वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 193
From जैनकोष
उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं ।
जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।।194।।
ज्ञानी के उपभोग की निर्जरानिमित्तता―कहते हैं कि चेतन और अचेतन द्रव्यों का इंद्रियों के द्वारा जो उपभोग करते हैं सम्यग्दृष्टि, वह सब निर्जरा का निमित्त होता है । सभी कहते हैं कि बंधे हुए कर्म बिल्कुल छोड़ देते हुए नहीं झड़ते हैं । हां उदय से एक समय भी पहिले यदि उसका संक्रमण कर देते हैं तो उसमें अंतर आ सकता है । ऐसे कर्मों को निष्फल कर देने में समर्थ एकत्वनिश्चयगत समयसार का आलंबन है । एकत्व भावना भावनाओं में प्रधान भावना है । इस एकत्व भावना को कितने पदों में जीव भाया करते हैं । पहिले सर्व बाह्य पदार्थों को अपने से पृथक् मानो, फिर शरीर से पृथक्, कर्मों से पृथक् मानो, रागादिक विकारों से अलग अपने को मानो । अपने में जो विचार वितर्क उत्पन्न होता है उन परिणतियों से भिन्न अपने आपके स्वरूप का अनुभव करो । बहुत अंतर में प्रवेश करने वाले ज्ञानी के पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से कुछ रागादिक पीड़ा होती है । जब भेदज्ञान होता है तब उसे वह आफत समझता है और अपने एक अविनाशी ज्ञानस्वभाव की ओर लिप्सा बनी रहती है । इस ही तरह उन अचेतन और चेतन द्रव्यों में उपभोग किए जाने पर भी यह सम्यग्दृष्टि जीव कर्मों की निर्जरा करता है ।
निर्जरा का कारण राग का अभाव―वीतराग पुरुष का उपभोग निर्जरा के लिए ही है । राग नहीं है तो वह कर्म बंधन नहीं कराता है । जहाँ ही मौका तका वहाँ से ही छुट्टी ले लेता है । और राग है तो वह बंधन होता है । आप देख लो कि जिसको गैर मान रखा है किसी कारण उससे सम्मिलित हुआ, कुछ व्यवहार प्रवृत्ति हुई, किंतु राग नहीं है तो जहाँ ही अवसर पाता है वहाँ से ही छुट्टी ले लेता है । घर के जिन लोगों को अपना मान लिया है उनके द्वारा संकट भी बहुत आए, क्लेश भी बहुत आए तो भी आखिर अंत तक उनको निभाते हैं, उनमें प्रवृत्त रहते हैं । विराग का उपभोग निर्जरा के लिए ही होता है और सरागों का उपभोग चूँकि उनके रागादिक का सद्भाव है अत: वह उपभोग उनके बंध के निमित्त ही होता है । वह उपभोग मिथ्यात्व बंध का कारण होता है ।
एकत्व के उपयोगी के निर्जरा―सम्यग्दृष्टि के रागादिक का अभाव होता है । यह रागादिक का अभाव निर्जरा का निमित्त होता है । यह बात द्रव्यानुयोग की कही जा रही है । करणानुयोग यह बताता है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा में भी जितने अंश में रागादिक हैं वे विकार के ही कारण हैं । यहाँ द्रव्यानुयोग में उपयोग की मुख्यता से कथन है कि यदि व्यवहार में वृत्ति नहीं करता है, व्यवहार से हटा हुआ होता है तो वह निवृत्ति निर्जरा के लिए होती है । यहाँ द्रव्यनिर्जरा का स्वरूप बतला रहे हैं । कर्म आ रहे हैं उदय में और जीव के रागादिक का निमित्त पाकर चोट भी पहुंचे पर यह विश्वास व वृत्ति हो कि पर में हमें देखना ही नहीं है केवल निज ज्ञायकस्वरूप को देखें तो कर्म निजीर्ण हो जाता है ।
कल्पना के संकट―देखो भैया ! उदय आ गया तो यही आत्मा पर गहरी चोट कही गई है । यहाँ तो संकट ही क्या है? जिस चाहे विकल्प को करके संकट मान लिया । जैसा वस्तु का स्वरूप नहीं है वैसा मानकर अपने में दु:ख उत्पन्न कर लिया । अरे संकट वहाँ नहीं हैं । संकट तो निज में है । जो कषाय उत्पन्न होती है, विकार भाव चलता है, वांछा चलती है वह संकट है, और वह ऐसा गहरा संकट है कि इस जीव को बहिर्मुख बनाकर इसका होश छुड़ाकर बाह्य में मस्त करा देता है, संसार के जन्म मरण का चक्र बढ़ाता है ।
