वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 17-18
From जैनकोष
जह णाम कोवि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि ।।
तो तं अणुचरदि पूणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ।। 17 ।। एवंहि जीरवाया णादव्यो तह य सद्दहेदव्वो ।। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव हु मोक्खकामेण ।। 18 ।।
692-सेवाविधि पर दृष्टांत—जैसे कि कोई धन का इच्छुक पुरुष राजा को जानकर उसका श्रद्धान करता और फिर वह प्रयत्न के साथ उसका अनुचरण करता है अर्थात् जैसी कोशिश करने में राजा राजी हो वैसी प्रवृत्ति करता है । इसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक भव्यात्माओं के द्वारा यह आत्मा राजा ज्ञात कर लेना चाहिये तथा उसी का श्रद्धान कर लिया जाना चाहिये और फिर वही अनुचरितव्य होना चाहिये । अर्थात् जिस पुरुषार्थ में आत्मा निर्विकल्प, निराकुल हो वैसा आचरण करना चाहिये । जैसे कोई धन का इच्छुक पुरुष धन चाहता है, उसे बड़े प्रयत्न से यह जानना पड़ता है कि यह राजा है । जिसके कानून से व योजना से धन मिल सके वही राजा कहलाता है । जब यह जान जाये कि अमुक व्यक्ति राजा है, फिर उस पर श्रद्धान करे कि इससे मुझे लाभ होगा । यदि ऐसी प्रतीति न हो तो धन का इच्छुक पुरुष डरेगा, शंका करेगा कि यह व्यक्ति मुझे धन शायद न देवे अथवा यदि मैंने इससे मांगा तो यह इन्कार कर देवे । जो व्यक्ति शंकाशील है, वह राजा से लाभ नहीं उठा सकता । यदि वह व्यक्ति राजा के अनुकूल आचरण करे अर्थात् राजा के प्रतिकूल बात न करे तो उसे धन प्राप्ति का मार्ग मिल जायगा । धन का मार्ग उसे राजा बता देगा, लेकिन धन मिलेगा, जब मिलेगा, तब । उसे धन प्राप्ति का ढंग मालुम हो जायेगा । यह सब राजा की प्रसन्नता पर निर्भर है । इसी प्रकार जिस आत्मा को मोक्ष चाहना है, पहले तो वह अपनी आत्मा को जाने । जानने के बाद आत्मा की श्रद्धा करे कि मैं आत्मा की जानकारी से अवश्य दुःख से छूट जाऊंगा । फिर आत्मा का आचरण करे, मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, ध्रुव हूँ, एक हूँ—आदि उपयोग करे । पहले आत्मा को जाने फिर उसकी प्रतीति करे कि मेरे (आत्मा के) जानने से सब दुख कर्म जाल छूट जायेंगे । आत्मा ज्ञाता दृष्टा है । आत्मा की परिणति मोक्ष है । पर्याय द्रव्य की सेवा करे । आत्मा का परिणमन आत्मा को जाने और उसकी श्रद्धा करे, आत्मा पर विश्वास रखे । यह उपाय ऐसा उत्तम है कि मोक्ष की सिद्धि अवश्य होगी । आत्मा को जानने के बाद आत्मा के कल्याण में शंका नहीं है । पर वस्तु में शंका का स्थान है । 693--निज के व्यवसाय में हानि का अभाव—जैसे हम लोग प्रतिदिन व्यवसाय करते हैं, उसमें टोटा हो सकता है । लेकिन निज के व्यवसाय में कभी टोटा नहीं होता । और देखो—व्यवसाय में कई वर्ष टोटा पड़ने पर भी व्यवसाय को कोई छोड़ता तो नहीं है, क्योंकि व्यापारियों को यह श्रद्धा है कि धन संचय का उपाय तो व्यवसाय ही है, कभी तो इसमें सफलता होगी । इस प्रकार मोक्ष-मार्ग में चलते हुए भी कभी अथवा प्राय: आंतरिक विघ्न आने लगे वह कभी च्युत भी हो जावे तो भी यह भव्य मोक्षमार्ग के पुरुषार्थ को छोड़ता नहीं है, क्यों कि उसे यह अटल श्रद्धा है कि समस्त क्लेशों से छूटने का मार्ग तो यही है । यदि अपने आत्मा के स्वरूप को जाने देखें तो अवश्य सिद्धि होगी, इसमें संदेह नहीं । निज की सेवा ऐसी बड़ी चीज है कि सम्यग्दर्शन हुए बिना नहीं रह सकता । धन मिलने में राजा और धनेच्छुक का काम था । परंतु अपने आपको मोक्ष के लिये अपने से भिन्न किसी और की सेवा नहीं करनी है । पर्याय ही तो मोक्ष की चाह करती है । द्रव्य में चाह का अभाव है । अगर इसे (पर्याय को) मोक्ष की चाह है तो द्रव्य की सेवा करे, द्रव्य को जाने और द्रव्य की श्रद्धा करे । जिसकी परिणति का नाम ही मोक्ष है उसको जानना तो पहला कार्य । जिसका आर्डर मिलेगा उसको तो जानना ही होगा । जैसे किसी बात की स्वीकृति के लिये आजकल लिखित देना पड़ता है, वह एक तरह का जानना ही कहलाता है । मोक्ष प्राप्ति के लिये पहले आत्मा को जानो फिर उस पर श्रद्धा करो । आत्मा की श्रद्धा करने पर विकल्प, मोह, राग, द्वेष, शल्य तथा दु:खादिक नहीं रहते । जिसे हमने आज तक नहीं पाया उसकी छत्र छाया में पहुँच जाते हैं । ऐसे काम करो कि आत्मा ज्ञाता दृष्टा हो जाये । आत्मा का आचरण करना याने आत्मा की दृष्टि बनाये रखना । राजा को प्रसन्न करने के लिये राजा को भेंट देवे, विनय के वचन बोले स्नेह की आंखों से उसे कभी-कभी देखता रहे । यदि मोक्ष चाहना है तो आत्मा राजा पर भी पर्याय को समर्पण कर देवे । यह पर्याय तो अभी नष्ट होने वाली है, उस समय उस पर्याय को द्रव्य के सन्मुख करे यही पर्याय का समर्पण है, यही हुआ आत्मा राजा को अपने आप को समर्पण कर देना । 