वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 16
From जैनकोष
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्चयदो ।।16।।
664-आत्मसंसिद्धि का उपाय—साधुओं को, आत्मतत्त्व के साधकों को दर्शन ज्ञान चारित्र की नित्य सेवा करना चाहिये । ये यद्यपि व्यवहार दृष्टि से 3 हैं तथापि इन तीनों को निश्चय से एक आत्मा ही समझो । जिस भाव से यह आत्मा साधक बन जावे और यही साध्य हो जावे उस भाव से निजतत्त्व की उपासना करना ही चाहिए । वह उपाय केवल एक है ज्ञानमय भावना । भैया ! प्रथम तो साध्य-साधक का भेदविकल्प चलता है, पश्चात् यह भेद बुद्धि विलीन हो जाती है और मात्र ज्ञाता द्रष्टा रह जाता है । यही तो रत्नत्रय की सिद्धि है । 665-ज्ञानधन की सिद्धि का उपाय ज्ञान—ज्ञान के द्वारा ज्ञान का अनुभव करना चाहिये । ज्ञान साध्य साधन दोनों ही है । जो आत्मा की सिद्धि करना चाहता है उसे ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है । जिस समय स्वानुभव करना हो उस समय ज्ञान की ओर दृष्टि दो । जीव का मुख्य लक्षण ही ज्ञान है । ज्ञान माने जानना है । ज्ञान माने प्रतिभास करना है । अपना भगवान है, आत्मा ज्ञानमय है, ऐसा भाव प्रतीतिपूर्वक विचारो तो आत्मा ज्ञानमय है । जो आत्मा को शुद्ध देखना चाहता है, उसका ही तो आत्मा शुद्ध हो सकता है । ज्ञानी पुरुष के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की नित्य उपासना करनी चाहिये । साधु पुरुषों को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की नित्य उपासना करनी चाहिये । श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र ऐसे गुण हैं और इनके ऐसे कार्य हैं कि इनके बिना कोई जीव है ही नहीं जैसे दूकानदारों को दूकान करने के लिये दूकान के योग्य श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र चाहिये, तभी तो दूकान चलेगी । इसी प्रकार आत्मा को मोक्ष ले जाने वालों के लिये आत्मा का विश्वास ज्ञान चारित्र होना आवश्यक है, इस उपाय बिना मोक्ष नहीं होगा। श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र से ही प्रत्येक कार्य में सफलता मिलती है । बिना श्रद्धा के दवाई भी असर नहीं करती है, मानों तो देव; नहीं तो पत्थर, अर्थात् विश्वास से ही फल मिलता है । जैसे किसी को अंधकार में सर्प ने काट खाया, यदि उसको यह विश्वास हो कि मुझे चूहे ने काट खाया, तो हो सकता है कि हृदय पर असर न पड़ने के कारण विष का देर में असर हो । थोड़ा हो । कहने का सार यही है कि समग्र कार्य श्रद्धा, ज्ञान चारित्र से संपन्न होते हैं । थोड़ा दिल कमजोर होने से ही मनुष्य का Heart-fail (हार्ट फेल) हो जाता है । श्रद्धा का बड़ा माहात्म्य है । साधुओं को दर्शन ज्ञान चारित्र की नित्य उपासना करनी चाहिए । जिस पद्धति से यह आत्मा साध्य हो और साधन बने वैसा जानकर करना चाहिये । श्रद्धा ज्ञान चारित्र तीनों ही आत्मा के परिणमन हैं । सत्य श्रद्धा सहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं । इसी कारण व्यवहार में ज्ञान शब्द के कहते ही उसमें श्रद्धा का भाव आ जाता है । और लोक में ज्ञान व चारित्र का भाषण होता है । इसी पर यह कहा जाता है कि 666-ज्ञान ओर चारित्र में सिद्धि:—एक बार एक जंगल में दो मनुष्य अंधा और लंगड़ा थे । उस जंगल में अग्नि लग गई तो दोनों ने बचने का उपाय सोचा । निश्चय हुआ कि अंधा लंगड़े को पीठ पर चढ़ा लेवे और लंगड़ा अंधे को रास्ता बताता जाये । ऐसा करने से दोनों उस अग्नि से बच कर निकल आये । यदि वे ऐसा न करते तो दोनों तड़पकर जलते हुए मर जाते । इसी प्रकार ज्ञान चारित्र में देखो । यदि ज्ञान नहीं है तो चारित्र अंधा है । और बिना चारित्र के ज्ञान लंगड़े के समान है । श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र ये तीनों हों तो प्रत्येक कार्य में सफलता मिलती है । जैसे देवदत्त है, इसमें देवदत्त का श्रद्धान देवदत्त है । ज्ञान भी देवदत्त है और चारित्र भी देवदत्त ही है, तीनों चीजें आत्मा ही हैं । आत्मा की तीनों (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) पर्याय हैं। जैसे देवदत्त से श्रद्धादिक जुदे नहीं, इसी तरह ये तीनों भी आत्मा से जुदे नहीं । यदि मोक्ष की प्राप्ति करनी है तो इन तीनों को प्राप्त करो इन तीनोमय आत्मा को देखो । बिना आत्मा के यथार्थज्ञान के कुछ भी नहीं होना है । और बिना स्याद्वाद के यथार्थता का पता नहीं चल सकता । जैनग्रंथों में सीधी सादी सरल भाषा में वस्तु का वास्तविक स्वरूप बताया गया है । यद्यपि इन ग्रंथों के प्रणेता आचार्यों में शब्दाडंबर की कला थी, लेकिन उसका उन्होंने उपयोग नहीं किया । धनंजय कवि द्वारा प्रणीत ‘‘द्विसंधान महाकाव्य’’ शब्द वैचित्र्य की दृष्टि से दर्शनीय है और बड़े-बड़े विद्वानों के उसको पढ़कर दांतों तले अंगुली आ जाती है और उनके दांत खट्टे हो जाते हैं । शब्दाडंबर से पूर्ण ग्रंथ को साहित्य नहीं कहते । अपितु साहित्य:—हितेन सहितम् सहितम् सहितस्य भाव: साहित्यम् । अर्थात् जिसमें हितकारी बातों का वर्णन हो, उसे साहित्य कहते हैं । आचार्यों ने इसी बात का ध्यान रखा कि उनके द्वारा लिखे गये ग्रंथों से जीवों का कल्याण होना चाहिए, और उन ग्रंथों का सर्व साधारण जन समझ सकें, श्रद्धान कर सकें और आचरण कर सकें । अत: आचार्यों ने प्रत्येक ग्रंथ सरल भाषा में ही बनाया है । 667-रत्नत्रय की उपासना में आत्मा की उपासना—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उपासना करो, माने आत्मा की उपासना करो । विद्यानंदि स्वामी बड़े प्रकांड विद्वान् थे । वे राजगुरु कहलाते थे । जैन धर्म के बड़े द्वेषी थे । जब वे राज दरबार में आते थे, रास्ते में भगवान पार्श्वनाथ मंदिर पड़ता था । वे उसकी तरफ भूलकर भी मुंह नहीं करते थे । एक दिन उन्होंने सोचा, जिससे मैं द्वेष करता हूँ, देखना चाहिये कि उसमें है क्या चीज? यह विचार कर वे मंदिर के अंदर गये । वहाँ एक मुनिराज बैठे हुए देवागम स्तोत्र पाठ कर रहे थे । विद्यानंदि ने उसे ध्यानपूर्वक सुना । सुनकर वे मुनिराज से बोले कि इस स्त्रोत का क्या अर्थ है? मुनिराज बोले, कि हमें इसका अर्थ नहीं आता है, केवल इसका पाठ कर लेता हूँ । विद्यानंदि पर उनकी सत्यता का काफी असर पड़ा । उन्होंने कहा कि भगवन्, आप इसको दुबारा पढ़िये । मुनिराज ने उसे पुन: पढ़ा । विद्यानंदि विद्वान् तो थे ही, वे उसका पूर्णरूपेण अर्थ समझ गये । उनको स्याद्वाद पर पूर्ण श्रद्धा हो गई । स्वामी विद्यानंदि पर तो स्याद्वाद का रंग चढ़ चुका था । केवल अनुमान का क्या लक्षण है? विद्यानंदि ने एक बार सोते-सोते विचारा । स्वामिन्, जाकर देखना तुम्हें जैन मंदिर में पार्श्वनाथ भगवान की फणावली पर अनुमान का लक्षण लिखा मिलेगा । ऐसा विद्यानंदिजी को स्वप्न हुआ । स्वामी मंदिर में गये तो देखा, सचमुच फणावली पर दो श्लोक लिखे हुए थे । उनका भाव यह था:—
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्, नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पंचभि:, नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पंचभि: ।। “साध्य के बिना साधन न हो ऐसा साधन यदि मिल जाये तो साध्य अवश्य सिद्ध हो जाता है । अनुमान के निर्णय के लिये अन्यथानुपपन्नत्व ही यथार्थ बात है ।“ उनको भी जैन धर्म पर इन श्लोकों को पढ़कर पूर्ण श्रद्धा हो गई । दूसरे दिन स्वामी दरबार में पहुँचे । भाषण में उन्होंने कहा:—कल्याण का मार्ग वस्तु स्वरूप का ज्ञान है । वस्तुस्वरूप को बताने वाला स्याद्वाद दर्शन है । राजसभा यह सुनकर आश्चर्य में पड़ गई कि आज स्वामीजी को क्या हो गया है? वे क्या कह रहे हैं । श्रीमद्विद्यानंद स्वामी निर्बाध गति से बोलते ही गये । उन्होंने कहा:—आप लोगों को यदि कोई आशंका है तो कहियेगा । जब विद्यानंदिस्वामी चैतन्यभक्ति से अधिक भीने हो गये तब कहने लगे, राजन्, हमें आपके राजपुरोहितत्त्व से कोई प्रयोजन नहीं है, हमें तो अपना कल्याण करना है । विद्यानंदि स्वामी ने दिगंबरी दीक्षा ली । पश्चात् अनेक न्याय शास्त्रों की रचना की । आत्मतत्त्व का भी संयुक्तिक वर्णन किया । आत्मा एक अखंड वस्तु है । भेद दृष्टि से प्रायोजनिक इसमें 3 गुण हैं । श्रद्धा ज्ञान चारित्र । इन तीनों का मिलन ही मोक्ष का मार्ग है ।
