वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 157
From जैनकोष
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो ।
मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खु णायव्वं ।।157।।
कार्यसिद्धि में विश्वास, ज्ञान व आचरण की साधकतमता―किसी भी कार्य को करने के लिए श्रद्धान, ज्ञान और आचरण आवश्यक होता है । कोईसा भी कार्य लीजिए, व्यापार का काम है, उसमें भी श्रद्धान ज्ञान और आचरण चाहिए याने व्यापार संबंधी बातों का विश्वास चाहिए कि इस प्रकार व्यवहार करने से, लेनदेन करने से, इस तरह बैठने से व्यापार चलता है । जिसे यह विश्वास नहीं होता वह व्यापार क्या करेगा? फिर व्यापार संबंधी ज्ञान भी चाहिए । किस तरह बैंक में हिसाब रखा जाता है, किस तरह हुन्डियां की जाती हैं, किस तरह रोकड़ खाता लिखा जाता है, किस तरह बोला जाता है यह सब ज्ञान भी चाहिए और फिर ऐसा कर भी लेना चाहिए, इसका नाम है आचरण ।
बोध विश्वास विधान से कार्यसिद्ध होने के कुछ दृष्टांत―व्यापार संबंधी विश्वास, ज्ञान और आचरण के बिना व्यापार नहीं चल सकता ꠰ जो लोग सरकारी कार्य करते हैं, दफ्तरों का कार्य करते हैं उन्हें तत्संबंधी विश्वास, ज्ञान और आचरण का ज्ञान होना चाहिए । महिलाएं रसोई बनाती हैं तो उन्हें रसोई संबंधी विश्वास, ज्ञान और आचरण चाहिए । आटे से ही रोटी बनती है ऐसा विश्वास होता है । क्या कभी वे ऐसा भी सोचती हैं कि आटे से रोटी बन सकती है या नहीं । नहीं बन सकती है ऐसा अविश्वास भी होता है क्या? नहीं । जिस-जिस क्रियावों से रसोई का कार्य होता है उस संबंधी उन्हें पूर्ण विश्वास है, पूर्ण ज्ञान है, पूर्ण आचरण है सो वैसे ही हाथ चलाती हैं, वैसा ही कार्य करती हैं और रसोई बन जाती है । किसी को संगीत में निपुण होना है तो संगीत संबंधी विश्वास भी चाहिए कि मैं ऐसा हो सकता हूँ । पहिले से ही ऐसा सोच ले कि मैं ऐसा हो ही नहीं सकता तो वह हारमोनियम में हाथ लगायेगा ही क्यों? उसका ज्ञान भी चाहिए । सा रे, गा मा पा, ध नी सा सा, नि ध प म ग रे सा, सा रे गा रे गा मा आदि स्वरों का ज्ञान चाहिए, फिर तत्संबंधी आचरण भी । रट लिया ऐसा ही । अगर न रटा, न सीखा तो संगीत को जान ही कैसे सकते हैं ?
संसार व मोक्षविषयक बोध, विश्वास व विधान―इसी तरह संसार में फंसना भी एक काम है, जिसे संसार में फंसे रहने की बात चाहिए उसे संसार में फंसने का विश्वास चाहिए, ज्ञान चाहिए और आचरण चाहिए । तो संसार में फंसने लायक जो विश्वास है कि मेरा अमुक शरण है, मेरा अमुक कुछ लगता है, मेरा मकान है, यह मैं हूँ, इस तरह का विश्वास चाहिए । तो इस विश्वास के आधार पर यह संसार बढ़ता है और फिर ज्ञान भी चाहिए । जिन चीजों को देखते हैं उनमें से किसका कर्ता बनना है? किसका अधिकारी बनना है? उसका ज्ञान भी चाहिए और आचरण भी चाहिए । इसी तरह फंसना भी चाहें तो संसार के फंसने का काम बन जायेगा । और किसी को संसार से मुक्त होने की वांछा है, मोक्ष में लगना चाहता है तो कैसे मोक्षमार्ग का, मोक्ष का विश्वास चाहिए, मोक्ष की विधियों का ज्ञान चाहिए और मोक्ष की क्रियावों में लग भी जाना चाहिए―इस प्रकार मोक्ष होगा तो मोक्ष के विश्वास का नाम है सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्त्व, मोक्ष की विधियों के ज्ञान का नाम है सम्यग्ज्ञान और उसमें लग जाने का नाम है सम्यक्चारित्र ।
आत्महित की बात―सम्यग्दर्शन का संक्षिप्त स्वरूप यह है कि अपने आत्मा के संबंध में आत्मा का जैसा सहज, एब्सल्यूट, अपेक्षा बिना जैसा इसका भाव है उस स्वभावरूप में अपने को देख लेना, जान लेना, अनुभव कर लेना, इसका नाम है सम्यग्दर्शन । सो चूंकि मोक्ष आत्मा ही है । तो आत्मा का सच्चा विश्वास होना चाहिए । यहाँ यह बात चल रही है कि निज का भला किस तरह हो सकता है? उसका यह प्रकरण है । इसमें धर्म, मजहब, पंथ किसी का पक्ष नहीं है । यहाँ तो केवल यह विचार चल रहा है कि मेरा उद्धार किस तरह हो? और उसका मौलिक आधार यह लेना है कि चूँकि मुझे अपना उद्धार करना है तो मुझे सही स्वरूप जानना पहिले आवश्यक है, बस इस आत्मा के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान पर ही हमारा उद्धार निर्भर है और यही हमारा धर्म है ।