694-हे उपयोग ! आत्मा की सेवा में लगो—विनय वचन अथवा उसी में लीन हो जाना—यही उसके अनुकूल आचरण है । उस चैतन्य स्वरूप आत्मा को देखना आत्मा की सेवा है । स्वभाव का अवलंबन करने से साध्य की अर्थात् मोक्ष की सिद्धि होती है । ऐसा किये बिना मोक्ष नहीं मिलेगा । स्वभाव तो ज्ञाता-दृष्टा का है और आत्मा को विकल्पों में फांस रखा हैं यही आत्मा को गाली देना है । आत्मा की सेवा से ही मोक्ष मिल सकता है । संसार में किसी की कोई रक्षा नहीं करता । कुछ तो संसार में ठोकरें खा-खाकर अंदाज हो ही गया कि किसी का कोई रक्षक नहीं । सब कल्पना की चीज है कुछ युक्ति विज्ञान से विचार लो सीता जन्म से ही दुखी रही, उसे किसी प्रकार का भी सुख नहीं प्राप्त हुआ । पुण्य का उदय भी दुःख का कारण बन जाता है । पाप का उदय भी दुख का कारण है । जैसे आजकल जो चुनाव में हार जाता है, उसे दो-तीन माह तक क्लेश रहता है । जितना बड़ा पुण्य है, वैसा ही दुख मिलता है । विरला ही ऐसा कोई होगा जो पुण्य में आनंद प्राप्त करता हो । बड़े-बड़े राजाओं को देख लो, बड़े-बड़े राजाओं के राज्य छीन लिये गये । यह तो प्रजातंत्र राज्य है । जनता अपने हितों के लिये अपने प्रतिनिधियों को स्वयं चुनती है । जिसको अधिक मत प्राप्त हो गये, वही जीता कहलाता है । जैसा जिसका पुण्य है उसको वैसा ही फल मिलेगा । ये सब क्लेश के उपादान हैं, उनसे तो क्लेश ही मिलेगा । ऐसा चैतन्य स्वरूप आत्मा अनेक पर्यायों में बदलता चला जाता है । आत्मा पर्याय बदलने से किसी शुभ पर्यायरूप भी नहीं रहता, अशुभ पर्याय रूप भी नहीं रहता, आत्मा की सेवा करो, आत्मा पर श्रद्धा करो, तो फिर कल्याण होने में कोई संदेह नहीं रहेगा । निज के व्यवसाय में कभी हानि नहीं हो सकती । निज व्यवसाय से मोक्ष मिलेगा, शांति मिलेगी तथा संकल्प विकल्पों से विश्रांति मिलेगी । विकल्प दुःख के कारण हैं, विकल्प का है दु:ख, तो विकल्पों का दुःख मिटाने के लिये निजस्वभाव का आश्रय करना पड़ेगा । विकल्पों से दु:ख नहीं मिटेगा और भी बढ़ेगा । पर दृष्टि नहीं देना—इसी से सिद्धि मिलेगी । आत्मा को जानो तभी कल्याण होगा? 695-श्रद्धान ज्ञान आचरण बिना कहीं भी हो सफलता नहीं—जैसे किसी को संगीत सीखने की चाह है, तो पहले उसे संगीतज्ञ को ढूंढ़ना पड़ेगा । फिर उस पर श्रद्धान करना पड़ता है तथा संगीतज्ञ के अनुकूल आचरण करे तभी तो संगीत विद्या आती है । बिना विनय के विद्या नहीं आ सकती जैसे रोटी बनाना सीखना है तो रोटी बनाने में उसके एक्सपर्ट के पास जाना पड़ेगा उसके प्रति विनय सहित वर्तना होगा किसी को रोटी सेकना सीखना है तो उसे पहले तो बनाने वाले की जानकारी करनी पड़ेगी, फिर अपने ऊपर श्रद्धा करे कि रोटी बनाना जरूर सीख जावेंगे। तथा जैसा रोटी बनाने वाला कहे वैसा ही करता रहे, तभी तो रोटी बनाना सीख सकोगे । कोई चीज कभी जबर्दस्ती नहीं सीखी जा सकती हां, जबर्दस्ती लड़ाई की सकती है, उसमें विनय की आवश्यकता नहीं है । लड़ाई झगड़े में किसी की प्रसन्नता नहीं चाहिये । विद्यायें विनय से आती हैं । आत्मा को यदि मोक्ष की इच्छा है, तो आत्मा को जानो और उस पर श्रद्धान करो तथा उसके अनुकूल आचरण करो । मैं चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ । मेरे में दूसरा कोई परिणमन नहीं हो सकता है । मैं स्वयं अपना कर्त्ता हूँ, ‘‘मैं स्वयं अपना भोक्ता हूँ, मेरे द्वारा, मेरे लिये मेरे में मैं स्वयं अपना कर्त्ता हूँ’’ ऐसी भावना में रहो । आत्मा का कोई कभी कुछ नहीं बिगाड़ सकता मोक्ष का उपाय आत्मानुभव ही है । इसके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं । यद्यपि यह आत्मा अनेक प्रकार के विभावों में परिणम रहा है, फिर भी यदि भेद विज्ञान की कुशलता है उससे यह जाना जा सकता है कि यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ । ऐसा जाना जा सकता है । मैं चैतन्य स्वरूपात्मक हूँ—ऐसा विचार करने पर ही आत्मा की ओर विश्वास, श्रद्धा व रुचि होती है, जिससे आत्मा आत्मा की ओर खिंचा रहता है । ऐसा करने से ईर्ष्या शल्य द्वेषादि सब दूर हो जाते हैं । 