वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 217
From जैनकोष
बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स ।
संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो।।217।।
बंध और उपभोग के निमित्तभूत जो अध्यवसान का उदय है वह संसार के विषयों में, परज्ञेय के विषय में प्रवृत्त होता है, उन सबमें ज्ञानी जीव के राग उत्पन्न नहीं होता ।
विभावों की द्विविधता―जितने भी विभाव विकार होते हैं सो कोई तो संसारविषयक होता है और कोई शरीरविषयक होता है । इन भावों को 2 किस्मों में बाँट दो । एक तो रागद्वेष आदिक के ढंग के भाव और एक सुख-दुःख भोगने के ढंग के भाव । रागादिक भाव तो संसार बढ़ाने वाले होते हैं और सुख दुःख के भाव शरीरविषयक होते हैं । तो जो संसारविषयक भाव है वह तो होता है बंध के कारण और जो शरीरविषयक अध्यवसान है वह होता है उपभोग के कारण याने रागद्वेष मोहादिक भाव बंध करने वाले हैं और सुख दु:ख आदिक भाव उपभोग के निमित्त हैं ।
संसारविषयक व शरीरविषयक भावों की विशेषता―सभी विकार विकार के नाते एक समान हैं किंतु बंधन बढ़ाने वाले और शरीरविषयक उपभोग करने वाले ऐसे 2 भाव कहे गए हैं । रागभाव तो बंध ही कराता है और सुख दुःख का भाव बंध नहीं कराता है । जहाँ तक राग है तहां तक सुख दुःख चलते हैं । तिस पर भी सुख दुःख के ही प्रति दृष्टि हो तो सुख दुःख राग नहीं करता । जैसे कभी यह कहा जाये कि हम जानते हैं तभी तो बंधन में पड़ते हैं । राग होता है तो जानकर ही होता है । जो चीज नहीं जानते हैं ऐसे पुद्गल हैं वे तो बंध को नहीं प्राप्त होते । तो किसी के पराधीन बनते हैं । हम जानते हैं इसलिए पराधीन बनते हैं । सो हमारे पराधीन बनने का कारण ज्ञान हो जाये सो नहीं है । इसमें ज्ञान भी होता है, राग भी होता है । ज्ञान जिसमें नहीं है वहाँ राग नहीं होता है । फिर भी बंध का कारण ज्ञान नहीं है, राग है । इसी कारण जिस जीव के राग होता है उसके ही सुख-दुःख होते हैं, फिर भी सुख दुःख से बंध नहीं होता है, राग की ओर से बंध होता है । इस कारण सुख दुःख भाव उपभोगविषयक हैं और रागादिक भाव संसारविषयक हैं ।
बंध की रागहेतुता―यहाँं बैंकर साहब (श्री महावीरप्रसाद जी बैंकर मेरठ) का प्रश्न बहुत मर्म का है कि राग बिना सुख दुःख होते ही नहीं हैं, इसलिए सुख दुःख बंध का कारण होना चाहिए, किंतु स्वरूप पर दृष्टि दें तो सुख दुःख के कारण बंध नहीं होता । बंध होता है राग के कारण । सुख दुःख तो उपभोग के काम के हैं । पर ज्ञानी जीव को इन सबमें यह दृष्टि है कि चाहे वे सुख दुःख के ढंग के भाव हों और चाहे वे रागद्वेष के ढंग के भाव हों सब विकार भाव हैं । इस कारण उन सब भावों में उस ज्ञानी जीव के राग नहीं होता है क्योंकि वे समस्त विकार नाना द्रव्यों के स्वभावरूप से देखे गए हैं अर्थात् नाना प्रकार के पुद्गलकर्म के उदय के निमित्त से ये भाव पैदा होते हैं । सो टंकोत्कीर्णवत् निश्चल ज्ञायक भावस्वभावरूप आत्मा के रागादिक का प्रतिषेध किया गया है ।
ज्ञानी का रागरस-रिक्तता―ज्ञानी जीव के ये समस्त कर्म चूंकि ज्ञानी रागरस से रिक्त है इस कारण परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होता है । स्त्री पुत्रादिक के पालन के परिग्रह भाव को नहीं प्राप्त होता है । क्योंकि उसके पालने की प्रवृत्ति में रागरस नहीं है, पालना पड़ता है । जैसे कभी परिवार में, या सद्गोष्ठी में, मित्रों में रागरस न रहे तो कायदे कानून के अनुसार बोलना पड़ रहा है पर परिग्रह नहीं रहता है । परिग्रहभाव रहे तो शल्य रहती है, खिन्नता रहती है, बंधन रहता है । पर रागरस से रिक्त रहने के कारण उसमें परिग्रह भाव नहीं रहता । जैसे जो वस्त्र अकषायित हो तो उसमें रंग का संबंध होने पर भी रंग बाहर-बाहर लोटता है । वस्त्र रंगने के लिए पहिले मजीठा वगैरह में भिगोया जाता है । जैसे आजकल केवल फिटकरी में भिगो दिये जाते हैं और फिर उन पर रंग चढ़ाया जाता है । यदि किसी वस्त्र को हर्रा और फिटकरी के पानी में न भिगोया जाये, खाली पानी में भिगोया जाये सो वस्त्र पर रंग न चढ़ेगा । अगर उसे फींचकर धो दो तो रंग छूट जाता है । इसीलिए यह कहावत है कि हर्रा लगे न फिटकरी रंग चोखा हो जाये । सो ऐसा नहीं हो सकता है । जिस वस्त्र में कषायित्व नहीं किया गया है उस वस्त्र में रंग चढ़ता नहीं है । इसी प्रकार जिस पुरुष में रागरस नहीं है उस पुरुष में कर्म और बाह्य उपाधि परिग्रह नहीं बन सकते हैं । यह परिग्रह केवल बाहर लोटता है, दिखता है । संबंध किया जाता है, फिर भी अंतर में मिली नहीं है । इसका कारण क्या है कि ज्ञानी पुरुष स्वभाव से ही स्वरसत: ही सर्व राग से हटे हुए स्वभाव वाला है । इस कारण ज्ञानी पुरुष कर्मों के मध्य में पड़ा हुआ भी तन, मन, वचन की क्रियाओं के बीच में पड़ा हुआ भी उन सर्वकर्मों से लिप्त नहीं होता है । इसी विषय को स्पष्ट करने के लिए यह गाथा आ रही है ।