वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 179-180
From जैनकोष
जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं ।
मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो ।।179।।
तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं ।
बज्झंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा ।।180।।
बंध विधि―जैसे किसी पुरुष के द्वारा ग्रहण किया गया आहार पेट की अग्नि से संयुक्त होकर नाना प्रकार के मांस, मज्जा, खून आदि भावरूप परिणमता है उसी तरह ज्ञानी जीव के पूर्व में रखा हुआ जो द्रव्यप्रत्यय है वह भाव प्रत्यय से संयुक्त होकर ज्ञानावरणादिक नाना प्रकारों के पुद्गलकर्म को बाँधता है ।
बंधनमुक्ति विधि―भैया ! यह जो कर्मों का बंधन है वह शुद्धनय से छूटेगा । अपने जीवन में प्रेक्टिकल भी यह बात करके देख लो, जब यह चित्त अपने आत्मा को छोड़कर अन्य पदार्थों में विकल्प नहीं करता है, उनका ख्याल छोड़ देता है और स्वयं जिस स्वरूप में है ज्ञानमय उस सहजस्वरूप में जब अपने को देखता है तो इसके ऊपर कोई संकट है क्या? कोई संकट नहीं है और जहाँ अपने आत्मस्वरूप के ध्यान से चिगे और किसी भी बाहरी पदार्थ में चित्त लगा वहाँ चित्त में शल्य संकट क्षोभ सब पैदा हो जाते हैं ।
सहज आनंद का सामर्थ्य―अब जरा अपना परिणाम तो देखो कि इस स्थिति में किसी भी मिनट रह भी पाता है क्या कि जब इसे अन्य पदार्थ का भान न रहे, ख्याल न आए, केवल शुद्ध ज्ञानस्वरूप ही उपयोग में रहे । ऐसा अवसर पाया कभी? जिसने ऐसा अवसर पाया वह धन्य है । भाई, सीधी बात तो यह है कि इन बाहरी पदार्थों का विकल्प हटाकर केवल अपने शुद्ध ज्ञानप्रकाश में उपयोग जाये, उसकी कोशिश करिये । किसी क्षण बैठकर, हिम्मत बनाकर कि जब सब भिन्न पदार्थ हैं, और किसी भी पदार्थ से हमारा रंच भी हित नहीं है तो भी विकल्प चार मिनट किसी भी परवस्तु का ख्याल न आने दें, फिर देखो अपने आपमें कितना अलौकिक ज्ञानप्रकाश उपयोग में आता है और कितना अनुपम आनंद प्रकट होता है । उस आनंद में ही ऐसी सामर्थ्य है कि भव-भव के बाँधे हुए कर्मों को दूर कर देता है ।
शुद्धनय से च्युत होने की स्थिति में गुजरने वाली घटना पर एक दृष्टांत―जब शुद्धनय की दृष्टि से च्युत हो जाते हैं तो नाना प्रकार के कर्मों का बंधन, चिंताएं, शल्य उत्पन्न हो जाते हैं, उसके लिए एक दृष्टांत दिया गया है, मनुष्य ने आहार किया, जब तक भोजन मुख में नहीं चबाया, न गले से गटका तब तक अपना सब प्रकार का वश है खायें चाहे न खायें । जो नुकसान करने वाली चीज है उसे न खायें या कम खायें । सब प्रकार का वश है और जो खा लिया और गले से नीचे चला गया, अब उस पर आपका क्या वश है? क्या ऐसा हो सकता है कि कोई रोग बढ़ाने वाली चीज खाने में आ गई तो ऐसा सोचें कि यह न खाया हुआ हो जाये, यह तो खाने की चीज न थी, तो क्या उसे हटाया जा सकता है? नहीं । कदाचित उल्टी वगैरह भी कराकर हटाया जा सके तो वह हटाना है क्या? नहीं । या कुछ भी हो । जब तक भोजन नहीं किया तब तक स्वाधीन है, भोजन कर चुकने के बाद उदराग्नि में पहुंचने पर जैसा जो कुछ होना है, हो रहा है ।
दृष्टांत में भोजन का प्रकृति और प्रदेशरूप बंधन―वही भोजन कुछ मांसरूप परिणम जाता है, कुछ चर्बी बन जाता है, कुछ खून बन जाता है, कुछ मल बन जाता है, कुछ पसीना बन जाता है । भोजन तो किया एक ढंग का, पर उदराग्नि का संबंध पाकर उस भोजन में जैसी योग्यता है, शक्ति है उस रूप परिणम जाता है । यह तो उनकी प्रकृति हुई और स्कंध संबंध में यह हुआ उसका प्रदेशबंध ।
दृष्टांत में भोजन का स्थिति बंधन―परिणम चुका मांस खून आदि रूप में तो यह खून कितने दिन तक रहेगा? यह मल कितने दिन तक रहेगा? कोई 12 घंटे, यह मूत्र कोई 6 घंटे, यह पसीना कोई आध घंटे । गर्मी के दिनों में तो भोजन करते जाते हैं और वह भोजन पसीने के रूप में निकलता जाता है । तो जैसे पेट में आए हुए भोजन का जो परिणमन है वह अपनी जुदा-जुदा स्थिति रखता है । कोई 10 घंटे रह गया, कोई 12 घंटे रह गया, कोई आध घंटे रह गया, कोई दो घंटे रह गया तो ऐसी विचित्र स्थितियां हो जाती हैं ।
दृष्टांत में भोजनस्कंध का अनुभाग बंधन―उक्त तीन बंधनों के साथ ही कोई कम शक्ति देता है, कोई बड़ी शक्ति देता है, कोई शक्ति देता ही नहीं है । ऐसा अनुभाग बंधन हो जाता है । जैसे इस भोजन का जो वीर्यरूप परिणमन है वह सबसे अधिक शक्ति देता है, जो मांसरूप परिणमन है उससे कम, जो खूनरूप परिणमन है उससे कम, जो मलरूप परिणमन है उससे कम, जो पसीनारूप परिणमन है उससे कम शक्ति देने वाला है । तो भिन्न-भिन्न शक्तियां पड़ जाती हैं ।
दृष्टांत―इसी प्रकार जीव ने जब तक राग-द्वेष परिणाम नहीं किया तब तक तो इसका वश है, करे न करे, कम करे, विवेक से करे, किंतु जहाँ मन से स्वच्छंद बनकर यह राग-द्वेष-मोह में प्रवेश कर गया, परिणाम बन गये अब अपने आप ही विचित्र कर्मों का बंधन हो जाता है ।
कर्मों में प्रकृतिबंधन व प्रदेशबंधन, स्थितिबंधन व अनुभागबंधन का कथन―जो नये कर्म बंधते हैं उन कर्मों में ज्ञानावरण नामक, कुछ दर्शनावरण नामक, कुछ वेदनीय, कुछ मोहनीय, कुछ आयु, कुछ नामकर्म, कुछ गोत्र, कुछ अंतराय नामक नाना प्रकार के परिणमन बन जाते हैं । यह तो उनकी प्रकृति बनी और वे कार्माण परमाणु स्कंध जो जीव के साथ चिपटे हैं वह प्रदेशबंध हो गया । उसमें बद्ध कर्म में स्थिति पड़ जाती है वे सागरों पर्यंत भिन्न स्थिति लेकर रहेंगे । ऐसी स्थिति बन जाती है, और साथ ही उन कर्मों में फल देने की शक्ति हो जाती है कि यह इतने दर्ज का फल देगा, यह कितने दर्जे का फल देगा, देख लो अपने आप पर कितना बड़ा संकट है?