696-सत्य आनंद की झलक होने पर वह भूला नहीं कहा जाता—जहाँ आनंद न मिले उस तरफ से उपयोग को बदल देना चाहिये । जहाँ सत्य आनंद मिलेगा चाहे उस ओर से दृष्टि विवशतापूर्वक हटानी पड़े, फिर भी उपयोग उसी ओर लगा रहता है । आत्मीय आनंद वह आनंद है कि उसके होने पर यही हित है यह कभी नहीं भूला जा सकता है । यदि मूल जाते हैं तो समझो वह वास्तविक सुख नहीं था । आत्मानंद कभी भूला नहीं जा सकता है । इसी आनंद से आत्मा की सिद्धि होती है । अत: आत्मा को जानो, श्रद्धा करो तथा तदनुरूप आचरण करो । जिस स्वभाव की उपासना से जीव को मोक्ष मिलेगा वह स्वभाव सभी में—बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में, मूर्ख से लेकर ज्ञानी तक में है । खुद का भगवान्, अनादि-कालीन यह आत्मा पर के साथ में एकत्व कर रहा है और उसी जबर्दस्ती के परिणाम में यह मोही जीव आसक्त बन जाता है । यह जीव पर्याय में मुग्ध रहता है, इसने पर्याय में बुद्धि लगा रखी है । ऐसे मोही आत्मा को आत्मज्ञान नहीं होता है । क्योंकि जब आत्मा ज्ञान ही में नहीं आया तो उसका विश्वास कैसे कर लिया जाये । आत्मा में ज्ञान की दृष्टि ही नहीं है तो आत्मा में ठहर ही नहीं सकता । वह आत्मा के मोह में ही लगा रहेगा वह आत्मा को पा नहीं सकता है । तथा उसे मोक्ष की भी प्राप्ति नहीं हो सकती है ।क्योंकि यह मोह अन्यथा (अकरणीय) कार्य है । आप ही बताइये इस अन्यथा कार्य से सिद्धि कैसे हो सकती है? भैया ! उस आत्मा का ज्ञान किये बिना मोक्ष कैसे हो सकता है । जीव आत्मज्ञान के बिना इस संसार चक्र में ही रुलता फिरता रहेगा । अत: ज्ञान बल से, धैर्य से, विवेक से, शांति से, विचार से आत्मा को जानो तथा आत्मा पर श्रद्धा करो । साथ ही आत्मा के अनुरूप आचरण भी करना चाहिये । आचरण करने से तात्पर्य आत्मा के ध्यान से है । ये ही आत्मा की सिद्धि (मोक्ष की प्राप्ति) का उपाय है । इस आत्मा में अनुकूल प्रतिकूल अनेक भाव हो रहे हैं, स्थायी अस्थायी भाव भी हैं । उनमें से सच्चिदानंद स्वरूप परमपारिणामिक भावरूप मैं हूँ ऐसा निश्चय करने के लिये परमविवेक की परम-कुशलता होना चाहिये । भगवती प्रज्ञा के प्रसाद से इस परमार्थ आत्मा को परिज्ञान पावें और यह ही है ऐसा परम श्रद्धान पाये तो अन्य भावों से हट कर इस ही में नि:शंक अवस्थित रह सकता है । इस तरह यह सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आत्मा को साध ही लेता है । देखो भैया ! भगवान आत्मस्वभाव है तो सबमें अंत: प्रकाशमान और इस ही का अनुभव सबको होता है परंतु इसका जो अशुद्धरूप में अनुभव करते हैं, परभावों में एकत्व करके मुग्ध होते हैं उनके ‘यह चैतन्यस्वरूप मैं हूँ’ ऐसी अनुभूत नहीं हो सकती । फिर जिसका परिचय ही नहीं उसका श्रद्धान कहां से हो और श्रद्धान बिना उसमें प्रवेश की स्थिरता कैसे हो । इस प्रकार बहिरात्मा के सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र नहीं होते तो उनकी निराकुल आत्मतत्त्व की सिद्धि नहीं होती । 697-आत्मा ज्योति—यह आत्मा ज्योति किसी अपेक्षा से तीनपने को प्राप्त है:—1-दर्शन 2-ज्ञान और चारित्रपने को । यद्यपि यह आत्मा व्यवहार से तीनपने को प्राप्त हो गया है । फिर भी अखंड है, एक है । उस द्रव्य को समझने का व्यवहारनय का आश्रय करना पड़ेगा । वह आत्मा ज्योति एकता से गिरी हुई नहीं है । उसमें निर्मलता ही प्रकट हो रही है । स्वभाव का परिणमन पर को निमित्त पाकर अशुद्ध भी हो रहा हो तो भी स्वभाव तो अपनी निर्मलता ही फेंकता है । जैसे दर्पण इतना शुद्ध और साफ है कि उसमें सब चीजें या रंग स्पष्ट झलक जाती है । इसी तरह आत्मा में राग आता है । यह राग भाव आत्मा में ही क्यों आता है? पुद्गलादिक में क्यों नहीं चला जाता । इसका कारण आत्मा का स्वच्छपना है । आत्मा चैतन्य है । अविनाशी है । जिसमें ज्ञान-दर्शन और चारित्र पाया जावे । उसे आत्मा कहते हैं । अनंत चैतन्य जिसका चिन्ह है उसे आत्मा ज्योति कहते हैं । यदि तुम्हें आत्मा को मोक्ष दिलाना है तो पहले आत्मा को जानो, फिर उस पर श्रद्धा करो कि यह आत्मा मोक्ष प्राप्त कर सकता है । आत्मा पर श्रद्धा करके उस ही के अनुकूल आचरण करो, याने आत्मा के ध्यान में तन्मय हो जाओ । ऐसा करने से साध्य की सिद्धि अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी । अत: आत्मा को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की और तद्रूप एकत्व की उपासना करनी चाहिये । अपनी एकता से जो गिरा हुआ नहीं है, उस आत्मत्व का योगीजन निरंतर अनुभव करते हैं । सामयिक में प्रात: सायं—24 घंटे में दो बार अपने स्वरूप का ही चिंतन करो । सामयिक इसीलिये की जाती है कि अन्य बाह्य विकल्प को छोड़कर के स्वानुभव स्वात्म चिंतन किया जाय । पहले तो इस तरह की भावना बनानी होगी कि मैं बाह्य अन्य समस्त द्रव्यों से न्यारा एक चैतन्य पदार्थ हूँ । मैं अपना ही कर्त्ता और अपना ही भोक्ता स्वयं हूँ—इस तरह का प्रतीति करते जाओ आत्मा के स्वरूप को एक दिन पहचान ही जाओगे । इस प्रतीति से समस्त बाह्य पदार्थों से मोह छूट जायेगा । मैं सबसे न्यारा एक चैतन्यपदार्थ अपना ही कर्त्ता और अपना ही भोक्ता हूँ । मैं अपने ही परिणमन करता हूँ—ऐसा बार-बार चित्तवत करो । दूसरे को सुनाने के लिये करने से या दबाव से कहने के कारण करने से तत्त्व में भी कोई तत्त्व नहीं निकलता है । मैं स्वतंत्र हूँ । ज्ञाता-दृष्टा मेरा स्वरूप है, अन्य पदार्थों से मैं भिन्न हूँ—ऐसा बार-बार ध्यान करने से आत्मा पर इसका पर्याप्त प्रभाव पड़ता है । 