वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 199
From जैनकोष
पोग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हवदि एसो ।
ण दु एस मज्झ भावो जाणगभावों हु अहमेक्को ।।200।।
कर्म का संक्षिप्त परिचय―रागनामक पुद्गल कर्म है । पुदगल को कर्म कहना चाहिए या विभावों को कर्म कहना चाहिए? कर्म शब्द जीव के रागादिक विकारों में भी लगाया जाता है और कर्म नाम पौद्गलिक इन कार्माणवर्गणाओं में भी लगाया जाता है । तो किसी का तो असल में कर्म नाम होगा और किसी का उपचार से कर्म नाम होगा । कर्म शब्द की व्युत्पत्ति करके सोचें तो पुद्गल कर्म नाम नहीं हो सकता । तब इन दोनों में असल में कर्म नाम है किसका? जीव के रागादिक विभाव का । कर्म का अर्थ है क्रियते इति कर्म । जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं । प्रथम तो दुनिया में की जाने वाली बात कोई नहीं है । एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का कुछ करता है यह तो त्रिकाल असंभव है और खुद-खुद का कर्ता है, यह मत्त वाणी जैसी बात है । खुद-खुद को करता है तो वह खुद कौन है जो करने वाला है । और वह खुद कौन है जो किया जा रहा है । जब वह स्वयं एक है तो एक-एक को करे क्या? इसलिए जो करने की धातु है वह व्यवहार के लिए प्रयुक्त है । निश्चय भाषा में ‘करने’ शब्द का नाम कहीं आना ही न चाहिए । कोई कुछ करता है या नहीं करता है, इसके निर्णय की बात उपस्थित करना तो दूर रहो पर ‘करना’ शब्द ही नहीं बोला जा सकता है । लोकव्यवहार के नाते ‘करना’ शब्द बोल दें तो करने शब्द की शोभा चेतन के विभाव के साथ हो सकती है पर अचेतन के साथ नहीं होती है ।
चेतन के लिये करने का व्यवहार―लोक व्यवहार में अचेतन के लिए करने का नाम नहीं लगाया जाता है और लगाया जाता है तो किसी दूसरी धातु का भाव लेकर । करने का नाम चेतन के साथ जोड़ा जाता है । जो किया जाये उसे कर्म कहते हैं । चेतन के द्वारा जो किया जाता है वह कर्म है । चेतन के द्वारा किये जाते हैं ये रागादिक विकार इसलिए उनका नाम तो सीधा कर्म है और इन कर्मों का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणाओं में जो कर्मत्व अवस्था हुई इस कारण उसको कर्म उपचार से कहा जाता है । उपचार ही सही पर परिणति दोनों जगह होती है, जीव में जीव की शक्ति से होती है, कर्मों में कर्मों की शक्ति से होती है । फिर भी कर्म दोनों का नाम है ।
राग की कार्यकारणता―राग नाम का एक पुद्गल कर्म है, उसके फल उत्पन्न हुआ यह रागरूप भाव है वह मेरा स्वभाव नहीं है । यह रागरूप भाव कहाँ होता है? आत्मा की एक परिणति में होता है । पर यह विभाव किसी अन्य को निमित्तमात्र किए बिना स्वयं स्वरसत: होता है तो यह राग स्वभाव कहलायेगा, विभाव नहीं हो सकता । इस राग के उत्पन्न होने की शैली ही यह है कि वह उदयागत कर्मों का निमित्त पाकर स्वयं अपने परिणामों से रागरूप परिणम जाता है । वह उदयागत कर्म कैसे इस जीव में बंधा? उस बंधन के मर्मभूत कारण पर इस समय दृष्टि दें । जो नवीन कर्म आस्त्रुत होते हैं याने आस्रव को प्राप्त होते हैं उसका कारण है उदयागत पुद्गलकर्म, न कि जीव विभाव । और उदयागत पुद्गलकर्मों में नवीन कर्मों के आस्रव का निमित्तपना बन जाये इसका निमित्त है जीव का विभाव ।
व्यक्त अर्थ में गर्भित अव्यक्त भाव―भैया ! सुगम भाषा में प्रत्येक जगह यह वर्णन आया है कि जीव के विभावों का निमित्त पाकर नवीन कर्म आते हैं इसका सीधा यह अर्थ नहीं है पर जो सही अर्थ है उस अर्थ में इसका विरोध नहीं । उद्देश्य एक है । इस कारण ऐसा बोल देना गलत भी नहीं है । बात वहाँ यह होती है कि नवीन कर्मों का आस्रवण तो होता है उदयागत पुद्गलकर्मों के निमित्त से और उदयागत पुद्गलकर्मों में नवीन कर्मों के आस्रवण का निमित्तपना आ जाये इसका निमित्त होता है जीव का विभाव । तो यह जीव का विभाव कैसा विलक्षण भाव है कि उदयागत कर्मों का निमित्त पाकर जीवविभाव होता है, और जीवविभाव का निमित्त पाकर उदयागत पुद्गलकर्मों में नवीन कर्मों के आस्रवण का निमित्तपना आता है ।