668-आत्मा का प्रधान गुण चैतन्य—आत्मा का चैतन्य गुण पर पदार्थों से बिल्कुल भिन्न है । आत्मा का स्वभाव केवल ज्ञान की दृष्टि से परखा जाता है । आत्मा के मुक्त होने का उपाय सम्यग्दर्शनज्ञान, चारित्र की प्राप्ति है । अत: नित्य इन तीनों की उपासना करनी चाहिये । आत्मा दर्शन, ज्ञान चारित्रमय है । आत्मा एकात्म है, रत्नत्रयात्मक है । शंका:—आत्मा त्रितयात्मक है या एकात्मक? समाधान:—आत्मा एक रूप भी है, नाना रूप भी है । ये तीनों गुण आत्मा में एक ही काल में हैं, यह बात प्रमाण से सिद्ध है । एक की दृष्टि से देखो तो आत्मा एक रूप है । भेद की दृष्टि से आत्मा को देखो तो नाना रूप है । दृष्टिभेद से सब खुलासा हो जाता है । आत्मा एक है आत्मा की पर्याय अनेक हैं उनके स्रोतरूप गुण अनेक हैं । वस्तु स्वत: सिद्ध है और परिणामी भी है । सत् पूर्ण होता है । गुण और पर्याय के एकरूप में सत् (द्रव्य) माना है । जैसे वृक्ष माने—शाखा, कोंपल, फल, फूल, पत्ते हैं । एक शब्द में इन सबको वृक्ष कह सकते हैं । पर्याय दृष्टि से उसे शाखा, पत्ते, फूलादि रूप मान सकते हैं । स्वभाव और स्वभाव की हालत का नाम ही द्रव्य है । जिस चीज को जिस दृष्टि से देखो, वह उसी दृष्टि से उसी रूप दिखाई देती है । वस्तु को जिस रूप से देखो, वस्तु उसी रूप प्रतीत हो जाती है । वस्तु अखंड सत् है । प्रत्येक चीज अपनी अखंड सत् है । ऐसे अखंड सत् को जाति की अपेक्षा से नहीं देखा जा सकता है । अभेददृष्टि से आत्मा एकात्मक है और भेद दृष्टि से आत्मा नानारूप है । भेदाभेद के चक्कर में न पढ़कर श्रद्धापूर्वक आत्मा का कल्याण करो । यही मोक्ष का मार्ग है और सातों तत्त्वों में भूतार्थदृष्टि से श्रद्धा करो । यही तत्त्व मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत तत्त्व हैं । प्रत्येक प्राणी को अपने इस स्वभाव का आश्रय कर परिणामों को सुधारना चाहिये । आत्मा उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक है । ऐसा माने बिना अर्थ क्रिया नहीं हो सकती । 669-ज्ञान का अभ्युदय होते ही उसी क्षण अज्ञान का विनाश:—धर्म पर्याय का कारण अधर्म का नाश है । धर्म पर्याय में पूर्व पर्याय व्ययरूप से कारण है । यदि आत्मा को सर्वथा नित्य माने तो पापी सदा पापी ही बना रहेगा । सदा पापी होने से उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है । जीव के तो अनादि से अधर्म पर्याय है, यदि पदार्थ को नित्य मान लें तो सदा ही अधर्म पर्याय बनी रहेगी । फिर धर्म पर्याय भी नहीं बन सकती है । आत्मा का यदि निरन्वय नाश मानते हो तो कार्यकारणभाव नहीं बन सकता है । ऐसी कोई चीज नहीं, जिसमें परिणमन न होवे । इस प्रकार आत्मा नित्यानित्यात्मक है । तभी तो उसमें कार्यकारण भाव घटित हो सकता है । आगामी पर्याय का कारण पूर्व पर्याय है । जिस प्रकार अगले कदम उठने का कारण पिछला कदम है, उसी प्रकार बाद की पर्याय का कारण पूर्व पर्याय है । द्रव्य अथवा गुण नित्यानित्यामक है । असत् का कभी उत्पाद नहीं हो सकता तथा सत् का कभी विनाश नहीं हो सकता । संसार में जितनी भी वस्तुएं वर्तमान हैं, उनमें से एक भी घट-बढ़ नहीं सकती । क्या कभी कोई चीज गुम सकती है? नहीं । फिर लोग क्यों रोते हैं ? ‘मोहवश’ क्या कभी कोई चीज मिलती है ? कभी नहीं । फिर लोग क्यों हंसते हैं । अज्ञानवश । सत् का विनाश नहीं, और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता । ज्ञान गुण में फर्क नहीं होता । ज्ञान गुण में हानि-वृद्धि भी नहीं होती । गुणों की हानि-वृद्धि का नाम ही गुणांश है । 670-भगवान् का ज्ञान पूर्णता को प्राप्त—हमारा 6 ग्रंथों का ज्ञान अधूरा है । लेकिन भगवान का ज्ञान मोटा नहीं है । अपना ज्ञान पतला या दुबला भी नहीं है । गुणस्थान, दर्शन मार्गणा, ज्ञानमार्गणा, जीवस्थान—ये सभी गुणांश हैं । सत् का निरन्वय नाश और असत् का उत्पाद होता ही नहीं । ज्ञान में हानि वृद्धि भी नहीं होती । आचार्य अब उत्पाद व्ययध्रौव्य को समझाते हैं । उत्पाद-व्ययध्रौव्य पर्याय में ही होते हैं । द्रव्यत्व में उत्पाद व्यय-ध्रौव्य नहीं होते हैं । द्रव्य कूटस्थ ध्रुव नहीं है, क्योंकि ध्रुव मानने से द्रव्य में नित्यपना आ जायेगा । पर्यायों का सतत होते रहने रूप भी ध्रौव्य द्रव्य का नहीं वह धर्म है । द्रव्य मोक्षमार्गी नहीं है, पर्याय मोक्षमार्गी है । आठों कर्मों का नाश करने पर द्रव्य का नाश नहीं होता है, समस्त कर्मों का नाश हो जाने पर मोक्ष हो जाता है अर्थात् द्रव्य स्वभाव के अनुरूप शुद्ध हो जाता है । जीव स्वभाव तो न मुक्त है और न अमुक्त । जीव द्रव्य तो नित्य अनित्य भी नहीं है । नित्य-अनित्य द्वारा उसका स्वरूप समझाया जाता है । द्रव्य समझ में तो आता है, लेकिन कहा नहीं जा सकता, अत: जीव द्रव्य अवक्तव्य है । यदि द्रव्य को कहना है तो स्याद्वाद रूप सिद्धांत को हाथ में रखो और उसको दृष्टियों से कहो, अन्यथा उसमें मिथ्यापन आ जायेगा । जो चीज तुम ज्ञानपूर्वक अनुभव करते हो, उसके बताने में कमी अवश्य आ जाती है । सन्मान का स्वाद नहीं आता । बोलने से तो लौकिक स्वाद में भी कमी आ जाती है । वस्तु का स्वरूप तो कहा कैसे जावे । वचन व्यवहार कुछ परखने के लिये हैं । परखकर वचन व्यवहार बंदकर मनन करो । विवेक रखते हुए मौनपूर्वक तो व्यवहार साधन भी आनंद बढ़ाता है । पूजा मौनपूर्वक करनी चाहिये । भोजन भी मौनपूर्वक करना चाहिये । मौनपूर्वक पूजा करने में बड़ा आनंद आता है । देखने वालों को भी उसमें आकर्षण प्रतीत होगा । बहुत से काम तो ऐसे होते हैं कि खुद का चित्त गवाह देता है कि यह करना योग्य नहीं है, फिर भी उस कार्य को हम लोग कर डालते हैं । आत्मोत्थान चाहने वालों की आन और विनय ये 2 सदाचार होना ही चाहिये । 671-आन में सुधार की पात्रता—एक सेठ था, उसका बड़ा लड़का वेश्या के यहाँ जाता था । सेठ से एक आदमी ने जाकर कहा कि आपका लड़का बड़ा बिगड़ गया है, क्योंकि वह वेश्यागामी हो गया है । सेठ ने तभी उत्तर दिया, ऐसा हो ही नहीं सकता कि मेरा पुत्र वेश्यागामी हो जाये । सेठ वेश्या के यहाँ जब देखने गया तो लड़के ने आंखों के आगे हाथ लगा लिया । पिता घर पर आकर बोला कि मेरा लड़का अभी तक नहीं बिगड़ा । क्योंकि उसने हमारी आन तो रखी कि मेरे जाते ही उसने लज्जा से आंखों के हाथ लगा लिया । पिता ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की कुल की । फलत: लड़का सुधर गया और वह सही मार्ग पर लग गया । मेरे सुधरने की जिम्मेदारी मुझ पर है, दूसरे पर नहीं है । कोई किसी की सहायता भी नहीं कर सकता है । आत्मा का सहायक आत्मा के निर्मल परिणाम हैं । दुनिया की निगाह में यदि हम निर्मल हैं । लेकिन हम हैं पापिष्ठ तो दुनिया के निर्मल मानने से हमारा कल्याण नहीं होगा । यदि हम निर्मल हैं और दुनिया में कोई कहीं कैसा ही अपवाद करे उससे आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं होता । यह पर्याय मोह इस प्रतीति को नहीं लाने देता । ज्ञान के बिना मोह दूर हो ही नहीं सकता । संसार में ज्ञान के समान लाभदायक चीज, स्त्री, धन, वैभव, पुत्रादि नहीं है । अत: अपनी आत्मा का कल्याण करने के लिये बड़े उत्साह और उमंग से ज्ञान-साधन करो । ज्ञान से सदा सुखी बने रहोगे । ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन करना चाहिये । ज्ञान के अर्थ द्रव्य गुण पर्याय का यथार्थ विवेक करना होगा । द्रव्य निर्विकल्प है । फिर भी तीर्थ प्रवृत्ति के अर्थ द्रव्य का लक्षण किया है । ‘उत्पाद व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’ वस्तुत: भेद विवक्षा से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है वे पर्याय में ही होते हैं । 672-पदार्थ का बनना, बिगड़ना, बना रहना तीनों एक साथ—बनना, बिगड़ना और बने रहने का मतलब ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य है । ये सभी बातें—उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्याय में ही घटित होती हैं । लेकिन पर्याय द्रव्य से कथंचित् अभिन्न है । अत: द्रव्य में भी उत्पाद व्यय-ध्रौव्य कह दिये जाते हैं । अब उत्पाद का स्वरूप कहते हैं । प्रत्येक वस्तु में दो विकल्प रहते हैं:—1-वही है, 2-वह नहीं रहा । जैसे आत्मा के संबंध में इस प्रकार विकल्प उठता है । जैसे मनुष्य मर करके पुन: मनुष्य हुआ; तो कहेंगे कि यह वही आत्मा है जो पहले मनुष्य शरीर में था, यह ध्रौव्य कहलायेगा । और दूसरी पर्याय बदलना उत्पाद-व्यय का सूचक है । तद्भाव द्रव्यार्थिकनय से होता है तद्भाव पर्यायार्थिकनय होता है । प्रति समय नई अवस्था के होने को उत्पाद कहते हैं । आत्मा में प्रति समय नया-नया परिणमन चलता रहता है । हालत दो प्रकार की होती है । 