698-बार बार विचार का प्रभाव—जैसे एक बार चार चोर चोरी करने चले । उन्होंने एक ब्राह्मण को बकरी ले जाते देखा । तो उन्होंने सलाह की कि इस बकरी को इससे छुड़ानी चाहिये । चारों सलाह करके एक-एक मील की दूरी पर जाकर खड़े हो गये । ब्राह्मण को पहला चोर मिला और उसने कहा—क्यों महाशय ! आप तो बड़े पागल है कि सिर पर कुतिया रखे ले जाते हैं । ब्राह्मण यह बात सुनकर उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ा तो दूसरे चोर ने भी यही कहा । आगे चला तो तीसरे चौथे चोर भी मिले और यही कहा । ब्राह्मण ने सोचा, क्या बात है? मुझे सभी टोक रहे हैं, वास्तव में यह कुतिया ही होगी ! यह सोचकर उसने उस बकरी को वहीं छोड़ दिया । और आगे बढ़ा । चारों चोर उस बकरी को लेकर घर चले गये । एक ही बात को बार-बार कहा जाये तो उसका मन पर अवश्य असर पड़ता है । जब झूठी बात का भी असर यों पड़ सकता है तो सत्य स्वभावी आत्मा पर सत्य का प्रभाव तो अमिट सुगमतया पड़ ही सकता है । इसी प्रकार मैं सबसे न्यारा हूँ । अकेला हूँ । शुद्ध हूँ । इस प्रकार बार-बार भावना आने से तो कल्याण अवश्य होगा । क्योंकि भेदभावना से पर-परिणति हट जाती है । बाह्य पदार्थों से परिणति हट जाने से जीव का मोह छूट जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पर पदार्थों से परिणति हटा देना चाहिये । जितना बने अपने आत्मतत्व को जानो । जहाँ आत्मा के उत्थान का प्रश्न है वहाँ पैसे से कोई काम नहीं बन सकता । वह तो केवल परिणाम शुद्ध रखने से ही काम चलता है । क्योंकि आत्मानुभव से मोक्ष की सिद्धि हो जाती है । मोक्ष निस्तरंग अवस्था है । वह अवस्था तब प्रगट होती है जबकि आत्मा पर ही उपयोग जाता है । बिना आत्मानुभव के साध्य की सिद्धि हो ही नहीं सकती । आत्मा एक स्वभावी है । इस अखंड चैतन्य आत्मा का निरंतर ध्यान करो । शंका—ज्ञान का तो आत्मा के साथ तादात्म्य संबंध है, वह तो कभी आत्मा से अलग होता ही नहीं है । जब वह अलग नहीं है । जब वह अलग नहीं होता है तो हम ज्ञानी हैं । तो फिर ज्ञान की उपासना से क्या लाभ? समाधान:—तुम्हारा कहना ठीक है । ज्ञान के साथ आत्मा का तादात्म्य होने पर भी यह आत्माज्ञान की खबर नहीं लेता है । ज्ञान अलग होता और आत्मा अलग होता तो उपासना बड़ी दूर की चीज हो जाती । आत्मा का ज्ञान के साथ तादात्म्य होने पर भी क्षणभर के लिये यह ज्ञान की उपासना नहीं करता है । ज्ञान की उत्पत्ति उपदेश से व स्वभाव से होती है । दोनों हालत में आत्मा को ही समझना पड़ेगा। ज्ञान जो न स्वयं समझ सकता और न दूसरे के समझाने से समझता वह बड़ा व्यामोही है । 699-ज्ञानमय स्वतत्त्व की समझने से ही हित होगा:—कुछ जीव ऐसे भी होते हैं, खुद तो समझ में आता ही नहीं, न दूसरे के समझाने पर समझते और उसमें उल्टे कोई अड़चन डाल देते हैं । कुछ जीव ऐसे होते हैं कि समझकर भी जबर्दस्ती करते रहते, वे हठी कहलाते हैं । जैसे हम तो 30+30=50 ही कहेंगे । आत्मा ज्ञानशरीरी है, आत्मा अमूर्त है । आत्मा को वही बता सकता है जो जानता है । शरीर को तो पकड़कर भी बताया जा सकता है, यह है शरीर । आत्मा ज्ञानमय है, फिर भी यह संसारी प्राणी जड़ पदार्थों की उपासना में लगा रहा, ज्ञान की उपासना उसने अभी तक की ही नहीं ।भैया चाहे जितनी भी चिल्ला-चिल्लाकर पूजा कर रहे हो, मन में मुकदमा में जीतने की धुन लगी है तो उसका गला फाड़ने से कोई लाभ नहीं है । पूजा चेतन परिग्रह की करो । एक आदमी घर पर पड़ा है, या दुकान पर बैठा है, यदि भगवान की भक्ति में तन्मय है तो उसे साध्य की सिद्धि हो जायेगी । जो व्यक्ति स्थिरता से नहीं बैठ सकता है, वह बंदर के समान है । बंदर कभी भी स्थिर नहीं बैठता है ।मन भी उसका बंदर की तरह से क्रियाहीन या विचारहीन नहीं रहता है । मन की स्थिरता के लिए मन को ज्ञान में, पूजा में ध्यान में, सामायिक आदि में लगाओ तो मन स्थिर हो सकता है । तन-मन-धन-वचन—इन चारों में से एक भी चीज हमेशा नहीं रह सकती है । अत: इनसे जितना बने, काम लो । कम काम करने वाले पुरुष कायर या नपुन्सक कहलाते हैं । अरे, इस नश्वर शरीर को दीन दुःखियों की सेवा में लगाओ । द्रव्यमन और भावमन दोनों नष्ट होने वाले हैं । अत: मन का उपयोग सबका भला विचारने में लगाओ । बुरा विचारने में मन को क्यों लगाते हो? यदि मन से भला नहीं विचार सकते तो बुरा भी तो मत विचारो । धन का उपयोग ज्ञान साधनों में करो, जिससे सृष्टि के चप्पे-चप्पे में ज्ञान का प्रकाश हो । यद्यपि धन से ज्ञान नहीं हो सकता, परंतु उससे ज्ञान के उपकरण जुटाए जा सकते हैं । पूर्व काल में ऐसा जरूर था कि मुनि लोग जंगल में रहकर ही ज्ञानदान किया करते थे, कोई खर्च नहीं हुआ करता था । परंतु वर्तमान में ज्ञान के साधन जुटाने में भारी खर्च पड़ता है । अत: धन का उपयोग ज्ञान में ही करो । मान लिया, यह मंदिर बहुत सुंदर बना हुआ है लेकिन कोई ज्ञानी नहीं है तो जीव का कल्याण इस ईंट पत्थरों से निमित मंदिर से नहीं हो सकता है । जीव का कल्याण तो ज्ञानमात्र भावना से ही होगा । मंदिर तो साधन मात्र है । धन को ज्ञान के विकास में लगाना चाहिये । 