वर्तमान परिणमन और यथार्थ कर्तव्य―जरा-सा पुण्य हुआ, वैभव हुआ तो लोक में बड़ा कहलाना भूल नहीं सकते, अहंबुद्धि बनी रही, पर यह नहीं देखता कि इस जीव पर कितने संकट छाये हैं? कितना तो कर्मजाल बना हुआ है और कितने भवों का संतान बना हुआ है । अभी मनुष्य हैं, मरकर और कुछ बन गए तो क्या कर लोगे? कौन मित्र मदद कर देगा? इस संसार में यह जीव अशरण है । इसे अपने ही परिणामों से पूरा पड़ता है । ये सब संकट किस अपराध से आए हैं? वह अपराध है केवल एक । हमारा जो सत्य सहजस्वरूप है उस रूप हम अपने को नहीं मान पाये, अपने को नानारूप मान बैठे, इतनी भर तो भूल है और इस भूल पर शूल इतने छा गए हैं कि जिनका बरदाश्त करना कठिन हो रहा है । एक-एक भूल मिटे तो हमारे लिए वह मोक्ष मार्ग खुला हुआ है । जिस मार्ग पर चलकर अनंत महापुरुष, परम आत्मा हुए हैं । जिनकी आज हम आराधना करते हैं, वैसे ही अपने स्वरूप पर दृष्टि देना है, अपने आपका अनुभवन करना है ।
द्वंद्व में दंद-फंद―जैसे कोई बालक अकेला है तो अभी स्वतंत्र है, और जब शादी हो गई तो वह अपने को मानने लगता है कि मैं स्त्री वाला हूँ । तो देखो उसके कितनी शल्य और चिंताएं छा जाती हैं? ये आकुलताएँ आ गई केवल इसलिए कि यह मान लिया कि मैं स्त्री वाला हूँ । और कभी बच्चा हो गया तो यह मानने लगे कि मैं बच्चे वाला हूँ । अब उसकी मनुष्यता में और भार आ गया । और मान लो बहुत अच्छी आय है, हर एक प्रकार का आराम है फिर भी चिंताएँ नहीं छोड़ सकते । हर्ष और मौज में भी आकुलताएँ हैं सुख में भी आकुलताएं हैं और दुःख में भी आकुलताएं हैं । सांसारिक कोई भी सुख आकुलतारहित नहीं है । बहुत बढ़िया रुचिकर भोजन करते हैं फिर भी शांति से भोजन नहीं करते हैं, भोजन करते हुए भी क्षोभ एकदम विदित हो जाता है । बिना आकुलताओं के इस संसार में कोई सुख भोग नहीं सकते । सर्वत्र आकुलताएं ही आकुलताएं है । यहाँ विश्वास करना धोखा है ।
वर्तमान खतरा―यह सब तो बिना बुने हुए पलंग पर बिछा हुआ चादर है । जैसे बच्चे लोग बिना बुने हुए पलंग पर चादर तान देते हैं और कच्चे सूत से उस पलंग की पाटी में छोर बाँधकर उस पलंग को सजा देते हैं और किसी बच्चे को बुलाकर उस पलंग पर बिठाते हैं तो उसके बैठने पर उसके पैर और सिर दोनों एक साथ हो जाते हैं । अपने चरण में अपना सिर धर लेता है । तो जैसे वह धोखे का पलंग है इसी प्रकार यह वैभव, संपदा, परिवार का संग जिसके लिए लौकिक जन हाले फूले फिरते हैं ये सब खतरे वाले हैं । समय पर पाप का उदय आये, सो आगे भी दुःख भोगना पड़ता है, कहीं शांति नहीं है, किंतु मोही जीव इन परद्रव्यों का ही ख्याल करके मौज मानते हैं ।
स्वप्न का सुख―एक लकड़हारा कुछ अपने साथी लकड़हारों के साथ लकड़ी लेकर चला । धूप का समय था । रास्ते में एक बड़ा वट का पेड़ मिला । पेड़ के नीचे चारों ओर सब लोगों ने अपनी-अपनी लकड़ी टिका दिया और सोचा कि आराम कर लें । आराम करने लगे इतने में नींद सभी के आ गई । उनमें जो मुखिया लकड़हारा था उसे गहरी नींद आई । जाना तो था 3 बजे और बज गए 4 । सबकी नींद खुल गई, पर उस मुखिया की नींद न खुली । वह नींद में क्या देख रहा है कि मैं इस नगर का राजा बना दिया गया हूँ । सिंहासन पर बैठा हूँ । अब देखो पहिने तो है फटी लंगोटी जैसे कुछ थोड़े कपड़े, पर स्वप्न में देख रहा है कि मैं राजा बन गया हूँ । बहुत से लोग देख रहे हैं, मुझे नमस्कार कर रहे हैं, सबका मुजरा ले रहे हैं और लकड़हारों ने चूंकि देर बहुत हो गई थी सो उसे पकड़कर जगाया । चलो उठो चार बज गए । अब वह नींद से उठा, जगाने वालों से लड़ने लगा, बड़ी गालियाँ देने लगा । तुमने मेरा मौज मिटा दिया, मैं एक राजा था और कितने ही दरबारियों के बीच में बैठा था, पर तुमने मेरा राज्य छीन लिया । सब लोग यह देखकर दंग रह गए कि मेरे मुखिया साहब क्या कह रहे हैं । तो वह तो था तीन मिनट का कल्पित राज्य और यह समझ लो मोह नींद का स्वप्न है 25- 30 वर्ष का ।