1-आकार रूप हालत, 2-गुण की हालत । जैसे बच्चा बड़ा होता है । जब बच्चा छोटा था तब आत्मा छोटे आकार में था । अब बच्चा बड़ा हो गया तो आत्मा भी बड़े आकार में हो गया । यह आकार की हालत है और उसके गुण प्रति समय परिणमते रहते हैं यह गुणों का परिणमन हुआ । ऐसा कुछ भी नहीं है जो हो और परिणमता न हो । संसार की सभी चीजें परिणमनशील हैं असत् के उत्पाद की तरह सत् का व्यय नहीं होता है । सत् की अवस्था का व्यय होता है । जैसे पर्याय का उत्पाद होता है, वैसे ही व्यय भी पर्याय का ही होता है । सत् का उत्पाद-व्यय नहीं होता है । जैसे ज्ञान घटाकार रूप था, अब लोकाकार रूप हो गया । इसे इस प्रकार कहेंगे कि घटाकार रूप ज्ञान नष्ट हो गया और लोकाकार रूप ज्ञान उत्पन्न हो गया । उत्पाद-व्यय की तरह से ध्रौव्य भी पर्यायाथिकनय से होता है । पर्याय माने अंश । द्रव्य माने अंशी । समस्त अंशों का एक पुंज अंशी-द्रव्य कहलाता है । वस्तु में उत्पाद व्यय ध्रौव्य है-यह एक दृष्टि से देखा गया । पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है । 673-अंश अंशी से पृथक नहीं—जो अंशी जबात बताये उसे पर्यायार्थिकनय कहते हैं । वस्तु उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है । वस्तु को उत्पाद की दृष्टि से देखो तो उत्पादात्मक है । व्यय की दृष्टि से देखो तो व्यायात्मक है । और ध्रौव्य की दृष्टि से देखो तो ध्रौव्यात्मक है । ‘‘तद्भावाव्यय नित्यम्’’ अर्थात् पर्यायों का नाश न होना ही ध्रौव्य कहलाता है । अर्थात् द्रव्य के परिणमनों का कभी नाश नहीं होता । और द्रव्य के परिणमन हमेशा ही होते रहेंगे । पर्यायों के बनते रहने का नाम ही नित्य पर्याय है । वस्तु को यदि नित्य न मानो तो वस्तु में अनित्यत्व भी नहीं बन सकता है । पर्याय न हो, द्रव्य हो, ऐसा हो ही नहीं सकता है । द्रव्य न हो, पर्याय हो यह भी नहीं हो सकता । अब ध्रौव्य को उदाहरण पूर्वक समझाते है:—जैसे पुष्प का गंध परिणमन है और गंध ही पुष्प का गुण है । उसका गंध गुण परिणमन रहा है जो परिणमन है वह गंध पर्याय है और जो परिणमता वह गुण है । जैसे आत्मा में पहले मतिज्ञान था, अब श्रुतज्ञान हो गया । अर्थात् आत्मा का ज्ञान गुण पहले मतिज्ञान रूप था, अब वही ज्ञान गुण श्रुतज्ञान रूप हो गया । ज्ञानगुण वही रहा । पदार्थों के नित्य होने के कारण उत्पाद-व्यय का कभी नाश नहीं होता । पदार्थों के अनित्य होने के कारण उसमें उत्पाद व्यय होते रहते हैं । शंका: -चीज दो ही हैं: - द्रव्य और पर्याय । गुण नाम की कोई चीज है ही नहीं । द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य है । अत: वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक हो गई । पर्याय भिन्न है, और द्रव्य भिन्न है । शंकाकार ऐसी शंका करता है । समाधान: -द्रव्य और पर्याय अलग-अलग नहीं है । यदि पर्याय और द्रव्य अलग-अलग हैं तो उनको अलग करके तो दिखाओ । यदि द्रव्य पर्याय अलग-अलग हैं, तो उनके प्रदेश भी अलग-अलग होने चाहियें । प्रदेशों के अलग होने पर सत् न द्रव्यरूप ही रहा, न पर्याय या गुण रूप ही रहा । सत् का कोई स्वरूप ही नहीं रहेगा । सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य कोई चीज नहीं है । सर्वथा अनित्य का अर्थ यह है कि चीज हुई और नष्ट हो गई । लेकिन ऐसी कोई चीज नहीं है । पर्यायों के नित्य मानने पर उनका आश्रय कुछ भी नहीं रहेगा । पर्यायों में परिणमन भी नहीं हो सकता है । यदि आत्मद्रव्य सर्वथा अनित्य हो गया तो आत्मा बिल्कुल ही नष्ट हो जायेगा । इस तरह यह अखंड आत्मा परमार्थत: अनिर्वचनीय होकर भी व्यवहार से इसे अनंत धर्मात्मक देखा गया है ताकि आत्मा का परिचय हो । परिचय से भेद विज्ञान हो । भेद विज्ञान से शुद्धात्म रुचि हो । शुद्धात्म रुचि से सम्यक्त्व हो और फिर शुद्धात्म तत्त्व में विश्राम हो । मोक्षमार्ग भी एक परिणमनस्वरूप होने पर भी व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रात्मक देखा गया है साधुपुरुषों को सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र को सेवना चाहिये । परमार्थ से यह सब आत्मा ही है सो आत्मा की सेवा करना चाहिये । शंका:—शंकाकार कहता है कि आत्म द्रव्य अलग है और पर्याय अलग है । आत्मा नित्य है और पर्याय अनित्य है तभी तो पदार्थ नित्यानित्यात्मक बनता है । समाधान: द्रव्य और पर्याय को यदि सर्वथा भिन्न मानोगे तो यह पर्याय इस द्रव्य की है, ऐसा संबंध नहीं बन सकता । द्रव्य न्यारे-2 है अत: उनका संबंध नहीं है । उसी प्रकार द्रव्य और पर्याय को पृथक पृथक् मानने में उनका संबंध नहीं बनेगा । ऐसा कहना चाहिये कि गुण और द्रव्य नित्यानित्यात्मक हैं । शंका:—वस्तु नित्य है और गुण भी नित्य है, इसमें हमें कोई विवाद नहीं । लेकिन द्रव्य को अनित्य मत मानो । पर्याय उत्पाद व्यय वाली है, अत: पर्याय नित्य नहीं है । पर्याय अनित्य है, द्रव्य को कैसे अनित्यरूप भी कहते हो । समाधान:—यह तुम्हारा कहना ठीक नहीं है । पर्याय माने द्रव्य हालत । द्रव्य की हालत के सिवाय द्रव्य है ही नहीं । प्रतिसमय की हालतों का नाम ही तो द्रव्य हे । जैसे माला में मोतियों के समूह का नाम ही तो माला है । अत: बिना मोतियों के माला इन्हीं बन सकती । अतएव बिना पर्याय के द्रव्य ही कैसे बनेगा? जैसे समुद्र में लहरे हैं तो वहाँ लहरों का नाम ही तो समुद्र है । जो समुद्र है, वही लहरें हे । जो तरंगों रूप है, वही समुद्र है । क्योंकि समुद्र ही तो लहरों रूप परिणाम रहा है । पर्यायों रूप द्रव्य ही परिणम रहा, ऐसा समझना चाहिये । सत् स्वयं उत्पाद व्यय-ध्रौव्यात्मक है । आत्मा उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है । द्रव्य और पर्याय पृथक्-पृथक् नहीं हैं । 674-विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न आत्मधर्म जानने पर आत्मा की समझ:—आत्मा परिणमता रहता है, अत: अध्रुव कहलाया । स्वभाव दृष्टि से आत्मा व सभी पदार्थ नित्य है । और परिणमन की दृष्टि से आत्मा व सभी चीजें अनित्य है । निश्चयनय से सत् अखंड है, सत् के भेद नहीं हैं । निश्चयनय से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य भी नहीं है । व्यवहारनय से ही सत् व्यय-ध्रौव्यात्मक है । पर्याय दृष्टि से सत् उत्पाद व्ययध्रौव्यात्मक है । शुद्ध उत्पाद निश्चयनय की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में से कोई भी नहीं है । भेददृष्टि से सब भेद प्रकट हो जाते हैं । यदि अभेद दृष्टि से देखो तो सब भेद समाप्त हो जाते हैं । यदि तुम्हें सत् के भेद करने ही हैं तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ही नजर आयेंगे । यदि भेद नहीं करना है तो इन तीनों में से कोई भी नजर नहीं आयेगा और आयेगा पूर्ण वस्तु । शंका—द्रव्य के उत्पाद-व्यय तो अंश है । लेकिन ध्रौव्य कैसे अंश हो सकता है? क्योंकि ध्रौव्य त्रिकाल रहता है । समाधान:—भैया ! पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है । ये तीनों ही तो अंश हैं । ये तीनों मिलकर एक सत् कहलाता है । अकेला ध्रुव सत् नहीं कहला सकता । यदि ध्रुव को अर्थ अपरिणामी करते हो तो ऐसा तो कुछ है नहीं नित्य परिणामी कहो तो पर्याय आ गई । दूसरी बात यह है कि पदार्थ केवल ध्रुव तो नहीं सो जैसे उत्पाद, व्यय द्रव्य के अंश है वैसे ध्रौव्य भी । अंश का अपरनाम पर्याय भी है । अत: भैया ध्रौव्य को भी द्रव्य का अंश ही समझना । पर्याय दृष्टि से जैसे उत्पाद, व्यय ज्ञात होते हैं वैसे ध्रौव्य भी पर्यायदृष्टि से ज्ञात होता है । द्रव्य तो अखंड है । द्रव्य को स्वभाव दृष्टि से देखो तो ध्रुव नजर आता है । और उसी द्रव्य को परिणमन की दृष्टि से देखो तो अध्रुव नजर आता है । आत्मा में किसी पर्याय की उत्पत्ति हुई, किसी पर्याय का व्यय हुआ और अन्वय ध्रौव्य रहा, वहाँ वस्तु को उत्पाद दृष्टि से देखें तो वस्तु उत्पाद मात्र जान पड़ेगा । व्यय दृष्टि से यदि वस्तु को देखते हैं तो वस्तु व्यय मात्र जान पड़ेगी और वस्तु को ध्रुवत्व की दृष्टि से देखें तो वस्तु ध्रौव्यमात्र प्रतीत होगी । अत: वस्तु त्रिलक्षणात्मक है । वस्तु अखंड सत्र है, उसे समझाने के लिये अलग-अलग तरीके हैं । जैसे घट है, उसे मिट्टी की दृष्टि से देखो तो मिट्टी मालूम पड़ेगी । और उसी को घड़े की