वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 214
From जैनकोष
एमादि एदु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी ।
जाणगभाओ णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ ।।214।।
ज्ञानी के परद्रव्य का अपरिग्रहित्व―पहिले कुछ भाव बताए गए कि इन परद्रव्यों के भावों को या पर के निमित्त से होने वाले विभावों को ज्ञानी जीव नहीं चाहता । अब कहते हैं कि इस ही प्रकार के नाना तरह के जो भी परद्रव्यों के भाव हैं उन परभावों को भी ज्ञानी जीव नहीं चाहता । क्योंकि ज्ञानी जीव तो सर्वत्र ज्ञायक भावस्वरूप नियत और निरालंब रहता है । जब किसी भी परभावों को नहीं चाहता तो यह ज्ञानी जीव परिग्रही नहीं होता है ।
परिग्रहित्व का कारण इच्छा―परिग्रही होना अंतर में इच्छा पर निर्भर है । किसी भी बाह्य वस्तु में झुकाव है, चाह है तो वह परिग्रही हो चुका । उस पर परिग्रह का भार लद गया । जिस वस्तु का राग है उस वस्तु का विनाश होने पर बड़ी विह्वलता होती है । वह सब इस इच्छा का ही प्रसाद है । बाह्यवस्तु के विनाश से विह्वलता नहीं है किंतु अपने में इच्छा की और उस इच्छा का विघात हो रहा है इस कारण विह्वलता है । यों समस्त परभावों को ज्ञानी जीव नहीं चाहता है, वह तो सर्वत्र निरालंब है, प्रत्येक स्थिति में वह अपने को अकेला निरख सकता है ।
ज्ञानी गृहस्थ की अंतर्निर्मलता―गृहस्थ भी चाहे दुकान में बैठा हो, चाहे घर में हो, चाहे किसी प्रसंग में हो, यदि किसी क्षण अपने को सबसे निराला ज्ञान स्वभावमात्र तक सकता है तो वह गृहस्थ धन्य है, वह ज्ञानी है, वह संत है । धर्म का पालन परमार्थ से यही है । धर्म के लिए हाथ-पैर फैलाने की आवश्यकता नहीं है । वह तो मजबूरन ही फैलाये जाते हैं । राग का उदय आये तो इस राग को किस जगह पटके? उस जगह राग को छोड़ना चाहिए जिस स्थान में राग को छोड़ने में आत्मा विपरीत पथ में न लगे, विषय कषायों में न लगे । ऐसे विवेक के कारण ज्ञानी जीव पूजा, भक्ति, दान, उपकार में अपने हाथ-पैर फैलाता है और गृहस्थावस्था में यह सब करना चाहिये । परमार्थत: यदि आत्मबल जागृत है तो इतनी प्रवृत्ति करने की आवश्यकता नहीं है । वह तो किसी भी जगह किसी भी स्थिति में सबसे निराला ज्ञानस्वभावमात्र अपने आपको देखकर सुखी हो सकता है । ज्ञानी जीव समस्त परभावों के भार को नहीं चाहता इसलिए उनका परिग्रही वह नहीं होता । इस प्रकार यह सिद्ध है कि ज्ञानी जीव अत्यंत निष्परिग्रही होता है ।
ज्ञानी के स्वच्छ स्वरूप का अनुभव―यह ज्ञानी पुरुष भावांतरों के परिग्रह से शून्य होने के कारण वमन कर दिया है समस्त अज्ञानभावों को जिसने ऐसा निर्भार होता हुआ सर्व पदार्थों में अत्यंत निरालंब होकर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावमात्र अनुभव में रहता हुआ साक्षात् ज्ञानघन आत्मा का अनुभव करता है । भीतर की स्वच्छता का ही सारा प्रताप है । कर्मक्षय, कर्मसम्वर, शांतिलाभ ये सब अंतरंग की स्वच्छता पर निर्भर हैं । बाहरी दिखावट सजावट से शांति प्राप्त न हो जायेगी और अंतरंग स्वच्छता सबसे निराले निज स्वरूपमात्र अपने आपको निरखने से होती है । यह ज्ञानी पुरुष इस ही उपाय से अपने को स्वच्छ ज्ञानघन अनुभव करता है । भैया ! पूर्व में बँधे हुए कर्मों में उदयवश ज्ञानी जीव के उपभोग भी होता है, किंतु उसके उपभोग में राग का अभाव है । इस कारण वह उपभोग भी परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता । ज्ञानी की कितनी उत्कृष्ट महिमा है? जिस जाल के अंदर मिथ्यादृष्टि बना हुआ आत्मा संसारबंधन को बढ़ाता है, देखने में वैसा ही जाल है । उन जालों में रहता हुआ सम्यग्दृष्टि परिग्रह भाव तक को भी नहीं प्राप्त होता । यह सब गुणों की अलौकिक महिमा है । अब यह बतलाते हैं कि ज्ञानी पुरुष के उपभोग का परिग्रह नहीं बनता । इस ही के उत्तर में अगली गाथा आ रही है ।