वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 234
From जैनकोष
उम्मग्गं गच्छंतं सगं पि मग्गे ठवेदि जो चेदा ।
सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।234।।
उन्मार्ग में जाते हुए अपने आत्मा को भी जो सन्मार्ग में स्थापित करता है वह ज्ञानी स्थितिकरण गुण सहित सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।
ज्ञानी के स्थितिकारिता―जिसे अपने आत्मा के सत्य स्वभाव का परिचय होता है ऐसा पुरुष निश्चल होकर अपने आपको और दूसरे प्राणियों को मार्ग में स्थित बनाने का यत्न करता है । कोई पुरुष तन के दु:खों से ऊबकर धर्म को छोड़कर उन्मार्ग में जाता हो तो उसके दु:ख मिटाने का और धर्ममार्ग में लगाने का ज्ञानी, साधर्मी बड़ा प्रयत्न करता है । इस ज्ञानी के लिए जगत के सब जीव एक समान हैं, और जिन जीवों के धर्म की ओर प्रेम है, मोक्ष के लिए यत्न है, मोह रागद्वेष परिणाम को दूर रखने का यत्न करते हैं ऐसे ज्ञानी जीवों की इस ओर प्रीति बढ़ती है । कदाचित् वे दुःखी होकर धर्ममार्ग को छोड़कर कुमार्ग में जाने लगें तो ज्ञानी संत उनको धर्ममार्ग में स्थापित करता है । कोई मानसिक दुखों से दुःखी होकर धर्ममार्ग को छोड़कर उन्मार्ग में जाने वाला हो तो उसे धर्ममार्ग में स्थित करता है । गरीबी आदि के कारण परेशान होकर जो धर्ममार्ग को छोड़कर उन्मार्ग में जाने लगता है उसको धर्म में स्थिर करता है । ऐसे उन्मार्ग में जाते हुए अन्य पुरुषों के धर्ममार्ग में स्थित करने का इस ज्ञानी पुरुष के उत्साह है ।
उन्मार्गगामियों का कर्तव्य आत्मसावधानी―निश्चय से उन्मार्ग में जाते हुए अपने आपको धर्ममार्ग में स्थित करने की इस ज्ञानी में अलौकिक कला है । उन्मार्ग में जाने वाले इन अनेक कुमार्गियों में इतना महान् अंतर है कि कोई पुरुष तो ऐसा होता है कि उन्मार्ग में जा रहा हो तो भी ध्यान रहता है कि यह खोटा मार्ग है और सच्चे मार्ग की खबर रहती है, किंतु अनेक जीव तो ऐसे पड़े हुए हैं कि खोटे मार्ग में लग रहे हैं और बुद्धिमानी समझ रहे हैं, उससे विमुख रहने का ध्यान नहीं होता । यह उन्मार्ग खोटा मार्ग, विषय कषायों का मार्ग कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म की प्रीति व सेवा करने का मार्ग इस जीव को भव-भव में क्लेश का कारण है । अज्ञानी ही धर्ममार्ग से च्युत होकर कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु में लगता है । कर्मों का उदय विचित्र होता है । उनका निमित्त पाकर यह जीव करता तो है स्वयं की परिणति से ही विकार, किंतु वे विकार भी विचित्र होते हैं । कैसी धुनि बन जाये, किस ओर दृष्टि लग जाये?