दृष्टि से देखो तो वह घटमात्र मालूम पड़ेगा । घड़े को मिट्टी की दृष्टि से देखो तो ध्रुव रूप है । लोदे की दृष्टि से घड़े को देखो तो घड़ा व्यय मात्र है । और घड़े को घड़े की दृष्टि से देखो तो उत्पाद मात्र जान पड़ेगा । समग्र वस्तुएं उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक हैं । मिथ्यादर्शन का व्यय हुआ सम्यग्दर्शन का उत्पाद हुआ आत्मा वही एक है जिसने यह व्यय न उत्पाद हुआ । अज्ञान पर्याय का व्यय हुआ सम्यग्ज्ञान पर्याय का उत्पाद हुआ, आत्मा वही एक है । आवरत पर्याय का व्यय हुआ सम्यग्चारित्र पर्याय का उत्पाद हुआ, आत्मा वही एक हैं । इस तरह मोक्षमार्ग में भी उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मकता है । मुमुक्षु को सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की सेवा करना चाहिये । इस रत्नत्रयलब्धि के बिना साध्य की सिद्धि नहीं है । शंका:—यह कहा गया कि पदार्थ उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक है । जब इन तीनों चीजों का स्वरूप न्यारा है । तो तीनों चीजें एक साथ कैसे रह सकती है । समाधान:—तुम्हारा कहना ठीक है । परंतु उत्पाद, व्यय ध्रौव्य पदार्थ में तीनों एक समय में रहते हैं । अत: उनका आपस में विरोध नहीं है । जब दृष्टियाँ न्यारी-न्यारी हैं तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य में एक साथ रह सकते हैं । उनके एक साथ रहने में कोई बाधा नहीं है । क्रोध होने पर शांति का व्यय और क्रोध का उत्पाद होता है । अत: उत्पाद व्यय के साथ रहने में कोई अड़चन नहीं है । सत् का उत्पाद और व्यय नहीं है । सत् की पर्याय का उत्पाद व्यय होता है। 675-पदार्थ की स्वत: सिद्धता और स्वत: परिणमिता—पदार्थ है और परिणमता है ये दोनों बातें एक साथ रहती हैं । अत: उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीनों एक साथ रहते हैं । एकांश से वस्तु को नहीं समझ सकते । केवल बना रहता या केवल उत्पन्न होना या केवल नष्ट होना कोई तत्त्व नहीं है । द्रव्यदृष्टि से ध्रौव्य और पर्याय दृष्टि से उत्पाद व्यय है । सत् अखंड है, लेकिन वह परिणमता रहता है । भगवान् सिद्ध का केवल ज्ञान भी परिणमता रहता है । चीज वही रहती है, लेकिन परिणमती रहती है । हम जिस समय चीज के परिणमन पर विचार नहीं करते हैं । स्वभाव दृष्टि से उसे देखते हैं तो वह वस्तु हमारी द्दष्टि में शुद्ध कहलायेगी । दर्शन, ज्ञान, चारित्र । यह रत्नत्रय आत्मस्वभाव से अन्य नहीं है । आत्मस्वभाव का अति क्रमण करके रत्नत्रय का लाभ ही नहीं है । अत: रत्नत्रय एक आत्मा ही है । सर्व भावों व परभावों को अस्वजानकर उनमें उपेक्षा करके जो आत्म स्वभाव में उपयोग होता है । वही श्रेष्ठ आनंद है । मोक्षमार्ग में यह आत्मा व्यवहार से दर्शन ज्ञान चारित्रात्मक देखा जाता है किंतु परमार्थ से स्वयं में एकत्व होने से वह एक स्वरूप है । इस कारण व्यवहार दृष्टि से आत्मा मेचक है, नाना रूप है और परमार्थ दृष्टि से आत्मा अमेचक है, एक रूप है । प्रमाण से दोनों बातें सिद्ध हैं । आत्मा में जो वर्तमान पर्याय है, उस ही समय में उसका उत्पाद है और पूर्व पर्याय का व्यय भी है । तथा आत्मा वही का वही है अत: आत्मा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक है । शंका: --उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीनों अलग-अलग समय में ही होना चाहिये, क्योंकि तीनों के लक्षण जुदे-जुदे हैं । फिर तो वे एक साथ कैसे हो सकते हैं? जैसे वृक्ष में बीज के समय में बीज, अंकुर के समय में अंकुर और वृक्ष के समय में वृक्ष मालूम पड़ता है । उत्तर:—उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के एक साथ होने में जरा भी फर्क नहीं है । तीनों एक ही समय में होते हैं । मृत्पिंड के व्यय का समय और घट के उत्पाद का समय एक ही है । बीज पत्ते, कोंपल, शाखा, फूल फल आदि के समूह का नाम ही वृक्ष है सो वृक्ष सामान्य में उत्पाद व्ययध्रौव्य घटाओ । जैसे मतिज्ञान के बाद श्रुतज्ञान होता है तो मतिज्ञान का व्यय और श्रुतज्ञान का उत्पाद तथा ज्ञान की ध्रुवता एक समय में होती है । दृष्टांत में जो अंकुर के उत्पाद का समय वही बीज के व्यय का समय है । इनके होने में थोड़ा सा भी अंतर नहीं आता । तथा वही समय वृक्ष का है । क्योंकि वृक्ष दोनों अवस्थाओं में रहता है । एक ही पर्याय का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य यदि एक ही समय में होता तो हमारा कहना गलत हो सकता था, लेकिन हम तो भिन्न-भिन्न पर्याय का उत्पाद व्यय ध्रौव्य एक समय में कह रहे हैं । एक ही पर्याय का एक समय में उत्पाद व्यय ध्रौव्य नहीं हो सकता है । वस्तु तो सदा वही बनी रहतीं हैं, किसी अपेक्षा से उसका व्यय और किसी अपेक्षा से उसका उत्पाद होता है तथा बनी रहने के कारण वस्तु ध्रुव है । एक परिणाम में बीज से ही उत्पाद, बीज से ही व्यय और बीज बना रहे ऐसा नहीं समझना । पर्यायार्थिकनय अपेक्षा से द्रव्य में तीनों बातें है । द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से वस्तु न ध्रुवरूप है, न व्यय रूप है और न उत्पाद रूप ही है । क्योंकि वस्तु अवक्तव्य है । उसको किसी नाम से या भेद से या अवस्था से नहीं पुकार सकते । इस परमार्थ से मोक्षमार्ग प्रकट होता है । आत्मा में अनंत शक्तियां हैं उन सबका उत्पाद व्यय ध्रौव्य हैं किंतु पृथक् सत्तारूप से नहीं । उनमें दर्शन ज्ञान चारित्र की प्रकरण में प्रधानता है । यह आत्मा परमार्थ से एक है, व्यवहार से त्रिस्वभाव है । क्योंकि दर्शन, ज्ञान व चारित्ररूप परिणमना हुआ यह आत्मा अवगत होता है । 676-पदार्थ की त्रितयात्मकता—पदार्थ त्रितयात्मक है अर्थात् पदार्थ उत्पाद-व्यय ध्रौव्यमय है । यहाँ शंकाकार कहता है कि क्या इन तीनों में से किसी एक के कहने से ही काम चल जायेगा ? जैसे मिट्टी का घड़ा बना । मिट्टी घड़े का उत्पाद हो गया अब ये घड़ा है इतना कहने से काम चल गया तो व्यय और ध्रौव्य के कहने की क्या आवश्यकता है? इसी प्रकार व्यय कहो या ध्रौव्य कहो, एक के कहने से जब काम चल जाता है, फिर तीनों को एक साथ क्यों कहते हैं? समाधान:— उत्पादव्यय ध्रौव्य ये तीनों अविनाभावी है । यदि उत्पाद नहीं मानोगे तो वस्तु में व्यय भी नहीं रहेगा? जब उत्पाद व्यय नहीं रहेंगे फिर तो वस्तु टिक ही नहीं सकती, क्योंकि वस्तु नित्य परिणामी है । यदि इनमें से एक को भी न मानो तो वस्तु ही नहीं रहेगी । यदि किसी पदार्थ में परिणमन न हो तो वह पदार्थ ही नहीं रहेगा । सब पदार्थों को सामान्य दृष्टि से देखने का नाम ध्रौव्य है । वस्तु स्वभाव से नित्य है और परिणमन से अनित्य है । पदार्थ केवल अंशरूप नहीं है । वस्तु तो स्वत: सिद्ध है, और परिणमनांत्तक है । अत स्वत: सिद्ध होने से नित्य और परिणमनशील होने से अनित्य है । या वस्तु को कहा ही नहीं केवल वस्तु को जानकर अनुभव करलो कि वस्तु कैसी, क्योंकि वस्तु अवक्तव्य है ।उत्पाद के बिना व्यय और ध्रुव नहीं बन सकते, व्यय के बिना उत्पाद और ध्रुव नहीं रह सकते और ध्रुव के बिना उत्पाद नहीं रह सकते । जैसे घड़ा भी रहे और खपरियां भी रहे ऐसा हो ही नहीं सकता । घड़े के फूटने पर ही खपरियां बनेंगी । घड़े के व्यय बिना खपरियों का उत्पाद नहीं । तीनों के तीनों एक दूसरे में गुंफित हैं । कोई अलग से रह नहीं सकता अत: पदार्थ में उत्पाद-व्यय धौव्य तीनों के पाये जाने से पदार्थ त्रितयात्मक मानना ही पड़ेगा । जो बात युक्ति और अनुभव में भी उतरती है वह तो ठीक ही है । युक्ति युक्त बात को मानने में हानि नहीं:—यदि वस्तु तुम्हारी युक्ति में ठीक उतरती है तो उसको मानों, यदि युक्ति में नहीं उतरती है तो मत मानो । इस तत्त्व को भगवान ने ऐसा कहा है अत: उस पर विश्वास कर लो, ऐसा नहीं । वस्तु का स्वरूप यथार्थ समझो वस्तु के स्वरूप की यथार्थ समझ, प्रतीति धर्म है । 