वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 194
From जैनकोष
दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं व दुक्खं वा ।
तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अध णिज्जरं जादि ।।194।।
परद्रव्यों के भोगे जाने पर सुख अथवा दुःख उत्पन्न होता है, सो उदय में आये हुए उस सुख दुःख का यहाँ अनुभव तो होता है, किंतु उनमें राग भाव न होने के कारण वे द्रव्यकर्म निर्जरा को प्राप्त होते हैं ।
भावनिर्जरा―परद्रव्यों का इंद्रियों द्वारा उपभोग जब होता है तब उसका निमित्त या तो सुखरूप भाव होगा या दुःखरूप भाव होगा, क्योंकि भोग के प्रसंग में उस भोग में यह निश्चित है कि या तो साता का विकल्प होगा या असाता का विकल्प होगा । साता और असाता के विकल्प का कारण क्षोभ परिणाम है । क्षोभ हुए बिना न कोई साता कर सकता है, न असाता कर सकता है । जीव क्षोभसहित हुआ करता है तब उस भोग के फल में नियम से इस जीव को सुख या दु:ख का परिणाम होता है । यह सुख दुःखरूप परिणाम जहाँ अनुभूत किया जाता है, बँध जाता है । उस समय मिथ्यादृष्टियों के तो वह बंध का कारण बनता है क्योंकि मिथ्यादृष्टियों के रागादिक परिणामों का सद्भाव है किंतु उस परिणमन में राग न होने से ज्ञाता पुरुष के बंध का कारण नहीं बनता है । उस सुख दु:ख के भोगे जाने पर यद्यपि कर्मों की निर्जरा मिथ्यादृष्टि के भी बराबर चलती रहती है तो भी वह चूंकि बंधक सो बंध कर लेना भी अनिर्जीर्ण है । वह कर्जा चुकाना क्या है जिसमें दूसरे से कर्जा लिया और दूसरे को चुकाया । हाँ, प्रत्येक सम्यग्दृष्टि जीव के चूंकि रागादिक भावों का अभाव है सो बंध का कारण नहीं बनता । वह निर्जीर्ण होकर निर्जरा को ही प्राप्त होता है । तो भावनिर्जरा रागादिक का अभाव है ।
निर्जरा के हेतु के संबंध में एक प्रश्नोत्तर―यहाँं कोई प्रश्न करता है कि आपने तो यह बतलाया पहिले कि रागद्वेषादि का अभाव होना निर्जरा का कारण बनता है पर सम्यदृष्टि के तो रागादिक हैं ही। 10वें गुणस्थान तक राग होता है । उसके कैसे निर्जरा हो जायेगी? राग का अभाव ही तो निर्जरा है । राग होता है सूक्ष्म सांपराय तक । निर्जरा का वह कारण कैसे बन गया? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर दिया जायेगा कि प्रथम तो इस मोक्ष की कारणभूत निर्जरा के लिए वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है । जिसके राग न हो ऐसे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की बात कही जा रही है कि उसके निर्जरा होती है । दूसरी बात यह है कि इस प्रसंग में जब कि इस ज्ञान शब्द के कहने में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि का भी ग्रहण कर लिया जाये तो सराग सम्यग्दृष्टि और वीतराग सम्यग्दृष्टि दोनों की एक कक्षा तो नहीं बन जायेगी, वहाँ तो एक मुख्य गौण मानना पड़ेगा । ज्ञानी जीव के राग उठता है तो निरंतर निर्जरा चलती है, ऐसा कथन मुख्य रूप से तो वीतराग सम्यग्दृष्टि को लेना है और गौणरूप से सराग सम्यग्दृष्टि को ग्रहण करना है ।
अपेक्षाकृत निर्जरा―निर्जरा के अपेक्षाकृत वर्णन को देखो, मिथ्यादृष्टि के जो निर्जरा होती है उसकी अपेक्षा अविरत सम्यग्दृष्टि के असंख्यातगुणी निर्जरा विशेष है । मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्व के सन्मुख होता है अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामों को करता है । ये तीनों परिणाम वहाँ पर मिथ्यादृष्टि अवस्था में होते हैं । अनिवृत्तिकरण परिणाम में अंतरकरण होता है, अनिवृत्ति करके अंत में उपशम सम्यक्त्व होता है । यह जीव अपूर्वकरण में आकर निर्जरा कर डालता है । अत्यधिक कर्मों की निर्जरा तो यह मिथ्यादृष्टि अपूर्वकरण परिणाम में और अनिवृत्तिकरण परिणाम में कर डालता है जब कि सम्यक्त्व होता है तब शेष कर्म एक आने से कम समझो । करणानुयोग के ग्रंथों से यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि सम्यक्त्व होने के पहिले इस जीव पर बहुत से कर्मों का भार लदा था । अब सम्यक्त्व होते ही भार कम रहता है । शेष का भार कब झड़ गया है सो बतलाओ । वह झड़ गया है मिथ्यात्व अवस्था में । सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा से असंयत सम्यग्दृष्टि को देखा जाये तो अब इस असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न होने वाला रागभाव नहीं है, और राग न हो तो निर्जरा होती है । तो जिन अंशों में ज्ञानी जीवों के रागादिक नहीं हैं तो वहाँ निर्जरा ही मानी जायेगी ।