700-वचन निकट धन है उसका धर्मानुकूल उपयोग करो:—वचन भी मिट जाने वाली चीज है । वचन सदा नहीं रहता, अत: उसका ठीक स्थान में उपयोग करो । ऐसे वचन बोले, जिनसे दूसरों की कषाय न बड़े और दूसरों को कषाय कम करने की शिक्षा मिले । धर्म की वाणी बोलने से स्वयं भी धर्म के परिणाम हुए, सुनने वाले को भी धर्म की बात सुनाई दी । धर्म के वचन से दोनों का लाभ होता है । अत: वचन की शुद्धता होनी चाहिये । ये चारों तन-मन-धन-वचन मिट जाने वाली चीज है । आत्मा में यद्यपि ज्ञान है लेकिन यह आत्मा उसे पकड़ता नहीं है । जैसे किसी आदमी के हाथ में ‘‘हीरा’’ है, लेकिन वह उसे कांच समझ रहा है । उसे हीरा मिलने पर उतनी ही प्रसन्नता होगी, जितनी काँच मिलने पर होती है । भावना तो बनाओ, उस अखंड चैतन्यात्मा का ध्यान करो । आत्मा का ज्ञान स्वरूप होने पर भी मिथ्यादृष्टि ने कभी ज्ञान की आराधना नहीं की । शंका:—जब तक बुद्ध बोधित और स्वयं बोधित होने को न मिले, तो क्या यह आत्मा तब तक अज्ञानी रहता है? समाधान:—हां, जैसे जिसके घर की दीवार में रत्न गड़े हों, जब तक उसे पता नहीं कि मेरे घर में रत्न गड़े हैं, तब तक गरीब ही कहलायेगा । इसी प्रकार इस आत्मा के पास ज्ञान होने पर भी यदि वह उसको नहीं जानता है, तब तक वह अज्ञानी ही है । जब तक यह जीव पर वस्तु का और अपने को एकमेक मानता है, तब तक वह अज्ञानी ही है । कहां तो यह पवित्र चैतन्य आत्मा, और कहां यह अपवित्र शरीर यह शरीर मल ही मल का एक पुंज बना बैठा है । इस मुंह में सबसे अधिक मल है । जल्दी से जल्दी मुंह से मल निकलता है । सब मल पिंड इस मुंह में ही हैं । लोक में मुख ही बड़ी श्रद्धा से देखा जाता है । सब ही मुख का Fhoto उतारना चाहते हैं ऐसा घिनावना यह शरीर आत्मा से बिल्कुल भिन्न है । कर्म मैं हूँ, तो कर्म मैं हूं—जब तक जीव की यह बुद्धि रहती है, तब तक वह अज्ञानी है । जब यह आत्मा अपने को शरीर से अलग मानता है, तभी ज्ञान का उदय होता है । 701-सर्व साधारण स्वरूप:—वही पुरुष धन्य है जिसका महात्मा सम्यक्त्व प्रभु द्वारा होता है । वह सम्यग्दर्शन पदार्थों के सामान्य तत्त्व की प्रतीति से होता है । पहले द्रव्य के लक्षण को जानकर द्रव्य की प्रतीति करो । प्रत्येक द्रव्य अपने ही द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव से है, पर के चतुष्टय से द्रव्य नहीं है । प्रत्येक पदार्थ में 6 गुण होते हैं—अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्व, प्रमेयत्व । इन साधारण गुणों की दृष्टि से कोई द्रव्य न छोटा है, न बड़ा, सब द्रव्य स्वतंत्र हैं । न कोई हेय है न उपादेय है । सब द्रव्य सामान्य गुणों की दृष्टि में समान हैं । अस्तित्व गुण के कारण वस्तु है । वस्तुत्व, जो वस्तु की सत्ता को बताये कि यह वही है, अन्य नहीं, उसे वस्तुत्व गुण कहते हैं । द्रव्यत्व गुण यह बताता है कि द्रव्य स्वत: है, स्वत: परिणमनशील भी है । अपरिणामी और कूटस्थ नहीं है । यह वस्तु परिणमती हुई दूसरी वस्तुरूप न परिणम जाये, इस मदद को करने के लिये अगुरुलघुत्व गुण है । द्रव्यों की व्यवस्था देखो, द्रव्य जो है सो है । वस्तु का ठीक-ठीक बोध हो जाये, यह वर्णन समझाने के लिये उपाय है । वे उपाय बनाये हुए समझो । वस्तु का कोई नाम नहीं हैं उसका तो जो नाम विशेषण है वहाँ नाम बन जाता है जैसी अपनी परंपरा चली आ रही है । उसी के अनुसार नाम बनाओ । जिसका कोई आकार ही न हो, यह चीज ही क्या रहेगी? अत: उसका आकार बताने के लिये प्रदेशत्व गुण कहा । यदि वस्तु ज्ञान में ही न आवे तो किसकी व्यवस्था बनावें? इन छ: गुणों से वस्तु की ठीक-ठीक पहिचान होती है । द्रव्य सामान्य और विशेष दो प्रकार का होता है । द्रव्य चेतन व अचेतन के भेद से दो प्रकार का होता है । चेतन द्रव्य एक जीव द्रव्य है । शेष-पाँच अचेतन द्रव्य है । भेद किसी अपेक्षा को रखकर किया जाता है । हमें द्रव्य के ऐसे भेद करने हैं । जिससे जीव की पहिचान मिले । मूर्त अमूर्त के भेद से भी द्रव्य दो प्रकार का है, किंतु मूर्त या अमूर्त यह भी जीव की पहिचान नहीं करता । क्योंकि अन्य पदार्थ भी मूर्त या अमूर्त होते हैं । यह चेतन वास्तव में है, क्योंकि दुःख का या ज्ञान का संवेदन होता है । आंखों से जो कुछ दीखता है उसका भी ज्ञान हो जाता है । जीव का कुछ न कुछ परिचय सभी को है, जैसे कोई लड़का यदि भींत को ठोक हो रहा हो, तो कोई भी उसे नहीं डाटेगा । लेकिन यदि वह कुत्ते को लट्ठ मारे तो प्रत्येक उसे कहेगा कि व्यर्थ में तुम कुत्ते को क्यों मार रहे हो? अत: सर्वसाधारण में भी यह बात निश्चित है कि जीव नाम की वस्तु अवश्य है । जीव के साथ दूसरी कोई अजीव भी है । यदि जीव के साथ अजीव न लगा होता तो उनमें अंतर न मालूम पड़ता । जीव-जीव में भी जो अंतर मालूम पड़ता है और एक जीव में भी विभिन्न कालों में अंतर मालूम पड़ता है उसका कारण भी जीव से विलक्षण तत्त्व (कर्म) का संबंध है । 