वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 233
From जैनकोष
जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगूहणगो हू सव्वधम्माणं ।
सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।233।।
उपगूहन अंग के लक्षण में यह बात बतलाते हैं कि जो सिद्धभक्ति सहित सर्व धर्मों का उपगूहक है उसे उपगूहक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।
सिद्ध और सिद्धभक्ति―सिद्ध शब्द से दो विषयों में लक्ष्य पहुंचता है । एक तो जो अष्टकर्मों से रहित अनंत ज्ञानादिक गुणों से सहित निर्लेप सिद्ध परमात्मा है वह सिद्ध कहलाता है । और इस आत्मा का जो सहज स्वरूप है चूंकि वह असिद्ध नहीं है, परत: सिद्ध नहीं है, किंतु अपने ही सत्त्व के कारण, परिपूर्ण केवल अंतःप्रकाशमान अनादि अनंत अविनाशी है वह भी सिद्धस्वरूप कहलाता है । इसके परिणमन की ओर दृष्टि दें तब यह सिद्धस्वरूप लक्ष्य में नहीं रहता । जो निश्चय से इस ध्रुव परमपारिणामिक भावमय चैतन्यस्वभाव की भावनारूप वास्तविक सिद्ध भक्ति को करता है वह जीव मिथ्यात्व रागादिक विभाव धर्मों का उपगूहक है, प्रच्छादन करने वाला है, अर्थात् विनाश करने वाला है, उसे उपगूहक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।
व्यवहार उपगूहन का तात्पर्य―भैया ! उपगूहन अंग का साधारणतया यह अर्थ किया जाता है कि धर्मी पुरुषों के दोषों को प्रकट न करना । प्रकट न करना―इसका अर्थ यह है कि उनके दोषों को दूर करना, नष्ट करना । धर्म धारण करने वाला भी कोई किंचित् दोषी होता है, पर इसका भाव यह नहीं है कि धर्मी में दोष हैं तो उन्हें ढके जाओ और बने रहने दो और मानते जाओ―यह उसका भाव नहीं है । उपगूहक का अर्थ है दोषों का विनाश करनेवाला । उसमें यह कर्तव्य आ जाता है कि जनता में धर्मात्माओं के दोषों को प्रकट न करें, क्योंकि उससे धर्म पर लांछन आता है और लोग यह कह सकेंगे कि इस धर्म वाले तो ऐसे दोषी होते हैं । तो इस उपाय ने उस धर्मात्मा पुरुष के दोषों को नहीं ढका किंतु धर्म में दोष न लग पायें, दुनिया की दृष्टि में धर्म दोषयुक्त न कहलाये, इस बात पर यत्न किया है उस सम्यग्दृष्टि जीव ने ।
ज्ञानी का गुणविनय―सम्यग्दृष्टि जीव व्यक्तिगत रूप में तो उसका महत्त्व नहीं देता । किसी भी व्यक्ति को ज्ञानी पूजता है तो व्यक्ति के नाते नहीं पूजता, किंतु धर्म के नाते पूजता है । पंचपरमेष्ठी हैं अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनमें किस व्यक्ति को पूजें? किसी का नाम देखा नहीं है । नाम लेकर भी जो वंदन करते हैं भरत का, बाहुबलि का, ऋषभदेव का, महावीर स्वामी का, रामचंद्रजी का―जितने भी सिद्ध हुए है उनका नाम लेकर जो विनय करते हैं वह व्यवहारदृष्टि से है । नाम की मुख्यता ले करके वह विनय नहीं है किंतु अनंत गुण संपन्न आत्मा के शुद्ध विकास को दृष्टि में लेकर वंदन करें तो वह वंदन और विनय है ।
