वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 331
From जैनकोष
अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं।तम्हा पुग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा।।
विभाव की किसी के द्वारा कृतता न मानने पर आपत्ति―प्रकृति को जीव का मिथ्यात्व करना मानने में दोष बताया है। जीव को पुद्गल का मिथ्यात्व करना मानने में दोष बताया है और दोनों मिलकर पुद्गल द्रव्य के मिथ्यात्व को करें इसमें भी दोष बताया है और तब चौथी बात यह कही जा रही है कि न तो प्रकृति और न जीव पुद्गल द्रव्य को भाव मिथ्यात्व रूप करता है तो पुद्गल का अब मिथ्यात्व रूप परिणमन मानना क्या असत्य नहीं हुआ ? क्या बात निकली अब तक ?
प्रथमपक्ष―कोई कहते हैं कि जीव ही अब तक मिथ्यात्व आदिक भाव कर्म का कर्ता है क्योंकि उसको अचेतन प्रकृति का कार्य मानने पर उसमें अचेतनता आ जायगी। याने जीव में जो मिथ्यात्व परिणाम होता है उसका कर्ता जीव है। सो विभाव को जीवकृत मानने पर विभाव शाश्वत बन बैठेगा। अज्ञान अवस्था तक यह तो है सिद्धांत की बात, अब इसके विपरीत में कोई बात सोची जा रही है।
द्वितीयपक्ष―जीव में होने वाले मिथ्यात्व को यदि प्रकृति का कार्य माना जाय तो कारण सदृश कार्य होता है, इस नियम के अनुसार मिथ्यात्व भाव में अचेतनता आ जायगी, अर्थात् वह चिदाभास न रहकर कोरा अचेतन का परिणमन होगा और यदि हो गया अचेतन का परिणमन तो अचेतन क्लेश पाये तो पाये। जीव की फिर क्या अटकी कि वह अपने हित का उद्यम करे।
तृतीय पक्ष―तीसरी बात यह है कि जीव अपने ही मिथ्यात्व भाव का कर्ता है। पुद्गल में मिथ्यात्व परिणाम कर दे ऐसा नहीं है। कोई द्रव्य किसी भी द्रव्य का परिणमन कर दे अर्थात् उस रूप परिणम जाय यह त्रिकाल नहीं होता। जीव ही अपने मिथ्यात्व परिणाम का कर्ता होता है। यदि यह जीव पुद्गल द्रव्य में मिथ्यात्व भाव कर दे तो या तो पुद्गल जीव बन जायगा या पुद्गल चेतन बन जायगा।
चतुर्थ पक्ष―चौथी बात यह है कि जीव और प्रकृति मिथ्यात्व आदिक भाव कर्म के ये दोनों ही कर्ता हो जायें। तो जीव की तरह अचेतन प्रकृति को भी फल भोगने का प्रसंग हो जायगा।
पंचम पक्ष―और भैया ! ऐसा भी नहीं कह सकते कि जीव और प्रकृति दोनों के दोनों मिथ्यात्व आदि के भाव कर्म के कर्ता नहीं है अन्यथा स्वभाव से ही द्रव्य में मिथ्यात्व परिणाम आ जायगा। देखो किसी विभाव परिणाम में निमित्त भूत पर उपाधि न मानी जाय तो विभाव स्वभाव से हो गया। विभाव स्वभाव परिणमन हो गया ऐसी उसमें आपत्ति आ गई। इस कारण यह ही सिद्ध होता है कि जीव कर्ता है और जीव का कर्म है कार्य है यह बात सिद्ध होती।
स्याद्वाद द्वारा निर्णय―भैया ! मिथ्यात्व भाव जो आया वह कार्य है ना। कार्य उसे कहते हैं कि पहले तो न था और अब हो गया ऐसा जो जो कुछ भी हो वह सब कार्य कहलाता है, तो मिथ्याभाव आना यह कार्य है, इसलिए यह कर्म बिना किए हुए चूंकि हैं नहीं और इस बात में भी किसी एक बात पर दृढ़ता से नहीं रह सकते कि किसने किया। जीव ने भी नहीं किया कर्म ने भी नहीं किया। दोनों ने भी नहीं किया। और दोनों ने नहीं किया सो भी नहीं है। यह क्या निर्णय है। तत्व ज्ञानी पुरूष का ऐसा ही विलास है ऐसी ही लीला है कि चारों की चारों बातें वहां सिद्ध होती हैं।