702-जीव और कर्म का संयोग कब से हुआ?—जीव व कर्म का संयोग आदि से है या अनादि से? इनका संयोग हुआ तो कैसे हुआ? रागी जीव और कर्म—इनमें पहले कौन था? संयोग वाली चीज पहले से ही होती है । पहले राग था या कर्म? जीव में पहले राग था, ऐसा कहो तो राग अहेतुक बन गया फिर वह कैसे दूर हो । यदि कहो कि जीव में पहले कर्म थे ऐसा भी नहीं है । कर्म का निमित्त पाकर राग और राग का निमित्त पाकर कर्म होता है । बीज वृक्ष में पहले कौन था, बीज था या वृक्ष? बीज पहले था ऐसा कहो तो वृक्ष के बिना बीज कैसे आया? यदि पहले वृक्ष था, बीज बाद में हुआ, ऐसा कहो तो बीज के बिना वृक्ष कैसे पैदा हो गया? पहले जो हुआ तो बताओ वह आया कहां से? अंत में आपको मानना ही पड़ेगा, बीज वृक्ष दोनों अनादि से हैं, न पहले बीज हुआ, न वृक्ष । इसी प्रकार जीव और कर्म का संबंध अनादि से चला आ रहा है । जब तक हमारी जीव और कर्म के संबंध पर दृष्टि है, तब तक जीव और कर्म का संबंध जारी रहेगा जब कर्म पर दृष्टि नहीं रहेगी, केवल जीव पर ही दृष्टि जाएगी, तभी जीव और कर्म का संबंध छूटेगा । अत एव कर्म पर से दृष्टि हटाने के लिये व जीव पर दृष्टि स्थित करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता है तभी वह स्वानुभव होना संभव है । प्रत्येक प्राणी को इतना दुःख है कि उसको वर्णन करने की शक्ति गणधराचार्य में भी नहीं है । दुःख की स्थितियों में रह कर भी अपने आपका यह हित है ऐसा भ्रमपूर्ण विश्वास बना रहता है । यह भूल को लंबा बनाने वाली भूल है। यह पर्याय और मूल को न समझने देने वाली चीज है । हमारा कर्तव्य है कि हम आत्मा को जाने-देखें । जीव में यदि कोई चीज कष्ट की है तो विकल्प हैं । ऐसी चेष्टा करो कि कष्टदायक ये विकल्प उत्पन्न ही न हो पायें। 703-माया से परे रहने में सत्य आनंद—जीव को उस समय निर्विकल्प सुख का अनुभव होता है, जब आत्मा से विकल्प चले जाते हैं और निर्विकल्प होकर आत्मानुभव में लीन रहता है । वे पुरुष धन्य हैं, जिनका माहात्म्य उस सम्यक्त्व प्रभु के द्वारा प्रकट होता है । सम्यक्त्व वास्तव में प्रभु है उस सम्यक्त्व प्रभु के माहात्म्य से इष्ट सिद्धि की मोक्ष की, प्राप्ति होती है । सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर अपार आनंद प्राप्त होता है । सम्यक्त्व एक पर दृष्टि रखने से—जीव के स्वयं के अनुभव से— अभेद दृष्टि से—प्राप्त होता है । वह अभेद दृष्टि एक तो भेद करते-करते आखिरी दृष्टि डालकर बनता, दूसरे वह सामान्य पर दृष्टि डालने से बनता, उस अभेद दृष्टि को यदि मोटे रूप में कहो एक (अखंड) द्रव्य दृष्टि और दूसरी क्षणिक पर्याय की दृष्टि है । इससे अधिक और क्या अभेद हो कि एक समय की पर्याय का भी भेद नहीं । दोनों दृष्टियों का उपयोग लेना चाहिये । यदि समय की पर्याय भी समझ में आये तो आत्मा जल्दी से समझ में आ जाता है । समझ में आने वाले ये दो नय हैं । वे एकांत से कभी समझ में नहीं आ सकता है । जैसे—हमने अपनी दूकान खूब अच्छी बना ली तो फिर आराम से एक-एक कार्य भी किया जाये, कार्य बड़े संतोष पूर्वक हो जायेगा । पहले तो वस्तु का पूर्ण ज्ञान कर लिया जाये । चाहे ध्रुव स्वभाव को जानकर, पर्याय गुण को जानकर, किसी प्रकार की लीला से; फिर वह ज्ञाता अपने किसी भी ज्ञान के होते हुए उद्देश्य में सफल हो सकता है । 704-अभिप्रेत प्रयोजन की सिद्धि का उपाय—जो धन का इच्छुक होता है वह करता क्या है कि जिससे धन मिलने की आशा है उसे पहिले जानता है, यह है राजा और फिर उस पर विश्वास करता है, यह मेरा है, यह मेरे अनुकूल अवश्य होगा आदिक रूप से श्रद्धान करता है और फिर उसकी इच्छा के अनुसार आचरण करता है तो उसको धन की प्राप्ति होती है । इसी तरह आत्मा को आत्मा की प्राप्ति चाहिये तो यह पहले आत्मा की श्रद्धा करे, ज्ञान करे, मैं क्या हूँ? अरे जो जान रहा है सो आत्मा । आत्मा का ज्ञान करना कोई तो कठिन बात नहीं है । एक जरा-सा हृदय निर्मल होना चाहिए और लगन होना चाहिये कि संसार में सारभूत बात कुछ नहीं है इसलिए किसमें अपने चित्त को लगाना? यों उपेक्षा करके फिर अपने आपके स्वरूप में प्रवेश कर आये तो अपना परिज्ञान हो सकता है, कोई कठिन बात नहीं है, किंतु दो