वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 19
From जैनकोष
कम्मे णोकम्मह्मि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं ।
जा एसा खलु बुद्धी अप्पढिबुद्धो हवदि ताव ।।19।।
709-अज्ञानी का अज्ञानमय अभिप्राय—यह जीव अज्ञानी कैसे रहता है, कब तक रहता है इसका उत्तर इस गाथा में दिया है । यह अज्ञानी जीव इस देह में पर्याय में, इन परिणमनों में इस प्रकार ‘‘आत्मत्व’’ की बुद्धि करता है, ऐसा एकमेक समझता है कि जैसे कि सामने दिखने वाले पदार्थ में उनका रूप उनका आकार जैसा एकमेक रहता है वही है, इस रूप में अपने को निरखना । जैसे चौकी को देखकर यदि कोई कह दे कि यह चौकोर है तो यह कोई गलत बात तो नहीं है । चौकी चौकोर ही है । इस चौकी को निरखकर कोई बताये कि जिसमें पालिस भी न हो कोई रंग भी नहीं चढ़ा, जैसा उसका रूप है उस तरह की बात कहना कि सागौन में तो खाकी रंग है तो कुछ गलत बात तो नहीं है । तो जैसे वहाँ एक आकार है, द्रव्य दृष्टि से कथन करने पर भले ही और बात आ जाय, पर यहाँ चौकी को एक पदार्थ मानकर देखा जा रहा है । जैसे वहाँ सब एक हुए इस तरह वह अज्ञानी जीव शरीर में अपने को एक मानता है । यों नहीं मानता कि जो शरीर है सो मैं हूँ । यों मानने पर तो दो की खबर आ जाती है । शरीर कुछ है मैं कुछ हूँ । शरीर है सो मैं हूँ यों नहीं मानता । ऐसा मानने पर तो फिर भी विवेक का अवसर है, किंतु यह कहा जा रहा है, ज्ञानी की भाषा में कि शरीर को वह आत्मा मानता है उसकी निगाह में दो बात नहीं हैं, कि शरीर और आत्मा, और फिर शरीर को आत्मा मानना, ज्ञानी की निगाह में ऐसी दो बातें नहीं हैं । यह तो ज्ञानी पुरुष कह रहे हैं । जो राग, द्वेष, मोह होता है अंतरंग में, उन भावों को मानता है कि यह मैं हूँ । 710-आत्मप्रकृति में अज्ञानमय परिणमन—मैं हूँ मानने पूरा अनादि अनंत ध्रुव जैसा सब कोई चाहते हैं । कौन प्राणी चाहता है कि मैं मर जाऊँ, मेरा नाश हो जाय? सबकी कल्पना में अपने आपके बारे में अनादि अनंत ध्रुव की भावना भरी है । अज्ञानी हो तो उसको भी अनादि अनंत ध्रुव रहने की भावना भरी हुई है, पर जो सही अनादि अनंत ध्रुव है उसे न पहिचानकर यदि शांत ध्रुव में ध्रुव की कल्पना कर रहा है । जैसे सब जीव सुख चाहते हैं तो यह बात तो भली हुई ना । सुख चाहते हैं ऐसा सुख चाहते हैं जो कभी मिटे नहीं, सदा रहे तो यों सामान्य बात कहने में कुछ गल्ती नजर नहीं आ रही । अगर यह जीव दुःख चाहता होता तो बहुत कठिन समस्या बन जाती, इसको मानना पड़ता कि देखो भाई तू दुःख न चाह एक बड़ा काम यह ही करना पड़ता, किंतु यह गनीमत है कि सब चीजों की एकसी धारणा है कि मुझे सुख मिले । तो जैसे सुख चाहने की भावना सबकी हैं और ध्रुव सुख चाहने की । कोई भी ऐसा नहीं सोचता कि मुझे ऐसा सुख मिले कि थोड़ी देर में मिट जाय । ऐसी कोई कल्पना भी नहीं करना चाहता । तो जैसे सब सुख चाहते हैं इसी प्रकार सब जीव अपने को ध्रुव रखना चाहते हैं । अब यह उनकी गल्ती है कि दुःख ही को सुख समझ कर चाहते हैं और अध्रुव में ध्रुवपने की बात सोचा करते हैं । तो यों ही अज्ञानी जीव ने देह को माना कि यह मैं हूँ, उसे मैं का अलग पता नहीं, देह उसके लिए अलग वस्तु नहीं । उसमें इस प्रकार एकमेक हैं अनुभवन करता हुआ जैसे कि चौकी का आकार चौकी के आकार में चौकी, चौकी के रंग में चौकी, चौकी में चौकी का रंग, जैसे ये सब एक है इसी प्रकार देह को माना है मैं हूँ, सो जब तक मोह आदिक, कर्मों में, देह आदिक तो कर्मों में यह मैं हूँ, यह मेरा है, इस प्रकार की जब तक बुद्धि रहेगी तब तक यह जीव अज्ञानी है । 