वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 387
From जैनकोष
वेदंवो कम्मफलं अप्पाणं कुणइ जो दु कम्मफलं।
सो तं पुणोवि बंधइ वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं।।387।।
अज्ञानचेतना – कर्मफल को वेदता हुआ यह जीव कर्मफल को आत्मरूप करता है, ऐसा अज्ञानी जीव फिर भी दुःखों के बीजभूत 8 प्रकार के कर्मों को बांधता है। कर्मफल कहलाता है वह जो जीव का विभाव है, जीव का परिणमन है। जो जीव अपने परिणमन को यह मैं हूं― इस प्रकार आत्मस्वरूप से चेतता है उसे कहते हैं अज्ञान का चेतने वाला। यह है इस जीव का मूल में अपराध। जिस अपराध के आधार पर अनेक अपराध बन जाते हैं और उनके फल में नाना कुयोनियों में जन्म मरण कर के दुःख उठाये जाते हैं। ज्ञान के अतिरिक्त अन्य भावों में यह मैं हूँ, ऐसा चेतने का नाम अज्ञान चेतना कहलाता है।
चेतने का असर―इस जीव पर चेतने का बड़ा असर पड़ता है, जिस रूप से यह चेत ले, उस रूप से यह अपनी प्रवृत्ति करता है। पब्लिक में है, प्रजाजन हैं, कोई अधिक विकल्प नहीं हैं। जहाँ अपने को राज्य के किसी अधिकारी के रूप में चेता तो उस तरह की कल्पनाएँ और प्रवृत्तियाँ होने लगती हैं। कोई लड़ की खूब घूमती फिरती है बेखट के अपनी कुमार अवस्था के कारण बेरोकटोक आनंदमग्न रहती है। जहाँ इस प्रकार से उसने चेत डाला कि वे हमारे स्वसुर होने वाले हैं, वे मेरे जेठ देवर होंगे, सगाई की बात आ गयी, बस लो इतना चेतने के आधार पर उसकी सारी कलाएँ बदल गयीं। अब धीरे से चलना, संभालकर चलना, स्वसुर जेठ जिन्हें बंदना से मान लिया है उन को देखकर खंभे किवाड़ की ओट में खड़े हो जाना, ये सारी कलाएँ बन गयीं। यह चेतने का ही तो असर है।
अपने आप के चेतने का अपने आपपर असर― पंडित ठाकुरदास जी बहुत बड़े विद्वान् थे। वे ब्राह्मण थे और जैन सिद्धांत के उच्च जानकार थे। सो इन की दूसरी शादी हुई, पहिली तो गुजर गई थी। दूसरी स्त्री से ऐसा अनुराग था कि मानो 400 रूपये मासिक की कमायी हो तो 200 रुपये स्त्री को दे देते। और स्त्री इतनी सज्जन थी कि वह सब रुपया गरीबोंको, दीन दुखियों को बाँट देती थी। यह सब पंडित जी देखते जाते थे कि देखो मैं तो देता हूँ जोड़ने के लिए, इसके ही काम के लिए कि मौज से रहे पर यह सारा का सारा धन परोपकार में लगा देती है। महिने के अंत में एक पैसा भी नहीं बचता था। सो दु:खी भी होते जायें और हर महीने उसे रुपये भी देते जायें। एक बार बड़ी कीमती तीन सौ रुपये की साड़ी खरीद कर लाये सो वह साड़ी दे दी। तो पंडितानीने क्या किया कि घर में जो कहारिन थी उसे बुलाया और साड़ी दे दी व कहारिन से बोली कि देख तू इसे पहनना नहीं, बाजार में बेच आना, भले ही 25 रुपये कम मिल जायें, पर बाजार में बेच आना व अपने काम में पैसा लगाना। जब वह साड़ी कहारिन को दे दी तो पंडित जी बोले कि हम तो तुम्हें कमायी का आधा पैसा सौंप देते हैं कि खूब जोड़ो ताकि मौज से रहो पर तुम कुछ नहीं रखती, सारा का सारा खर्च कर डालती हो। तो पंडितानी बोली कि हम कब कहते हैं कि तुम हमें पैसा दो। तुम्हीं को चैन नहीं पड़ती, अत्यंत मोह है तो पैसा देते हो और जब तुमने हमें पैसा दे दिया तो वह पैसा हमारा हो गया कि फिर भी तुम्हारा ही है ?