चीजें तो एक साथ नहीं बन सकती है । कोई चींटी अपने मुख में नमक की डली रखे हो और दूसरी चींटी के कहने से वह मुक्त होना है, किससे मुक्त होना है उसकी ही खबर नहीं है तो मुक्त होने की बात कर ही क्या सकेगा? वह तो केवल अन्य ज्ञानियों की बातें सुनकर यह समझ लेगा कि ऐसी बात कहने में बड़प्पन मिला करता है, सो उस बड़प्पन के लाभ में वह ऐसे वचन, ऐसी बातें बोलता रहता है । किसे मुक्त होना है, किससे मुक्त होना है, इन दोनों ही मूल बातों का पता नहीं है तो उसके लिए मुक्ति का अर्थ क्या । किसे मुक्त होना है? इस ज्ञानानंद स्वभावमात्र चैतन्यपदार्थ को मुक्त होना है, क्योंकि यह वर्तमान में परिणमन को निरखकर दिख रहा है कि यह अमुक्त है छूटा हुआ नहीं है और किससे मुक्त होना है? जिसमें यह मिल गया, जिससे यह नाना क्लेश पा रहा उन सबसे मुक्त होना है, कषायों से, इच्छा से, कर्मों से, शरीर से मुक्त होना है । जो लोग शरीर को ही आत्मा मानकर बस उसके लालन पालन आराम में मौज समझना, शरीर के मिटने पर अपनी बरबादी समझना, शरीर के मरण से अपना मरण समझना, ऐसी मिथ्या धारण जब तक रहती है तब तक उसके तो सम्यक्त्व ही उदय हो जाय इसकी भी पात्रता नहीं । इतने तीव्र मिथ्यात्व मोह विष से मूर्छित हैं ये प्राणी कि जिन में अभी सम्यक्त्व जगने की पात्रता नहीं आयी । 705-निर्नाम अंतस्तत्त्व की ज्ञानमय भावना—भव्य सम्यग्दृष्टि होते हैं सम्यक्त्व के पात्र जिन्हें शरीर की परवाह नहीं, केवल एक अंतस्तत्व के ज्ञान की जिज्ञासा लगी है । ऐसे पुरुष ही अपने आपके सही स्वरूप को खोज लेने में सफलता पा सकते हैं जिनके जिज्ञासा लगी है अपने स्वरूप की । जिस ज्ञानतत्त्व की उपासना के लिए कहा जा रहा वह ज्ञानस्वरूप मेरे में अब भी है, उसी स्वरूप से मैं रचा हुआ हूँ, मैं सिद्ध समान हूँ, सब कुछ मेरे में सामर्थ्य है, परिपूर्णता है, कुछ अटक भी नहीं है, कुछ पराधीनता भी नहीं है । भीतर एक दृष्टि बदलकर अपने आपके सहज स्वरूप को निरखने की बात पर करना है कि सर्व कुछ सिद्धि, सर्व समृद्धि मेरे को प्राप्त हो सकती है, लेकिन इतना भी नहीं किया जा सकता । और क्या बने? जब इसको अपने ज्ञान स्वरूप की सुध होती है ओह ! मैं यह हूँ, मैं इस नाम का नहीं, इस गांव का नहीं, इस घर का नहीं, इस जाति का नहीं, इस कुल का नहीं मैं तो केवल शुद्ध ज्ञानमात्र हूँ, जैसा मैं हूँ वैसे ही लोक में अनंत समस्त जीव हैं इसी प्रकार जो अपना सबका स्वरूप ऐसा समान मानते हैं कि जिस मान्यता में आत्मा के सहज स्वरूप की लगन उत्पन्न हो । जो मैं हूँ सो सब है जो मैं हूँ सो भगवान हैं, सर्व जीवों का स्वरूप मूल में एक है, सत्त्व के कारण क्योंकि पदार्थ है ना चेतना जैसे गेहूँ का ढेर लगा है, करोड़ों अरबों गेहूँ के दाने इकट्ठे लगे है तो उन सबमें समानता है । किसी दाने को देखकर यह नहीं कह सकते कि यह तो दूसरा दाना है । उनमें चाहे अंतर आ जाय किंतु पदार्थ के स्वरूप में अंतर नहीं आता गेहूँ तो परिणमन है, पदार्थ नहीं, स्वभाव नहीं । तो जो आत्मस्वभाव है आत्मतत्त्व हैं उनमें अंतर क्या? जो मैं हूँ सो सब है जो सब हैं सो मैं हूँ । एक विशुद्ध द्रव्य की जो भावना रखता है वह पुरुष ऐसे अलौकिक तत्त्व में पहुंचता है कि जहाँ मोह राग-द्वेष के विकल्प नहीं उठते । यदि कुछ धन वैभव नहीं है तो उसका संतोष नहीं मान पाते, उससे खुश नहीं हो पाते कि चलो बड़ा अच्छा है । जितना होता है हमें उतना त्यागना पड़ता और उतना बड़ा त्याग करने में इतना ही बड़ा साहस बनाना पड़ता । अब मेरे को यह सहज अवकाश मिला है कि मैं अपने को जानूँ, धर्म पालन करूँ और जो थोड़ा बहुत वैभव है उसमें भी अब मैं क्या अटकूँ, उसकी अटक भी समाप्त करूँ उसका भी परित्याग करूँ, अथवा उस विधि से जिसमें उसके प्रति यह भावना ही न रहे कि यह है मेरा । 706 निरीहता और अर्ंतदृष्टि में प्रभु का मिलन—समस्त पर के परित्याग बिना उपयोग अपेक्षा तो संपूर्ण परिग्रह के त्याग बिना आत्मा में वह विशुद्धता नहीं जग सकती है । जो अपने आपमें विराजमान अंत:प्रभु के दर्शन करा तो दे । प्रभु के ढूँढने के लिए चले बाहर में वहाँ क्या मिलेगा हमारा प्रभु? कहीं पर्वत में, कहीं मंदिर आदि में मिलेगा हमारा प्रभु? अरे अपने आप में विराजमान स्वरूप को न समझ सके, अपने प्रभु के दर्शन न कर सके तो आपको कहीं दर्शन न मिलेगा । बाहर में समवशरण में, पर्वत पर मंदिर में, जहाँ कहीं भी आप प्रभु के दर्शन करते हैं, तो वहाँ आपने यह अपने में अवश्य किया है कि उस अपने आपके सहज स्वरूप पर दृष्टि किया है । ऐसा किए बिना प्रभु का स्वरूप जाना नहीं जा सकता । कोई प्रभु हाथ पैर मुख मुद्रा आदि वाला नहीं है । प्रभुता तो वीतरागता और सर्वज्ञता का नाम है । जिस भाव में राग-द्वेष मोह नहीं रहे, जिस भाव में ऐसा शुद्ध