परमार्थ और व्यवहार स्थितिकरण―सो भैया ! मैं इन विषय-कषायों से दूर हटूं । और अपने आपकी ओर अभिमुख होने लगूं ऐसे अपने आपमें अनेक विवेकपूर्ण यत्न करके आत्मस्वभाव की दृष्टि का बल बढ़ाकर उन विषय-कषायों से अपने को अलग रखने का यत्न करना चाहिये । इस आत्मा को इस आत्मा के स्वभाव के ज्ञान विकास में लगाना और ज्ञाता द्रष्टा रहने की स्थिति बनाए रहना यही वास्तविक स्थितिकरण है । और व्यवहार में ऐसे साधन बना देना जिन साधनों में रहकर कुछ निश्चिंत रहकर यह जीव अपनी बुद्धि को सही रखे और धर्म में स्थिर गति करे―वह है व्यवहार का स्थितिकरण । जो जीव उन्मार्ग में जाता हुआ खुद को धर्ममार्ग में स्थापित करता है उसे स्थितिकरण अंग का पालक सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए ।
उन्मार्ग और सन्मार्ग―उन्मार्ग है मिथ्यात्व रागादिक विभाव और सन्मार्ग है निज शुद्ध सहज स्वभाव की दृष्टि । निज सहज शुद्धस्वभाव क्या है? ज्ञानमात्र चैतन्यस्वरूप शुद्ध का अर्थ है कि जो सत् आत्मा है उस आत्मा के ही नाते उस सत्त्व के ही कारण आत्मा में जो कुछ भाव होता है उसे कहते हैं सहज शुद्ध स्वभाव । अपने से भिन्न पर का नाम सहजभाव नहीं है । पर के गुणपर्याय का नाम सहज भाव नहीं है और पर का निमित्त पाकर उत्पन्न हुए विकारपरिणामों का नाम सहजभाव नहीं है, किंतु अपने ही स्वभाव से अपने ही सत्त्व के कारण केवल जो अपने में भाव है उसका नाम सहजभाव है । यह इसकी दृष्टि, इसका आलंबन इसकी ओर झुकाव यही सन्मार्ग है ।
संकटों से छुटकारा पाने का उपाय सन्मार्ग का आश्रय―जीव संकटों से छूट सकता है तो सन्मार्ग का आश्रय करके ही छूट सकता है । वैसे भी कुछ-कुछ अनुमान किया जाये, अंदाज किया जाये तो जब यह विकल्पों से दूर बाहरी पदार्थों की दृष्टि और स्मरण से विराम लेता है और अपने आपमें एक निर्विकल्प स्थिति को पाता है उस समय में यह शून्य नहीं रहता । आत्मा का ज्ञान सद्भूत गुण है । वह परिणमन शून्य कभी नहीं रह सकता । तो उस समय ज्ञान का एक ज्ञान को ही जानने में एक साधारण सामान्य परिणमन चल रहा है, उस समय जो इसे निराकुलता मिलती है वह निराकुलता किन्हीं भी बाह्य पदार्थों के प्रसंग में नहीं मिल सकती । वास्तविक स्थितिकरण है रागादिक उन्मार्गों से हटाकर शुद्ध ज्ञानस्वभाव के आश्रय को लेना और अभिमुख रहना, यही है परमार्थ से स्थितिकरण ।
मोहियों का लौकिक स्थितिकरण का यत्न―अहो ! लोक में जीवों ने अपनी ही स्थिति मजबूत बनाने के लिए बहुत-बहुत काम किए । बहुत अच्छी आर्थिक स्थिति बना लें जिससे कभी क्लेश न आएँ, ऐसे ही कितने ही मकान खड़े कर लें जिनका इतना भरपूर किराया आए कि किसी भी प्रकार के मौज में अथवा लोगों के उपकार में भी लगाने में कमी न आ सकेगी । शरीर की स्थिति, धन की स्थिति, वैभव की स्थिति मजबूत बनाने का इस जीव ने यत्न किया सो वैभव की ओर ही दृष्टि होने से इस जीव ने अपने आपमें क्या लाभ लिया? लाभ को देखा जाये तो स्वयं ही वह अस्थिति में हो गया है, बुरी परिस्थिति में आ गया है । मन कमजोर हो गया, आत्मबल घट गया । अचानक कोई विपत्ति आए तो उसमें अधीर हो जायेगा ।