अत्यल्प परिचित क्षेत्र से मोह का परिहार―भैया ! कितने जगह को आप जानते हैं? 343 घन राजू प्रमाण लोक में हजार दो हजार मील की जगह के लोगों को आपने समझ लिया तो बाकी कितने जीव पड़े हुए हैं? उनका तो आपको परिचय ही नहीं है । इस थोड़े से क्षेत्र का राग छोड़ दो तो यह तुम्हारे लिए भला ही तो है । इस जगत में अन्य जीवों से तुम्हारा कुछ भी संबंध नहीं है तो उस ही असंबंध में इनको भी बना लो ।
अत्यल्प परिचित जीवों के मोह का परिहार―कितने जगत के जीव हैं? क्या कोई हद है? अनंतानंत जीव हैं, जिनमें अनंत जीव मुक्त भी हो जाएँ तो भी अनंत जीव शेष रहते हैं । उनके समल परिचय में आए हुए 100-50 पुरुषों की क्या गिनती है? समुद्र के एक बूंद की गिनती हो सकती है पर इन जगत के जीवों में गिनती नहीं है । यह समुद्र असंख्यात बिंदुओं का समूह है । पर ये जीव तो अनंत हैं । एक-एक बूँद घट-घटकर समुद्र का अंत कभी आ सकता है, पर अनंत जीव यहाँ से मुक्त हो जायें तो भी इन जीवों का अंत नहीं आ सकता है । इन अनंत जीवों में से इन 10-50 जीवों को अपना मान लिया अथवा 10-5 लाख पुरुषों की दृष्टि में हम अच्छे कहलायें, तो भला बतलाओ ये कितने से जीव हैं, उन अनंत जीवों को तो हम कुछ नहीं समझते । उन अनंत जीवों का हमें परिचय ही नहीं है । उन ही अपरिचित जीवों में इनको भी शामिल कर दो, क्योंकि जैसे ये हैं तैसे ही तो वे भी हैं ।
प्रभु की आज्ञा मानने में वास्तविक प्रभुभक्ति―भैया ! इन जगत के जीवों में ये गैर हैं, ये मेरे हैं ऐसा भेद न डालो । श्रद्धा में, प्रतीति में स्वरूप तो निहारो । भगवान जिनेंद्र ने जो मार्ग बताया है उस पर हम नहीं चल सकते तो हमने भगवान की क्या भक्ति की? प्रभु की भक्ति यही है कि स्वरूपदृष्टि करके इन जगत के जीवों में भेद मत डालो, अंतर न डालो । सब कुछ व्यवहार में करना पड़ता है, ऐसा उदय है, 10-20 आदमियों का भार है, सम्हालना पड़ता है सब, किंतु अपने स्वरूप के परिचय का और धर्म का जब अवसर आये तब अंतर मत डालो । सर्व एक चैतन्यस्वरूप हैं । हे प्रभो ! यह व्यक्तिगतता, यह पृथक्ता मेरी समाप्त हो और उस चेतनस्वरूप में ही मग्न होई, उपयोग में हमारी व्यक्तिगत सत्ता न रहे तो यह हमारे हित की बात है ।
निजस्वरूपभक्ति का यत्न―सो भैया ! अंतर में करने की सारभूत बात निजस्वरूपभक्ति है । मुक्ति के मार्ग में जो निर्मल हुए हैं ऐसे परमात्मप्रभु के गुणों को तकें, स्वरूप को देखें । घर में बसे हुए जीवों का गुणगान करने से क्या पूरा पड़ेगा ? प्रभु का गुणगान हो और उस ही के समान अपने अंतर में स्वरूप को निरखो, यह तांता लगना चाहिए । किसी भी क्षण सबको भूल जाओ । यदि ऐसा उत्तम होनहार बन सकता है तो उसका तो आदर होना चाहिए किंतु इस इष्ट अनिष्ट भाव के कारण यह अंतर मिट नहीं पाता, झट फंस जाता है ।
ज्ञान ज्ञान के स्रोत की ओर―भैया ! अपने भागे हुए ज्ञान को अपने में लाओ । जैसे पानी समुद्र से उठता है, सूर्य की गर्मी के आश्रय से उठता है, मगर बादलों के रूप में सब जगह घिर जाता है, उड़ता रहता है । बरसात में बरसता है और बरसकर नीचे-नीचे बहकर फिर समुद्र में प्रवेश कर जाता है । इसी प्रकार प्रथम तो इस आत्मा का ज्ञान रागादिक के कर्मों के आताप के निमित्त से अपने आपके स्थान को छोड़कर उड़ा, संसार में चारों ओर बिखर गया, कहाँ-कहाँ ज्ञान जाता है कहां-कहां इष्ट अनिष्ट बुद्धि होती? चारों ओर बिखरता है । बिखरा हुआ यह ज्ञान ज्ञानबल से फिर नीचे की ओर आया । जहाँ से आया था उस ओर मिलने के लिए अब फिर प्रयत्न करता है और नीचे-नीचे बहकर भीतर ही आकर इस ही आत्मा में प्रवेश कर जाता है । ऐसी होती है संतों की वृत्ति ।
