वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 332
From जैनकोष
कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं।कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं।।332।।
ज्ञान और अज्ञान में कर्मकृतता का पक्ष―यह जीव कर्मों के द्वारा ही अज्ञानी किया जाता है, और कर्मों के ही द्वारा ज्ञानी किया जाता है, शंकाकार सब कह रहा है अपनी बात शुरू से अंत तक कह रहा है इस कथन में यह खूब ध्यान रखना। इस अज्ञान को कर्म करते हैं। ज्ञानावरण का उदय आया और वहां जीव अज्ञानी बन गया। ज्ञानावरण का क्षयोपशम हुआ कि लो ज्ञानी बन गया। तो हम तो यह समझते हैं कि कर्मों के ही द्वारा जीव अज्ञानी किया जाता और ज्ञानी किया जाता।
भाग्य से ज्ञान की प्राप्ति की लोक प्रसिद्धि―जैसे कोई लोग कहने लगते हैं कि भाग्य में लिखा है तो मोक्ष मिल जायगा हां अरे भाग्य में बढ़ने से मोक्ष मिलता है कि भाग्य के फूटने से मोक्ष मिलता है ? भाग्य फूटें तो भगवान बनता है, और जब तक भाग्य है तब तक संसार में रहता है। भाग्य माने कर्म। तो यह प्रशंसा है मगर किसी से कहा जाय कि तेरा भाग्य फूट जाय तो यह तो उसका हित चाहा जा रहा है। लेकिन सुनकर लोग उसे गाली मानते हैं। कुछ खराब हो गया उसका तो कहते हैं भाग्य फूट गया। अरे फूटना क्या आसान बात है कि जिसका भाग्य फूटा उसके तीन लोक के इंद्र चरणों में झुकते हैं। लोग अज्ञान में कहते हैं कि भाग्य में बदा होगा तो मोक्ष मिल जायगा। भाग्य से ही ज्ञान मिलता है अब तो ऐसा कहने वाले हैं। यदि भाग्य है तो ज्ञान है। भाग्य से मिलता है ज्ञान। यह विदित नहीं है कि भाग्य के क्षय होने से ज्ञान मिलता है।
ज्ञान अज्ञान की कर्मकृतता का पक्षोपसंहार―ज्ञानावरण कर्म के उदय होने पर जीव अज्ञानी बनता है। देखा है कहीं कि ज्ञानावरण नामक कर्मों का उदय नहीं हो और जीव अज्ञानी बन जाय ऐसी कहीं परिस्थिति देखी हैं और ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम न हो और जीव यहां ज्ञानी बन जाय ऐसी कहां परिस्थिति देखी है, इसलिए हम जानते हैं कि कर्म ही जीव को ज्ञानी बनाते हैं और कर्म ही जीव को अज्ञानी बनाते हैं।
निद्रा व जागरण की कर्म कृतता का पक्ष―कर्म ही जीव को सुलाता है, कर्म ही जीव को जगाता है। यहां सुलाने कौन आयगा ? बच्चे को यदि उसकी मां ने थपथपा दिया तो उसे नींद आ जाती है। तो क्या मां ने सुला दिया या उस बच्चे का छोटा भाई पकड़कर झकझोर दे तो क्या छोटे भाई ने उसे जगा दिया निद्रा नामक दर्शनावरण कर्म का उदय हुआ तो यह जीव सो जाता है तीव्र उदय से या उदीरणा से। निद्रा का उदय सदा रहता है। पर निद्रा सदा कौन लिया करता है ? जब निद्रा का तीव्र उदय या उदीरणा हो तो निद्रा आती है। तो देखो प्रकृति ने ही सुलाया ना। तो निद्रा नामक दर्शनावरण का उदय बिना जीव सोता नहीं और निद्रा दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम के बिना जीव जगता नहीं है इसलिए सुलाने वाली भी कर्म प्रकृति है और जगाने वाली भी कर्म प्रकृति है। यह सब शंकाकार कह रहा है।
वस्तु के स्वपरिणाममयता के कथन का विज्ञान विस्तार―सिद्धांत क्या है भैया ! सुलाना किसका नाम है, सुलाना यदि एक बेहोशी का नाम हो, निंद्रा का नाम हो तो ऐसी बेखबर परिणति कर्म की नहीं हो रही है, वह जीव की हो रही है, जितना पदार्थ है उतने में ही परिणमन तको। निमित्त पाकर यद्यपि विभाव होते हैं, निमित्त पाए बिना नहीं होते फिर भी जरा द्रव्य के स्वरूपास्तित्व को तो निरखो। पदार्थ का कोई भी परिणमन कोई किसी अन्य पदार्थ से नहीं आता। सर्व विशुद्ध अधिकार में सबसे पहिले ही यह बात बता दी कि गई प्रत्येक द्रव्य अपने ही परिणामों से तन्मय रहा करता है। अब इस एक ही बात में अर्थ निकालने लग जावें। जब प्रत्येक पदार्थ अपने परिणामों से तन्मय है तो दूसरा क्या करने वाला है दूसरे का। और दूसरा दूसरे का क्या भोग सकता है। दूसरा किसी दूसरे का अधिकारी कैसे है? सर्व विकल्पों से रहित केवल एक द्रव्य ही दिखता है।
शंकाकार ही अपनी शंका का पोषण करता जा रहा है इन सब परिणमनों में जीव का कुछ नहीं है। जीव तो बेचारा चैतन्य स्वरूप है और जितनी भी यहां खटपट होती है ये सब कर्मों के द्वारा की हुई हैं, और भी यह एक प्रश्न कर रहा है।