वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 385
From जैनकोष
जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडिय अणेयवित्थरविसेसं।
तं दोसं जो चेयइ सो खलु आलोयणं चेया।।385।।
आलोचना में भी प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान की तरह वही एक उद्यम▬ अनेक प्रकार का जिस का विस्तार विशेष है ऐसे उदय में आये हुए शुभ और अशुभ कर्मों को जो मनुष्य चेतता है अर्थात् यह मैं नहीं हूँ, मैं ज्ञान मात्र हूँ, इस प्रकार जो सावधान रहता है वह पुरुष आलोचनास्वरूप है। इस आलोचना के स्वरूप में भी वही एक बात आयी है कि पुद्गलकर्म के विपाक से उत्पन्न हुए सर्वभावों से अपने को न्यारा तकना सो आलोचना है।
तकने व देखने में अंतर▬ भैया ! तकने और देखने में कुछ फर्क है। देखा जाता है चौड़े-चौड़े और त का जाता है किसी आवरणमें। बच्चे लोग तक्का-तक्का खेलते हैं ना। भींत में कोई आरपार आला है उसमें से त का करते हैं। यह मोटे रूप में तकना और देखना एक ही बात है, मगर फर्क है। अगल बगल बहुत से आवारण रहते हुए भी पायी हुई सुविधा से किसी एक मार्ग द्वारा देखने का नाम तकना है, और इसलिए आरपार आले का नाम तक्का रखा है। इस भींत में एक भी तक्का नहीं है ऐसा कहते हैं ना। तो तकना तब होता है जहाँ देखना बहुत मश्किल हो। किसी मार्गद्वार से देखें तो उसे तकना कहते हैं।
निज में निज तक्का से निज को तक लेने की प्रसन्नता▬ यह ज्ञानी जीव अपने आप में निज स्वरूप को तक रहा है क्योंकि आवरण बहुत है, विषय कषायों की सारी भींत उठी हुई है। अपने आप में अनेक प्रकार के द्रव्य कर्मों के पुंज हैं। इस घिरे हुए स्थल में एक ज्ञान का तक्का मिल गया है जिस तक्के में दृष्टि देकर बहुत भीतर की बात देख रहे हैं। मैं इन कर्म विपाकों से उत्पन्न हुए भावों से विविक्त ज्ञान मात्र हूँ। जैसे तकने वाला थोड़ा जिस को तकने की कोशिश में है देख ले तो तक कर ही खूब हँसता है और खुश होता है, इसी तरह अपने महल में जिस को तकना है उसको तक कर यह अविरत सम्यग्दृष्टि बालक बड़ा प्रसन्न होता है। बालक भूल जाता है तो भीतर बैठी मां उसे कोई शब्द कहकर आकृष्ट करती है कि देखो मुझे हम कहाँ बैठी हैं? तो वह बालक उस तक्के से देखता है। तक लिया तो वहीं पैर मचलाकर खुश होता है। इसी तरह कभी-कभी भीतर से इस ज्ञानानुभूति मां की आवाज आती है तो यह सम्यगदृष्टि बालक अर्थात् जो चारित्र में स्थिर नहीं हुआ है ऐसा सम्यग्दृष्टि बालक ज्ञानानुभूति को तकने में फिर उद्यत होता है। इसके बाद तो फिर यह होता है कि मुझे कुछ काम करने को नहीं रहा। सो मुद्रा के साथ अपने सारे ख्यालों को भुलाकर प्रसन्न हो जाता है। यही है सम्यक् आलोचना, निश्चय आलोचना।
