वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 218
From जैनकोष
णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो ।
णो लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जह कणयं ।।218।।
ज्ञानी की रागत्यागशीलता―ज्ञानी पुरुष कर्मों के बीच पड़ा हुआ भी तन, मन, वचन की चेष्टा में प्रवृत्त होता हुआ एक सर्व द्रव्यों में राग को छोड़े रहने के स्वभाव वाला है । जैसे कि स्वर्ण कीचड़ के बीच पड़ा हुआ भी रज से लिप्त नहीं होता है । सोने और लोहे में यही एक अंतर है कि लोहा कीचड़ में पड़ा हुआ हो तो वह जंग को खींच लेता है किंतु स्वर्ण जंग को स्वभाव से छोड़े रहने वाला है । 100 वर्ष तक स्वर्ण को कीचड़ में पड़ा रहने दिया जाये तो उस पर जंग नहीं चढ़ती । ऊपर से कीचड़ चिपटा है, धो दिया, बस स्वच्छ स्वर्ण निकल आया । स्वर्ण में रज खींचने का, जंग लेने का स्वभाव ही नहीं है । इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष को रागरस लेने का स्वभाव नहीं है । स्वर्ण में जंग लेने का स्वभाव नहीं है, सब को स्पष्ट मालूम है । ऐसा ही स्वभाव उस ज्ञानी में इस पद्धति का हो गया है कि वह रागरस ले ही नहीं सकता है ।
रागरसरिक्तता की उदाहरणपूर्वक सिद्धि―जैसे किसी पुरुष का इष्ट गुजर जाये तो उस काल में वह भोजन रस ले ही नहीं सकता है । उसे जबरदस्ती खिलाओ, मगर दिल तरसा हुआ है अत्यंत व्याकुल है । सो भोजन भी करता जा रहा है पर स्वाद का पता नहीं है । उस भोजन में रागरस नहीं ले सकता है । तो कोई ऐसे भी मनुष्य होते हैं तो उपभोग करते हुए भी रागरस नहीं ले सकते हैं । किसी बालक से जबरदस्ती कोई काम कराओ, उसके मन में नहीं है तो आपकी जबरदस्ती से उसे करना पड़ रहा है, मगर उस बालक में रागरस नहीं है । उस काम में, उस चीज में उस बालक का परिग्रह नहीं बन रहा हे । जैसे स्वर्ण कर्दम के बीच में पड़ा हुआ उससे लिप्त नहीं होता है क्योंकि कर्दम से लिप्त हो जाने का स्वर्ण में स्वभाव ही नहीं है अथवा कर्दम से न लिपट सकने का स्वर्ण में स्वभाव पड़ा हुआ है । इसी प्रकार ज्ञानी जीव कर्मों के मध्य में पड़ा हुआ भी कर्मों से लिप्त नहीं होता है । वह समस्त परद्रव्यकृत राग का त्याग किए रहने का स्वभाव रखता है ।
रागरस का शोषक सम्यग्ज्ञान―ज्ञानी जीव कर्मों से अलिप्त रहने का स्वभाव वाला होने से ज्ञानी ही है । पर ज्ञानी हो तब की यह बात है । कोई मुख से कह दे या सुना सुनाया बोल दे, या विषय का ज्ञान है सो बोल दे, उससे रागरस न सूखेगा । रागरस को सोखने वाला सम्यग्ज्ञान ही है । यथार्थ ज्ञान बिना रस सूख नहीं सकता है । और जब तक रागरस न सूखे तब तक जीव संकट में है । सभी जीव संकट-संकट में ही तो बसे जा रहे हैं । वे रागरस नहीं छोड़ना चाहते हैं । मर जायेंगे, सब कुछ छूट जायेगा, मगर अपने मन से रागरस नहीं छोड़ना चाहते । फल इसका क्या होगा कि संसार की संतति ही बढ़ेगी । जहाँ ज्ञान हो वहाँ रागरस रह ही नहीं सकता ।
रागरसशोषणविधि पर एक दृष्टांत―राजवार्तिक में एक दृष्टांत बताया है कि कोई पुरुष व्यभिचारी था और उस ही पुरुष की मां भी व्यभिचारिणी थी । तो पुरुष तो किसी दूसरी स्त्री से राग रखता था और उसकी मां किसी दूसरे पुरुष से ही राग रखती थी । अंधेरी रात्रि के समय में उसकी मां चली अपने इष्ट जगह के लिए और यह पुरुष चला अपने इष्ट जगह के लिए । रात्रि में एक स्थान पर ये दोनों मिल गए । मां को यह ध्यान था कि यह वही पुरुष है जो हमारा इष्ट है और पुरुष को यह ध्यान था कि यह वही स्त्री है । देखो रागरस पनप गया ना । इतने में एक बिजली चमकी । और बिजली की क्षणिक चमक से उस पुरुष ने पहिचान लिया कि यह तो मेरी मां है, मां ने पहिचान लिया कि यह मेरा बेटा है । तो उस बिजली के चमकने से, यथार्थ ज्ञान होने से दोनों के रागरस नहीं रहा । पहिले रागरस था, दोनों में रागरस था । अब ज्ञान होने पर रागरस सूख गया । अब वे दोनों सोचें कि यह आखिर अंधेरा ही तो है, एकांत ही तो है, पहिले जैसा राग कर लें अपने हृदय में, तो भैया ऐसा नहीं किया जा सकता है । असंभव है । क्योंकि यथार्थ ज्ञान हो गया ।
