वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 215
From जैनकोष
उप्पण्णोदय भोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं ।
कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी ।।215।।
ज्ञानी के त्रिविध उपभोग की अपरिग्रहता―क्या कहा जा रहा है कि ज्ञानी पुरुष के उपभोग का परिग्रह नहीं बनता । क्यों नहीं बनता, उसके विश्लेषण में उपभोग के तीन भेद किए जा रहे हैं । भोग तीन प्रकार के हैं―(1) अतीत उपभोग, (2) भविष्यत उपभोग और (3) वर्तमान उपभोग । जो भोग भोग चुके हैं उन भोग का नाम है अतीत उपभोग । जो भोगे जायेंगे उनका नाम है भविष्यत उपभोग, और जो भोग वर्तमान समय में भोगे जा रहे हैं उनका नाम है वर्तमान उपभोग । इन तीनों उपभोगों का ज्ञानी जीव परिग्रही नहीं है ।
अतीत उपभोग की निष्परिग्रहता―यों भैया ! कर्मोदयजन्य उपभोग 3 प्रकार के हैं । उनमें से जो अतीत उपभोग है, जो गुजर गए भोगोपभोग हैं वे तो गुजरे ही हुए हैं । गुजरे का स्मरण करना, संबंध जोड़ना यह तो निपट अज्ञानीजनों का काम है । जैसे कोई पुरुष बहुत धनी था और अब उदयवश गरीब हो गया, तो गरीब होने पर भी दो आदमियों के बीच वह अपनी शान की बात कहता है कि मेरे द्वार पर तो सैकड़ों पुरुषों के जूते उतरते थे, इतना तांता लगा रहता था, इतने घोड़े थे, इतना वैभव था । ऐसा जो अतीत से संबंध जोड़ रहे हैं वह क्या है? वह अतीत का परिग्रह बना रहा है । चीज नहीं है पर परिग्रह बना रहा है । बात गुजर गई, पर गुजरी हुई बात को भी लोगों के सम्मुख रखें, ममता रखें तो वह परिग्रह बन रहा है । ज्ञानी जीव अतीत का विचार नहीं करता । उसमें ममता, मोह राग नहीं करता । सो अतीत तो अतीत ही हो गया इस कारण परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होता ।
अतीत परिग्रह में ज्ञानी व अज्ञानी की धारणा―अतीत परिग्रह तो गुजर गया, नष्ट हुआ, फिर कहने की जरूरत क्या है? क्यों कहा जा रहा है? क्यों अपने अतीत का हाल दूसरों को सुनाता है? मोक्षमार्ग में इसकी अटक है क्या कुछ कि सुनाए बिना मोक्षमार्ग न मिलेगा । किंतु वह दूसरों को सुनाता है तो इसका कारण राग है । वह अतीत के बारे में लोगों को सुना-सुनाकर अपना परिग्रह बना रहा है । ज्ञानी पुरुष उसका स्मरण भी नहीं करता है कि मैं ऐसा भोगता था, ऐसी शान में रहता था, ऐसा वैभव था, ऐसी प्रतिष्ठा थी । क्यों ख्याल किया जा रहा है अतीत का? अरे कोई मोक्षमार्ग तो नहीं है, रत्नत्रय तो नहीं है । यह ख्याल किया जाना तो इस बात को सिद्ध करता है कि उसके अंदर राग है । ज्ञानी जीव सोचता है कि यह तो अतीत ही हो गया सो वह उसका स्मरण भी नहीं करता है ।