कृति के प्रसंग में बालक का दृष्टांत―एक बालक है इस बालक को मां ने पैदा किया क्या ? नहीं। बाप ने पैदा किया क्या ? नहीं। और दोनों ने किया क्या ? नहीं। तो क्या दोनों ने नहीं किया ? तो और बात है क्या ? बड़ी कठिन बात है। मां ने केवल पैदा नहीं किया। समझ में आ गया। बाप ने केवल पैदा नहीं किया। समझ में आ गया। अच्छा यह भी समझ में आ गया कि चूंकि पुत्र पृथक द्रव्य है सो मां बाप दोनों ने मिलकर उस पृथक भूत अन्य द्रव्य को उत्पन्न नहीं किया। अच्छा यह भी ठीक जच रहा है। और दोनों ने नहीं किया ऐसा भी नहीं है क्योंकि आखिर वह एक कार्य ही तो है। तब फिर क्या है ? तो यह विवरण बहुत बड़े लंबे चौड़े वर्णन के साथ बताया जायगा। इसी तरह रागादिक को जीव ने नहीं किया क्योंकि केवल जीव करे तो जीव का स्वभाव बन जायगा। और फिर कभी छूट न सकेगा। कर्मों ने भी नहीं किया। क्योंकि कर्म पृथक भूत वस्तु हैं, वे जीव का परिणमन नहीं करते और जीव कर्म दोनों ने मिलकर नहीं किया, क्योंकि यदि इस मिथ्यात्व रागादिक भावों को जीव कर्म दोनों मिलकर करते हैं, उसका फल दोनों को भोगना चाहिए। केवल जीव ही क्यों भोगे। और दोनों ने नहीं किया यह भी बात नहीं है क्योंकि वह कार्य है स्वत: नहीं किया गया है, तब फिर बात क्या है अंतिम ?
विभाव के कर्तृत्व के संबंध में निर्णय―भैया ! इसका निर्णय यह है कि जीव का मिथ्यात्व जीव का कर्म है और वह जीव से अन्वयरूप है। जीव में अनुगत जीव में ही उद्गत नहीं होते। तब यह सिद्ध हुआ कि अज्ञान अवस्था में पुद्गल का निमित्त मात्र पाकर जीव रागादिक का कर्ता होता है। जो लोग जीव के रागादिक भावों को करने वाले कर्म ही समझते हैं, आत्मा के कर्तृत्व का घात करते हैं उन्होंने इस आगम वाक्य का कुछ भी ख्याल नहीं किया कि कथंचित् यह आत्मा ही रागादिक का कर्ता है। उन्होंने आगम के विरूद्ध निरूपण किया।
प्रकृत जिज्ञासा का मूल मर्म―चीज कहां से उठ रहीं है ? सांख्य सिद्धांत सर्व जालों को प्रकृति के द्वारा किया हुआ मानता है। बात कुछ फपती सी भी है, रागादिक को कर्मों ने किया, क्योंकि जीव ही करे तो स्वभाव बन जाय। पर भोगने वाला कर्म नहीं है, जीव ही भोगने वाला है। ऐसा सांख्य सिद्धांत को लेकर यह चर्चा चल रही है, तो फिर इस आत्मा ने किया क्या ? और जो कुछ नहीं करता, कुछ नहीं परिणमता वह सत् ही नहीं है। है क्या विश्व में कोई ऐसा पदार्थ कि जो है और परिणमे बिल्कुल नहीं ? ऐसा कोई पदार्थ नहीं है। क्या खरगोश के किसी ने सींग देखा है ? नहीं होते हैं न। तो जो नहीं है वे क्या परिणमेंगे और जो हैं वे परिणमे बिना नहीं रहेंगे।
परिणमन का आधार―भैया ! बच्चे लोग दवाई बताया करते हैं कि धुवां की छाल और बादल की कोंपल ले आओ उन्हें गधे की सींग से रगड़ कर उसे पीलो तुम्हारी तबीयत अच्छी हो जायगी। तो भाई धुवां की छाल कहां मिलती है ? बादल की कोंपल लखो कोई ढूंढ़ के। और गधे का सींग भी किसी ने देखा है क्या ? तो असत् पदार्थ का न परिणमन है और न उसका उपयोग है। जो परिणमन शून्य है वह असत् है। जो सत् है वह कभी परिणमन शून्य नहीं हो सकता। एक परिणमन के दो द्रव्यकर्ता नहीं होते हैं। एक द्रव्य दो द्रव्यों का परिणमन नहीं कर सकता। अपने को करे और पराये को भी करे। कोई किसी का कुछ कर दे क्या हर्ज है, वैसे ही आज सहयोग का जमाना है यदि कोई किसी का कुछ कर दे तो कोई एक ही रहेगा, कौन न रहेगा। सब नष्ट हो जावेंगे। इस कारण यह वस्तुगत् नियम है कि एक स्वयं ही परिणमेगा। उसे कोई दूसरा नहीं परिणमाता।