रागरस का मूल भ्रम―भैया ! जब तक इन बाह्य पदार्थों में ऐसा भ्रम चल रहा है कि यह मेरा है इससे मेरा हित है, यह ही मेरा बड़प्पन रखता है, इससे ही मुझे सुख मिलेगा तब तक इन बाह्य पदार्थों में रागरस रहता है । और जब वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो जाये कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, अपनी-अपनी स्वरूप सीमा में है, अपने स्वरूप से बाहर न अपने गुण दे सके, न पर्याय दे सके, एक दूसरे का कुछ करने के लिए सर्वथा असमर्थ हैं । ऐसे स्वतंत्र स्वरूपास्तित्व का परिचय इन जीवों को हो जाये तो ऐसे यथार्थ ज्ञान के होते ही इस ज्ञानी संत में रागरस नहीं रह सकता । जब अज्ञानी था तब अपने कुटुंब के लिए तो सारा दिल था, गैरों के लिए कुछ भी दिल न था । ऐसी कठोरता उस ज्ञानी संत में नहीं रह सकती है, क्योंकि अज्ञान हटने से रागरस सूख गया । भले ही प्रयोजनवश और गुजारेवश कुटुंब से रागमय वचनों से बोलता हो, पर अंतर में उस ज्ञानी के रागरस नहीं रहा ।
ज्ञानी के रागरसवर्जन―जैसे कोई छोटा बच्चा माँ से रहित हो जाये और कोई दूसरी स्त्री मौसी समझो, बुआ समझो या अन्य पड़ोस की स्त्री समझो उसे पालने लगे, उसका पालन-पोषण कर दे । अब वह 10-20 वर्ष का हो गया । उसे यह मालूम हो जाये कि यह मेरी माँ नहीं है जिसने मेरी रक्षा की है, तो माँ जैसा रागरस उसके नहीं रहता । भले ही मोहवश राग बना रहे, कृतकृत्यतावश, पर मातृत्व जैसा राग नहीं रहता । वह कहेगा कि यह तो मेरी माँ से बड़ी है, यों भी कह देगा कि मां बराबर है या माँ है, इतना तक कह देगा, फिर भी अंतर यह कह रहा है कि मेरे उत्पन्न करने वाली यह मां नहीं है । उसके अब रागरस नहीं रहता है । तो ज्ञानी जीव के चूंकि सर्व द्रव्यों में रागरस नहीं रहता, इस कारण राग वर्जनशील होने से वह कर्मों के बीच रहकर भी कर्मों से बँधता नहीं है ।
ज्ञानी के वेद्य बंधन का अभाव―भैया ! करणानुयोग की दृष्टि से तो जितना राग शेष है उतना उसके बंधन है, पर संसारबंधन को बंधन मानकर यहाँ वेद्य का निषेध किया जा रहा है । अनंतानुबंधी कषाय के बंध का नाम यह बंधन है । अन्य बंधनों का नाम यह बंधन नहीं है । पर करणानुयोग की दृष्टि से तो चाहे संज्वलन का बंधन हो, बंधन ही है, पर बाह्य संसार में रस लेना ऐसा बंधन, ऐसा अध्यवसान, ऐसा उपयोग ज्ञानी आत्मा में नहीं होता है और जब इन संसार बढ़ाने वाले कर्मों का बंध नहीं होता तो इसी के मायने है कि कर्मों का उपार्जन नहीं करता । शरीरविषयक जो बंध है उस बंध को यहाँ गिनती में लिया ही नहीं है दृष्टि में लिया ही नहीं है ।
रागरसरिक्तता के कारण ज्ञानी की अबंधकता―जैसे पानी में चिकना कमलिनी का पत्र डाल दिया जाये तो कमलिनी का पत्ता पानी से अलिप्त रहता है । उसका पानी से अलिप्त रहने का स्वभाव ही है । परीक्षा करना हो तो उसे निकालकर देख लो । कागज को पानी में डाल दो तो इसका स्वभाव तो पानी में लिप्त होने का है । यों कमलिनी का पत्ता पानी से लिप्त होने का स्वभाव नहीं रखता है । इसी प्रकार ज्ञानी संत भी शरीर की प्रवृति कर रहा है । मन से कुछ सोच भी रहा, वचन में कुछ बोल भी रहा, पर सर्व पदार्थों में यथार्थस्वरूप स्वतंत्र स्वरूप समझ चुकने के कारण किन्हीं भी पदार्थों में उसे रागरस नहीं आता । और बंधन जितने है वे रागरस के बंधन है, बाहरी पदार्थों का बंधन नहीं है । जो स्त्री आपको बंधनरूप हो रही है, किसी कारण से रागरस न रहे अथवा बिगाड़ हो जाये तो बंधन मिट जाता है । तो जितना भी बंधन है, परिग्रह है वह सब रागरस का है । ज्ञानी के रागरस है नहीं, इसलिए उसके परिग्रह नहीं है ।