भगवंत अरहंत―अरहंत सिद्ध उस कहते हैं जो पूज्य हो । जिसने चार घातिया कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर दिया हो, रागादिक विभावों से जो सदा के लिए मुक्त हो गया है किंतु जब तक उसके घातिया कर्मों के सहायक अघातिया कर्मों का उदय है तब तक वह अरहंत प्रभु कहलाता है । अघातिया कर्म जीव के गुणों का घात नहीं करते, किंतु जितने काल तक जीव के गुणों का घात करने वाले घातिया कर्म रहते हैं उतने काल तक उन घातिया कर्मों को उतने घात के काम में सहायक होता है । सो घातिया कर्म जब नहीं रहे तब अघातिया कर्म इस जीव के गुणघात में सहायक तो नहीं किंतु पूर्वबद्ध कर्म हैं तब तक उनकी स्थिति है, वे कर्म रहते हैं । जब तक अघातिया कर्म हैं और घातिया कर्म तो हैं ही नहीं तब तक उन्हें अरहंत कहते हैं । हमारे देव अरहंत हैं । इसमें किसी नाम का पक्ष नहीं है । केवल शुद्धविकास का पक्ष है जैन सिद्धांत में । किंतु इस लक्ष्य की जब मुख्यता हमारी व्यावहारिकता में न रही तो अन्य मंतव्यों―जैसे नाम की मुख्यता रखकर अपना पराया जो बनाया है, इस विधि में लोग कुछ जुगुप्सा की दृष्टि से या अनमेल की दृष्टि से निरखने लगे हैं । सो यह विवाद तो संसार में अनादि से ही चला आया है ।
ज्ञानी की स्वरूपपूजा―जैन सिद्धांत में स्वरूप की पूजा है, गुणों की पूजा है, किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है । भगवान ऋषभदेव मरुदेवी के नंदन थे, नाभि के नंदन थे, इस कारण वे बड़े हैं ऐसा जैन सिद्धांत नहीं मानता । महावीर प्रभु सिद्धार्थ के नंदन थे इस कारण हम उन्हें नहीं मानते हैं किंतु उस भव में स्थित आत्मा ने ऐसे स्वभाव का आश्रय, आलंबन ध्यान किया कि जिसके प्रताप से चार घातिया कर्म नष्ट हुए और अघातिया नष्ट हुए, आत्मा सिद्ध हो गया । इस कारण से मानते हैं । तो जिस कारण से मानते हैं उस कारण में नाम नहीं लगा है । नाम के कारण हम किसी को नहीं मानते हैं । यह तो गुणों की पूजा है, शुद्ध विकास की पूजा है ।
दोष के उपगूहन का कारण―भैया ! जिसे स्वभावदृष्टि की रुचि है वह उसमें भंग नहीं चाहता । जिसके जिसमें रुचि है वह उसमें लांछन नहीं लगाने देता । किसी धर्मात्मा के दोष प्रकट थे । करने से कहीं यह बात नहीं है कि उस नाम वाले धर्मात्मा से उस साधर्मी को प्रेम है इसलिए वह दोषों को प्रकट नहीं करता, किंतु रत्नत्रयरूप धर्म में उसे प्रेम है इसलिए वह दोष प्रकट नहीं करता । लोग यह ग्रहण करेंगे कि इस धर्म में तो ऐसा ही हुआ करता है । यह काहे का धर्म है? ऐसे धर्म की निंदा, धर्म का लांछन लगा इस कारण उस धर्मात्मा को दोष न लगने दें । और फिर जीवों की दृष्टि दोष ग्रहण करने की है । हुआ दोष तो ग्रहण करे, न हुआ दोष तो भी चूँकि दोषमय जगत है, तो इस कारण न किया हुआ दोष भी दोषरूप में उपस्थित करने की आदत बनी हुई है, ऐसी स्थिति में विवेकी पुरुष किसी भी धर्मात्मा के दोष प्रकट करने की भावना नहीं करता ।
