वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 32
From जैनकोष
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं ।
तं जितमोहं साहुं परमट्टवियाणया विंति ।। 32 ।।
860-प्रभु की जितमोहता के वर्णन में निश्चयस्तुति—भगवान की निश्चयस्तुति चल रही है । भगवान जितमोह हैं याने मोह को जीत चुके हैं । मोह होता कैसे है, किसमें होता है, इन सब बातों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता कि मोहनीय नामक एक द्रव्यकर्म है, उसका उदय होने पर आत्मा में मोह नाम की परिणति होती है, वह मोह परिणति आत्मा की परिणति है, पर होती है कर्मों के उदय के निमित्त से । मोहनीय नाम का कर्म उदय में आता है उस समय आत्मा में मोहभाव प्रकट होता है तो उस मोह में होता क्या है? अज्ञान और मिथ्याभाव । मोह नाम है बेहोशी का आत्मा को अपना होश न रहे, मैं आत्मा देह से निराला ज्ञानमात्र वास्तविक परमार्थ पदार्थ हूँ, इसकी सुध न रहे जिस भाव में, न इसकी प्रतीति के योग्य रहे उसे कहते हैं मोह और, अज्ञान, ज्ञान न रहे, निज पर का भेद न रहे, मैं क्या हूँ और ये परपदार्थ क्या हैं, कुछ भेद नहीं जँचता जिस भाव में उसका नाम है अज्ञान । और मिथ्याभाव का अर्थ है कि जो अपने से भिन्न पदार्थ हैं उनसे संपर्क मानना ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ, यही मेरा सर्वस्व है, इस प्रकार का जो पर में परिणाम बने उसे कहते हैं मिथ्याभाव । तो यह मोह भाव इसी जीव को बड़ा दु:खी किए हुए है । अनादि से लेकर अब तक जिस-जिस पर्याय में चला गया वहीं इसने मोह किया, एकेंद्रिय हुआ, तो जो शरीर मिला उसी में रम रहा । उसके अभी नहीं है ज्ञान ज्यादह, केवल स्पर्शन इंद्रिय है, उसके द्वारा जितना ज्ञान हो सकता सो है ही, पर मोह बराबर है । कीड़ा पतिंगा हुआ तो वहाँ भी मोह रखता है, इन कीड़ा मकोड़ों में मोह कुछ-कुछ समझ में आता है, इनके शरीर को छेड़ा जाय तो व्याकुल होकर भय करते हैं और भागने की कोशिश करते हैं, इन पशु पक्षियों का मोह भी स्पष्ट समझ में आ रहा है, कैसे अपने बच्चों से कितनी प्रीति करते हैं, आहार आदि से भी कितना मोह रखते हैं । तो मोह में जिस भव में गया उस ही भव में परेशानी सही । आज मनुष्य पर्याय मिली है तो इस मनुष्य को अपना तो कुछ दिखता नहीं, बाहर ही बाहर इसे सब कुछ दिख रहा है, समझ में आ रहा है कि यह मेरा मकान, यह मेरा कुटुंब, ये मेरे मित्र, यह मेरी इज्जत । ये लोग इज्जत करने वाले हैं, यह सब कुछ इसे बहुत दिख रहा है, पर स्वयं क्या है यह इसे पता नहीं है । मोह से सारी दुनिया परेशान है, इस मोह से लाभ मिलता कुछ नहीं है आखिर बिछोह सबका होता है । इस जीव में मोह ऐसा बसा है कि बाह्य पदार्थों का तो बड़ा महत्त्व आंकता है पर खुद का कुछ भी महत्त्व समझ में नहीं आ रहा । धर्म भी लोग करते हैं तो बस परिपाटी के अनुसार कर लिया, यद्यपि वह अन्य लोगों से अच्छा है, मंद कषाय है, प्रभु का नाम जपते हैं पर धर्म के प्रसंग में ऐसा चिंतन चलना चाहिये कि यह प्रतीति में आये कि मैं तो यह ज्ञानमात्र सबसे निराला हूँ, इसका यहाँ दुनिया में क्या रखा है, इस तरह के भावों सहित धर्मसाधन नहीं हो पा रहा है । तो ऐसा मोह जिसके वश में बड़े-बड़े बलवान जंतु भी पड़ गए हों । उस मोह को हे प्रभु आपने जीत लिया । एक कवि ने कहा है एक अलंकार रूप में कि कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी ॐ हूँ प्रतापी प्रिये । ॐ हूँ तर्हिविमुंचकातरमते शौर्यावत्नेयक्रिया । मोहोऽनेन विर्निर्जित: प्रभुरसौ तत्किंकरा: के वय । इत्येवं रतिकामकल्पबिषयो वीर: प्रभु: पातु न: ।। कामदेव और उसकी स्त्री रति देवी वे दोनों वन में विहार कर रहे थे । कामदेव और रति देवी ये कोई अलग नहीं होते, किंतु पुरुष में जो कामवासना रहती है उसका नाम रख लिया कामदेव और स्त्री में कामवासना रहती है उसका नाम रख लिया रति देवी । तो कामभाव और रति भाव इन दोनों को देवी देवता समझ लो व्यवहार रूढ़ि में । तो उन दोनों को वन में विहार करते हुए में श्री तीर्थंकर देव (जिनेंद्र देव) ध्यानस्थ दिखे । उन्हें देखकर स्त्री कहती है नाथ ! यह कौन हैं? तो कामदेव कहता है यह जिनेंद्र देव हैं । रति पूछती है—यह तुम्हारे वश में हैं या नहीं? तो काम कहता है—नहीं, यह मेरे वश में नहीं हैं, केवल इनको छोड़कर बाकी सब मेरे वश में है । ये मेरे वश में नहीं क्योंकि इन्होंने मोह को जीत लिया है । हम तो अब इनके किंकर हो गए जब मोह ही इनके नहीं रहा तो हम इनका क्या कर सकते है? तो रति बोली—यदि तुम्हारे वश में यह नहीं हैं तो फिर अपनी बहादुरी की डींग मारना छोड़ दो । तो जिनके बारे में कामदेव और रति इस तरह वार्ता करते जाते हैं उस जिनेंद्र देव को मेरा नमस्कार हो । 861-प्रभु का मोह की जितमोहता का विधान—ये प्रभु जितमोह हैं, इन्होंने मोह को जीत लिया । कैसे जीत लिया? इन्होंने अपने स्वभाव में दृढ़ श्रद्धा की, उपयोग लगाया और उस ही में रम गये तो यह मोह, ये सब भाव समाप्त हो गए । यह आत्मा केवल ज्ञानधन है । ज्ञानरूप से ज्ञान ही ज्ञानभाव इसमें पाया जाता है । आत्मा में क्या चीज पायी जाती है । जैसे लोग कह दिया करते हैं कि इस पदार्थ में रूप है, रस है गंध है आदिक, पर यह जरा बतलाओ तो सही कि आत्मा में क्या-क्या चीज है । आत्मा में रूप नहीं । रूप होता तो आत्मा जानने का काम कर ही न सकता था । आत्मा में रस गंध आदिक है नहीं । अगर ये मूर्त तत्त्व आत्मा में होते तो यह आत्मा जानने का काम कर ही न सकता था । तब क्या है आत्मा में? सिर्फ ज्ञान-ज्ञान है । ज्ञानमात्र यह आत्मा है, ऐसी दृष्टि रखने से चूँकि ज्ञान में ज्ञानभाव हो रहा, और कुछ बात न रही, तो उसे शांति होती है और कर्म कट जाते हैं, धर्म पालन के लिए हम आपको और ज्यादह क्या करना है? भक्ति करके, पूजा करके इस प्रकार से ध्यान चिंतन से यह भाव मन में लाना हैं कि मैं ज्ञानमात्र हूँ और ज्ञानस्वरूप को ज्ञान में लेकर एतावन्मात्र मैं हूँ ऐसा अनुभव करना है, यही है वास्तविक धर्मपालन तो हे प्रभो ! आपने यही किया अपने को ज्ञानमात्र समझ ज्ञानमात्र अनुभव किया, इसके प्रताप से मोह दूर हुआ । इन पदार्थों से मुझमें अधिक बात क्या है? ज्ञान । ज्ञान सहित मैं भी हूँ, पर भी है द्रव्य । पर तो पर ही है, मैं मैं हूँ । ये सब चीजें अपने आप में ही परिणमती हैं, दूसरे में नहीं परिणमती । परिणमने की प्रकृति इनमें है मुझमें भी है । ये सब परपदार्थं भी अपने-अपने प्रदेश में रहते हैं मैं भी अपनी जगह रहता हूँ । ये सब पदार्थ जैसे ज्ञान में आ जाया करते हैं यों ही मैं भी ज्ञान में आ जाता हूँ । हाँ इन सबसे मुझ में कोई विशेष है तो ज्ञान है । ज्ञानमात्र अपने आपको अनुभव करने से मोह तो रहता नहीं । लोग सुख के लिए बहुत बड़ा परिश्रम करते हैं, मुझे शांति प्राप्त हो । अरे शांति तो प्राप्त होती है निर्मोह होने से । अपने आप में इसका अंदाज तो लगाओ, परख तो करो कि हम मोह में कितना पड़े हैं । और मोह से दूर कितना हैं । लोग तो नफा टोटे की बात, शांति अशांति की बात जैसे बाहरी विभूतियों को निरखकर उनमें हिसाब लिखा करते हैं कि यह इतना घट गया, यह इतना बढ़ गया, यह सुधर गया, पर जरा अपने आप में भी तो हिसाब देखो कि मुझ में मोहभाव है तो मैं बिगड़ गया, मोह भाव न रहा तो मैं सुधर गया । शांति तो निर्मोहता से मिलेगी, उस पर अपना ध्यान पहुंचना चाहिये । तो ये प्रभु केवल ज्ञानमात्र अपने आपका संचेतन कर रहे हैं । ये जितमोह हैं, यह है भगवान की परमार्थ स्तुति । परम आत्मा की बात में जो-जो कुछ विकास है, जो-जो स्वभाव है, जो उनके गुण का स्वभाव की सत्व की महिमा है उसको बताना यह है निश्चय से प्रभु के स्तवन की बात । तो ये प्रभु मोह से रहित हैं, मोह से ही रहित हैं सो बात नहीं राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, शरीर, मन, वचन, काय, अन्य-अन्य सारे प्रसंग, तो कर्म साधन बाह्य का निमित्त बन जाना, ये सबकी सब बातें प्रभु आप में नहीं हैं । पंचेंद्रिय के विषयों का भाव ये आकांक्षायें भी हे प्रभो ! आप में नहीं हैं, आप ऐसे समस्त परभावों से निराले हैं यों स्तवन करना सो भगवान की परमार्थ से स्तुति है ।