वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 330
From जैनकोष
अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं।तम्हा दोहि कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं।।330।।
भाव मिथ्यात्व की उभयकृतता मानने पर आपत्ति―जीव और प्रकृति ये दोनों पुद्गल के मिथ्यात्व को करते हैं, यदि ऐसा मानते हो तो दोनों के द्वारा किया गया जो कार्य है उसका फल उन दोनों को भोगना पड़ेगा, अर्थात् मिथ्यात्व को जीव भी भोगे और कर्म भी भोगें। एक बात कुछ ऐसी प्रसिद्ध है कि प्रकृति तो कर्म का कर्ता होता है और पुरूष कर्म के फल का भोक्ता है, इसमें एक दृष्टांत आता है कि जीव स्वयं कर्म को करने वाला नहीं हैं उसमें पर उपाधि निमित्त अवश्य होती हैं, जो पर उपाधि निमित्त है वह कर्ता हुआ-जीव के राग द्वेषादिक भावों का, पर रागद्वेषादिक भावों का भोक्ता कौन है ? यह समझाने के लिए अपरिणामी सिद्धांत में प्रसिद्ध बात है कि प्रकृति कर्ता है और पुरूष भोक्ता है। उनके सिद्धांत में रहस्य क्या बना हुआ है कि राग द्वेषादिक का करने वाला आत्मा कतई नहीं है क्योंकि वह चैतन्य स्वरूप है।
ज्ञान रहित चैतन्य की कल्पना―सांख्यों ने आत्मा को चैतन्य स्वरूप यों माना कि समझ लीजिए जड़वत है, वह चैतन्यमात्र है, वह जानता नहीं है, देखता नहीं है, जानना और देखना प्रकृति का धर्म है। सांख्य सिद्धांत में बताया है कि प्रकृति का धर्म जानन है, ज्ञान है, जीव का धर्म ज्ञान नहीं है। जीव का स्वरूप तो चैतन्य है। अब जरा इसमें कुछ प्रश्नोत्तर करके देखो कि वह चेतन क्या है, जो न जानता है न देखता है फिर भी चेतता है ? तो उत्तर में यह बताया है कि जब बुद्धि का संयोग होता है चैतन्य में तब अज्ञान था ज्ञान परिणमन होता है और बुद्धि का संयोग मिट जाय तो ज्ञान परिणमन भी मिट गया और इसी का नाम मोक्ष है। जब तक जीव में ज्ञान हैं तब तक यह संसार में है और जब ज्ञान नहीं रहा तब यह जीव मुक्त हो जाता है।
ज्ञान रहित चैतन्य की मान्यता से शिक्षा की ओर झुकाव का यत्न―इस सांख्य सिद्धांत में रहस्य की बात क्या मिली ? कि ज्ञान उसे माना गया है जो पर को पकड़कर दंद फंद में पड़े। वह ज्ञान क्षायोपशमिक है। इस ज्ञान का बुद्धि से संबंध है। उस ही ज्ञान का नाम बुद्धि है, यह ज्ञान जब तक रहता है तब तक मुक्ति नहीं होती है। ऐसी यह बात तो ठीक है किंतु चेतन में जो स्वपर प्रकाशिता है जो इस प्रकार के अभेद रूप हैं कि जिसका बाह्य रूपक कुछ बताया नहीं जा सकता फिर भी स्वपरग्राहिता है केवल शान के विषय में लोग यों बोलते हैं कि उन्होंने जो मकान जो दूकान जो फूफा, बहनोई, साले, स्वसुर जहां जैसे देखे वैसा होता है सो भैया !वहां लेप लपेट आदि नहीं है। अरे ! केवल ज्ञानी का ज्ञान कितना साधारण स्वरूप होता है कि जहां विकल्पों का अवकाश नहीं। केवल का ज्ञान है। जैसा उनका ज्ञान है उस ज्ञान के जरिये से यहां संसारी जीवों का कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, परंतु है उनका निर्मल ज्ञान। समस्त त्रिलोक त्रिकाल का ज्ञान है, ऐसा ज्ञान स्वरूप चैतन्य का स्वभाव ही है, इस ओर दृष्टि नहीं देते पर ज्ञान को मोटे रूप से देखने पर यह बात ठीक बैठती है कि जब तक ज्ञान है तब तक संसार है, ज्ञान नहीं रहा तो संसार मिट गया, पर मोक्ष होने पर भी ज्ञान इतना साधारण व्यापक रूप से रहता है कि इसे बहुत सूक्ष्म दृष्टि करने पर ज्ञान में आता है।
ज्ञान की सूक्ष्मता और व्यापकता―भैया ! ज्ञान बहुत पतली चीज है क्योंकि वह व्यापक है पतली चीज में मोटी चीज समाया करती है। मोटे में पतली चीज समा सकती है क्यों ? नहीं ! पतली में मोटी चीज समा जाती है। सुनने में आपको कुछ बिगड़ा सा लग रहा होगा। जो मोटा है उसमें पतला आ ही जायगा। पर पतले में मोटा कैसे आयगा ? सुनो अच्छा, कैसे पतले में मोटा आता है। देखो यह जमीन मोटी है और पानी पतला है, तो पानी के बीच में जमीन है या जमीन के बीच में पानी है ? पानी के बीच में जमीन है। पूछ लो भूगोल वालों से। पूछ लो उमास्वामी से स्वयंभूरमण समुद्र से। इतना सब कुछ घेर लिया कि सारा समुद्र और सारी जमीन का जितना विस्तार है उससे भी अधिक विस्तार अंतिम समुद्र का है। तो पतली में मोटी चीज आयी। बतलाओ पानी पतली चीज है या हवा ? हवा पतली है। उस हवा में सब पानी भी समा गया। अच्छा हवा पतली है कि आकाश ? आकाश तो आकाश में सब हवा भी समा गयी। फिर भी वह आकाश बड़ा है। अच्छा आकाश पतला है कि ज्ञान ? ज्ञान पतला है तो इस ज्ञान में यह सारा आकाश समा गया फिर भी ज्ञान की यह मांग है कि ऐसे ऐसे अनगिनते आकाश हों तो हमारी भूख मिटेगी। जानने की नहीं तो हम भूखे ही हैं वह सारा आकाश ज्ञान के एक कोने में पड़ा है।
रागादि भाव की उभय कृतता का अभाव―भैया ! ऐसा ज्ञान ही जब न ध्यान में रहा तो प्रकृति का धर्म ज्ञान बताया जाता है। जब ज्ञान भी प्रकृतिधर्म हुआ तो रागादिक को तो प्रकृति धर्म कहना ही चाहिए। तो इस मिथ्यात्वादि भाव को जीव और प्रकृति दोनों मिलकर करते हैं, तो फिर इस मिथ्यात्व का भोक्ता जीव और प्रकृति दोनों को होना चाहिए। पर है क्या ऐसा ? जैसे जीव परेशान है इसी तरह से क्या कर्म प्रकृति भी भ्रमी है, परेशान है ? नहीं। वह तो अचेतन है, कुछ भी दशा बन जाय उससे उसका क्या बिगाड़। तो यह भी बात ठीक नहीं बैठती कि जीव और प्रकृति दोनों मिलकर पुद्गल के मिथ्यात्व को कर दें। इसके बाद चौथी बात रखेंगे।