677-केवल उत्पाद के मानने में दोष—पहले कोई चीज नहीं थीं, और उसका अब उत्पाद हो गया, ऐसा मानने से असत् प्रादुर्भाव अर्थात् जो नहीं था, उसके होने का दोष आ जायेगा जो कि ठीक नहीं । क्योंकि असदुत्पत्ति हो ही नहीं सकती । यदि असत् की उत्पत्ति मानते तो वस्तु के उत्पाद का कोई न कोई कारण मानना ही पड़ेगा । वह कारण क्या है । यदि कहो कोई ईश्वर है तो वह उपादान कारण है तो यह नियम है कि ‘उपादान सदृश कार्य भवति’ उपादान के सदृश कार्य होता है सो ईश्वर चेतन है अत: सर्व चेतन ही पदार्थ रहना चाहिये ये अचेतन कैसे हो गये । ईश्वर को इस सृष्टि के बनाने वाला मानते हो तो ईश्वर चेतन है तो सारी वस्तुओं में चेतनता पाई जानी चाहिये । ईश्वर ज्ञानमय है अत: उसके द्वारा बनाई हुई सारी वस्तुएं ज्ञानमय होनी चाहिये—लेकिन संसार के समग्र पदार्थ चेतनमय या ज्ञानमय नहीं हैं । अत: वस्तु ईश्वर कृत भी नहीं है । क्योंकि ‘उपादान सदृश कार्य भवति’ अर्थात् उपादान के सदृश कार्य होता है । यदि कहो ईश्वर निमित्त कारण है तो जिस उपादान में ईश्वर ने सृष्टि की वह उपादान क्या हैं? जो भी है वही तो द्रव्य है फिर असदुत्पत्ति कैसे हुई । यह सब कार्य परस्पर एक दूसरे के निमित्त से होते रहते हैं । इनमें ईश्वर निमित्त भी नहीं है । ईश्वर तो सर्व ज्ञाता सर्वदर्शी अनंतानंदमय है । यह विषय एक पृथक् है इसके वर्णन का अभी प्रकरण नहीं है । संसार की समस्त वस्तुएं अनादि हैं । संसार और मोक्ष भी अनादि है अर्थात् इनका कोई भी बनाने वाला नहीं है । जब संसार अनादि है तो मोक्ष भी अनादि है ही इसमें कोई आपत्ति नहीं हैं । जब से संसार का प्रारंभ होता है उसके आठ वर्ष पश्चात् मोक्ष का भी प्रारंभ हुआ । लेकिन संसार अनादि है, अत। मोक्ष भी अनादि आठ वर्ष =अनादि ही है । जिसमें 8 वर्ष कम होना है जब उसकी आदि नहीं तो इस मोक्ष की भी नहीं है । केवल यदि उत्पाद ही उत्पाद मानो तो शेष दो—व्यय और ध्रौव्य भी नहीं रहेंगे । जो चीज पहले कभी थी ही नहीं, ऐसी असत् चीज कैसे उत्पन्न हो सकती है? असत् का उत्पाद न होने के कारण व्यय और ध्रौव्य न मानने से उत्पाद का भी अभाव हो जायेगा। 678-केवल व्यय मानने में दोष—उत्पाद और ध्रुव के बिना केवल व्यय ही मानो तो आगे कुछ भी नहीं रहेगा । ऐसी संसार में कोई चीज नहीं हैं जो नष्ट होकर उत्पन्न न हुई हो । नष्ट हो जाये और आगे न हो ऐसा हो ही नहीं सकता । सत् पदार्थ का सर्वथा नाश हो ही नहीं सकता । 679-केवल ध्रुव मानने में हानि—केवल ध्रुव मानने का मतलब हुआ कि वस्तु में कोई परिणमन ही नहीं हुआ यदि परिणमन नहीं हैं तो वह चीज ही नहीं रहेगी । केवल ध्रुव मान लेने से वस्तु ही असत् हो जायेगी । द्रव्य परिणामी हैं, यदि उसमें परिणमन ही नहीं हुआ तो वस्तु ही नहीं रहेगी । शंका—केवल उत्पादव्यय मानो तो? समाधान—ध्रुव न मानने से सब कुछ क्षणिक हो जायेगा । सब कुछ क्षणिक होने पर उत्पाद व्यय किसका होगा? सब पर्यायों में कोई एक चीज सामान्य अवश्य है । सामान्य न मानने से सब क्षणिक हो जायेगा । जैन न्याय में ही सब मतों का समावेश है । जैन न्याय के पढ़ने के पश्चात् सर्व मतों का पूरा-पूरा ज्ञान हो जाता है । जैन-न्याय के प्रणेता-आचार्यों ने परपक्ष की बात भी बड़ी युक्तियों से रखी है । अन्य कोई होता तो वह तो इतने तर्क भी प्रस्तुत न कर सकता । ध्रुव (सत्) न होने पर उत्पाद व्यय किसी का होगा? यदि तुम आस्तिक बनना चाहते हो अर्थात् वस्तु की सत्ता को मानने वाले हो तो पदार्थ त्रितयात्मक मानना ही पड़ेगा । यदि उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक पदार्थ न मानो तो ‘नास्तिक’ (वस्तु की सत्ता न मानने वाले) कहलाओगे । त्रितयात्मक पदार्थ है, ऐसा मानना ही आस्तिक्य की जड़ है ।आस्तिक रहना चाहने वालों को पदार्थ त्रितयात्मक मानना ही पड़ेगा । जो द्रव्य गुण पर्याय वाला है, वही उत्पाद व्यय ध्रौव्ययुक्त है, ऐसा कहने पर वस्तु को अनेकांत की दृष्टि से कहते हैं:—वस्तु कथंचित् है, वस्तु कथंचित् नहीं है । वस्तु कथंचित् नित्य है वस्तु कथंचित् अनित्य हैं । वस्तु कथंचित् एक है, वस्तु कथंचित् अनेक है । वस्तु तत् भी है, अतत् भी है ।-वस्तु स्वचतुष्टय से है, पर के द्रव्य क्षेत्र काल भाव से नहीं हैं । वस्तु स्वभाव की दृष्टि से नित्य है वस्तु पर्याय की दृष्टि से अनित्य है । वस्तु को द्रव्य की दृष्टि से देखो तो एक है, वस्तु को पर्याय की दृष्टि से देखो तो अनेक है । वस्तु द्रव्यदृष्टि से तत् है, वस्तु पर्याय दृष्टि से अतत् है । इस प्रकार वस्तु का चार युगलों द्वारा वर्णन किया जाता है । इन सब प्रकारों से निज आत्मतत्त्व का परिज्ञान कर लेना चाहिए । परिज्ञान करके उसकी श्रद्धा, उसका उपयोग और उसमें ही रमण करना चाहिए । आत्मा का साध्य शुद्ध आत्मा होना है उस साध्य की सिद्धि इस रत्नत्रय उपाय से ही है । 680-वस्तु चार युगलों से गुंफित—1-स्यादस्ति, स्यान्नास्ति । 2-स्यानिंत्य, स्यादनित्य । 3-स्यादेक स्यादनेक । 4-और स्यात्तत्, स्यादतत् । इन चार युगलों से वस्तु गुंफित है । आत्मा अपनी सत्ता से हैं, पर की सत्ता से नहीं है या पुद्गल अचेतन पदार्थों की सत्ता से नहीं है । आत्मा एक दृष्टि से (द्रव्यदृष्टि से) नित्य ही है, किसी (पर्याय) दृष्टि से आत्मा अनित्य ही है । सामान्य कथन में ‘‘भी’’ लगकर स्याद्वाद होता है और विशेष दृष्टि की अपेक्षा से कथन में ‘‘ही’’ लगकर भी स्याद्वाद रहता है । आत्मा द्रव्य दृष्टि में एक ही है, आत्मा पर्याय दृष्टि से अनेक ही है । आत्मा एक भी है, अनेक भी हैं । दर्शन की बात किमी की गलत नहीं है, लेकिन उनमें दृष्टिभेद है कोई दर्शन किसी अपेक्षा से वस्तु को बताता है, कोई किसी दृष्टि से । लेकिन साथ ही यह भी समझना चाहिये कि वस्तु इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार भी है । जैसे जब जीव के चैतन्य स्वभाव को देखो तो तिर्यक् सामान्यदृष्टि से है । समस्त जीवों के आत्मा न्यारे-न्यारे हैं, विशेष दृष्टि आत्मा को देखो, यहाँ किसी अन्य की अपेक्षा से कोई अन्य नहीं है । यह अनेक द्रव्यों में आस्ति नास्ति घटाया गया है । अनेकांत तो यह करता है कि एक वस्तु में ही विरुद्ध बातें अविरोध रूप से रह सकती है । अत: अनेक द्रव्य में आस्ति नास्ति अनेकांत का विषय नहीं है । एक पदार्थ की दृष्टि से आत्मा को देखो तो यही आत्मा है, ऐसी प्रतीति होगी । यदि पर्याय पर दृष्टि डालो तो यह वह नहीं है, जो पहले थी । प्रत्येक वस्तु इन चार युगलों से गुंफित है । सब दर्शनों के आधार ये ही चार युगल हैं । उनमें से आस्ति नास्ति को चार प्रकार से घटाते है:—जो द्रव्य अपने द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से है, वह पर के द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । यह भी अनेक द्रव्यों में आस्ति नास्ति हुआ । 681-एक वस्तु में अनेकांतात्मकता—अब एक अर्थ की दृष्टि से आस्ति नास्ति को घटाते हैं सत्ता दो प्रकार की है:- 1-सामान्य सत्ता, 2-विशेष सत्ता । आत्मा में सत् उत्पाद, सत् व्यय, सत् ध्रुव, सत् गुण, सत् पर्याय, सत् द्रव्य, सत् ज्ञान, सदर्शन सब कुछ है । गुण पर्याय, शक्ति का आधार आत्मा है । भेद दृष्टि से ये सत् गुण पर्याय अनेक समझ में आते हैं—इसे भेद रूप सत्ता कहते हैं । अभेददृष्टि से देखे गये आत्मा को अखंड सत् कहते हैं । जिस समय वस्तु अभेददृष्टि से अभेद रूप से निश्चित की जाती है, उस समय वस्तु अवांतर सत्ता रूप से असत् है । भेददृष्टि रूप से देखते समय आत्मा भेद रूप से है, अभेद रूप से नहीं है । इस प्रकार वस्तु में अस्ति नास्ति समझना । इसी आत्मा को जब भिन्न-भिन्न गुणों की दृष्टि से देखे तो गुण सत् हैं । अभेददृष्टि से आत्मा को देखने पर अभेदरूप अनुभूत होगा । जैसे कपड़ा है, अभेदरूप से यह सब तंतुओं का अभेदरूप कपड़ा है । इसके एक-एक तंतु और गुण पर दृष्टि डालो तो कपड़ा भेदरूप जान पड़ेगा । भेददृष्टि से देखते समय दृष्ट कपड़ा अभेदरूप पर नहीं है । अभेद दृष्टि से देखते समय दृष्ट पर भेदरूप पर नहीं होता है । वैसे यह आत्मा अभेदरूप से दृष्ट अभेदरूप है । और, भेदरूप से दृष्ट आत्मा द्रव्य गुण पर्याय नाना रूप है । नाना रूपता की दृष्टि गौण करके अभेदरूप से निज चैतन्य स्वभाव को ग्रहण करो । यह आत्मा पर्याय रूप में आत्मसर्वस्व की मान्यता करके पर्याय से परिचित है । सो हे जिज्ञासु जनो ! पर्याय का ही यथार्थ परिज्ञान करलो । यह परिज्ञान गुणस्वरूप का यथार्थ ज्ञान बिना नहीं होगा । गुण का परिज्ञान द्रव्य स्वरूप के यथार्थ ज्ञान बिना नहीं होगा सो द्रव्य, गुण, पर्याय का निर्णय करके पर्याय को गुण में व गुण को द्रव्य में लीन करके एक निर्विकल्प आत्म पदार्थ का अनुभव करो । 