711-जीव के क्लेश का रूप और क्लेशनाश का उपाय:—जीव को क्लेश है तो यही कि बाह्यपदार्थों में यह मेरा है ऐसी कल्पना में जगती है । इतनी कल्पना न जगे, बाह्य से अपना बड़प्पन न मानें, बाह्य की परिणति से अपना कुछ न समझें, सबसे निराला ज्ञानमात्र निरखें । ऐसा निरखने के समय में ज्ञानमात्र वृत्ति होती है, उसमें ही तुष्ट रहे तो जीव की कोई क्लेश नहीं । मोटे रूप में सोच लो कि देह से निराला जो आत्मा है उस आत्मा में दुःख कहाँ से आ गया । किसने पैदा कर लिया? दुःख किसी को दिखता ही नहीं, किसी से निकलता हुआ समझ में आता ही नहीं । किसी से निकलकर दुःख आये और आत्मा में स्थान पाले ऐसा तो कहीं समझ में आया नहीं । सब कुछ निराले हैं, आत्मा अमूर्त है, चैतन्यमात्र स्वरूप, इसमें कहाँ दुःख कहां परेशानी? लेकिन जब विकल्प उठे, इच्छा जगी बस वहाँ परेशानी बन जाती है । तो अपने स्वरूप में यह मैं हूँ ऐसी श्रद्धा होने पर क्लेश नहीं रहता और बाह्य पदार्थों में यह मैं हूँ ऐसा सोचने में क्लेश होता है । अपने को इस तरह न सोचे कि मैं अमुक नाम का हूँ, मैं अमुक पोजीशन का हूँ, में ऐसा हूँ । जो कुछ परिणमन पाया तद्रूप न सोच और सोचें कि मैं देह से भी निराला हूँ, रागादिक भावों से भी न्यारा हू, सहज ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, पें-सा सोचने पर आत्मा की सामान्य वृत्ति बनती है । भला बतावो तो सही जगत में अनंत जीव हैं, उन अनंत जीवों में से 10-50 जीव सामने आये; जिन में बसते हो, ये कुछ तुम्हारे लग गए क्या? दो चार जीव जो घर में पैदा हो गए वे तुम्हारे कुछ लगते हैं क्या? जरा भी संबंध नहीं, पर कल्पना में तो उन्हीं को सर्वस्व माना जा रहा है । बस यही है जीव के परेशानी की कुंजी जिस क्षण यह मान होगा कि मैं तो ऐसा अमूर्त पदार्थ हूँ कि इसे कोई जानता ही नहीं, इसमें तो कोई नाम ही नहीं । और नाम तो किसी भी पदार्थ का नहीं है । पदार्थ है । नाम तो नहीं है । नाम तो हम रखते हैं चाहे उसके गुण देखकर रखें और चाहे गुण की अपेक्षा न रखकर यों ही रख दें, नाम तो रखा हुआ होता है । पदार्थ तो सभी नाम रहित हैं । तो भला जिस आत्मा का नाम नहीं, किसी बाह्य पदार्थ से संबंध नही, उस आत्मा में अपने में विकल्प बसाकर अपने को दुःखी करना यह तो ऊपर की बात हुई, स्वभाव वाली बात नहीं हैं ।यहाँ जिसने भेद विज्ञान किया उसका उद्धार है और जिसमें इन बाह्य निरखनों में, बाहरी बातों में ऐसी एकमेकपने की बात आये बस वही आसानी होती हैं । जो ज्ञानी है वह तो संकटों से छूटकर तिर सकता है और जो शरीर के नाम को पर्याय को मानता है कि यह मैं हू उसके तिरने का उपाय नहीं है । 712-तिरने के उपाय में—जब भी तिरेगा कोई तो इस मिथ्या बुद्धि को छोड़कर ही तिर पायगा । छोटी-छोटी बातों में सम्मान अपमान समझना, अनुकूलता प्रतिकूलता मानना ये सब इस नाम के कारण हो रहे हैं । लोगों को सब आपदाओं का मूल नाम व नाम वाले का लगाव है । भीतर में कुछ दृष्टिदेकर देखें कि जो आकाशवत् अमूर्त चैतन्यस्वरूप एक पावन चैतन्यतत्त्व है उसमें कहीं नाम पड़ा है क्या? सबके लिए वह एकसा है । सब एक समान है । 