एक पुरुषार्थ में कार्यत्रितयता ▬जिसने वर्तमान विभाव से भिन्न निज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि कर के विभाव से निवृत्ति पा ली है उसने सर्व पूर्वकर्मों का प्रतिक्रमण कर ही लिया, क्योंकि पूर्वबद्ध कर्म निष्फल हो गए उसके, सो आप स्वयं प्रतिक्रमणस्वरूप है और इस ही जीव का उस वर्तमान विभाव से भिन्न अपने आप के मनन द्वारा भविष्यत् कर्मों को भी रोक दिया है क्योंकि वर्तमान विभावों का ही तो कार्यभूत भविष्यत् कर्म है। सो भविष्यत् कर्म के निरोध से यह जीव प्रत्याख्यानस्वरूप हो गया है। जो कर्म विपाक से आत्मा अत्यंत भेद के साथ देख रहे हैं, ऐसा आलोचनास्वरूप तो यह है ही। इस प्रकार यह जीव नित्य प्रतिक्रमण करता हुआ, प्रत्याख्यान करता हुआ और आलोचना करता हुआ पूर्वकर्मों के कार्यों से और उत्तरकर्मों के कारणों से यह निवृत्त हो गया है।
उपेक्षामृत ▬जैसे कहते हैं ना कि पचासों बाते कही, किंतु एक भी न सुनी तो रूठने वाला विवश हो गया। यह ज्ञानी जीव यत्न कर रहा है कि तुम कितना ही उदय में आवो, हम तो अपने ज्ञानस्वभाव के देखने में ही लगे हैं। तो वह भी विवश हो जाता है और इस सम्यग्ज्ञान, विवेक, आत्मबल से वे कर्म उदय क्षण से पहिले ही संक्रांत होकर खिर जाया करते हैं। इस प्रकार यह जीव प्रतिक्रमण करता हुआ प्रत्याख्यान करता हुआ और चूँकि वर्तमान विपाक से अपने स्वरूप को अत्यंत भेदरूप में देख रहा है, सो आलोचना स्वरूप होता हुआ यह पुरुष स्वयं चारित्र की मूर्ति है। चाहे प्रतिक्रमण आदिक कहो, चाहे ज्ञानस्वभाव में लगना कहो और चाहे चारित्र कहो, तीनों का एक ही प्रयोजन है।
ज्ञानचेतनामय परमवैभव ▬ भैया ! शांति का कारण चारित्र है, चारित्र ही धर्म है और धर्म समतापरिणाम ही है। जब मोह और क्षोभ का परिणाम नहीं रहता है तो उस जीव को धर्म कहते हैं, चारित्र कहते हैं। यह जीव रागादिक विभावों से मुक्त होकर और भूत, वर्तमान व भावी समस्त कर्मों से अपने को विविक्त देखकर ज्ञानचेतना का अनुभव कर रहा है। किन्हीं शब्दों से कहो, चीज एक ही है। ज्ञानी ज्ञानचेतना का अनुभव कर रहा है; ज्ञान, चारित्रस्वरूप हो रहा है। ज्ञानी प्रतिक्रमणमय है, प्रत्याख्यानमय है, आलोचनामय है। ज्ञानी ज्ञानस्वभाव में निरंतर विहार कर रहा है। यह सब ज्ञानी का ज्ञानत्व के नाते से सहज विलास है। यही ज्ञानी का उत्कृष्ट वैभव है, जिस में रत होकर शांत रहा करता है।
आलोचना के पुरुषार्थ में प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान की गर्भितता▬ज्ञानी जीव सम्यग्ज्ञान हो जाने के कारण अपने वर्तमान विभावों से पृथक् ज्ञानस्वभावी निज तत्त्व को चेतता रहता है। वह कार्य एक ही कर रहा है। पुद्गल कर्मोदयजनित भावों से पृथक् ज्ञानस्वभावी अंतस्तत्त्व को चेत रहा है। इस एक ही कर्म के करने में ये तीन बातें हो जाती है। यह ज्ञानी पूर्वकर्मों के कार्य से निवृत्त हो रहा है और भावी कर्मों के कारणों से निवृत्त हो रहा है और वर्तमान कर्मसे, कार्यों से विरक्त हो रहा है। ऐसे इस मोक्षमार्ग के गमन के प्रकरण में यह जीव एक धुनि से जि से मुक्ति कहते हैं उसकी और बढ़ रहा है। आलोचना ही प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का मूल साधन है। इस निश्चय प्रसंग में इस ज्ञानी ने आलोचना की है। इस निश्चय आलोचना के साथ निश्चय प्रतिक्रमण और निश्चय प्रत्याख्यान स्वयमेव हो जाते हैं।