परमार्थसाधकता के नाते व्यवहार धर्म में धर्मत्व―व्यवहार में जो मंदिर जाना, गुरुवों के पास बैठना, भगवान का जाप करना, भक्ति करना―ये जो बातें बताई गई हैं, ये बातें तो मेरे आत्मा की सही जानकारी बनाए रहने में सहायक हैं, तो यह धर्म है, और मेरे आत्मा की सही जानकारी में यह सहायक नहीं है इसके विपरीत पर्यायबुद्धि के पोषक हैं तो यह धर्म नहीं है । अपने आपके सहज स्वरूप का ज्ञान करना, धर्म की रुचि करना, अंतरंग में निरंतर जानकारी बनाए रहना बस यही उद्धार का उपाय है; यही प्रत्येक आत्मा का धर्म है और इस ही धर्म की परिस्थिति में हमारा उत्थान होगा । तो पहिली बात क्या है? सम्यक्त्व । इस सम्यक्त्व से ही अपने आपके आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय होगा ।
भ्रम की बाधकता―इस सम्यक्त्व में बाधा डालने वाला कौन है, उसे यहाँ बताया जा रहा है । मेरे सम्यक्त्व में साक्षात् बाधा डालने वाले तो मेरे भ्रम भाव हैं और निमित्त-कारण दर्शन मोह का उदय है । इस मोक्षमार्ग के कारण को तीन बातों में विभक्त किया―सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अर्थात् आत्मा के सत्यस्वरूप का श्रद्धान्, ज्ञान और आचरण है । और बांधने वाले जो कर्म हैं वे भी तीन भागों में विभक्त हैं । मिथ्यात्वपरिणाम, अज्ञान और कषाय । सम्यक्त्व घात करने वाला है मिथ्यात्व परिणाम, विपरीत अभिप्राय । जैसे―मैं अमुक काम का करने वाला हूं, मैं अमुक बच्चों का पालने पोषने वाला हूँ, मैं इतने मकानों का मालिक हूँ, मैं इतने बच्चों का पिता हूँ, मैं इतने देश की सेवा करने वाला हूँ, ऐसा विपरीत अभिप्राय जो है वह आत्मा के यथार्थस्वरूप के विश्वास का बाधक है क्योंकि यह सब आत्मा का स्वरूप नहीं है । बच्चों वाला होना क्या आत्मा का स्वरूप है? नहीं । ये तो सब जगत के मायामय दृश्य हैं । क्या तुम्हारे इस आत्मा से महलों का संबंध है? नहीं । आत्मा तो मात्र आत्मा है । क्या कोई दूकान मकान वगैरह का करने वाला है? नहीं । आत्मा तो अपने आपमें है चूंकि यह आत्मा ही है ना जितना कि देह के अंदर अनुभव हो रहा है सो उतना ही अपने जानने का, समझने का, विश्वास का या आनंद का ही काम कर रहा है । यह दूकान, मकान का करने वाला नहीं है ।
परकर्तृत्व का आशय मिथ्या―एक सेठ साहब थे तो उन्होंने बहुत बड़ी हवेली बनवाई । और उस हवेली को बहुत से इन्जीनियरों की देखरेख में बनवाया । बन चुकने के बाद हवेली का उद्घाटन कराया । सो अपने नगर के सभी प्रमुख लोगों को बुलाया और साधारणजनों को भी बुलाया । जब सब लोग जुड़ गए, सभा भरी तो लोगों में व्याख्यान हुए । अनेक लोगों ने सेठ साहब की और इन्जीनियरों की तारीफ की । बड़ी सुंदर हवेली बनी और बड़ी चतुराई से बनी । सबके बोल चुकने के बाद सेठ साहब आभार प्रदर्शन करने के लिए खड़े हुए । सेठ साहब कहते हैं कि भाइयों, इस हवेली में यदि कोई गल्ती किसी भी जगह रह गई हो नाप में या किसी चीज में तो आप लोग बतलावों, उस गल्ती को ठीक करवा दिया जायेगा । खर्चे की कोई परवाह नहीं है । चाहे कोई हिस्सा तुड़वाकर बनवाना पड़े तो भी बन जायेगा । कोई गल्ती हो तो आप लोग बता दो । किसी ने कुछ न कहा । थोड़ी देर में एक जैन उठा, बोला―महाराज इस हवेली में हमें दो गल्तियां बहुत बड़ी दिखीं । तो पास में जो इन्जीनियर बैठें थे उनसे सेठ ने कहा―सुनो, ये दो गलतियां बतलाते हैं और उन्हें ठीक करना है । बतलावो क्या दो गल्तियाँ दिखी? पहिली गलती तो यह समझ में आई कि यह हवेली सदा नहीं रहेगी । सब लोग सुनकर सोचने लगे कि इसका इलाज क्या किया जाये? अच्छा साहब इन्जीनियर लोग बोले कि अच्छा दूसरी गल्ती बतावो । वह बोला―दूसरी गलती यह है कि इस हवेली का बनवाने वाला भी सदा न रहेगा । अब बतावो इस गल्ती का क्या इलाज करें?