10-50 मन गेहूं का ढेर लगा है तो वे सब गेहूं हैं। उनमें एक भी दाने में कुछ नाम पड़ा है क्या? वे सब एक प्रकार है। व्यवहार के लिये इनका नाम रख दिया गेहूं। पर जैसे यहाँ मनुष्य 40 करोड़ हैं तो नाम भी 40 करोड़ न हों तो 30 करोड़ होंगे या 20 करोड़ होंगे। कुछ नाम एक दूसरे के नाम से मिल भी जाते हैं। पर वास्तव में यहाँ किसी भी दाने का कुछ नाम नहीं है। तो गेहूं के दानों की तरह अपनी-अपनी बात भी देखें कि मेरे में कुछ नाम है बसा क्या? कुछ भी नाम नहीं है । जाति अपेक्षा आत्मा हुआ चैतन्य हुआ, इस चैतन्य में नाम कुछ नहीं है । ऐसा यह मैं अपने ही भीतर विकल्प जोड़कर कल्पनायें लगाकर मैं अमुक हूँ, मेरा यह घर है, मेरे ये कुटुंबी है,, मेरे ये मित्र लोग हैं, मेरे ये अनुकूल है, मेरे ये प्रतिकूल हैं, इस प्रकार की नाना कल्पनायें बढ़ाकर हम अपनी स्वभावदृष्टि से चिग गए और ऐसी उलझन की कोटि में आ गए कि जहाँ उलझने बढ़ने का तो काम है, पर उस पद्धति में उलझनों से छूटने का काम नहीं हो यह मनुष्यजीवन पाया, यह तो बड़ा कीमती जीवन है । इसे अमूल्य तब पाया हुआ कहा जा सकता है जबकि जीवन का लोभी नहीं, सम्मान अपमान का लोकमय नहीं, लोक में कहीं कुछ चाहने का भाव नहीं, किसी प्रकार की आशा नहीं, ऐसे अकिंचन्य निर्लेप निज भाव में ठहरना बने तो जीवन को सफल समझिये । इस काम के आगे अन्य संपदाओं का कुछ महत्त्व भी है क्या? इस पावन कार्य के समझ किसी और संपदा का नाम भी नहीं, मूल्य भी नहीं । सब हेय । जिस किसी भी प्रकार हो अपने आत्मा का यह विशुद्ध स्वरूप अनुभव में आना चाहिये । 713-अज्ञानी और ज्ञानी रहने की स्थितियाँ:—यह अज्ञानी का प्रकरण चल रहा है कि यह जीव अज्ञानी कब तक कहलाता है । प्रकरण यों चलाना पड़ा कि जब यह जीव ज्ञानमात्र है । जानन और आनंद इसका स्वभाव है तब फिर यह अज्ञान क्यों बना और फिर अज्ञान की उपासना कैसे कही जाय । जब हमारी भावना ज्ञानरूप है तो उपासना ज्ञानरूप रहनी चाहिये थी । पर ज्ञानरूप न रहकर अज्ञान रूप रहती है तो इसका कारण क्या है? अज्ञान तो स्वरूप है नहीं फिर उपासना अज्ञान की कैसे कहलायी? उसके उत्तर में यह गाथा कही गई कि यद्यपि यह जीव ज्ञानमय है लेकिन अपने इस ज्ञानस्वरूप को देखता कब है? इसकी तो बाह्यदृष्टि लगी है । अज्ञानी जीव बाहर ही बाहर ढूंढ-ढूंढकर दु:खी होता रहता है । और यह तब तक अज्ञानी कहलाता है जब तक इस जीव के देह से कर्म से, नोकर्म से निराला अपना ज्ञानस्वरूप ज्ञान से नहीं रहता और जब इसकी समझ बैठ जाती हैं कि मैं तो अमूर्त आत्मा हूँ और मेरा स्वभाव स्वरूप ऐसा स्वच्छ है कि निज और पर के आकार से प्रकट प्रतिभास में ले लूं ऐसा स्वभाव इस पुद्गल में नहीं है, इस शरीर में नहीं है, इन कर्मों में नहीं है । जैसे कि कोई दर्पण है उस दर्पण का स्वभाव क्या है? स्वच्छता । स्वच्छता के मापने क्या है? ऐसा पवित्र धर्म जिसमें स्व और पर का आकार प्रतिभासित होता रहे । मान लो आग जल रही है, सामने दर्पण रखा है, तो उस दर्पण में वह सब आग प्रतिबिंबित है । दर्पण में ज्वालावों की भी फोटो है अग्नि पिंड की भी फोटो है लेकिन दर्पण में उसकी गर्मी नहीं पहुंचती । दर्पण में ज्वाला की शिखा नहीं पहुंची । दर्पण में वही स्वच्छता अब भी है कि अपना आकार और पर का आकार उसमें प्रकट होता रहे । तो जब यह जीव अपने इस स्वच्छ स्वभाव को पहिचान लेता है, मेरा तो केवल ऐसा स्वच्छस्वरूप है जिसमें स्वपर आकार सब प्रतिबिंबित हुआ ही करते हैं, तब यह जीव अज्ञान से हटा हुआ ज्ञानी बनता है । 