व्यवहार आलोचना का स्थान - व्यवहार में व्यवहारप्रतिक्रमण कर लेना सरल है। हो गया कोई अपराध तो ले लो दंड। और वर्तमान में व्यवहारप्रत्याख्यान का भाव बन लेना भी सुगम है कि अब मैं ऐसा न करूँगा किंतु गुरु के समक्ष स्वयं की आलोचना करना व्यवहार में कठिन मालूम होता है। अपने दोष अपने मुख से कह दें कोई तो इस आलोचना से ही पापों की शुद्धि प्राय: हो जाती है। बिना आलोचना के प्रतिक्रमण लाभदायक नहीं है, बिना आलोचना के प्रत्याख्यान लाभदायक नहीं है। यह व्यवहार आलोचना की बात कही जा रही है। कितने ही दोष केवल आलोचना से दूर हो जाते हैं, प्रतिक्रमण और प्रायश्चित करने की आवश्यकता नहीं होती, कितने ही दोष आलोचना और प्रतिक्रमण से शुद्ध हो जाते हैं, किंतु आलोचना के बिना दोषों की शुद्धि नहीं मानी गयी है।
निश्चय आलोचना से ज्ञानीसंत वर्तमान कर्म विपाक से उत्पन्न हुए भावों से अपने आप को चेत जाने में लगा है। इसका ही अर्थ यह हो गया कि पूर्वकृत जो कर्म हैं उन को निष्फल बना दिया है। इसका ही अर्थ यह हो गया कि आगामी काल के कर्म बंधनों के क्षोभ अब उन से छूट गए। अन्य वस्तु का रंच भी विकल्प न हो, जरा भी लगाव न हो तो यह आलोचना सफलतापूर्वक बनती है।
आलोचना में महती सावधानी की आवश्यकता – जैसे व्यवहारआलोचना में बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। निर्दोष आलोचना बने तो आलोचना तप कहलाता है। इसके बेढ़ंगे दोष हैं। बहुत से आदमी बैठे हों, आचार्यदेव से अपने-अपने दोष की बातें कह रहे हों, होहल्ला मच रहा हो तो उस होहल्ला में जबान हिला देना कि महाराज हम से यह दोष बन गया है तो वहाँ आलोचना नहीं की किंतु एक दोष और मायाचार का लगा लिया। अपने किए हुए बहुत बड़े दोष को सूक्ष्मरूप से कह देना ताकि आचार्य जी यह जान जायें कि यह बड़े निर्मल हैं, देखो इसमें अपना सूक्ष्म भी दोष बता दिया। तो जैसे बहुत से लोगों को खूब सताए और सूक्ष्मरूप से गुरुवों से निवेदन करे कि महाराज आज हम से यह गलती हुई ऐसे सूक्ष्म आलोचना करना यह भी आलोचना का दोष है। अथवा सूक्ष्म दोष छिपा लिया और एक मोटी बात कह दी, यह बड़ा दोष है अथवा पहिले गुरु की खूब सेवा कर ले, पैर दाबे, मीठे वचन बोले, प्रशंसा कर दे और पीछे अपने दोष की बात कहे कि महाराज मामूली दंड देकर हमें निपटा देंगें। यह भी आलोचना का दोष है। तो अनेक प्रकार से आलोचना के दोष लगा करते हैं, तो व्यवहार में बड़ी सावधानी से व्यवहार आलोचना बनायी जाती है तो निश्चय में भी यह परमार्थ- आलोचना बड़ी सावधानी से ज्ञान स्वभाव की ओर एकाग्र चित्त होकर बनायी जा सकती है।
परमामृत-- यह परमार्थ प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और आलोचना अमृतकुंभ है। ज्ञानी इस अमृतरस से सींचकर इस ज्ञानमय आत्मा को आनंदमय कर देता है। इस परमार्थ सहज क्रिया में दोष ठहर नहीं पाता। प्रतिक्रमण में एक श्लोक बोला जाता है ‘मिच्छा मे दुक्कडं होज्ज।’ मेरे पाप मिथ्या हों। बहुत पढ़ते हैं कि जो कुछ मुझ से दोष लगे हों वे मेरे पाप मिथ्या हों । तो क्या ऐसा कह देने से पाप मिथ्या हो जायेंगे? नहीं होंगे। तो क्या करने से मिथ्या होंगे । अनशन करने से मिथ्या होंगे या और बड़े उत्कृष्ट क्रियाकांडों से ये पाप मिथ्या होंगे। ये सब वातावरण सहायक तो हैं उस के जिस प्राकृतिकता से पाप मिथ्या हुआ करते हैं, किंतु ये सीधे पाप को मिथ्या बनाने के साधन नहीं हैं।
