वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 198
From जैनकोष
उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं ।
ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को ।।199।।
आत्मा का मौलिक लक्ष्य आनंद―आत्मा का लक्ष्य है कि आनंद मिले, आत्मा की अन्य कुछ परिस्थिति हो जाये, उससे खेद नहीं होता है, आनंद के घात से खेद होता है, जैसे मान लो हाथी के शरीर में पहुंच गए अथवा चींटी के शरीर में पहुँच गए, बहुत बड़ा प्रदेश विस्तार हो गया, कहीं थोड़ा प्रदेश विस्तार हो गया तो अन्य कुछ भी गुजरे उन स्थितियों से आत्मा अपना अहित नहीं समझता । एक आनंद में बाधा आए तो वह इसे असह्य है । एक ही उद्देश्य है कि मुझे आनंद मिले । भैया ! वह आनंद मिलता कैसे है? इन परपदार्थों में इन जड़ वैभवों में तो आनंद नामक गुण ही नहीं है । उनसे किसी प्रकार आनंद प्राप्त हो । वहाँं से आनंद नहीं निकलता है, आनंद नहीं आता है और जहाँ आनंद नामक गुण है ऐसे जो ये अनेक जीव हैं उनका आनंद गुण उन ही में परिणत होकर वहीं समाप्त हो जाता है । उन बाहरी पदार्थों से आनंद का रंच भी प्रसार नहीं होता है । उनसे मुझे आनंद कैसे मिल सकता है? फलत: किसी भी परपदार्थ से मेरे में आनंद नहीं आता है । जड़ में तो आनंद ही नहीं है । उनसे आनंद आयेगा कैसे? जिसके आनंद है वह अपने में ही अपने ही आनंद को परिणत करके अपने में अनुभूत कर लेता है । उनसे बाहर उनका आनंद जरा भी निकलता नहीं है । फिर उनसे आनंद कैसे मिले? फलत: किसी भी परपदार्थ से आनंद नहीं मिलता है किंतु स्वयं में ही आनंद नामक गुण तन्मयता से अनादि स्वत: सिद्ध है । उस आनंद गुण से ही आनंद पर्याय व्यक्त हो सकती है ।
आनंद की व्यक्ति की ज्ञान पर निर्भरता―भैया ! हमने अपने में आनंद समझा नहीं और परवस्तुओं से आनंद की आशा रखी है । इस कारण हम आप आनंदमय होकर भी आनंद से च्युत रहे । वह आनंद किस प्रकार प्राप्त होता है, उसकी कुछ चर्चा यहाँ की जा रही है । यह आनंदपरिणमन ज्ञान की दिशा पर निर्भर है । हम ज्ञान को किस प्रकार बनाए कि आनंद परिणमन बने और किस प्रकार बनायें कि सुख या दुःखरूप परिणमन बनें । ज्ञानगुण आनंदगुण यद्यपि 2 गुण हैं, लक्षणभूत हैं किंतु इसका अविनाभाव संबंध है अर्थात् कैसा ज्ञान होने पर आनंद गुण किस प्रकार परिणमन करता है और कैसा ज्ञान होने पर कैसा परिणमन करता है? यह बात तो कुछ अनुभवसिद्ध है । जब ज्ञान इस प्रकार परिणत होता है कि इसमें मुझे टोटा पड़ा, इतना नुकसान हुआ । उस रूप से जब ज्ञान जानन परिणमन करता है तो अनाकुलता उत्पन्न होती है और जब यों परिणमता है कि टोटा पड़ गया तो क्या है, वह पर चीज ही तो थी । न साथ लाये थे और न साथ जायेंगे । उससे तो यहाँ कुछ भी हानि नहीं होती है । जब इस प्रकार का ज्ञान बनता है तो उसके अनाकुलता रहती है । ज्ञान और आनंद परस्पर में अविनाभावी हैं । तो इससे भी और अधिक चलकर देखें । हम अपने आपको तो पहिचान सकें कि मैं तो शुद्ध ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान स्वरूप हूँ । ऐसे शुद्ध सहज स्वभाव की मुझमें दृष्टि आ सके तो यह आनंदगुण शुद्धरूप से परिणम सकता है ।
