वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 31
From जैनकोष
जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं ।
तं खलु जिदिंदियं ते भण्णदि जे णिच्छिदा साहु ।।31।।
819-इंद्रियविजय के रूप में प्रभु की निश्चय स्तुति का प्रारंभ—हे प्रभु ! आपने इंद्रियों पर विजय प्राप्त किया था सो आप इंद्रियविजयी कहलाते हो । देखिये इंद्रियविजय साधु अवस्था से ही शुद्ध हो जाता है । वे साधुजन इंद्रियों पर विजय प्राप्त करते हैं तो प्रभु का जो वर्णन किया जा रहा है—तो वह आत्मा जब से रत्नत्रय की साधना में है तब से लेकर अब तक जो कि परमात्मा का स्वरूप है वहाँ तक वर्णन चल रहा है । हे प्रभो आप इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले हो । इंद्रियों पर विजय कैसे हो? देखिये सारा संसार इंद्रिय के वश है । इंद्रिय के जो विषय हैं उनके भोगने की ओर सारा संसार लग रहा है । इंद्रियां 5 हैं—स्पर्शनइंद्रिय, रसनाइंद्रिय, घ्राणइंद्रिय, चक्षुइंद्रिय और कर्णइंद्रिय । इनके विषय भी 5 प्रकार के हैं—स्पर्शन इंद्रिय का विषय है ठंडा, गरम, रूखा चिकना, कड़ा, नरम आदि ऐसे पदार्थों का स्पर्श सुहाना । जैसे आजकल गर्मी के दिनों में गर्म पानी नहीं सुहाता, ठंडा पानी सुहाता है तो उस ठंडे पानी में आशक्ति होना यह स्पर्शनइंद्रिय का विषय है। खट्टा मीठा, कडुवा, चरपरा, कसायला आदिक रसीली वस्तुवों के भोगने की इच्छा होना । घ्राण इंद्रिय का विषय है गंध । सुगंधों में भी नाना भेद हैं—गुलाब के फूल, बेला, चंपा आदि नाना प्रकार के इतरों की सुगंध उनमें भी यह संसारी जीव क्षोभ मचाता है । मुझे तो केवड़ा का ही सुगंध मिलना चाहिये, यो सुगंधों को भोगना, सूंघ-सूंघकर अपने को मौज मानना यह घ्राणइंद्रिय का भोगना है । चक्षुइंद्रिय का विषय है रूप । काला, पीला, नीला, लाल, सफेद आदिक रूप भी किसी को अपने मन के माफिक जुदे-जुदे प्रकार से अच्छे लगते हैं, किसी को गुलाबी रंग अच्छा लगता किसी को हरा रंग, किसी को सफेद । तो इन रंगों की जो छांट है, यह चक्षुइंद्रिय का विषय है अथवा स्त्री का रूप, पुरुष का रूप, चित्र का रूप आदिक सुहाये तो यह चक्षुइंद्रिय का विषय है । 5वीं है कर्ण इंद्रिय । इसका विषय है शब्द । बहुत राग रागनी से गाया जा रहा हो, बहुत सुहाता है, अथवा कोई रागभरी बात सुहाती है तो यह कर्णइंद्रिय का विषय है । इसके अतिरिक्त एक मन का विषय होता है । मन का विषय बहुत विशाल है । दुनियाभर में मेरी इज्जत हो कीर्ति छाये, लोग मुझे अच्छा समझे आदिक जो मन की उड़ाने हैं वे मन के विषय हैं। ये 5 इंद्रिय और छठा मन इनको हे प्रभु आपने साधु अवस्था में जीत लिया था । 820-विषय सेवन की तीन वस्तुओं पर निर्भरता—प्रभु ने इंद्रियों को कैसे जीता था, इसके जीतने का क्या ढंग है ? यह तो बहुत बड़ी समस्या सामने है, क्योंकि सब दुःख विषय का है, इनके विषयों में जो चित्त उलझा है उससे जो दुःख हो रहा है वह दुःख कैसे मिटे? इसका क्या उपाय है । देखिये—एक मूल उपाय बनाये बिना ऐसा ज्ञान बनाये बिना जिस ज्ञान के होने पर विषयों की इच्छा हट ही जाती है, और, और उपाय करे तो उस उपायों से विजय नहीं मिल पाती । जैसे भावुकता में आकर कोई यह विषय कर ले कि हमारा इस रस का त्याग है, इस चीज का त्याग है इस विषय का त्याग है कुछ भी त्याग कर ले तो वह भावुकता के कारण उस त्याग को निभाता तो है, पर उसका जो सही लाभ है वह उसे नहीं मिल पाता । वह इस ही बात की बात जोहता रहता है कि जल्दी से यह दिन व्यतीत हों तो फिर उस चीज को खायें । तो यथार्थ ज्ञान किए बिना इंद्रिय विषयों पर विजय नहीं हो सकती । तो वह यथार्थ उपाय क्या है जिससे कि इंद्रिय विषय जीत लिए जाये ! तो इस उपाय को तीन विधानों में समझना है—पहिले तो यह जानें कि ये इंद्रिय के विषयों के भोग जो होते हैं वे किस विधि से होते हैं इसमें कैसी कल्पनायें होती हैं जब ये विषय भोगे जाते हैं और इन विषयों के भोग के समय अंतरंग बहिरंग क्या साधन मिला करते हैं? बहिरंग साधन तो विषय है—रूप, रस, गंध स्पर्श, शब्द आदिक । एक साधन तो यह है, दूसरा साधन हैं ये इंद्रियां । यदि ये इंद्रियां न हों ठीक तो वे विषय भोगे नहीं जा सकते । जैसे कोई अंधा है जन्म से तो वह रूप विषय को कैसे भोगेगा ? बहिरा है तो शब्द विषय को कैसे भोगेगा? यदि ये द्रव्येंद्रियां ठीक हों तो ये विषय भोगे जा सकते हैं । तीसरी चीज क्या है कि हमारे भावेंद्रिय का क्षयोपशम हो जिससे हम में वह बुद्धि उत्पन्न हो, हमारी वैसी कल्पनायें जग सके तो भोगे जा सकते । जैसे मान लो स्त्री का ही कोई सुहावना रूप है और उसे बैल घोड़े आदि देख रहे हों, तो उन बैल घोड़ों के संबंधी विषय भी हैं और उनके इंद्रियां भी हैं लेकिन उनके लायक उन बैल घोड़ों में बुद्धि नहीं है, उनकी तो बैल घोड़ों में ही प्रीति होगी, तो उस प्रकार की बुद्धि न होने से वे उन विषयों को भी भोग नहीं सकते । उनका विषय जैसे घास खाना है, घास पशुओं को सुहावनी लगती है, उस घास को यदि मनुष्यों के सामने डाल दिया तो यद्यपि उस विषय संबंधी इंद्रियां हैं मनुष्यों में फिर भी उस प्रकार का ख्याल न चलने से वे उस विषय को भोग नहीं सकते । तो विषयों के भोगने में तीन से काम पड़ता है । भीतर की बुद्धि, शरीर की इंद्रियां और ये विषय पदार्थ । 821-द्रव्येंद्रियों पर विजय—अब हमें जीतना है इंद्रियविषय तो हमें तीनों में अंतर डालना होगा तब हम उस इंद्रिय के विषय को जीत सकते हैं । तीनों में अंतर किस तरह हो सो सुनो—जिन द्रव्येंद्रियों के कारण से हम जानते हैं वे द्रव्येंद्रियां क्या हैं? जड़ हैं, वे स्वयं पुद्गल हैं, अजीव हैं, उनमें चेतना नहीं हैं किंतु मैं चैतन्यस्वभावरूप हूँ मेरा इन इंद्रियों से स्व-स्वामी संबंध नहीं है, मैं इन इंद्रियों का मालिक नहीं हूँ, मैं हूँ चैतन्यस्वरूप का मालिक । ये इंद्रियाँ हैं जड़ । ये शरीर के परिणमन हैं । मैं चेतन हूँ । जब मेरा इन इंद्रियों पर अधिकार नहीं, इन इंद्रियों का मैं मालिक नहीं तो इन इंद्रियों का मैं क्यों प्रयोग करूँ? इन इंद्रियों से काम लेने में फिर रूचि तो न रहेगी । जब कोई यह जान जायगा कि इंद्रिय मैं हूँ ही नहीं, ये जड़ हैं, मैं चेतन हूँ, अत्यंत पृथक है बिल्कुल विपरीत हैं जब ऐसा बोध होगा तो फिर उन इंद्रियों के द्वारा हम काम लेने की रूचि न रखेंगे । यह तो है इस शरीर में रहने वाली इंद्रियों का विजय । 822-भावेंद्रियों पर विजय—दूसरी करना है हमें बुद्धि पर विजय, भावेंद्रियों पर विजय । तो उसके संबंध में विचारें कि हम जो भीतर में किसी विषय को भोगने की बुद्धि बनाते हैं तो उस समय हमारा ज्ञान खंडित हो गया । खंडित के मायने यह है कि ज्ञान तो मेरा ऐसा अखंड है कि समस्त लोक, समस्त काल, समस्त पदार्थ एक साथ प्रतिभास में आया करें । ऐसा निर्मल अखंड परिपूर्ण ज्ञान है । अथवा स्वभाव को देखो तो मेरा ज्ञान अखंड है । लेकिन इस समय यदि मीठे रस में बुद्धि चल रही है तो हम मीठे रस को पकड़े हुए हैं, बाकी पदार्थों को छोड़े हुए हैं । थोड़ी देर बाद मीठे रस को भी छोड़ देंगे, किसी और विषय पर पहुँच जायेंगे फिर ठंडा पानी रुचिकर हो रहा यह विषय लग गया । तो जिस समय जिस विषय में हमारा ज्ञान लगता है उस विषय को जान रहे वह कितना सा ज्ञान है । हम में जो ज्ञान स्वभाव है जिसके द्वारा मैं सारे विश्व को एकसाथ स्पष्ट जान सकता हूँ । उस परिपूर्ण विशाल व्यापक स्वभाव के समक्ष यह ज्ञान कितना सा है? बहुत छोटा ना, खंडित हो गया । जो ज्ञान विशाल था वह एक अंश में रह गया । मेरा खंडज्ञान करना स्वभाव नहीं, मैं अखंड स्वभावी हूँ । जब यह समझें कि मैं इन विषय रूप नहीं हूँ, विषयों में जो बुद्धि लगती है उस रूप मैं नहीं हूँ, मैं अखंड ज्ञानस्वभावरूप हूँ, तब उनमें चित्त तो न अटकेगा । ये दो पक्ष बताये गये । द्रव्येंद्रिय पर विजय तो इस तरह है कि मैं द्रव्येंद्रिय नहीं हूँ, इन पर मेरा अधिकार नहीं है इनमें मैं क्या करूँ, ये मेरे किस काम के? भावेंद्रिय पर विजय किस तरह कि यह जो बुद्धि लगती है विषयों में खाने-पीने में, अन्य आरामों में, तो यह ज्ञान खंड-खंड हो गया । मेरा ज्ञान प्रभु की तरह व्यापक स्वभाव वाला है लेकिन एक टुकड़े में अटक गया तो यह खंड ज्ञान करना मेरा स्वरूप नहीं है, मेरा स्वरूप अखंड है, जब ऐसे स्वरूप को जाना तो इस बुद्धि में फिर अटक नहीं रहती । इससे मेरा प्रयोजन नहीं बल्कि ये बरबादी के कारण हैं । 823-विषयों पर विजय और इंद्रियविजय का परिपूर्णरूप—अब तीसरा विजय करना है विषयों पर। ये विषय क्या हैं? हमसे भिन्न चीज हैं, ये संग कहलाते हैं । जो भिन्न पदार्थ हो और उस का फिर संबंध बनाया तो उसे संग कहते हैं । इसीलिए परिग्रह का भी नाम संग रखा है । जो मुनि संग के बिना है परिग्रह रहित है और शुद्धोपयोगी हैं वे उत्कृष्ट मुनि है, उत्तम अंतरात्मा है । तो संग का अर्थ है परिग्रह । संग का अर्थ है दूसरी चीज, भिन्न चीज । तो ये जिसने भी विषय हैं ये सब संग कहलाते हैं । मुझ से भिन्न हैं और दूसरी चीज हैं । मैं असंग हूँ । मैं केवल अपने स्वरूपमात्र हूँ इस तरह इन संगों से भी अपना चित्त हटाना और असंग निज आत्मतत्त्व को उपयोग में लेना यह कहलाता है इन विषयों पर विजय । मतलब यह है कि अपने को ऐसे देखे कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । ये द्रव्येंद्रियां ज्ञानरूप नहीं हैं, ये विषय ज्ञानरूप नहीं है, और यह भीतर की बुद्धि मेरी सही ज्ञानरूप नहीं है । तो ये तीनों के तीनों बेकार हैं, भिन्न वस्तु हैं, ऐसा जब ज्ञान में आता है तो इस को यह उमंग होती है कि मैं उस अखंडज्ञान स्वभाव का ही ज्ञान करता रहूँ, जिस उपयोग से अलौकिक तेज प्रकट होता है, शांति प्राप्त होती है । 