता कम्मोदय हेदूहिं विणा जीवस्स परिणामो ।।138।।
निमित्त और नैमित्तिकभाव की भिन्नता―जीव के रागादिक परिणाम निश्चय से कर्मों के साथ होते हैं ऐसा मान लेने पर जीव और कर्म दोनों ही रागादिकपने को प्राप्त हो जाने चाहिए । किंतु ऐसा नहीं है । रागी केवल जीव ही होता है तब यह सिद्ध हुआ कि कर्मोदयरूप हेतु के बिना अर्थात् कर्मोदय को उपादानरूप से लिए बिना जीव का परिणमन होता है । यद्यपि जीव के विकार में निमित्तभूत उदयागत पुद्गल कर्म हेतु हैं लेकिन निमित्तभूत पदार्थ निमित्त में ही रहते हैं, उससे बाहर उसकी द्रव्य, गुण, पर्यायें नहीं होती । कैसा विलक्षण संबंध है कि निमित्त बिना विकार होता नहीं और निमित्त का कुछ भी ग्रहण यह उपादान करता नहीं है । ऐसा कुछ अवक्तव्य या विशेष वर्णन न किया जा सकने योग्य संबंध है कि संबंध होते हुए भी संबंध नहीं है । जीव रागादिक अज्ञानरूप परिणमता है तो वह पुद्गल कर्म के साथ ही रागादिक अज्ञानरूप परिणमा हो तो जैसे चूना और हल्दी को एक साथ मिला देने पर दोनों ही लाल हो जाते हैं इसी प्रकार जीव और पुद्गल कर्म दोनों से ही रागादिक अज्ञान परिणाम उत्पन्न हो जाये, नैमित्तकता होने पर भी उपादानदृष्टि से दोनों का परस्पर में अत्यंताभाव है उसका परस्पर में कुछ लेन देन नहीं है ।
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पुण्य-पाप अधिकार
यह समयसार ग्रंथ है । समय का अर्थ है आत्मा । उस आत्मा में जो सारतत्त्व है, जो शरणतत्त्व है उसका नाम है समयसार । संसार के संकटों से छूटना हो तो बड़े ध्यान से सुनिए इस समयसार की बातें ।
मोह की प्रकृति―इस लोक में कोई भी अन्य पदार्थ इस जीव का शरण नहीं है । बहुतों के तो अनुभव भी हो गया होगा । जिनको अपना बहुत बड़ा हिंदू समझते थे वे ही विपत्तियों में काम न आ सके । समझ तो सब है, पर जैसे मिर्च खाने की आदत वाले लोग सीसी भी करते जाते हैं, आंसू भी बहाते जाते हैं और यह भी कहते जाते हैं कि और दे दो लाल मिर्च, लाल मिर्च की आसक्ति रहती है । इसी तरह इस मोह के संकटों को खूब समझ भी चुके हैं, दुःख भी भोग रहे हैं फिर भी उस मोह में ही घुसे जा रहे हैं । संसार के किसी भी पदार्थ से आपको हित और सुख नहीं मिलेगा । वह हित कहाँ है? उसका प्रतिपादन इस समयसार ग्रंथ में है । यह पुण्य, पाप नाम का अधिकार है । इस तरह वर्णन किया जायेगा पुण्य का और पाप का । पाप कहते हैं खोटे परिणाम को । और उन विषय कषायों की तीव्रता के परिणाम से जो कर्म बंधता है वह कहलाता है पाप कर्म । इस लोक में सर्वत्र ऐसे सूक्ष्म स्कंध पड़े हुए हैं जो आँखों नहीं दिखते और परजीवों के साथ लगे हुए हैं । जब भी यह जीव स्वभाव से च्युत होकर अच्छी या बुरी कल्पनाओं से लगता है तब ही ये कार्माण स्कंध कर्म बन जाते हैं और जीव के साथ बंध जाते हैं ।
कर्मों का विशाल प्रसार―कर्मों के बारे में प्राय: सब हैरान हैं, जानने की उत्सुकता में हैरान हैं कि कर्म क्या चीज है? यों तो मुंह से कुछ भी कह दिया जाये कि तकदीर का नाम कर्म है या ब्रह्मा ने जो कुछ लिख दिया उसका नाम कर्म है या मनुष्य जो कुछ करता है उसका नाम कर्म है, पर वे कर्म क्या हैं कि जो वास्तव में अपना कुछ सत्त्व रखते हैं और जिनके उदय से आत्मा में नाना क्षोभ मच जाया करते हैं, वे कर्म क्या हैं? इन कर्मों के संबंध में यदि लंबी चर्चा छेड़ दी जाये तो रोज-रोज बोलकर भी चार छ: महीने में समाप्त न होगी । और इतनी गहरी सूक्ष्म चर्चा है कि अनेक जीवों को तो कर्मों के सिद्धांत के अध्ययन के निमित्त से ज्ञान महिमा ज्ञात होते ही सम्यग्दर्शन हो जाता है । इतना बारीक कथन एक विशिष्ट ज्ञान के बिना नहीं हो सकता । और ऐसा विशिष्ट ज्ञान सर्वज्ञदेव की परंपरा बिना नहीं हो सकता । उस सूक्ष्म कथन को पढ़कर सर्वज्ञदेव की श्रद्धा अकाट्य हो जाती है ।
