वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 394
From जैनकोष
गंधो णाणं णा हवइ जम्हा गंधो ण जणाए किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं गंधं जिणा विंति।।394।।
गंध और ज्ञान का व्यतिरेक – गंध ज्ञान नहीं होता है क्योंकि गंध कुछ जानता नहीं है। कैसा यह विषयों का खेल है कि अंतर में तो यह आत्मा है जो मात्र जाननहार है और ये विषय भी कितने सूक्ष्म हैं कि देखो गंध को कोई न पकड़े, न देखे, न दूसरे को दे दें, किंतु गंध के ये परमाणु नाक में प्रवेश करते हैं और नाक में किस जगह से बांस आने लगती है? कोई ऐसी एक जगह है थोड़ा अंदर में आंख से कुछ नीचे की जिस का स्पर्श होते ही गंध का ज्ञान होने लगता है। वह गंध पुद्गल द्रव्य का गुण है। पुद्गल की पर्याय है। बिल्कुल जुदा है।
गंध और गंधसंबंधित तत्त्वों से ज्ञान का व्यतिरेक ― भैया ! ज्ञान चेतन है, गंध अचेतन है। चेतन और अचेतन का तीन काल में भी मेल नहीं हो सकता अर्थात् वे कभी एक नहीं हो सकते। न गंधवान द्रव्य मैं हूँ, न गंध गुण मैं हूँ, न गंध पर्याय मैं हूँ, और गंध का जो ज्ञान किया जा रहा है द्रव्येंद्रिय भावेंद्रियरूप से गंधरूप से प्रतीत हो रहा है वह भी मैं नहीं हूँ। मैं सबको जानता हूँ, तिस पर भी मैं सर्वरूप नहीं हूँ। सर्व को जानकर भी मैं मैं ही रहता हूँ और सब सब ही रहते हैं, ऐसा तत्त्वभेद है। तो ज्ञेय और विषय का साथ है पर यह अपनी ही जगह पर पड़े-पड़े कल्पना कर के बेचैन होता है और अंतर में कितनी ही कल्पनाएँ बना डालता है।
भोग की व्यर्थता ― अरे इन विषयों के भोगने में क्या सुख है? लेकिन इस मोही जीव को भोगते समय बस वही-वही सार मालूम होता है, वही सुखमय प्रतीत होता है। खा चुकने के बाद फिर तो यह खबर आ सकती है कि न मिष्ठ खातेसाधारण खाते तो ठीक था, क्योंकि पेट में पहुंचने पर मीठा कड़वा सब बराबर। कोई चाहे बंदर और ऊँट की तरह पेट में से निकाल-निकालकर स्वाद लेते जाएँ। बंदर और ऊँट पेट में से नहीं निकालते किंतु वे दाढ़ के पास भर लेते हैं। थोड़ा तो हम आप भी भर लेते हैं पर ज्यादा नहीं, आधा कौर किसी दाढ़ के नीचे रख सकते हैं और धीरे-धीरे जरा-जरा खाकर स्वाद ले सकते हैं, पर इस बंदर का और ऊँट का बड़ा खजाना है दाढ़ के पास। वे तो इतना भर लेते हैं कि कहो बड़ी देर तक खाते रहें। ऐसा अगर पेट का हिसाब होता तो बड़ा अच्छा था, कैसे कि यहाँ खूब खाया और दो तीन दिन तक थोड़ा थोड़ा निकाल कर स्वाद लेते रहते। तो बतलाओ भोग भोगने के बाद फिर क्या है? भोगा और न भोगा बराबर है। बल्कि भोगों में पछतावा ही रहता है।
भोग से बरबादी - भैया ! भोग को भोगने की स्थिति तो सुहावनी मालूम होती है, उस समय तो सुहाना लगता है पर बाद में उन से विपदा ही आती है। पर की ओर दृष्टि है सो बेचैनी बराबर चलती रहेगी। अपने को भूले हुए हैं। वस्तुत: पदार्थ तो अलग ही पड़े रहते हैं, पर मोह की इतनी तीव्रता है कि कुछ भी ख्याल नहीं है। सो उसी का स्वाद लेते हैं और उसमें आसक्त रहते हैं। यह गंध ज्ञान नहीं है। कैसा गंध का शौक है, बना बनाकर अच्छे तैल मिलाए। कुछ ऐसे कागज भी बन गये हैं कि जेब में धर लिया और खुशबू ले रहे हैं। कितने श्रृंगार के साधन बने हैं कि जरा सी नाक में बदबू आ जाय, इसके लिये ना जाने क्या क्या करते हैं? इसके बाद मिलता कुछ भी नहीं । खुशबू से स्वास्थ्य नहीं बढ़ता, बल्कि कहीं खुशबू ऐसी तेज होती है कि जिस में रहकर कहो दुर्बलता आ जाय। जो गंधीगर होते हैं वे देखो खुशबू में ही बने रहते हैं पर उनका चेहरा मुरझाया बना रहता है। इस जीव को उस से लाभ क्या है? हो गया सामान्यतया ठीक है। स्वच्छ हवा होनी चाहिए। पर कितना उस ओर लोग आसक्त रहते कि उन भिन्न भिन्न प्रकार के तालों से अपनी अलमारी सजा देते हैं।
यह गंध ज्ञान नहीं है और गंध विषय का जो विकल्प हो जाये वह भी ज्ञान ज्ञान नहीं है, किंतु ज्ञान ने जो ज्ञानवृत्ति की है वह ज्ञान है। गंध अन्य चीज है और ज्ञान अन्य चीज है। चेतन और अचेतन का मेल क्या है? इस ही प्रकार रस गुण की बात है।