वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 177-178
From जैनकोष
रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स ।
तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति ।।177।।
हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं ।
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति ।।178।।
चूंकि सम्यग्दृष्टि जीव के राग-द्वेष मोहरूपी आस्रव नहीं होता है इस कारण आस्रव भाव के बिना वे द्रव्यकर्म कर्मबंध के कारण नहीं होते हैं ।
आस्रव के प्रकार और उनमें प्रधान मिथ्यात्व―जीव का आस्रव है चार प्रकार का ― मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । ये 4 प्रकार के आस्रव 8 प्रकार के कर्मों के बंध के कारण कहे गए हैं । जीव में जब मिथ्याबुद्धि होती है घर, मकान, वैभव, परिवार, चेतन अचेतन सर्व संग होता है तो ये हैं तो इनसे अत्यंत पृथक् होने पर भी यह मानता है कि ये मेरे हैं, यह मैं हूँ―इस प्रकार की जो बुद्धि है उसे ही आस्रव कहते हैं । इसी प्रकार ये परिणाम कर्मबंध के कारण होते हैं । ये मिथ्यात्व परिणाम है ।
अविरति परिणाम―अविरति परिणाम में क्या है? जीव हिंसा के त्याग का परिणाम नहीं होता, अंधाधुंध चल रहे हैं, कोई चीज धरा उठाया तो बिना देखे, खान पान का विवेक नहीं, भक्ष्य अभक्ष्य का विवेक नहीं, कई दिन का आटा पड़ा हुआ है उसमें सूक्ष्म जीव भी पड़ गए हैं उसे खा रहे हैं बाजार के दही पकवान खाते हैं, ये सब क्या हैं? अविरति भाव हैं । हिंसा के त्याग का परिणाम नहीं होता है झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह के त्याग का परिणाम नहीं होता, ये सब अविरति के परिणाम है, पंचेंद्रिय हैं, ये अपने-अपने कषायों में लग रहे हैं । स्पर्शन इंद्रिय सुहावनी वस्तु के छूने का इसका स्वभाव है अथवा कामादिक विषय हैं । रसना इंद्रिय का विषय है स्वादिष्ट खान पान, घ्राणेंद्रिय का विषय है इत्र, फूल आदि सुगंधित चीजों का भोग करना । चक्षुरिंद्रिय का विषय है सुहावने रूप का अवलोकन करना, कर्णेंद्रिय का विषय है राग रागनी सुनना । इन विषयों में जो आसक्ति है, उसे छोड़ नहीं सकते हैं । इतना भी नहीं कि इन्हें धर्म के समय छोड़ दें । पर इन विषयों में ही दौड़ दौड़कर अपनी प्रवृत्ति करते हैं । यह अविरति परिणाम ही हैं । ऐसे परिणाम यदि मन की स्वच्छंदता के हो गए तो उनसे कर्मों का बंध हुआ करता है ।
कषायरूप भावप्रत्यय―कषाय परिणाम होता है क्रोध, मान, माया, लोभ करके । किसी भी पुरुष पर अपराध हो या न हो, क्रोध न आए, दूसरे के अपराध में अपने को कोई क्लेश न पहुंचता । जो अपराध करता वही दुःखी होता । इस अपने अंदर में बसे हुए प्रभु-स्वरूप को न निरखकर किसी दूसरे जीव पर गुस्सा करते हैं तो यह अपनी ही हिंसा है । घमंड के परिणाम में तो यह अपने को पा ही नहीं सकता । दूसरे जीवों को तुच्छ देखना और अपने को सबसे बड़ा समझना, यही तो अभिमान कषाय है । इस मान कषाय में यह जीव अपने आपके स्वरूप से चिगा हुआ रहता है । मायाचार ― मन में और है, वचनों में कुछ और कह रहे हैं और शरीर से कुछ और प्रवृत्ति चल रही है । यह मायाचारपूर्ण प्रवृत्ति इस जीव की सावधानी नहीं है । यह अपना ही बिगाड़ करता है । लोभ कषाय ― धन वैभव के प्रति ऐसी भावना होना यही मेरा सब कुछ है । इसही से मेरा विस्तार है । यह न समझो कि सैकड़ों दिनों का जीवन है । अरे किसी दिन यह दीपक बुझ जायेगा, मृत्यु हो जायेगी । फिर भविष्य में क्या होगा इसका ख्याल नहीं है क्या? और प्राप्त समागम में ही आसक्त बने रहना यह है लोभकषाय । सो ये चार प्रकार के कषाय कर्म बंध के कारण हैं ।