विभाव परिणमन की पद्धति―विभाव रूप परिणमने वाले तत्त्व में ऐसी ही योग्यता है कि वह अन्य उपाधि का निमित्त पाकर अपने विभाव रूप परिणम जाता है। पर इस विभाव परिणमन का निमित्त ने कुछ नहीं किया। उसका यहां अत्यंताभाव है। वह अपना बाहर ही रहा किंतु हो जाता है यों परिणमन। देखो इन सब श्रोतावों का निमित्त पाकर हम बोल रहे हैं। पर इनका कुछ भी द्रव्य, गुण, पर्याय मुझमें नहीं आया और जो मेरी चेष्टा है यह है एक असर। यह असर भी आपका नहीं है, किंतु ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक संबंध का मेल है कि आपका निमित्त पाकर हम चेष्टा कर रहे हैं। अपना असर अपने में हम खुद उत्पन्न कर रहे हैं। अथवा मेरे इस प्रवर्तन का निमित्त पाकर आप सब सुनने रूप परिणमन कर रहे हैं। यहां भी हम आपमें स्वयं भी नहीं गए। अपनी ही जगह आप अपने ही स्थान में हैं, पर ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक संबंध का मेल है कि किया कराया किसी ने किसी का कुछ नहीं हैं।
सत् के परिणमन की अवश्यंभाविता―यहां जिज्ञासु श्रमण अपना यह पक्ष रख रहा है कि रागादिक को करने वाली कर्म प्रकृति है। तो उनको समाधान रहे हैं कि यदि कर्म प्रकृति ने राग किया तो आत्मा ने क्या किया ? और आत्मा ने यदि कुछ न किया तो जो कुछ भी नहीं परिणम सकता वह पदार्थ ही नहीं है। सिद्ध भगवान भी निरंतर परिणम रहे हैं। हम आपका ज्ञान तो अंतर्मुहूर्त में किसी विषय को ग्रहण करता है पर सिद्ध का ज्ञान एक एक समय में समस्त पदार्थों को ग्रहण करता रहता है। इतनी तेजी से परिणमने वाले सिद्ध हैं। अपने लोग तो कछुवा की चाल की तरह परिणम रहे हैं, याने किसी पदार्थ के जानने का उपयोग बनाने में अंतर्मुहूर्त का समय लगता है फिर भी वहां वस्तु का भले प्रकार परिज्ञान नहीं, सो भी ऐसे एक अंतर्मुहूर्त में जिसमें अनेक अंतर्मुहूर्त समाये हुए हैं, किंतु सिद्ध भगवान का ज्ञान एक एक समय में पूर्ण-पूर्ण जानता है।
स्याद्वाद का परिचय―भैया ! जो न परिणमे वह सद्भूत ही नहीं रह सकता। तुम यह क्या कह रहे हो, प्रकृति ही करता है। ऐसे प्रकृतिवादियों के मोही मलिन बुद्धियों के बोध कराने के लिए उनकी शुद्धि करने के लिए अब वस्तुस्थिति बतायी गयी जिस वस्तुस्थिति का कलन स्याद्वाद के नियम द्वारा हुआ है। स्याद्वाद का अर्थ है अपेक्षावाद। इस अपेक्षा से ऐसा है इस अपेक्षा से ऐसा है। एक बात आज लोगों मैं प्रसिद्ध है कि स्याद्वाद का चिन्ह ‘भी’ को कहते हैं, ऐसा भी है, ऐसा भी है, पर यह बात सही नहीं है स्याद्वाद का चिन्ह ‘ही’ है यदि हम आपके बच्चे के बाबत कह दें कि यह अमुकचंद का बेटा भी है और बाप भी है तो क्या आप सुनना पसंद करेंगे। न पसंद करेंगे। ‘भी ’ चिन्ह नहीं है, स्याद्वाद का चिन्ह ‘ही’ है। यह अमुकचंद का बेटा ही है। अपेक्षा लगाकर बात बताने में ‘ही’ का प्रयोग करना चाहिए। अपेक्षा बताकर बात बताने के बाद भी का प्रयोग करेंगे तो उसमें विवाद उठ खड़ा हो जायगा। शास्त्रों में भी जितने कथन हैं स्याद्वाद विषयक सब जगह ही का प्रयोग है, भी का प्रयोग शास्त्रों में स्याद्वाद बताते हुए कहीं नहीं किया गया । यह आज की प्रणाली में समझाने में आ रहा है।