मोह नींद के स्वप्न में कल्पित मौजें या आकुलतायें―भैया ! इस लोक के अनंत काल के आगे ये 25-50 वर्ष क्या कीमत रखते हैं? यहाँ पर भी स्वप्न जैसा ही सारा काम हो रहा है । इसे जरा व्यापक दृष्टि लगाकर देखो । मैं आत्मा अनादि से हूँ, अनंत काल तक रहने वाला हूँ । इन अनंत कालों के आगे ये 40-50 वर्ष तो स्वप्नवत् ही हैं । यह स्वप्न नहीं है तो और है क्या? इसमें मस्त मत हो । जैसे स्वप्न में ही कोई चीज गुम जाये तो यह स्वप्न में ही रोता है, इसी प्रकार इस मोहरूपी स्वप्न में कोई चीज गुम जाये तो दु:खी होता है, रोता है । तो इस मोह की नींद में ही यह जीव हंसता है और मोह में ही रोता है । वस्तुत: इस जीव का कुछ नहीं है । तो इसके परिणाम में इसे मिलता क्या है? केवल कर्मबंध और आकुलताएँ । हाथ कुछ नहीं आता ।
राग-द्वेष करने पर दुर्दशा न होने देने का अनधिकार―तो जैसे जब तक न खाया तब तक अपना वश है और खा लेने पर उस भोजन का जो कुछ भी होना है स्वयमेव होगा । इसी प्रकार जब तक इसने राग-द्वेष नही किया है तब तक स्ववश है, पर विकार करने के बाद जो कुछ भी कर्मबंध होता है वह होकर ही रहता है । जैसे मुख से वचन जब तक नहीं निकले तब तक तो इसके सामर्थ्य है कि वह सोच कर बोले, पर वचन मुख से निकल जाने के बाद फिर वह चाहे कि ये वचन मुझे वापिस मिल जायें तो क्या यह हो सकता है? नहीं हो सकता । जैसे कोई लोग गाली दे देते हैं तो कहते हैं भैया ! हमारे वचन हमें वापिस दे दो । तो क्या वे वचन मुट्ठी में लेकर वापिस मिलेंगे? अरे वे वचन वापिस न हो सकेंगे, केवल एक कल्पना बना ले इतना ही हो सकता है । इसी प्रकार जब यह राग द्वेष में उपयुक्त हो जाता है तब अपना पतन कर लेता है और दूसरों की बरबादी का भी निमित्त हो जाता है । राग द्वेष होने पर तथा रागद्वेषवश चेष्टा हो जाने पर फिर पश्चात्ताप करने से वह परिणमन अपरिणमन नहीं बन जाता । ‘‘वह पाप मेरा मिथ्या होओ’’ ऐसी माफी मांगने से माफी नहीं मिलती । हां, यह बात अवश्य है कि सहजस्वभावमय अंतस्तत्त्व के दर्शन होने पर, उस स्वरूप की उपासना के होने पर अंतर्ध्वनि निकलती है कि अन्य सब दुष्कृत हैं, मिथ्या है, यहाँ कहाँ हैं ? इस परम उपासना के प्रसाद से कर्मकलंक क्षीण हो सकते हैं । अपना तो कर्तव्य है कि वीतराग ज्ञानस्वरूप की भावना से राग द्वेष पर विजय पाना चाहिये ।
आस्रव से दूर रहने के लिये मन वचन काय की सम्हाल का अनुरोध―भैया ! मुख से निकले हुए वचन अपना कर्म करके ही रहते हैं । उनपर वश नहीं चलता है । किसी को बुरा बोल दिया, किसी की निंदा कर दी, निकाल चुका वचन, अब तो उसका झगड़ा बन गया । उस पर अब वश नहीं रहा । जब तक वचन न निकले थे तब तक तो वश था । जैसे धनुष बाण धनुर्धारी के हाथ में है, जब तक बाण न छोड़े तब तक वश है, जब विचार कर लें और धनुष पर बाण लगाकर तानकर छोड़ दिया और फिर कहे कि अरे बाण ! मैंने भूल से छोड़ दिया, तू वापिस आ जा, तो क्या वह वापिस आ सकता है? नहीं आ सकता है । इसी प्रकार यह भी तो वचनबाण है । जब गुस्से में होकर बोलते हैं तो यह मुख धनुष की तरह पर जाता है । जैसा धनुष का आकार है वैसा ही इसका मुंह हो जाता है । मुंह फाड़कर देख लो, एक तरफ धनुष का डोरा-सा है और एक तरफ धनुष का डंडा सा है । अगर यह तन गया और उससे वचनबाण निकाल दिया, तो फिर तुम्हारा वश नहीं है कि उसे वापिस कर लो । जिस पर वचनबाण छोड़ दिया उसके तो वह घाव करेगा ही, लेकिन जिसके यह वचनबाण बिंधेगा वह कुछ कमजोर तो नहीं है। आखिर चेतन ही तो है, वह उपद्रव ढा देगा, झगड़ा और विवाद में पड़ जायेगा । मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह तन, मन, वचन इन तीनों चीजों का सदुपयोग करे । इस मनुष्यजीवन का दुरुपयोग न हो और तन, मन, वचनों का दुरुपयोग न हो तो उससे आस्रव में अंतर पड़ जाता है । इसी कारण ग्रंथकारों ने कहा है कि कायवाङ्मन:कर्मयोग:, स आस्रव: । काय वचन व मन इनका योग ही आस्रव है । ये आस्रव नहीं हैं पर आस्रव के निमित्तभूत होने से उसका ही उपचार किया गया है । जब हम तन, मन, वचन को वश में रखते हैं और अपने उपयोग को शुद्धनय के विषय में लगाते हैं, आत्मा के शुद्ध स्वरूप को देखते हैं तब तो अबंधक हैं और जैसे ही अपने स्वरूप से चिगे कि विकट बंधन में पड़ जाते हैं ।