व्यवहारनय के कथनमार्ग से परमस्वभाव में पहुंचने का यत्न―सहज स्वभाव को उपयोग में सुरक्षित रखने के लिए यह उद्देश्यरूप गाथा कही जा रही है । इस गाथा का अर्थ है, नाना प्रकार का जो उदय विपाक है, उसे जिनवरों ने कर्मों का बताया है, वह मेरा स्वभाव नहीं है किंतु यह मैं एक ज्ञानस्वभावमात्र हूँ । उत्थानिका में यह कहा गया है कि स्व और पर में सम्यग्दृष्टि जीव इस प्रकार जानता है । यहाँ स्व की तो चर्चा की है, पर की चर्चा नहीं की गई है । बतला रहे हैं कि रागद्वेष मोह भाव को कि ये कर्मों के हैं ऐसा जिनेंद्र ने बतलाया है । देखिए उद्देश्य जब विशुद्ध होता है तो किसी भी चर्चा में इस अपने उद्देश्य पर पहुंचता है । हमारा उद्देश्य है कि अपनी दृष्टि से अपने को यथार्थ और शुद्ध निरखें । ऐसा देखने के लिए जहाँ निश्चयनय की पद्धति हमें बहुत काम देती है―यह मैं हूँ, जैसा भी कुछ देखूँ, अन्य किसी का मेल न मिलाऊं । केवल एक निज को ही देखें, निज की ही शुद्ध परिणति देखें, शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से देखें तो वह हो गया शुद्ध निश्चयनय और पर्याय की दृष्टि न करके केवल एक स्वभावमात्र को देखें तो वह हो गया परमशुद्ध निश्चयनय । तो जिस स्वभाव को ग्रहण करने के लिए हमारे शुद्ध निश्चयनय की पद्धति हमको बहुत कार्यकर होती है । यह मैं ही स्वभाव को निरखने के लिए व्यवहारपद्धति से चलकर स्वभाव की ओर पहुँचने की कोशिश की है ।
गाथा में विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय के उपयोग की झलक―भैया ! एक नय होता है विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चयनय । इसमें जिससे रुचि है उसे तो शुद्धरूप में देखा जा रहा है और जो हेय है, जिसकी रुचि नहीं है उसको अन्यत्र गिराकर देखा जाता है । विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चयनय में यह दृष्टि है । जैसे मानो एक प्रश्न हो कि बतलाओ रागादिक भाव किसके हैं? रागादिक भाव आत्मीय हैं या पौद्गलिक हैं? तो अशुद्ध निश्चयनय का उत्तर है कि रागादिक भाव आत्मीय हैं । विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चय से रागादिक पौद्गलिक हैं । परमशुद्ध निश्चयनय से रागादिक हैं ही नहीं । जैसे एक दर्पण सामने है, उसमें जो प्रतिबिंब पड़ रहा है वह पीछे खड़े हुए बहुत से पत्थरों का निमित्त मात्र पाकर वह द्रव्य छायारूप परिणत होता रहता है । इस घटना से हम यों भी जान सकते हैं कि देखो अमुक पदार्थ की सन्निधि का निमित्त पाकर यह छायारूप परिणति होती है । हम इसको यों भी देख सकते हैं कि देखो दर्पण में इस-इस रूप परिणमन हो रहा है । क्या हम यों नहीं देख सकते हैं? यह दर्पण ऐसा परिणमता है । हम न देखें उस उपाधि को, किंतु वर्तमान में दर्पण जिस प्रकार परिणत हो रहा है उस प्रकार दर्पण को देखें तो मुझे कौन रोक सकता है? यही है अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि ।