824-विषयसेवन और धन संपदा की अशांतिहेतुता—देखिये—सब लोग शांति के लिए भटक रहे हैं, और जिसने जहाँ शांति समझी वह उसी में प्रवेश करने लगता है । आज के हिसाब में लोग कीर्ति संपदा और विषय इनमें शांति समझते हैं, सुख समझते हैं, बड़प्पन समझते हैं, किंतु इन तीनों की कहानी सुनो तो मालुम होगा कि ये तीनों असार हैं । इंद्रिय के विषय तो यों असार हैं कि आज पुण्य का उदय है, इंद्रियां ठीक मिली हैं, साधन भी मिल गए हैं तो उनमें रम रहे हैं, मगर यह उनमें रमना कब तक चलेगा? शरीर बूढ़ा होगा, मरण होगा, छोड़कर चले गये तो आगे क्या हाल होगा । जब अपने आत्मस्वरूप में बुद्धि न रखी, बाहर ही बाहर पौद्गलिक विषयों में बुद्धि गई तो इस का फल क्या होगा? खोटी गति मिलेगी । लाभ क्या रहा विषयों के भोग में । दूसरे—विषयों के उपभोग के समय आत्मा की सुध तो रहती नहीं और दिल, दिमाग, उपयोग आदिक सबके बल का ह्रास होता है क्योंकि आशा का ऐसा ही स्वरूप है । किसी भी पदार्थ की आशा रखेंगे तो आशा के काल में शरीर में भी निर्बलता होगी, दिल में भी निर्बलता होगी । अब तक यही करते आये हैं, अपनी सुख शांति के लिये धन संपदा बढ़ाया, खूब यश कीर्ति कमाया और विषयों का खूब आराम भोगा । मगर ये तीनों असार हैं । धन संपदा की बात देखो, इससे भी आत्मा का कोई संबंध नहीं है । आत्मा चैतन्यमात्र अमूर्त आकाशवत् निर्लेप भावमात्र है, उसका यहाँ क्या उसमें संपदा कहाँ? यहाँ एक दूसरे को देखते हैं, लोगों को निरखकर कुछ बड़प्पन सा मान लिया जाता है कि मेरे पास अतुल संपदा है, बड़ा आराम है मगर यह तो एक स्वप्नवत् बात है, यह कोई सारभूत बात नहीं है । सारभूत तो है आत्मा के स्वरूप का सच्चा ज्ञान करना और उस ही ज्ञान में रत रहना । तो धन संपदा में भी सार नहीं है । 825-कीर्ति की असारता और कीर्ति की वांछा की अशांतिहेतुता—कीर्ति की बात देखो तो क्या कीर्ति, किसका नाम कीर्ति न कोई कीर्ति के पैर होते हैं, रूप होता है, कोई चीज होती है जो उठकर विकसित की जाये? कीर्ति नाम इसका ही है कि कुछ लोग मेरे बारे में कुछ गुण बखानने लगे । तो कीर्ति पराधीन हुई । लोग गायेंगे तो हमारी कीर्ति कहलायेगी । तो यह तो लोगों के अधीन बात हुई । और फिर कीर्ति गाता भी कौन? जिसके कुछ स्वार्थ लगा है, जो अपना कोई स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है । कीर्ति हो तो न हो तो । कीर्ति का वास्तविक रसिक दुनिया में कोई नहीं है । मुझे कोई नहीं चाहता । और, कोई चाहता है तो अपने आराम के लिए अपनी कल्पनावश या अपने किसी उद्धार के लिए या किसी भी प्रयोजन को रखकर अपनी चाह ही अपने में बना रहे हैं । तो यह कीर्ति भी असार और भिन्न है । बड़ों की कीर्ति नहीं रही केवल थोड़े समय के लिए नाममात्र सुने जा रहे हैं । सबसे बड़ा मनुष्य कहलाता है चक्रवर्ती । जो कर्मभूमि के क्षेत्र के छहों खंड का राजा हो और 32 हजार मुकुट बंध राजा जिनके चरणों में झुकते हैं, जिनके हुक्म की तामिल करते हैं, ऐसे बड़े-बड़े राजा, उनके अधिपति कहलाते हैं चक्रवर्ती । वह चक्रवर्ती जब छह खंड पर विजय प्राप्त कर लेता है या जितने नियोग के बाद वह वृषभाचल पर्वत में आता है जिस पर चक्रवर्तियों के नाम लिखे जाते हैं । वहाँ आने पर उसे बड़ा आश्चर्य होता है कि ओ ! यहाँ तो एक भी नाम लिखने की जगह नहीं है । वहाँ जो हजारों कोश का लंबा चौड़ा साफ पर्वत है उस पर चक्रवर्तियों के इतने नाम लिखे हुए थे कि उसे अपना नाम लिखने को जगह न मिली । उस समय का नियोग ऐसा है । वहाँ भी चक्रवर्ती को विरक्ति नहीं हो पाती । और चूँकि छह खंड पर विजय करने का जो बहुत बड़ा उद्यम किया है उसका फल तो इसी में समझा कि इस विशाल पर्वत पर नाम खोद दिया जाये । जैसे कि आजकल भी लोग बहुत कीर्ति कमाते हैं, संपदा कमाते हैं और उसके लिए बहुत बड़ा परिश्रम करते हैं, उसके एवज में चाहता यह कितना सा है फल, इतना कि नाम खुद जाये । नाम छप जाय, इतना सा फल और अपने को विडंबना में कितना डाल दिया उसका कोई ठिकाना नहीं । फल कितना मिला? नाम खुद गया । तो वह चक्रवर्ती यह खंड पर विजय प्राप्त करने के श्रम के फल में चाह रहा है कि मेरा नाम यहाँ खुदे । यद्यपि उसे अपना नाम खोदने को वहाँ जगह नहीं मिलती फिर भी उसे अपने नाम का इतना तीव्र लोभ है कि देवोपुनीत शस्त्र के द्वारा एक नाम को वह मेटता है ताकि उस जगह मेरा नाम लिखा जाये । कीर्ति की यह हालत है? अभी जो करीब 100 वर्ष पहिले प्रतापी राजा हुए है उनका नाम कभी-कभी ले लिया जाता है, पर उनकी भी कीर्ति अब क्या रही? तो कीर्ति और संपदा इंद्रिय विषय, इनमें लग करके लोग चाहते हैं कि मुझे शांति हो, किंतु शांति प्राप्त करने का यह उपाय ही नहीं है । 826-शांति प्राप्ति का उपाय—शांति प्राप्ति का उपाय यह है कि सबसे निराला, केवलज्ञानमात्र अपने आपको तके । में केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, अन्यरूप नहीं हूँ, इस प्रकार अपने विशुद्धस्वरूप की भावना बनाये रहें तो यह होगा शांति का उपाय और जहाँ ये चमड़े की आंखें खोली, बाहर में कुछ तका, उससे कुछ न कुछ आशा बना रहे और आशा की पूर्ति होना यह हम आपके इस समय अधीन नहीं है । तो आशा की पूर्ति न होने में दु:ख होता है । तो जिसे दुःख मिटाना है उसे यह निर्णय करना चाहिए कि सब दुःख आशा का है । आशा मिटी कि शांति प्राप्त हो गई । तो वे इंद्रिय विषय कैसे दूर हों? उनकी आशा कैसे समाप्त हो, उसका उपाय बताया है कि अपने को सोचें कि मैं अखंड ज्ञानमय हूँ । विषयों की बुद्धि तो खंडित है, यह मेरा स्वरूप नहीं, ये शरीर की इंद्रियाँ जड़ हैं, पुद्गल है, इनका मैं स्वामी नहीं, इनसे मेरा संबंध नहीं । फिर इनके क्या साधन बनायेंगे? ये विषय सामने पड़े हुए सब अत्यंत भिन्न है । असार हैं, जड़ हैं, इनसे मेरा कुछ परिणमन नहीं होता । ऐसी बुद्धि लगाये तो विषयों पर विजय प्राप्त हो । इस प्रकार जिन्होंने इंद्रिय के विषयों को जीता वे ही ये प्रभु हैं । यों आत्मा के गुणों का वर्णन करना सो निश्चय से स्तवन है। 827-निश्चयस्तुति का वर्णन—जो द्रव्येंद्रियों और भावेंद्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभावमय आत्मा को जानता है उसे ज्ञानियों ने जितमोह साधु कहा है । इंद्रिय विजयी कर्मों का भेद न करके मोक्षपथ का राही बन जाता है । इंद्रियों को जीतने का उपाय उनकी ओर अपेक्षा दृष्टि है । इंद्रियों को जीतना ही सब से बड़ी जीत है । बड़ी मार करतार की चित्त से दिया उतार । इंद्रियों को चित्त से उतार देना इंद्रियों के जीतने का सरल उपाय है । इंद्रियों के संबंध में 3 बातें जाननी चाहियें—(1) द्रव्येंद्रिय, (2) भावेंद्रिय और (3) विषय । भावेंद्रियां अपने-अपने गुण के विकास से होती हैं । आत्मा में जो ज्ञान, विचार भावादिक होते हैं वे सब भावेंद्रियाँ हैं । द्रव्येंद्रिय के निमित्त से होने वाली आत्मा की ज्ञानपरिणति को भावेंद्रिय कहते हैं । इंद्रियों के आकार को द्रव्येंद्रिय कहते हैं । भावेंद्रिय बोध को कहते हैं । मतिज्ञान और भावेंद्रिय पर्यायवाची शब्द हैं । जड़ पदार्थ द्रव्येंद्रियाँ कहलाती हैं । बाह्य पदार्थ इंद्रियों के विषय कहलाते हैं । इन तीनों की -द्रव्येंद्रिय, भावेंद्रिय और इंद्रियों के विषय उपेक्षा करनी है, उपेक्षा करना ही इंद्रियों को जीतना है । जहाँ उपेक्षा के भाव बनाये तीनों को एकसाथ भूल गये । द्रव्येंद्रियों के कारण स्व-पर का विभाग नष्ट हो गया है । द्रव्येंद्रियों की करामात से ही स्व-पर का विवेक खत्म हो गया है । क्योंकि अनादि काल से विपरीत-विपरीत पर्याय चल रही है जानते ही मोही परपदार्थ में एकत्व मानने लगता है । अतएव ये इंद्रियां स्व-पर के विभाग को नष्ट कर देने वाली है । इंद्रियाँ स्व-पर का विभाग नहीं होने देती हैं । जहाँ आत्मा है, वहाँ एक क्षेत्रावगाह से इंद्रियाँ भी हैं । फिर भी सब अपने आप में परिणमन रहता है । इंद्रियाँ और आत्मा एक क्षेत्रावगाही है इतने ही से स्व-पर का विभाग खत्म नहीं हो जायेगा । मोह से स्व-पर का विभाग खत्म होता है । ऐसे मोह के जीतकर प्रभु जितमोह हुए हैं । 