वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 395
From जैनकोष
ण रसो हु हवदि णाणं जम्हा दु रसो ण याणए किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं रसं य अण्णं जिणा विंति ।।395।।
रस और ज्ञान में व्यतिरेक ― रस ज्ञान नहीं होता है क्योंकि रस जानता कुछ नहीं है। यह मोही जीव रस लेते समय इसको कुछ नहीं जानता किंतु कल्पना से रस में एकमेक बनकर एक कल्पित सुख का अनुभव लूटा करता है। उसे यह खबर नहीं है कि यह रस गुण भिन्न चीज नहीं है और यह मैं अनुभवन वाला, स्वाद लेने वाला, ज्ञान करने वाला कोई भिन्न वस्तु हूँ। आत्मा में है ज्ञान रस। इसने अपने ज्ञानरस को खो दिया है और यह पौद्गलिक रसों का भिखारी बन गया है।
संतोषरूप भोजन रस का महत्व ―भैया ! धैर्य हो तो रूखा सूखा भोजन हो, उसमें भी स्वाद है, रसवान हो तो उसमें भी उतना ही स्वाद है। विवेक और धैर्य हो तो दोनों के स्वादों में समता रहती है कभी बड़े साधुजन रूखे सूखे चौके में आहार कर जाय तो बताया है कि रूखा भोजन भी रसीला हो जाता है। जो खायेगा उसे ही उसमें रस मालूम होता है और ऋद्धि में तो घृत और दुग्ध का भी स्वाद आने लगता है। भावों का भी बड़ा महत्व है। तृष्णा हो तो उसे रसीले भोजन में भी संतोष नहीं और न तृष्णा हो तो साधारण भोजन में भी संतोष होता है। रही स्वास्थ्य की बात। बोलते हैं आजकल फला विटामिन खावो। अरे संतोषपूर्वक कुछ भी खावो उस से स्वास्थ्य बनेगा। कोई विटामिन की तृष्णा से खूब बादाम चबा डाले तो दूसरे ही दिन उसे सब कसर मालूम पड़ जायेगी। पेट दर्द हो जायेगा। संतोषपूर्वक जो भी खाने में आता है उसमें ही स्वास्थ्य बढ़िया हो जाता है।
विवेकी के रस में अनासक्ति ―रस रस की जगह है, आत्मा आत्मा की जगह है, रस पुद्गल द्रव्य का गुण है। रस पुद्गल की पर्याय है, उस से आत्मा का संबंध नहीं है और विटामिन तो कभी कभी लंघन भी बन जाती है। वैध दवा देते हैं तो कहते हैं कि भोजन न खाना। न खाया तो लो वह लंघन शक्तिदायक हो गई, विटामिन बन गया। ठीक हो गया। तो प्रकृति से रहने पर और साधारण रहन-सहन और भोजनादिक में वे सब तत्त्व बने हुए हैं जो इसको अपने स्वास्थ्य के लिये चाहियें। रस की आसक्ति भी इतनी कठिन आसक्ति है कि उतने समय में निज स्वरूप के स्मरण की पात्रता नहीं रहती है।
ज्ञानी की दृष्टि में भोजन एक संकट ―भैया ! भोजन से पहिले लोग णमोकार मंत्र पढ़ते हैं और बाद में भी पढ़ते हैं। तो ज्ञानीजन तो इसलिए णमोकार मंत्र पढ़ते हैं कि भोजन करने की आफत में हम पड़ रहे हैं, जहाँ हम अपने आप को भूल जायेंगे, इसलिए भगवान का यहाँ स्मरण किया जा रहा है कि मैं वहाँ भी अपना लक्ष्य बनाये रहूं। उसकी रस में आसक्ति नहीं होती, परंतु शायद मोहीजन इसलिए पढ़ते होंगे कि हे भगवान तुम्हारे प्रसाद से बढ़िया हलुवा पूड़ी मिले। अंत में भी ज्ञानी यह समझ कर णमोकार मंत्र पढ़ता है कि यह मुझ से दोष बना है, सो माफ हो और अज्ञानी भगवान को शायद आशीर्वाद देने के लिये पढ़ता होगा कि हे भगवन् ! आप का नाम लेने पर मुझे स्वादिष्ट भोजन मिला है। तो रस ज्ञान नहीं है, रस अन्य है, ज्ञान अन्य है, ऐसा संत जन कहते हैं।