संबंधबुद्धि में मिथ्यात्व―किसी भी परपदार्थ का अपने को स्वामी समझना और अपने को उसका कर्ता समझना यह है विपरीत आशय और विपरीत आशय सम्यक्त्व का बाधक है । सम्यक्त्व का अर्थ है आत्मा के सत्यस्वरूप का विश्वास हो जाना । खोटा उपयोग चल रहा है जिस उपयोग के कारण बाह्यपदार्थों में आकर्षण हो रहा है । उसके फल में उपयोग की स्थिति में आत्मा के निरंजन निरपेक्ष शुद्ध आत्मस्वभाव का विश्वास भी हो सकता है क्या? नहीं । तो आत्मा के सम्यक्त्व का बाधक है मिथ्यात्व । मिथ्यात्व का अर्थ है खोटापन । मिथ्या और त्व । मिथ्या का अर्थ खोटा भी नहीं है । मिथ्या का अर्थ है संबंध । मिथ्या शब्द मिथ धातु से बना और मिथ का अर्थ संबंध है । दो पदार्थों के स्वरूप में संबंध बताना सो यही मिथ्यात्व है । और यह मिथ्यात्व ही सम्यक्त्व का बाधक है, आत्मा के सहज सत्य स्वरूप के विश्वास में बाधा डालने वाला मिथ्या कर्म है ।
कर्म का अर्थ―कर्म का अर्थ क्या है? जो किया जाये सो कर्म है । आत्मा के द्वारा जो किया जाये सो कर्म है । कहते हैं ना सभी कि जैसा कर्म हो तैसा फल मिलता है । तो वह कर्म चीज क्या हैं ? वह कर्म है आत्मा के द्वारा जो किया उसे कर्म कहते हैं । अब कोई कहे कि आत्मा के द्वारा तो बहुतसी बातें की जाती हैं । शांति का उपाय भी किया जाता है तो क्या शांति का परिणाम भी कर्म हो गया? यदि शांति का परिणाम का नाम कर्म है तो मुझे शांति के फल में भी संसार में रुलना चाहिए । उत्तर यह है कि शांति परिणाम का नाम कर्म नहीं है । निराकुलता का नाम कर्म नहीं है, शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा रहने का नाम कर्म नहीं है, क्योंकि शांति का परिणाम किया नहीं जाता, किंतु शांति का परिणाम होता है । जो हो उसका नाम कर्म नहीं है । जो किया जाये उसका नाम कर्म है । निराकुलता की नहीं जाती है । निराकुलता की स्थिति आ जाने पर निराकुलता स्वयं हो जाती है । और आकुलता की जाती है । विपरीत अभिप्राय किया जाता है ।
करने और होने के अंतर का परिज्ञान―यहां यह प्रश्न हो सकता है कि हम इसमें यह विभाग कैसे करें कि यह तो होता है और यह किया जाता है । याने निराकुलता तो होती है और आकुलता की जाती है । इसके उत्तर में दो दृष्टियां लो । पहिली तो यह दृष्टि लो कि की जाने वाली बात में कैसे क्षोभ खड़ा होता है, कैसे उपयोग लगाना पड़ता है, कैसे दंदफंद किए जाते हैं । जहाँ इतनी बात की जाती हो वहाँ उसे किया जाना कहना ही चाहिए । और शांति की नहीं जाती । क्षोभ कषाय, विकल्प, भ्रम आदि हटावो तो स्वयमेव ही जैसे पहाड़ से झरना फूट निकलता है इस प्रकार इस आत्मा से निराकुलता फूट निकलती है । दूसरी दृष्टि यह देखिए कि किसी परपदार्थ की अपेक्षा करके जो बात होती हे, उसको तो किया जाता है, कहा जाता है और परवस्तु की अपेक्षा किए बिना केवल अपने आत्माराम से जो बात होती है उसे किया जाता है नहीं कहा जाता है । करने में पर की अपेक्षा है । होने में पर की अपेक्षा नहीं है ।