अपने भले बुरे के लिये स्वयं पर जिम्मेदारी―भैया ! पलंग पर पड़े हैं तो क्या, घर में बैठे हैं तो क्या, किसी भी जगह हैं तो क्या, चल भी रहे हैं तो क्या, उपयोग तो अपने आपके पास है । जैसे चलते फिरते बंबई और कलकत्ता का ख्याल किया है, तो ऐसा ख्याल किया जाता है कि रास्ते का पता भी नहीं पड़ता कि कैसे यहाँ पर आ गए । तो जैसे चलते फिरते हम उपयोग में एकाग्रता से परवस्तुओं का विचार किया करते हैं, ऐसे ही हम इस प्रकार चलते फिरते, पड़े, लेटे, या खाते पीते भी अपने उपयोग से अपने शुद्ध स्वरूप की दृष्टि किया करें तो उसे रोकने वाला कौन है? हम ही न करें तो हमारा अपराध है । करते तो हम अपराध हैं, अपने भावों को ठीक हम नहीं रख सकते हैं, पर दोष देते हैं दुनिया भर को । अमुक भैया ने यों अपराध किया इसलिए मुझे नुकसान हुआ । उसने मुझे यों कह दिया इसलिए ऐसा हो गया ।
नाच न आवे आंगन टेढ़ा―भैया ! सब जीव स्वतंत्र हैं, वे अपने में अपना परिणमन करते हैं । वे अपनी शांति के लिए अपनी कषाय की चेष्टा करते हैं, हम आप अपनी ही कल्पनाएं बनाकर अपने आपमें चिंता और शल्य बनाते हैं, और पर का नाम लगाते हैं कि इसने मुझे दुःखी किया । जैसे एक कहावत में कहते हैं नाच न आवे आंगन टेढ़ा । यह बहुत बढ़िया मंदिर बना है, नाप तोल से कोई कसर तो नहीं है और इसमें नृत्य शुरू करा दिया जाये संगीत द्वारा । नाचने वाला कभी सफल होता है और कभी नहीं सफल होता है । यदि उसका नाच न जमे तो अपनी कला का दोष छिपाने के लिए कहता है कि अजी आज तो नृत्य जमेगा नहीं । यह आंगन तो ढंग का नहीं है । यही है―नाच न आवे आंगन टेढ़ा ।
संकट से बचने का यत्न―सो भैया ! हम दुःखी तो होते हैं खुद अपने भ्रम से, राग-द्वेषों से और दोष दिया करते हैं दूसरों को, घर के भैया बड़े बुरे है, अमुक पुरुष ने मेरे साथ यों बर्ताव किया । अरे अपने ज्ञानस्वभाव में डुबकी लगा ले, तुझे कोई दु:खी नहीं करता । जैसे कभी गाँव के बाहर जाते हुए मधुमक्खियाँ किसी के पीछे काटने के लिए लग जाएं तो वह दुःखी होता है। कैसे इनसे छूटें? क्या पेड़ के नीचे जाने से वे मक्खियाँ काटना बंद कर देगी? नहीं । क्या घर में घुस जाने से या किवाड़ बंद कर देने से वे काटना बंद कर देंगी । नहीं । तो अब वह अशरण है । उसे केवल एक उपाय है उनसे बचने के लिए कि पास में जो एक तालाब है उसमें घुस जाये तो फिर वे मक्खियाँ क्या उसका कर लेंगी? जरा समझदार हो तो थोड़ा पानी के भीतर ही तैरकर 20 हाथ दूर निकल जाये । लेकिन पानी में कब तक रहेगा, दिल घबड़ा जायेगा । वह पानी से सिर निकालता है फिर उसे मक्खियां घेर लेती हैं । फिर डुबकी लगाकर 10-20 हाथ दूर निकल जाये तो वह बच जाता है ।
शल्यों का लगाव और विलगाव―इसी प्रकार जीव को ये सब चिंता, शल्य इत्यादि घेरे हुए हैं, यह घबड़ा गया, अब इसको कोई उपाय नहीं दिखता । क्या पिता की गोद में बैठ जाने से चिंताएँ और शल्य मिट जायेंगी ? नहीं । किसी को घर में इष्ट का वियोग हो जाये तो उसे समझाने के लिए कितने ही लोग आते हैं, प्रेमी रिश्तेदार आते हैं, साले, बहनोई आदि ये सब समझाते हैं, भैया दुःखी न हो, पर उसके अंदर तो एक कल्पना उठ गई है । उस कल्पना का शल्य कौन मिटा दे? उसका शल्य तो तब मिट सकता है जब कि वह ज्ञान-सरोवर में डुबकी लगा ले ।
प्राक् पदवी में सम्यग्दृष्टि का पुन: पुन: यत्न―सम्यग्दृष्टि के कर्मविपाकवश जब चिंता और शल्य घर कर जाती हैं तो वह यही उपाय करता है कि दृष्टि झुकाकर अपने आपके शुद्धस्वरूप का अनुभव कर लेता है किंतु इस पदवी में ऐसे ज्ञानसरोवर के बीच में कब तक डूबा रह सकता है? इसे घबड़ाहट उत्पन्न हो जाती है क्योंकि भीतर में राग की प्रेरणा हो गई तो फिर अपना सिर निकालता है, अपना उपयोग फिर बाहर में लगाता है, थोड़ी देर फिर कुछ पूर्व अनुभव के संस्कार से चैन से रहा, फिर बेचैन हो जाता है । इस बेचैनी और शल्य को दूर करने के लिए वह इस ज्ञानसरोवर में डुबकी लगा जाता है । जब तक यह जीव बाह्यपदार्थों से हटकर केवल ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व की दृष्टि में रहता है तब तक यह जीव अबंधक है, चिंता और शल्य से दूर है ।