828-भेदविज्ञान की कुशलता—भेदविज्ञान की कुशलता से प्राप्त स्फुट स्वभाव अवलंबन से इंद्रियों को जीत सकते हो । भेदविज्ञान में ज्ञान है कि द्रव्येंद्रियाँ मैं नहीं हूँ—वे मेरे से भिन्न हैं; इनका एक-एक परमाणु द्रव्य है; आत्मा इनसे न्यारा है । आत्मा अपने द्रव्यक्षेत्र काल भाव में रहता है । पर्याय और गुण अलग नहीं होते हैं । एक द्रव्य के जानने में जैसे दृष्टि बनाओ, उतने ही गुण हैं । यदि जीव के गुणों की पृथक् सत्ता हो तो इनकी संख्या की जा सकती है सत् तो केवल द्रव्य है; पर्याय भी द्रव्य ही है, गुण भी द्रव्य ही हैं । परंपरागत आचार्यों के समझाने का तरीका इतना निर्विवाद है कि द्रव्य के बोध में कोई अंतर नहीं पड़ता । ‘द्रव्य को’ समझने का यह तरीका अपने आप आ जाता है । शक्ति को समझाने के लिये उसके अनंत भेद कर सकते हैं, यदि थोड़े पर दृष्टि दी तो वहाँ असंख्यात भाग वृद्धि हो गई । अधिक पर दृष्टि दी तो असंख्यात गुणवृद्धि हो गई । इस द्दष्टि में यह ठीक है, इस दृष्टि से यह ठीक है, वस्तु में अलग-अलग गुण तो हैं नहीं; समझाने के लिये अलग-अलग भेद किये जाते हैं वस्तु है, परिणामी है; यह बात तो संक्षेप में कही जा सकती है । वस्तु को समझाने के लिये ही उसके विशेष कहीं भिन्न-भिन्न शब्दों में चीज एक ही है । जैसे—अखंड सत् है उसकी विशेषता बताई जा रही है; वह विशेषता से कोई अलग चीज नहीं है । वस्तु को गुणरूप से देखो तो गुणरूप नजर आती है; सत् (एक) रूप से देखो तो वस्तु अखंड नजर आती है । यदि गुण भी सत् हो जाये और पर्याय भी सत् हो जाये तो एक-एक पर्याय व एक-एक गुण सब द्रव्य हो जायेंगे । अत: वस्तु एक ही सत् है । अन्य सब सत् के भेद ही तो हैं । सत् के इस प्रकार से भेद किये गये हैं, यह बात ठीक है, या गलत? वस्तु के इस प्रकार भेद करने से वस्तु ठीक प्रकार से समझ में आ जाती हैं; अत: भेद करना सत्य है । वस्तु वास्तव में भेदरूप नहीं है अत: यह कहना असत्य भी है । द्रव्य के विशिष्ट लक्षण ‘‘सम गुण पर्याय द्रव्यम्’’ में ‘‘गुण पर्ययवद्द्रव्यम्’’ ‘‘उत्पाद-व्यय-धौव्य युक्त’’ सत्—सभी लक्षण आ जाते हैं, वैसे सभी लक्षण ठीक हैं । जैसे-शाखा, कोपल, पत्ते, फल, कुल आदि वृक्ष के अवयवों के समूह को एक शब्द में वृक्ष कह सकते हैं । उसी प्रकार गुण और पर्याय को तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सबको एक शब्द में द्रव्य कह सकते हैं । द्रव्य के सर्वांग परिपूर्ण व सर्वांग सुंदर स्वरूप को जानने का फल यह है कि सर्व द्रव्य की स्वतंत्रता उपयोगगत रहे ताकि समस्त क्लेशों के बीजभूत इस मोहभाव से छुटकारा पा लिया जाय । 829-उपेक्षाही परम विजय का परम उपाय—शरीर के परिणमन को प्राप्त हुई इन द्रव्येंद्रियों को चैतन्य स्वभाव के अवलंबन से तथा इनकी ओर उपेक्षा करके जीतो । क्योंकि द्रव्येंद्रियां जड़ पदार्थ है, उनको उनके, विरुद्धभूत चैतन्यस्वभाव के अवलंबन से ही तो जीत सकते हैं । वह चैतन्यस्वभाव का आश्रय द्रव्येंद्रियों की ओर उपेक्षा करने से ही प्राप्त हो सकता है । ‘‘बड़े मार करतार की चित्त से दियो उत्तार ।’’धर्म का पालन करने के लिये रागद्वेषादि नहीं करना चाहिए । नहीं करना— इसका क्या अर्थ हुआ? प्रत्येक बात का ‘‘न करना’’ किसी के सद्भावरूप ही तो हुआ करता है । राग-द्वेष न करने का मतलब हुआ—समताभाव धारण करना । उपयोग से निजस्वभाव का अवलंबन करना चाहिये । उपयोग से निजस्वभाव के अवलंबन में ही राग-द्वेष आदि जीतना आ गया । अर्थात् निज स्वभाव के आश्रय से ही राग-द्वेष आदि जीते जा सकते हैं । स्वभाव के अवलंबन का मतलब है, वस्तु को यथार्थ रूप से जानना—आत्मा को यथार्थता से देखना । स्वभाव का अवलंबन ही तो चित्स्वरूप को जानना है । किसी भी चीज को जानो, लेकिन जानो भूतार्थ शैली से । घट को जानो, पट को जानो, कर्म को जानो, शरीर को जानो, दुनियाभर की किसी भी चीज को भूतार्थ शैली से जानो तो चित्स्वभाव का अवलंबन आ ही जाता है । 830-भूतार्थ की शैली—पर्याय से लोगों का विशेष परिचय है । अतएव पहले पर्यायों का बड़े विस्तार से स्वरूप बताया जाता है । फिर बताया जाता है कि पर्याय को गुण के सम्मुख करे । पर्याय को गुण के सम्मुख करनेपर पर्याय गौण हो जाती है, गुण की मुख्यता हो जाती है । जब गुण मुख्य हो जाता है तो आत्मा को गुण के सम्मुख करो । आत्मा को गुण के सम्मुख करने से गुण गौण हो जायेगा, आत्मा मुख्य कहलायेगी । आत्मा को सम्मुख करने से चित्स्वभाव का अवलंबन स्वयं हो जाता है । यही पदार्थ को जानने की भूतार्थ शैली है । इस रीति में देखो भैया ! दर्शन का विषय जो सामान्य है उसकी प्रतीति सम्यग्दर्शन है । चक्षुदर्शन का विशुद्ध अर्थ:—चाक्षुष ज्ञान के पहले होनेवाले सामान्य प्रतिभास को चक्षुदर्शन कहते हैं । न कि आँख से दिखे तो चक्षुदर्शन हुआ । वह तो चाक्षुष ज्ञान हैं । अचक्षुदर्शन का विशुद्ध अर्थ:—अचाक्षुष ज्ञान के पहले होने वाले सामान्य प्रतिभास को अचक्षुदर्शन कहते हैं । अंतर्मुखचित्प्रकाश को दर्शन कहते हैं और बहिर्मुखचित्प्रकाश को ज्ञान कहते हैं । जैसे पुस्तक को जाना । पुस्तक को छोड़कर होल्डर को जानो इन दोनों के जानने के बीच में दर्शनोपयोग रहता है । क्योंकि उस मध्य में ज्ञान न होल्डर का है, न किताब का ही । अवांतर सत् भी जाने और सामान्य प्रतिभास भी रहे, ऐसा छद्मस्थ के कैसे हो सकता है? यह जाना इसे जाना—यह हमारी जानने की विशिष्ट शैली होती है । जो ज्ञेयाकार बना वह ज्ञान मात्र बहिर्मुखचित्प्रकाश हुआ । और जो ज्ञेयाकार विकल्प से रहित ज्ञानाकारमात्र का उपयोग रहा वह दर्शन है, अंतर्मुखचित्प्रकाश है । ज्ञान स्व का भी प्रकाश करता है, पर का भी यहाँ स्व का अर्थ है ज्ञान । एक ज्ञान का निर्णय करने के लिये दूसरे ज्ञान के बनाने की आवश्यकता नहीं होती है । उसी ज्ञान से पदार्थ को जानने वाले ज्ञान का भी ज्ञान से हो जाना है । जैसे ज्ञान ने घट को जाना । घट को जानने रूप ज्ञान को जानने के लिये दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं पड़ती है अस्वसंवेदियों के खंडन के लिये ज्ञान को स्व पर प्रकाशक कहा है । अर्थात् ज्ञान पदार्थ को भी जानता है और वही ज्ञान पदार्थ को जानने रूप ज्ञान को भी जानता है । आत्मा का प्रकाश ज्ञानरूप और दर्शनरूप—दोनों रूप पढ़ता है । 831-प्रभु का द्रव्येंद्रियविजय—शरीर परिणमन को प्राप्त हुई ये द्रव्येंद्रियां हैं । इनको चैतन्य-स्वभाव के अवलंबन से जीतो । द्रव्येंद्रियों को जीतना उपयोग के ऊपर निर्भर है यह उपयोग भी स्वभाव से ही प्रकट होता है । कोई उपयोग स्वभाव को भांप सकता है कोई उपयोग ऐसा भी है, जो स्वभाव को नहीं भांप सकता है । जो उपयोग चैतन्य स्वभाव को पकड़ लेता है, वह संसार के दु:खों से हटकर संसार से पार हो जाता है । मोहियो में ऐसी विशिष्टता है कि वह मोही जीव चैतन्यस्वभाव का अवलंबन नहीं कर पाता है । भगवान् विश्व को तो जानते हैं किंतु किसी भी अर्थ को विकल्परूप से नहीं जानते हैं, हम लोग तो विकल्प रूप से भी जान लेते हैं । पर पदार्थ में संबंध का विकल्प मोहियों के ही उत्पन्न होता है । जैसे पुस्तक का और चौकी का संबंध है, यहाँ पुस्तक भी है चौकी भी है, यहाँ तक जानना तो ठीक है इसमें भी पुस्तक या चौकी नाम से न जाने तो लेकिन यह एक बालिस्त लंबी है ये हमारे विकल्प ही तो है । भगवान् किसी भी पदार्थ को विकल्प करके नहीं जानते हैं, लेकिन हम लोग जो विकल्प करके जान रहे हैं, उसे भगवान् जान रहें हैं । लेकिन भगवान को उस हमारे विकल्प को जानने में कोई विकल्प नहीं होता है । भगवान का ज्ञान तो ‘अन्यूनमनतिरिक्त’ है । प्रत्येक द्रव्य में जो है, सो है, बाकी उसके भेद वगैरह करना हमारी कल्पना है । चैतन्य स्वभाव जो अंतरंग मैं स्फुट है वह अति सूक्ष्म है, वह चित्स्वभाव भेदविज्ञान की सहायता से ही मिलता है पदार्थों का जानना, भेदविज्ञान की सहायता से ही बन सकता है इस स्वावलंबन से ही द्रव्येंद्रियों को भी जीता जा सकता है । यह निश्चयनय से भगवान के आत्मा के गुणों की स्तुति है । भगवान के शरीर के गुणो का वर्णन करने से तो भगवान के विषय में कोई बात समझ में नहीं आती है । जिसे यथार्थ का पता है, वह शरीर की बात कहकर भी व्यवस्थित चित्त है । जो अपने स्वभाव में लीन है वह द्रव्येंद्रियों को जीत लेता है । 832-प्रभु का भावेंद्रियविजय—भगवान् की निश्चयनय स्तुति क्या है? इस संबंध में यह कहा कि भगवान के गुणों का वर्णन करना सो भगवान की निश्चय स्तुति है इंद्रियों का जीतना इसी तरह से हो सकता है कि उनसे उपेक्षा कर दी जाये । कल द्रव्येंद्रिय का वर्णन कर चुके हैं आज भावेंद्रिय का वर्णन करते हैं । तत्वार्थसूत्र में कहा है कि ‘‘लब्ध्युपयोगो भावेंद्रियम् ।’’ लब्धि और उपयोग को भावेंद्रिय कहते हैं । लब्धि और उपयोग के बीच समझ में आई जो परिणति, उसे भावेंद्रिय कहते हैं । द्रव्येंद्रियों और भावेंद्रियों को जीतना है । इन इंद्रियों के विषय जुदे-जुदे है । स्पर्शन इंद्रिय का विषय स्पर्श रसनेंद्रिय का रस; घ्राणेंद्रिय का गंध, चक्षु इंद्रिय का देखना (रूप), और कर्णेंद्रिय का शब्द—ये इंद्रियों के विषय है सब इंद्रियां अपने-अपने विषय को विषय करती है, एक इंद्रिय दूसरी इंद्रिय के विषय को नहीं जानती है । जैसे रस को घ्राणेंद्रिय नहीं चख सकती, फूल को रसना इंद्रिय नहीं सूँघ सकती । इन इंद्रियों का नियत विषय है, उसके बाहर ये ग्रहण नहीं कर पाती हैं । इन इंद्रियों ने पदार्थ को खंड-खंड करके ग्रहण किया है । ज्ञान में समस्त पदार्थ झलक, यह ज्ञान का अखंड काम है । ज्ञान यदि क्रम-क्रम से जाने या कम जाने या पूरा न जान पाये तो इस तरह के ज्ञान ने अपने खंड-खंड कर डाले । यह ज्ञान स्थूल को जान लेता है; परंतु सूक्ष्म को नहीं जान पाता है । ज्ञान में जो खंड हुए, वे सब भावेंद्रियों से हुए । लेकिन उनका निमित्त कारण द्रव्येंद्रियां है । अत: इन द्रव्येंद्रियों व भावेंद्रियों को भी जीतो द्रव्येंद्रियों के निमित्त से जो भाव बने वे भावेंद्रियां हैं । 