प्रयोजन के मूल से चलकर कर्मस्वरूप जानने की पद्धति―खैर ! अपने काम की बात देखो । मान लो सभी मजहब वाले अपनी-अपनी गाते हैं, तो हम भी यह निर्णय करते कि हमारे सिद्धांत में जो लिखा है वह ठीक है । वह भी तो अपने पक्ष से लिखा तो सकता है । यदि ऐसी संगति हो तो सब छोड़ दीजिये, कुछ नहीं सोचना है । हमारे गुरुवों ने क्या कहा, इसका भी विचार नहीं करना है । किंतु अपने काम की बात तो देखो कि तुम्हें क्या चाहिए? आनंद । और यह तो निरख लो कि यह आनंद किन्हीं बाहरी चीजों से आया करता है और मुझमें घुसा करता है क्या? परख तो लो जरा । पंचेंद्रिय के विषयभूत पदार्थों से क्या आनंद की किरण निकलकर मेरे में आया करती है? देख लो ।
रसना व घ्राण के विषय से आनंद की अनुत्पत्ति का संकेत―भैया ! कहीं भोजन से आनंद का फव्वारा छूटा हो और किसी ने देखा हो तो बतलावों । मगर भोजन में से आनंद का फव्वारा छूटता है तो छाती तक खा लीजिए, गले तक खा लीजिए, मुँह में खूब भर लीजिए और कौर भरकर, सोकर बैठ जायें, क्योंकि उसमें आनंद भरा है । किसमें आनंद भरा है सो बतलावो? खुशबुओं में आनंद भरा है तो इनकी सीसियाँ ले आवो और खूब नाक में डाल दो । नाक में खूब इत्र डाल दो । और फिर डाट लगा दो कि खुशबू की हवा बाहर न निकल सके । कर डालो ना उपाय । अरे इत्र वालों की दुकान पर आधा घंटा भी नहीं बैठा जा सकता । पहिले दो चार मिनट तो भला लगेगा, अच्छी खुशबू आयेगी । बाद में दिमाग परेशान हो जायेगा । इत्र बेचने वालों को तो आदत पड़ गई है, कुछ उनको सुहावना नहीं लगता ।
नेत्र, कर्ण, स्पर्शन के विषय में भी सार का अभाव―किसमें आनंद ढूँढते हो? रूपवान चीजों में आनंद ढूँढ़ते हो, तो जो चित्र हैं, सिनेमा है, सुंदर रूप है तो बिना पलक गिराये आँखें फाड़कर निहारते रहो । कौन मना करता है ? आंखें खराब हो जायेंगी और फिर सार किसमें है, किस रूप में है बतलावो? सिनेमा के पर्दा पर जो चित्र आते हैं, कोई अच्छा आदमी आये तो आप जाकर प्रेम कीजिए, हाथ मिला आवो । वहाँ कुछ मिलेगा क्या? यहाँ जिंदा पुरुष स्त्री के रूप को देखते हो तो खूब जरा कड़ी निगाह करके देख लो ना । इस सारे सांचे के भीतर ठोस ढांचा क्या है? कभी मुर्दे की खोपड़ी देखा हो तो पता पड़ जाये । कहां सार है? इसी तरह न शब्द राग में सार है, न स्पर्श में सार है । यदि कहीं बाहर में सार नजर नहीं आता है तो अपने में दौड़ धूप करो ।
आनंद के उद्गमस्थान की खोज―हाँ, क्या चाहिए आपको ? आनंद । आनंद ढूंढ़ने के लिए बाहरी पदार्थों में यदि गए तो आनंद वहाँ नहीं मिलेगा । वहाँ बंधन हो जायेगा, आपत्तियां ही आ जाएगी । उन्हीं विषयों को आप चाहते और उन्हीं विषयों को सारा जग चाहता तो आपके हाथ से विषयसाधनों को छुड़ाने के लिए सारा जग झपट रहा है । ऐसी आपत्तियों में पड़ गए, पर मिलता वहाँ कुछ नहीं है । आनंदस्वरूप तो खुद तुम्हीं हो । अगर तुम में आनंद की शक्ति नहीं है तो लाख का समागम भी जुटा लो, पर आनंद आयेगा कहाँ से? बालू में तेल नहीं है तो कितना ही कोल्हू में पेल दो, तेल आयेगा कहाँ से? यदि भोजन के संपर्क से आनंद आता है तो भोजन का संपर्क इस चौकी से जरा करा दो तो चौकी भी जरासा आनंद ले ले । इस खंभा और भींत में भी जरासा भोजन चिपका दो तो ये भी कुछ आनंद ले ले । तो भोजन से आनंद नहीं मिलता है किंतु आनंद वाले से आनंद मिलता है । स्व में आनंद है तो अपने आप से आनंद गुण प्रकट होता है ।
आनंद का स्रोत―यह आनंद निस्तरंग अमूर्त आत्मा में उत्पन्न होता है । बाहरी उपयोगों से तो आनंद घट जाता है । वह आनंद चाहिए ना, तो उस आनंद वाले का स्वरूप जानो कैसा है । हमारे आनंद को कोई दूसरा पुरुष दे नहीं सकता है । भगवान भी मेरे आनंद को नहीं देता किंतु भगवान के पवित्र स्वरूप का ध्यान करके हम अपने में बसे आनंद को व्यक्त कर लेते हैं । प्रभुस्वरूप की बड़ी महिमा है । जो यथार्थस्वरूप में प्रभु को पहिचान जाये तो उसका संसार से उद्धार होना निश्चित है । वह प्रभु शरीर वाला नहीं है । कहीं हाड़, मांस को भी प्रभु कहते हैं? वह प्रभु रागद्वेष वाला नहीं है । जो स्त्री पुत्र रखा करे या शस्त्र वगैरह रखा करे, रागद्वेष के क्षोभ मचाया करे ऐसा प्रभु का स्वरूप नहीं है । प्रभु तो केवल ज्ञान ज्योतिर्मय शुद्ध विकासमय है । प्रभु के तो स्वरूप है, आकार नहीं है । यदि आकार की निगाह से प्रभु को देखते जायेंगे तो प्रभु से भेंट नहीं हो सकती । स्वरूप की दृष्टि से प्रभु से मिलिए तो वह प्रभु मिलेगा और मिलते ही अलौकिक आनंद को प्रकट करता हुआ आयेगा । वह केवल ज्ञानज्योतिर्मय है, ऐसे ज्ञानस्वरूप के रूप में प्रभु को निहारा जाये तो यह ही प्रभु का प्रतिनिधि होकर अनुभव और आनंद को जगाता हुआ दर्शन देगा ।