बोधविकल्प में प्रतिकमण का दर्शन – जो जीव परमार्थ आलोचना करते हैं अर्थात्परिणमनों से पृथक् ज्ञानस्वभाव मात्र चैतन्य चमत्कार स्वरूप अपने आप के सहज स्वरूप को तकते हैं, इस अनुपम आनंदमय ज्ञानसागर के स्नान के पश्चात जब उसे कुछ ख्याल होता है पूर्वकृत कर्मों के अपराध का तो उसे आश्चर्य होता है कि ओह यह हो क्यों गया ?और यह न भी किए जाते पाप तो मेरी सत्ता में कोई अटक थी ही नहीं। कुछ इस ज्ञानस्वभावी अंतस्तत्त्व के प्रोग्राम की बात तो थी नहीं। अटपट अचानक यों ही बिढ़ंगा विभाव बन गया। अरे क्यों बन गया, न होता यह तो कुछ अटक न थी और वह यहाँ से होना भी न था, हो गया, किंतु इसके स्वरस में बात नहीं है। अरे वह न होने की तरह होवे। मैं तो अब न होने से पहले जिस स्वभाव दृष्टि में था उस ही रूप रहना चाहता हूँ, निर्दोष स्वच्छ आत्मस्वभाव के दर्शन के ग्रहण में यह सब पाप भस्म हो जाते हैं।
प्रभुपूजा से अपराधक्षय―आलोचना में प्रतिक्रमण सहज होता रहता है प्रत्याख्यान भी सहज बनता रहता है। पुरुषार्थ आलोचना का चल रहा है, पर यह पुरुषार्थ भी सहज क्रियारूप है। सहज कर्मकरेण विरोधया समयसार सुपुष्पसुमालया। यह आलोचना की जा रही है। यह सहज कर्मरूपी हाथ से बनाई हुई समयसार पुष्प की माला है। यह आलोचना है या प्रभु पूजा है? प्रभु पूजा है। जैसे व्यवहार में हत्या आदि अपराध बन जाये तो पंच लोग दंड देते हैं। इतने तीर्थों की वंदना करो, यह पूजा करो। तो प्रभु पूजा का कार्य भी दोषशुद्धि के लिये बताया जाता है। यह तो व्यावहारिक बड़े अपराध का दंड है जो पंचोंने मिलकर किया। बड़े अपराध का दंड पंचों से लिया जाता है और छोटा अपराध हो जाय तो खुद प्रभुपूजा का दंड लिया जाता है। रात दिन के 24 घंटों में कुछ कम समझिये जो पाप कर आते हैं उनका दंड लेने के लिये हम आप प्रभुपूजा करने आते हैं। यह दंड हम अपने आप लेते हैं। व्यवहार को बिगाड़ने वाला अपराध नहीं किया। इस कारण इन अपराधों को हम करते हैं सो रोज दंड लेते हैं। प्रभुपूजा अपराध का शोधक दंड है।
कारणप्रभु पूजा से गुप्तमहापराध का शोधन – और भैया ! यह जो गुप्त ही गुप्त अपराध बन रहा है जो परिणमन हो रहे हैं उन परिणमनों को हम अपना रहे हैं, उनमें ममता करते हैं, वहाँ इष्ट अनिष्ट का विकल्प बनाते हैं। इस अपराध के दंड में हम इसकारणसमयसार की पूजा करने आते हैं। समस्त परिणमनों से पृथक् निज ज्ञान स्वभाव की दृष्टी रोज करते हैं और अंतरंग में गद्गद् होकर इसी ही आत्मदेव की आराधना में रहते हैं, यही तो आलोचना है परमार्थ से और यही प्रभुपूजा है। अनेक प्रकार के फैलाव में फैले हुए शुभ और अशुभ प्रकार के उदयगत भावों को जो अपने से पृथक् निरखता है, यह दोष मैं नहीं हूँ। मैं एक ज्ञानस्वभावी अंतस्तत्त्व हूँ, इस प्रकार जो अपने आप को चेतता है वह पुरुष आलोचना स्वरूप है। यहाँ तक प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और आलोचना का स्वरूप कहा गया है। अब उस के फल में यह बतायेंगे कि इस प्रकार जो प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और आलोचना करता है उसका परिणाम क्या निकलता है ?