833-अखंड ज्ञानानंदमय निज परमात्मतत्त्व की दर्शनीयता—जीव अखंड आनंदमय है; क्योंकि वह अखंड ज्ञानमय है । खंड आनंद खंड ज्ञान से होता है । अखंड आनंद अखंड ज्ञान से होता है । जितना व जैसा ज्ञान करो उतना व वैसा आनंद मिले । जो ज्ञान को खंड-खंड करके जानती है उसे भावेंद्रिय कहते हैं । ज्ञान का काम तो संपूर्ण को जानता था । अत: अखंड प्रतीयमान चैतन्य शक्ति से इन भावेंद्रियों का जीत सकते हो । उसी के आश्रय से द्रव्येंद्रियाँ और इंद्रियविषय जीते जा सकते हैं । खंड-खंड करने वाले इस आनंद को अखंड चैतन्य शक्ति से जीतना है । जरा, अखंड-ज्ञानानंदमय निजतत्त्व को तो देखो । जितने भी इस चैतन्यशक्ति के परिणमन हैं, वे सब चैतन्यमय हैं । जितने भी ज्ञान के परिणमन है उन सब में ज्ञान सामान्य रहता है । वह ज्ञान सामान्य अखंड ज्ञान कहलाता है । जितने भी प्रकार के ज्ञान चलते हैं, वे सब ज्ञान सामान्य हैं । जितने भी चैतन्यशक्ति के परिणमन हैं, वे सब चैतन्यमय हैं । चैतन्यशक्ति के परिणमन अनेक हो गये । ये चैतन्यशक्ति के परिणमन एक भी नहीं रहे, अखंड भी नहीं रहे । खंड-खंड करके जानने वाली इन भावेंद्रियों को इसी चैतन्य-शक्ति के आश्रय से जीतो । मोक्षमार्ग को प्राप्त कहने के लिए निज ध्रुव स्वभाव जिसे चैतन्य स्वभाव कहते हैं, उसका आश्रय लो । मोक्षमार्ग के लिये एक काम करना चैतन्य स्वभाव का अवलंबन करना । अवलंबन तो एक प्रकार है किंतु अवलंबन की दृढ़ता की डिगरी अनेक हैं । जिस संयम के अनेक स्थान बने, वे चैतन्य-शक्ति में नहीं होते हैं । क्योंकि कमी की अवस्था में ही स्थान हुआ करते हैं । साधारणतया ये विविध स्थान 8 वे गुणस्थान तक चलते हैं, सूक्ष्मतया ये स्थान आगे तक भी चलते हैं । विकास में अनेक दर्जे चला करते हैं । वह चैतन्यशक्ति अखंड है । उस निज स्वभाव के उपयोग के द्वारा इन भावेंद्रियों और विषयों को जीता जाता है । 834-विषय विजय—विषय इंद्रियों के विषय है केवल रूपादि नहीं किंतु विषयभूत अर्थ । अकेले रूप गुण को और काले-पीले-नीले-हरे आदि रंगों को भी कोई नहीं जानता है । जो जानता है, वह पदार्थों को जानता है । गुण की मुख्यता से जीव पदार्थ को जानते समय समझता है कि हम गुणों का जान रहें हैं इसी प्रकार पर्याय की मुख्यता से पदार्थ को जानते समय जीव समझता है कि हम पर्याय को जान रहे हैं । लेकिन कोई गुण या पर्याय को नहीं जानता है; जो जानता है, वह द्रव्य या पर्याय को जानता है । सत् को हम कभी उत्पाद की मुख्यता से जानते हैं, कभी व्यय की मुख्यता से जानते, कभी ध्रौव्य की मुख्यता से । जो जानता है, वह पदार्थ को जानता है । जो कुछ है, सो सत् है । जो बताया जाये वह सत् की विशेषता है । ये इंद्रियां अपने-अपने नियत विषयों को जानती हैं, वे विषयरूप रस, गंध, स्पर्श और शब्द हैं । कोई रूप सामान्य रस सामान्य गंध सामान्य, स्पर्श सामान्य और शब्द सामान्य को नहीं जानता है । और न कोई केवल उनकी पर्यायों को लोग रूप की मुख्यता से पदार्थ को जानते हैं, रस की मुख्यता से भी पदार्थ को ही जानते हैं । मालूम ऐसा पड़ता है कि जैसे हम रूप सामान्य व रस सामान्य को जान रहे हो जिसकी मुख्यता से द्रव्य जाना जाये, उसे ही द्रव्य कहा गया है । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द— ये इंद्रियों के 5 विषय हैं । जिस समय ये विषय जानने में आ रहे हैं, उस समय ये पदार्थ मोहियों के ज्ञान में एकीभूत से हो रहे हैं । 835-ज्ञान और पदार्थ का मात्र ज्ञेयज्ञायकसंबंध—प्रश्न:—ये विषय पदार्थ को जानते समय ज्ञान के साथ एकीभूत से क्यों हो रहे हैं? कुछ तो संबंध होगा? उत्तर:—पदार्थ में और ज्ञान में मात्र ज्ञेयज्ञायक संबंध है । इसका फलितार्थ यह हुआ कि वास्तव में देखा जाये तो पदार्थ में और ज्ञान में कोई संबंध नहीं है । क्योंकि इन बाह्य-पदार्थों का द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव इन्हीं पदार्थों में है, मेरा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव मुझ में ही है । ज्ञान आत्मा का ही तो गुण है । अत: आत्मा का गुण यह ज्ञान इन बाह्य पदार्थों से कैसा नाता जोड़े? इस आत्मा की ही ऐसी शक्ति है, जो पदार्थों को जानने रूप परिणमती है । ज्ञेयाकार इन चीजों का अलग-अलग नाम लेकर बताया जाता है । आत्मा दृश्य पदार्थों को नहीं जानता है । आत्मा का ज्ञेयाकार में ही जानने का तादात्म्य है । आत्मा ने क्या जाना, कैसे जाना क्या करके जाना—यह जानने की इच्छा हो वहाँ बताना है कि हम अपने आपको कैसे जान रहे हैं । उसके बताने का उपाय बाह्य पदार्थों के नाम लेना है । इस बात को एक दृष्टांत द्वारा समझाते हैं—जैसे हमने पुस्तक को जाना । निश्चय से हमने पुस्तक को नहीं जाना । अपने आपको ही जाना । हमने पुस्तक के ज्ञान रूप से ग्रहण करने वाले अपने आत्मा को ही जाना । लेकिन व्यवहारनय से पुस्तक को जाना । निश्चय से आत्मा ने आत्मा को ही जाना, लेकिन किस रूप से आत्मा ने अपने को जाना यह बताने के लिये हम ‘पुस्तक’ का नाम ले देते हैं । इसी प्रकार द्वादशांग श्रुत को जानने वाले श्रुतकेवली निश्चय से श्रुत को नहीं, वह आत्मा को ही जानता है । वह द्वादशांगश्रुत के ज्ञान रूप से ग्रहण करने वाले आत्मा को ही जानता है । भावेंद्रियों ने विषयों को जाना । वास्तव में भावेंद्रिय ने अपने आपको जैसा परिणमाया, उसी को भावेंद्रिय ने जाना । यद्यपि पदार्थ और द्रव्येंद्रिय का कोई संबंध नहीं है तो भी ग्राह्य-ग्राहक संबंध के कारण पदार्थ और इंद्रियां एक रूप से हो गये हैं । भावेंद्रियों के द्वारा गृह्यमाण इन विषयों को जीतना है । विषयों को जीतने का उपाय अपने को नि:संग अनुभव करना है । निश्चय की बात अपनी समझ में आये कि हमने इन पदार्थों को नहीं जाना, अपने आत्मा को ही जाना ।इस उपाय से निसंगता का अनुभव भी शीघ्र होगा । 836-सर्व विजय का एकमात्र उपाय—द्रव्येंद्रियों को जीतने का हथियार एक है और जीतना बहुत को है । वह हथियार निजस्वभाव का आश्रय है । इसी निजस्वभाव से आश्रयरूप हथियार से द्रव्येंद्रिय भावेंद्रिय और विषय इन सबको जीता जा सकता है । विषयों में रति करना जीव का निजपद नहीं है । यह समय विषयों में योंही निकला जा रहा है, इन समयों का सदुपयोग मोह भाव को कम करन में और सत्पथ की प्राप्ति के लिए प्रयत्नों में करो । मोह भाव को कम करके द्रव्येंद्रियों को जीतना । शरीर में रहने वाली इंद्रियों मैं नहीं, मैं चैतन्य स्वरूप आत्मा हूँ; ऐसी भेदविज्ञान की कुशलता से और चैतन्यस्वभाव के आश्रय से ये द्रव्येंद्रियां जीती जा सकती है । मैं अखंड चैतन्य आत्मा हूँ, द्रव्येंद्रियों और भावेंद्रियों को जीतकर, मैं नि:संग हूँ, चैतन्यमात्र हूँ—ऐसा विचार करके और विषयों से रति को हटाकर, और चैतन्यमय स्वरूप में रति करना यह काम बुद्धिमानी का है । द्रव्येंद्रिय भावेंद्रिय और विषयों को जीतकर, अर्थात् इनकी उपेक्षा करके निजस्वभाव का अनुभव कर उस स्वभाव में चित्त स्थिर करो । जिस समय जीव का स्वभाव का आश्रय रहा, उस समय वह क्या मान रहा क्या अनुभव कर रहा—कुछ बताया नहीं जा सकता । जीव स्वभाव का आश्रय करके क्या जान रहा, इसका उसमें विकल्प ही नहीं है । उसे तो जान लेने दो, वह अपने आप अव्यक्त संकेत में बतायेगा । अत: हे प्राणियों ! इन इंद्रियों और विषयों को स्वभाव के अवलंबन से जीतो । लड़ाई, झगड़े, काम, क्रोध, मान माया लोभ आदि सभी दुष्परिणाम स्वभाव के आश्रय से जीते जाते हैं । धर्म के कार्यों में विघ्न डालने वाला विकल्पों छोड़कर अन्य कोई नहीं है । द्रव्येंद्रिय, भावेंद्रिय और विषयों के विकल्पों के भगाने का उपाय दान भक्ति स्वाध्याय पूजा आदि भी है । किंतु ये इंद्रियां और विषय मूलतया चैतन्य शक्ति के अवलंबन द्वारा जीते जा सकते हैं । अत निज चैतन्य-शक्ति का अवलंबन करो । 837-संसारी जीव में दुःख की निरंतरता—राग दो प्रकार का है:—1 जो समझ में आता है, वह बुद्धि पूर्वक राग है, और दूसरा जो समझ में न आवे वह अबुद्धि पूर्वक राग है । अपन लोगों के दोनों प्रकार के राग पाये जाते हैं । एक समय में एक ही साथ दोनों प्रकार के राग हो सकते हैं । संसारीजीव में इसी प्रकार दुःख भी दो प्रकार का है और दोनों प्रकार के दुःख एक साथ रह सकते हैं । जीव में दुःख निरंतर विद्यमान रहता है चाहे वह उसे जान पाये या न जान पाये । कर्म का उदय मात्र ही दुःख का कारण है जिस दु:ख को बताया जा सके, वह बुद्धि पूर्वक दु:ख कहलाता है, जो न बताया जा सके, वह अबुद्धि पूर्वक दु:ख है । लट पिपीलिका आदि के भी बुद्धि पूर्वक दुःख होता है । यहाँ कोई-कोई जिज्ञासु शंका करता है कि शारीरिक मानसिक व इंद्रियजंय दु:ख—ये सब संसारी जीवों के होते है; लेकिन अबुद्धिपूर्वक दुःख हम किसी के होता नहीं देखते, अत: कैसे जाने कि अबुद्धिपूर्वक दुःख होता है? उत्तर—अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जो राग होता है, वह भी चल रहा है, परंतु वह समझ में नहीं आता है; वह अबुद्धिपूर्वक है । अनेकों दुःख बुद्धिपूर्वक भी होते हैं । शंका:—शारीरिक, मानसिक व इंद्रियजन्य—ये दु:ख दु:ख हैं, अबुद्धिजन्य दुःख दुःख नहीं है । क्योंकि यह हमें ठीक मालूम नहीं पड़ता । बुद्धिजन्य के अलावा कोई दुःख नहीं है । उत्तर—तुम्हारा कहना ठीक नहीं है । स्वाभाविक सुख जो नहीं दिखता, उससे सिद्ध है कि स्वाभाविक (अबुद्धि पूर्वक) दुःख भी अवश्य है । जब स्वाभाविक सुख नहीं है तो दुःख अवश्य रहेगा । अत: बिना आत्मानुभव के बाकी सब दु:ख हैं । जिन भावेंद्रियों और विषयों को भगवान ने जीता वे सब दुःख के ही तो प्रसंग हैं । यह समझना चाहिये कि जब तक आत्मा में कर्म का उदय है, तब तक दु:ख ही दु:ख है । आत्मीय सुख और दुख दोनों विरुद्ध चीजें है । आत्मीय सुख के अभाव में दु:ख ही तो रहेगा । यदि आत्मा में दु:ख है तो समझो आत्मीय सुख नहीं है । खेलना, हंसना, खाना आदि भी स्वाभाविक सुख नहीं है अत: इन्हें भी दु:ख ही समझो । ठंडे के अभाव में जैसे उष्ण रहता है, वैसे ही आत्मीय सुख के अभाव में दुःख रहता है और दु:ख के अभाव में आत्मीय सुख रहता है । जैसे द्रव खरा भी हो सकता है, द्रव भी हो सकता है, जैसे समुद्र । किंतु स्वाभाविक सुख और दुःख का परस्पर में विरोध है । अत: आत्मीय सुख के अभाव में उसे दुःख