अशुद्धनिश्चयदृष्टि का प्रभाव―अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में क्या प्रभाव है ? चूंकि किसी परपदार्थ को इसने दृष्टि में नहीं लिया, अत: राग का अंकुर अथवा वर्द्धन वर्तन अब आगे न होने पायेगा । इसका कारण यह है कि राग होता है तो किसी परवस्तु को विकल्प में डालता हुआ होता है । जब पर की अपेक्षा न रखें, केवल वस्तु जिस प्रकार है उस ही प्रकार देखने में लग रहा है तो परवस्तुओं को उपयोग में न लिया, पर का आलंबन न किया तो यह रागभाव स्वयं ही अपना स्थान नहीं रख सकता है । पर का विकल्परूप आलंबन लिए बिना विकार भाव उत्पन्न नहीं होता है । अशुद्ध निश्चयदृष्टि से पर का आलंबन ही नहीं लिया गया तो यह समाप्त हो जाता है और समाप्त क्या हो जाता है, इस रागभाव की दृष्टि भी ओझल होकर परमशुद्ध निश्चयनय के विषय में पहुंच जाती है, यह है अशुद्धनिश्चयनय की दृष्टि का प्रभाव ।
शुद्ध निश्चयनयदृष्टि का प्रताप―भैया ! अशुद्ध निश्चय की दृष्टि में तो थोड़ी कठिनाई पड़ती है अपने उद्देश्य में पहुंचने के लिए । शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में कुछ सरलता है । जहाँ पर अशुद्ध पर्याय को निरखा जा रहा था, अब इस दृष्टि में शुद्ध पर्याय परिणत द्रव्य को देखा जा रहा है । पहिले तो अपने रागभाव को देख कर राग से उतरकर स्वभाव में पहुंचने का यत्न था । अब शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में शुद्ध पर्याय को निरखकर पर्याय को गौण कर हम स्वभाव में पहुंचना चाहते हैं । यह बात होना सुगम है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का जैसा स्वभाव है उसरूप परिणमन होता है । तो उस परिणमन को लक्ष्य में लेकर परिणमन को गौण कर स्वभाव में जरा जल्दी मेल पा सकते हैं कि और परमशुद्ध निश्चयदृष्टि में अपने उद्देश्य में ले जाने में तत्काल समर्थ होता रहता है । यहाँ तो विलंब की भी बात नहीं है । स्वभाव निरखो यही परम शुद्ध निश्चयनय का काम है ।
विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय का प्रयोग―अब प्रकरण में विवक्षित एक देश शुद्धनिश्चयनय को देखिये जिसको शुद्ध रखने की विवक्षा है उसे तो हम शुद्ध रखते हैं और जिसमें रुचि नहीं है, जो अनात्मीय है, पर भाव है उसे उपेक्षित करते हैं । ऐसी पद्धति में ऐसे आशय में यह उत्तर मिलता है कि राग पौद्गलिक है । हमारा कहने का उद्देश्य यह है कि राग मेरे नहीं है । मैं तो शुद्ध टंकोत्कीर्णवत् निश्चल स्वत:सिद्ध ज्ञायकस्वभाव हूँ । इस रूप से यहाँं देखा जा रहा है कि हम राग के विषय में अपने में कुछ लपेटा-लपेटी न करें, सीधा बोल दें, चूँकि पुद्गल कर्म के उदय होने पर यह होता है और उदय न होने पर यह नहीं होता है, इसलिए राग पौद्गलिक है ।
प्रकरण के अनुसार दृष्टि का पूर्ण प्रयोग―भैया ! अन्य द्रव्य होकर भी जो थोड़ा बहुत संबंध रखता था, कर्मों के साथ निमित्तनैमित्तिक रूप उसे और ढकेलकर और एकदम उसमें ही प्रतिष्ठित कर दें अर्थात् राग को अत्यंत हेय कर दें, यह इस दृष्टि की देन है और इस दृष्टि में वह अपने शुद्ध ज्ञानस्वरूप को सुरक्षित बना लेता है, जब जिस दृष्टि में जो देखा जा रहा है उसमें ही दृष्टि देकर निरखें । जहाँ जो प्रकरण जैसा आवे उस प्रकरण के माफिक हम उसको देख लें । जिसकी देने में राग है ही नहीं वह है परम शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि । एक दृष्टि में राग पौद्गलिक है यह है व्यवहारदृष्टि और अपने आपको शुद्ध रखने के उद्देश्य से कहा जा रहा है तो यह है विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि । राग आत्मा में है, यह है अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि ।
