वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 386
From जैनकोष
णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वइ णिच्चं य पडिक्कमदि जो।
णिच्चं आलोचेयइ सो हु चरित्तं हवइ चेया ।।386।।
आत्मा की चारित्ररूपता – जो जीव नित्य ही प्रतिक्रमण करता है, प्रत्याख्यान करता है, और आलोचना करता है वह पुरुष चारित्रस्वरूप होता है। निरंतर प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना करना आवश्यक है क्योंकि प्रतिक्षण, हम अपराध किये जा रहे हैं। अपने आप के सहज स्वरूप में उपयोग न देना और परपदार्थों में अपना कुछ तत्त्व समझना, यह कितना बड़ा अपराध है? इस अपराध की माफी मिलना कठिन है। महान् अपराध बनेगा तो महान् पुरुषार्थ से ही यह अपराध माफ हो सकता है।
संसारमहावन के क्लेश―भैया !थोड़ा इष्ट समागम पाकर ठाठ बाट में काहे फूले-फूले फिर रहे हैं, यह संसार महवन है, इसमें भूले हुए प्राणी भूखे प्यासे रहकर अपने प्राण गंवा देंगे। यहाँ इस संसारवन में भी आशा का प्यासा रहकर और भोगों का भूखा रहकर अपने चैतन्य प्राण गँवाता रहता है। यह कितना महान् अपराध है?इन अपराधों से निवृत्ति निज प्रभु के प्रसाद की दृष्टि हुए बिना नहीं हो सकती है।
ज्ञानचेतना की किरणें – ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मतत्त्व का श्रद्धान और इस ही अंतस्तत्त्व का ज्ञान और इस ही अंतस्तत्त्व में रमण करना, इस निश्चयरत्नत्रयरूप परमसमाधि में ठहर कर के ही यह जीव परमार्थप्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना किया करता है। यह ही पुरुष अभेदनय से स्वयं ही निश्चय चारित्र स्वरूप है। चारित्र कि से कहते हैं?शुद्ध आत्मस्वरूप में चलना, इसका नाम चारित्र है। जि से शुद्ध आत्मस्वरूप की खबर नहीं है, दर्शन नहीं है और और जो बाह्य चारित्र ठीक पालते हुए में भी अहंकार रस से भरा हुआ है उसे चरित्र की समता कैसे कहा जा सकता है ?वह तो अपने व्यवहार में अंतर में असंयम बनाए हुए है। कहाँ है आत्मसंयम ?
पूज्य तत्त्वों की निर्दोषता – जैन सिद्धांत में देव, शास्त्र और गरु का निर्दोष स्थान बताया गया है। देव में एकभी दोष हो तो वह देव नहीं कहला सकता। शास्त्रों में एक भी जगह यदि आशय खोटा बताया हो तो सच्चे शास्त्र कैसे कहला सकते हैं ?गुरु में भी यदि किसी जगह चूक हो तो वे गुरु नहीं कहला सकते। देव और गुरु पंचपरमेष्ठी में शामिल किये गए हैं। हम अपना सिर जैसे हजारों रूपयों की भी समस्या खड़ी हो तो वहाँ भी नहीं झुकाना चाहते, अजी इन से अपनी माफी मांग लो तो तुम्हें 5 हजार दे दिए जायेंगे। तो कहते हैं कि वाह कैसे मांगलें माफी ?तो 5 हजार रुपये लेकर माफी मांगने को तैयार नहीं होते हैं। तो अपने इस मस्तक का कितना मूल्य रखते हैं ?हम कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु के सामने नारियल की तरह अपना मस्तक फोड़ दें तो यह कहाँ तक आत्मरक्षा की बात है ?साधु चारित्र की मूर्ति हैं, चारित्र से साधु की पूज्यता है, यह चारित्र की मूर्ति का प्रकरण चल रहा है। यह निश्चय दर्शन, ज्ञान, चारित्र बताया जा रहा है।