स्वरूप से बाहर की दृष्टि में संकट―जब तक यह उपयोग अपने अध्यात्म को छोड़कर बाहरी अर्थों में विकल्पित रहता है तब तक दुःख में रहता है । जैसे नदी में जो कछुआ आदि जानवर होते हैं वे पानी के अंदर किलोल मचाते हैं, उन्होंने पानी से जरा सा बाहर अपना सिर निकाला कि अन्य पक्षी लोग उसके ऊपर चोंच चलाने लगते हैं । उस समय उनका कर्तव्य यह है कि जब संकट बहुत ऊपर आ गए तो धीरे से अपनी चोंच को अपने शरीर को पानी में डुबो लें । फिर पक्षी लोग उसका क्या करेंगे? इसी प्रकार यह जीव जब तक अपने उपयोग को बाहर में नहीं भगाता है, निज की दृष्टि में रत है तब तक शांति है, सुख है, आनंद है । और जहाँ अपने उपयोग को अपने ज्ञानसरोवर से बाहर निकाला याने मोह नींद में देखे जाने वाले पदार्थों की ओर उड़ा कि बस, अनेक संकट अनुभूति होने लगते हैं ।
स्वयं में ही संतोष की प्राप्ति―भैया ! अज्ञान में तो संकट ही है, क्योंकि इच्छा तो आशय में चल रही है और जैसी इच्छा करता है तैसी ही बाहर में परिणति नहीं देख पाते हैं । हमारा कहीं बाहर में कुछ परिणमन कर सकने का अधिकार ही नहीं है । सत् जुदा-जुदा है । अपनी स्वरूप सीमा का कोई तांता तोड़ दे तो आज ही सबका अभाव हो जाये । ये सब चीजें आज हैं, यह बात सबको सिद्ध करती हैं कि सारी चीजें अपने-अपने स्वरूप से सत् हैं । ऐसा ही भेदविज्ञान करके अंतर में प्रवेश हो जाये तो यह अपना पालन पोषण और संतोष करता है । अपने आत्मस्वभाव को छोड़कर बाहर में कितना ही भ्रमा जाये, रमा जाये, और कितनी ही बड़ी-बड़ी चतुराई की बातें कर ली जायें, और वैभव इज्जत पोजीशन कल्पना के अनुसार कुछ भी किया जाये उन सबमें आत्मसंतोष न होगा, अंत में संतोष होगा तो अपने आपके उपयोग में ही होगा ।
राग के आश्रय का अभाव―सहजस्वभाव के आश्रय से कर्म निर्जरा को प्राप्त होते हैं । मैं तो चैतन्यमात्र हूँ, ये रागद्वेषादिक विकार हैं, यह मेरा स्वरूप नहीं है―ऐसी दृढ़ भावना के कारण उसके द्रव्यनिर्जरा होती है । नहीं तो उदयागत कर्मों का काम था । जैसे कि आस्रवाधिकार में बताया गया कि नवीन द्रव्य कर्मों का बंध करता है, मगर यहाँ नहीं कर सकता है क्योंकि उदयागत कर्मों में नवीन कर्म करने का निमित्तपना रागादि भावों के कारण आया करता है । अब ये रागादिक भाव उपयोग को छू नहीं रहे हैं । होते हैं राग, पर राग में राग नहीं है । मिथ्यादृष्टि के ही राग में राग होता है । कदाचित् सम्यग्दृष्टि के भी राग होता है पर राग में राग नहीं है ।
राग में राग न होने का एक उदाहरण―जैसे घर में चक्की पीसते हुए में राग है और जो राग है उस राग में भी राग है । वहाँ आसक्ति हुआ करती है । और जो कैदखाने में चक्की पीसते हैं वे कोड़े के बल से पीसते है, वहाँ राग नहीं है । राग करना पड़े तो भी राग से वे उठे रहते है । वहाँ चक्की पीसने में आसक्ति नहीं है । वह तो अवसर ताकता रहता है कि यह सिपाही जरा सा मुख मोड़े कि पीसना छोड़ दिया । सम्यग्दृष्टि तो अवसर तका करता है । कब ऐसा अवसर आए कि कब इन सब खटपटों से मैं छुटकारा पाऊँ । और इसी कारण जब कभी रंच भी अवसर आता है तो वह अपने अवसर को व्यर्थ नहीं खोता है । ऐसे व्यक्ति के कर्मों की निर्जरा होती है । रागादिक भाव भी निजीर्ण होते हैं । इस प्रकार निर्जरा का स्वरूप कहा, अब भावनिर्जरा का स्वरूप कुंदकुंदाचार्य अगली गाथा में बता रहे हैं―