ज्ञान में रस का अत्यंताभाव ―ज्ञान रस नहीं है। रस पुद्गलद्रव्य से भिन्न है। रस गुण आत्मा में नहीं पाया जाता है। पुद्गलद्रव्य से यह ज्ञानमय आत्मतत्त्व अन्य है। आत्मा में तो ज्ञानगुण है जो कि पुद्गलद्रव्य के रसगुण से अत्यंत जुदा है। जिस समय यह जीव, मोही पुरुष किसी फल में रस का स्वाद लेता है वहाँ यद्यपि यह उपयोग में एकमेक बनाता है, लेकिन निरंतर रस अपने द्रव्य में ही तन्मय है और ज्ञान अपने ही द्रव्य में तन्मय है। जैसे अपने-अपने शरीर की कैद में कैदी होने पर भी प्रेमी लोग अपना उपभोग दूसरों में डालते हैं और दूसरे को अपने में एकमेक मानते हैं, याने फिर भी उनका कैदखाना न्यारा-न्यारा है। इस प्रकार यह ज्ञानगुण अपने स्वरूप में केंद्रित है। यह परवस्तु में अपना उपयोग देकर चाहे अपने को रीता मान ले और पर में गया हुआ मान लें, फिर भी ज्ञान अपने स्रोतभूत अपने आत्मा में ही रहता है और रस अपने स्त्रोतभूत पुद्गल में ही रहता है।
ज्ञान के रस का स्वामित्व, अधिकारित्व व भोक्तृत्व का अभाव ―यह रस का स्वामी भी नहीं है, फिर यह रस कैसे बने? रस का स्वामी वह है जिसमे रस शाश्वत रहे। रस गुण आत्मा से नहीं परिणमता है और आत्मा में शाश्वत रहने का तो कोई सवाल ही नहीं है। यह रस द्रव्येंद्रिय के द्वारा जाना जाता है। इतने मात्र से कहीं रस ज्ञान नहीं बन जाता। द्रव्येंद्रिय भी अचेतन है, रस भी अचेतन है, ज्ञान चेतन है, यह न्यारा है और रस न्यारा है। यह ज्ञानरस का ज्ञान करता है। इस कारण रस को ज्ञानरूप मानने का भ्रम लग गया तो वह भी एक व्यामोह है। क्या यह आत्मा केवल रस को ही जानता है? यह तो अन्य सब ज्ञेयों को भी जानता है, यह तो शुद्धात्मक हो गया। सब को जानकर भी उन रूप परिणमता नहीं है। ज्ञानरस को जानकर भी रसरूप परिणमता नहीं है। जैसे हमने चौ की को जान लिया तो क्या हम चौकीरूप परिणम गए? नहीं। तब चौकी, चौ की है और ज्ञान, ज्ञान है। इसी तरह रस, रस है और ज्ञान, ज्ञान है।
पुद्गल के गुण का आत्मगुणत्व होने का त्रिकाल अभाव ―भैया ! यह रस कुछ जानता नहीं है। इस कारण रस ज्ञानगुण नहीं हो सकता। ऐसा जिनेंद्रदेव के आगम में बताया गया है। और कुछ प्रज्ञा का उपयोग करे तो यह बात अपने को भी विदित हो जाती है कि पुद्गल का गुण पुद्गल को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं रहता है। तब पुद्गल का रस गुण ज्ञान में अथवा ज्ञानी में कैसी चला जायेगा? ज्ञान रस के आकार को ग्रहण करता है पर रसरूप नहीं हो जाता। न रस ज्ञान में आता है और न ज्ञान रस में जाता है। इस मर्म का मोही जीव को कुछ पता नहीं है। वह तो खाता हुआ अपने सारे अंगों को टन्नाकर एक चित्त होकर मस्त रहता है, ओह मैंने बहुत मिष्ट भोजन किया। ज्ञानी की बात को अज्ञानी कहाँ पा सकता है ज्ञानी रस का ज्ञान करता हुआ भी रस में अनासक्त है और अपने आत्मा की रुचि में अंतर नहीं डालता है। जबकि अज्ञानी जीव भूतकाल के भोगे हुए रस में भी शान बगराता है और वर्तमान काल के रस को भोगता हुआ अपना बड़प्पन मानता है और भावी काल के भोग के ख्याल में अपने वर्तमान समय का भी दुरुपयोग करता है।
ज्ञानी और अज्ञानी के आशय का आहारविषयक अंतर ―देखा होगा जिन के खाने की बड़ी तीव्र रुचि है उनके घर में बस खाने ही खाने का सारा कार्यक्रम रहता है। खाना तो जिंदगी को रखने के लिए है ओर जिंदगी धर्म की साधना के लिए है और धर्म की साधना शरीर के सारे संकट और अशुद्धियों को मिटाने के लिए है। एक वह पुरुष है जो जो जीने के लिए खाता है और एक ऐसा पुरुष जो खाने के लिए जी रहा है। इस आत्मा के और उस आत्मा के आशय में कितना अंतर है? यहाँ वस्तुस्वरूप को स्वतंत्रता की दृष्टि से निरखें तो रस रस में है, ज्ञान ज्ञान में है, रस ज्ञान गुण नहीं होता
अब यह बतलाते हैं कि यह रस ज्ञान नहीं है, ऐसे ही स्पर्श भी ज्ञान नहीं है। किसी इष्ट और अनिष्ट स्पर्श को छूकर तुरंत ही यह जीव ज्ञान करता है और अज्ञान में स्पर्श और ज्ञान का विवेक नहीं कर पाता। यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि स्पर्श भी ज्ञान नहीं हैं।