प्रभुस्वरूप के विस्मरण के कारण दुर्गति―इस प्रभु के स्वरूप को जाने बिना यह समस्त जीवलोक संसार के 84 लाख योनियों में जन्म ले लेकर दुःखी होता फिरता है । उस आनंद का जो स्वरूप है वह तो है धर्म और उसके अतिरिक्त जो परिणाम होते हैं चाहे दान, दया के परिणाम हों, चाहे विषय भावों के परिणाम हों, वे सब परतत्त्व कहलाते हैं । उन्हीं को ही पुण्य पाप कहते हैं । इस अध्याय में पुण्य और पाप की चर्चा की जायेगी । इस अधिकार में सर्व प्रथम अमृतचंद जी सूरि अपने कलश को कहते हैं । उस कलश से पहिले उत्थानिका बनाते हैं कि अब वे एक ही कर्म दो पात्र बनकर पुण्य और पाप रूप से प्रवेश करते हैं । पहिले यह तो निर्णय करो कि तुम्हें पापकर्म चाहिए या पुण्य कर्म । पापकर्म को तो सब मना कर देंगे । पापकर्म तो नहीं चाहिए । तो फिर क्या चाहिए? पुण्यकर्म । तो पुण्यकर्म की भीख अगर मांग रहे हैं तो पहिला पाप तो यही हुआ पुण्य की भीख मांगना । मेरा पुण्य बंध जाये―ऐसी आशा रखना, इस आशा में यह जीव अपने आनंदनिधान प्रभु स्वरूप को भूलकर किन्हीं बाहरी विकल्पों में पहुंच गया ।
पुण्यकर्म की भी अनिष्टकारिता―चाह करके पुण्य कर्म मिलना बुरा है । अब रहा बिना चाहा पुण्यकर्म जो होता है उसकी बात सुनो । बिना चाहे पुण्यकर्म में भी कदाचित् ऐब हो सकते हैं, और किसी-किसी के ऐब नहीं भी होते । पुण्यकर्म के उदय से क्या मिलेगा? धन, परिवार, लोक प्रतिष्ठा ये ही मिलेंगे ना । तो यहीं देख लो कि जो संपदा में है, परिवार में है, देश में जिनकी ख्याति है वे सुख से सो भी सकते हैं क्या? नहीं । वे कितना निराकुल रहते हैं? यह सब किसकी करतूत का फल है? पुण्य की करतूत का । इस प्रकरण में इस निगाह से नहीं देखना है कि लो पाप तो बुरा था ही पर पुण्य भी बुरा कहा जा रहा है । पाप और पुण्य इन दो के मुकाबले में पुण्य को पाप नहीं कहा जा रहा है किंतु धर्म, आत्मज्ञान, मोक्षमार्ग के मुकाबले में पाप तो खराब है ही, मगर पुण्यकर्म भी खोटा है ।
भला बुरा जानने में अपेक्षा का हाथ―एक बार राजा ने एक 8 अंगुल की पतली लकड़ी, जो जल्दी टूट सकती है, सींक समझिए । सब दरबारियों के सामने रख दिया और कहा दरबारी लोगों, मंत्री लोगों इस सींक को छोटी कर दो, मगर तोड़ना नहीं । सबकी बुद्धि चकरा गई कि इस आठ अंगुल की सींक को तोड़ें भी नहीं और छोटी कर दें, यह कैसे बनेगा? सब हैरान हो गए । एक चतुर आदमी उठा, बोला महाराज हुकुम हो तो मैं इसे छोटी कर दूँ । हाँ हाँ, छोटी कर दो । थोड़ा बाहर गया एक बारह अंगुल की सींक जल्दी से उठा लाया और वह सींक सामने रख दिया । बोला महाराज बतलावों यह सींक छोटी है कि बड़ी, अरे छोटी है । तो अच्छा और बुरा ये मुकाबले में देखे जाते हैं । किसी के 104 डिग्री का बुखार हो और 24 घंटे के बाद में 100 डिग्री बुखार रह जाये तो दूसरे दिन कोई मित्र पूछने आये कि कहो अब कैसा स्वास्थ्य है तो क्या कहेंगे? अब तो बहुत अच्छा है । अरे अच्छा कहाँ है? अभी ढाई डिग्री बुखार तो है । मगर वह अच्छापन मुकाबले से है ।