सम्यग्दृष्टियों में अपेक्षाकृत विशेष निर्जरा―चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव की अपेक्षा पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय भी नहीं है । इस कारण इस चौकड़ी द्वारा जनित रागादिक नहीं है । इसका इस राग की अपेक्षा के अभाव से संवर और निर्जरा और विशेष हो जाती हैं, फिर इसकी अपेक्षा प्रत्याख्यानावरण रहित ज्ञानी के और विशेष निर्जरा है । दो उत्तर हुए । तीसरा उत्तर यह है कि सम्यग्दृष्टि के निर्जरा संवरपूर्वक होती है और मिथ्यादृष्टि के निर्जरा बंधपूर्वक होती है । मिथ्यादृष्टि के उदयागत कर्म नवीन कर्मों को बँधाकर विदा होते हैं, यों ही चुपचाप विदा नहीं होते हैं, सो मिथ्यादृष्टि की निर्जरा बंधपूर्वक होती है और सम्यग्दृष्टि की निर्जरा संवरपूर्वक होती है । इस कारण से मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा समस्त सम्यग्दृष्टि को अबंधक कहा है पर पहिले कहे गए दोनों अपेक्षाओं से भी जानना । जिस अपेक्षा से जब वर्णन किया जाता है उस अपेक्षा में रहकर उस वर्णन को डटकर किया जायेगा ।
अपेक्षाकृत वर्णन की समीनता का उदाहरण―जैसे स्याद्वाद के प्रकरण में जब नित्यत्व सप्तभंगी का प्रयोग करते हैं तो इस प्रकार करते हैं―स्यात् नित्यमेव । स्यात् अनित्यमेव । उसमें ‘एव’ शब्द बोला । पदार्थ एक अपेक्षा से नित्य ही है । अगर इसमें संशय करोगे तो दोष लगेगा । जैसे किसी पुरुष के लिए कहा जाये उसके पिता का नाम लेकर कि यह तो उसका पुत्र ही है । इसमें ‘ही’ लगाने में कोई भय रहता है क्या? नहीं । यदि उसमें एव न लगाकर कहें कि क्या उसका पुत्र भी है तो इसमें दोष लग जायेगा । क्या इसका पिता भी बन जायेगा? अपेक्षा लगाया और ‘भी’ लगाया तो इसमें अनर्थ होता है । अपेक्षा न लगायें और भीतर में अवश्य अपेक्षा समझें तो ‘भी’ की शोभा है पर अपेक्षा लगाकर ‘भी’ बोलना अनर्थ है । तो भैया ! ये तीन प्रकार के जो प्रकरण में उत्तर दिए गए हैं उनकी उन-उन अपेक्षाओं से वैसा ही निर्णय करना । जहाँ एकदम सीधा सामान्य रूप से यह कहा जाये कि सम्यग्दृष्टि जीव के बंध नहीं होता है । चाहे वह चतुर्थ गुणस्थान वाला हो और चाहे कोई गुणस्थान वाला हो वहाँ क्या भाव लगाना कि मिथ्यादृष्टि जीवों के बंधपूर्वक निर्जरा होती है । इसलिए मिथ्यात्व से बंधने वाली प्रकृतियों की सम्यग्दृष्टि जीव के संवरपूर्वक ही निर्जरा होती है । इस कारण सर्वथा अबंधक कह सकते हैं ।
अज्ञानी के ज्ञानकला का अनादर―देखो इस सम्यग्दृष्टि की महिमा को जानकर, सुनकर अनेक पुरुष यह सोचेंगे कि ओह हमको तो चौथा गुणस्थान ही भला है । अधिक तपस्या व्रत नहीं करना है । देखो तो ये असंयत सम्यग्दृष्टि जीव नाना प्रकार के भोग भोगते रहते हैं फिर भी यहाँ अबंधक कहा गया है । तो जहाँ दोनों हाथ लड्डू मिलते हों, घर भी न छोड़ना पड़े, व्रत, तप, संयम भी न करना पड़े और अबंधक भी बन जायें, ऐसा तो बहुत सस्ता मामला है । हम को तो चतुर्थ गुणस्थान ही सम्यक् है । लेकिन कहना ही आसान है, किंतु वह कौनसी अग्नि कणिका उस सम्यग्दृष्टि के अंदर जल रही है जिसके कारण भोग भोगते हुए भी कर्मों से नहीं बंधता है । उसकी कला को तो निरखो । वह कौनसी कला है? वह कला है ज्ञान की, वैराग्य की । दूसरे अज्ञानी जीव सुनकर भले ही खुश होते हैं कि असंयत सम्यक्त्व चाहिए, वह मजे में हैं, घर में रहें, भोग भी भोगे तो भी कर्मों से नहीं बंधते हैं । मगर यह भी देखो कि वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि भोग कैसे भोग रहा है कि भोग भोगते हुए में कष्ट मान रहा है, आपत्ति समझ रहा है, उससे निवृत्त होने की इच्छा करता है । जिस भोग से हटने की भावना हो वह भोग क्या भोग है? सम्यग्दृष्टि की ज्ञानकला का आदर अज्ञानी जीव कैसे कर सकता है?
ज्ञान और वैराग्य का सामर्थ―ऐसी स्थिति ज्ञान और वैराग्य के कारण होती है । देखो कितनी उम्र गुजर गई, कितना-कितना खाये, कितने भोग भोगे? उन सबसे जो सुख हुआ है वह तो बहुत इकट्ठा हो गया होगा । क्योंकि 40-50 वर्ष का सुख इकट्ठा हो गया होगा । पर अपनी आत्मभूमि की तिजोरी में देखो तो सही कि कितना दुःख इसमें है? जितने भोग भोगे हैं उनका दुःख और पछतावा तो संभव है कि हृदय में हो, पर जो सुख भोगा वह सुख तो उसमें रंचमात्र भी नहीं है । यह ज्ञान और वैराग्य में ही सामर्थ्य है कि कोई व्यक्ति भोग भोगता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता है । इन दोनों प्रकार की सामर्थ्य में यहाँ ज्ञान की सामर्थ्य बतलाते हैं ।