वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 290
From जैनकोष
इय कम्मबंधणाणं पएसठिइपयडिमेवमणुभागं ।
जाणंतो वि ण मुच्चइ मुच्चइ सो चेव जइ सुद्धो ।।290।।
बंधस्वरूप के ज्ञान मात्र से मुक्ति का अभाव―कोई जो पुरुष कर्मों को बंधन की प्रकृति को, स्थिति को, प्रदेश को, अनुभाग को यद्यपि जान भी रहा है तो भी यदि वह शुद्ध होता है, रागादिक को दूर कर निर्मल ज्ञानस्वभाव का अनुभवन करता है तो वह मुक्त होता है । केवल बंधों के स्वरूप के ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है । किसी का पर से बंधन होता है तो वहाँ प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग ये चार उसके रूपक बनते ही हैं ।
बंधन में चतुर्विधता का एक दृष्टांत―जैसे हाथों को रस्सी से जकड़ दिया तो वहाँ रस्सी के प्रदेश हाथी के प्रदेश ऐसे प्रदेशों का वहाँं मुकाबला है । वह बंधन हमारे कितने देर तक बना रहेगा, बहुत हाथ हिलाया जाता पर वह बंधन इतने देर तक रहेगा, यह भी वहाँ बात हो रही है । वह बंधन दृढ़ है या हल्का है या बड़ा कठोर बंधन बन गया है, यह बात भी वहाँं है और उस बंधन की प्रकृति क्या है कि यह बेचैन हो रहा है । अपनी स्वतंत्रता का उपभोग नहीं कर सकता, यह सब उसकी प्रकृति का फल है, तो वहाँ बंध का स्वरूप पूरा यों होता इतना जानकर भी क्या वह बंधन से छूट जाता है । बंधन से छूटने का उपाय करे तो छूटता है । उस बंधन को काटे तो उससे छुटकारा मिलता है ।
कर्म बंधन की चतुर्विधता―इसी तरह कोई ज्ञानी जीव शास्त्रज्ञानी पुरुष बंध के स्वरूप को खूब जानता है । इन कर्मों में 8 प्रकार की प्रकृतियां पड़ी हुई हैं, किसी कर्म में ज्ञान को घातने की प्रकृति पड़ी हुई है, किसी कर्म में दर्शन को घातने की प्रकृति चल रही है, किसी कर्म में साता और असाता के वेदन करने के निमित्त होने की प्रकृति पड़ी है । किसी कर्म में इस जीव को शरीर में रोके रहने की प्रकृति पड़ी हुई है, किसी कर्म में जीव के भाव और बंध के अनुसार शरीर की रचना करा देने की प्रकृति पड़ी हुई है । किसी कर्म में इस लोक में जीव को ऊँचा या नीचा जता देने के परिणमा देने की प्रकृति पड़ी हुई है, किसी कर्म में जीव की भावना के अनुकूल, इच्छा के अनुकूल काम न होने आदि की प्रकृति पड़ी हुई है इसी प्रकार स्थिति प्रदेश अनुभाग भी उनमें है ।
बंधस्वरूपज्ञ के भी आत्म स्पर्श बिना मुक्ति का अभाव―खूब जान रहा है यह शास्त्रज्ञानी पुरुष कि कर्मों में विचित्र प्रकृतियाँ हैं स्थितियां भी जानता है, अमुक कर्म हमारे सागरों पर्यंत रहता है, आत्मा के विकास की प्रगति की अवस्था में कर्म जघन्य स्थिति वाले होते हैं । सर्व प्रकार की स्थितियों का भी परिज्ञान है इस शास्त्रज्ञानी को उनमें प्रदेश पुंज कितने हैं, कैसे हैं यह भी उसे ज्ञात है, उनका फल क्या है, उनमें कैसी शक्ति पड़ी हुई है । इस अनुभाग का भी ज्ञान है इन विद्वान् पुरुषों को, पर बंध के ऐसे स्वरूप का ज्ञान करने के बावजूद भी इस जीव को बंधन से मुक्ति नहीं मिलती है । यह बंध का कारणभूत राग द्वेष मोह भाव न करे तो इसे बंधन से मुक्ति मिलती है ऐसे दृष्टांतपूर्वक यहाँ मोक्ष का उपाय दिखाया जा रहा है ।