रत्नत्रय से पूज्यता---ॐ भैया ! साधुजन अपना उपयोग निरंतर प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना में बनाए रहते हैं। शुद्धआत्मस्वरूप की श्रद्धा और ज्ञान और उसमें ही रमण यही रत्नत्रय है और जो ऐसे रत्नत्रय से युक्त है उसका देह भी इतना पवित्र माना जाता है, कि आप के घर में कोई बिना नहाए धोये चौके के पास नहीं खा सकता है पर जो जिंदगीभर भी न नहाये बल्कि रत्नत्रययुक्त हो तो उस आत्मा का देह नहाए हुए से भी पवित्र माना जाता है। जो इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप आत्मदेव की दृष्टि किए हो वह है शुद्ध गुरु, शुद्ध मुनि। ऐसे संतों के पास बैठने मात्र से ही पाप ध्वस्त हो जाते हैं।
गुरु और उपासक का मेल – कहते हैं ना कि जैसा संग हो तैसा रंग बनता है। जिस भक्त को ज्ञानी संत के भीतर के जौहर का पता है उस भक्त को ही ज्ञानी संत के संग का अनूठा लाभ मिलता है। तो जैसे गरु का दर्जा बड़ा ऊँचा ज्ञानमय का है इसी प्रकार ज्ञानी गृहस्थ भी गुरु का सत्य उपासक कहला सकता है। वह चाहता क्या है? एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप का आलंबन। इस प्रकार जो चारित्रस्वरूप होते हैं वे निज के ज्ञानमात्र स्वरूप से चेतने से स्वयं ज्ञान चेतना होते हैं। साधु है ज्ञानचेतना की मूर्ति। जिसकी मुद्रा से ज्ञान टपकता है, जिस के बोलने में ज्ञान की महक आती है, जिस के उठने बैठने में ज्ञान के वातावरण का लोप न होता हो। ऐसा साधु चारित्र की मूर्ति है और स्वयं ज्ञानचेतनास्वरूप है। वैराग्य को तो ऐसे ज्ञानचेतक साधुसंत ही संभाल पाते हैं और इसकी जिन को उत्कंठा लगी है उन को कहते हैं उपासक श्रावक। वे भी अपनी योग्यतानुसार अपने ज्ञान और वैराग्य की संभाल करते हैं। अपनी संभाल किया तो सब कुछ पाया और अपने को भूले तो भटकना ही रहेगा, कहीं शरण नहीं मिलेगी।
जो ज्ञानी पुरुष परमार्थप्रतिक्रमण परमार्थप्रत्याख्यान और परमार्थ आलोचनारूप परिणमन करता है, वह और करता ही क्या है? अपने ज्ञानस्वभाव में निरंतर विहार करता है। जो ज्ञानस्वभाव में निरंतर गमन करता है उस ही का नाम तो चारित्रमूर्ति है। वह ही चारित्र है और चारित्ररूप होता हुआ वह संत अपने ज्ञानमात्र को चेत रहा है। इस कारण वह स्वयं ज्ञान चेतनारूप होता है। ज्ञानस्वरूप के चेतने के द्वारा ही नित्य अत्यंत शुद्ध ज्ञानप्रकाश प्रकट होता है। मैं ज्ञानमात्र हूँ, इस ज्ञानपरिणमन को ही करता हूँ और इस जानन को ही अनुभवता हूँ, मैं चैतन्यमात्र हूँ। अन्य तत्त्वको, अन्य पदार्थ को आत्मरूप से स्वीकार न कर के केवल जानन को ही निज ब्रह्मरूप से अनुभव करूँ तो मेरा ज्ञान अत्यंत शुद्ध प्रकट होता है ।
अज्ञानचेतना के प्रकार―जो अज्ञान का ही चेतना करने में मस्त हो, मैं अमुक जाति का हूँ, अमुक कुल का हूँ, मैं इतने परिवार वाला हूँ, मैं ऐसी पोजीशन का हूँ, मैं नेता हूँ आदि किसी भी प्रकार से ज्ञानातिरिक्त अन्य तत्त्वों की चेतना करे तो उस ज्ञान की चेतना के द्वारा दौड़कर आए हुए ये बंध और कर्मों के उदय ज्ञान शुद्धि को रोक देते हैं । दो ही तो काम किया करता है जीव। कोई अपने आप को ज्ञानमात्र चेतता है तो कोई अपने को अज्ञानस्वरूप चेतता है। बस ऐसे दो मूल कार्यों के फल में जीव के परिणमन विस्तार हो जाते हैं। अज्ञानी की चेतना दो तरह से होती है – एक तो ज्ञानातिरिक्त तत्त्व को कर्तृत्व बुद्धि से चेतना और दूसरे ज्ञानातिरिक्त तत्त्व को भोक्ता रूप से चेतना। इन दोनों व्यक्त चेतनों का मूलभूत है ज्ञानातिरिक्त तत्त्व को अपनाना। इस प्रकार चेतना तीन भागों में विभक्त हो गयी हैं- प्रथम तो अज्ञान को आत्मरूप चेतना, यह तो है दोनों चेतनावों का मूल और इस अज्ञान चेतना फल में कर्तृत्व और भोक्तृत्व की चेतना होती है, उनमें से अज्ञान चेतना का स्वरूप कहते हैं।