682-आत्मा की निश्चय से अभेदरूपता व्यवहार से भेदरूपता—आत्मा दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि शक्ति रूप है या एक भेद रूप है—इसकी चिंता करना व्यर्थ हैं । तुम्हारा काम तो भेद रत्नत्रय से अभेद रत्नत्रय में पहुँचना है । आत्मा का स्वभाव एक है, परंतु उसकी पर्याय अनेक हैं । द्रव्य की पर्याय को जब कहना होता है तो उसके भेद कर दिये जाते हैं । जब पर्याय का काल की अपेक्षा भेद देखा तो काल की अपेक्षा भेद रूप है । दूसरे ऊर्ध्वक्रम की अपेक्षा से जो एकपना है, वह नित्य अनित्य से संबंध रखता है । प्रश्न:—वस्तु नित्य है या अनित्य? उत्तर:—वस्तु नित्यानित्यात्मक है, न सर्वथा नित्य है, न सर्वथा अनित्य न नित्य है, अथवा न अनित्य है—क्या वस्तु का कुछ हिस्सा नित्य । और कुछ हिस्सा अनित्य है? क्या वस्तु सर्वथा नित्य है अथवा वस्तु सर्वथा अनित्य है? उत्तर:—जब हम अपनी दृष्टि में द्रव्य को देखते हैं तो वस्तु नित्य रूप है और जब पर्याय की द्दष्टि में उसी वस्तु को देखते हैं, वह अनित्य रूप मालूम पड़ती है । पूरी वस्तु वही एक दृष्टि से नित्य है तो दूसरी दृष्टि से अनित्य है । प्रश्न—क्या पदार्थ क्रम से नित्य और अनित्य है? उत्तरः—हां दृष्टि की अपेक्षा क्रम से है धर्म की अपेक्षा एक साथ है जब किसी विशेष पदार्थ की ओर दृष्टि रहेगी तो वस्तु अनित्य जान पड़ेगी । सामान्य की और दृष्टि रहेगी तो नित्य जान पड़ेगी । प्रश्न:—क्या पदार्थ एक ही साथ नित्य-अनित्य है? उत्तरः—हां, पदार्थ एक ही साथ नित्य-नित्यात्मक है । जैसे एक मनुष्य की आत्मा उसी पर्याय में एक साथ नित्य भी है और अनित्य भी हैं जिस समय केवल वस्तु ही दृष्टिगत हो उस समय वह वस्तु नित्य है और जब पर्याय पर दृष्टि है तो यही वस्तु अनित्य जान पड़ती है । जैसे एक कमरे में तिजोरी रखी है । तिजोरी में डिब्बों के अंदर एक डिब्बे में एक ‘हीरा’ रखा है । तो हमें उसे जानने में देर नहीं लगेगी । ज्ञान किसी से अटका नहीं करता । हां ज्ञान ही उसका न हो तो वह और बात है । 683-वस्तु की नित्यानित्यात्मकता—जिस समय हमारी दृष्टि स्वभाव पर है, स्वभाव तो अव्यय है । इस दृष्टि से वस्तु नित्य ही है । द्रव्यार्थिकनय को अपेक्षा से वस्तु में द्रव्यत्व की सत्ता रहने से सभी वस्तु नित्य है । जैसे कि हमने इस समय पुस्तक का ज्ञान किया, थोड़ी देर बाद हमने घड़ी जानी तो ज्ञानसामान्य की अपेक्षा से ज्ञान दोनों में विद्यमान है । जैसे टेढ़ी उंगली होने पर भी और अंगुली के सीधी रहने पर भी अंगुली सामान्य दोनों अवस्था में वर्तमान है । इसी प्रकार सामान्य की अपेक्षा से वस्तु नित्य है ।फिर क्या वस्तु अनित्य नहीं है? हाँ, जिस समय पर्याय ही दृष्टिगत होती है, वस्तु उस समय अनित्य है ।जिस समय द्रव्य दृष्टिगत नहीं होता है, उस समय पूर्व-पूर्व पर्याय के नाश होने से, उत्तर:—पर्याय के आने से वस्तु अनित्य है । मनुष्यों की दृष्टि प्राय: सदा विशेष पर रहती है । जब पर्याय ही दृष्टिगत होती है । तब पूर्व-पूर्व पर्याय के नाश होने से वस्तु अनित्य है । शंका:—शंकाकार का कहना है कि वस्तु को नित्य कहो या अनित्य नित्य और अनित्य दोनों एक समय में कैसे हो सकते हैं? तुमने जो यह कहा कि तुम जिस समय स्वभाव पर दृष्टि डाल रहे हो, तो वस्तु नित्य है । तो क्या ‘‘क—ख’’ आदि वर्ण ये सब ‘क—ख’ उच्चरित होते हैं तो क्या वे इन वर्णो की तरह से अलग है क्या? समाधान:—स्वभाव देखा तो वस्तु नित्य है । और उसी वस्तु को पर्याय दृष्टि से देखा तो अनित्य है । इस क्रम से देखने से उनमें नित्य और अनित्यपना है । 684-पर्याय और गुणों में भेदविषयक प्रश्नोत्तर—शंका—तो क्या वे विंध्याचल और हिमालय की तरह से दो नाम वाले हैं? समाधान:—नहीं विंध्य और हिमालय दोनों अत्यंत भिन्न हैं । क्योंकि जब हम हिमालय पर दृष्टि डालते हैं तो विंध्याचल बिल्कुल ही गौण कहलायेगा अर्थात् हिमालय कहने से कोई विंध्य का ज्ञान नहीं कर सकता है । विंध्य पर दृष्टि डालते हैं तो हिमालय गौण हो जाता है । हिमाचल और विंध्य बिल्कुल भिन्न है । परंतु पर्याय और गुण बिल्कुल भिन्न नहीं है । शंका—तो क्या गुण और पर्याय इस तरह से भिन्न हैं, जैसे साधुसिंह? अर्थात गुण विशेषण हो और पर्याय विशेष्य हो तो क्या ऐसा है? उत्तर सत् और पर्याय अथवा द्रव्य और क्रिया में प्रदेश भेद नहीं है । शंका:—सत् और पर्याय में तो हमें द्वैत मालूम होता है कि सत् अलग एक चीज है और पर्याय एक अलग चीज है । इसका उत्तरः—सत् और पर्याय में भेद मानने से प्रमाण का अभाव हो जायेगा । तुम्हारा तो कहने का मतलब है कि सत् और पर्याय दो पृथक तत्त्व हैं । यहाँ ऐसा मानने पर दोनों एकसाथ एक में ज्ञान न हो सकने के कारण प्रमाण का अभाव हो जायेगा । प्रमाण न मानने से नयपक्ष भी नहीं बन सकेगा । प्रमाण से जाने हुवे को एक देश जानना ही तो नय का काम हैं । जब प्रमाण नहीं है तो नय कैसे हो सकता है? सत् ध्रुव है इसका अर्थ है कि सत् परिणमता हुआ सदा बना रहेगा । सदृश परिणमन को ध्रुव कहते हैं । परिणमता हुआ चला जायेगा, कभी मिटेगा नहीं, उसे ध्रुव कहते हैं । जैसे पदार्थ है । उसे सब दृष्टियों से जानकर फिर एक दृष्टि से बोलो उसे नय कहते हैं । पदार्थ को पूरा का पूरा जानकर एक दृष्टि से बोलो तब वह नय हैं । स्याद्वाद से ही सर्व सिद्ध है । चैतन्य स्वभाव अविकारी हैं । यदि उसी में विकार आ जाये तो मौका कैसे हो सकता है? ऐसा होते हुए भी पर्याय में अभी विकारी है । आत्मा संसार पर्याय को छोड़कर मोक्ष पर्याय प्राप्त कर सकता है ऐसी प्रतीति होना चाहिये क्षण-क्षण में नवीन पर्याय होती रहती है पर्याय नष्ट होने वाली है यह द्रव्य के साथ-साथ नहीं जाता है । अत: पर्याय से मोह छोड़ो । मोह छोड़ने से ही तो मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी । देखो भैया वस्तु में उत्पाद व्यय न हो, पर्याय न हो तो कैसे संसार मिटकर पर्याय मोक्ष हो । जब यह परिणमन सदृश चलेगा, उसी का नाम मोक्ष है। द्रव्यार्थिक नय की मुख्यता करो अथवा पर्यायार्थिक नय की मुख्यता करो तब भी मोक्ष का मार्ग मिल सकता है, लेकिन एक बार पदार्थ का समग्र दृष्टियों से ज्ञान हो जाना आवश्यक है । द्रव्य और पर्याय को जुदा-जुदा मत मानो । जैसे प्रात: मध्याह्न सायं और रात्रि में एक-एक अंश बोला गाय का.........रंग...............काला............है । तो इनमें से किसी का भी अर्थ स्पष्ट नहीं होगा ।यदि एक साथ बोला जायेगा तो वाक्य बन जाने से उसका अर्थ-गाय का रंग काला है—निकलेगा । प्रमाणपना न मानो तो नय भी कार्यकारी नहीं हो सकता है अनेक अपेक्षाओं के बिना कहे वस्तु, पदार्थ तो अवक्तव्य हैं । अनेक अपेक्षाओं के बिना वस्तु को अवक्तव्य कहना भी व्यर्थ है । शंका:—संस्कार के वश पदों में वाक्य की प्रतीति हो ही जायेगी । अत: वाक्य मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं । इसी प्रकार सत् पर्याय जुदे-जुदे हैं संस्कार वश एक की प्रतीति हो जाती ।समाधान—जब वाक्य ही नहीं मानोगे तो अर्थ का सस्कार कैसे रहेगा? इस दृष्टांत के अनुसार प्रमाण के बिना नय की प्रतीति हो ही नहीं सकती । सदृश और विसदृश परिणमन अपेक्षा से ही तो होते हैं । यदि तुम ऐसा मानो कि क, ख, ग आदि वर्ण एक साथ है और भिन्न-भिन्न उच्चारण होता है । और वे जाने भी क्रम से जाते हैं । इस प्रकार यदि तुम पर्याय और पदार्थ को भिन्न समावर्ती मानो तो यह नहीं बन सकता । गुण और पर्याय हैं दो स्वरूप लेकिन वे अलग-अलग नहीं है । शंका—क्या सत् और पर्याय ऐसे हैं कि जैसे विंध्याचल और हिमालय? इसमें से जब विंध्याचल को मुख्य करोगे तो हिमाचल गौण हो जावेगा । जब हिमालय को मुख्य करोगे तब विंध्याचल गौण हो जावेगा । समाधान—ये दोनों अलग-अलग हैं तो इनमें मुख्य और गौण बन ही नहीं सकता । एक चीज के यदि कई परिणमन हों तो मुख्य और गौण दोनों बन सकते हैं जैसे विंध्या कहने से विंध्य का ही ज्ञान होगा हिमालय का बोध ही नहीं होगा । बोधक होने से कौन मुख्य और कौन गौण? गुण और पर्याय अलगअलग नहीं है द्रव्य तो एक अखंड वस्तु है । यदि पर्याय दृष्टि से देखते हैं तो पर्याय मुख्य हो जाती है । द्रव्य दृष्टि से देखें तो पर्याय गौण बन जाती है। शंका—तो क्या सत् और परिणाम सिंह साधु की तरह विशेषण विशेष की तरह हैं? समाधान:—नहीं गलत है क्योंकि वह पुरुष न तो सिंह ही है और न साधु स्वभाव ही है । उसका सिंह साधु स्वरूप नहीं है । विशेषण कभी भी पदार्थ का स्वरूप नहीं हो सकता है । जो विशेषण विशेष्य के साथ तीनों काल रहे, वह तो वही बन गया, विशेषण कहां रहा? यदि गुण और पर्याय को विशेषण विशेष बनाते हो तो किसी समय में अन्यत्र भी पर्याय रहेगी और किसी समय में पर्याय के बिना गुण रहेगा । लेकिन गुण और पर्याय