अस्थिति का परभव में फल―अंत में पर्यायव्यामोही जीव ने जैसा जीवनभर भाव बनाया उससे उपार्जित जो कर्मबंध है उसके विपाककाल में मरण बाद तो एकदम सही फैसला हो जाता है । यहाँ धन के कुछ प्रताप से दान देकर या कोई बड़े-बड़े उत्सव समारोह आदि मनाकर अपने भावों में जो कमजोर भाव हुए उनको छिपाया जा सकता है, किंतु मरण के बाद अब क्या छिपायेंगे ? एक-दो तीन समयों में ही यह ऐसे शरीर धारण कर लेगा जैसा कि इसका परिणाम हुआ होगा । कीड़ा बन जाये, पशुपक्षी बन जाये, पेड़ पौधा बन जाये अब क्या करेगा? अभी तो करोड़पति थे, बड़ी पोजीशन के थे, बड़ा प्रताप छाया था, लोग हाजिरी में बने रहा करते थे । अब एकदम क्या हो गया? यदि अपने आपकी परमार्थ स्थिति का ध्यान नहीं हो और इस मनुष्यजन्म को पाकर भी न ऊंचे समागम में रह सके, न ऊँचे पद में रह सके तो वह गिरने का ही काम करेगा ।
ज्ञानी का पुरुषार्थ―अपने आपके रागादिक भ्रम विकल्पों को दूर करके अपने आपको शुद्ध सहज चैतन्यस्वरूप में स्थिर करना सो स्थितिकरण अंग है । न कुछ सोचे बाहरी बातें, न कुछ देखे शरीर आदिक बाहरी प्रसंग । मन, वचन, काय को स्थिर करके उनका भी उपयोग दूर करके क्षणिक विश्राम से स्थित होकर जो अपने आपमें एक ज्ञानविकास नजर आता है, जानन में आता है उस विकासरूप अपने आपको बनाए रहना, यही वास्तविक स्थितिकरण है । यह जीव इन रागादिक उन्मार्गों में उठते हुए अपने आत्मा को परमयोग के अभ्यास के बल से शिवमार्ग में स्थापित करता है।
परमयोग―वह परमयोग क्या है? यद्यपि व्यवहार से इस ध्यान के सहायक नाना प्रकार के ध्यान बताए गए हैं, अन्य धारणाएं बतायी गई हैं । उन प्राणायाम प्रत्याहार आदि उपायों द्वारा चित्त को स्थिर करने का विधान बताया है । बहुत सीधी सरल स्थिर मुद्रा से पद्मासन से बैठकर एक अपने आपके हृदयस्थान अष्टदल कमलदल का विचार करके उनके जाप करने का या कुछ सोचने का या इस ज्ञानस्वरूप को केंद्रित करने का उपाय करके एक जगह ठहराया । मायने नाभि कमल में और ऐसा विचार बना कि इस ज्ञानदृष्टि रूप अग्निकण में ऐसा प्रताप प्रकट हुआ है कि ये कर्म ध्वस्त होते रहते हैं । ऊपर के कर्म का औंधा कमल ध्वस्त हुआ, इस तरह अनेक प्रकार की योग स्थितियाँ भी गई, किंतु उन योग स्थितियों का प्रयोजन है निज शुद्ध सहज चैतन्यस्वभाव की दृष्टि, अर्थात् बाह्य विकल्प छोड़कर निर्विकल्प स्थिति में जो ज्ञान को न पकड़ सकने वाला विकास होता है अर्थात् विकल्प न किया जा सकने वाला विकास जो मेरे ग्रहण में तो है किंतु न अभी ग्रहण विकल्प में है और न पीछे वह ग्रहण किया जा सकता है, ऐसे शुद्ध ज्ञानविकास की स्थिति में बने रहना यही समस्त योग अभ्यासों का उद्देश्य है । तो परम योग है इसी शुद्ध ज्ञायकस्वभाव की अभेद उपासना ।