ज्ञानी के भविष्यत् परिग्रह का अभाव―भविष्य के जो उपभोग हैं, उनका परिग्रह अपना तब कहलाये जब चाह उनकी की जा रही हो । अतीत की चाह यह ज्ञानी नहीं कर रहा है, पर अतीत में अहंकार कर रहा है । तो अहंकार तो परिग्रह का रूप है । और भविष्यतकाल का उपभोग जब उनकी चाह की जा रही हो तब परिग्रह बन सकता है, सो जैसे मुझे यह मिल जाये, हमारी ऐसी दुकान हो जाये, ऐसी अमुक चीज बन जाये, इतनी स्थिति हो जाये, ऐसा जरिया बन जाये आदि प्रकार से भविष्य संबंधी कुछ भी चाह करे तो भविष्य जब होगा तब होगा, मगर परिग्रह अब से ही लग गया । अतीतकाल के उपभोग से अहंकार का परिग्रह होता है और भविष्यकाल के उपभोग की इच्छा से परिग्रह होता है । तो जो अनागत परिग्रह है वह तब ही परिग्रह कहला सकता है जब उसकी चाह की जा रही हो । सो भविष्य की भी चाह ज्ञानी नहीं करता ।
चाह के प्रकार―चाह भी एक आसक्तिपूर्वक होती है और एक साधारणतया होती है । ज्ञानी गृहस्थ दुकान पर जाता है तो क्या उसे यह चाह नहीं होगी कि आय हो और दुकान चले । होती है पर वह तात्कालिक चाह है, कर्तव्य वाली चाह नहीं है । पर अज्ञानी जीव तो अपनी पर्याय में आसक्ति रखकर यहाँ मैं धनी कहलाऊं, मैं लोक में प्रतिष्ठित बनूँ, ऐसी चाह करने का भी यत्न करता है । परिग्रह तो लेशमात्र भी होने वाली इच्छा में है । पर ज्ञानी संत राग के प्रकरण में इस राग का परिग्रही नहीं कहलाता । भविष्य का भी परिग्रही ज्ञानी पुरुष नहीं कहलाता । भविष्य का भी परिग्रह ज्ञानी पर नहीं लगता है ।
वर्तमान उपभोग में भी ज्ञानी के निष्परिग्रहता―अब रह गया वर्तमान परिग्रह उपभोग । वर्तमान उपभोग भी ज्ञानी जीव का परिग्रह नहीं है । वह किसी प्रकार वर्तमान में भोग भोगे जा रहा है, किंतु ऐसे भोग मुझे सदा काल मिलें ऐसी बुद्धि से भोगा जाये तो वह वर्तमान उपभोग परिग्रह बन गया । और ऐसा क्या उपभोग परिग्रह हो सकता है कि भोगा तो जा रहा है पर वियोगबुद्धि चली जा रही हो । फंस गए हैं, इस आपत्ति से कब दूर हों, ऐसी बुद्धि से उपभोग भोगा जाता हो तो वह कैसे परिग्रह हो सकता है? वर्तमान उपभोग रागबुद्धि से ही प्रवर्तमान हो तो परिग्रह होता है, किंतु वर्तमान उपभोग ज्ञानी जीव के रागभाव से प्रवर्तमान नहीं देखा गया है क्योंकि ज्ञानी पुरुष के अज्ञानमय रागबुद्धि का अभाव है । मात्र वियोगबुद्धि से कर्मविपाकवश वेदना की शांति के अर्थ उपभोगों में प्रवृत्ति हो तो वह उपभोग परिग्रह नहीं होता है । इस कारण वर्तमान उपभोग भी ज्ञानी जीव के परिग्रह नहीं होता है ।
ज्ञानी के तीनों कालों के उपभोगों के परिग्रहपने का अभाव―अब बतलाओ अतीत उपभोग तो अतीत ही हो गया, उसमें तो ज्ञानी अपना उपयोग भी नहीं देता है तो परिग्रह कैसे बने? भविष्यत् उपभोग चाहा न जा रहा हो तो उसका परिग्रह कैसे बने? ज्ञानी के अज्ञानमय भाव जो आकांक्षा है उसका अभाव है, सो ज्ञानी जीव के परिग्रह भाव की प्राप्ति नहीं होती । अब यह प्रश्न हो रहा है कि भविष्य काल का जो उदय है, उपभोग है उसको ज्ञानी जीव क्यों नहीं चाहते? उसके उत्तर में कहा जा रहा है ।