उपगूहन का तात्पर्य―उपगूहन का अर्थ ढाकना नहीं है किंतु उपगूहन का अर्थ जनता के उपयोग के मैदान से उन दोषों को दूर किए रहना है । ऐसे जो जीव धर्मरुचिक हैं, धर्मात्माओं के धर्म के, सर्व धर्मों के उपगूहक हैं अर्थात् निंदा दोषों के उपगूहक हैं वे उपगूहन अंग वाले हैं । केवल निश्चयदृष्टि में चलें तो जीव में उत्पन्न होने वाले जो मिथ्यात्व रागादिक दोष हैं विभावरूप धर्म हैं, उन धर्मों का वह प्रच्छादन करता है, हटाता है । प्रभु की ज्ञानभूमि से उन दोषों को हटाता है वही वास्तविक उपगूहन अंग वाला सम्यग्दृष्टि है ।
उपवृंहण का तात्पर्य―अथवा इसका दूसरा नाम है उपवृंहण । चूँकि सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्णवत् निश्चल एक ज्ञायक स्वभावमय है इस कारण समस्त आत्मशक्तियों का वर्द्धनशील होने से यह सम्यग्दृष्टि जीव उपवृंहक है, इसमें अपनी आत्मशक्ति की दुर्बलता नहीं है साहस है इसमें । कितने ही कर्मों का तीव्र उदय आये, सब परिस्थितियों में इसके यह साहस बना हुआ है कि यह अपनी आत्मशक्ति का वर्द्धन करे, अत: आत्मशक्ति का उपवृंहण करने वाला यह ज्ञानी है ।
ज्ञानी की उपगूहनता और उपवृंहणता का फल―यह सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा के दोषों का विनाशक है; प्रच्छादक है यह सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व रागादिक विभावों का विनाशक है, यह सम्यग्दृष्टि अपनी शक्तियों का उपवृंहक है, प्रगति में अपने आपको ले जाने वाला है, इस कारण इसके उपगूहन रूप असावधानीकृत बंध नहीं होता अथवा अपनी शक्ति की दुर्बलता से होने वाला बंध इस सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं होता, जब न अनुपगूहन का दोष रहा, न दुर्बलता का दोष रहा तो कर्मों की निर्जरा ही इसके उस गुण के कारण होता है । किसी भी संकट में बंधन में यह जीव पड़ा हो उसके बंधन और संकट मिटने के उपाय चाहे व्यवहार में नाना हों, पर उन सब व्यवहारों का प्रयोजनभूत पारमार्थिक उपाय केवल एक ही है, वह है शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा रहना ।
ज्ञाता रहने का विधि और निषेधरूप में वर्णन―शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा रहने की स्थिति में विधि और निषेध के ये दो कार्य चलते हैं । विधि के कार्य में निज ज्ञायकस्वभाव का निर्दोष परिणमन है और निषेधरूप कार्य में रागादिक दोषों का निवारण है, उपाय एक है, उस उपाय को जब विधि रूप से कहते हैं तो यह कहना चाहिए कि निज ज्ञायकस्वभाव का दर्शन, अवलोकन, विश्वास, प्रत्यय, अवगम और उसी में रत रहना―ये उपाय है संकटों से मुक्त होने के और जब निषेधरूप से वर्णन करेंगे तब यह कहा जायेगा कि मोह न करना, राग-द्वेष न करना, विषय कषायों में न पड़ना―ये सब उपाय है संकटों से दूर होने के । ये भी उपवृंहण और उपगूहन के रूप में विधि निषेधरूप दो प्रकार से बताये गये हैं ।
ज्ञानी का उपगूहन अंग में कर्तव्य―इस सम्यग्दृष्टि जीव की शक्ति की दुर्बलता से होने वाला बंध नहीं है किंतु अपनी शक्ति की संभाल के कारण और किसी परदृष्टि में न उलझने के कारण पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा ही होती है । उपगूहन का अर्थ है छिपाना । तो निश्चय की प्रधानता में इसका अर्थ यह हो गया कि अपने उपयोग को परमार्थ सिद्धस्वरूप चैतन्य भाव में उपयोग लगाओ और इसके अतिरिक्त मिथ्यात्व रागादिक जो भाव हैं उनका उपगूहन करें और व्यवहार में यह अर्थ है कि अपने मन की प्रगति में शक्ति बढ़ाए और धर्मात्मा जनों के दोषों को जनता में प्रकट न करें सो यह उपगूहन अंग है । यह अंग सम्यग्दर्शन का उन मुख्य अंगों में से एक अंग है ।