विकास है कि समस्त पदार्थ एक साथ स्पष्ट अपने आप सहज विज्ञात होते रहते हैं, ऐसे वीतरागभाव और ज्ञानभाव का ही तो नाम प्रभु है । जो प्रकर्ष रूप हो गया हो उसे प्रभु कहते हैं । जहाँ ज्ञान का परिपूर्ण विकास और दोषों का अत्यंताभाव हो गया है, जिसके आत्मा का सारा वैभव विशुद्ध परिपूर्ण प्रकट हो गया है, कृतकृत्य हो गया है, जो परम ज्योति स्वरूप है, जहाँ पर रंच भी रागद्वेषादिक विकार नहीं रह गए हैं ऐसा ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा प्रभु है । यह बात हमने कब समझी जब हमने अपने आपमें ऐसी ही वीतरागता और सर्वज्ञत्व शक्ति का स्पर्श किया तो अपने आपके विशुद्ध विज्ञान के बल से हमें प्रभु की पहिचान होती है । यह प्रभु है जिस प्रभु को जान लिया जायगा तो आत्मा के ज्ञान में वृद्धि होगी । आत्मा को जान लिया जायगा तो प्रभु का ज्ञान होगा । ऐसी जब दो बातें कहते हैं तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है—तो सबसे पहिले क्या होगा । लो सबसे पहिले यह आत्मा का ज्ञान होगा । जिस किसी भी रूप में, जितने रूप में भी हो । आत्मज्ञान से शुरु होता है प्रभु परिचय। उस आत्मा को जाने, उसकी श्रद्धा उसमें रमण करे, यह एक मात्र उपाय है शुद्ध आत्मा की उपलब्धि करने का । 707-शांति पर अधिकार पाने का यत्न करो—इस सम्यक्त्व प्रभु की बड़ी महिमा है । मनुष्यभव प्राप्त करके भी यदि सम्यक्त्व न हो तो मनुष्य-भव पाना व्यर्थ ही है । ऐसे कृत्य करो कि इस भव के बाद बहुत ही अल्प भव बिताकर अपने इन भवों से रिक्त हो जावे । वह काम स्वभावदृष्टि है, जिससे सम्यक्त्व की प्राप्ति होकर इन भावों से छुटकारा हो जाये । स्वभाव दृष्टि रखने के लिये विकल्पों को दूर भगाना होगा । विषय-कषाय की आसक्ति को छोड़ना होगा, फिर सहज स्वभाव के उपयोग से स्वभावदृष्टि पाना सुगम है । धर्म-पालन में बाधक 3 शल्य हैं । जिस आत्मा में शल्य है—न उसके धर्म है, न तप, न जप । व्रती को नि:शल्य होना चाहिये इस वाक्य में मुख्य मर्म यह है कि सम्यग्दृष्टि नि:शल्य होता है । तत्वार्थसूत्र में व्रती का लक्षण नि:शल्य होना बताया है । व्रत पालन के लिये सम्यग्दर्शन होना आवश्यक है । सम्यग्दर्शन नहीं है तो व्रतादि पालना ही व्यर्थ-सा है । माया के रहते हुए सम्यक्त्व का पालन नहीं हो सकता है । किसी के धन को हड़पने की चाह हुई तो वह चाह आत्मा को अधर्म के मार्ग पर ले जाती है और तब आत्मा को धन हड़पने के लिये कुपथ पर चलना ही पड़ेगा । अपन लोगों के कभी भी सरागी गुरु व शास्त्रों का अनुमोदना तो नहीं होती है? यदि अनुमोदन होता है तो वह भी शल्य है । शल्य के रहते हुए जीव का कल्याण नहीं हो सकता है । सम्यक्त्व की प्राप्ति से ही शल्यादि दूर हो सकती है । सम्यक्त्व प्रभु की प्राप्ति से इष्ट-सिद्धि होती है । सम्यग्दर्शन के सिवा इस संसार समुद्र से जीव को निकालने में अन्य कोई व्यक्ति सहाय नहीं है । सब जीवों का रक्षक सबके निर्मल परिणाम हैं । जीव के यदि कर्म का उदय है, कोई चाहे उसे सुखी कर दे; उसे सुखी कर ही नहीं सकता है और जो पुण्य पाप से रहित स्वभाव दृष्टि में लगा हुआ है, उसे कोई क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता है । यह सब सम्यक्त्व प्रभु की ही तो महिमा है 708-‘‘ॐ शुद्धचिदस्मि’’—भूत में जितने सिद्ध हुए अथवा आगे होंगे, सब सम्यक्त्व के ही कारण हुए हैं । अपने आप में इस भाव को अधिक से अधिक विचारो कि मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, सब बाह्य पदार्थों से न्यारा हूँ । मैं अपने लिये अपने आप अपने में परिणमता रहता हूँ । मैं किसी को नहीं परिणमा सकता और न मुझे ही कोई परिणमा सकता है। मेरे ये सब परिणमन मेरे हैं, अन्य द्रव्य से इनका कोई संबंध नहीं है । इस प्रकार विचार करके अपनी स्वभाव दृष्टि से अपने परिणामों की निर्मलता को बढ़ाया जावे तो जीवन सफल हो जावे । मनुष्यभव और भी पाये होंगे, परंतु जितना समय इन विकल्पों से रहित स्वानुभव में रहे, वह समय सार्थक है । वह आत्मा और वह समय धन्य है, जिसकी कृपा से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । जब तक इस जीव को स्वयं बुद्धता के कारण से अथवा बोधित बुद्धता के कारण से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है, तब तक यह जीव ज्ञान की उपासना नहीं कर सकता है । शंका—इन कारणों के मिलने के पहले क्या जीव अप्रतिबुद्ध ही रहा? समाधान—हां जब तक जीव को स्वयं बुद्धता या बोधित-बुद्धता कारण से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है, तब तक जीव अप्रतिबुद्ध ही रहता है । यहाँ पुन: जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि कितने काल तक जीव अज्ञानी रहता है? इसके समाधान स्वरूप आचार्यदेव कहते हैं—