योगरूप भावप्रत्यय―योग से आत्मा के प्रदेश हिल जाते हैं, कंपते हैं । तो प्रदेश हिले और साथ ही कषाय हुआ तब तो होता है आस्रव और बंध दोनों । जब केवल प्रदेश ही हिल रहे हैं और कषाय रंच न हो तब वहाँ होता है केवल आस्रव, बंध नहीं होता है अर्थात् ये मात्र योग परिणमन कर्म बंधकारी नहीं रह सकते । वे आयेंगे और जायेंगे, यह स्थिति होती है 11 वें गुणस्थान में । वहाँ किसी प्रकार का कषायभाव नहीं होता इस कारण वहाँ योग से आस्रव होता है पर बंध नहीं होता है । तो ये 4 प्रकार के जो भाव प्रत्यय हैं ये कर्मबंध कराते हैं ।
अंतःस्वरूप की दृष्टि ही शरण―अहो ! इस जीव का जगत में है तो कुछ नहीं शरीर तक भी अपना नहीं है लेकिन यह अपने ही भीतर में स्थित कितने ही प्रकार के विकल्प मचाता है, जिन विकल्पों के कारण कर्मों से लदा चला जाता है । हम प्रभु की भक्ति करें और जरा यथार्थ रूप में करें, भगवान का जो अंत: स्वरूप है उस स्वरूप पर दृष्टि देकर करें तो अपना जीवन सफल किया अन्यथा मोह में तो पशु पक्षी भी रहा करते हैं । जैसे हम आप पशु-पक्षियों के जीवन को व्यर्थ समझते हैं इसी प्रकार यदि केवल मोह भाव ही वर्तते रहे तो समझो कि हमारी जिंदगी भी व्यर्थ है । उसमें कोई लाभ नहीं मिल सकता ।
धर्ममर्मी साधु और श्रेष्ठिवधु के प्रश्नोत्तर―एक साधु ने एक श्रावक के यहाँ आहार किया, आहार करके आंगन में बैठ गया । कुछ श्रावकों से बातें होने लगी । सेठ की बहू बोली, महाराज आप इतने सबेरे क्यों आ गए ? खूब धूप थी, 10 बजने का टाइम था फिर भी ऐसा अनोखा प्रश्न किया । सब लोग सुनकर दंग रह गए । वह साधु बोला कि बेटी समय की खबर न थी । अब तो और आश्चर्य होने लगा । इतने महान् पुरुष और समय की खबर न थी । फिर साधु ने पूछा कि बेटी तुम्हारी उम्र कितनी है? बहू बोली, महाराज मेरी उम्र 4 वर्ष की है । अब तो आश्चर्य का क्या ठिकाना? 10 वर्ष विवाह के हो गए और बताती है कि उम्र चार वर्ष की है । और तुम्हारे पति की उम्र कितनी है? महाराज मेरे पति चार महीने के हैं । लो । अच्छा, और श्वसुर साहब की कितनी उम्र है? महाराज श्वसुर तो अभी पैदा ही नहीं हुए है । और तुम आजकल ताजा खा रही हो या बासी? बहू बोली, महाराज ताजा कहाँ रखा है, सब बासी ही खा रहे हैं । इतनी बात होने के पश्चात् साधु महाराज तो चले गए ।
मार्मिक प्रश्नोत्तरों का अर्थ―अब वह सेठ बहू से लड़ने लगा कि तूने तो पागलपन की बातें की, मेरे बड़प्पन में बड़ा धक्का लगा तो बहू बोली चलो महाराज के पास और सबका अर्थ निकाले कि बात क्या है । तो निष्कर्ष सब क्या निकला । कुछ साधु महाराज ने बताया, कुछ बहू ने बताया । सबका सार यह निकला कि बहू ने पूछा था चूँकि मुनि छोटी अवस्था के थे, सो पूछा था कि आप इतनी जल्दी कैसे आये, मतलब आप इतना जल्दी मुनि कैसे हो गए । साधु ने कहा बेटी समय का ख्याल न था अर्थात् यह पता न था कि जिंदगी कितनी है, कब मर जायेंगे, इसका पता न था तो सोचा कि जल्दी यह काम करना चाहिए । महाराज ठीक है । और जो बहू से पूछा कि क्या उम्र है, तो उसने कहा कि मेरी उम्र चार वर्ष की है । इसका सार क्या निकला?