शुद्धनय से चिगने पर बंधन―ज्यों ही वह शुद्धनय से चिगा त्यों ही वे संकट फिर सामने आ जाते हैं । तो इस शुद्धनय से चिगने पर चूंकि इसके रागादिक भाव का सद्भाव है सो पूर्वकाल में बाँधे हुए इन द्रव्य पुद्गल कर्मोदयों का अपने निमित्त के हेतुभूत रागादिक के सद्भाव के कारण कर्मबंधरूप कार्य होना अनिवार्य है । सो ये अन्य-अन्य प्रकार के ज्ञानावरणादिक पुद्गल कर्मों के रूप से परिणम जाते हैं । इसके लिए जो भोजन का दृष्टांत दिया है इससे बिल्कुल बात स्पष्ट हो जाती है ।
बंध के प्रसंग में हमारा विपरिणमन पर ही अधिकार―भैया जैसे लोग केवल उस बने हुए पटाका में आग ही छुआते हैं, पटाका फिर अपने आप फूटता है और जो सुर्रू देकर उठने वाला पटाका है, जो लाल, पीला, हरा रंग देते हैं । क्या उनको हम करते हैं ? नहीं । केवल आग छुआ दी फिर काम स्वयमेव हो जाता है । इसी तरह हमने तो केवल राग-द्वेष-मोह किया, फिर शल्य होना, कल्पना होना, नवीन कर्मबंध होना, ये सारी की सारी बातें इस जीव में अपने आप हो जाया करती हैं । इससे अपने आप में सचेत रहना चाहिए, परिणामों में मलिनता कदाचित न आए तो यह सबसे बड़ी भारी संपत्ति है ।
शुद्धनय से च्युत न होने की भावना―जो पुरुष वस्तु के सहज शुद्ध स्वरूप को देखता है वह कर्मों से नहीं बंधता । कर्म को बांधने वाला भाव है―दो द्रव्यों के परस्पर में संबंध तकने वाला भाव। जो शुद्धनय का आलंबन करके वस्तु के एकत्वस्वरूप को देखता है वह पुरुष अबंधक है । यहाँ तात्पर्य यह लेना कि शुद्धनय हेय नहीं है । हे प्रभो ! लौकिक विपत्तियाँ चाहे कितनी ही आ जायें, संपत्ति की कमी हो, लौकिक इज्जत भी नष्ट हो, सर्व परिचित लोग भी विपरीत परिणमें, कुछ भी हो, यहां कोई आपत्ति नहीं है । यह तो परवस्तु का परिणमन है । जिसको जैसा परिणमना है परिणमता है किंतु मैं अपने अंतर में अपने उपयोग द्वारा एक उस शुद्धनय का आलंबन लिए रहूँ । जिसके प्रताप से कर्मों का संवर और निर्जरण होता है ।
शुद्धनय के आलंबन के प्रताप से सिद्धि―भैया ! शुद्धनय का त्याग न रहे, तो आस्रव और बंध नहीं होता । और जहाँ शुद्धनय का त्याग हुआ कि बंध होने लगता है । देखो समस्त पदार्थों को वे स्वयं अपने आपकी सत्ता के कारण जैसे अवस्थित हैं उस ही रूप में उन्हें निरखें । सर्व संपत्ति से उत्कृष्ट संपत्ति क्या है अंतर में शुद्धनय का आश्रय न छोड़ना । ऐसी भी विपदाएँ आवें कि जिनसे तीन लोक के प्राणी भी चलते हुए मार्ग को छोड़ दें, फिर भी यदि उसके शुद्धनय का आलंबन नहीं छूटा है तो वह नुकसान में नहीं होता, लाभ में होता है । जितने भी अभी तक महात्मा सिद्ध बने हैं वे एक इस शुद्धनय का आलंबन करके ही बने हैं ।
उन्नत होने वाले जीव का लक्ष्य―जैसे कोई सीढ़ी से चढ़कर ऊपर आता है तो जिस सीढ़ी पर चढ़ना है उस सीढ़ी को नहीं देखता है, आगे की ऊपर की सीढ़ी को देखता है । जिस सीढ़ी पर वह पैर रखता है उस सीढ़ी से प्रेम नहीं करता, उसका प्रेम ऊपर आने को है । इसी प्रकार रागादिक उदयवश विवेक जागृत होने के कारण कुछ शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति होने पर भी शुभ क्रियाओं की प्रवृत्ति सीढ़ी पर पैर रखने के समान है । जिस सीढ़ी पर पैर रखा जाता है उस सीढ़ी पर दृष्टि नहीं रहती है, ऊपर दृष्टि होती है, इसी प्रकार जिस प्रवृत्ति में यह सम्यग्दृष्टि जीव होता है उस प्रवृत्ति में इसका लक्ष्य नहीं रहता है, इसका लक्ष्य ऊपर की ओर रहता है । वह कौन-सा पद है जिस पद की दृष्टि इस ज्ञानी जीव के रहती है, वह है परमार्थ पद, वस्तु के सहज स्वभाव का दर्शन।