मुक्ति का साधकतम आत्मस्पर्श―मोक्ष कैसे मिलता है इसका वर्णन चल रहा है । कोई लोग कहते हैं कि बंध का स्वरूप जान लो, उसका ज्ञान होने से मोक्ष मिल जायेगा । आचार्य देव कहते हैं कि बंध का स्वरूप जानने मात्र से मोक्ष नहीं मिल सकता है । किंतु बंध के दो टुकड़े कर देने पर अर्थात् आत्मा और कर्म ये दो किए जाने पर मोक्ष मिलता है, तो आत्मा और बंध के दो टुकड़े कैसे हों उसका उपाय है ज्ञान और ज्ञान की स्थिरता । कितने ही लोग शास्त्रज्ञान बढ़ा लेते हैं, बढ़ाना चाहिए, पर उन्हें मात्र शास्त्र के ज्ञान में ही संतोष हो जाता है । कर्मों की बहुत सी बातें जान लें, कर्म 8 तरह के हैं उनके 148 भेद हैं, उनमें इस तरह वर्ग हैं, वर्गणा हैं, निषेक हैं, स्पर्धक हैं उनकी निर्जरा का भी ज्ञान कर लिया, कि इन गुणस्थानों में इस तरह निर्जरा होती है । ऐसा वर्णन करने के कारण उन्हें मोक्ष का मार्ग मिल जाये सो नहीं होता है । ज्ञान करना ठीक है, पर उसके साथ भेदविज्ञान के बल से आत्मा का स्पर्श हो सके तो उन्हें मोक्ष का मार्ग व मोक्ष मिलता है।
एकत्व के अनुभव में और आकिंचन्य के प्रत्यक्ष में हित एवं संतोष―अनुभागप्रकृति, प्रदेश, स्थिति इनको जान भी लिया तो भी जब तक मिथ्यात्वरागादिक से रहित नहीं होता, अनंतज्ञानादिक गुणमय परमात्मा के स्वरूप में नहीं स्थित होता तब तक कर्मबंधों को नहीं त्याग सकता । मुख्य बात सर्वत्र एक यह ही है कि समस्त पर पदार्थो से और परभावों से विभक्त निज ज्ञायक स्वरूप भगवानआत्मा की पहिचान करें । यह जगत का झमेला न हितकारी है न इसका साथी है, सर्व समागम पर द्रव्य हैं । इन समागमों का क्या विश्वास करें । इनमें हितदृष्टि से अनुराग मत करो । आत्मा का हित तो जितना अपने आपको अकेला, न्यारा केवल ज्ञानप्रकाश मात्र अकिंचन अनुभव किया जायेगा, तभी संतोष मिलेगा और जितना अपने आपके अकेलेपन से हटकर बाह्य पदार्थों में दृष्टि लगायी जायेगी उतने ही इसको क्लेश होंगे ।
पुरुषार्थ में संयम का स्थान―जैसे कोई बेड़ी से बंधा हुआ पुरुष हो तो सिर्फ उसके ज्ञान करने से तो बेड़ी छूट नहीं सकती, बेड़ी को तोड़ेगा तो छूट सकेगा । इसी तरह कर्मबंधन से बद्ध आत्मा बंधन के स्वरूप को जान लेने मात्र से न छूटेगा, किंतु बंध से विविक्त ज्ञानस्वभाव भगवान आत्मा का ज्ञान द्वारा ग्रहण करेगा और इस भगवान आत्मा के उपयोग में स्थिर रहेगा तो मोक्षमार्ग मिलेगा । जितने बाह्य व्रत, तप, संयम आदिक किए जाते हैं वे ऐसी योग्यता बनाए रहने के लिये किये जाते है, जिनमें रहकर यह जीव ज्ञायक स्वरूप भगवान का अनुभव करने का पात्र रह सकता । व्रत, संयम, नियम का मुख्य प्रयोजन विषय कषाय खोटे ध्यान से बचने का है, यदि दुर्ध्यान से बचा रहेगा तो ऐसी योग्यता रहेगी कि इस अपने चैतन्यस्वभावी प्रभु के दर्शन कर सकेगा ।
