वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 172
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण ।
णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण ।।172।।
दर्शन, ज्ञान और चारित्र चूँकि जघन्य भाव से परिणमते हैं इस कारण ज्ञानी नाना प्रकार के पुद्गलकर्मों से बंध जाता है । किंतु यहाँ भी ज्ञानगुण के स्वरूप और स्वभाव को परखो । जो ज्ञानी जीव है वह बुद्धिपूर्वक राग द्वेष मोहभाव नहीं करता । इसलिए वह निरास्रव ही है । श्रद्धा की बात देखो ।
प्रवृत्ति में भी शुद्ध श्रद्धा रह सकने का एक दृष्टांत―एक रईस रोगी जिसके यह ज्ञान है कि यह रोग मेरे है और इस रोग से मुक्त रहने की स्थिति आत्मा की निःसंकट अवस्था है वह रईस रोग का उपचार कर रहा है, दवाई सेवन कर है, फिर भी उसे दवाई में राग नहीं है कि मैं इस औषधि को जिंदगी भर पीता रहूं और दिन में तीन चार बार औषधि पीऊँ । वह तो यह चाहता है कि कब यह औषधि मुझ से छूटे और कब मैं दो चार मील रोज चल जाया करूँ । उसे रोग अवस्था में होने वाले आराम से प्रेम नहीं है ।
प्रवृत्ति में भी ज्ञानी की शुद्ध श्रद्धा के कारण बंधभाव का अभाव―इसी तरह इस ज्ञानी जीव के पूर्वकृत कर्मों के उदय से पूर्वोदय से वैभव संपदा प्राप्त हुई है तो उसे उस आराम से प्रेम नहीं है । वह वैभव संपदा के आराम से, परिवार के सद्व्यवहार से प्रेम नहीं करता । वह आराम तो अपने आपके शुद्ध ज्ञानस्वभाव में स्थित होने से ही मानता है । ज्ञानी जीव के बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष रहित होने से आस्रव नहीं है । रुचिपूर्वक अर्थात् इंद्रिय और मन के व्यापार बिना केवल कषाय के उदय के निमित्त से जो परिणाम होते हैं वे बुद्धिपूर्वक नहीं कहे जाते । तो जानकारी सहित अपने आपका उपयोग लेकर रुचिपूर्वक राग-द्वेष-मोह भाव नहीं है ।
दृष्टांतपूर्वक प्रवृत्ति में निवृत्ति के आशय की सिद्धि―जैसे किसी भाई या बहिन को छोटे को उससे छोटा बच्चा सौंप दिया जाये कि तू इसे खिला । तो वह भाई बहिन को खिलाता है, गोद में लेता है, पर उसे लेने में अड़चन पड़ रही है । 8 वर्ष के भैया को 4 वर्ष की बहिन खिलाने को दे दिया तो अब वह कैसे टांगे फिरे? कभी पेट पर रखता, कभी कंधे पर रखता, मगर उसके चित्त में है कि क्या झंझट लग गया है? अगर न खिलायेंगे तो मां डंडे मारेगी । सो मां के डंडे पड़ने के डर से उसे जबरदस्ती खिलाना पड़ रहा है । इसी प्रकार कर्मों के डंडों के डर के मारे यह ज्ञानी जीव राग में रह रहा है घर गृहस्थी में, पर उसे इस वैभव और गृहस्थी में रुचि नहीं है । उसकी रुचि शुद्ध आत्मतत्त्व की ओर है । जिसकी रुचि शुद्ध आत्मतत्त्व की ओर है उसकी प्रवृत्ति कर्मोदयवश बाह्य पदार्थों का आलंबन करके चल रही है तो भी उसे निरास्रव कहा गया है ।