धर्मदृष्टि के समय से ही वास्तविक जीवन―बहू ने कहा कि मैं चार वर्ष से ही धर्म में लगी, जब से ही धर्म की श्रद्धा हुई है, उतना ही हमारा वास्तविक जीवन है । धर्म की श्रद्धा बिना जीवन को यदि जीवन समझा जाये तो सब व्यर्थ है, सब अनंतकाल के बूढ़े हैं । फिर क्यों कहते हो कि हमारी उम्र 40 वर्ष की है, 50 वर्ष की है । यह कहो कि मैं अनंतकाल का बूढ़ा हूँ । खैर आगे क्या बात चली, पति की उम्र कितनी है । इनके चार ही महीने से धर्म की श्रद्धा हुई है इसलिए वास्तविक उम्र इनके चार ही महीने की है । फिर यह बात चली कि श्वसुर की उम्र कितनी है, तो श्वसुर अभी पैदा ही नहीं हुए । श्वसुर साहब ने कहा कि यदि मैं पैदा ही नहीं हुआ तो यह लड़का और बहू कहा से आ गए? बहु ने कहा, देखो महाराज यह अब भी लड़ रहे हैं । इनको अभी तक धर्म की बात समझ में नहीं आई । इनको अभी क्या पैदा हुआ समझें?
ताजा बासी खाया जाने का तात्पर्य―श्वसुर ने कहा अच्छा, रोज घर में ताजी रोटी बनाने के लिए ब्राह्मण लगा है, सारा आराम है और यह बहू कहती है कि अभी बासी खा रहे हैं इसका क्या मतलब? बहू बोली, सेठजी ने पूर्वभव में कुछ पुण्य कमाया था, अब भी उस पुण्य को ही भोग रहे हैं और इस भव में कोई नया काम नहीं कर रहे हैं, धर्म नहीं कर रहे हैं ।
वास्तविक संकटों बचने का संकेत―सो भैया ! अपनी जिंदगी तब से समझना चाहिए जब से धर्म की श्रद्धा हुई । खूब ध्यान से सुनिये । ऐसे धर्म की श्रद्धा होती है तो फिर समझ लो कि संसार के सारे संकटों से दूर हो जावोगे । पर इनको संकट मानते हैं कि कुछ आय कम हुई धन कम हुआ, अथवा लड़का लड़की अपने भावों के अनुकूल नहीं चलते अथवा लोक में हमारी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ी, इसे मोही पुरुष समझते हैं कि हम पर बड़ा संकट छाया है । अरे यह कुछ संकट नहीं हैं । तेरे ऊपर संकट तो है कर्मों का विशिष्ट बंधन, कर्मों का तीव्र उदय । क्रोधादिक कषायों को लिए रहते हैं, यथार्थ वस्तुस्वरूप का पता नहीं पड़ता, घर के दो चार जीवों को अपना मान लिया । जो हैं सो ये ही मेरे सब कुछ हैं और बाकी जीव तो कुछ नहीं हैं । अरे ये परिणाम तेरे पर संकट हैं । इन परिणामों के कारण जब यह भव छोड़ेगा तो न जाने किस खोटी योनि का भव मिलेगा? बड़ी विपत्ति है । इस विपत्ति को तो तू देखता नहीं और वर्तमान समागम और वियोग का तू बखान करता है, मेरे पर बड़ा संकट है ।
अपनी संभाल―अरे भैया ! आत्मधर्म को संभालो, उस आत्मा की दृष्टि आने दो, तेरे पर कोई संकट न रहेगा । तू निःसंकट है । जिनकी हम पूजा करते हैं तीर्थंकर देव, भरत, बाहुबलि, राम आदि जिनका हम ध्यान किया करते हैं वे भी तो इस संसार में थे और वे भी तो अनंतकाल तक इस संसार में रुले थे । उन्होंने भी पूर्व भव में अपनी खोटी सृष्टि की थी, आज वे सब छोड़कर चले गए । न पैसा है, न परिवार है, न संसार है । तो क्या वे हम आपसे न्यून हैं? क्या छोटे हैं हम आपसे? अरे वे महान् से महान हैं । उन्होंने संसार के सब बंधनों को तोड़ दिया, ऐसा उत्कृष्ट ज्ञानविकास हुआ है जिस ज्ञानविकास के द्वारा सारा लोकालोक हाथ में रखे हुए आंवले की तरह स्पष्ट ज्ञात हो रहा है । ऐसा बड़प्पन पैदा करो न, यहाँ की टूटी फूटी बातों में अपना सर्वस्व मानकर अपने बड़प्पन में बहे जा रहे हैं, प्राप्त कुछ नहीं किया जा रहा है ।