ज्ञान के अनुष्ठान की कार्यकारिता―इस व्याख्यान से उनको समझाया गया है जो कर्मों की प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभाग और इनका विशेष प्रभेद रूप अनेक वर्णनों के जान लेने से संतोष कर लेते हैं । इतना जान लिया कि भगवान के वचन सत्य हैं, इतने मात्र से मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता, किंतु अपने स्वभाव में झुकें, रागादिक दूर करें तो मोक्ष का मार्ग मिलता है । जैसे मिठाई का नाम लेते रहो, रोटी का नाम लेते रहो तो नाम लेने से पेट नहीं भरता अथवा दूर बैठे-बैठे बनती हुई रोटी को देखते रहें, अच्छी बनी खूब फूली, अच्छी सिकी, तो केवल देखने से पेट नहीं भरता । पेट तो खाने से ही भरता है, बल्कि खाना बनता हुआ देखने से भूख बढ़ती है, तो जैसे भोजन का नाम लेने से पेट नहीं भरता इसी तरह शास्त्रों का मात्र ज्ञान कर लेने से मोक्षमार्ग नहीं मिलता । किंतु, शास्त्रों में जो बताया गया है उसको अपने उपयोग में उतारें, अपनी दृष्टि में उस तत्त्व को ग्रहण करें इससे रागादिक दूर होंगे । इस शुद्धवृत्ति के कारण मोक्ष का मार्ग चलता है ।
पर से पर की अशरणता―भैया ! यह जगत असहाय है, ये समस्त प्राणी अशरण हैं । किसी एक के लिए कोई दूसरा शरण नहीं है । सब अपने-अपने कर्मों के उदय से सुख दुःख भोगते हैं, जब पाप का उदय आता है तो कोई पूछने वाला नहीं रहता है । बड़े-बड़े पुरुष भी असहाय होकर मरण करते हैं । जरतकुमार के निमित्त से श्रीकृष्णजी की मृत्यु हुई―इसको सभी लोग कहते हैं कितना बड़ा प्रतापी पुरुष जो अपने समय में एक प्रभु माना जाता हो और जिसके बड़े भाई बलदेव जिसके अनुराग में सब कुछ कष्ट सह सकते हों, उस समय बलदेव भी साथ न रहे और जरतकुमार जो कि श्रीकृष्ण की मृत्यु के भय से नगरी छोड़कर चले गये थे, पर ऐसा जोग जुड़ा कि पीतांबर ताने श्रीकृष्णजी सो रहे थे और उनके चरणों नीचे पद्म का चिह्न चमक रहा था । सो जरतकुमार ने जाना कि यह हिरण है बस हिरण के धोखे से ही उसने उन्हें मार दिया । तब बलभद्र श्री बलदेव आकर बड़े दु:खी हुये ।
गर्व का सर्वत्र व सर्वदा अनवसर―नौ नारायण और नौ बलभद्र होते हैं । नारायण और बलभद्र भाई-भाई होते हैं । सब जगह प्राय: बलभद्र नारायण की सेवा करते हैं बड़े भाई होकर भी केवल राम-लक्ष्मण का ही एक ऐसा उदाहरण है कि जहाँ लक्ष्मण जी ने राम की सेवा की । आप समझ लो कि नारायण का कितना तीव्र पुण्य होता है । ऐसा पुण्यवान पुरुष का भी जब उदय प्रतिकूल होता है तो असहाय हो जाता है । तब फिर अन्य का कहना क्या है । अपने आप में गर्व करने से क्या फायदा है । थोड़ी सी अच्छी स्थिति पाकर घमंड में चूर होना―कि मैं अच्छे रूप वाला हूँ, मैं धन वाला हूँ, मैं ज्ञान वाला हूँ, मेरी इज्जत प्रतिष्ठा अच्छी है । ये सारे के सारे ख्याल स्वप्न के झूठे दृश्य हैं । जो इनमें उलझ जाते हैं वे आनंदघन ज्ञानमय प्रभु का दर्शन नहीं कर पाते ।