जघन्य परिणमन का असर―यह तो अपने परिणामों की बात है । ऐसा ज्ञानी भी जब तक ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट भाव से देखने के लिए, जानने के लिए और आचरित करने के लिए अशक्त रहता है तब तक वह अपने ज्ञान को जघन्य भावरूप से ही देखता है अर्थात् अस्थिर प्रवृत्ति से यह ज्ञान परिणमता रहता है । जघन्य भाव से ही देखता है, जघन्य भाव को ही जानता है, और जघन्यभाव का ही आश्रय करता है । जब तक ऐसी परिस्थिति है तब तक चूंकि जघन्य भाव अन्यथा हो नहीं सकते थे, इस कारण अनुमान में आये हुए आस्रव बंधपूर्वक जो कर्मकलंक हैं उनका उदय चल रहा है, इस उदय के निमित्त से पुद्गल कर्म का बंध होता है ।
विभावरूप अपराध की संग वालों पर लाद―देखो जब किसी गोष्ठी में कोई मामला बिगड़ जाता है तो कोई किसी पर अपराध ठोकता है, कोई किसी पर अपराध ठोकता है । जो बड़ा भला भी है, अच्छा भी है उसकी भी गल्ती बताते हैं । तुम इसमें चूक कर गए थे, नहीं तो मामला न बिगड़ता, तुमने सब मामला बिगाड़ दिया । कभी कर्मों पर दोष ठोका, कभी पुद्गल पर दोष ठोका, कभी राग-द्वेषों पर दोष ठोका, कभी जीव के अज्ञानभाव पर दोष ठोका, क्यों ये दोष ठोके जा रहे हैं? तुमने ज्ञान का जघन्य परिणमन किया इसलिए दोष हो गया । सो इस सज्जन ज्ञानी पुरुष पर भी दोष लगाया जा रहा है । तुम चूँकि ऐसे बैठे हो, ऐसे परिणम रहे हो इस कारण कर्मों का बंध हो रहा है । पर दोष किस पर ठोको? दोष तो असली है विभाव कर्म कलंक का, आत्मा के राग-द्वेष मोहभाव का । उसके कारण पुद्गल कर्मों का बंध होता है ।
ज्ञान के आलंबन का उपदेश―अतः हे मुमुक्षुजनों ! तब तक ज्ञान को देखना चाहिए, तब तक ज्ञान को जानना चाहिए, तब तक ज्ञान का आचरण करना चाहिए जब तक ज्ञान का पूर्ण भाव न देख लिया जाये, जान न लिया जाये, आचरण न कर लिया जाये तब तक ज्ञान को ही देखते जाओ । अन्य पदार्थों की नजर मत करो, केवल निज ज्ञानस्वरूप को ही देखो, जानो और ऐसे ही देखने वाले बने रहो । इस प्रक्रिया से जब केवल ज्ञानीभूत हो जायेगा, केवल जाननहार ज्ञाता-द्रष्टा बन जायेगा तब यह जीव सर्वथा निरास्रव है ।
अरहंत सिद्ध के कर्मबंध का अभाव―देखो आस्रव और बंध नहीं होता । किसके नहीं होता? सिद्ध भगवान के नहीं होता । इस बात को बड़ी जल्दी मान जाओगे या नहीं कि सिद्ध प्रभु के कर्मबंध नहीं होता । और अरहंत भगवान के भी कर्मबंध नहीं होता । मान जायेंगे, जरा भी शंका न करेंगे, क्योंकि वह साक्षात ज्ञानीभूत हैं, वहाँ ज्ञानप्रकाश के अलावा और कुछ ऐब हैं ही नहीं । रागद्वेषादिक तक रंचमात्र नहीं हैं ।
वीतराग छद्मस्थ के कर्मबंध का अभाव―अच्छा उससे और नीचे चलो 11वें, 12वें गुणस्थान में जहाँ कि कषाय तो नहीं है पर ज्ञप्ति परिवर्तन है । वहाँ भी जीव निरास्रव है, यह भी बात मान सकते हैं क्योंकि कषाय नहीं है ।