शुद्धनय की आदेयता―कल्याणार्थी महापुरुषों को शुद्धनय कभी भी न छोड़ना चाहिए, अपने आपके ज्ञानस्वरूप में बँधा हुआ रहना चाहिए । अपने ज्ञान को स्थिरता और धीरता से बांधना चाहिए । यह हमारा बोध स्थिर है, गंभीर है, शांत है, अक्षोभ है । यह हमारा ज्ञान उदार है, राग-द्वेष में ही अनुदारता संभव है । मात्र जानन में अनुदारता कहाँ से आती है? वहाँ सर्व विश्व का ज्ञाता-द्रष्टा रहता है । यह इसकी महिमा अद्भुत है । लोक में सर्वस्व सार यही शुद्ध ज्ञानमात्र तत्त्व का दर्शन है । यह ज्ञानस्वभावी आनंदनिधान आत्मा है । इसमें स्थिरता करना चाहिए । यह स्थिरता शुद्धनय के आलंबन से प्रकट होती है और इस स्थिरता के प्रभाव से फिर शुद्धनय का ग्रहण दृढ़ होता है ।
शुद्धनय की सर्वंकषता―यह शुद्धनय कर्मों का सर्वंकष है । जैसे सेवकसी कसने का कद्दू आता है बारीक छेद वाला । यदि चाकू से बनाया जाये तो उसके खंड-खंड में बड़े-बड़े अंश हो जाते हैं, पर कद्दू कसकर कसने से वहाँ सर्वंकषता हो जाती है, कण-कण कस दिया जाता है । इसी प्रकार यह शुद्धनय की दृष्टि, आत्मा के सहज एकत्वस्वरूप की दृष्टि सर्व प्रकार की प्रवृत्तियों को, कर्मों को सर्वथा कस डालती है, बाहर कर देती है ।
उद्देश्यसिद्धि से कार्यसफलता―भैया ! भोजन बनाने का प्रयोजन तो भोजन खाना है । कोई भोजन तो खूब बनाया करे और खाने का काम ही न रखे तो उसे लोग पागल अथवा यह अविवेकी है कहने लगेंगे । इसी प्रकार हम लोग सारे काम तो करें, सुबह नहायें, मंदिर आएं, पूजा करने में 2 घंटे समय दें, स्वाध्याय करें, गुरु सत्संग करें, सब कुछ तो कष्ट करें, भोजन तो बनाएँ पर उसे खायें नहीं अर्थात् इन सब कष्टों के करने के फल में यह चाहिए था अनुभव कि एक आध मिनट सर्वविकल्पों को त्यागकर आत्मा के शुद्ध सहज ज्ञानज्योति का दर्शन करें, अलौकिक आनंद का ही भोग करें । यह करें । नहीं तो ये सर्व हमारे कर्म उसी प्रकार हुए कि भोजन बनाया और खाया नहीं।
अपना अंतिम और उत्तम सहारा शुद्धनय का अवलंबन―इस लोक से पार उतारने वाला कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है । मुझे किसी का कोई सहारा नहीं, इस लौकिक सुख सुविधा तक के लिए दूसरों का विश्वास नहीं है तो मुक्ति के लिए तो विश्वास ही क्या है? वह तो एक अनैमित्तिक काम है । जितना भी मेरा अनिष्ट हो सके, हो, जितना भी मुझ पर उपद्रव हो सकता हो, हो; सब इष्ट दूर हो जावें, और जितने भी उपद्रव उपसर्ग आ सकते हों, आयें, पर हे नाथ ! एक शुद्धनय का आलंबन मैं न छोड़ूँ । यह मैं शुद्धनय के प्रताप से अपने आपमें गुप्त रहकर अपना गुप्त कल्याण कर लूँगा । किसी भी मुमुक्षु पुरुष को शुद्धनय का त्याग कभी भी नहीं करना चाहिए । यह शुद्धनय सर्वकर्मों का सर्वंकष है ।
आत्माकेंद्र की स्थिति में ज्ञानव्यक्तियों का सिमटन―ये सर्व व्यवहारधर्म उनको भूल जाने के लिए किया जाता है । तो कोई कहे कि यह व्यवहारधर्म इसी व्यवहारधर्म को भूल जानें के लिए किया जाता है तो हम पहले से ही न भूले रहें । सो भैया ! इस प्रकार से भूलने के लिए नहीं कहा जा रहा है । व्यवहारधर्म करते हुए ऐसी अध्यात्म स्प्रिट लगाओ कि वहाँ केवल आत्मा के एकत्व स्वरूप का दर्शन हो, व्यवहारधर्म की खबर ही न रहे । जो पुरुष आत्मा के एकत्व के दर्शनरूप शुद्धनय में स्थित हैं, ओहो वे अपने ज्ञान की व्यक्तियों को तत्काल समेट लेते हैं । कितना विशाल ज्ञान है ज्ञानी पुरुष का? गुणस्थानों में समय-समय की बात तो आगम ज्ञान के प्रताप से ज्ञात है । तीन लोक, तीन काल के पदार्थों की रचनाओं का भी आगम ज्ञान के उपाय से बड़ा ज्ञान हुआ है । सिद्ध लोक तक की जानते हैं, नीचे निगोद स्थान तक की जानते हैं । 343 घनराजू प्रमाण लोक में कहाँ क्या है सबका ज्ञान है, किंतु जब शुद्धनय का आश्रय करके यह ज्ञात आत्मा के एकत्व का ज्ञान करता है तब सारे ज्ञान की विशेषता सिमिट जाती है, सिकुड़ जाती है ।