हमें दे दिया तो हम कुछ भी करें। हमें तो जिस में मौज मालूम होता है वहीं काम करती हैं। बहुत घनिष्ठ प्रीति थी, सो कुछ वर्षों बाद वह स्त्री बोली कि पंडित जी इतनी तो आयु हो गयी और समाज में तुम बड़े कहलाते हो किंतु तुम ब्रह्मचर्य का नियम अब तक नहीं लेते। तो पंडित जी कुछ यहाँ वहाँ की बातें कहने लगे। तो उस स्त्रीने कुछ नहीं किया झट पंडित जी की गोद में बैठ गयी और कहा कि आज से तुम हमारे पिता और हम तुम्हारी बेटी। पंडित जी के चित्त में बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा जिस से पंडितजीने भी ब्रह्मचर्य का नियम ले लिया।
चेतने की पद्धति का परिणाम―भैया !अपने पर जो भी असर पड़ता है वह अपने चेतने का असर पड़ता है, दूसरे का असर नहीं पड़ता। कहीं शेर मिल जाय और अपन डर जायें तो वह डर रूप असर शेर से नहीं आया किंतु अपने चेतने का असर है। अरे एक महाहिंसक जानवर यह अभी खा लेगा, प्राण चले जायेंगे, इस प्रकार के विकल्पोंरूप में जो चेतता है वह चेतने का प्रभाव है। अज्ञानरूप चेते तो वह अशुद्ध हो जायेगा और ज्ञानरूप चेते तो ज्ञान का अत्यंत शुद्ध प्रकाश प्रकट हो जायेगा।
धर्ममार्ग में एक पद्धति से संचेतन―धर्मप्रगति का कोईसा भी प्रकरण लो बात एक ही कही जा रही है, वह क्या कि वर्तमान परिणमन से भी भिन्न ज्ञानस्वभावमात्र अपने आप को चेतना। जो पुरुष अपने को कर्मफल से पृथक् ज्ञानस्वभावमात्र नहीं चेत सकता है और इसके फल में उन कर्मफलों को अपनाता रहता है वह आठों प्रकार के कर्मों का बंधन करता है। ये कर्म बंधन दु:ख के बीज हैं, आगे फिर विभाव होंगे, और यह परंपरा जब तक चलेगी तब तक यह जीव दु:खी रहेगा। अब अपना-अपना अंदाज कर लो कि इस ज्ञानचेतना में तो कब रहते हैं और अज्ञानचेतना में कब रहते हैं। ज्ञानचेतना के होते समय सारे झगड़े बखेड़े समाप्त हो जाते हैं, वहाँ न इसका घर है, न कुटुंब है, न वैभव है, न अन्य कुछ पोजीशन आदिक है, यह तो एक अपने आप के ज्ञानस्वभाव के उपयोग में रत है। इस अज्ञानभाव को आत्मरूप से चेतने के फल में दो फंसा फूंटते हैं―एक कर्म चेतना का और कर्मफल चेतनाका।
चेतनात्रितयी की सर्व चेतनों में व्यापकता―कोई भी जीव इन तीन बातों से जुदा नहीं है चेतना, कर्म चेतना, कर्मफल चेतना। इस प्रकरण में तो अज्ञानचेतना का प्रकरण है और उस अज्ञान चेतना के आधार पर जो कर्मचेतना, कर्मफलचेतना बनती है वह भी अज्ञान रूप है। पर एक साधारणरूप से चेतने का मंतव्य लिया जाय तो सब जीवों में ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना पायी जाती है। ज्ञानचेतना नाम है ज्ञान को चेतना, सो मिथ्यादृष्टि भी ज्ञान को चेतता है और सम्यग्दृष्टि भी ज्ञान को चेतता है और प्रभु परमात्मा भी ज्ञान को चेतता है। अंतर इतना है कि मिथ्यादृष्टि ज्ञान को अज्ञानरूप में चेतता है और सम्यग्दृष्टि ज्ञान को ज्ञानरूप में चेतता है और प्रभु परमात्मा ज्ञान को ज्ञानरूप में परिणत करता हुआ चेतता है। पर ज्ञान से सभी चेत रहे हैं, कोई चेतन परपदार्थ का गुण नहीं चेत सकता।