714-आनंदनिधान अंतस्तत्व से मुख मोड़ने पर कल्याण का अलाभ—ज्ञान का आनंद पाना, ज्ञानानुभव से तृप्ति रखे रहना यह जीव को सुगम बात है लेकिन जब मुख मोड़ लिया हो तो वह सुगम बात भी अत्यंत दूर है । जैसे घर में रहते हुए स्त्री या पुत्र से पुरुष से मुख मोड़ लिया तो अब वह सब घर में रहकर भी परदेश, विदेश, बाह्य जगह में रहने के बराबर है । तो यहाँ जब चेतन ने अपना उपयोग मोड़ दिया, रहना अपने में, पर जब अपने से मुख मोड़ दिया तो इस जीव को वह निज स्वरूप अब बहुत दूर हो गया। भलाई है विषय कषायों के त्यागने में। वास्तव में पढ़ा करते हैं कि आतम के अहित विषय कषाय। आत्मा का अहित करने वाले विषय और कषाय के भाव हैं। तो सोच लीजिये—न तो विषयों की इच्छा जगे और न क्रोध, मान, माया, लोभ उठें तो उस जीव का कल्याण निकट है । ये कषायें सब व्यर्थ की चीज है, मान लो किसी पर क्रोध कर दिया तो उस क्रोध के फल में स्वयं को कौनसा लाभ मिल जाता है? लाभ मिलना तो दूर रहा, विवाद बन जाय, झगड़ा बन जाय । खुद भी परेशानी में पड जाय तो उससे लाभ क्या मिला? मान कषाय की किसी जीव ने तो उस मान से उसे मिला क्या? कहां बड़ा हो गया? किसने बड़ा मान लिया? और, मान भी ले कोई बड़ा तो उससे आत्मा को मिल क्या गया? यह तो मान का, बड़प्पन का, घमंड का विकल्प रख कर परेशानी हो रही है । अत: मायाचार का परिणाम किया, बोलना, कुछ सोचना कुछ, बताना कुछ, करना कुछ, इस प्रकार भीतर का एक छल कपट रचा तो उससे इस आत्मा का लाभ क्या हुआ सो तो बताओ? स्वयं धर्मधारण करने का अभाव बन गया । बताया है कि जो सरल नहीं है, कुटिल चित्त वाला है उसके हृदय में धर्म सूत्र प्रवेश नहीं करता । जैसे टेढ़े छेद वाले दाने में सूत का प्रवेश नहीं होता ऐसे ही जो कपटी पुरुष है उनके चित्त में धर्म की बात प्रवेश नहीं कर सकती । उस कपट से लाभ क्या पाया । इस कपट भाव का त्याग करने में ही भलाई है । ऐसी क्या पड़ी है कि सोचना कुछ, कहना कुछ, करना कुछ । किसको क्या दिखाना हैं, कहा क्या करना है? ये सब बातें बेकार हैं । लोभ कषाय की भी बात देखो—क्या मिलता है लोभ से? मान लो जो कुछ तुम्हारे पास परिग्रह है उसे खूब जोड़ धरे रहो, और भी परिग्रह का लोभ किये रहो, पर उससे अंत में आपको मिलेगा क्या? जो भी पुरुष सुखी होते हैं वे लोभ के त्याग से सुखी होते हैं । बढ़िया खरीदकर खाया पिया तो क्या किया वहाँ? लोभ छूटा तब वहाँ आनंद से रह सका और फिर जिसका लोभ समूल नष्ट हो जाय उसके आनंद का क्या ठिकाना? तो लोभ भी बुरी बलाय है जिसके कारण अमूल्य परिपूर्ण विशुद्ध ज्ञानस्वरूप अपने स्वभाव में नहीं आता । 715-अविकार स्वभावविकास का प्रताप—जो पुरुष किसी भी प्रकार ज्ञानार्जन करके, ध्यानसाधना करके इस अचलित निज सहज ज्ञानमात्र स्वरूप की अनुभूति प्राप्त कर लेता है वह पुरुष अविकारी रह सकता है । अविकार रहने में आनंद है । जिस भगवान को हम पूजते हैं उनमें विशेषता और है क्या, जिससे तीन लोक के इंद्र खिचे आ रहे हैं? वह विशेषता है अविकार होना अविकारी तो स्वयं है यह जीव । वह किसी विकारी पर क्या रीझेगा? तो अविकारी ज्ञानस्वरूप मात्र जो पुरुष है, पुराण पुरुष उनकी ओर सारा जगत खिचता आया तो क्यों खिचता आया? किस कारण से? बस इसी अविकार विकास के कारण । राग द्वेष किसी भी विवेकी को पसंद नहीं आते- । जो राग न करे, सरलता रखें, मायाचार न करें ऐसे जीवों पर लोक मनुहार के अनेक मनुष्य दया करते हैं । तो लोभकषाय भी एक ऐसी बुरी बला है जिसके कारण हम अपना सहज ज्ञानस्वरूप अनुभव नहीं कर सकते । यदि अविकार रहना चाहते हो, दर्पण की तरह उसमें कुछ भी प्रतिबिंब होता रहे, दर्पण तो अपनी निजी स्वच्छता में ही रहता है इसी प्रकार आत्मा किसी भी अवस्था में रहा करे, स्वभाव उसका निरखो तो यह विशुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप है हमारे स्वभाव में सुख भरा हुआ है और हमें उसकी खबर नहीं है तो आशा करते हैं पुत्र मित्र घर आदिक से । अरे सुखी होना है तो तेरे ही पास तेरी पूजा है । आँखें मीच, इंद्रियों को बंदकर किसी विषय की इच्छा न रख, ऐसा विशुद्ध