स्याद्वाद की निश्चायकता―भैया ! जहां स्याद्वाद के भंग बताए हैं वहां यही तो कहते हैं कि जीव: स्यात् नित्य: एव। ग्रंथों में खूब देख लो―जीव: स्यात् अनित्य: एव जीव:स्यात् अवक्तव्य:एव। आगे इसमें एव लगा हुआ है। भी लगाने की पद्धति कब से निकली। जब कि अपेक्षा तो मुख से न कहना। उसे तो अपने मन में रखे रहे और धर्म बतावे तब वहां भी फिट बैठने लगा, जैसा मन में समझलो जिसकी जो अपेक्षा है और कहें जीव नित्य भी है और जीव अनित्य भी है, अभी अपेक्षा लगा ली पर स्पष्ट वर्णन नहीं हुआ। कहना यह चाहिए कि जीव द्रव्य दृष्टि से नित्य ही है। जीव पर्याय दृष्टि से अनित्य ही है, इस तरह ही का प्रयोग करते हैं, बोलते हैं, यह निश्चायक शब्द है। धर्म पड़ा है बीच में और उसको कसने वाले शब्द हैं अगल बगल। जो धर्म नित्य बताते हैं तो एक ओर लगाते हैं स्यात् और एक ओर एव। स्यात् नित्य: एव।
अपेक्षा और निश्चय से धर्म की प्रसाधनता―भैया ! यह पहाड़ की कठिन चढ़ाई है। चढ़ाई करने में रेल में 2 इंजन लगते हैं, एक आगे और एक पीछे। यह दुर्गम है वस्तु स्वरूप का प्रवेश। दुर्गम है यह स्याद्वाद का सिद्धांत। गाड़ी यहां चढ़ाई जा रही है। इसमें दो इंजन लगा दिया। आगे स्यात् और पीछे एव। तब वह धर्म की गाड़ी सम्हल रही है।। अगर एक ही इंजन लगादें तो गाड़ी लुढ़क जायगी। एव न लगाने से संशय आ गया और स्यात् न लगाने से एकांत आ गया। यहीं घटाकर देख लो। एक बालक में जिसका नाम कुछ रख लो, मानों रमेश रख लिया है रमेश के बाप का नाम है अशोक। तो यह रमेश अशोक का लड़का ही है। ही लगावेंगे ना। कि भी लगावेंगे, कि यह अशोक का लड़का भी है? यह कितना अशोभनीय होगा। और अपेक्षा लगाते जावो तो चाहे बहुत सी बातें कहते जावो यह बालक अमुक का भांजा ही है, अमुक का भतीजा ही है। अपेक्षा लगाकर ही लगाना चाहिए तब स्याद्वाद का रूपक बनता है।
रागादिक की कृतिता पर स्याद्वाद का निर्णय―स्याद्वाद से जिसने विजय प्राप्त की है ऐसी वस्तुस्थिति अब दिखाई जा रही है कि वास्तव में बात क्या है? इस जीव के रागादिक भावों का कर्ता कौन है? जब भारी उसमें तर्कदृष्टि करके निहारते हैं तो ऐसा लगने लगता है कि ये राग भाव लावारिस हैं। इनका न जीव धनी हैं न कर्म धनी है, और हैं सो हैं। सो जैसे सड़क पर बीच में कोई बच्चा खेल रहा हो तो मोटर वाले कहते है कि तू घर का फालतू है क्या ? तू लावारिस है क्या ? तू मरने के लिए आया है क्या ? इसी तरह ये रागभाव फालतू हैं, लावारिस हैं, मरने के लिए पैदा हुए हैं अपनी धाक जमाने के लिए नहीं हुए। फिर भी उसको जब युक्तियों से सिद्ध करें, विज्ञान से देखें तो उसमें सब बातें समझनी पड़ेंगी ? उपादान क्या, निमित्त क्या ? कार्य कारण सब बातें जाननी पड़ती हैं, तब मर्म ज्ञात होता है।
त्रुटि की पहिचान की सावधानी―हम आपके राग भाव को देखकर यह सोचते हैं कि कैसी असावधानी और मूर्खता कर रहे हैं कि राग छोड़ा नहीं जाता। धरा क्या है। पर पर ही है, यह यह ही हैं। सो पर का फालतू जान लेना सरल हो रहा हैं और जो स्वयं पर बीत रही हैं सो स्वयं क्यों नहीं छोड़ देता, क्यों निर्विकल्प समाधि में नहीं आता। सो ऐसी बात औरों के लिए जल्दी समझ में आती है कि इसको इतना मोह करना न चाहिये, पर कर रहा है।