पुण्य, पाप व धर्म के पृथक् लक्षण―अपने सामने तीन चीजें रखो―धर्म, पुण्य और पाप । पाप कहते हैं हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह को, ममता करने को, कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु की संगति उपासना करने आदि को । और पुण्य कहते हैं दान, दया, प्रभुभक्ति, परोपकार, मंद कषाय, किसी ने अपराध किया हो तो क्षमा कर देना, अभिमान में न रहना, सरल हृदय रखना, तृष्णा न करना, इन सबको कहते हैं पुण्य, और धर्म किसे कहते हैं? आत्मा का जो सहज स्वरूप है, केवल जानना, देखना, शरीर से न्यारा, अमूर्त, आनंदमय जो अपना स्वरूप है वही प्रभुस्वरूप है । उस पवित्र स्वरूप की श्रद्धा, इसकी दृष्टि, निज स्वरूप का आलंबन इन्हें ही कहते हैं धर्म । धर्म का फल है मोक्ष । पुण्य का फल है देवगति के जीव हो जाना, या कुछ धनी मानी मनुष्य हो जाना । और पाप का फल है नरक, निगोद, तिर्यंच, पशु, पक्षी भव में उत्पन्न होना । अब इस आधार पर यह तो बतलावो कि धर्म, पुण्य और पाप―इन तीनों में सर्वोत्कृष्ट चीज क्या है? उत्तर दो ना । कहा धर्म ठीक है । पाप तो सर्वोत्कृष्ट नहीं है, और न पुण्य ही है । मगर पाप से पुण्य कुछ अच्छा है ना । पर सबसे अच्छा क्या है? धर्म ।
धर्म के साधन का संकेत―धर्म यहाँ प्रकट होता है जहाँ मोह, ममता नहीं है, जहाँ सर्व जीवों को एक स्वरूप में निरखा जाता है वहाँ धर्म होता है । धर्म यदि हो तो अनंतकाल के लिए संकट मिटें । पुण्य होने दो अपने आप, मगर चाहो मत । चाहो तो प्रभुस्वरूप को, आत्मस्वरूप को, धर्म को । भैया ! धर्म की रुचि के समय पुण्य बंधेगा ही । बंधने दो । अगर तुम पुण्य के पीछे अपनी दृष्टि लगावोगे तो पुण्य भी नहीं मिलेगा और धर्म भी नहीं मिलेगा । इसलिए धर्म की एकमात्र दृष्टि देकर अपने धर्म में बढ़िए ।
कर्म का साधारण रूप―ये पुण्य और पाप क्या चीज हैं कि कार्माण पुद्गल स्कंध है, जड़ हैं, मूर्ति हैं । यही एक प्रकार का कर्मपुद्गल कभी पुण्य रूप बन जाता है और कभी पापरूप बन जाता है । जैसे नाटकों में कोई लड़का अभी राजा का पार्ट कर रहा था । 2 मिनट के बाद में भिखारी का पार्ट करने लगा । लड़का वह एक ही है । इसी प्रकार ये कर्म कभी पुण्य का पार्ट अदा करने लगते और कभी पाप का पार्ट अदा करने लगते । सब भेषों में कर्म वही है । तो यहाँ उस एक ही कर्म को 2 पात्रों के रूप में, भेष में लाकर प्रवेश कराते हैं ।
कर्म की सिद्धि की एक युक्ति―संसार के प्राणियों की ऐसी भिन्न-भिन्न परिस्थितियां क्यों हो गई? जैसे पूछा जाये कि जल तो जल ही है, ठंडा ही है, किंतु वही जल कहीं अधिक गर्म है, कहीं कम गर्म है, ऐसी जल की विभिन्न परिस्थितियाँ क्यों हो गई? क्या जल ने ही अपनी ओर से निरपेक्ष होकर अपने स्वभाव से इतना ठंडा गर्म स्पर्श बना लिया? क्या उत्तर है? जब अपने ही स्वभाव से विभिन्न ठंडा गर्मरूप नहीं बनता, उसका तो अपने आप जितना टेंपरेचर चाहिए उतना ही उसका स्वभाव है । यदि उस जल का बर्फ से संबंध हो जाये तो अधिक ठंडा हो जायेगा । अग्नि का संबंध हो जाये तो अधिक गर्म हो जाये और अगर किसी से संबंध न हो तो जितनी डिग्री में ठंड की डिग्रियां होनी चाहिएं उतनी ही डिग्री में ठंड रहेगी । इसी प्रकार यह भी सोचिए कि ये जो विभिन्न स्थितियां हो गई, कोई कीड़ामकोड़ा है, कोई पेड़ है, कोई पशु है, कोई पक्षी है, कोई मनुष्य है, मनुष्य भी कोई भिखारी है, कोई गरीब है, कोई अमीर है, किसी के दिमाग ही नहीं है, किसी के बड़ा तेज दिमाग है, बड़ी प्रतिभा है आदिक जो विभिन्न परिस्थितियाँ हैं जीव की ये क्या अहेतुक हैं? ये विभिन्न परिणतियां जीव के स्वभाव से नहीं प्रकट हुई । पदार्थों में अपने बुराई स्वभाव से जो चीज प्रकट हो सकती है वह एकरूप होगी । वह विभिन्न रूप नहीं होगी । इन विभिन्न रूपों का कारण कुछ दूसरा होना चाहिए । वह दूसरा कारण है कर्म ।