ही समझो । ‘सुख’ शब्द से लोग अधिक परिचित हैं । अत: आचार्यों ने उनको सरलता से समझाने के लिये ‘सुख’ शब्द का प्रयोग किया । वस्तुत: सुख—जो इंद्रियों को रुचे वह है । जो आत्मीय सुख है उसे ‘आनंद’ कहते हैं यः आसमंतात् नंदति आत्मानं स आनंद: । जैसे लोग स्त्री से अधिक परिचित है, अत: मुक्ति के साथ कन्या, कामिनी आदि शब्दों का प्रयोग किया है । आत्मा में प्रसिद्ध गुण चार हैं:—ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनंद । सिद्धों में आनंद है, सुख नहीं है । आनंद शक्ति के 3 परिणमन दुःख, सुख, और आनंद । दुःख सुख संसारियों के और आनंद मुक्तों के होता है । आनंद शक्ति आत्मा में आदि से अनंत तक रहती है । सुख और दुःख—आनंद-शक्ति के विकार है । आनंद का आनंद रूप में परिणमना आनंदशक्ति का स्वभावरूप परिणमना है । जीव की आनंद शक्ति द्रव्योपजीवी है, उस शक्ति के घातने वाले कर्म हैं । दुःख-सुख इस आनंद गुण के घात के कर्म के प्रभाव है । आत्मशक्ति तो आनंद है । लेकिन घातिया कर्मों के निमित्त से जीव आनंद शक्ति का स्वभावरूप परिणमन नहीं कर पाता है । जीव के परिणमन का स्वभाव निमित्त पाकर विभावरूप परिणमने का है और निमित्त न पाकर स्वभावरूप परिणमने का है । कैसा उपादान कैसा निमित्त पाकर किस रूप परिणम जावे, यह विशेषता उपादान की है । जैसे हम चौकी पर बैठ जाये तो बैठना चौकी की विशेषता नहीं, किंतु हमारी विशेषता है । 838-जब तक कर्म है तब तक दुःख ही है—सुख-दुःख दोनों एक साथ क्यों नहीं रह सकते हैं? आप कहोगे कि रह सकते हैं जैसे कहा करते कि यह सुखी भी है, दुःखी भी है । लेकिन नहीं, जब तक कर्म का उदय है, तब तक दुःख ही है दु:ख मिट ही नहीं सकता है । जब तक कर्म है तब तक दुःख है । आनंदगुण की 3 पर्याय हैं:—सुख, दुःख और आनंद । इंद्रियों को जो अच्छा लगे, उसे सुख कहते हैं, इंद्रियों को सुहावना न लगे, उसे दुःख कहते हैं और जहाँ स्वाभाविक आनंद कहते हैं । आनंदगुण की एक समय में एक ही अवस्था हो सकती है । लेकिन तुम्हें मालूम पडता है कि आत्मा में एक ही समय में सुख भी रहता है, दुःख भी । ऐसा नहीं है । दुःख सुख का चक्र घूमता रहता है । दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख आता रहता है । इनका क्रम से आना समझमें नहीं आता है । जैसे—कौवे की पुतली कभी इधर घूमती है, कभी उधर, पुतली चलती हुई नहीं दिखाई देती है, मालूम यह पड़ता है कि कौवे की पुतली दोनों तरफ है, लेकिन ऐसा तो नहीं है । उसी प्रकार दु:ख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख आता ही रहता है । दुःख और सुख एकसाथ नहीं रह सकते हैं । कामों में उपयोग इतनी जल्दी चलता है कि तुम्हें समझ में नहीं आ सकता है । जैसे एक चका है । उसमें अंतर-अंतर से चार-पांच पटिये लगे हैं । यदि वह चका तेजी से घूमे तो यह मालूम पड़ेगा कि इसमें एक पटिया ही सर्वत्र हैं । वहाँ कोई अंतर नहीं है । उसी तरह दुःख-सुख भी चक्र की भाँति तेजी से आते रहते हैं । 839-हमारे सुख दु:ख के कारण—ये भावेंद्रियाँ ही तो हमारे सुख दुख का कारण बनती हैं । सुख जैसे काम करो, सुख प्राप्त होता है । कुत्सित कार्य करो तो दुःख की उपलब्धि होती है । इंद्रियों के निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे भावेंद्रिय कहते हैं । जड़रूप चिह्न विशेषों को द्रव्येंद्रिय कहते हैं । इन इंद्रियों के द्वारा जो जाना जाये, उसे विषय कहते हैं । इनका उपयोग आत्मा के गुणों का बध कर डालता है । अत: द्रव्येंद्रिय, भावेंद्रिय और विषय-इन तीनों को जीतना चाहिये । 840-जड़ को जीतने का उपाय चैतन्य की भावना—द्रव्येंद्रियाँ जड़रूप हैं, अत: चैतन्यस्वरूप आत्मा को देखो तो द्रव्येंद्रियों को जीत सकते हैं । भावेंद्रिय ज्ञान को खंड-खंड करके जानती है । इसे जाना तो दूसरा पदार्थ जानने में नहीं आता, वह जाना तो तीसरा समझ में नहीं आता है । अत: भावेंद्रियों को अखंड चैतन्यशक्ति के अवलंबन से जीता जायेगा । जड़ के जीतने का उपाय चैतन्य का आश्रय लेना है । खंड-खंड ज्ञान को जीतने का तरीका अखंड चैतन्यशक्ति का आश्रय लेना है । कहने का मतलब यह है कि जिसे जीतना है, उससे उल्टे का आश्रय लो । जैसे हमें किसी शत्रु को जीतना है तो हमें उसके शत्रु से मैत्री करनी पड़ेगी । भावेंद्रियों का काम खंड-खंड करके जानना है इसको जीतने का उपाय अखंड चैतन्यशक्ति का आश्रय लेना है । 841-विषय व ज्ञान एकमेक से लग रहे हैं—विषय ज्ञान के साथ एकमेक से हो रहे हैं । विषयों का और ज्ञान का मात्र गाह्य ग्राहक संबंध है । ज्ञान जाननेवाला बन गया, जानने में आ गये पदार्थ—इतना ही ज्ञान का और विषय का संबंध है यह संबंध व्यवहार से है जान लो—इतना ही पर्याप्त है; उसमें विकल्प आदि न करो । जाननमात्र से आगे जो बड़े तो कर्मों का बंध होगा । दुनियाभर के पदार्थों को देखो; बस जान लिया जान लिया, ऐसे भाव उत्पन्न हो जावें तो इष्ट सिद्धि प्राप्त हो जाये । ज्ञान ने के बाद उसमें विशेष दृष्टि दी तो आपत्ति हैं अर्थात् कर्मों का बंध हो जावेगा । लोग सोचते हैं कि धन गया तो समझो हम ही मर गये अर्थात् वे चमड़ी चली जाये पर दमड़ी न जाये—इस शैली के आदमी होते हैं । धन को अपने से, आत्मीय जनों से—स्त्री पुत्रादि से भी विशेष समझते हैं । लेकिन जब जिससे प्राण ही चले गये, उस धन के होने से लाभ ही क्या? कमाई करनी है तो अपने परिणामों को निर्मल बनाओ । धनोपार्जन की जड़ अपने परिणामों की स्वच्छता है । बिना स्वच्छ परिणाम अर्थात् ईमानदारी के व्यापारादि आर्थिक क्रियाओं में सफल नहीं हो सकते । यह तो यहाँ की बात है । लाभ पुण्योदय से हुआ, पुण्यबंध स्वच्छ परिणामों से हुआ यह जड़ की बात है । अत: मन में कुभावों को-खोटे परिणामों को कभी मत आने दो । 842-विषयों को जीतने का उपाय असंग की भावना—ज्ञान के साथ एकमेक से हुए इन विषय को जीतता है । इनका ज्ञान के साथ संगसा हो गया है । अत: इनको जीतने के लिये स्वयं अनुभव में आने वाले असंग स्वभाव का अवलंबन करो । यह स्वानुभव स्वयं प्राप्त हो जाता है, इच्छापूर्वक नहीं आता है । धर्म का और इच्छा का तो परस्पर विरोध है इच्छापूर्वक जो किया जावे, वह धर्म नहीं है । इच्छा मत करो स्वयं धर्म मिल जायेगा । हां इस स्थिति को पाने के अभिप्राय से कुछ यत्न किया जाता है वह शुभोपयोग है । जैसे विवाह शादियों में सातवीं भंवर पड़ने पर ही विवाह होता है । सातवीं भंवर पड़ने में अधिक से अधिक आधा मिनट लगता होगा । अर्थात् विवाह आधे मिनट में ही होता है । लेकिन उस आधे मिनट के लिये कितने दिन पहले से कितने झंझट करने पड़ते हैं । कितना खर्च करना पड़ता है । लेकिन विवाह इन झंझट में नहीं होता है । फिर भी ये झंझट विवाह करना है, तो करने ही पड़ेंगे । इसी प्रकार स्नान, पूजा, अभिषेक स्वाध्याय आदि जो हम कर रहे हैं, उनमें धर्म नहीं है । फिर भी धर्म प्राप्त करना है, ये क्रियायें अवश्य करनी पड़ेगी । इसके बिना धर्म की स्थिति पाना विडंबना वालों को कठिन है । ये जितने भी कार्य तुम करते हो सब इच्छापूर्वक ही तो करते हो । जब स्वानुभव होगा, उस समय तुम्हारी कोई इच्छा ही न रहेगी । 843-जब इच्छा न होगी, तभी धर्म होगा—ध्यान करो, ऐसा करो कि कुछ ध्यान ही न रहे । एतदर्थ इच्छापूर्वक किये गये कृत्य बिलकुल बेकार नहीं गये, उनसे वह शुभोपयोग होता है । जिसके पश्चात् धर्म की संभावना है । आत्मा का ध्यान ऐसा करो कि आत्मा का भी ध्यान न रहे, वही यथार्थ ध्यान है, वही धर्म है । ऐसी अवस्था में स्वाभाविक आनंद की एक झलक मिलती है । जीव जिस काल में धर्म करता है, उसी काल में आनंद की प्राप्ति होती है । धर्म करे अब, और आनंद मिले पश्चात् ऐसा नहीं है । एकत्व के लक्ष्य पूर्वक ध्यान करते जाओ; स्वानुभव अपने आप ही प्राप्त हो जायेगा । शुभोपयोग से मन को सुख मिलता है । शुभोपयोग से जो सुख मिलता है, मिलता है उसी समय, परंतु क्षणिक सुख मिलता है । अर्थात् जितने समय शुभोपयोग के कृत्य करते हो, उतने ही समय तक उसका सुख रहता है, बाद में नहीं रहता । 844-उपयोग का फल उपयोग के काल में—शुभोपयोग का फल शुभोपयोग के बाद नहीं है। अशुभोपयोग के विषय में भी यही बात है । शुभोपयोग जिस समय करता है, उसी काल उसका फल मिलता है—इसमें झगड़ा नहीं, उधार का काम नहीं है । कर्म किया, कर्म का उदय आएगा, उसके बाद फल मिलेगा । यह निमित्त नैमित्तिक संबंध है । इस निमित्तनैमित्तिक द्दष्टि में सम्यग्दृष्टि को खोटे काम का जितनी जल्दी फल मिलता है, उतनी जल्दी मिथ्यादृष्टि को नहीं मिलता । क्योंकि सम्यग्दृष्टि ने जो भाव किया, वह कम स्थिति का कर्म बांधेगा, कम स्थिति होने से जल्दी उदय में आयेगा उदय में आते ही फल मिल जायेगा । लेकिन मिथ्या दृष्टि तो बड़ा पाप करता रहता है । उसके जो कर्म बांधेगा, वह लंबी स्थिति का बंधेगा । लंबी स्थिति का होने से देर में उदय में आयेगा । उदय में आने पर ही उसका फल मिलेगा । ऐसे कर्म बंधे हुए अनंत पड़े है अत: रोज के रोजगार में मोही के अंतर नहीं आता । इन विषयों को जीतना है, जो ज्ञान के साथ एकमेक से हो रहे हैं—इनका ज्ञान के साथ संग बन गया है । विषयों को जीतने के लिये स्वयं अनुभव में आने वाले असंग स्वभाव का आश्रय करो । द्रव्येंद्रियाँ जड़ हैं, अत: उनको जीतने के लिये चैतन्यस्वभाव का आश्रय करो । भावेंद्रियां ज्ञान को खंड-खंड करके जानती हैं अत: उनको जीतने के लिये अखंड चैतन्यस्वरूप का अवलंबन करो । 