वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 171
From जैनकोष
जम्हा हु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि ।
अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ।।171।।
कर्मबंध का कारण ज्ञानगुण का जघन्य परिणमन―चूंकि ज्ञानगुण का जघन्यगुण रूप, अन्य रूप परिणमन है, इस कारण यह ज्ञानगुण कर्मबंध का करने वाला कहा गया है । हम आप देखते हैं कि अपन लोगों का ज्ञान व्यवस्थित और स्थिर नहीं रहता है, कभी किसी विषय में ज्ञान किया, कभी किसी विषय में ज्ञान किया, कभी किसी विषय में गये, यों चित्तवृत्ति का परिणमन होता रहता है । इस परिवर्तन का मूल निमित्त है राग-द्वेष भाव । राग-द्वेष भाव का मूल कारण है मोहभाव । जहाँ मोह राग-द्वेष रहता है वहाँ ज्ञानगुण अस्थिर रहता है । ज्ञान का परिवर्तन चलता रहता है उसे कहते हैं जघन्य ज्ञानगुण, असमर्थ ज्ञानपरिणमन । जब तक ज्ञानगुण का जघन्य भाव रहता है तब तक वह चूँकि अंतर्मुहूर्त में विपरिणत हो रहा है, अभी किसी विषय को जाना, उसे छोड़कर फिर अन्य विषय को जाना, उसे छोड़कर अन्य विषय को जाना । अन्य, अन्य समयों में विभिन्न परिणमन हो रहा है, इस कारण कर्मबंध हो रहा है ।
ज्ञानगुण के जघन्य परिणमन का कारण―जघन्यगुण में अन्य-अन्य रूप से उसका परिणमन हुआ और यह परिणमन यथाख्यात चारित्र अवस्था से पहिले अर्थात् जब तक कषाय का उदय चल रहा है तब तक अवश्यंभावी रहा, वहाँ राग-द्वेष रहा करते हैं । इस कारण यह विभाव ज्ञानी जीव का जघन्य परिणमन कारण है । जैसे किसी भले लड़के के साथ खोटा लड़का लगा है और भले लड़के ने किसी प्रकार की गलती की है तो समझदार आदमी उस भले लड़के को डांटता है कि यह क्यों किया? अरे सारे मूल ऐब का कारण तो वह दुष्ट लड़का है पर भले आदमी की डांट पहिले होती है । नाम धरेगा तो भले आदमी का पहिले धरेगा, इसी तरह देखो इस आत्मा में ज्ञानगुण भी चल रहा है और राग-द्वेष विकार परिणमन भी चल रहा है । सो राग-द्वेष विकार हैं, अपराध तो उनका है पर यहाँ आचार्यदेव चूँकि राग-द्वेष अपराध के संग से ज्ञानगुण का जघन्य परिणमन हो गया, अल्पविकास हो गया, स्थिर हो गया, भागता फिरता है यह ज्ञान, विचार इस कारण आचार्यदेव ज्ञानगुण को बंधन का कारण बतला रहे हैं । परमार्थ से देखा जाये तो ज्ञान बंध का कारण नहीं होता ।
बंधन का अनुपचरित निमित्त―बंधन का कारण है राग-द्वेष भाव । पर इस प्रकरण में ज्ञानगुण के जघन्य परिणमन पर ही एक लतार चल रही है, जो कि जघन्य रूप से परिणम रही है । इन समस्त कर्मों के बंध का कारण ज्ञानगुण का जघन्य परिणमन है । यथाख्यात चारित्र होता है ग्यारहवें गुणस्थान में । जब साधु महात्माओं के कषाय सब शांत हो जाते हैं तब कर्मों का आस्रव रुकता है । यथाख्यात चारित्रावस्था से पहिले यह जघन्य परिणमन है, कषायसहित है, अंतर्मुहूर्त में अन्य-अन्य ध्यानरूप से विपरिणत होता रहता है । यों कल्पना की जाये कि कोई साधु पुरुष ज्ञान और वैराग्य के शुद्ध विकास के कारण निर्विकल्प समता परिणाम में लगता है लेकिन अभी उसकी कषाय मूल में शांत नहीं हुई है तो मिनट आध मिनट में निर्विकल्प समता परिणाम में ठहर गया, किंतु पुन: अंतर से राग-द्वेष की तरंग उठती है जिसके कारण यह ज्ञान और चारित्र अस्थिर हो जाते हैं । इस अस्थिरता में यत्र-तत्र उपयोग घूम रहा है । यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसी अस्थिरता, ऐसे उपयोग को देखिये यह मिथ्यात्व का कारण है । सो कषाय भाव के कारण यह ज्ञानगुण बंधक कहा गया है अथवा जघन्यगुण हुआ मिथ्यात्व । मिथ्यात्व में ज्ञानगुण से बंध हुआ करता है । यदि समय आ जाये, उपदेश लग जाये, विचार स्वच्छ हो जाये, परवस्तुओं से ममता हट जाये तो यह ज्ञानगुण मिथ्या पर्याय को छोड़कर सम्यक्पर्यायरूप परिणमन करता है ।