शिवमार्ग―इस परमयोग के अभ्यास के बल से जो अपने आपको शिवमार्ग में स्थापित करता है वह स्थितिकरण युक्त सम्यग्दृष्टि है । वह शिवमार्ग क्या है ? निज शुद्ध आत्मा की भावना करना । भावना में और ज्ञान में याने साधारणतया जानने में यह अंतर है कि साधारण जानने में तो जैसा जान गए तिसरूप अपने को कुछ बनाने का यत्न न होना, वह तो एक साधारण विज्ञान है । और इस ज्ञान की भावना का अर्थ यह है कि जिस ज्ञान का सहज स्वरूप है उस प्रकार ज्ञान में लगना और उस तरह अनुभवन करना, तन्मात्र अपने आपका परिणमन करना ऐसा जो यत्न है उसे भावना कहते हैं । ऐसे निज शुद्ध आत्मा की भावना का नाम है शिवमार्ग । ऐसे कल्याणमार्ग में जो अपने आपको निश्चल स्थापित करता है उस सम्यग्दृष्टि को स्थितिकरण युक्त समझना चाहिए ।
अपना ठिकाना न मिलना ही क्लेश―भैया ! जीव को और क्लेश क्या है? ठिकाना न रह पाना । यह निज में अस्थित जीव बाहर जहां-जहां अपने साधन ढूँढ़ता है, विश्राम करता है वह परमार्थ से विश्रामों का साधन तो है नहीं । वहां तो यह लग ही नहीं सकता । कल्पना में मानता है, सो वे विनाशीक पदार्थ जब नष्ट होते हैं तब इसे क्लेश होता है । कोई पुरुष जीवनभर साधारण धन में गरीबी मानकर दुःखी होने लगे और कोई पुरुष खूब धन कमाकर अपने जीवनभर धनी होने के गौरव का मौज ले तो इसने तो कई वर्षों तक थोड़ा-थोड़ा करके दुःख भोगा है पर उस बाह्यदृष्टि में धन के मौज में चाहे जीवनभर दुःख न भोगा हो, पर अंत में जब वियोग होता है तो मानो सारे जीवन के सुख के एवज में एकत्रित होकर एकदम दुःख टूट पड़ता है, वह विकल्पों में बड़े संक्लेश करता है । तो किस पदार्थ का संयोग हमें ठिकाने रख सकता है? जिस पदार्थ की शरण में जाओ वहाँ से उस पदार्थ की ओर से फुटबाल की तरह ठोकर मिलती है ।
अस्थित पुरुष की फुटबाल की तरह अशरणता―जैसे फुटबाल जिसके पास पहुंचता है वह उसको रखने के लिए नहीं ग्रहण करता है बल्कि आते ही झट लात मार दिया, हाथ मार दिया। जैसे ही फुटबाल उस बालक के पास पहुंचा वैसे ही उससे ऐसा उत्तर मिलता है कि क्षणभर को भी उसके पास नहीं ठहर पाता है, उसे यत्र तत्र डोलना ही पड़ता है । इसी तरह रागादिक भावों की हवा से भरा हुआ यत्र तत्र ठौर ठिकाने डोलता हुआ यह जीव जिस पदार्थ की शरण में जाता है अर्थात् यह अपने उपयोग में जिस पदार्थ को सहाय मानता है जिसे रखता है, जिसके पास ठहरता है, उस पदार्थ की ओर से तुरंत ही और तुरंत तो क्या पहिले से ही उत्तर बना हुआ था, जवाब मिल जाता है । उस पदार्थ में कोई परिणति, कोई आत्म स्थिति की बात उत्पन्न नहीं होती है । कैसी ही कल्पना से कैसे ही पदार्थों के निकट ठहरकर मौज मानते रहे, वह हमारे कल्पना की बात है किंतु किसी पदार्थ ने मुझे आश्रय नहीं दिया, मुझे शरण नहीं दिया, मेरा सुधार नहीं किया ।