कर्मों से सावधानी―भैया ! कर्म का निमित्त पाकर जीव विभिन्न परिस्थितियों में भटका करते है तो बतलावो उनकी कौनसी परिस्थिति लाभदायक है और कौन सी परिस्थिति हानिकारक है? यदि कीड़ा मकोड़ा होते जाये तो वह आत्मा के लाभ की स्थिति है क्या? नहीं है । गरीब हो जायें तो इस आत्मा की हानिकारक स्थिति है क्या? नहीं है । तो न अमीरी से इस आत्मा के फायदा है और न गरीबी से नुक्सान है । तो अमीरी और गरीबी का कारण जो कर्म है, वह कर्म तो बराबर ही हुआ ना? एक समान हुए ꠰ यावन̖मात्र कर्म हैं, वे जीव को हानि ही करने में निमित्त हैं, लाभ के निमित्त नहीं हैं । पर जैसे किन्हीं दुष्टों के ग्रुप में फंस गये हों तो उन दुष्टों से निकलने का उपाय है प्रिय वचन बोलकर और कुछ को अच्छा कहकर, कुछ का दिल रखकर निकलना । इसी प्रकार हम आप दुष्ट कर्मों के फंसे हैं । इनसे हम निकलें कैसे? तो इन कर्मों को भला भेद करके शुभोपयोग में रहकर निकलने का एक उपाय बना लें ।
आनंद का अमोघ कारण स्वभावाश्रय―भैया ! इस लोक में किन्हीं भी विषयों में आनंद नहीं है । आप घर में रहते हैं, दुकान करते हैं, संभालते हैं, सब कुछ करते हैं पर यथार्थ ज्ञान की औषधि अपने उपयोग से मत निकालो । उस औषधि को पीते रहिए, संकट मिट जायेंगे । क्लेश देने वाला कोई दूसरा नहीं है । क्लेश आते हैं अपने अज्ञान से । वह अज्ञान न होने दिया जाये । यह वैभव आपके आत्मा के द्वारा कमाया हुआ नहीं है । यह तो पूर्वकृत पुण्य का फल है । यह धन आपके हाथ पैरों द्वारा कमाया हुआ नहीं है । पूर्व समय में धर्म में रुचि की थी, उससे पुण्य बंध हुआ था । उसके उदय का फल है । आज कदाचित् भाई-भाई न्यारे हो तो उन्हें यह सोचना गलत है कि मुझे दूसरे भाई की अपेक्षा कुछ विशेष मिल जाये । उसमें भी यह दृष्टि करना बुरा है कि देखो हम तो थोड़ा ही पहिनते हैं, थोड़ा ही खाते हैं और अमुक बहुत पहिनता और खाता है । इसके इतने गहने बन गए हैं, मुझे थोड़े ही रह गए । ये सब बातें थोथी हैं । अरे ! हम गहने को संभालने में लगें कि आत्मा के संभालने में लगें । आत्मा के संभालने में लग गए तो इससे अनंत गुणे याने गुणों के गहने सामने आयेंगे । और आत्मा को अगर न संभाला, अप्रेम, ईर्ष्या आदि का ही आदर किया तो रहा सहा पुण्य भी खतम हो जायेगा । इतना भी पुण्य न रहेगा जितना कि अभी है ।
सबसे बड़ी कमाई निर्मलता―सबसे बड़ी कमाई है अपने आत्मा को निर्मल बनाए रहना । एक छोटीसी किम्वदंती है कि एक जीव को ब्रह्मा किसी लखपति के घर उत्पन्न करने के लिए उसकी तकदीर बना रहे थे तो तकदीर में लिख रहे थे कि काला घोड़ा और 5 रुपया इसकी तकदीर में रहेंगे और भेज रहे थे लखपति के घर तो वहाँ से निकलकर एक साधु और बोला कि ब्रह्मा जी क्या कर रहे हैं? कहाँ तकदीर बना रहे हैं । क्या लिख रहे हो? एक काला घोड़ा और 5 रुपया । उत्पन्न कहाँ करोगे? अमुक लखपति के यहाँ । अरे तो ऐसी तकदीर लिखना है तो किसी गरीब के यहाँ पैदा कर दो । और नहीं तो लखपति की जैसी तकदीर लिखो । ब्रह्मा जी बिगड़ गए, बोले कुछ भी हो, तुम बीच में दखल मत दो । चले जावो सीधे रास्ते । साधु ने कहा―जो तकदीर में लिखना हो लिखो हम तुम्हारी तकदीर को मेट देंगे । अब वह मनुष्य लखपति के यहाँ पैदा हो गया । धीरे-धीरे संपत्ति मिट गई । मकान बिक गया, जायदाद बिक गई, एक झोपड़ी रह गई । एक काला घोड़ा और 5 रुपये रह गए ।
दस पंद्रह वर्ष के बाद साधु वहां से निकला और ख्याल आया कि इस नगर में अमुक लखपति के यहाँ उसे पैदा होना था । पूछते-पूछते उस झोपड़ी में पहुंचे । उस 15 वर्ष के बालक ने साधु का बड़ा विनय किया ꠰ साधु बोला, बेटा जो हम कहेंगे सो करोगे? हां महाराज ! जो कहोगे करेंगे । अच्छा यह घोड़ा बाजार में बेच आवो । बेच आया । मिले कितने? 100 रूपये । अब उसके पास 105 रु0 हो गए । साधु ने कहा, इतने रुपये के शक्कर घी इत्यादि सामान ले आवो और पूड़ियां बनवाकर गांव वालों को खिलावो और पीछे भिखारियों को बांट दो । उसने ऐसा ही किया । सस्ते जमाने के 105) और आज के जमाने के 1000) । अब दूसरा दिन होने को था तो ब्रह्मा जी को चिंता हुई उसकी तकदीर में लिखा था काला घोड़ा और 5 रुपये । दूसरे दिन फिर 5 रु0 और एक काला घोड़ा भेजा । फिर उसको बेचकर पूड़ियां बनाकर बटवा दीं । इसी तरह 15 दिन तक यही करते रहे । ब्रह्मा ने सोचा कि 5 रूपये तो जहाँ चाहे से टपका देंगे, मगर काला घोड़ा कहां से रोज-रोज लायें और इसे दें । तो साधु से ब्रह्मा ने कहा, साधु जी मुझे हैरान मत करो । कहा, लिखो वही तकदीर जो बाप की थी ।