ज्ञान के जघन्यपरिणमन को बंधहेतु कहने का समर्थन―मोक्ष के विषय में कहते हैं ना कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्ष का मार्ग है । वह सम्यग्दर्शन क्या है? ज्ञान का जीवादिक के श्रद्धान स्वभाव से होने का नाम सम्यग्दर्शन है और जीवादि तत्त्वों के जाननस्वभाव से ज्ञान के होने का नाम सम्यग्ज्ञान है और जैसा आत्मतत्त्व है, वीतराग, रागद्वेषरहित उस प्रकार रागद्वेषरहित स्वभावरूप से ज्ञान के होने का नाम सम्यक्चारित्र है । इस स्थिति में जब ज्ञान को मोक्ष का कारण कहा तो क्या कर्मों के बंध का कारण नहीं कह सकते । ज्ञान का शुद्ध विकास मोक्ष का कारण है तो ज्ञान का अशुद्ध परिणमन बंध का कारण है । यह ज्ञान जब अन्य पदार्थों को यह मेरा है, इससे मेरा हित है, इस रूप मैं हूँ इन विकल्पों के रूप से परिणमता है तब वह ज्ञान बंधन कराता है, जीव को परतंत्र करता है । और जब यही ज्ञान वस्तु में यथार्थस्वरूप को जानकर जब सही-सही जाननहार रहता है तब कर्म बंध रुक जाता है ।
भ्रम के दूर होने पर संकट की समाप्ति पर एक दृष्टांत―जैसे सामने रस्सी पड़ी है, दूर से देखने में साँप जैसी लगे तो वह घर वाला पुरुष घबड़ाता है, कभी किसी को काट न खाये, किसी की मृत्यु न हो जाये, वह चिंतित है, बेचैन है । लोगों को पुकारता है, लोगों के आने का अवसर न था । तब वह हिम्मत बाँधकर देखने चलता है कि आखिर देखें तो सही कि कैसा सांप है, विषैला है या साधारण है । तो जब हिम्मत बाँधकर आगे बढ़ा तो सोचा कि यह तो साँप-सा नहीं मालूम होता है । यह तो जरा भी हिलता डुलता नही है । जब और निकट गया तो देखो कि अरे यह तो सांप नहीं मालूम होता । जब बिल्कुल निकट गया तो देखा अरे यह तो कोरी रस्सी है, सांप नहीं है । जब ऐसा ज्ञान हुआ कि यह तो कोरी रस्सी है, इस ज्ञान के होते ही आप बतलाओ कि सारे संकट, सारी बेचैनी मिट गई कि नही ? मिट गई । जब तक उसे भ्रम था तब तक कितनी आकुलताएँ थीं, जब उसका भ्रम दूर हो गया तो सारी आकुलताएं समाप्त हो गई ।
भ्रम के दूर होने पर आकुलताओं की समाप्ति―इसी प्रकार यहाँ कितनी आकुलताएँ लगी हैं । न जाने कैसा कानून बनेगा, व्यापार, रोजगार, आजीविका, ठीक ठिकाने रह सकेगी या नहीं । घर के लोग स्वस्थ रह पायेंगे या नहीं अथवा इज्जत पोजीशन में कहीं बट्टा न लग जाये, कितने ही प्रकार के यहाँ संकट और आकुलताएँ मचा रखी हैं । उन संकटों का मूल कारण है परवस्तुओं में आत्मीय बुद्धि करना, परवस्तुओं से ही मेरा हित है, वे ही शरण हैं, मेरी जान इन परपदार्थों के आधीन है―ऐसी जो मिथ्याबुद्धि बनी है इस मिथ्याबुद्धि के कारण सैकड़ों आकुलताएँ उत्पन्न हो गई । जरा हिम्मत तो बाँधे, परवस्तुओं के निमित्त से बहुत-बहुत दु:खी हो जाने पर अब साहस तो बनाएँ, आखिर ये समस्त पदार्थ मेरे अनुकूल नहीं रहते । जैसा मैं चाहता हूँ तैसे ये परिणमते ही नहीं, प्रतिकूल परिणमा करते हैं, आखिर मामला क्या है? मेरा इन परपदार्थों के साथ रंच भी संबंध नहीं है । मेरा उन पर रंच भी अधिकार नहीं है, सोचा, स्वरूप निरखा, मालूम पड़ा कि अहो ये तो समस्त वस्तुयें पूर्ण स्वतंत्र हैं । जगत के ये सब जीव अपने आप में परिपूर्णता लिए हैं, स्वतंत्र हैं । किसी भी द्रव्य का किसी भी दूसरे द्रव्य में प्रवेश नहीं । न कोई शक्ति जाती है, न परिणमन जाता है, न असर होता है । ये ही पदार्थ अनुकूल निमित्त पाकर स्वयं अपने आप अपने में असर उत्पन्न कर लेते हैं । ऐसा ही समस्त पदार्थों का परिणमन चल रहा है । जहाँ यह यथार्थ अवगम हुआ वहाँ सारी आकुलताएं समाप्त हो जाती है ।
इस वर्णन के बाद यह शंका होना स्वाभाविक है कि कहाँ तो यह कहा जा रहा है कि 10वें गुणस्थान तक यह जीव बंधक है और पहिले यह कहा था कि सम्यग्दृष्टि जीव निरास्रव है । सम्यग्दृष्टि जीव होता है चौथे गुणस्थान से । वहाँ चौथे गुणस्थान से ही कर्मों का आस्रव और बंध का निषेध किया था और अब यहाँ यह कह रहे हैं कि आस्रव और बंध 10वें गुणस्थान तक होते हैं तो पहिली बात कैसे सही है? इसका उत्तर इस गाथा में देते हैं