केवल अपने स्वभाव को देख तो तुझे वह अनुपम आनंद प्राप्त होगा । मोह ही दुःख की जड़ है खूब परख लो । अरे मोह छोड़ना जरूर पड़ता है । मोह तो नहीं छूटता, पर जिस चीज का मोह बसा है वह चीज छूट जाती है, रहती नहीं हैं, यह तो वास्तविकता है ना, इससे सब परेशान हैं । धनी पुरुष कहीं भी अपना कुछ चला ले, कुछ भी बात बना ले, लेकिन यह बस नहीं चल सकता । चलो जो गरीब हैं उन्हें इष्ट वियोग लगेगा, हमें इष्ट वियोग न लगेगा, ऐसा नहीं है । वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । जब समस्त चीजें छूट जाती है, अपनी रहना ही नहीं है तो सही-सही बात बना लो और उस सही-2 बातपर अपनी प्रतिज्ञा बना लो, संकल्प बना लो कि मैं तो ज्ञानानंदस्वरूप मात्र हूँ, ज्ञाता दृष्टा हूँ । मुझ से किसी भी परभाव का परपदार्थ का संबंध नहीं है । ऐसा जो दृष्टि में लेते हैं उनके ज्ञान में सब कुछ आकर भी वे दर्पण की तरह अविकारी रहा करते हैं तब वे ज्ञानी कहलाते हैं । 716-अज्ञानी रहने की सीमा—जब तक जीव को कर्म और नोकर्म में यह मैं हूँ ऐसी बुद्धि रहती है, तब तक जीव अज्ञानी ही रहता है । शरीर है, सो हम हैं; हम हैं सो शरीर है; अज्ञानी ऐसा विचार नहीं करता है क्योंकि ऐसा सोचने में उसने दो की सत्ता तो मान ही लो, अज्ञानी तो वहाँ है जिसे देह आत्मा एक ही दिखता । दो की सत्ता माने तो विवाद सिर्फ इस पर रह गया कि जो हम है, जो शरीर है, सो हम हैं क्या यह ठीक है? किसी भी रूप में यहाँ दो की सत्ता वाली बुद्धि अज्ञानी में नहीं है । वह तो ‘‘है’’ ऐसा समझता है । इस तरह तो ज्ञानी ही समझाया करता है । अज्ञानी तो जैसी ज्ञानी ने भूल बताई वैसा करता है । अज्ञानी के तो तर्कणाओं का भी ख्याल नहीं रहता है । वह तो शरीर को आत्मा मानता ही है । जब तक यह जीव कर्म और नोकर्म को ‘यह मैं हूँ’—ऐसा मानता है, तब तक जीव अज्ञानी रहता है । जैसे:—घड़ा उसे कहेंगे, जो बीच में मोटा, नीचे सकरा, ऊपर पतला सा हो, उसे प्रतिबुध्नोदराकार कहते हैं । घड़े में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण भी है घड़े में नवांध (नये घड़े की गंध) तो आती ही है, रस भी उसमें आता है, रूप और स्पर्श प्रत्यक्ष है ही । जिन आकार में के रूप के स्कंधों से यह बड़ा बना है, वे स्पर्श, रस, गंध और वर्णमय हैं । घड़ा अलग हो, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अलग हों, ऐसा नहीं है । घड़े का आकार अलग हो और घडा अलग हो, ऐसा भी नहीं है । जो ये स्पर्श, रस, गंध, वर्णादि हैं, वही घड़ा है । ये गुण घड़े से अलग नहीं हैं । शरीर और आत्मा के विषय में अज्ञानी की बुद्धि में भी ऐसा है कि जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श में यह घड़ा है । ठीक इसी प्रकार अज्ञानी शरीर आत्मा में मानता है । उसमें इतना दिमाग नहीं कि वह शरीर और आत्मा को अलग-अलग मान सके । यह शरीर ही मैं आत्मा हूँ, ऐसा भेद करने की भी उसमें ताकत नहीं है । जैसी हम लोगों की इन चीजों में घड़े आदिक में धारणा होती है, उसी प्रकार की राग द्वेष मोहादि में अज्ञानी की धारणा होती है । ज्ञानावरणादि आठ कर्म किसी को दिखाई नहीं देते अत: उन पर कोई विश्वास नहीं करता है । राग-द्वेष मोहादि तो अपने को समझ में आ जाते हैं । कर्म के कार्य तो समझ में आते हैं । विभावों में आत्मबुद्धि करना कर्म में आत्मबुद्धि है । 