प्रभुदर्शन के अधिकारी प्रभुस्वरूप के तीव्र अनुरागी―भैया ! इस प्रभु का दर्शन उन्हें ही मिलता है जो अपने आपको अकेला और अकिंचन मानते हैं । अभी यहाँ पर कोई मित्र किसी दूसरे से दोस्ती करे तो पहिले दोस्त से उपेक्षा हो जाती है । यह तो दूसरे को ज्यादा चाहता है । तो यों ही समझो कि कल्याणमय यह प्रभु उस व्यक्ति से उपेक्षा करेगा जो प्रभु को छोड़कर किसी दूसरे से राग करेगा । मानों सोचेगा कि यह तो चेतन अचेतन परिग्रह से राग करता है । प्रभु का फिर वहाँ दर्शन न होगा । जो एक मन होकर प्रभु के दर्शन के लिए ही उतारूं है―कुछ और नहीं चाहिए, ऐसी वृत्ति बने जिससे, ऐसे पागल पुरुष को भगवान के दर्शन होते हैं । जो प्रभु के दर्शन के लिए पागल हो जाये, दूसरा न सुहाये । पागल नहीं है वह । दुनियां की निगाह में वह पागल है । यों ही लोग सोचते हैं―क्या दिमाग हो गया इसका, न घर की खबर रखे, न दूकान ढंग से करे, न लोगों से ठीक बोले, क्या हो गया इसको, लोग उसे पागल देखते हैं पर ज्ञानी पुरुष इस समस्त जीवलोक को पागल देखता है ।
ज्ञानी की दृष्टि में―भैया ! देखो तो इसे दूसरों से लेना देना कुछ है नहीं, मिलता कुछ है नहीं, किसी का कोई होता है नहीं, पर कैसा दौड़-दौड़कर खूँटा गिरमा तोड़ तोड़कर बाहरी पदार्थों में लग रहे हैं । अपना खूंटा है अपना आत्मा और अपना गिरमा है अपनी दृष्टि । सो अपनी दृष्टि तोड़ कर दौड़ता है यह बाहरी पदार्थों की ओर । जब तक अपनी वृत्तियों की गति में अंतर न आयेगा तब तक कर्मबंधविषयक ज्ञान से भी मोक्षमार्ग न मिलेगा । ज्ञान करना तो आवश्यक है, पर मोक्षमार्ग मिलता है तो आत्मतत्त्व की उन्मुखता से मिलता है ।
परीक्षणसाध्य निर्णय―जैसे अभी यहीं आप लोग कोई मान लें कि मैं बिल्कुल अकेला हूँ, मेरा कहीं कुछ नहीं है, सब जुदे हैं, यह मैं तो अमूर्त ज्ञायकस्वरूप हूं, ज्ञान मात्र हूँ, इसमें तो और कुछ लिपटा ही नहीं है । धन मकान की तो बात जाने दो, इसमें तो स्वरसत: रागादिक भाव भी नहीं लिपटे हैं । यह तो शुद्ध ज्ञान मात्र है, अपने आपमें दृष्टि दें, यह मैं केवल ज्ञान प्रकाश हूँ, देखो यहीं छुटकारा होता है कि नहीं होता है, कुछ क्षणों की कुछ हद तक संकटो से छुटकारा अवश्य होगा । तो जहाँ संकल्प विकल्प रंच न रहें, केवल ज्ञाता द्रष्टारूप परिणमन है उनके उपयोग का तो मोक्ष है ही है ।
मुक्ति का कदम राग द्वेष का परिहार―भैया ! जो जीव कर्मबंध के स्वरूप के विषय में बड़ी-बड़ी रचनाओं की जानकारी करता है बड़ा ज्ञान करता है जिसने त्रिलोकसार पढ़ा, नरक की रचनाएँ जानीं, तीनों लोक ऐसे हैं, ऐसे द्वीप और समुद्र हैं, ऐसी-ऐसी अवगाहना के जीव हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी मानकर, धर्मात्मा समझकर स्वच्छंद रहे, राग द्वेष न छोड़े विषय कषायों से वियोगबुद्धि न करे तो कहते हैं कि ऐसी संतुष्टि से काम न चलेगा ।
मोह हेतुविषयक दूसरी जिज्ञासा―अब कोई दूसरा जिज्ञासु चर्चा करता है कि बंध के स्वरूप जानने मात्र से तो मोक्ष न होगा, यह तो हमारी समझ में आ गया पर बंध छूटे, दूर हो यह बंध ऐसे बंध की चिंता करें, अपायविचय धर्म ध्यान बनाएँ कि ये रागादिक मिटें, यह क्षोभ खत्म हो तो ऐसा ध्यान बनाने से तो मोक्ष मार्ग मिलेगा ना? तो उसके उत्तर में कहते हैं कि―