सिद्ध प्रभु में चेतनात्रयी―इस साधारण ज्ञानचेतना के आशय में अब कर्मचेतना और कर्मफलचेतना को भी देखिए। कर्म नाम है किए जानेका, जो किया जाय उसको चेते इसका नाम है कर्मचेतना। भगवान भी कुछ करता है या नहीं ?यदि नहीं कुछ करता है तो अवस्तु हो जायेगी। कोई पदार्थ ऐसा नहीं है जो अपना परिणमन न करे। सिद्ध भगवान भी कर्म किया करते हैं, तो कर्म का नाम है परिणमन क्रिया। जो परिणमन करे सो कर्म। तो सिद्ध प्रभु ज्ञान को चेतते हैं और उस के साथ कर्म भी चल रहा है, परिणमन भी चल रहा है सो उसे भी चेतते हैं, सो कर्मचेतना हो गई और प्रभु अपना जो शुद्ध परिणमन रूप कर्म करते हैं उनका फल भी मिलता है या नहीं ?क्या फल मिलता है ?अनंत आनंद, तो उस अनंत आनंद को अनुभवते हैं या नहीं ?अनुभवते हैं। तो उन्होंने भी कर्मफल को चेता या नहीं चेता ?तो भगवान के भी ज्ञानचेतना, कर्मचेतना औरकर्मफलचेतना है। इन तीन चेतनावों से सूना तो कोई जीव नहीं है।
अशुद्धनिश्चयनय से चेतनात्रयी – अज्ञानीजन ज्ञान को अज्ञानरूप से चेतते हैं, इसलिये वृत्ति में अंतर समझने के लिये नाम बदल दें। मोही जीवों के अज्ञान चेतता है। चेतता वह भी ज्ञान को है। कहीं खंभेको, चौकी को इन को नहीं चेता करता है, अपने स्वरूप को ही चेत सकता है पर अपने स्वरूप को उसने विपरीत चेत डाला इसलिये वह अज्ञानचेतना है और अज्ञानी जीव भी कुछ करता है कि नहीं? करता है―रागद्वेष मोहादिक। सो ये सब हुए ज्ञानी के कर्म। इन कर्मों को भी चेतता है। सो अज्ञानी के कर्मचेतना हुई और अज्ञानी कर्मफल भी पाता है या नहीं? पाता है ?वह क्या फल ?क्लेश, दु:ख, क्षोभ कषायें। इनको भी चेतता है कि नहीं। चेतता है, तो कर्मफल चेतना हो गई। इस प्रकरण में साधारण चेतना कर्मचेतना और कर्मफलचेतना का प्रकरण नहीं है, यह अज्ञानी जीव का प्रकरण है। इसलिये यहाँ अज्ञानरूप ही कर्मचेतना लेना और अज्ञानरूप ही कर्मफल चेतना लेना।
पर को अपना लेने का महान् अपराध – भैया !किसी के घर कोई लड़ का नहीं है। बड़ी मौज से स्त्री पुरुष रहते हैं, धर्मसाधना करते हैं, कमायी अच्छी है, सुखपूर्वक रहते हैं, अच्छा समय बीत रहा है। जब उन्होंने किसी दूसरे के लड़के को अपना लिया गोद ले लिया, अपना सब कुछ लिख दिया तो जैसे ही दूसरे लड़के को अपनाया सो अपनाने के दिनों में तो बड़ी खुशी मानी, खुब बैंड बजे, नृत्य गान करवाया और कुछ समय बात कुछ कलह होने लगे, लड़ का अपनी चाल चलने लगा, सब वैभव अपना लिया, सब हथिया लिया। कुछ मनमोटाव हो गया, भेद हो गया। अब स्त्री पुरुष अपने में दु:खी हो रहे हैं, लड़ का अपनी चाल चल रहा है, लड़ का भी क्लेश मानने लगा। उन सब क्लेशों में मूल में अपराध क्या था ?अपना लिया, इतनी बात थी। उस के बाद फिर सारी बातें आती हैं। तो मूल में अपराध है पर को अपना लेने का एक महान् अपराध जिस के फल में ये हजारों कष्ट आ रहें हैं, अब अमुक में टोटा पड़ गया, इतनी टेक्स लगाली। अब अमुक डाकुवोंने यों हर लिया, बधुवों में इसी कारण झगड़े चल गये। रात दिन परेशानी। उन सब परेशानियों का मूल कितना है ?पर को अपना लेना। इतना ही मात्र तो अपराध है और झंझट यह सारे लग गए।