717-अनात्मा में आत्मबुद्धि करना ही निज प्रभु पर अन्याय—कर्म (राग-द्वेष-मोहादि) में और नौकर्म (शरीरादि) में अज्ञानी मानता है कि यही मैं हूँ । इस आकार और रूपरस-गंध-स्पर्शरूप यह घड़ा है, यह तो दुनिया जानती है । अज्ञानी, पुद्गलों के परिणमनों को, ‘यह मैं हूँ’—ऐसा मानता है । ये परिणमन आत्मा को दबाने वाले हैं जैसे स्पर्श-रस-गंध-वर्ण—ये भाव हैं, उनमें यह घड़ा हैं—इसमें दो की कल्पना नहीं है वहाँ तो ठीक है किंतु यहाँ यह जीव शरीर के प्रति यह मैं हूँ और मैं हूँ मानता रहेगा; तब तक वह अज्ञानी है । यह तो ज्ञानी की भाषा में कहा जा रहा है कि अज्ञानी शरीर को आत्मा मानता अज्ञानी की भाषा में ऐसा विचार नहीं हैं कि यह शरीर है ना, सो ही मैं हूँ क्योंकि शरीर का व आत्मा का पृथक्-पृथक् अस्तित्व ही अज्ञानी की समझ में नहीं है तो फिर वह अन्य वस्तु में अन्य वस्तु की स्थापना कैसे करेगा । अज्ञानी तो मानता है कि मैं हूँ । वह किसे ‘‘मैं’’ मानता यह ज्ञानी पुरुष बतला रहे हैं कि वह शरीर को ‘‘मैं’’ मानता है । वह शरीर को ‘‘मैं’’ ऐसी एकत्व बुद्धि से मानता है जैसे कि लोक में घड़ा उसके रूप, रस, आकारादि से भिन्न कुछ नहीं दिखता और घड़े से भिन्न रूप, रस, आकारादि कुछ भिन्न नहीं दिखता । वह ही घड़ा है ऐसा एकत्व जैसा वहाँ है तैसा एकत्वरूप उपयोग बहिरात्मा ने शरीर में किया है । हमारी दृष्टि में ‘‘जब तक हम आत्मा में आत्मज्योति नहीं पा लेते तब तक सामायिक का काल पूरा नहीं होता है’’ हम मानते हैं कि यदि आत्मा में परद्रव्यों से घृणा नहीं हुई, तो चाहे 24 घंटे दिखाऊं सामायिक करते रहो, कुछ नहीं होना है । यद्यपि यह आत्मा ज्ञानमय है, लेकिन जब तक यह जीव ज्ञान की उपासना नहीं करता, तब तक वह अज्ञानी ही बना रहता है । उसके लिये पानी में घुसे हो, फिर भी प्यासे हो यह कहावत चरितार्थ होती है । यह आत्मा ज्ञानमय है, फिर भी अज्ञान के कारण यह जीव ज्ञान की उपासना नहीं कर पाता है । मोहादिक भाव व शरीरादिक पर पदार्थ ये सब आत्म तिरस्कार करने वाले हैं, पुद्गल के परिणाम है अर्थात् विभाव तो पुद्गल उपाधि के निमित्त से होने वाले परिणाम (फल) हैं और शरीरादि पुद्गल स्कंध है ही । इन सबमें अज्ञानी जीव ऐसी बुद्धि करता है कि ये ही मैं हूँ और मैं ही ये सब हैं । ऐसा स्वपर में अभेदानुभवन जब तक रहेगा तब तक यह जीव अप्रतिबुद्ध है अर्थात् अज्ञानी है । ज्ञातापन = स्व और पर के भेद का प्रकट हो जाना तथा प्रत्येक को स्वतंत्र, संबंध रहित व जैसा जिसका स्वरूप है वैसा जानना सो ज्ञातापन है । जब कभी ऐसा अनुभव आ पड़ता है कि मेरे आत्मा का तो ज्ञातापन स्वभाव है कि पर से उपेक्षा हो ही जाती है । जानने और राग-द्वेष में अंतर है । जानने के समय में भी आत्मा के ज्ञेयाकार होता है, फिर भी ज्ञेयाकार की पकड़ न होकर ज्ञानाकार का अनुभवन ही है । जब जीव यह समझ लेता है कि मेरा तो ज्ञातृता ही स्वभाव है, यह सब पौद्गलिक ठाठ हैं, ऐसा अनुभव जब आ पड़ता है, तब जीव ज्ञानी कहलाता है । 718-स्वभाव-भाबना के अभ्यास से योग्य हुई आत्मभूमिका में स्वयं स्वानुभव—प्रयत्न करने से स्वानुभव नहीं होता है । जहाँ तक विकल्प आया करते हैं वहाँ तक यत्न चलता है । स्वानुभव निर्विकल्प अवस्था है, अत: उसमें यत्न नहीं चलता है । जो निर्विकल्प स्थिति है, उसमें यत्न नहीं होता है । आत्मा का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव जुदा और शरीर का जुदा है-आदि बातों से भेद विज्ञान हो जाये तो आत्मानुभव आ पड़ता है । प्रश्न—स्वानुभव स्व निमित्त से होता है या पर निमित्त से? उत्तर—वस्तुत: वह स्वत: ही होता है, निमित्त दृष्टि से स्वत: परतो वा—स्वानुभव स्वत: भी होता है परत: भी । निमित्त दृष्टि से किसी जीव के स्वत: हो जाता है, किसी के परत: होता है, निश्चयत: तो सभी के स्वत: ही होता है । मेरा स्वरूप ज्ञातृता है; राग-द्वेष मेरा स्वरूप नहीं है; आत्मा का और शरीर का अत्यंताभाव है, आदि वस्तुत्व-भावना से निर्विकल्पता की योग्यता होती, कर्म मैं हूँ—यह चर्चा तो छोड़ो, मेरा तो स्वरूप ज्ञातृत्व ही है ।