मेरे ठिकाने का आश्रय―परपदार्थ मेरा कुछ कैसे करें? प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने चतुष्टय में सत् है । अपने द्रव्य में हैं, अपने प्रदेशों में हैं, अपनी ही उस भूमि में, प्रदेशों में अपना परिणमन करने वाले हैं, अपने ही गुणों में तन्मय हैं । तो वे पदार्थ अपने से बाहर क्या कर सकते हैं । कहीं वे दूसरों से ग्लानि करके खुदगर्जी में नहीं बैठते हैं किंतु वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि वे हैं और अपने में परिणमते रहते हैं । ये दो उन पदार्थों की खास बातें हैं । ऐसा ही सब पदार्थों में है । तो मैं किस पदार्थ के निकट पहुंचूं, किसको अपने उपयोग में बसाऊँ कि मेरा स्थितिकरण बना रहे, स्थिरता बनी रहे । ऐसा बाहर में कुछ भी नहीं है कि जिसको उपयोग में बसाने से कुछ ठीक ठिकाने रह सकें । वह तो तत्त्व है खुद का ही सहज स्वरूप । अर्थात् अपने आप अपने ही सत्त्व के कारण स्वयं जो कुछ यह है उसको जान ले, समझ ले और उसकी समझ पर ही बना रहे तो इसको ठिकाना मिलता है । अन्यथा तो कहीं भी ठिकाना नहीं है ।
बाह्य में ठिकाने का अभाव―भैया ! बाह्य में कैसी भी स्थिति आ जाये, बड़ा राज्यपाट भी मिल जाये मगर यह उपयोग ठिकाने तो नहीं रहता । बड़ी संपदा मिल जाये तो भी ठिकाना तो नहीं रहता है । दूसरा पुरुष जब विह्वल होता है और अपने ठिकाने नहीं रह पाता है, अट्टसट्ट अधीरता की बातें किया करता है तब इसके बड़ी जल्दी विदित हो जाता है कि देखो कैसा यह अधीर हो रहा है, अटपटी बातें बोलता है । इसका चित्त ही ठिकाने नहीं है । ऐसे ही हम जितने काम करते हैं वे सब अट्टसट्ट करते हैं । यह बाहर में क्या करेगा? अशुद्ध निश्चय से तो यह अपने विभावपरिणाम करता है, वह भी प्रतिकूल है, आत्मा के स्वभाव के अनुकूल, निराकुलता के अनुकूल कार्य नहीं है । इसी कारण व्यवहार में ऐसी परिणतियां हो जाती हैं जिनमें यह सारा जग झूम रहा है, चल रहा है, विचर रहा है, ऐसी वृत्तियां हो जाती हैं जिनमें ठीक ठिकाने यह जीव नहीं रहता है।
अपने ठिकाने स्थित हुए जीव के बंध का अभाव―जो जीव रागादिक रूप उन्मार्ग को छोड़कर शुद्ध ज्ञानस्वभाव की भावनारूप सन्मार्ग में अपने आपको स्थापित करता है वही स्थितिकरणयुक्त सम्यग्दृष्टि पुरुष है । इसके अब अस्थितिकरण नहीं रहा, ठौर ठिकाना भटकना नहीं रहा, इस कारण ठौर ठिकाना भटकने रूप होने वाला जो बंध था वह बंध नहीं होता है―किंतु अपने आपका ठिकाना स्थिर रहने से, अपने आपके स्वभाव का आश्रय करने से इसके पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा ही होती है, इस प्रकार परमार्थ से जो जीव अपने आपको स्थित करता है वह सम्यग्दृष्टि स्थितिकरणयुक्त जानना चाहिए ।