845-प्रभुगुणस्तवन से ही प्रभुस्तुति का निश्चय—हे भगवन् आपने इस प्रकार द्रव्येंद्रियों, भावेंद्रियों और विषयों को जीता । आपको नमस्कार हो । इस प्रकार यह भगवान की निश्चय स्तुति है । द्रव्येंद्रिय भावेंद्रिय और विषय भगवान की आत्मा से स्वयं पृथक् हो गये यही उनको जीतना है । हे भगवन् ! आपने इन तीनों को जीता है, इस प्रकार भगवान् के आत्मा के गुणों तक दृष्टि ले जाना भगवान की निश्चय स्तुति । आत्मा के गुणों की पर्याय की बात बताना सो निश्चयस्तुति है । आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य के पर्याय की बात करना व्यवहार स्तुति है । व्यवहार स्तुति भी तभी होती है जबकि स्तोता उसकी आत्मा के गुण जानता हो यहाँ पर भगवान की आत्मा के गुणों का वर्णन करने के कारण निश्चय स्तुति की गई है । जिस पुरुष को आत्मा के गुणों की खबर ही नहीं है उसके द्वारा की गई बाह्य स्तुति व्यवहार स्तुति भी नहीं है । भैया ! यहाँ भी तो लोग अटपट परस्पर प्रशंसा करते हैं—यदि आत्मा के गुणों को बतावे तो निश्चयस्तुति है । यदि पुत्र धन मकान की प्रशंसा करके संतोष करे तो वह ‘‘उष्ट्राणां विवाहेषु गीतं गायंति गर्दभा: । परस्परं प्रशंसंति, अहोरूपमहो ध्वनि:’’ ही होगा । 846-प्रभु की निश्चयस्तुति की पद्धति—प्रश्न:—भगवान की निश्चय स्तुति कैसे की जानी चाहिये? उत्तर—द्रव्येंद्रियों को चैतन्य-स्वभाव के आश्रय से जीत करके, भावेंद्रियों को अखंड चैतन्य शक्ति के आश्रय से जीत करके, विषयों को असंग स्वभाव के आश्रय से जीत करके, हे भगवन् ! आप उस अपनी आत्मा के स्वभाव का अनुभव कर रहे हैं, जो आपकी आत्मा एकत्व में लीन हो रही है । भगवान का स्वरूप इसलिए एकत्व में आ गया कि भगवान् ने ज्ञेय-ज्ञायक शंकर दोष को समाप्त कर दिया है । ज्ञेय पदार्थ हैं ।ज्ञायक ज्ञान स्वयं है । दोनों भिन्न-भिन्न वस्तु हैं इस प्रकार जानकर आपने ज्ञेय-ज्ञायक शंकर दोष को दूर कर अपने स्वभाव को एकत्व में कर लिया है । जैसे- आम खा रहे हैं । आम खा भी रहे हैं और आम के रस का स्वाद भी ले रहे है—ऐसी समझ यही ज्ञेय-ज्ञायक-शंकर-दोष है । क्योंकि आत्मा आम खाता नहीं है; आत्मा यह अनुभव करे कि मैं आम का रस चख रहा हूँ यह ज्ञेयज्ञायक शंकर दोष है । आत्मा आम का निमित्त पाकर आम के रस का ज्ञान कर रहा है । आम के रस का अनुभवन आम में और आम का रस मीठा है, इस प्रकार का ज्ञानरूप अनुभव आत्मा में होता है । ज्ञेय का लक्ष्य समाप्त हो जाये, ज्ञानमात्र रह जाये इसी को ज्ञेय-ज्ञायक शंकर दोष का दूर होना कहते हैं । दुनिया ज्ञेय ज्ञायक शंकर में ही तो लगी है । ज्ञेय के अनुसार ज्ञान के परिणमन को ज्ञेयज्ञायक शंकर दोष कहते हैं । हे भगवन् ! आपने ज्ञेय-ज्ञायक-शंकर दोष को नष्ट कर दिया है । आप अपनी एकता में आ गये हैं । दुनिया के लोग ज्ञेय-ज्ञायक-शंकर-दोष के दोषी होने के कारण एकता में नहीं आ पाये हैं । हे नाथ आप निज एकत्व में टंकोत्कीर्णवत् निश्चल है, इस प्रकार की यह भगवान की निश्चयस्तुति है । व्यवहार में शरीर का वर्णन करके भगवान की स्तुति की जाती है । लेकिन निश्चय स्तुति में केवल भगवान की आत्मा के गुणों का वर्णन किया जा रहा है । इस निश्चय स्तुति से अपने को मार्ग दिखाई, देगा कि हमें भी ऐसा ही करना है, जैसा कि भगवान् ने किया है । हे भगवन् ! जो आत्मा समस्त बाह्य द्रव्यांतरों से पृथक् है । ऐसे अपने आत्मा को आपने जाना है । अपने आत्मा को जानने के कारण आप बड़े है । आपके अंदर बड़ा होने की करतूत है, अत: आप बड़े हैं । आपने अपने ऐसे आत्मा को जाना है, जो समस्त द्रव्यांतरों से बिल्कुल न्यारा है हे भगवन् ! आप ज्ञानस्वभाव के द्वारा अपने आत्मा को सबसे न्यारा अनुभव कर रहे हो । वह आत्मा ज्ञान स्वभाव के द्वारा सबसे अलग जान पड़ी । 847-द्रव्य में साधारण गुण—(1) अस्तित्व (2) वस्तुत्व, (3) द्रव्यत्व, (4) अगुरूलघुत्व, (5) प्रदेशत्व और (6) प्रमेयत्व; इन छह गुणों की अपेक्षा आत्मा निखिल द्रव्यों के समान है । अन्य द्रव्यों से जीवद्रव्य में ज्ञानस्वभाव से विशेषता है । जैसे—द्रवपने से दूध और पानी समान हैं; परंतु उनकी पहिचान करने के लिये द्रवत्व गुण नहीं देखा जाता । जल से भिन्न दूध की पहिचान रस से, स्वाद से, सफेदी आदि गुणों से होती है । इसी प्रकार आत्मा अन्य द्रव्यों से ज्ञानस्वभाव अधिक है । इस ज्ञानस्वभाव के द्वारा ही अन्य द्रव्यों से अलग जीव द्रव्य पहिचाना जाता है । वास्तव में ज्ञान है; कल्पना की चीज नहीं है ।ज्ञान को किसीने नहीं बनाया नहीं है ज्ञान स्वत: सिद्ध है; ज्ञान अनुयायी है, ज्ञान अविनाशी है; ज्ञान का कभी नाश नहीं होता है । जैसे अग्नि में उष्णता कभी नष्ट नहीं होती है । यदि अग्नि ही नष्ट हो जाये तो उस अग्नि की उष्णता भी नष्ट हो जाती है । अग्नि पर्याय होने के कारण नष्ट हो जाती है किंतु आत्मा कभी नष्ट नहीं होता है । अतएव आत्मा का गुण ज्ञान भी सदा ही बना रहता है, कभी नष्ट नहीं होता है । आत्मा प्रकाशमान है, समस्त जीवों में है । जो जानता है, अनुभव करता है; वह आत्मा है । ज्ञान जानने वालों के पूर्णतया समझे में आ रहा है । भगवान का ज्ञान सारे विश्व को एक समय में एक साथ जान रहा है । भगवान का ज्ञान सारे विश्व पर एक समय में तैर रहा है । जैसे अपना ज्ञान सामने स्थित जितने पदार्थों को समझ रहा है, मालूम पड़ता है कि उन पदार्थों पर तैर रहा है । इस गाथा का यह भाव हुआ कि हे भगवन्, आपने द्रव्येंद्रियों, भावेंद्रियों और उनके विषयों को जीतकर अपने को ज्ञान के द्वारा ज्ञानमय अनुभव किया । यह भगवान की निश्चय स्तुति है । यह रोज-आना भगवान के सामने बोलो तो तुम भी भगवान् जैसे ही इंद्रियों को जीतकर अपने को ज्ञानमय अनुभव करने लगो । इस लायक यत्न करने का उत्साह जागेगा । लोगों को सुख से या दुःख से अधिक परिचय है । उसी का नाम लेने से हरेक कोई समझ जाता है, अत: आचार्यों ने सुख दुःख से परिचित मोहियों को ‘‘आनंद’’ की जगह सुख कहकर समझाया है । जैसे कि संसारी प्राणी स्त्री से अधिक परिचित है, अतएव आचार्यों ने मोक्ष को स्त्री का रूपक देकर समझाया है:—मुक्तिकन्याकरग्रहेशुल्कतांकति । यहाँ पर ‘‘मुक्ति रूपी कन्या के विवाह’’ में ऐसा कहा है । जिस प्रकार की भाषा को समझने वाले जीव होते हैं, उनको समझाने के लिये उसी प्रकार की भाषा बोली है । 848-भगवान का ज्ञान-स्वभाव सारे विश्व के ऊपर तैर रहा है—हे नाथ आपने इंद्रियों को जीतकर ज्ञान स्वभाव करि अपने को अधिक अनुभव किया । चैतन्य स्वभाव का आश्रय कर जड़रूप द्रव्येंद्रियों को जीता आपने, ज्ञान को खंड-खंड करके जानने वाली भावेंद्रियों को अखंड स्वभाव का अवलंबन करके जीता और संग सहित विषयों को। असंग स्वभाव का आश्रय कर जीता । इस प्रकार इंद्रियों को जीतकर आपने अपने को ज्ञानमय अनुभव किया । जिसने इंद्रियों को और उनके विषयों को जीतकर अपने को ज्ञानमय अनुभव किया है, उन्हें ‘‘जितेंद्रिय’’ कहते हैं । हे भगवन्! आप जितेंद्रिय हैं । समस्त सम्यग्दृष्टि ‘जिन’ कहलाते हैं । सम्यग्दृष्टियों के इंद्र जिनेंद्र (अरहंत) कहलाते हैं । जिनेंद्र के द्वारा कही गई वाणी को ‘‘जिनवाणी’’ या ‘‘जैनेंद्रवाणी’’ कहते हैं । भगवान की साक्षी पूर्वक परंपरा से जो श्रुत आया है उसे ‘‘भागवत’’ कहते हैं । आचार्य इस भागवत समयसार में निश्चय स्तुति का वर्णन कर रहे हैं—हे नाथ ! आप जितेंद्रिय हैं, क्योंकि आपने समस्त इंद्रियों व उनके विषयों को जीतकर अपने को ज्ञानमय अनुभव किया है । कितने ही लोगों का विश्वास है कि भगवान् महावीर से जैनधर्म चला है, लेकिन इसकी परंपरा बहुत पहिले से है । इनसे पहले पार्श्वनाथ हुए हैं जिनके प्रति कभी राधेश्याम का व्यपदेश किया होगा । राधा स्वात्मानुभूति का नाम है उस राधा सहित श्याम वर्ण वाले पार्श्वनाथ हुए । उनसे पहिले गोरखनाथ हुए । गोरखनाथ के नाम से प्रचलित हमारे 22 वें तीर्थकर नेमिनाथ हैं । क्योंकि गौ=दिव्यध्वनि, रख=रक्षा करने वाले दिव्यध्वनि की रक्षा करने वाले गणधर हैं । गणधरों के नाम नेमिनाथ हुए । शंकर=कल्याण को करने वाले; महादेव=पहले या सबसे बड़े भगवान्, ये आदि नाथ भगवान् । सोम=चंद्रनाथ=प्रभु सोमनाथ=चंद्रप्रभु 8 वें तीर्थंकर हुए । इन सब तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि ही ‘‘भागवत’’ कहलाया । इस प्रकार भागवत समयसार में 31 वीं गाथा में भगवान की निश्चयस्तुति की है कि जिन्होंने इंद्रियों को जीतकर अपने को ज्ञानमय अनुभव किया है ऐसे जिनेंद्र भगवान को मेरा बारंबार नमस्कार हो । भगवान का नाम चाहे जो रख लो, स्वरूप में अंतर नहीं आना चाहिए । स्वरूप के वर्णन से की गई यह भगवान की प्रथम निश्चय स्तुति है । आत्मा के पास कारण ज्ञान ही तो है । ज्ञान से ही तो इंद्रियों को जीतना और अपने को ज्ञानमय अनुभव करना—ऐसा भगवान को बताना कि आपने ऐसा किया है । फिर उस मार्ग के यत्न में अपने को ज्ञानमय अनुभव करने पर ही आत्मानुभव प्राप्त होगा । भैया विषयकषायों का ऊधम न मचाया जावे तो सब बात सरल है । क्य कठिनाई है आज सत्पथ पर चलने में । वीतराग महर्षियों के अनुभव शब्द ब्रह्म में प्रकट हो रहे हैं । खुद को भी उस रत्नमय मार्ग पर कुछ भी चलने से साक्षात् स्पष्ट होता जाता है कि यही मार्ग है जिससे परम शांति प्राप्त होती है । 