जैसे-एक दर्पण है । उसमें निजी स्वच्छता है । वह अपने में स्वच्छता-रूप से परिणमता रहता है । उसके समक्ष जो पदार्थ आ जाता है, उसका प्रतिबिंब दर्पण में झलक ही जाता है । यदि अग्नि ही सामने आ जाये तो भी दर्पण में उसका प्रतिबिंब आ ही जाता है । राग-द्वेष बुरे हैं । फिर भी राग-द्वेष वहीं आ सकते हैं जहाँ चैतन्य महा शक्ति हो । दर्पण जो अपनी स्वच्छता रूप से परिणमा था; अग्नि का प्रतिबिंब उसमें आने से क्या अग्नि का स्वरूप दर्पण में चला गया? नहीं, अग्नि का स्वरूप अग्नि में ही है । दर्पण ठंडा है, फिर भी अग्नि उसमें दिख रही है । दर्पण की स्वच्छता के परिणमन से यह अग्नि की प्रतिकृति उसमें आ गई तो, आ जाओ; अग्नि अपनी जगह और दर्पण अपनी जगह है । दर्पण ने अग्नि का निमित्त पा करके ऐसा परिणमन बना लिया । दर्पण का स्वरूप स्वच्छता है, उष्णता या ज्वाला उसका स्वरूप नहीं है । उष्णता तो अग्नि का स्वभाव है । इस प्रकार अरूपी इस आत्मा का ज्ञातृता ही स्वरूप है । कर्म नोकर्म पुद्गल की चीज है । जीव को जब यह अनुभव हो जायेगा, तभी वह ज्ञानी हो जायेगा । यह अनुभव भेद विज्ञान से होता है । स्वानुभव मनुष्य क्या तिर्यंचों के भी हो सकता है । 719-आत्मज्ञान का प्रयत्न व साधन एकमात्र कर्तव्य—ध्यान से सुना उपदेश कभी व्यर्थ नहीं जाता है । उपदेश इस भव में कार्यकारी न हो तो अगले भव में कार्यकारी हो सकता है वस्तुतत्त्व के उपदेश से शरीर और आत्मा में भेद-विज्ञान का अनुभव हो जाये तो जीव ज्ञानी बन जाता है और ज्ञान की उपासना करने लगता है । मैं तो ज्ञानी ही रहूँगा, सार शांति जो कुछ है, वह आत्मा के यथार्थ ज्ञान में है । आत्मज्ञान है तो अपने पास विश्व की समस्त निधियां हैं, आत्मानुभव के बिना अपने पास कुछ नहीं है । जिनके अनुभव में यह चीज आयेगी उन्हीं को लाभ होगा । यह आत्मा तो किमी का कुछ नहीं कर सकता । ऐसी भेदविज्ञान की झलक-अनुभव पैदा हो तो संसार की संतति (राग-द्वेष-मोह) आदि का छेद हो जायेगा जिस ढंग से भी हो इस नरभव में कष्ट सहकर भी भेदविज्ञान की झलक द्वारा जो अविचलित आनंद को प्राप्त करते हैं वे अपने में अविचलित हो जाते हैं उनको कोई आकुलता नहीं होती है । लेकिन विषयों के सुख में तो आकुलता होती है, उसे मोही जीव फिर भी नहीं छोड़ता है जैसे—इत्र को निरंतर सूंघने रहने पर सूंघने वाले का मन इत्र की ओर से हट जाता है । रूप को निरंतर देखते रहने पर आंखें थक जाती हें । किसी रूप को अधिक देर तक नहीं देख सकते हैं । नाच-गाना सुनने में भी आकुलता हो जाती है । इन इंद्रियों के सुखों में जीव को आकुलता ही रहती है, परंतु इस भेद-विज्ञान की झलक में तथा आत्मानुभव में आकुलता ही नहीं होती है । यदि जीव अनुभव से च्युत भी हो जाये तब भी उपयोग उसी में लगा रहता है । उसमें अकुलाहट नहीं होती है । जिसने स्व का अनुभव प्राप्त कर लिया है, वे दर्पण में प्रतिबिंब की तरह सदा अधिकारी ही रहते हैं । अहो अध्यात्मयोगियों की देशनाओं । तुम जयवंत प्रवर्तो । हे अलौकिक शरणभूत गुरुवृंद । तुम्हारा आभार मेरा कल्याण करे । चिरकाल की तपस्या और अनुभूति के परिणाम स्वरूप जिन्होंने आत्मतत्त्व की उपलब्धि कर ली है, ऐसे संत करुणा करके बताते हैं कि हे आत्मन् तू स्वरसत: ज्ञानानंदरस निर्भर है । तुझे किसी पर पदार्थ की अटक नहीं