अप्रमत्त सांपरायवर्तियों के बंध का अभाव―7वें गुणस्थान से लेकर 10वें गुणस्थान तक भी यह जीव निरास्रव है । यह बात जरा देर से मानी जा सकेगी क्योंकि इस गुणस्थान में उदय है, कषाय चल रहा है तब वहाँ दृष्टि लगानी पड़ेगी कि ओह बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष भाव नहीं है । उनका जो राग-द्वेष होता है वह विषयों बिना हो रहा है । उनको भी यह पता नहीं रहता है कि मेरे में राग-द्वेष आ भी रहे हैं । वे समाधि में स्थित हैं, रागादिक से रहित हैं उन साधुओं को स्वयं का कुछ पता नहीं है ऐसी स्थिति में वे जीव निरास्रव हैं । जो आस्रव होता है उसकी कुछ गिनती नहीं है ।
प्रमत्त व्रतियों के बंध का अभाव―अब कुछ और नीचे चलकर देखो तो 5वें, छठवें गुणस्थान में भी जीव निरास्रव है । यह जीव मोक्षमार्ग में चल बैठा, अणुव्रत और महाव्रतरूप इसका परिणमन बनने लगेगा तो यह मोक्षमार्गी है । किंतु प्रमाद तो बना हुआ है । जानकर कषाय भी करते हैं । श्रावक लोग या साधु लोग के क्या कभी कषाय नहीं होती? होती है । पर के उपकार के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ भी कुछ अंशों में आता रहता है तिस पर भी उन्हें निरास्रव कहा है । इसका कारण यह है कि जो कषाय उनके जगती है उन कषायों से भी हटते हुए रहते हैं । कषाय शांत करते हैं, विश्राम करते हैं, इस कारण इन गुणस्थान वालों को भी निरास्रव कहा है । याने इनके कर्म नहीं आते ।
असंयत सम्यग्दृष्टि के बंधन का अभाव―अब देखिये चतुर्थ गुणस्थान वाले जीव जिसके व्रत नहीं है उसे भी निरास्रव कहा है । तो अनंतानुबंधी आदि संसार के बढ़ाने वाली प्रकृति का निरास्रव नहीं है और उनके भी कर्मों का ग्रहण करने में रुचि नहीं है इस कारण उसे निरास्रव कहा है । अब इस प्रकरण में यह समझ लीजिए कि हमको कैसा उपयोग बनाना उचित है जिससे वर्तमान के भी और भविष्य के भी संकट टलें । यों ही अपने आत्मा को ज्ञानस्वरूप निरखो और दृढ़ संकल्प बनाओ कि मैं तो मात्र इस ज्ञानरूप ही हूँ, धन वैभव चेतन अचेतन पदार्थ मेरे स्वरूप नहीं ।
शरीर का आत्मा को मुँह फट जवाब―भैया ! यह मेरा शरीर भी मेरा शरण नहीं होता । इसको कितना पोसा, न्याय, अन्याय न गिना, भक्ष्य अभक्ष्य न गिना, दिन रात कुछ न देखा और इस शरीर के पोषण में कितना उपयोग लगाया, जो मिला सो खाया, जब मिला तब खाया, जहाँ मिला तहाँ खाया, ऐसा इस शरीर से प्रेम किया हम आप लोगों ने, जरा मरते समय इस शरीर से कहो तो कि ऐ शरीर ! तुम्हारे पोषण के लिए मैंने बहुत श्रम किया, अब हम मरते हैं, ये परिवार के लोग कोई साथ नहीं जाना चाहते हैं । अब तुम तो हमारे संग चलो । सबने मना कर दिया है । पर हे शरीर! तेरे से तो मैं बहुत मिलाजुला हूँ, तेरे लिए तो मैंने सारे संकट सहे हैं तू तो मेरे साथ चलेगा ना? तो शरीर से उत्तर मिलता है कि अरे तू बावला बन गया है, क्या मैं किसी के साथ जाता हूँ? मैं तो तीर्थंकरके भी साथ नहीं गया । तुम मुझे मानो तो तुम्हारे नहीं, न मानो तो तुम्हारे नहीं, हम तो जड़ हैं, रूप, रस, गंध, स्पर्श के पिंड हैं । अपने आपके गुणों से परिणमते रहते हैं, हमारा तुम्हारा क्या संबंध ?
