वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 329
From जैनकोष
अहवा एसो जीवो पुग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं।।तम्हा पुग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो।।329।।
पुद्गल के भाव मिथ्यात्व की मान्यता में आपत्ति―जैसे कि आत्मा के विभाव होने में पुद्गल कर्म निमित्त होते हैं इस ही प्रकार पौद्गलिक कार्माण वर्गणावों में कर्मपना आने में जीव का विभाव निमित्त होता है। इस प्रसंग में अब जरा यह देखो कि मिथ्यात्व वास्तव में किसकी चीज है। मिथ्यात्व का अर्थ है मिथ्या परिणमन। विपरीत बात, विपरीत भाव, विपरीत भाव जीव में तो समझ में आता है कि जीव में मिथ्यात्व हो गया, पर यह कुछ बात ठीक साक्षात नहीं बैठती है कि कार्माण वर्गणावों में भी मिथ्यात्व आ गया, लेकिन कहा है कर्मों का नाम मिथ्यात्व। कर्मों का नाम मिथ्यात्व कैसे पड़ गया। कर्मों में क्या मिथ्यापन है ? अचेतन है, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है, और यह भी सही है कि जीव के मिथ्यात्व भाव का निमित्त पाकर पौद्गलिक कर्म बंध गया, एक क्षेत्रावगाह हो गया, जहां आत्मा जाता है उसके साथ यह भी जाता है। इतना तक भी ठीक है पर उसमें मिथ्यात्व क्या आ गया। अब देखो कि मिथ्यात्व जीव का भाव है और जीव के मिथ्यात्व भाव का निमित्त पाकर कर्म में कुछ ऐसी बात बनी है, ऐसा कर्म बंधा है कि जिस कर्म का भविष्य में उदय आने पर जीव को मिथ्यात्व का भाव बनेगा। तो जो जीव के मिथ्यात्व भाव का कार्य है (निमित्त दृष्टि से कहा जा रहा है) और जो आगामी काल में जीव के मिथ्यात्व भाव का कारण बनेगा उस कर्म का नाम भी मिथ्यात्व पड़ जाता है।
जीव भाव के मिथ्यापन की युक्तता―भैया ! अब ध्यान में आया होगा कि सही नाम तो जीव के परिणाम का नाम है मिथ्यात्व और संबंधवश पौद्गलिक कर्म प्रकृति का नाम मिथ्यात्व पड़ा। तो देखो ना कि जीव के पुद्गल द्रव्य का मिथ्यात्व किया है, ऐसी शिष्य के जिज्ञासा होने पर आचार्य देव कहते है कि यदि ऐसा मानेंगे कि यह जीव पुद्गल द्रव्य का मिथ्यात्व करता है तो पुद्गल द्रव्य मिथ्यादृष्टि हुआ, जीव मिथ्या दृष्टि नहीं हुआ। जीव ने पुद्गल का मिथ्यात्व किया तो पुद्गल ने पुद्गल का मिथ्यात्व किया तो मिथ्या कौन बना ? पुद्गल। तो जीव फिर मिथ्यादृष्टि न रहा, पुद्गल कर्म ही मिथ्यादृष्टि रहा, इस कारण आपके जो द्वितीय प्रश्न की उपस्थिति है यह भी सही नहीं बैठती। अचेतन कर्म प्रकृति जीव के मिथ्यात्व को करे तो चाहे आपत्ति यह आये कि जीव का करने वाला अचेतन बन गया, किंतु दूसरी जिज्ञासा में, यदि ऐसा माना जाय कि जीव पुद्गल कर्म को मिथ्यात्व को करता है तो इसमें पुद्गल मिथ्यादृष्टि बन गया। अब जीव नहीं रहा। इन दोनों पद्धतियों को सुनकर के जिज्ञासु फिर तीसरी बात रखता है और फिर आचार्यदेव उसका समाधान करते हैं।