ऐसा ही अपने बारे में कुछ समझना चाहिए कि हम व्यर्थ का मोह कर रहे हैं, करना न चाहिए पर कर रहे है। त्रुटि भी यदि त्रुटि मालूम पड़ जाय तो यह भी एक ज्ञान है। और त्रुटि को सही मानते रहें तो यह भुलावा है भ्रम है, अज्ञान है। तो इन रागादिक भावों में निमित्त में प्रकृति है और त्रुटि जीव की है परिणति जीव की है। इस बात को आगे सिद्ध किया जायगा। परंतु पहिेले कुछ अपने मन में तैयारी तो कर लें कि हमें राग छोड़ना ही है इन्हें रखना नहीं है ऐसा मन में निर्णय किए बिना हम आगे चलेंगे कहां तो अब इसी बात को आगे कहेंगे।
परिणमन और परिणामी का संबंध―यह जीव शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से शुद्ध है अपरिणामी तो भी है पर्यायार्थिकनय से देखने पर यह कथंचित् परिणामी होने के कारण और अनादिकाल की परंपरा से चले आए हुए कर्मोंदय के बस से यह जीव रागादिक उपाधि परिणाम को ग्रहण करता है। जैसे कि स्फटिकमणी अपने स्वभाव से स्वच्छ है फिर भी उसमें स्वच्छत होने पर लगे हुए हरे पीले उपाधि के वश वह हरे पीले रंग को ग्रहण करता है। यदि यह जीव स्वयं कथंचित् परिणामी न हो और प्रकृति ही केवल जीव के रागादिक भावों का करनेवाला हो तो उसमें दोष आता है। एक तो यह कि जब आत्मा परिणामी नहीं हुआ तो आत्मा का अभाव हो जायगा। जो परिणमता नहीं है वह वस्तु ही नहीं है। दूसरा दोष यह है कि प्रकृति ने ही राग किया तो प्रकृति ही उसका फल भोगे। जीव का इसमें संबंध क्या।
विकार का आश्रय महाविकार―यदि यह कहा जाय कि रागादिक तो प्रकृति में ही होते हैं, प्रकृति का ही परिणमन है और यह जब भ्रम से उस परिणमन को अपना मान लेता है। तो वह भ्रम भी क्या प्रकृति का परिणमन है या जीव का परिणमन है ? यदि कहें कि भ्रम भी प्रकृति का परिणमन है तो भ्रमी भी प्रकृति को ही होना चाहिए और भ्रमी हो वही रागादिक को ग्रहण करे, और यदि कहे कि रागादिक तो प्रकृति के काम हैं और भ्रम होता है जीव में। तो जब रागादिक के पितामह भ्रम की मलिनता जीव में मान लें तो रागादिक की कहानी क्या । राग भाव तो छोटी मलिनता है, भ्रम बड़ी मलिनता है। यदि बड़ी मलिन भ्रम की बात जीव में माननी पड़े और रागादिक भाव न माने तो यह कहां का विवेक है।
परिणमन योग्य में ही परिणमन―भैया ! जिसमें योग्यता होती है उसमें ही परिणमन होता है। यह भींत खड़ी है, खंभे खड़े हैं। इनमें प्रतिबिंब की योग्यता नहीं है। यो काठ, पेड़ आदि प्रतिबिंब की योग्यता से रहित हैं, तो कितनी ही चीजें सामने पड़ी रहें इनमें प्रतिबिंब नहीं आता, इस प्रकार ये रागादिक जो झलकते हैं और होते हैं उनकी योग्यता जीव में है यह कथंचित् परिणामी है, उस प्रकार का परिणम सकता है इस कारण इसमें ही रागादिक होते हैं, प्रकृति में रागादिक नहीं होते हैं क्योंकि प्रकृति में रागादिक परिणमन की शक्ति का अभाव है, इस ही संबंध में अब इस शंका का विशेष वर्णन किया जा रहा है। शंकाकार कहता है कि हम तो यह देखते हैं कि कर्म का उदय हो तो रागादिक मिलते हैं, कर्मों का उदय न हो तो रागादिक कहीं नहीं मिलते। तो हम तो जानते हैं कि इस विभाव परिणाम का करने वाला कर्म ही है ऐसी शंकाकार की शंका है उसका वर्णन किया जा रहा है।