हित की शीघ्रता आवश्यक―अब जब कुछ वैराग्य जगता है मनुष्य के तो तब यह समझ में आता है कि अब मैं रोग में या संकटों में बुरी तरह फंस गया हूँ, अब तो मेरी मृत्यु सुनिश्चित है । हम जा रहे हैं, देखो मैने ऐसा दुर्लभ मनुष्यजीवन पाया है और इसे यों ही विषयों में गवां डाला, तब कुछ ख्याल आता है कि ओह मरते समय मैं कुछ धर्म न कर सका । जो पछतावा तब होगा वैसा पछतावा अब इस जीवन में हो जाये और मोक्षस्वरूप आत्मस्वभाव की दृष्टि में लगें तो हम और आपका कल्याण सुनिश्चित है । किसी भैया को कहते हैं कि अब मेरा भैया तो 20 वर्ष का हो गया है, अर्थ उसका यह है कि मेरा भैया 20 वर्ष का मर चुका है । जो 20 वर्ष व्यतीत हुए वे क्षण अब तो नहीं आयेंगे । मानो 50 वर्ष रहे थे तो उसमें 20 वर्ष कम हो गए हैं । ऐसे ही हमारा आपका प्रतिक्षण मरण हो रहा है ।
आवीचिमरण और अपना कर्तव्य―प्रतिक्षण मरण होने का नाम है आवीचिमरण । जैसे समुद्र में लहरें चली जाती हैं । इसी प्रकार इस जीवन की क्षण गुजरती चली जा रही हैं । जो क्षण गुजर गई वे पुन: वापिस न आयेंगी । इन क्षणों में यदि सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया जा सकता है तो समझ लीजिए कि इस अनंत काल में जो अपूर्व काम नहीं किया वह अपूर्व काम अब किया जा रहा है ।
नया दिन―जिस क्षण सम्यक्त्व हो वही आपका नया दिन है । मिथ्यात्व से पगे थे तो इतने अनंतकाल व्यतीत हो गए वे कोई अपूर्व दिन नहीं हैं । इस जीवन को तभी से जीवन समझो जब से राग-द्वेष की तरंगों से रहित निज शुद्ध आत्मतत्त्व का श्रद्धान हो । यह मैं तो जगत के समस्त परवस्तुओं से निराला ज्ञान ज्योतिमात्र हूँ, ऐसे अपने भीतरी स्वरूप का यदि अनुभव हो तो समझो कि मैंने नया जन्म पाया ।
ज्ञानमयवृत्ति ही यथार्थ जीवन―किसी से पूछा जाये कि आपकी आयु कितनी है? तो आप बतायेंगे कि मानो 40 वर्ष । हम तो आपकी आयु पूछ रहे हैं, हमें इस शरीर से क्या मतलब? यह शरीर तो जड़ है, हम उस शरीर की बात नहीं पूछ रहे हैं । तो मेरी आयु, मैं अनंत काल का बूढ़ा हूँ, मैं किस समय से हुआ हूँ क्या कोई बता सकता है? जो सत् है वह अनादि से सत् है । मैं अनंतकाल का बूढ़ा हूँ और परमार्थ से पूछो तो जब से मेरे आत्म-स्वभाव की श्रद्धा जगी है तब से मेरी उमर शुरू हुई है । इससे पहिले तो मैं था भी नहीं । अपना जीवन तब से मानो जब से इस निज आत्मतत्त्व का श्रद्धान हुआ हो अपने आपका सही पता पड़े, फिर संसार में संकट नहीं रहते हैं । प्रभु की हम इसी नाते से पूजा करते हैं, नहीं तो ऐसा कौन-सा दबाव है कि भगवान पूज्य बने रहें और हम पूजा करें । बस आत्मा की निर्मलता ही आनंद की निधि है । अत: अत्यंत गंभीर काम बनाकर अपने आत्मा को निर्मल करना चाहिए ।
बुद्धिपूर्वक रागादिक का अभाव होने से निरास्रवता―ज्ञानी जीव निरास्रव होता है इसका यह वर्णन चल रहा है । निरास्रवता का अर्थ पूर्णतया निरास्रव नहीं लेना चाहिए किंतु संसार परंपरा बढ़ाने वाले कर्मों का आस्रव नहीं होता । एक तो होता है साक्षात् ज्ञानीभूत, वह तो है मोहरहित और परमात्मा अरहंत सिद्ध, जो कि साक्षात् ज्ञानीभूत है वह तो सर्वथा निरास्रव ही है किंतु जिसने अपने आपकी भूमिका में अपने आपमें उत्पन्न हुए रागादिक भावों से अपना उपयोग