उपगूहन अंग के पालक जिनेंद्रभक्त सेठ―उपगूहन अंग में जिनेंद्रभक्त सेठ प्रसिद्ध हुए हैं, उनकी ऐसी कथा है कि महल में एक विशाल चैत्यालय बना हुआ था । वहां किसी चालाक आदमी ने देख लिया कि इस चैत्यालय में एक मणि जड़ित छत्र है, तो सोचा कि इसको चुराया कैसे जाये? सोचते-सोचते एक युक्ति ऐसी आयी कि ब्रह्मचारी या क्षुल्लक बन जायें, कुछ दिनों तक यहाँ रहें, जब इनको विश्वास हो जाये तो किसी समय अवसर मिल सकता है कि इसको चुरा ले जायें । सो वह बन गया क्षुल्लक, मंदिर में रहने लगा । बहुत दिनों के बाद जब जिनेंद्रभक्त को कहीं बाहर जाना था तो सब कामकाज चाबी क्षुल्लकजी के सुपुर्द कर दिया और चल दिया । इसने यह देखा कि अब अवसर है उसे तो वह कीमती छत्र चुराना था, उसे चुराया और रात्रि को वहाँ से चल दिया । वह तो जा रहा था और उस चमकते हुए छत्र को देखकर कोतवाल ने पीछा किया और उसे पकड़ भी लिया । इतने में सामने से जिनेंद्रभक्त भी आ रहे थे । जब मामला उन्होंने जाना तो जिनेंद्रभक्त कहता है कि यह तो हमीं ने बुलाया था । यद्यपि बात ऐसी नहीं है किंतु आशय तो देखो कि जिसमें यह बात बसी हुई है कि धर्म में लांछन न लगे । कोई लोग यह न जानें कि जिनधर्म के धारण करने वाले पुरुष ऐसे हुआ करते हैं । केवल धर्म के लांछन को उपगूहित करने के लिए उन्होंने यह किया । उसके आशय में कहीं उस व्यक्ति से अनुराग न था कि उसे बचाना है । केवल लोक में धर्म को लांछन न लगे, इस आशय से किया था ।
स्वरूप के रुचियों का स्वरूप को अलांछित रखने का प्रयत्न―भैया ! उपगूहन अंग में यह आशय रहता है कि लोगों की दृष्टि में यह धर्म मलिन न समझा जाये । ऐसे इस संसार संकट से सदा के लिए मुक्त करा सकने वाले धर्म की भक्ति में जो ज्ञानी पुरुष रहे हैं वे धर्म के स्वरूप में लांछन नहीं सह सकते । और परमार्थ से जो शुद्ध चैतन्यस्वभावमात्र निज परमात्मप्रभु है उस प्रभु के गुणों का रुचिया ज्ञानी पुरुष अपने आपकी भूमिका में उत्पन्न होने वाले विभाव लांछनों को नहीं सह सकता । जैसे व्यवहार में ज्ञानी पुरुष धर्म के लांछनों को दूर करता है इसी प्रकार निश्चय से अपने आपके आत्मा में से विभावरूप लांछनों को दूर करता है और इन दोषों को दूर करने का स्वभाव इस आत्मा में है ।
सम्यग्दृष्टि की उपवृंहकता―इस उपगूहक सम्यग्दृष्टि के ऐसा उत्साह बना रहता है । समस्त आत्मशक्तियों को बढ़ाने का स्वभाव रखने से और विकास का यत्न करने से इस सम्यदृष्टि का नाम उपवृंहक भी है । इस जीव के शक्ति की दुर्बलता से होने वाला बंध नहीं होता है किंतु निर्जरा ही होती है, इस प्रकार उपगूहन अंग का वर्णन करके अब स्थितिकरण अंग का वर्णन किया जा रहा है ।