मोही का भ्रम―मोही जीव जानता है कि मैं बड़ा लाभ कर रहा हूँ, अपना बड़ा वैभव बना रहा हूँ, गृहस्थी उत्तम कर रहा हूँ―यह सोचना मात्र भ्रम है । यह जीव लाभ कुछ नहीं कर रहा है बल्कि अपनी हानि ही कर रहा है । अभी तो अनंत काल पड़े हैं परिणमन करने के लिए । अगर शुद्ध परिणमन रहेगा तो शांति है अन्यथा शांति नहीं है ।
सम्यग्दृष्टि जीव के राग-द्वेष-मोह भाव नहीं है । यदि राग-द्वेष-मोह भाव होता तो सम्यग्दृष्टि न कहलाता । जब राग-द्वेष-मोह का अभाव है तो पूर्व में बँधे हुए जो द्रव्य कर्म है वे पुद्गलकर्म के निमित्त नहीं हो सकते हैं क्योंकि द्रव्य प्रत्यय पुदगल कर्म के हेतु होते हैं, उनमें हेतुपना राग-द्वेष-मोह के सद्भाव बिना नहीं हो सकता । तब क्या मतलब हुआ कि बंध के कारण का कारण नहीं है इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव के बंध नहीं होता । कर्मबंध का कारण है कर्मों का उदय । और कर्मों के उदय में नवीन कर्मबंध होने का कारणपना बन जाये, इसका कारण है कि कर्मोदय के निमित्त से हुआ राग-द्वेष-मोह भाव ।
निरपेक्ष स्वरूप के आलंबन का प्रताप―ज्ञानी जीव इन रागादिक विकारों को अपनाता नहीं, क्योंकि उसे सहज शुद्ध स्वरूप का बोध होता है इस कारण वह कर्मों को नहीं बाँधता । इस प्रकार शुद्धनय की दृष्टि से अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जो स्वीकार कर ले, वह पुरुष रागादिक से मुक्त होकर परमात्मतत्त्व को निरखता है । देखिए जगत में दृष्टियां दो होती हैं (1) सापेक्ष और (2) निरपेक्ष । इन दो अंगुलियों में हम सापेक्ष देखेंगे तो यह मालूम पड़ेगा कि यह छोटी है और यह बड़ी है । हम इस अंगुली को सापेक्ष नहीं देख सकते, उस एक को एक में देखा, उस एक की अपेक्षा दूसरे में न लगाया तो बतलाओ यह अँगुली छोटी है या बड़ी? न छोटी है, न बड़ी है । यह तो जैसी है तैसी ही है । इसे कहते हैं निरपेक्ष दृष्टि । इसी प्रकार और भी अंतर में जाये तो प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से स्वयं जैसा है उसे निरखेंगे तो यह कहलाता है निरपेक्ष स्वरूप का दर्शन । और किसी दूसरे के संग से कुछ प्रभाव पड़ता है तो उसे कहते हैं सापेक्ष दर्शन ।
परमार्थभक्ति―भैया ! जरा अपने-अपने आत्मा के सब ओर से विकल्प छोड़कर, शरीर को भी न निरखकर, पर के संग से होने वाले असर को भी न तककर केवल अपने आत्मा को तो देखो कैसा है यह अंतरंग में, यदि यह बात समझ में आ गई तो समझ लो कि हम सच्चे जिनेंद्र भक्त हैं । जिनेंद्र देव का जो उपदेश है उस उपदेश को तुम अपने में उतार लो । कैसा है यह मेरा स्वरूप? केवल ज्ञानमय, जाननमात्र । जो आत्मा के कारण आत्मा में रहे वह तो हुआ मैं और जो पर के कारण आत्मा में रहे वह मैं नहीं हूँ । तब तो भरोसा ही नहीं है कि मेरी आत्मा में सत्ता रहेगी ।