अपेक्षा में कर्म व अनपेक्षा में भवन की सिद्धि―फिर आप प्रश्न कर सकते हैं कि पर की अपेक्षा में करना बताया व पर की अपेक्षा न होने में होना बताया । ये विभाग कैसे समझे जायें तो इसे जरा शब्दशास्त्र की पद्धति से जानो । करने की जो क्रिया है वह सकर्मक है और होने की जो क्रिया है वह अकर्मक है । सकर्मक क्रिया की अपेक्षा होती है और अकर्मक क्रिया की अपेक्षा नहीं होती है । यों शब्दशास्त्र से भी किया जाने का काम पराधीन है और होने का नाम स्वाधीन है । निराकुलता तो होती है किंतु आकुलता की जाती है।
आत्मा का परिणमन आत्मा का कार्य―भैया ! प्रकरण यह चल रहा था कि आत्मा का कर्म क्या है? जो आत्मा के द्वारा किया जाये उसे कर्म कहते हैं । आत्मा के द्वारा किए जाते हैं विषय, इच्छा, कषाय भ्रम, विपरीत आशय आदि । इस कारण ये कर्म हैं । तो कर्म नाम आत्मा के खोटे परिणामों का है, विभावों का है, सापेक्ष भावों का है । अब एक और बात है जिसका वर्णन जैनसिद्धांत में ही मिलता है, वह क्या कि आत्मा को इन कर्मों का याने रागद्वेष भ्रम आदि भावों का निमित्त पाकर इस लोक में जो सूक्ष्मकार्माण नाम का मेटर पुद्गल कार्माण है जो लोक में सर्वत्र भरा हुआ है वह कर्मरूप बन जाता है, वह सूक्ष्म मेटर आत्मा के साथ बंध को प्राप्त हो जाता है और उनकी स्थिति भी पड़ जाती है कि यह लाख वर्ष तक रहेगा, यह करोड़ वर्ष तक रहेगा । रहता भी अनगिनते वर्ष तक है । तो समय-समय पर जब इसका निकलना होता है, तो उसका निमित्त पाकर फिर आत्मा में खोटे परिणाम होते हैं ।
कर्मयोग्य द्रव्य―आप सोचेंगे कि ऐसे सूक्ष्म मैटर भी होते हैं क्या और वे जीव के साथ बंधन को भी प्राप्त होते हैं क्या? हाँ होते हैं, निश्चित है अन्यथा आप यह बतलाएँ कि आत्मा का स्वरूप तो शुद्ध बुद्ध निरंजन ज्ञाता दृष्टा मात्र है, अनंत आनंदमय है, किसी भी पदार्थ का स्वरूप उस पदार्थ के नाश करने के लिए नहीं होता है । तो मेरे आत्मा का जो सत्यस्वरूप है वह मेरे आत्मा को दुःखी करने के लिए नहीं हो सकता है । किसी भी पदार्थ का स्वरूप उस पदार्थ का विनाश करने के लिए नहीं होता । फिर जब मैं सहज ज्ञानानंदमात्र हूँ तो उसमें फिर ये रागद्वेष झंझट कैसे आ गए? यदि मेरे आत्मा के स्वरूप के कारण आ गए? क्या मेरे आत्मा के स्वरूप के कारण आ गए हैं तो ये मेरे स्वरूप बन गए । इनका कभी नाश न होगा । फिर उद्धार का कोई उपाय ही न रह गया । वहाँ यह निश्चय करना ही होगा कि मेरे से अतिरिक्त कोई परद्रव्य साथ लगे हुए हैं जिनका निमित्त पाकर जीव को विचित्र दशायें हो जाती हैं । तो परद्रव्य क्या है? कोई मोटी चीज तो है नहीं, कोई सूक्ष्म है और वह सूक्ष्म जो कुछ मैटर है, विजातीय है । सजातीय से खोटे भाव नहीं हो सकते।
द्विविध कर्म―मेरा आत्मा चेतन है । और ये चेतन निमित्त हो गए, जिसके कारण रागद्वेष कर्म होते हैं । परद्रव्यों का नाम कुछ रख दिया जाये, पर साक्षात् कर्म तो है रागद्वेष । असली नाम कर्म का है रागद्वेष के लिए और उसका निमित्त पाकर जो कर्म बन गए उसका भी नाम रखा है कर्म उपचार से । इस तरह आत्मा में दो प्रकार के कर्म हो गए । एक तो साक्षात् कर्म रागद्वेष भाव और उसका निमित्त पाकर जो सूक्ष्म मेटर आत्मा में चिपट गए हैं वे द्रव्य कर्म कहे जाते हैं ।