ज्ञानवृत्तियों के सिमटने का परिणाम निर्विकल्प आनंद―उन समस्त ज्ञान की वृत्तियों को समेटकर इन कर्मों के चक्कर से बाहर निकले हुए ज्ञानघन निश्चल शांतरूप निज प्रताप का यह अंतरात्मा अवलोकन करता है । व्यवहार का प्रवर्तन और निश्चय का अवलोकन इन दोनों का जहाँ समन्वय हो रहा है, बात मिल रही है ऐसी ज्ञानी संतों की यह चर्चा है । वे अपने आप उस सहजस्वरूप का अवलोकन करते हैं । तात्पर्य यह है कि जब यह जीव केवल आत्मा के सहजस्वरूप को देखता है तब समस्त ज्ञान विशेष को गौण करता है । जैसे भोजन जिस काल बनाया जा रहा है उस काल नाना बुद्धियां होती रहती हैं । इसमें अच्छा घी डाला, खूब सेंका, बादाम भी डाला, इतना काम और करना था, चीज बहुत बढ़िया बन रही है, इसमें सारी मूल्यवान सामग्री डाली जा रही है । नाना विकल्प किए जाते हैं और पात्र में परोसा तब तक विकल्प चलते हैं, पर जिस समय वह केवल उसका स्वाद एकचित्त होकर लेता है तो इसमें क्या पड़ा है, कितना पड़ा है―वह सब ज्ञान विशेष सिमट जाता है । केवल वह स्वाद का आनंद लेता है ।
शाश्वत स्वाधीन आनंद पाने की अलौकिक वृत्ति―अलौकिक जनों की अलौकिक प्रवृत्ति होती है! वे सारे विश्व को जानते हैं । असंख्यात द्वीप समुद्र हैं । उनमें कहाँ क्या रचना है, अधोलोक ऊर्द्धलोक कहाँ है, इस प्रकार का सर्जन कहाँ है, कैसे कर्म हैं, कैसे बंधन हैं, कैसे उदय होता है और समय-समय पर क्या स्थितियां बनती हैं? बड़ी गहन सूक्ष्म चर्चा ज्ञात है, इतना बड़ा ज्ञान है और इतना ज्ञान विकल्प इनके बहुत काल तक रहता है । किंतु जब वे उन सब ज्ञान के फलरूप शुद्धनय की दृष्टिरूप अनुभव करते हैं उस समय वह सब ज्ञान विशेष सिमट जाता है । वहाँ ठहरता नहीं है । और केवल एक वीतराग निर्विकल्पसमाधि से उत्पन्न हुआ शाश्वत निर्वाण स्वाधीन सहजानंद अनुभूत होता है ।
शुद्धनय की अवक्तव्य महिमा―इस शुद्धनय को कौन वर्णित कर सकता है? सहस्र जिह्वायें भी हों तो भी इसका प्रताप कहा नहीं जा सकता है । हमारे सारे संकटों को दूर करने में समर्थ है तो वह इस शुद्धनय का आश्रय ही है । अपने जीवन का एक लक्ष्य बनाओ । वस्तुस्वरूप अपने आप सहज जैसा है उसके ज्ञाताद्रष्टा रहो । इस शुद्धनय के आलंबन से ही मुक्ति प्राप्त होती है । पर व्यवहारनय से तो कुछ ज्ञान न करें और केवल शुद्धनय की महिमा जानकर सीधा शुद्धनय में प्रवेश करने का साहस करें तो उसके शुद्धनय का आलंबन होना कठिन है । अत: दोनों नयों का परिज्ञान करके और विरोध न करके आत्महित के लिए शुद्धनय का आश्रय करें । जो शुद्धनय को देखता है वह साक्षात् प्रभु के दर्शन करता है ।
सहज परमात्मत्व के दर्शन का आनंद या अनुभव वचनों से नहीं बताया जा सकता है । वचनों से तो किसी भी इंद्रिय का विषय नहीं बताया जा सकता है । कल सिनेमा में किसी ने जो कुछ देखा हो उसे आज बताये तो क्या बता सकता है? नहीं । कहीं से बहुत उत्तम राग रागनियों का संगीत सुनकर कोई आया हो और बहुत ही ठाठ का आनंद जमा हो, उसको बाद में वचनों से बताना चाहे तो बता सकता है क्या? नहीं । अधिक से अधिक इन शब्दों में कहेगा कि वहाँ बहुत आनंद जमा था । किसी भोज्यवस्तु का स्वाद जो लेता है वह दूसरे को बताना चाहे तो क्या बातों से बताया जा सकता है? नहीं । इंद्रिय विषयों के अनुभव की भी बात दूसरों को वचनों से बताई जाना अशक्य है । उसका तो उपाय यही है कि वह वस्तु उसको खिला दी जाये तो जान जायेगा । दूसरे दिन सिनेमा दिखा दिया जाये तो समझ जायेगा । इस शुद्धनय के आलंबन से जो एक विलक्षण दुर्लभ आत्मीय आनंद प्राप्त होता है उस आनंद को किसी प्रकार वचनों द्वारा बताया जा सकता है क्या? नहीं ।
सहज आनंद की रुचि में उसकी प्राप्ति की सुगमता―उस सहज आनंद के जानने की तो तरकीब इतनी है कि कुछ समय, महीनों या वर्षों आत्मज्ञान व आत्मसंयम करिये । अधिक से अधिक समय निकालिए आत्मकल्याण के लिए, आत्मचिंतन के लिए । अन्य काम में फंसे होने की हालत में संक्लेशसहित एक घंटा समय बचाकर धर्मध्यान करने के लिए आयें तो वह धर्म का क्षण मिलना दुर्लभ है? समय ही धर्म के लिए ही सब ओर चल करके पछतावा का मन बना करके अन्य कामों के लिए जाना पड़े, ऐसी धर्म की रसीली स्थिति बने तो ऐसे में आत्मानुभव का क्षण मिलना सुगम है । इस शुद्ध नय में कोई अंतर्मुहूर्त भी तो ठहर जाये, वहाँ शुक्ल ध्यान की प्रवृत्ति होकर केवलज्ञान उत्पन्न हो सकता है । यद्यपि यह सामर्थ्य आजकल हम आपमें नहीं है किंतु इसकी रुचि तो तीव्र होनी चाहिए ।