रागादिक से कल्याण असंभव―भैया ! रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ बतलाओ ये आत्मा के कारण हुआ करते हैं कि किसी परद्रव्य के कारण हुआ करते हैं? जब कर्मों का उदय हो और परपदार्थों का आश्रय हो तब यह कषाय उत्पन्न होती है । यह कषाय पराधीन है । मेरे स्वरूप के कारण ही मुझमें ये कषाय नहीं उत्पन्न होते हैं, इतना विश्वास भी नहीं है । ये होते हैं और नष्ट हो जाते हैं, सदा नहीं रहते हैं और इनसे भला न होने का भी विश्वास नहीं है । ये मेरा कुछ हित कर देंगे क्या? तो ये रागादिक भाव मैं नहीं हूँ । शरीर की तो कथा ही क्या है, यह तो प्रकट जड़ है ।
अन्य सबकी उपेक्षा करके ही निज प्रभु के दर्शन की शक्यता―तब इस देहरूपी मंदिर के भीतर एक अमूर्त चैतन्य जो अपने स्वभाव से केवल ज्ञाताद्रष्टा होने का काम करता है, ज्ञानज्योतिमात्र मैं आत्मा हूँ । ऐसे शुद्धनय का आलंबन लेकर जब केवल अपने को ज्ञान-प्रकाशमात्र यह जीव अनुभव कर लेता है तो समझ लो इससे बढ़कर आत्मा में और कोई कार्य नहीं है । ये सब मायामय दृश्य हैं, सब मायारूप है । ये सदा से न आये हैं और न सदा रहेंगे । ये जब तक हैं तब तक शांति और संतोष का कारण नहीं है । ऐसा जानकर परद्रव्यों की उपेक्षा करके एक अपने चैतन्य के ध्यान में लगिए ।
धर्म के समय धर्म का ही लक्ष्य―भैया ! कभी तो ऐसा स्वस्थ चित्त बनाओ कि जब तुम धर्म कर रहे हो तब धर्म के अतिरिक्त आपको कोई विकल्प न सताएँ । एक बार कोई राजा किसी दुश्मन से लड़ाई लड़ने गया । उतने समय में रानी गद्दी पर बैठी थी । एक दुश्मन ने आकर इसके राज्य पर आक्रमण कर दिया । तो रानी ने सेनापति को बुलाया और कहा देखो सेनापति अपनी सेना ले जाकर शत्रु का मुकाबला करो । कहा बहुत ठीक । सेना ठीक की और चल दिया शत्रु से लड़ाई लड़ने । दो दिन चलने का रास्ता था । रास्ते में शाम हो गई । सेनापति जैन था । उसके सामायिक, आत्मध्यान करने के लिए हाथी से नीचे उतरने का भी समय न था, सो हाथी पर बैठे ही बैठे सामायिक प्रतिक्रमण शुरू किया । आप तो जानते ही हैं कि प्रतिक्रमण में क्या बोला करते हैं । पेड़ पत्ती, कीड़ा मकोड़ा, एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय, पंचेंद्रिय में से किसी को भी मेरे द्वारा कष्ट पहुंचा हो तो मुझे क्षमा करो । सो क्षमापना के बोल बोलने लगा ।
कर्तव्यपरायण सेनापति के धर्म की लगन―एक चुगल ने रानी से जाकर कहा कि आपने ऐसा सेनापति भेजा जो कीड़ा मकोड़ों से भी माफी मांगता है । वह क्या शत्रु पर विजय पावेगा? 5 दिन के बाद में ही वह सेनापति शत्रु को जीतकर आ गया । रानी पूछती है कि हमने तो सुना है कि तुम पेड़ पत्तियों से, कीड़े मकोड़ों से माफी मांग रहे थे । तुम लड़ाई जीतकर कैसे आये? वह सेनापति उत्तर देता है कि आपके राज्य का मैं 23 घंटे का नौकर हूँ । उन 23 घंटों में यदि सो रहा हूँ तब भी यदि कोई आर्डर आ जाये तो मैं हाजिर हूँ, खाते पीते में आर्डर आ जाये तो खाना पीना छोड़कर मैं तैयार हूँ, पर शाम-सुबह आध-आध घंटे का समय मैने अपनी आत्मरक्षा के लिए रखा है । उस आत्मरक्षा के लिए ही मैं जगत के सब जीवों से क्षमा चाह रहा था । सब जीव मेरे स्वरूप के ही समान तो हैं । उन्हें कोई कष्ट मेरे द्वारा पहुंचा हो तो उनसे क्षमा मांगने का अर्थ यह है कि मैं अपने उस शुद्ध स्वरूप को देखने के योग्य बन रहा हूँ । और जब लड़ाई का समय आया उस समय मैं युद्ध में वीरता के साथ कूद पड़ा, यों जीत हुई ।