पुष्पडाल के स्थितिकरण के लिये वारिषेण का यत्न―स्थितिकरण अंग में वारिषेण मुनि प्रसिद्ध हुए हैं । वारिषेण मुनि को आहार कराने के बाद उनके मित्र पुष्पडाल बहुत दूर तक पहुंचाने गए । उन्होंने कितना ही चाहा कि ये मुनिराज मुझे पीछे लौट जाने को कहें किंतु उनके तो मित्र के उद्धार का भाव था, सो पीछे लौट जाने को नहीं कहा । तब पुष्पडाल का भी कुछ चित्त बदला और मुनि हो गए । मुनि तो हो गए, पर उनको स्त्री का ख्याल सताने लगा । यद्यपि वह स्त्री कानी थी, कोई प्रियवादिनी भी न थी, किंतु मोह तो है, तब वारिषेण ने उनके अस्थिर चित्तपना को कैसे मिटाया कि स्वयं उन्होंने माँ को खबर भेजी कि आज हम आयेंगे और सब रानियों को शृंगार करके तैयार रखना । माँ ने पहिले तो विकल्प किया कि ऐसी कुबुद्धि क्यों अभी, फिर सोचा कि होगा कोई रहस्य । खैर, वे दोनों आये । उस समय पुष्पडाल इस वैभव को देखकर बड़े विरक्त हुए और उनका शल्य छूट गया । सोचा कि ये वारिषेण तो इतने विशाल वैभव को छोड़कर साधु हुए हैं, हमें एक ही स्त्री का शल्य क्यों हो ? यह है स्थितिकरण ।
व्यवहार स्थितिकरण से अंतःस्थिति का सहयोग―जिसके पास जो सामर्थ्य है उसके बल से कुपथ में गिरने के उन्मुख हुए पुरुषों को धर्मात्मा पुरुष स्थिर करते हैं । ऐसा स्थितिकरण का भाव रहने पर इस जीव के ज्ञानदृष्टि जगती है क्योंकि दूसरे जीवों पर मौलिक दृष्टि रहती है तो आत्मस्वभाव की स्मृति रहती है । यदि परिवार के ही लोगों पर दृष्टि रहे और उन्हें ही आर्थिक और अन्य परिस्थितियों से मजबूत करना चाहें और करें तो उससे इसे ज्ञानमार्ग नहीं मिलता । जिससे मेरा संबंध नहीं है, जो परिवारजन नहीं है, जिनके संग से विषयसाधना की कुछ सहायता नहीं मिलती हैं ऐसे विरक्त ज्ञानी संतों की उपासना और वे कदाचित चलित हों तो उनको धर्ममार्ग में स्थिर करना―इस उपाय से ज्ञान की दृष्टि में बल मिलता है । इस कारण यह स्थितिकरण अंग सम्यग्दृष्टि पुरुष का एक प्रधान कर्तव्य है ।
परमार्थ स्थितिकरण से मोक्षमार्ग में प्रगति―सर्व प्रथम तो यह ज्ञानी अपने आपको ही शुद्ध मार्ग में स्थित रखने का प्रयत्न करता है और साथ ही साथ अन्य धर्मात्मा पुरुषों को किसी कारण चलित देखता है तो उन्हें धर्ममार्ग में स्थित करता है । ज्ञानस्वभावी आत्मा को ज्ञानदृष्टि में स्थित बनाना यही वास्तविक सम्यग्दर्शन का फलित पुरुषार्थ है । ऐसा जो स्थितिकरण करते हैं उन जीवों के मार्ग से च्युत हुए कृत बंध नहीं होता है क्योंकि वे मार्ग से च्युत नहीं हो सकते । च्युत होने का प्रसंग आया तो ज्ञानबल से अपने आपको सावधान बना लिया अर्थात् शुद्ध ज्ञायकस्वभावमात्र मैं हूँ ऐसी दृष्टि को दृढ़ कर लिया और विषय कषायों से रहित वृत्ति बना कर ज्ञान के अनुभवन का परिणाम कर लिया, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवों को मार्ग से छूटने कृत बंध नहीं होता है क्योंकि वे मार्ग से च्युत नहीं होते और ज्ञान मार्ग से च्युत न होने के परिणाम में पूर्वबद्ध जो कर्म हैं उन कर्मों में निर्जरा होती है ।
इस प्रकार स्थितिकरण अंग का वर्णन करके अब वात्सल्य अंग का वर्णन करते हैं ।