अवसर चूकने का दुष्परिणाम―भैया ! धन वैभव, जिसके मिलने के कारण विवाद और संकट खड़े हो जाते हैं उनकी उपेक्षा करके प्रधानतया एक इस आत्मानुभव के लिए तो कमर कसकर रहना चाहिए । अन्यथा हमें तुम्हें जानने वाला कौन है? इस समय तो यह सारा स्वप्न है । स्वप्न में जैसे सारी बातें सत्य मालूम देती हैं इसी तरह मोह के स्वप्न में सारी बातें सत्य मालूम होती हैं, सारी चीजें सत्य शरण मालूम देती हैं । यहाँ से हटे इस 343 घन राजू प्रमाण लोक में न जाने किस जगह फिके, तो वहाँ शरण कौन होगा? एक निर्णय रखो, शरीर छिदता हो; छिदे, विपत्तियां आती हों; आएँ, लोग विरुद्ध बनते हों; बने, कितने भी उपद्रव आएँ पर तुम्हारा काम तो एक अपने आपमें उस शुद्धनय का आश्रय लेना है । इस दुनिया से अपरिचित बन जाओ । हमें दुनिया में कोई जानता ही नहीं । जिसको हम नहीं जानते उससे हमारा स्नेह नहीं होता है, भय नहीं होता है, चिंता नहीं होती है । यह सारा जीव लोक मुझसे अपरिचित है, मैं किसी को नहीं जानता हूँ और न मुझे कोई जानता है । मोह की नींद के स्वप्न में यह संबंध माना जा रहा है ।
भेष के ज्ञान में भेष के प्रभाव की समाप्ति―अब यह आस्रव अधिकार पूर्ण हो रहा है । आस्रव के भेष में जो ये पुद्गलकर्म इस उपयोगरूपी रंगभूमि पर अपना नाटक कर रहे थे, इन दर्शकों को उसके भेष का पता हो गया है । अब उसके इस भेष को देखकर रस नहीं आता है । जैसे किसी ड्रामा और नाटक में दर्शक इस बातपर निगाह रखें कि यह तो अमुक का लड़का है और अमुक का भेष बनाकर आया है । इस ज्ञान के होनेपर उस दर्शक को उस नाटक में रस नहीं आ सकता है । इसी प्रकार इस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष को आस्रव के भेष में आए हुए इन पुद्गल स्कंधों का पता है और आस्रव के भेष में आए हुए इन जीवों का पता है, इस कारण अब इसे आस्रव के नाटक में रस नहीं आता । जानता है कि ये सारे भिन्न काम हैं । ऐसा ज्ञान होने से उस आस्रव के भेष में आए हुए वे कर्म दूर हो जाते हैं अर्थात् अब संवरतत्त्व प्रकट होने वाला है ।
नीरसता में ड्रामा बेकार―ड्रामा करने वाले को जब कोई उत्साह ही नहीं देता और ग्लानि भरी उपेक्षा भरी दृष्टि से देखते हैं तो नाटक करने वाले या उसका मैनेजर किसी भी बहाने से उस नाटक को बंद कर देता है । यहाँ तो दर्शकों को रस ही नहीं आ रहा है । यह मिथ्यात्व अविरति कषायरूप आस्रव इस प्रभु को अपना नाटक दिखा रहा है, किंतु इस प्रभु को यथार्थ ज्ञान होने के कारण इसमें रस ही नहीं आ रहा है । तो यह चिदाभास इसका मैनेजर मोहभाव इस नाटक को बंद कर देता है । ये जन बड़े प्रभाव को देखना चाहते हैं उन्हें इसमें रस नहीं आ रहा है तो नाटक कैसे दिखाया जाये, कहाँ किया जाये? इन रागादिक कषायों के क्षणमात्र में दूर होने से नित्य उद्योतमान यह परमतत्त्व का अवलोकन करने वाला ज्ञान बड़ी वेग से फैलता है । अपने रस के प्रवाह से समस्त लोक पर्यंत समस्त भावों को अपने अंतर में मग्न करते हुए अब प्रकट होता है अर्थात् अब आस्रव का भेष समाप्त होता है और संवरतत्त्व का उदय होता है ।
संवरतत्त्व के आगमन के समय का अनोखा वातावरण―यह प्रकरण आस्रव की समाप्ति और संवर का प्रारंभ कराने वाली संधि का है । इसमें वृत्ति और निवृत्तिरूप अनोखा वातावरण है । जैसे किसी बड़े आफिसर का तबादला होता है और नये आफिसर को चार्ज देना होता है तो चार्ज के समय एक अनोखा वातावरण रहता है । यह परिवर्तित आफिसर अपना चार्ज दे रहा है, उसे अब इसमें ममता नहीं रही, सम्हालने का मन में संकल्प नहीं रहा । यह इन भावों को रखते हुए चार्ज दे रहा है और नया आफिसर किसी उमंग को लेकर चार्ज ले रहा है । अब मुझे सब कुछ करना पड़ेगा यह संवरकारक ज्ञान बड़ी उमंग, बड़े जोश और कीर्ति के साथ इस ज्ञानी के उदित हो रहा है । जब यह ज्ञान उदित हुआ तो यह आस्रव अपना भेष बदलकर निकल जाता है । इस प्रकार यह अधिकार पूर्ण होता है ।
।। इति समयसार प्रवचन सप्तम भाग समाप्त ।।