आत्महित का अनिवार्य कार्य―तो हम अपने परिवार के लिए 23 घंटे का समय बाँध लें, पर एक घंटा सुबह शाम आध-आध घंटे अपने आत्मकल्याण के लिए रखें । यह सब परपदार्थों का परिणमन है । जैसा होना हो, हो, किंतु कुछ समय प्रभुस्वरूप का, आत्मस्वरूप का ही ध्यान रखो तो क्या होगा? आप बड़े अनर्थ सोच लें―दुकान मिट जायेगी, परिवार के लोग तितर बितर हो जायेंगे, धन न रहेगा, शत्रुता बढ़ जायेगी, अपयश हो जायेगा, बड़ा से बड़ा अनर्थ सोच लो, जो हो सबको स्वीकार करो । इनमें परपरिणमन है, इनसे मेरा कोई संबंध नहीं, मैं तो एक शुद्ध ज्योतिमात्र आत्मप्रकाश को ही देखूँगा और इस आत्मतत्त्व के ध्यान में ही रत होकर अपने कर्मकलंकों को जलाऊँगा । वे जीव मेरे कब से साथी हैं, साथी हो ही नहीं सकते । किसको प्रसन्न करने के लिए आकुलता मचाई? अपनी रक्षा के लिए तो आध-आध घंटे का समय ऐसा नियत हो कि उस समय किसी भी परद्रव्य का ख्याल न रखो तो अपने में यह ज्ञायकस्वरूप भगवान प्रकट होगा और आनंद को प्राप्त करेगा ।
शुद्धनय के आलंबन की महिमा―सम्यग्दृष्टि पुरुष शुद्धनय का आलंबन लेकर सदैव अपने स्वरूपास्तित्व का एकाग्रता से चिंतन किया करता है । शुद्धनय वह है जहाँ केवल निरपेक्ष वस्तु स्वभाव देखा जा रहा है । शुद्धनय को ही देखा जा रहा है । इसकी पहिचान यह है कि उस साधु में बोध चिह्न प्रबल हो जाता है । जो जीव शुद्ध नय का आलंबन लेकर ज्ञानस्वभावी निज आत्मतत्त्व को एकाग्रता से भाता है वह रागादिक से मुक्त मन वाले होकर बंधरहित समयसार को निरखता है, किंतु जो पुरुष फिर शुद्धनय से च्युत होकर रागादिक से संबंध कर लेता है वह ज्ञान विमुख होकर फिर कर्म भावों से बंध जाता है । ये कर्मबंध पूर्व में बंधे हुए कर्मों के आस्रवों से नाना प्रकार का विचित्र परिणमन करने वाले हैं ।
ज्ञानस्वभाव से च्युत उपयोग का परिणाम―जब तक शुद्ध नय में उपयोग है तब तक यह जीव अबंधक है और सम्यग्दृष्टि भी है किंतु शुद्धनय से आज चिग गया, किसी बाहरी पदार्थों में उपयोग करने लगा तो फिर वह बंधक हो जाता है । यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव भी दसवें गुणस्थान पर्यंत निरंतर बंधक है लेकिन अबुद्धिपूर्वक बंध की यहाँ गिनती नहीं की है । इस दृष्टि से जब तक यह जीव अपने शुद्ध स्वरूप के उपयोग में है तब तक यह अबंधक है और जब अपने शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से चिगकर बाह्य पदार्थों में उपयोगी हो जाता है तब यह नाना प्रकार के बंधनों को कर लेता है । इसी संबंध में 2 गाथाओं द्वारा ज्ञान से चिगने की वृत्ति को बतलाते हैं ।