अज्ञान चेतना में प्रतिक्रियायें―यह अज्ञानचेतनारूप महा अपराध इन मोही जीवों के होता है और उनके इस अपराध के परिणाम में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होती हैं―एक कर्मचेतना और एक कर्मफलचेतना। जीवन में भी तो इन्हीं दो बातों के विसंबाद चलते हैं। एक काम करने पर और एक आराम भोगने पर। दो के सिवाय और क्या लड़ाई है घर में सो बतावो ?दो ही प्रकार के आशय लड़ाई के कारण बनते हैं। हमने इतना काम किया और यह दूसरा कुछ भी नहीं करता। हम थोड़ा ही आराम, श्रृंगार या भोग के साधन भोग पाते हैं और यह अधिक भोगता है, ऐसा आशय उठा करता है, जिस के फल में विवाद हो जाते हैं। सब जीव निरंतर अपने ही परिणमनरूप कर्मों को करते हैं और उन परिणमनों के फल निरंतर भोगा करते हैं। निश्चय से जिस क्षण में कर्म किया गया है उसी क्षण में कर्म का फल भोगा गया है।
कर्म और कर्मफल के समय की भिन्नता की दृष्टि―कर्म करने का क्षण और हो, कर्मफल भोगने का क्षण और हो यह व्यवहार नय दर्शन में ही संभव है जो अभी विभावपरिणाम किया उसपर दृष्टि न देकर उस के कारण जो कर्मबंध हुआ वह कर्म किया है, अब उस कर्म का फल कब मिलेगा जब कि स्थिति पड़ेगी, उदय आयेगा तब फल मिलेगा। किया आज है, फलमिलेगा आगे। यह व्यवहारनय का कथन है। निश्चय से तो जिस क्षण में किया उसी क्षण में फल मिलता है। किया क्या ?विभाव परिणाम और फल क्या मिला ?क्षोभ। देख लो विभावपरिणाम करने से क्षोभ मिलता है या नहीं। अरे, क्षोभ को उत्पन्न करता हुआ ही विभाव परिणमन हुआ करता है। कर्म और कर्मफल का भिन्न-भिन्न समय नहीं है। इस कर्मफलको, विभावपरिणाम को जो अपना बनाता है और उस निमित्तनैमित्तिक संबंध में जो कर्मबंध हुआ है उस के फल में भावी काल में भी फल भोगता है। यह अज्ञानचेतना ही हम सब लोगों के महासंकटों का मूल है। अन्य बातों की इतनी चिंता न करो। एक यह अवधारणा करो कि मैं अज्ञानचेतना को कैसे कब समाप्त कर दूं ?
अज्ञानचेतना का कर्मचेतनारूप अंकुर – अज्ञानचेतना के मूल आशय से कर्तृत्व का अथवा कर्मचेतना का आशय प्रकट हुआ है। कोई हो रहे वर्तमान विभावों को यह मैं हूँ ऐसा अपनाए वही कर्तृत्व बुद्धि बना सकता है। जि से यह स्पष्ट ज्ञात है कि मैं ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ, पुद्गल कर्मविपाक से उत्पन्न हुए भाव में नहीं हूँ, ऐसा जिस के मूल में भेदविज्ञान हुआ है वह परपदार्थों में कुछ करता हो, इस प्रकार का आशय कहाँ से लायेगा ?अब इस अज्ञान चेतना पर जीवित रहने वाले कर्मचेतना का स्वरूप अब आचार्य देव अगली गाथा में कह रहे हैं।