अलग कर लिया है अर्थात् अपने को मात्र चैतन्यस्वरूप ही देखा करता है ऐसे ज्ञानी संत को निरास्रव कहते हैं । जब आत्मबुद्धि पूर्वक समस्त रागादिभावों को त्याग दिया, लो मैं तो चैतन्य प्रकाश मात्र हूँ, राग भी होता है तो उसे भी जो भिन्न निरख सकता है, जैसे दूसरे जीवों के रागद्वेषों को हम भिन्न निरखा करते हैं और उनके राग द्वेषों को देखकर हम उनको मूढ़ समझा करते हैं इसी प्रकार अपने आपमें भी जो रागादिक विकार होते हैं उन्हें जो भिन्न निरख सकते हैं, रागादिक विकार होते संते अपने को मूढ़ मानते हैं ऐसे ज्ञानी संत चूँकि राग में राग नहीं रहा अतएव निरास्रव हैं ।
अनंत संसार का उपदेश―जैसे लाखों का कर्जा वाला पुरुष सब कर्जा चुका ले, केवल 1 रुपया कर्जा रह जाये तो उसे लोग कर्ज में शामिल नहीं करते हैं । वस्तुत: तो 1 पाई का भी कर्जा हो तो कर्जा कहलाता है । जहाँ 99 हजार 999 रुपये और 99 नये पैसे का कर्जा चुका दिया वहाँ एक नये पैसे की गिनती ही क्या होती है? इसी प्रकार अनंतकाल का बंध मिट चुका हो, केवल कुछ वर्ष संसार में रहना शेष है, मामूली स्थिति बनती है, ऐसा बनने के आस्रव को आस्रव नहीं गिना गया । करणानुयोग के अनुसार तो कषाय व योग तक आस्रववान है और द्रव्यानुयोग के अनुसार ज्ञानी को आस्रववान नहीं कहा गया । जो रागादिक से विरक्त रहता है और अपने में उत्पन्न हुए अबुद्धिपूर्वक रागादिक विकारों को भी जीतने के लिए शक्ति का स्पर्श कर रहा है वह ज्ञानी समस्त परवृत्तियों का उच्छेद करता है, वह तो निरास्रव है । तब ज्ञानी बुद्धिपूर्वक राग से तो विरक्त है और अबुद्धिपूर्वक राग को जीतने के लिए अपनी शक्ति का स्पर्श करता है इससे उसे निरास्रव कहा गया है । कर्मों को जीतना, कषाय को दूर करना, अनादि अनंत नित्य अंतः प्रकाशमान इस चैतन्यस्वभाव के स्पर्श बिना नहीं हो सकता ।
अपना आश्रय लेने का कर्तव्य―भैया ! इस जगत में हम आपका कोई साथी शरण नहीं है । जो लोग भला बोलते हैं, बुरा बोलते हैं वे अपने ही कषाय का परिणमन करते हैं । वे मुझमें कुछ कर नहीं सकते । यह मैं ही स्वयं अपने में विकल्प बनाकर अपने आपमें दुःख या सुख का परिणमन कर रहा हूँ, अब मेरा जितना भी भविष्य है वह सदा भविष्य अपने धर्म अधर्म भावों के ऊपर है । अपने को सबसे निराला जो मात्र उपयोग में देखा जाये तो उस दृष्टि में इतनी सामर्थ्य है कि भव-भव के और भव के ही नहीं, अवधिज्ञान से अगम्य अनंत भवों के भी कर्म क्षणमात्र में ही ध्वस्त हो सकते हैं । कदाचित् अब से पहिले निगोदिया जीव हो कोई और निगोदिया जीव कुछ सागरों पर्यंत रह गया हो तो उसके अनंत भव हो जाते हैं । जो अवधिज्ञानी हो वह असंख्यात भी समझ सकेगा, इससे ऊपर की गणना अवधिज्ञान के विषय से परे है । इतने अनंत भव के कर्म भी आज कर्म सत्ता में हो सकते हैं । वे समस्त कर्म ध्वस्त हो जाते हैं । अपने स्वरूप के स्पर्श की कितनी अलौकिक महिमा है?
इस वर्णन को सुनकर जिज्ञासु जीव को यह प्रश्न हो सकता है कि जब समस्त द्रव्यप्रत्यय की संतति जीवित है? कर्मों का सत्त्व भी है, कर्मो का उदय भी चल रहा है, फिर भी उस ज्ञानी को नित्य निरास्रव कहें, यह कैसे हो सकता है? इसके उत्तर में यह गाथा कही जा रही है । यहाँ चार गाथाएँ एक साथ कही जायेंगी ।