परिणामों की निर्मलता अभ्युदय का हेतु―इस कथानक से मतलब इतना लेना कि हमारी ही करतूत खराब होगी तो खराबी सामने आयेगी और हमारी करतूत अच्छी है तो अच्छाई सामने आयेगी । परिणामों का निर्मल रखना, और अपने तन, मन, धन, वचन को जितना हो सके उतना दूसरों के उपकार में लगाना यही अपनी धुनि होनी चाहिए । वांछा कुछ मत करो कि मैं देव बन जाऊं । देव बनकर क्या करोगे? वहाँ मिल जायें 100, 200 देवियाँ । सो यहाँ तो एक स्त्री से परेशान हो जाते हैं और फिर उन 100-200 देवियों को कौन संभालेगा? वहाँ खाने पीने का दुःख नहीं है । कमाना नहीं पड़ता । हजारों वर्षों में भूख लगती और कंठ से अमृत झर जाता है । तो यह भी बला बुरी है जो बेकार रहता है । वे देव लोग बेकार रहते हैं तो उन्हें दंदफंद ही सूझता है । हाँ भले ही तीर्थंकरदेव हों तो वहाँ उनके कल्याणकों के मनाने का मौका मिल जाता है । नहीं तो प्राय: समय दंद फंद या बिना काम में ही बीतता है । क्या रखा है उस देवगति में? दुःख तो शरीर या धन के अच्छे बुरे होने के कारण नहीं है । दुःख का संबंध तो अज्ञान से है । क्यों इतना दु:खी हो रहे हो? अरे ज्ञान औषधि को संभाल लो, सारे क्लेश मिट गए । परिवार में जिनका संग है क्या उनके साथ कर्म नहीं लगे हैं? फिर क्यों अपने पर ही सारा भार समझते हो? जो कुछ होता है वह स्वयं मेरा होता है । तो बतलावो कौनसी परिस्थिति जीव को लाभकारी है?
सांसारिक अभ्युदय की चाह की व्यर्थता―भैया ! मत सोचो कि हम राजा बन जायें, कुबेर बन जायें । क्या धरा है राजा बनने में? सैकड़ों चिंताएं सतायेगी और व्यर्थ की बेवकूफी लद जायेगी । जहाँ सैकड़ों आदमी दरबार में मस्तक झुकाकर बैठेंगे वहाँ अहंकार के अंधेरे में अपने आपको खो बैठेंगे । क्या धरा है राजा बनने में? हम बड़े श्रीमान बन जायें । क्या धरा है श्रीमान्, करोड़पति आदि बनने में? सुख से खाना भी उनके लिए मुश्किल हो जाया करता है । चारों ओर से देशविदेश की लोचाचोंथी चलती है । कौनसी ऐसी परिस्थिति है संसार में जो जीव को लाभ करने वाली है? कुछ भी नहीं है ना । तो सब परिस्थितियों से मोह छोड़ो और उन परिस्थितियों के कारणभूत कर्मों से मोह छोड़ो । सब कर्म एक समान हैं । जब मुझे कैवल्य प्राप्त करना है, शुद्ध विकासमय होना है, मुक्त होना है तो मेरे बाधक ये सारे कर्म हैं । चाहे पुण्यकर्म हो, चाहे पाप कर्म हो ।
धर्मभावनारहित के पुण्य से विपदायें―भैया ! धर्म की लगन रखते हुए पुण्यकर्म बन जाये तो वह अच्छा है, मगर पुण्य की वांछा करते हुए पुण्यकर्म बँधे तो उस पुण्यकर्म से तो आपत्ति ही आयेगी । ऐसा घी किस काम का जो इतना तेज गर्म हो कि जिसके खाते ही जीभ जल जाये । ऐसा पुण्यकर्म किस काम का कि जिसके उदय में पाई हुई संपदा में आसक्त होकर हम अपने आपको बरबाद कर डालें ? सबका ध्यान छोड़कर, ममता छोड़कर देखो अपने ज्ञायकस्वरूप को । इस ज्ञायकस्वरूप में सर्वत्र आनंद ही आनंद भरा है । क्लेशों का तो नाम भी नहीं है । ये कर्म यद्यपि शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार के बन गए हैं―पुण्यकर्म और पापकर्म । किंतु सम्यग्ज्ञानी उन कर्मों को एक समान मानता है । मोह की धूल को नष्ट करते हुए यह ज्ञानरूपी अमृत का प्रवाह इसमें स्वयं उदित होता है ।
पुण्यपाप के फल में समानता विवरण―इस सबका तात्पर्य क्या है? इसे छहढाला में भी कहा है ‘पुण्यपाप फलमाहि हरख बिलखो मत भाई । यह पुद्गल पर्याय उपजि विनशे फिर थाई ।। लाख बात की बात यही निश्चय उर लावो । तोड़ सकल जग दंद फंद निज आतम ध्यावो ।।’ पुण्य के फल को पाकर मग्न न होना । यह बहुत कठिन विष है । पुण्य के फल में यदि मग्न रहे तो यह फल तो सदा रहेगा नहीं । जब इनका वियोग होगा तब तीव्र आकुलता होगी । यह जगत धोखे का स्थान है । यहाँ बड़ी सावधानी से चलने का काम है । पाप के फल में विषाद भी मत करो । तू तो अकेला चैतन्य स्वभाव मात्र स्वत: सिद्ध सत् है । तेरा कुछ भी नुक्सान नहीं होता है किसी भी परपदार्थ की परिणति से । धन ज्यादह न रहा तो क्या बिगाड़ हो गया? उस धन से तो पापवृत्ति होना प्राय: संभव है । तेरे में वैभव का अत्यंताभाव है, अपने ही ज्ञान सुधारस को देखो । अपनी ओर झुको और आनंद प्राप्त करो । एक ही उपाय है कि समस्त जग के दंदफंद को छोड़कर एक केवल अपने निज आत्मा का ध्यान करो ।