भिन्न समयवर्ती या क्रमवर्ती नहीं । चीज एक है, यदि द्रव्य दृष्टि से देखा तो गुण है । पर्यायदृष्टि से देखा तो पर्याय है । पर्याय दृष्टि को तो छोड़ना ही पड़ेगा । द्रव्यदृष्टि से और पर्यायदृष्टि से आत्मा को जान पावेंगे तभी पर्यायदृष्टि को छोड़ सकते हैं । भैया! पहले दोनों को जानना पड़ेगा, फिर दोनों दृष्टियां छूट जायेंगी, अनुभव मात्र रह जायेगा । शंका—तो क्या एक ही पदार्थ के पर्यायवाची दो नाम है । जैसे अग्नि और वैश्वानर? समाधान:—ऐसा भी नहीं है । क्योंकि पर्यायवाची मानने में एक ही रहा, तब सत् का भी अभाव हो जावेगा और परिणाम का भी अभाव होगा । स्याद्वाद के बिना तत्त्वज्ञान नहीं बन सकता है । तत्वज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता । द्रव्य का यथार्थ स्वरूप समझे तब धर्म का प्रारंभ हो । आनंद धर्म में ही है । धर्म अविकार परिणाम है । वह न शुभ परिणाम से होता है और न अशुभ परिणाम से । अशुभ से पाप का और शुभ से पुण्य का बंध होता है । पुण्य भी आखिर में मेरे रूप परिणमन होता है । जो यहाँ वह एक है वह तो द्रव्य है और जो समय-समय का परिणमन है वह पर्याय है । स्वरूप दोनों का अलग है किंतु क्षेत्र अलग नहीं है । यदि एक तत्त्व के दो नाम यहाँ माने जावें तो प्रश्न हो सकता है । एक तो स्वतंत्र नाम होता है दूसरा अपेक्षा करके नाम होता है । तो इनमें से कौन से नाम को लक्ष्य करके उनके दो नाम हैं । यदि धर्म और धर्मी के संबंध रखकर नाम नहीं है तो परिणाम का अभाव होने से सत् का भी अभाव हो जायेगा । सत् का अभाव होने पर परिणाम का अभाव हो जायेगा । यदि अपेक्षा करके नाम रखे हैं तो ये दोनों—सत् और परिणाम द्रव्य से भिन्न हैं या अभिन्न? यदि भिन्न हैं तो वही (परिणाम का अभाव होने से सत् का अभाव) दोष आ जायेगा । धर्म के अभाव में धर्मी का भी अभाव हो जायेगा । और धर्मी के अभाव होने से धर्म का अभाव हो जायेगा। 685-धर्म धर्मी से पृथक् नहीं—यदि ऐसा कहो कि धर्म धर्मी से भिन्न है, फिर भी उनमें युत्सिद्ध संबंध मान लिया? तो यदि धर्म धर्मी जुदे-जुदे हैं तो जिस चाहे का जिस किसी से संबंध हो जायेगा । अत: धर्म धर्मी को जुदे-जुदे तो मान ही नहीं सकते । यदि वे द्रव्य से अभिन्न हैं तो तीनों के एक नाम हो जायेंगे । अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय एक नाम वाले हो जायेंगे, तो फिर चर्चा ही क्यों करते हो? जैसे कि नमक और खारा ये नाम भिन्न हैं । चाहे इन्हें किसी भी नाम से पुकार लो । यदि गुण और पर्याय का भी उन्हीं की तरह एक है तो उनमें उपादेयता नहीं आ सकती । वस्तुत: बात ऐसी है, आत्मा स्वयं सत है और वह परिणमनशील भी है । सत् दृष्टि से देखा तो उसे सत् मालुम पड़ा । परिणमन करने वाले की दृष्टि से देखा तो वही पदार्थ परिणमनशील मालुम पड़ा । शंका—यदि सत् और पर्याय को ऐसा मानो जैसे एक गाय के दो सींग, तो क्या हानि है? समाधान—यह भी कहना ठीक नहीं है । क्योंकि यदि गाय का एक सींग टूट जाता है तो दूसरा भी टूट जाना चाहिये । लेकिन एक सींग के टूटने पर दूसरा सींग नहीं टूटता है । किंतु पर्याय के नष्ट होने पर गुण रहता ही नहीं है । अत: गाय के दो सींग की तरह भी गुण और पर्याय नहीं है । शंका:—तो क्या सत् और पर्याय कच्चे और पक्के घड़े की दो अवस्था के समान है? समाधान:—नहीं । क्योंकि कच्चे और पक्के घड़े में क्रमपना पाया जाता है । किंतु गुण और पर्याय में क्रमपना नहीं है । वे एक समयवर्ती हैं तुमने कच्चे और पक्के घड़े का दृष्टांत तो दिया, वस्तु में उत्पाद व्यय ध्रौव्य को दूर करने के लिये, लेकिन तुमने उस दृष्टांत से जैन सिद्धांत के ‘‘उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्’’ की सिद्धि कर दी । शंका:—यदि ऐसा भी नहीं है तो क्या सत् व परिणाम ऐसा भिन्न है जैसे कि एक पुरुष की दो सौतेली स्त्रियां? समाधान:—इसमें सभी दोष आ गये । क्योंकि यदि सौतेली स्त्रियों की तरह सप्रतिपक्ष और स्वतंत्र है । सत् व परिणाम तो सत्त्व परिणाम का संबंध न बनने से तो फिर सत् के बिना परिणाम रहेगा ही नहीं । और परिणाम के बिना सत् ही नहीं रहेगा । अत: यह भी तुम्हारा कथन ठीक नहीं है । शंका:—तो क्या छोटे बड़े दो भाइयों के समान स्वतंत्र गुण और पर्याय है? समाधान:—छोटे बड़े भाई होने में माता आश्रय है । क्योंकि उनका कोई आश्रय है, तभी तो छोटे बड़े भाई कहलाये । यदि गुण और पर्याय को निराश्रय कहो तो गुण और पर्याय दोनों का ही अभाव हो जायेगा । यदि भाई गुण और पर्याय के कारण छोटे बड़े है और उनका आश्रयभूत तीसरा कोई नहीं है तो स्वयं आश्रय होने से परस्पर आश्रयों की लड़ी (क्रम) न टूटने अनवस्था दोष आ जायेगा । 686-सत् है और परिणमता रहता है दोनों एक की ही बात है:—सत् और परिणाम दीपक और प्रकाश की तरह से दीपक का परिणमन ही प्रकाश है । अथवा गुण और पर्यायों को समुद्र और समुद्र की लहरों की तरह से है । समुद्र से लहर अलग नहीं है । समुद्र है उसको परिणमन लहर रूप होता है । इसी प्रकार आत्मा है, आत्मा में पर्याय उत्पन्न हो रहा है । जब हम पर्याय पर दृष्टि डालते हैं तो पदार्थ पर्याय रूप देखने में आयेगा । जब हम आत्मा पर दृष्टि डालते हैं तो पदार्थ द्रव्यरूप ही नजर आता है । अथवा जैसे मिट्टी का घड़ा बना । जब हम घड़े पर दृष्टि डालते हैं तब पर्याय (घड़ा) नजर आता है । जब मिट्टी अर्थात घड़े के स्वभावपर दृष्टि डालो तो उसका स्वभाव ही नजर आता है । इस प्रकार सिद्ध हुआ कि सत् नित्यानित्यात्मक है । क्योंकि सत् में प्रत्याभिज्ञान पाया जाता है । अर्थात् यह वही आत्मा है, जो मनुष्य पर्याय में था । जैसे देव मरकर नारकी हो जाता है तो उसे (नारकी के आत्मा को) कहा जाये कि यह वही आत्मा है जो देवपर्याय में भी था । आत्मा सर्व बाह्य से पृथक् है और अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में तन्मय है । आत्मा के जीवित बने रहने में बाह्य पदार्थों की रुकावट नहीं है । तो फिर बाह्य पदार्थों का विकल्प क्यों? जब कोई विकल्प न रहे, तभी आनंद है । 687-विकल्प करके क्यों व्यर्थ दु:खी होते:—जब स्त्री पुत्रादि तुम्हारा कोई हित नहीं कर सकते तो उनके विषय में इतना विकल्प क्यों करते हो? स्त्री पुत्रादिक तुम्हारे किये से जीवित नहीं रहते, वे तो अपने परिणामों से ही सदा वर्तते रहेंगे । फिर उनके विषय में इतना विकल्प ! इतना मोह ! अभी तक हमने इस संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेकों भव पाये, लेकिन सभी योंही विकल्प करके बीत गये । यदि अब भी सचेत होकर एक भव निर्विकल्प होकर गुजार दिया तो निश्चित यथासंभव शीघ्र मोक्ष हो जायेगा । इन बाह्य पदार्थों से क्यों संबंध रखते हो, वे तुम्हें क्या लाभ पहुंचाते हैं? शंका—आत्मा नित्य है, यह कैसे जाना? समाधान:—हमेशा आत्मा में प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता रहता है । यह वही आत्मा है—ऐसा आत्मा में प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता रहेगा । यदि वस्तु के विषय में एक दृष्टि रखे तो नित्य व अनित्य कल्पनायें अलग-अलग दिखाई देंगे? यदि प्रमाणरूप दृष्टि बनाई तो वस्तु नित्यानित्यात्मक एक रूप दिखेगी । भाइयों ! वस्तु स्वरूप का भले प्रकार निर्णय कर लो, तब ही तो वहाँ श्रद्धा की जावेगी यथार्थ । जहाँ श्रद्धा यथार्थ हुई वहाँ रुचि भी हित की होगी । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र ही जीव की शरण है और परमार्थत: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र की एकता में परिणत निज आत्मा ही शरण है । हमारा शत्रु हमारे विकल्प हैं इसके सिवाय हमारा शत्रु कोई नहीं विकल्प करने से कुछ भी नहीं बनता तथा विकल्प न करने से भी कुछ बिगड़ना नहीं होता है । फिर विकल्प क्यों करते हो । सब पदार्थों का परिणमन होता स्वयं है । पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जान लो फिर तत्त्व कौतूहली बनकर सर्वत्र सुगमता से हितमय तत्त्व देख सकते हो । हम इस डेस्क में ईश्वर देख सकते हैं । यह डेस्क समान जातीय द्रव्य पर्याय है । अर्थात् यह डेस्क अनंतानंत परमाणुओं के ढेर से बना है । सबको न देखकर एक ही परमाणु में दृष्टि लगाओ, तो पश्चात् वह परमाणु भी नहीं दिखेगा—ऐसी स्थिति में केवल आत्मा ही आत्मा दिखेगा । आत्मा के दिखने पर ईश्वर के दर्शन स्वयं हो जाते हैं । कंकड़ भी ईश्वर की सत्ता से युक्त है । कंकड़ के एक परमाणु-को देखते रहो तो वह ज्ञान पर से चिगकर आत्मा में आ जा जायेगा । आत्मा में ज्ञान आने से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है । 