849-आनंद गुण की तीन पर्यायें—सुख, दुख और आनंद । ये तीनों पर्याय एक साथ नहीं हो सकती दुःख होगा तो सुख नहीं हो सकता; सुख होगा दुःख नहीं हो सकता है । जो दुखी है, सो दु:खी ही है । जो सुखी है, वह सुखी ही है । जीव में जब तक कर्म का उदय है, तब तक दु:ख है, । कोई दुःख अपने जानने में आ जाता है, कोई दुःख जानने में नहीं आ पाता है । दुःख अबुद्धि पूर्वक भी होता है, कारण, अबुद्धिपूर्वक दुःख वाले जीव में स्वाभाविक सुख नहीं देखा जाता है; और अबुद्धि पूर्वक दुःख होने का आगम भी प्रमाण है । अत: अबुद्धिपूर्वक दुःख अवश्य है । विषय सुख स्वाभाविक आनंद नहीं है । धन वैभव में चैन मानना स्वाभाविक आनंद नहीं है । इंद्रियों के ज्ञान में जितने दोष हैं, उतने ही इंद्रिय सुख में भी दोष है । 850-कर्मफलों की दु:खरूपता—समस्त शास्त्र भगवान की परंपरा से चले आ रहे हैं, अतएव इनको ‘‘भागवत’’ कहते हैं । इस भागवत परमार्ग में बताया है कि समस्त कर्मों का फल दुःख है । एक इंद्रिय से पंचेंद्रिय तक कार्मणकाय वाले जीव दुःखी ही माने गये हैं । अरहंत में भी कामणिकाययोग होने के कारण इतना ऐब अवश्य है । लेकिन उनके गुणो में यह ऐब नहीं है । संसारी जीवों में सभी दुःखी है, एक भी सुखी नहीं है । सभी को कोई न कोई चिंता अवश्य लगी रहती है । जहाँ चिंता या इच्छा है, वहाँ दुःख ही दुःख है सुख का लेश नहीं । मोक्ष की इच्छा में भी दुःख ही है । सुख ज्ञाता-दृष्टा रहने में है । तुम शरीर को भी जानो, लेकिन जानमात्र लो—उससे भी आनंद प्राप्त हो सकता है । इच्छा करते हुये मोक्ष को भी जानोगे तो वास्तविक आनंद नहीं प्राप्त होना है । जीव में इतनी योग्यता है नहीं कि वह समस्त जड़ पदार्थों को जाने और उसके राग-द्वेष न हो पावे राग-द्वेष बाह्य पदार्थों के आश्रय से ही होते हैं । अत: आत्मा को जानो, बाह्य पदार्थों से चित्त हटा लो ऐसा उपदेश है और मुमुक्षु का ऐसा यत्न भी है । ज्ञाता-दृष्टा बने रहो, तभी वास्तविक आनंद प्राप्त हो सकता है । एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय तक सभी जीव दु:खी हैं । 851-घातिया कर्मों से स्वगुणघात—घातिया कर्मों के उदय से जीव के प्रदेशों में आघात पहुँचता है । प्रदेशों में आघात पहुंचने के कारण ही विकल्प उठते हैं । आत्मा में विकल्प कैसे हो जाते हैं, यह समझ में नहीं आता है । आत्मा के प्रदेशों में आघात पहुंचना ही विकल्पों का कारण है । प्रदेशों में आघात घातियाकर्मों के कारण पहुंचता है । विकल्पों का आत्मा में उठना ही आत्म हनन है । आत्मा में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह उत्पन्न हुआ, समझो, आत्मा की हत्या हो गई । संसार में अपना कोई मददगार नहीं है, जिनके पीछे कुभाव कर रहे हैं । हम क्रोध करते हैं तो अपना ही नुकसान है, हमारे क्रोध करने से दूसरे का क्या बिगड़ता है? कुछ नहीं । हे आत्मन् ! फिर तू पर को शत्रु या मित्र समझ करके क्यों कुभाव करता है । अपनी गलती से अपना ही नुकसान होता है । घातिया कर्मों के उदय से जीव में अनिच्छित दु:ख होता है । यदि कर्मों के उदय के दु:ख न माना जाये, केवल मानसिक या शारीरिक दुःख का ही दुःख माना जाये तो संज्ञी को ही दु:ख हो सकेगा असंज्ञी को नहीं । 852-दु:ख का मूल हेतु मिथ्यात्व:—शायद तुम कहो, असंज्ञी को कम दु:ख होता है, संज्ञी को अधिक दुःख होता है । परंतु ऐसा नहीं है । संज्ञी की अपेक्षा असंज्ञी को अधिक दु:ख होता है । यह बात भी नहीं कि बुद्धिपूर्वक दुःख बड़ा कहलाता हो और अबुद्धिपूर्वक दु:ख छोटा दु:ख हो । क्योंकि संज्ञी का असंज्ञी से ऊँचा पद है । अत: असंज्ञी को अधिक दुःख है । जिनके कर्म का उदय है उनको दु:ख है । यदि यह कहो कि असंज्ञियों के इंद्रियां होने से दु:ख है तो विग्रह गति करते समय तो उसके शरीर छूटने से इंद्रियां भी नहीं रहती है, उस समय वह सुखी कहलायेगा । लेकिन ऐसा नहीं होता है उस समय भी दुःख रहता है । अत: दुख का कारण कर्म का उदय ही है, इंद्रियां नहीं । यदि इंद्रियों को सुख दु:ख का कारण मानोगे तो विग्रह गति में जीव के सुख दु:ख का अभाव हो जायेगा इस प्रकार अव्याप्ति दोष आ जायेगा । विग्रहगति में यह शरीर नहीं है फिर भी दु:ख है । यह आत्मा ऐसा परिणमता रहता है कि जैसे इंद्रियों से जान रहा है । लेकिन वह इंद्रियों से नहीं जानता है, वह अपने ज्ञान से जानता है । यह सिद्ध है कि कर्म का उदय से ही दु:ख है । आत्मा के आनंद गुण में विकार होने से कर्मों का उपद्रव होता है । शरीर और इंद्रियाँ सुख दु:ख का कारण नहीं है । अरहंत भगवान के एक भी ध्यान नहीं है । क्योंकि 13 वें गुणस्थान में कोई ध्यान नहीं होता है । आठ वर्ष कम एक करोड़ पूर्व तक अरहंत अवस्था रह सकती है । 84 लाख वर्ष का एक पूर्वांग होता है 84 लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता है ऐसे एक करोड पूर्व की चतुर्थकाल में आयु हो सकती है विदेह में सर्वदा हो सकती है । जैसे 8 वर्ष की अवस्था में अरहंत बने तो आठ वर्ष कम एक कोटि पूर्व तक अरहंत रहे । द्रव्येंद्रियां तो वहाँ भी हैं किंतु दु:ख नहीं है । इसलिये दु:ख का कारण कर्म है । कर्म को जीतने का उपाय मोह को जीतना है । मोह के जीतने का उपाय कर्म को जीतना है । कर्म को जीतने का उपाय इंद्रियों को जीतना है । हे भगवन् ! आपने द्रव्येंद्रियों, भावेंद्रियों और उनके विषयों को जीतकर अपने को ज्ञानमय देखा यह भगवान की निश्चयस्तुति है । 853-जीव के साथ दो विकट दोष—(1) ज्ञेय-ज्ञायक शंकर और भाव्यभावक शंकर इन दो दोषों से जीव क्लिष्ट है । जो पदार्थ जानने में आवे और जिससे जाना, उनका मिला हुआ स्वाद लेना ज्ञेय-ज्ञायक-शंकर दोष है । इस दोष को करने वाला इन जड़ पदार्थों के सिवा अन्य को कुछ गिनता ही नहीं है । हे भगवन् ! आपने यह दोष ज्ञेय-ज्ञायक-शंकर दूर कर दिया है, अर्थात् आप दुनिया भर के समस्त पदार्थों को जानकर भी अपनी आत्मा की एकता में रमते हो । दुनिया वाले ज्ञेय ज्ञायक-शंकर दोष में पड़े हुए हैं पदार्थ को जानकर भी पदार्थ में ही उसका आनंद समझते हैं । जब तक द्रव्येंद्रियों भावेंद्रियों और उनके विषयों को न जाना जाये, तब तक यह दोष दूर नहीं हो सकता है ज्ञान इंद्रियों के निमित्त से हो रहा है, जिनके निमित्त से ज्ञान हो रहा है, उनको अपनी आत्मा से न्यारा समझ लेवे—उनकी ओर उपेक्षा कर देवे—इसी से इंद्रियों तथा उनके विषयों को जीता जा सकता है । इंद्रियों के जीतने का ही अर्थ है, ज्ञेयज्ञायक शंकर दोष को जीतना । हे भगवन् आपने इंद्रियों को और उनके विषयों को जीता और अपनी आत्मा की एकता में तन्मय रहे, अतएव आपको ज्ञानियों ने जितेंद्रिय कहा है । आप जितेंद्रिय हैं, इसीलिए ही भगवन् ! मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार भगवान की प्रथम निश्चय स्तुति समाप्त करके आचार्य दूसरी निश्चय स्तुति प्रारंभ करते हैं:—गाथा न0 32 में आचार्य भगवान की दूसरी निश्चय स्तुति इस प्रकार करते हैं । 854-प्रभु को जितमोह का स्तवन—जो मोह को जीत करके ज्ञानस्वभाव करि अधिक आत्मा को मानता है, परमार्थ के ज्ञायक पुरुष उसे जितमोह साधु कहते हैं । यह मोह मोहनीय कर्म के उदय को निमित्त पाकर प्रादुर्भूत हुआ सो मोह भाव तो भाव्य है और मोहनीय कम भावक है । मोहनीय कर्म निमित्त होने के रूप में फल दान में समर्थ है इसलिये इसे भावक कहते हैं । यह मोहनीय कर्म तो पर पदार्थ है । यह तो डुबाने वाला (निमित्त) है । वह तो अन्य स्वरूप से दूर ही है उसके उदयरूप संसर्ग में होने वाला मोह भाव भी औपाधिक है, आत्मस्वरूप नहीं अत: उसका व्यावर्तन हो जाता है । हे आत्मन् ! अनादि से मोहभाव का आदर किया उसे अपनाया परंतु, फल में क्लेश ही पाया । अब तो उसे पृथक् कर दो । अहो तत्त्वज्ञान की महिमा अद्भुत है । मोहभाव और कर्मोदय का संसर्ग दोष शंकर दोष तत्त्वज्ञान से ही टलता है । हे आत्मन् । मोह का वर्णन कर, देख अपना प्रताप, ज्ञायक स्वरूप का अनुभव कर । हे नाथ ! आपका भाव्य-भावक शंकर दोष भी समाप्त हो गया है अतएव आप ‘‘जितमोह’’ कहलाते हो । जो मोह को जीतकर ज्ञानस्वभाव से अधिक आत्मा को मानता है—आत्मा को ज्ञानमय देखता है, उन सिद्ध प्रभु को ज्ञानी ‘‘जितमोह’’ कहते हैं । मालूम पड़ता है कि आचार्य कुंद-कुंद वृद्ध पद्धति के और श्री अमृतचंद्रजी सूरि जवान पद्धति के क्योंकि आचार्य श्रीमत्कुंदकुंद न तो एक बात को संक्षेप में कहकर समाप्त कर देते, परंतु सूरिजी ने पूर्व की भांति एक-एक बात को विशिष्ट रूपये से प्रकाशित किया है । यदि सूरिजी गाथाकार की कही हुई बातों पर यह भाष्य न लिखते तो गाथाएं समझनी कठिन हो जाती । देखो श्री अमृतचंद्रजी भगवान की दूसरी निश्चय स्तुति इस प्रकार स्पष्ट कर सकते है:—भाव्यभावक दोष है, अतएव जीव ने मोह को पकड़ रक्खा है । यदि भाव्य-भावक-शंकर दोष खत्म हो जाये तो मोह ही न हो । जिसको निमित्त पाकर राग-द्वेष मोह आदि उत्पन्न होते हैं, उसे (भावक) कहते हैं । राग-द्वेष आदि की भाव्य करते हैं । जो भाव्यभावक को मिला हुआ देखे याने अश्क के अनुसार भाव्य होने में उपयोग करे उसे भाव्यभावक शंकर दोष कहते हैं । राग-द्वेष आदि होते हुए को प्रेरणा करते हैं, अत: भावक है । कर्म के उदय होने के कारण आत्मा में राग-द्वेष आदि होते हैं । जिस समय आत्मा में राग-द्वेष आदि होते हैं, उससमय आत्मा उनमें कुछ चिपटतासा है—इसे भाव्य भावक संकर दोष कहते हैं । कर्म के उदय से होने वाले राग-द्वेष को अपनाया भाज्य भावक शंकर दोष है । यदि यह जीव राग-द्वेष को न अपनावे तो मोह दूर हो सकता है । इतने यह रागादि को अपनाता रहेगा इतने मोह दूर होना असंभव है । उदाहरणत:—पुत्र में राग करना उतना बुरा नही, जितना कि पुत्र के राग से राग करना बुरा है । पुत्र के राग को ही बांधकर रह गये, अपना समझ लिया यही बुरा है । पुत्र का राग ज्ञेयज्ञायक शंकर और पुत्र के राग का राग भाव्य भावक संकर दोष है । मोह तब तक दूर नहीं हो सकता जब तक अपनी दृष्टि में राग-द्वेष दूर नहीं होंगे अत पहले अपनी दृष्टि से राग-द्वेष को दूर करो धर्म कभी भी इच्छा पूर्वक करने से नहीं होता । बस करते जाओ, इच्छा न हो करो हो गया धर्म । घंटा फोड़ने से या जोर-जोर से चिल्लाने से धर्म नहीं होता है । धर्म तो वही सरल चीज है । धर्म होने में कोई कष्ट नहीं होता है । बीमारी में, गरीबी में या अशक्तता में भी धर्म हो सकता है । राग-द्वेष भिन्न अपने को जो अनुभव करे, उसे जितमोह कहते हैं, यही तो धर्म कहलाया फल देने में जो समर्थ रूप से उत्पन्न होता है, वह कर्म भावक बन रहा है । कर्म के उदय में आने से रागद्वेषादि अवश्य होते हैं । ऐसे भावक के श्री अमृतचंद्र जी सूरि कहते हैं कि भावक राग-द्वेष आदि है और भाव्य दीन दु:खी आत्मा अथवा भावक मोह है और भाव्य मोह परिणत आत्मा । नचाने वाले को भावक और नाचने वाले को, तदनुरूप प्रवृत्ति करने वाले को भाव्य कहते हैं पहले इसे यह मोह है, नचाने वाला दूर करो । मोह को राग-द्वेष आदि के अनुकूल परिणामों से आत्मा को जुदा कर दो । इससे मोह का तिरस्कार हो जायेगा । 