प्रभु से भेंट का उपाय―भैया ! प्रभु से भेंट होती है तो अपने आत्मा के स्वरूप के यथार्थज्ञान से । आंखों से नहीं होती है । प्रभु आँखों से नहीं दिखता है । जो आंखों से दिखा करे वह प्रभु नहीं है । वह तो जड़ है, शरीर है । प्रभु तो ज्ञानानंद स्वरूप है । किसी का ज्ञान और आनंद यहाँ भी आँखों दिखा है क्या? नहीं, तो जो पूरा ज्ञानमय है, अनंत आनंदमय है ऐसा स्वरूप क्या आँखों दिख जायेगा? नहीं । अपना आत्मा भी ऐसी ही शक्ति वाला है । इस कारण अपने आत्मा में बल का आधान करके स्वयं को समझे तो प्रभुस्वरूप समझा जा सकता है । यह प्रकरण चल रहा है पुण्य पाप का । पुण्य और पाप कर्म हैं और हेय हैं यह एक ऊंची कथनी है । इसलिए यह नहीं सोचना है कि पाप तो नहीं छोड़ा जा सकता है पर पुण्य छोड़ा जा सकता है । जब पाप पुण्य दोनों समान बताये गये तो पुण्य को छोड़ दें पाप छोड़ने की फिर सोचेंगे । इसके लिए यह वर्णन नहीं है । यह वर्णन इसलिए है कि पुण्य से भी उत्कृष्ट चीज जो तुम्हारे लिए सार है, शरण है, उस उत्कृष्ट तत्त्व को निरखिए और उसके समक्ष पुण्य और पाप दोनों को हेय समझिये । इस प्रसंग में अमृतचंद्रजी सूरि एक कलश द्वारा कहते हैं ।
एकोदूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्य: शूद्र: स्वयमयमहं स्नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतौ युगपदुदरात्निर्गतौ शूद्रिकाया: शूद्रौ साक्षादपि चरतो जातिभेदभ्रमेण ।।
पुण्य पाप की समानता बताने को एक दृष्टांत―एक शूद्री के दो लड़के एक साथ उत्पन्न हुए । वह गरीब थी । बेचारी ने सोचा कि इन दोनों लड़कों का हम पालन कैसे करेगी? मैं अपना ही पेट नहीं पाल सकती । सो उन दोनों लड़कों को कपड़े में लपेटकर गांव के बाहर एक पेड़ के नीचे छोड़ आई । लड़के सुंदर थे । एक ब्राह्मण वहाँ से निकला । उसके कोई संतान न थी । लड़के अच्छे स्वरूप के थे ही, सो उसने एक लड़का उठा लिया और अपने घर लाकर पालने लगा । और कुछ देर बाद एक शूद्री निकली, या कोई मेहतरानी समझ लो । तो उसके भी संतान न थी । वह भी एक लड़के को उठा लाई । जो ब्राह्मण के यहां लड़का पल रहा है वह 10-12-15 वर्ष का हो गया। उसको यह अभिमान है कि मैं ब्राह्मण हूं क्योंकि वातावरण तो ब्राह्मण का मिला ना। सो अभिमान से वह मदिरा को छूता तक नहीं। क्योंकि उत्कृष्ट कार्य वाला वह कहलाता है। तो वह मांस मदिरा को छुवे भी नहीं। और जो एक लड़का मेहतरानी के यहाँ पला था उसके यह अभिमान था कि मैं मेहतर हूं, मैं शूद्र हूं। मदिरा छूने की क्या बात, वह उस मदिरा से स्नान करे। अब बतलाइए―हैं तो दोनों बालक शूद्री के, पर एक को ब्राह्मण अहंकार आया कि मैं ब्राह्मण हूं तो मदिरा को छूता भी नहीं है और एक में शूद्रत्व का अहंकार है तो वह मदिरा से रोज स्नान करता है। देखिए विचित्रता कि एक मां के पेट से एक साथ निकले हुए जुदा-जुदा भ्रम करके जुदी-जुदी वृत्ति में लग रहे हैं।
पुण्य पाप की समानता―इसी प्रकार पुण्यकर्म और पापकर्म निकले तो कर्मों से ꠰ इनका पिता एक है । कर्म जड़, अचेतन, पुद्गल । अब आत्मा ने, इस मोही जीव ने पुण्य को अपना हितू अपना रक्षक, लाभदायक मान रखा है और पापकर्म को यह मान रखा है कि यह दुष्ट है, अरक्षक है, पर वस्तुत: देखो तो दोनों ही प्रकार के कर्म कुशील हैं, खोटे हैं । शांति न पुण्य कर्म से मिलती है और न पापकर्म से मिलती है । पुण्य वालों की स्थिति देख लो, क्या वहाँ शांति है? वे तो प्राय: हार्ट फेल होकर ही मरा करते हैं । गरीब को तो चार दिन बीमारी आए तब समझता हुआ मरता है । प्राय: यों स्थिति हो जाती है । एक धर्म की रुचि रक्खो, धर्म आत्मा का स्वभाव, ज्ञाता द्रष्टा रहना सर्व पदार्थों का जाननहार, देखनहार बने रहना, किसी को इष्ट न मानना, किसी की अनिष्ट न मानना, समस्त बाह्य पदार्थों से ममता को त्याग कर निज शुद्ध ज्ञान ज्योति की ओर झुकना यही है धर्म ।