राग की औपाधिकता―बद्ध हुए कर्म कषाय के अनुसार उन कर्मों में स्थित भी हो गए । अब उसका आया समय उदय या उदीरणा का पहिले उन बद्ध कर्मों के ंधने का टाइम निर्णीत हो गया था । समय पर खिरे उसका नाम उदय है । उदय कहो या निकलना कहो एक ही बात है । सूर्य का उदय हो या सूर्य का निकलना हो दोनों में अंतर नहीं है । जब वे बद्ध कर्म आत्मा से निकलने को होते हैं तब उनकी स्थिति ऐसी विचित्र होती है कि उन निकलने वाले कर्मों का निमित्त मात्र पाकर यह जीव स्वयं रागादिक विकारों से परिणम जाता है । ये रागादिक विकार औपाधिक भाव हैं, यह मेरा स्वभाव नहीं हैं ।
ज्ञानी के स्वभावस्पर्श का उत्साह―आत्मा के सहज स्वरूप का परिचय करने वाला सम्यग्दृष्टि ज्ञानी संत किसी भी नय का प्रयोग और व्यवहार इस ढंग से करता है कि स्वभाव को छू लिया जाये । उसका उद्देश्य एक स्वभाव का आश्रय करना है । और वह किसी भी नये मार्ग से चलकर अपने उद्देश्य की ही पूर्ति में लगा रहता है । यह निश्चयनय के विपरीत बात बोली जा रही है कि रागादिक विकार पौद्गलिक हैं, औपाधिक हैं ऐसा कहने में यह ज्ञानी पुरुष अपने स्वभाव स्पर्श के लिए एक मार्ग पाता है । ओह वे पौद्गलिक हैं, मेरे स्वभाव नहीं हैं । मैं तो यह टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एक ज्ञायकस्वरूप हूँ । इसी प्रकार जैसे राग के संबंध में बात कही, द्वेष के संबंध में भी वैसी ही बात है । वह द्वेष नामक पुद्गल प्रकृति के उदय का निमित्त पाकर होने वाला भाव है, मेरा स्वभाव नहीं है । इसी प्रकार मोह, क्रोध, मान माया, लोभ इनमें भी यही बात समझना है ।
विविक्त भावों से विविक्तता―भैया ! ये विभाव आत्मा के परिणमन हैं किंतु औपाधिक हैं, स्वरसत: उत्पन्न होने वाले नहीं हैं । उनको पर बताकर पर से विविक्त स्व का ज्ञान कराया गया है । इसी प्रकार से प्रत्येक द्रव्य ऐसा है कि जिसका आत्मा से कुछ अधिक संबंध है और उस संबंध के कारण और उसमें आगे बढ़कर मोही जीव मुग्ध होता है, उन्हें अपना मानता है और अपने में कर्मों का बंध कर लेता है । उन परद्रव्यों को भी इसी तरह जानो कि ये कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, घ्राण, चक्षु, कर्ण, रसना और स्पर्शन―ये सब भी पर हैं । मेरे स्वभाव नहीं हैं । मैं तो यह टंकोत्कीर्णवत् एक ज्ञायकस्वभावरूप हूँ ।
बाह्यहेतुओं का द्वैविध्य―भैया ! बाह्यहेतुओं में दो प्रकार के हेतु हैं, एक निमित्तभूत और एक आश्रयभूत । जीव के विभाव में निमित्तभूत हेतु तो पौद्गलिक कर्म हैं और आश्रयभूत कारण हैं, कर्मों के अतिरिक्त अन्य सब पदार्थ जिनको उपयोग में लेकर, जिनको ज्ञेय बनाकर, जिनका आश्रय कर, विचार कर, ख्याल कर हम रागादिक भावों की दृष्टि करते हैं वह कहलाता है आश्रयभूत । तो निमित्तभूत और आश्रयभूत ये दो प्रकार के हेतु हैं । इनमें निमित्त कारण का तो निमित्तनैमित्तिक भावों की विधि में घनिष्ठ संबंध नहीं है और इसी कारण आश्रयभूत पदार्थों का कार्य में अविनाभाव नहीं बनता है ।
एक आश्रय होने पर भी एक जाति के भाव का अभाव―वक्ता जन एक दृष्टांत दिया करते हैं कि कोई वेश्या मरी, उसे देखकर कामी पुरुष के यह भाव जगा कि यह जीवित रहती तो और दो चार दिन मिलते । साधु के यह भाव रहता है कि इसने दुर्लभ नर पर्याय पाकर व्यर्थ ही इस भव को गंवा दिया । तो कुत्ते-स्यालों का यह भाव हुआ कि इसे यों ही छोड़ दिया जाये तो हम पशुओं का कई दिनों का भोजन हो जायेगा । वह पर आश्रयभूत पदार्थ है, इसलिए भिन्न-भिन्न लोगों ने अपने भिन्न भाव बना लिए । कोई तो सुंदर वस्तु को देखकर राग करता है और कोई नहीं भी राग करता है तो यह नियम भी नहीं घटित होता है कि अमुक संयोग मिले तो इसके ऐसा कषायभाव जगे ही ऐसा नियम नहीं है । यह तो आश्रय लेने वाले की योग्यता पर निर्भर है, किंतु निमित्तभूत कारण जो कर्मोदय हैं उसमें कर्मोदय के आश्रयभूत पदार्थों के कारण कारणता नहीं है । मिथ्यात्व नामक प्रकृति के उदय में जीव में मिथ्यात्व भाव होता है, अन्य प्रकार का भाव नहीं होता है । राग नामक प्रकृति के उदय होनेपर जीव में राग नामक भाव होता है । वे सब विभाव पुद्गलकर्म के विपाक से प्रभूत हैं, वे मेरे स्वभाव नहीं । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अपने आपके यथार्थ स्वरूप को जानता हुआ और राग को छोड़ता हुआ नियम से ज्ञान और वैराग्य से संपन्न हो जाता है ।