855-मोह की इज्जत बिगाड़ दो, मोह मिट जायगा—मोह एक बहुत बड़ा बात वाला राजा है । उस की सेना के प्रमुख सेनापति राग-द्वेष आदि है । मोह भी स्वाभिमानी है, वह भी अपनी इज्जत रखता है । यदि आप उसकी इज्जत बिगाड़ दो तो वह भग जायेगा । मोह की इज्जत बिगाड़ने का उपाय उसकी ओर उपेक्षा करके आत्मा की ओर दृष्टि लगाना है । जब मोह की एक बार भी इज्जत बिगड़ जाये अर्थात् उसकी ओर उपेक्षा हो जाये तो वह आत्मा में फिर कभी आने का नाम नहीं लेता है । जहाँ उसका सम्मान होता है वहाँ चला जाता है । राग-द्वेष आदि भाव आत्मा से जुदा हैं। मैं ज्ञानमात्र हूँ—राग-द्वेष कर्मों के उदय में प्रतिबिंब मात्र है—इस प्रकार से मोह को दूर कर भाव्य भावक संकर दोष को दूर कर सकते हैं । मन में जिस समय राग-द्वेष का ज्वार भाटा आता है, उस समय आत्मा में भी हलचल मच जाती है, भूकंपसा आ जाता है आत्मा ठहरता नहीं है । यदि आत्मा से राग-द्वेष को जुदा मान लिया तो आत्मा में चाहे राग-द्वेष उठते भी रहें तो आत्मा धीरता धारण करेगा । क्योंकि आत्मा से राग-द्वेष को दूर भगाने के कारण भाव्य-भावक शंकर दोष दूर हो गया है । भाव्य भावक संकर के दूर होने पर आत्मा निज में अनुभव करता है कि मैं ज्ञान मात्र हूँ, मैं ज्ञान स्वभाव करि विशिष्ट हूँ । वह ज्ञान सारे विश्व के पदार्थों को जानकर भी समस्त विश्व पर तैर रहा है । जैसे पानी के ऊपर जल की बूंद पड़ती है तो वह जल के ऊपर तैरती रहती है । भगवान का ज्ञान सारे विश्व के ऊपर तैर रहा है । पदार्थों को जानकर भी उनका ज्ञान पदार्थों से चिपटता नहीं है । हे नाथ! आपने अपने आपको उस ज्ञान करि विशिष्ट माना है । जो अपने को ज्ञानमय अनुभव करता है, उसका उपयोग ज्ञान से बाहर कहाँ जा सकता है? ज्ञान तो सबके पास है ।उसकी उपयोगिता उसके जानने में है कि ज्ञान हमारी आत्मा में है । यदि उसको जीव पहिचानता है वहतो तब भी ज्ञान है, नहीं पहिचानता है तो भी ज्ञान ही बना रहेगा । जैसे किसी के साफे में ‘‘लाल’’ बाँध दिया जाये । यदि साफे वाले को उसका पता चल जाता है, वह तब भी लाल ही कहलायेगा, पता न चले, तब भी ‘लाल’ ही रहेगा । इसी प्रकार आनंद गुण भी सबमें है । उस अतींद्रिय सुख को जानते हो तब भी वह आत्मा में ही रहेगा, न जानो तब भी आत्मा में ही रहेगा । भगवान में वह अतींद्रिय सुख प्रकट है, अपने में नहीं । 856-ज्ञान व आनंद का विकास इंद्रिय व शरीर से नहीं—शंका—भगवान् के जब इंद्रियाँ और शरीर नहीं है तो भगवान् के अतींद्रिय कैसे ज्ञान हो सकता है? समाधान:—तुम्हारा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि जिनके देह और इंद्रियाँ नहीं हैं उनके भी ज्ञान होता है, ऐसा सिद्ध हो जाता है । जिसके देह और इंद्रियाँ हैं, वह जानता है कि देह है तो सुख है, देह नहीं है तो सुख नहीं है । जैसे—ग्वालों के पास गाय-भैंस हैं तो वह जानता है कि सर्वत्र घी-दूध की वर्षा हो रही है । यदि उसके पास गाए भैंस नहीं है तो नहीं है तो वह कहेगा कि क्या बात है दूध-घी तो दुनियां से उठ ही गया, दूध-घी के तो लोगों को दर्शन तक भी नहीं होते हैं । इसी प्रकार यह देहधारी मोही संसारी प्राणी मानता है कि देह और इंद्रियों के बिना भगवान के ज्ञान कैसे हो सकता है? उसको यह पता नहीं कि आत्मा ज्ञानमय है, इंद्रियां तो ज्ञान का कारण मात्र है । संसारी के विषय में ‘‘उपानद्गूवत्तयदृश्यते भूश्चर्मण:’’ वाली कहावत चरितार्थ होती है । अब सिद्ध करते हैं कि अतींद्रिय ज्ञान भी हो सकता है । 857-ज्ञान व आनंद आत्मा का ही धर्म—इंद्रियों के निमित्त से जो सुख का ज्ञान होता है उसे लौकिक सुख व ज्ञान कहते हैं । इंद्रियों के निमित्त बिना जो सुख (आनंद) होता है, उसे शुद्ध सुख कहते हैं । इंद्रियों के निमित्त बिना होने वाले ज्ञान को शुद्ध ज्ञान कहते हैं । वह शुद्धज्ञान अपन लोगो में भी हो सकता है । जैसे—हम खाना पीना खाकर दुपहर के समय अपने विचार में डूबे बैठे हो इंद्रियों के निमित्त से उस समय कोई सुख न हो रहा हो, इंद्रियाँ आराम कर रही हों यदि उस समय कोई हम से आकर पूछे कि मजे में तो हो न? तो हम तुरंत उत्तर देंगे कि हाँ भाई आनंद में हैं । वही जैसा मानो शुद्ध ज्ञान कहलाता है, लेकिन वह शुद्ध ज्ञान एक देश है, पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है । अतएव जब एक देश आनंद अपन लोगो के हैं, तो जो मुक्त या सिद्ध हो गये हैं, जिनका इंद्रिय और शरीर से पूर्णतया संबंध छूट गया है, उनके यदि पूर्ण ज्ञान का सुख हो जाये तो आश्चर्य ही क्या है? इसी को और स्पष्ट करते हैं—जैसे कोई आदमी मकान के भीतर है । उस मकान के अंदर 5 दरवाजे है, तो वह उन दरवाजों से बाहर के पदार्था को देख सकता है यदि वे दरवाजे बंद कर दिये जायें तो बाहर के पदार्थों को नहीं देख पायेगा । लेकिन ऐसा नहीं है कि वह दरवाजों से ही देख पाये वैसे न देख पाये, वह अपनी ताकत से देखता है, दरवाजों से नहीं देखता है । दरवाजे बंद करके आप मकान की भीतो को फोड़ डालिये तो क्या आप फिर भी बाह्य पदार्थों को नहीं देख पायेंगे ? अर्थात् अवश्य देख लेंगे और पहले की अपेक्षा अधिक पदार्थों को देख सकेंगे अर्थात् जो पदार्थ भित्ति के आवरण ने थे, उनका भी ज्ञान हो सकेगा । उसी प्रकार इस कमरे रूपी शरीर में एक मनुष्यरूपी आत्मा बंद है । उसमें 5 दरवाजों रूपी पाँच इंद्रियां है । वह मनुष्य इन पाच इंद्रियों से पदार्थों का यथाशक्ति ज्ञान कर लेता है । लेकिन जब वह शरीर में आसक्त हो जाता है तो वह कुछ भी नहीं देख पाता है । परंतु आत्मा की जब गुह्य-शक्ति प्रकट होती है तब वह कमरे रूपी शरीर की भित्तियों को फोड़कर जिसमें पाँच दरवाजे रूपी इंद्रियाँ भी नष्ट हो जाती हैं, वह शुद्धज्ञान कर सकता है । इसी तरह जब भगवान के देह और इंद्रियां नहीं हैं तो वे यदि संसार के समस्त पदार्थों को एकसाथ जान लेते हैं तो आश्चर्य ही क्या? मकान रूपी शरीर की भीतों को फोड़ डालो तो सभी पदार्थ अपने आप समझ में आने लगेंगे । 858-भगवान आत्मा की ज्ञानानंदरूपता—भगवान के छूना, चखना, सूंघना, देखना और सुनना-इनमें से कोई भी क्रिया नहीं होती है । देह और इंद्रियाँ न होने पर भी भगवान के ज्ञान में सब-कुछ झलकता है । देह इंद्रियाँ न हों, न हों, उनके न होने से ज्ञान में कोई बाधा नहीं है । उल्टे देह-इंद्रियाँ ही ज्ञान में बाधक है । देह और इंद्रियाँ ही आत्मा को जानने नहीं देती है । हमारी आत्मा तो प्रभु है इसलिये कुछ विघ्न हो, प्रकाश रहता ही है । देह और इंद्रियों ने तो मानों आत्मा के साथ यह सलाह करके संपर्क किया था कि आत्मा के संपूर्ण ज्ञान को नष्ट कर देवे । लेकिन इस आत्म-प्रभु की ऐसी प्रभुता है कि देह और इंद्रियों के ज्ञान में बाधकता होने पर भी यह प्रभु ज्ञान कर लेता है । ज्ञान और आनंद अनादि अनंत हैं । देह और इंद्रियों के नष्ट हो जाने पर भी वह रहता ही है । क्योंकि ज्ञान द्रव्योपजीवी है । द्रव्योपजीवी होने से ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता है । देह और इंद्रियाँ नष्ट हो जाती हैं, परंतु ज्ञान और आनंद सदा ही बना रहता है । इससे सिद्ध होता है कि सिद्ध अवस्था में देह और इंद्रियों के बिना भी आनंद और ज्ञान रहते हैं । इंद्रियां और देह आत्मा के इन दो गुणों को नष्ट नहीं कर सकते हैं । 859-प्रभु में भाव्यभावकसंकरता का अभाव—हे नाथ ! आपने इस आत्मा को विकृत कर देने वाले भाव्य भावक संकर दोष को नष्ट किया है । शंका—पहले भगवान की स्तुति में ज्ञेयज्ञायक शंकर दोष को दूर किया बाद में भाव्यभावक संकर दोष को दूर किया है । लेकिन, भाव्यभावक संकर को पहिले दूर करना चाहिये था, ज्ञेय-ज्ञायक संकर को बाद में, क्योंकि भाव्यभावक संकर से दर्शन मोह आता है और ज्ञेय ज्ञायक संकर से चरित्र मोह आता है । अत: दर्शनमोह आत्मा से पहले हटाना है और चारित्रमोह बाद में । उसी क्रम से इन्हें दूर करना चाहिये था । समाधान:—भगवान ने पहले ज्ञेयज्ञायक संकर को दूर किया है, क्योंकि बिना सामान्य चरित्र के दर्शनमोह को दूर नहीं कर सकते हैं । अत: भगवान ने ज्ञेय ज्ञायक संकर को पहिले और भाव्य भावक संकर को बाद में दूर किया है । इसी क्रम से आचार्य ने भगवान की स्तुति की है । हे भगवन् ! आपने भाव्यभावक संकर दोष को जीत लिया है, अत: आप जितमोह हैं । आपने अपने को ज्ञान स्वभाव करि विशिष्ट माना है । अत: आपको बारंबार नमस्कार हो ।