688-भगवान की सर्वज्ञता एवं कर्ममुक्तता—कोई कहते हैं कि जीव का मोक्ष ही नहीं होता है सर्वज्ञ ही कोई नहीं है । यह आश्रय उनका ठीक नहीं है । ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतार’’ में मोक्ष की सिद्धि हो जाती, मोक्ष के मार्ग की सिद्धि हो जाती, मोक्षमार्ग के नेता की एवं जीव मोक्ष जाया करता है, इन बातों की सिद्धि हो जाती है । सुख दु:खादिक जीव के विकार हैं । जीव संसार में क्यों रुलता है? उसके संसार में परिभ्रमण कराने का कोई न कोई निमित्त अवश्य होना चाहिये । संसार में परिभ्रमण कराने के कारण कर्म है—यह बात ‘‘कर्मभूभृतां भेत्तारम्’’ से सिद्ध हो गई । साथ ही यह भी बात सिद्ध हुई कि कर्म है कर्म संसार में घुमाने वाले हैं । कर्म नाश किये जा सकते हैं और कर्मों को कोई व्यक्ति नाश भी कर चुका है । कर्मों का नाश करना सन्मार्ग है—इत्यादि बातों की सिद्धि होती है ‘‘भगवान सर्वज्ञ समस्त त्रिकालवर्ती पदार्थों के ज्ञाता है’’—इससे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता ।बहुत से लोग कहते हैं कि ज्ञानादि गुणों के नष्ट होने पर ही मोक्ष होता है । लेकिन उनका यह कहना ठीक नहीं है । हाँ, सविकल्पक ज्ञान के नष्ट होने पर मोक्ष होता है-ऐसा कह सकते हो । अपन लोगों का ज्ञान सविकल्पक है । अर्थात् अपने ज्ञान में संकल्प विकल्प उठते रहते हैं । विकल्पों के मिटने के पश्चात् मोक्ष हो जाता है । ज्ञान और विकल्प में अंतर है । ज्ञान शुद्ध पर्याय का नाम है । विकल्प राग होने से उत्पन्न होते हैं । कहते हैं ना ‘‘भगवान के गुणों की प्राप्ति के लिये’’--इससे यह सिद्ध होता है । कि सर्वज्ञता किसी न किसी जीव को प्राप्त होती है और किसी जीव को प्राप्त भी हुई है । सर्वज्ञता प्राप्त होने पर स्वयं भगवान् बन जाता है । भगवान के ध्यान में लगता है तो यथाविधि आत्म स्थित होकर स्वयं भगवान रूप हो जाता है । 689-जैन शासन की अमितज्ञेयता—यदि कोई अपन लोगों से पूछे कि भैया तुम्हारे धर्म का मुख्य ग्रंथ कौनसा है? इसका उत्तर जैन लोग नहीं दे सकते, क्योंकि मुख्य कोई एक ग्रंथ है ही नहीं । वैसे अन्य उनके प्रधान ग्रंथ बताये जा सकते हैं । इसका कारण यह है कि कुछ सिद्धांत एकाँग की वर्णन करने वाले हैं । किंतु जैन दर्शन का इतना विस्तार है कि जैन सिद्धांत का कोई भी मुख्य ग्रंथ बताया नहीं जा सकता है । उसका विस्तार किसी एक पुस्तक में नहीं समा सकता । उसका एकांश ही ग्रंथों में वर्णन किया जा सकता है । केवल बताने की खानापूर्ति करने के लिये तत्वार्थसूत्र और समयसार—इन दो ग्रंथों का नाम लिया जा सकता है । क्योंकि जो चीज विस्तार से तत्वार्थसूत्र में नहीं है, वह प्राय: समयसार में है । जो बात विस्तार से समयसार में नहीं है वह प्राय: तत्वार्थसूत्र में मिल जाती है । प्राय: ग्रंथद्वय में जैन सिद्धांत के मुख्य सिद्धांत आ जाते हैं । ‘जिन’ के द्वारा प्रवर्तित शासन को ‘जैन शासन’ कहते हैं । वे अरहंत भगवान हैं । उनका परिचय व उनके चले मार्ग का परिचय जानना आवश्यक हैं । जैसे हमें जापान जाना है । जापान जाने से पहले जापान जाने के लिये जापान जाने वाले को, जापान से आये हुए व्यक्ति को पूछते हैं । इसी प्रकार मोक्ष जाने के लिये मोक्षमार्ग में गये हुए को ढूंढ़ता है । लेकिन इंद्रियों के यत्न से वह मिलता है, वे अरहंत भगवान् हैं । ज्ञान यत्न से उनकी उपलब्धि होती है । अरहंत के द्वारा प्रवर्तित धर्म को जैन धर्म कहते हैं । जापान जाने वाले मिल सकते हैं लेकिन मोक्षमार्ग गया हुआ नहीं मिल सकता । निज चैतन्य स्वभाव का आलंबन ही मोक्षमार्ग है । चैतन्य स्वभाव के आलंबन में थिरता है । थिरता के विकल्प ही गुण स्थान रूप भेद हैं । 690-विकल्प दुःखरूप है ऐसी प्रतीति आये बिना विकल्प कैसे छूटे—प्रत्येक मनुष्य को इतनी प्रतीति हो जाना चाहिये कि विकल्प में दुःख है । तथा विकल्पों के अभाव होने का नाम ही आनंद है । आनंद का दृढ़ करने का मतलब है कि विकल्प हो ही न सकें । जिस प्रकार एक ईंधनमय पहाड़ को जरासी चिनगारी भस्म कर देती है । उसी प्रकार विकल्प एक चिनगारी है । यदि वह आत्मा के साथ लग जाता है तो वह शरीर को शिथिल (पंजर) बना डालता है आत्मा को बरबाद कर देता है । विकल्प आत्मा का शत्रु है । इस शत्रु के नाश करने में ही आनंद की प्राप्ति है । आत्मा में विकल्प करने से कोई लाभ नहीं है । फिर भी यह जीव पड़ा-पड़ा विकल्प किया करता है । वह विकल्प करने में ही आनंद मानता है । अत: उसके सामने विकल्प आते रहते हैं । क्योंकि जो जिसे अच्छा लगता है, उसी तरफ प्रवृत्ति करता है । निर्विकल्पता में ही वास्तव में आनंद है । निर्विकल्पता का मतलब यह हैकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को जगाओ और उसके एकत्व में स्थित रहो । यदि कोई अलग-अलग देखकर रत्नत्रय का ध्यान करे तो वह चर्चा का विषय रह जायेगा । रत्नत्रय की शुद्धि ही आत्मा की शुद्धि है । रत्नत्रय की शुद्धि आत्मिक ज्ञान के ऊपर निर्भर है । नि:शकितादि आठ अंगों द्वारा सम्यग्दर्शन जाना जाता है । सम्यग्दर्शन में जान लिया रहता है । तब सम्यग्दृष्टि को संसार की समस्त वस्तुएं हेय जान पड़ती है । कहने का सारांश यह है कि निर्विकल्प तत्त्व की प्रतीति होनी चाहिये सम्यग्दर्शन से पूर्व जो ज्ञान विद्यमान था, वह भी ज्ञान था । लेकिन प्रतीति न होने के कारण वह मिथ्याज्ञान था । प्रतीति होने पर वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप हो जाता है । सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान गैर ठीक कहलाता है । सम्यग्दर्शन के होने पर ज्ञान में सम्यग्पना आ जाता है, प्रतीति सहित ज्ञान में नि:शंकता रहती है इसी भित्ति पर चारित्र का निर्माण होता या वृत्ति करना । जैसा जाना वैसा ही बनाये रहने देना चारित्र है । ज्ञान की स्थिरता में राग-द्वेष नहीं होते । ज्ञान की अस्थिरता में ही राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं । विकल्पा के पूर्ण अभाव का नाम ही सम्यग्चारित्र है । या ऐसा कहिये निर्विकल्प ज्ञान का सम्यक्चारित्र कहते हैं । 691-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग—तिर्यक भेद एवं ऊर्ध्व भेद न रहे और अखंड तत्त्व के उपयोग रूप ही रह लिया जावे तभी वह सम्यक्चारित्र रहेगा वह सम्यक्त्व ज्ञान पूर्वक होता । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग का कारण है । रत्नत्रय की पूर्णता, एकता, केवलता सर्वोत्कृष्ट पूर्ण निर्मलता है । इस स्थिति में स्थिर आत्मा केवली भगवान है । संसार में जो-जो पदार्थ अवस्थित हैं, वे केवली भगवान के ज्ञान में ज्यों के त्यों झलकते हैं । ऐसे सर्वज्ञ देव के गुणों की प्राप्ति के लिये मेरा बारंबार नमस्कार होओ । मांगने से मोक्ष नहीं मिलता है । मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रयत्न करो, एवं उस रूप कार्य करा तो मोक्ष मिल सकता है । मोक्ष मिलने के योग्य काम करो तो अपने आप मोक्ष मिल जायेगा । लेकिन मोक्ष इच्छा करने मात्र से नहीं मिलता है । विकल्प न करें व मोक्ष के मार्ग पर चले देखें कैसे नहीं मोक्ष मिलता है । संसार का मार्ग मोह है, मोक्ष का मार्ग संसार से उदासीन रहना है । बाह्य पदार्थों के बिना आत्मा की कुछ अटक नहीं है । बहुत बढ़िया कपड़े हों, बढ़िया खाने को मिले—यदि ऐसी इच्छाएं करने लगें तो मोक्ष के मार्ग का सकेत भी नहीं मिल सकता है । बाह्य पदार्थों का विकल्प करो तो दुःख होता है, विकल्प न करो तो आत्मानंद की प्राप्ति होती है । बाह्य पदार्थों का विकल्प करने से बाह्य से कुछ नहीं मिलेगा । बाह्य पदार्थों का विकल्प न करने से भी कुछ नहीं मिलता । लेकिन विकल्प न करने से आत्मानुभव प्राप्त होता है । विकल्प का अभाव ही आनंद है । जिस दिन आत्मा से विकल्प का अभाव हुआ, उस दिन आत्मा का कल्याण समझो ।यदि इच्छा ही करनी है, इच्छा मिटाने की इच्छा करो । यदि विकल्प ही करने है तो निर्विकल्प बनने के लिये विकल्प करो । ऐसा करने से आत्मा को परमानंद की ओर जानें का सन्मार्ग सूझेगा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की साधु की सेवा करनी चाहिये, यह 16 वीं गाथा में बताया गया था । अब 17 वीं व 18 वीं गाथा में कहते हैं कि आत्मा की सेवा किस प्रकार करनी चाहिये?