है । तू अपने ध्रुव चैतन्यस्वभाव में उपयुक्त रह, अपने स्वभाव के साथ ज्ञानोपयोग की एकता कर । प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है शुद्धसत्ताक है । अत: किसी भी द्रव्य से किसी भी अन्य द्रव्य का परिणमन नहीं होता । तेरा जो कुछ भी हो रहा, तेरे से हो रहा है । जब तू अपने स्वभाव का उपयोग छोड़कर बाह्य पदार्थ के संबंध में संकल्प विकल्प करता है तब तू क्लेश का अनुभव करता है । बाह्य पदार्थ तेरे दुःख के हेतु नहीं है, सुख के भी हेतु नहीं है, आनंद के भी हेतु नहीं है । 720-आत्मज्ञानी हो समृद्धिवान व अज्ञानी ही दरिद्र—कल यह बताया था कि अज्ञानी शरीर को आत्मा कैसे मानता और राग-द्वेष आदि को आत्मा कैसे मानता । यह अज्ञानी अपने अज्ञान को संभालता है—ज्ञान करता है—जो ज्ञान करता है वह तो आत्मा है और उसकी मलीमसता आत्मा नहीं है । दर्पण को देखने से दर्पण में यदि अग्नि का प्रतिबिंब दीखे तो दर्पण की शुद्धता नष्ट नहीं हो जायेगी या दर्पण गर्म नहीं हो जायेगा । दर्पण की शुद्धता दर्पण में रहेगी, और अग्नि की उष्णता अग्नि में ही रहेगी; दर्पण में नहीं चली जायेगी । अज्ञानी जीव को कर्म और नोकर्म में साक्षात् बोध हो जाता है कि यह मैं हूँ । जैसे लोक में किसी से यह कहा जाता है कि जैसे भी बने, यह काम करलो इसी प्रकार यहाँ आचार्य देव कहते हैं कि जैसे भी बने, आत्मज्ञान कर लो । किसी प्रकार से जव यह जीव यह अनुभव करता है कि मैं अपने परिणमन को ही कर सकता हूँ, समस्त द्रव्यों का परिणमन उन्हीं में होता है । मेरा स्वरूप ज्ञायक भाव है चैतन्यमात्र है, अमूर्त है, इस प्रकार के विकल्पों के बाद यदि स्वयं अनुभव करे, तथा इस स्थिति को स्वयं या पर के उपदेश से पा ले तो यह अनुभव चलायमान नहीं होता है । यह अनुभव भेद-विज्ञान के प्रभाव से मिलता है । भेदविज्ञान यह जानने से होता है कि ये जीव अपने में परिणमते हैं, मैं अपने स्वरूप में परिणमता हूँ । इस अखंड सत् का प्रत्यय हो जाता है । पश्चात् पर्याय में आत्मबुद्धि को वह साधक छोड़ देता है । ज्ञान में सभी पदार्थ आ जाते हैं । ज्ञान में किसी चीज का आना या न आना यह स्वभावविकास के ऊपर या ज्ञान की कमी या अधिकता के ऊपर निर्भर है । सत् कुछ जानने में आया और कुछ नहीं आया यह ज्ञान की अपूर्ण अवस्था है । पदार्थों का ज्ञान होने से आत्मा में कोई अड़चन नहीं पड़ती है । जैसे—दर्पण में अग्नि का भी प्रतिबिंब आ जाये तो भी वह गर्म नहीं होता है उसी प्रकार आत्मा के ज्ञान में जगत के समस्त पदार्थ भी आ जाये तो भी आत्मा अविकारी बना रहता है । जैसे—ज्ञान में अनेक पुरुष दिख जाते हैं, तो भी ज्ञान अविकारी कैसे रहता है? देखो जिन्होंने अपने स्वभाव को पा लिया, वे ही अविकारी कहलाते हैं । दर्पण में कोई चीज भी प्रतिबिंब में आवे, तो भी वह अपनी दशा नहीं बदलता है, दर्पण-दर्पण ही रहता है । उसी तरह जिन्होंने अपना आत्मा का ज्ञान किया है, उनमें कभी विकार नहीं आता है । 721-सर्वत्र परस्पर अत्यंताभाव का दर्शन—शरीर से भी असंबद्धता का व्यवहार निरखता है ज्ञानी । यद्यपि हम शरीर से चारों ओर से निबद्ध हैं, तो भी यह शरीर मेरे से भिन्न है । जिनको ऐसा अनुभव हो गया वे जीव स्वानुभवी कहलाते हैं । प्रत्येक पदार्थ प्रति समय परिणमता रहता है । यह अज्ञ जीव निज चैतन्य को आत्मा नहीं मानता वह तो अज्ञान के कारण शरीर को आत्मा मानता है । वह शरीर में ही सदा मुग्ध रहता है । जब तक उसे स्व और पर में एकत्व का आभास है, तब तक वह अज्ञानी है । शंका—यह कैसे जानें कि यह जीव अज्ञानी है? इसके समाधान में कहा हैं—