धर्म के लक्ष्य की हितकारिता―धर्म करने के लिए प्रभु के ध्यान से मदद लो, सत्संगति से मदद लो । पर शांति मिलेगी तो एक शुद्ध निर्मल रागद्वेष रहित ध्यान से ही मिलेगी । इस एक धर्म की ही रुचि रखिये । इस धर्म की रुचि के मार्ग में चलते हुए आपके जो पुण्य कर्म बनते हैं उन्हें बनने दो, पर स्वयं चाह करके पुण्य न करो । स्वयं चाहे पुण्य करो पर पुण्य करने से पुण्य बनता भी नहीं है । कोई यह सोचे कि भैया इस गरीब के भोजन खिला दो तो आपको पुण्य का बंध होगा । इस आशय से अगर खिलाया तो धन भी लुट जायेगा और पुण्य बंध भी न होगा ।
आशय की मलीनता में अभ्युदय की आशा व्यर्थ―एक श्रावक के यहाँ साधु महाराज आहार करने गए । वह श्रावक धर्मात्मा था । आहार के समय क्या आश्चर्य हुआ कि वहां फूलों और रत्नों की वर्षा हुई । एक पड़ोसी सेठ ने सोचा कि यह तो धनी होने का बड़ा ही अच्छा रोजिगार हे । एक साधु को आहार दे दिया तो दो चार रत्न मिल जायेंगे । सो उसने भी दूसरे दिन पड़गाहा और साधु महाराज को आहार कराया । अब वह आसमान की ओर देखता जाये कि अभी रत्न गिरे कि नहीं । अभी एक फूल तक नहीं गिरा । अरे ! उसके भाव तो मूल में ही अच्छे न थे । वहाँ तो फूल और रत्नों की आशा तो अत्यंत व्यर्थ थी । एक धर्म की धुन में रहो ।
प्रभुदर्शन की विधि―हे प्रभो ! सत्य और हित स्वरूप तो आपका पद है । क्या अच्छा हो कि प्रभुमूर्ति के सामने मूर्ति के तो दर्शन करें और चित्त ले जावें उस पुराने जमाने में कि जैसे शांतिनाथ प्रभु की मूर्ति है तो शांतिनाथ के सामने में ये शांतिनाथ इतने बड़े विशाल काय वाले शांतमुद्रा से गंभीर केवल ज्ञान से परिपूर्ण ऐसे समवशरण में विराज रहे होंगे । इस प्रकार उनका विहार चलता होगा । उस पुराने जमाने में दृष्टि ले जावो और ऐसा चिंतन करते हुए थक जावो तो फिर प्रभु की मुद्रा को निहारने लगो, फिर बल प्राप्त करके भगवान की ओर दृष्टि ले जावो । यह है दर्शन की विधि । केवल मूर्ति पर ही निगाह रखी तो वह प्रभु के दर्शन की विधि नहीं है । क्यों निरखते हैं भगवंत स्वरूप की ओर? उस प्रभु की मुद्रा को निरखकर बल प्राप्त करते हैं । इसीलिए स्थापना की है और वह स्थापना जिनेंद्र कहलाते हैं ।
वस्तुपरिज्ञानविधि―कोई भी वस्तु हो । 6 प्रकार से जानी जाती है । जैसे एक घड़ी लो । तो नाम घड़ी, स्थापना घड़ी, क्षेत्र घड़ी, काल घड़ी, द्रव्य घड़ी और भाव घड़ी । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन 6 प्रकारों से प्रत्येक वस्तु जानी जाती है । घ और ड़ी बोल दिया । यह तो हुआ नाम घड़ी और यह पिंड है, यह है द्रव्य घड़ी, इतनी लंबी चौड़ी है, यह है क्षेत्र घड़ी, जितनी पुरानी या रूप आदि की हुई यह है काल घड़ी और टाइम देती हो तो यह है भाव घड़ी । यों ही जिनेंद्र ये शब्द हैं नाम जिनेंद्र, मूर्ति जिनेंद्र, यह है स्थापना जिनेंद्र, द्रव्य जिनेंद्र है, जितने में जिनेंद्र विराजमान रहते है वह है क्षेत्र जिनेंद्र । काल जिनेंद्र, जहाँ जिस समय जो जिनेंद्र हो, जैसे आप दीवाली को लड्डू चढ़ायेंगे तो यह हुआ काल जिनेंद्र और जो साक्षात् केवल ज्ञानमय आत्मा है वह है भाव जिनेंद्र ।
भैया ! स्थापनाजिनेंद्र के समक्ष खड़े होकर भावजिनेंद्र की दृष्टि किया करें । धर्म को एक लगन से पालें और उस धर्मचर्चा में जो पुण्य बंधे सो बंधने दो । पुण्य भाव वाले पुण्य ही बंधेगा, इस पुण्य को चाहकर न बाँधो । धर्म में लगो और पुण्य व पाप दोनों को समान निरखो ।
अब इसके आगे यह कहेंगे कि पुण्य और पाप―इन दोनों कर्मों में से पाप कर्म कुशील है और शुभ कर्म सुशील है ऐसा लोग कहते हैं, पर ज्ञान दृष्टि से देखो पुण्य कर्म भी कुशील होता है और पापकर्म भी कुशील होता है ।