सिद्धहस्त की लीला―किसी कार्य में कुशल पुरुष जो कि अत्यंत अभ्यस्त है, जैसे वह उस कार्य को किसी भी प्रकार स्थित होकर व्याप्त होकर वह अपनी कुशलता से उस कार्य को कर लेता है । जैसे कोई खेल में बड़ा अभ्यस्त है तो नाना लीलाओं के साथ अपने उस खेल को संपन्न करता है । जो चित्र बनाने में बहुत अभ्यस्त है वह क्षणमात्र में ही हंसते, खेलते, बोलते, चालते जैसा मनचाहे चित्र बना देता है । वह ऐसी सावधानी नहीं रखता है जैसी कि एक अनाड़ी लिखने वाला करता है । वह व्यक्ति उस कार्य में प्रवीण हो जाता है, सफल हो जाता है । इसी प्रकार टंकोत्कीर्णवत् निश्चल ध्रुव स्वतःसिद्ध सनातन इस ज्ञायकस्वभाव का जिन्हें परिचय होता है ऐसे पुरुष किसी भी नय के वर्णन से प्रयोजन शुद्ध तत्त्व के निहारने का निकालते ही हैं । इस स्वभाव के ग्रहण करने का अभ्यस्त ज्ञानी संत व्यवहारदृष्टि से भी कुछ कहा जा रहा हो, बोला जा रहा हो तो वहाँं पर भी उनके अर्थ निकालने की शैली होती है स्वभाव के ग्रहण करने की ही ।
टंकोत्कीर्ण का भाव―यहाँ कह रहे हैं कि जो कर्मोदय के विपाक से उत्पन्न हुए नाना प्रकार के भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं हैं । यह मैं तो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल स्वतःसिद्ध ज्ञायकभाव स्वभावी हूँ । टंकोत्कीर्णवत् का क्या अर्थ है? इसमें दो भाव हैं । एक तो टांकी से उकेरी हुई प्रतिमा जैसी निश्चल रहती है, हाथ पैर नहीं मुड़ सकते हैं, अखंड अभंग निश्चल ही रहती है, समस्त उलट जाये पर उसके खंड होकर कोई हाथ पैर मुड़ जाये ऐसी बात नहीं हुआ करती है । जैसे टांकी से उकेरी गई प्रतिमा निश्चल होती है इसी प्रकार यह शुद्धज्ञायकस्वरूप अपने स्वरूप में निश्चल रहता है ।
टंकोत्कीर्णवत् का दूसरा भाव―टंकोत्कीर्णवत् का दूसरा भाव यह है कि जैसे मूर्ति को कारीगर नहीं बनाता है किंतु उस मूर्ति को जिस कारीगर ने बनाया है उसने मूर्ति बनाये जाने वाले पत्थर के भीतर यह जान लिया कि इसमें यह मूर्ति है । तो उस मूर्ति को बनाने के यत्न में केवल उस मूर्ति के आवरण पत्थरों को हटाया है । उस मूर्ति में कोई नई चीज लाकर नहीं उत्पन्न किया । इसी प्रकार इस सम्यग्दृष्टि जीव ने अपने आपके इस ज्ञायकस्वभाव को जाना है निरखा है, वह इस परमात्मत्व को कुछ नई चीज लगाकर प्रकट नहीं किया करता है किंतु इस परमात्मत्व के आवरण जो विषय कषायों के परिणाम हैं उनको प्रज्ञा के छेनी से, प्रज्ञा की हथौड़ी से और प्रज्ञा के ही उपयोग से यह जीव सर्व आवरणों को हटा देता है । तो जो था वह व्यक्तरूप प्रकट हो जाता है । ऐसा टंकोत्कीर्णवत् प्रकट होने वाला यह ज्ञायकस्वरूप परमात्मतत्त्व है । यह मैं ज्ञायकस्वभावरूप हूँ किंतु किसी भी रागादिक विकार रूप नहीं हूं―ऐसी भावना इस सम्यग्दृष्टि पुरुष में होती है । यों स्व पर का सामान्यरूप से विवेचन किया है । अब उस ही स्व और पर को विशेष पद्धतियों में सम्यग्दृष्टि किस प्रकार जानता है, इसका वर्णन करते हैं ।